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As Krishna says, patience is a virtue
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः। तथैव नाशाय विशन्ति लोका स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः।।11.29।।
yathā pradīptaṁ jvalanaṁ pataṅgā viśhanti nāśhāya samṛiddha-vegāḥ tathaiva nāśhāya viśhanti lokās tavāpi vaktrāṇi samṛiddha-vegāḥ
As moths hurriedly rush into a blazing fire, leading to their own destruction, so too these creatures hurry into Your mouths, leading to their own destruction.
11.29 यथा as? प्रदीप्तम् blazing? ज्वलनम् fire? पतङ्गाः moths? विशन्ति enter? नाशाय to destruction? समृद्धवेगाः with ickened speed? तथा so? एव only? नाशाय to destruction? विशन्ति enter? लोकाः creatures? तव Thy? अपि also? वक्त्राणि mouths? समृद्धवेगाः with ickened speed.No Commentary.
।।11.29।। व्याख्या--यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः--जैसे हरी-हरी घासमें रहनेवाले पतंगे चातुर्मासकी अँधेरी रात्रिमें कहींपर प्रज्वलित अग्नि देखते हैं, तो उसपर मुग्ध होकर (कि बहुत सुन्दर प्रकाश मिल गया, हम इससे लाभ ले लेंगे, हमारा अँधेरा मिट जायगा) उसकी तरफ बड़ी तेजीसे दौड़ते हैं। उनमेंसे कुछ तो प्रज्वलित अग्निमें स्वाहा हो जाते हैं; कुछको अग्निकी थोड़ी-सी लपट लग जाती है तो उनका उड़ना बंद हो जाता है और वे तड़पते रहते हैं। फिर भी उनकी लालसा उस अग्निकी तरफ ही रहती है! यदि कोई पुरुष दया करके उस अग्निको बुझा देता है तो वे पंतगे बड़े दुःखी हो जाते हैं कि उसने हमारेको बड़े लाभसे वञ्चित कर दिया! तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समुद्धवेगाः --भोग भोगने और संग्रह करनेमें ही तत्परतापूर्वक लगे रहना और मनमें भोगों और संग्रहका ही चिन्तन होते रहना -- यह बढ़ा हुआ सांसारिक वेग है। ऐसे वेगवाले दुर्योधनादि राजालोग पंतगोंकी तरह बड़ी तेजीसे कालचक्ररूप आपके मुखोंमें जा रहे हैं अर्थात् पतनकी तरफ जा रहे हैं--चौरासी लाख योनियों और नरकोंकी तरफ जा रहे हैं। तात्पर्य यह हुआ कि प्रायः मनुष्य सांसारिक भोग, सुख, आराम, मान, आदर आदिको प्राप्त करनेके लिये रात-दिन दौड़ते हैं। उनको प्राप्त करनेमें उनका अपमान होता है, निन्दा होती है, घाटा लगता है, चिन्ता होती है, अन्तःकरणमें जलन होती है और जिस आयुके बलपर वे जी रहे हैं, वह आयु भी समाप्त होती जाती है, फिर भी वे नाशवान् भोग और संग्रहकी प्राप्तिके लिये भीतरसे लालायित रहते हैं (टिप्पणी प0 593)। सम्बन्ध--पीछेके दो श्लोकोंमें दो दृष्टान्तोंसे दोनों समुदायोंका वर्णन करके अब सम्पूर्ण लोकोंका ग्रसन करते हुए विश्वरूप भगवान्के भयानक रूपका वर्णन करते हैं।
।।11.29।। अव्यक्त से व्यक्त हुई सृष्टि के बीच की एकता को? समुद्र से उत्पन्न हुई नदियों की उपमा के द्वारा अत्यन्त सुन्दर शैली द्वारा पूर्व श्लोक में दर्शाया गया है। समुद्र से उत्पन्न होकर समस्त नदियां पुन उसी में समा जाती हैं।कोई भी उपमा अपने आप में पूर्ण नहीं हो सकती है। नदियों के दृष्टान्त में एक अपूर्णता यह रह जाती है कि नदी को स्वयं की चेतना नहीं होने के कारण समुद्र मिलन में उसकी स्वेच्छा नहीं प्रदर्शित होती। कोई शंका कर सकता है कि सम्भवत चेतन प्राणी अपने स्वतन्त्र विवेक के कारण अचेतन जल के समान व्यवहार नहीं करेंगे। यहाँ यह दर्शाने के लिए कि जीवधारी प्राणी भी अपने स्वभाव से विवश हुए मृत्यु के मुख की ओर बरबस खिंचे चले जाते हैं? यह दृष्टान्त दिया गया है कि जैसे पतंगें अत्यन्त वेग से स्वनाश के लिए प्रज्वलित अग्नि के मुख में प्रवेश करते हैं। व्यासजी को सम्पूर्ण प्रकृति ही धर्मशास्त्र की खुली पुस्तक प्रतीत होती है। वे अनेक घटनाओं एवं उदाहरणों के द्वारा इन्हीं मूलभूत तथ्यों को समझाते हैं कि अव्यक्त का व्यक्त अवस्था में प्रक्षेपण ही सृष्टि की प्रक्रिया है? और व्यक्त का अपने अव्यक्त स्वरूप में मिल जाना ही नाश या मृत्यु है। जब हम इस भयंकर या राक्षसी प्रतीत होने वाली मृत्यु को यथार्थ दृष्टिकोण से समझने का प्रयत्न करते हैं? तब वह छद्मवेष को त्यागकर अपने प्रसन्न और प्रफुल्ल मुख को प्रकट,करती है।अर्जुन के मानसिक तनाव का मुख्य कारण यह था कि उसने कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि पर होने वाले बहुत बड़े नाश का शीघ्रतावश त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन कर लिया था। उसके उपचार का एकमात्र उपाय यही था कि उसकी दृष्टि उस ऊँचाई तक उठाई जाये? जहाँ से वह? एक ही दृष्टिक्षेप में? मृत्यु की इस अपरिहार्य प्रकृतिक घटना को देख और समझ सके। श्रीकृष्ण ने उसका यही उपचार किया। किसी भी घटना का समीप से पूर्ण अध्ययन करने पर उसके भयानक फनों के विषदन्त दूर हो जाते हैं जब मनुष्य की विवेकशील बुद्धि अज्ञान से आवृत्त हो जाती है? केवल तभी उसके आसपास होने वाली घटनाएं उसका गला घोंटकर उसे धराशायी कर देती हैं। जैसे नदियां समुद्र में तथा पतंगे अग्नि के मुख में तेजी से प्रवेश करते हैं? वैसे ही सभी रूप अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं। मृत्यु की घटना को इस प्रकार समझ लेने पर मनुष्य उससे भयमुक्त होकर अपने जीवन का सामना कर सकता है? क्योंकि उसके लिए सम्पूर्ण जीवन का अर्थ परिवर्तनों की एक अखण्ड धारा हो जाती है।इसलिए? काल की क्रीड़ा के रूप में मृत्यु एक डंकरहित घटना बन जाती है। अगले श्लोक में इस मृत्यु को उसके सम्पूर्ण भयंकर सौन्दर्य के साथ गौरवान्वित किया गया है
।।11.29।।प्रवेशप्रयोजनं तत्प्रकारविशेषं चोदाहरणान्तरेण स्फोरयति -- ते किमर्थमित्यादिना।
।।11.29।।अम्बुवेगाः समुद्रं विशन्ति नतु जलभावविनाशं प्राप्नुवन्ति। एते तु नाशाय प्रविशन्तीत्यतो दृष्टान्तान्तरमाह। यथा प्रदीप्तमग्निं पतङ्गाः क्षुद्रपक्षिविशेषाः समृद्धवेगा विनाशाय विशन्ति तथैव समृद्धवेगा लोकाः प्राणिनः तवापि मुखानि विनाशाय विशन्ति।
।।11.29।।बुद्धिपूर्वकमेव ते त्वद्वक्त्राणि प्रविशन्तीति सदृष्टान्तमाह -- यथा प्रदीप्तमिति।
।।11.29।।एते राजलोका बहवो नदीनाम् अम्बुप्रवाहाः समुद्रम् इव प्रदीप्तज्वलनम् इव च शलभाः तव वक्त्राणि अभिविज्वलन्ति स्वयम् एव त्वरमाणा आत्मनाशाय विशन्ति।
।।11.29।। अवशत्वेन प्रवेशे नदीवेगो दृष्टान्त उक्तः। बुद्धिपूर्वकप्रवेशे दृष्टान्तमाह -- यथेति। प्रदीप्तं ज्वलनमग्निं पतङ्गाः सूक्ष्मपक्षिविशेषाः बुद्धिपूर्वकं समृद्धो वेगो येषां ते यथा नाशाय मरणायैव विशन्ति तथैव लोका एते जना अपि तव मुखानि प्रविशन्ति।
।। 11.29 त्वरमाणाः [11।27] इत्युक्तस्वव्यापारमूलविनाशत्वे? सर्वेषां चैकस्मिन्नेवोपसंहारे तस्य चैकस्य सर्वसंहारानुगुणसामान्याकारेणावस्थानमात्रे च दृष्टान्तद्वयं श्लोकद्वयेनोच्यते -- यथेति। पाण्डवादीनां सर्वेषामपि विनाशानभिधानाज्जगत्प्रतपन्तीत्येतावन्मात्रस्य चानन्तरमुक्तेःनरलोकवीराः इत्युक्त एवार्थोलोकाः इत्युक्त इत्यभिप्रायेणएते राजलोका इति सङ्कलय्य कथितम्।अम्बुवेगाः इत्यत्र वेगशब्दस्यात्र वेगवद्विषयत्वव्यञ्जनाय प्रवाहशब्दः। पतङ्गशब्दस्यानेकार्थस्यात्र शकुन्तादिविषयत्वव्यावर्तनायशलभा इत्युक्तम्।अभिविज्वलन्ति इति पदं पूर्वश्लोकस्थमपि समनन्तरश्लोकगतज्वलनदृष्टान्तौपयिकमिति व्यञ्जनाय ज्वलनदृष्टान्तादनन्तरं पठितम्।समृद्धवेगाः इत्येतत्प्रागुक्तत्वरमाणपदसमानार्थमित्यभिप्रेत्यस्वयमेव त्वरमाणा इत्युक्तम्। पतङ्गानां प्रदीपादिषु पक्षवेगादिभिर्नाशकत्वस्यापि सम्भवात्तद्व्यवच्छेदःप्रदीप्तज्वलनम् इति वचनेन विवक्षित इति व्यञ्जनायआत्मनाशायेत्युक्तम्। नदीप्रवाहस्य नाशो नाम पृथग्भूतप्रवाहाकारत्यागः येन नदीप्रवाहव्यपदेशस्तस्मिन्नेव द्रव्ये निवर्तते पतङ्गानां तु द्रव्यान्तरव्यपदेशयोग्यभस्मताद्यापत्तिरिति प्रकारभेदप्रदर्शनाय दृष्टान्तद्वयाभिधानम्। यद्वा स्वेच्छया निवर्तितुमशक्यमित्येवमभिप्रायः प्रवाहदृष्टान्तः तथाविधस्य विनाशस्य स्वेच्छामूलव्यापारहेतुकत्वव्यञ्जनाय पतङ्गदृष्टान्तः। ईश्वरस्यापि च सर्वप्रवेशेऽप्यपरिपूर्णत्वविवक्षया समुद्रनिदर्शनम्? सहसा विध्वंसनाय तु ज्वलनोदाहरणम्।
।।11.29।।No commentary.
।।11.29।।अबुद्धिपूर्वकप्रवेशे नदीवेगं दृष्टान्तमुक्त्वा बुद्धिपूर्वकप्रवेशे दृष्टान्तमाह -- यथा प्रदीप्तमिति। यथा पतङ्गाः शलभाः समृद्धवेगाः सन्तो बुद्धिपूर्वं प्रदीप्तं ज्वलनं विशन्ति नाशाय मरणायैव तथैव नाशाय विशन्ति लोका एते दुर्योधनप्रभृतयः सर्वेऽपि तव वक्त्राणि समृद्धवेगाः बुद्धिपूर्वमनायत्या।
।।11.29।।नदीदृष्टान्ते प्रकटतया नाशो न दृश्यत इति नाशार्थप्रवेशे दृष्टान्तान्तरमाह -- यथेति। यथा पतङ्गाः सूक्ष्मकीटाः शलभाः स्वपक्षवेगमदावलिप्ताः नाशाय मरणार्थं प्रदीप्यमानं ज्वलनमग्निं विशन्ति तथैव समृद्धवेगाः मदावलिप्ता एते लोकाः पूर्वोक्ता नाशाय मरणाय तवापि वक्त्राणि विशन्ति।
।।11.29।। --,यथा प्रदीप्तं ज्वलनम् अग्निं पतङ्गाः पक्षिणः विशन्ति नाशाय विनाशाय समृद्धवेगाः समृद्धः उद्भूतः वेगः गतिः येषां ते समृद्धवेगाः? तथैव नाशाय विशन्ति लोकाः प्राणिनः तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः।।त्वं पुनः --,
।।11.28 -- 11.29।।यथा नदीनामिति। अम्बुवेगाः समुद्रमिव ते वक्त्राण्यभिमुखं तत्रैव चेमे नरलोकवीरा नाशाय विशन्ति।