इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्। मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि।।11.7।।
ihaika-sthaṁ jagat kṛitsnaṁ paśhyādya sa-charācharam mama dehe guḍākeśha yach chānyad draṣhṭum ichchhasi
Now, behold, O Arjuna, in this My body, the entire universe centered in one, including the moving and the unmoving, and whatever else you desire to see.
11.7 इह in this? एकस्थम् centred in one? जगत् the universe? कृत्स्नम् whole? पश्य behold? अद्य now? सचराचरम् with the moving and the unmoving? मम My? देहे in body? गुडाकेश O Gudakesa? यत् whatever? च and? अन्यत् other? द्रष्टुम् to see? इच्छसि (thou) desirest.Commentary Anyat Other whatever else. Your success or defeat in the war? about which you,have entertained a doubt. (Cf.II.6)
।।11.7।। व्याख्या--गुडाकेश'--निद्रापर अधिकार प्राप्त करनेसे अर्जुनको 'गुडाकेश' कहते हैं। यहाँ यह सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि तू निरालस्य होकर सावधानीसे मेरे विश्व-रूपको देख।
।।11.7।। प्रथम तो भगवान् उत्साही साधक के साहसी मन को इसके लिए प्रशिक्षित करते हैं कि उसमें जानने की उत्सुकता रूपी अक्षय धन का विकास हो। तत्पश्चात् उनका प्रयत्न है कि यह उत्सुकता तीव्र उत्कण्ठा या जिज्ञासा में परिवर्तित हो जाये। इसके लिए ही वे विश्वरूप में दर्शनीय रूपों का उल्लेख करते हैं। इस युक्ति से साधक का मन पूर्ण उत्कटता से एक ही स्थान पर केन्द्रित हो जाता है। यही इस श्लोक का प्रयोजन है। ध्यानपूर्वक इस श्लोक पर विचार करने से ज्ञात होगा कि यहाँ व्यासजी ने भक्तिशास्त्र में वर्णित भक्ति की रूपरेखा दी है।इहैकस्थम् का अर्थ है यहाँ इसी एक स्थान पर। इन शब्दों के द्वारा श्रीकृष्ण सम्पूर्ण चराचर (जड़ चेतन) जगत को अपने शरीर में दर्शाते हैं। श्रीकृष्ण स्वयं ही इह शब्द को स्पष्ट करते हुए कहते हैं? मेरे शरीर में। सम्पूर्ण चराचर सहित भौतिक जगत् को दबाकर श्रीकृष्ण की देहाकृति में स्थित हुआ दिखलाना था। जैसा कि हम इस अध्याय की प्रस्तावना में देख चुके हैं कि अर्जुन के मन से देश की कल्पना को सर्वथा मुक्त नहीं किया गया था? किन्तु केवल भगवान् श्रीकृष्ण के परिच्छिन्न देह के तुल्य समष्टि आकाश की कल्पना को उसके मन में शेष रखा था। इस मन के द्वारा जब अर्जुन बाहर देखता है? तो उसे भगवान् के शरीर में ही सम्पूर्ण विश्व अपने व्ाविध विस्तार को यथावत् रखते हुए लघु रूप में दिखाई देता है।यद्यपि चराचर शब्द का अर्थ इतना व्यापक है कि उसके उल्लेख से सम्पूर्ण विश्व का निर्देश हो जाता है? किन्तु फिर भी अर्जुन का उत्साह बढ़ाने के लिए वे कहते हैं? और भी जो कुछ तुम देखना चाहते हो? उसे भी देखो। मानव के विशिष्ट स्वभाव के अनुसार अर्जुन का मन अपनी तात्कालिक समस्याओं से चिन्तातुर था? अत स्वाभाविक ही है कि उसकी उत्सुकता भविष्य की घटनाओं को जानने की थी। प्रारम्भ मे उसका प्रयत्न समस्या के समाधान को देखने के लिए अधिक था और अनेकता में व्याप्त एकत्व का साक्षात्कार करने के लिए कम।विभूतियोग के अध्याय में एक परमात्मा को सब में दिखाया गया था? और यहाँ सब को एक परमात्मा में दिखाया जानेवाला है
।।11.7।।न केवलमादित्यवस्वाद्येव मद्रूपं त्वया द्रष्टुं शक्यं किंतु समस्तं जगदपि मद्देहस्थं द्रष्टुमर्हसीत्याह -- नेत्यादिना। सप्तमीद्वयं मिथः संबध्यते। समासान्तर्गतापि सप्तमी तत्रैवान्विता। यदीच्छसि तर्हीहैव पश्येति संबन्धः।
।।11.7।।न केवलमेतावदेवापितु इह मम देहे एकस्थं एकस्मिन्नवयवे स्थितं सर्वं जगत्स्थावरजंगमसहितमद्येदानीं पश्य। यच्चान्यज्जयपराजयादि द्रष्टुमिच्छति तदपि। यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुरिति संदेहापनुत्तये पश्य। यच्चान्यज्जगदाश्रय भूतं कारणस्वरुपं जगतश्चावस्थाविशेषादिकं अतीतमनागतं विप्रकृष्टं व्यवहितं स्थूलं सूक्ष्मं चेति आदिशब्दार्थः। हे गुडाकेशेति संबोधयन् द्रष्टुं सावधानो भवेति सूचयति।
।।11.7।।हे गुडाकेश जितनिद्र? इह मम देहे एकस्थं एकस्मिन्नेवावयवे नखाग्रमात्रे स्थितं कृत्स्नं वर्तमानं जगत्पश्य। यच्चान्यत् अतीतमनागतं विप्रकृष्टं व्यवहितं स्थूलं सूक्ष्मं वा तत्सर्वमिह पश्य।
।।11.7।।इह माम एकस्मिन् देहे तत्र अपि एकस्थम् एकदेशस्थं सचराचरं कृत्स्नं जगत् पश्य। यत् च अन्यद् द्रष्टुम् इच्छसि तद् अपि एकदेहैकदेशे एव पश्य।
।।11.7।। किंच -- इहेति। तत्र तत्र परिभ्रमता वर्षकोटिभिरपि द्रष्टुमशक्यं कृत्स्नमपि चराचरसहितं जगदिहास्मिन्मम देहेऽवयवरूपेणैकत्रैव स्थितमद्याधुनैव पश्य। यच्चान्यज्जगदाश्रयभूतं कारणस्वरूपम्। जगतश्चावस्थाविशेषादिकम्। जयपराजयादिकं च यदप्यन्यद्द्रष्टुमिच्छसि तत्सर्वं पश्य।
।।11.7।।इहदेहे इत्येकवचनान्तनिर्देशेनैव प्रदर्शयिष्यमाण एको देहो विवक्षित इत्यभिप्रायेणाह -- इह ममैकस्मिन्देह इति। एकवचनेन प्रदर्शयिष्यमाणविशेषनिर्देशेन च देहैकत्वस्याभिमतत्वादेकस्थपदेन तदेकदेशे स्थितिर्विवक्षिता। एकस्यावयविनोऽवयवभूतमिति कैश्चिदुक्तं तु भगवद्विग्रहस्य अप्राकृतत्वसमर्थनाच्च निरस्तमित्यभिप्रायेणोक्तंतत्राप्येकस्थमेकदेशस्थमिति। यद्वा कृत्स्नस्य एकस्थत्ववचनात्तदेकदेशस्थितिः फलिता।यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि इत्यनेन पाण्डवधार्तराष्ट्रजयादिकमपि गर्भितम्। तत्रापि समुच्चयसामर्थ्याद्देहैकदेशाश्रितत्वमाह -- तदपीति।
।।11.7।।No commentary.
।।11.7।।न केवलमेतावदेव समस्तं जगदपि मद्देहस्थं द्रष्टुमर्हसीत्याह -- इहेति। इहास्मिन्मम देहे एकस्थं एकस्मिन्नेवावयवरूपेण स्थितं जगत् कृत्स्नं समस्तं सचराचरं जङ्गमस्थावरसहितं तत्र तत्र परिभ्रमता वर्षकोटिसहस्रेणापि द्रष्टुमशक्यं अद्याधुनैव पश्य। हे गुडाकेश? यच्चान्यज्जयपराजयादिकं द्रष्टुमिच्छसि तदपि संदेहोच्छेदाय पश्य।
।।11.7।।किञ्च -- इहेति। कोटिजन्मभिरपि सम्पूर्णं द्रष्टुमशक्यं कृत्स्नं समस्तं जगत् विरुद्धत्वेन परिदृश्यमानमपि मम देहे एकस्थमेकत्र स्थितं सचराचरं जडजीवसहितं इह अस्मिन्नेव जन्मनि। अद्य तत्कालमेव यच्च अन्यत् सर्वेषां विभूतित्वेन कथं मारयामीति विचारेण मरणमारणादिरूपं यत् द्रष्टुमिच्छसि तत्पश्य।
।।11.7।। -- इह एकस्थम् एकस्मिन्नेव स्थितं जगत् कृत्स्नं समस्तं पश्य अद्य इदानीं सचराचरं सह चरेण अचरेण च वर्तते मम देहे गुडाकेश। यच्च अन्यत् जयपराजयादि? यत् शङ्कसे? यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः (गीता 2।6) इति यत् अवोचः? तदपि द्रष्टुं यदि इच्छसि।।किन्तु --,
।।11.7।।किञ्चेहास्मिन्नक्षरस्वरूपे कृत्स्नं जगदेकस्थं पश्येत्यनेनविष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् [10।42] इति समर्थितम्। मम स्वरूपभूतेऽक्षरे देहे जगत्कृत्स्नमित्युक्त्वा प्रत्यक्षजगद्दर्शनेनालीकत्वं च निरस्तम्। नहि तदो(दु) पदेष्टुर्भ्रमः कदाचिद्वक्तुं शक्यते? आनर्थक्यप्रसङ्गात् अतएव व्यास आह -- नाभाव उपलब्धेःवैधर्म्याच्च न स्वप्नादिवत् [ब्र.सू.2।2।28?29] इति।मम देहे इति स्वदेहभूतस्य भूतस्य प्रपञ्चाश्रयत्वमुक्तं यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि तत्सर्वं पश्य।