द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथाऽन्यानपि योधवीरान्। मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।।11.34।।
droṇaṁ cha bhīṣhmaṁ cha jayadrathaṁ cha karṇaṁ tathānyān api yodha-vīrān mayā hatāṁs tvaṁ jahi mā vyathiṣhṭhā yudhyasva jetāsi raṇe sapatnān
Drona, Bhishma, Jayadratha, Karna, and other brave warriors have already been slain by Me; do not be distressed with fear; fight and you shall conquer your enemies in battle.
11.34 द्रोणम् Drona? च and? भीष्मम् Bhishma? च and? जयद्रथम् Jayadratha? च and? कर्णम् Karna? तथा also? अन्यान् others? अपि also? योधवीरान् brave warriors? मया by Me? हतान् slain? त्वम् thou? जहि do kill? मा not? व्यथिष्ठाः be distressed with fear? युध्यस्व fight? जेतासि shall coner? रणे in the battle? सपत्नान् the enemies.Commentary Already slain by Me Therefore? O Arjuna? you need not be afraid of incurring sin by killing them.Drona had celestial weapons. He was Arjunas teacher in the science of archery. He was Arjunas beloved and greatest Guru. Bhishma also possessed celetial weapons. He could die only if and when he wanted to die. He once faught singlehanded with Lord Parasurama and was not defeated. So powerful was he.The father of Jayadratha performed penance with a resolve the head of the man who may cause the head of my son to fall on the ground? shall also fall. During the war? however? Arjunas arrow cuts the head and drops it on the lap of the father who? inadvertently? makes it fall on the ground he too dies at once. Karna? the son of the Sungod? had obtained an unerring missile from Indra.
।।11.34।। व्याख्या--'द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् मया हतांस्त्वं जहि'--तुम्हारी दृष्टिमें गुरु द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म, जयद्रथ और कर्ण तथा अन्य जितने प्रतिपक्षके नामी शूरवीर हैं, जिनपर विजय करना बड़ा कठिन काम है (टिप्पणी प0 597), उन सबकी आयु समाप्त हो चुकी है अर्थात् वे सब कालरूप मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। इसलिये हे अर्जुन ! मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीरोंको तुम मार दो। भगवान्के द्वारा पूर्वश्लोकमें 'मयैवैते निहताः पूर्वमेव' और यहाँ 'मया हतांस्त्वं जहि' कहनेका तात्पर्य यह है कि तुम इनपर विजय करो, पर विजयका अभिमान मत करो; क्योंकि ये सब-के-सब मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं।'मा व्यथिष्ठा युध्यस्व'--अर्जुन पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्यको मारनेमें पाप समझते थे, यही अर्जुनके मनमें व्यथा थी। अतः भगवान् कह रहे हैं कि वह व्यथा भी तुम मत करो अर्थात् भीष्म और द्रोण आदिको मारनेसे हिंसा आदि दोषोंका विचार करनेकी तुम्हें किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। तुम अपने क्षात्रधर्मका अनुष्ठान करो अर्थात् युद्ध करो। इसका त्याग मत करो। 'जेतासि रणे सपत्नान्'--इस युद्धमें तुम वैरियोंको जीतोगे। ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि पहले (गीता 2। 6 में) अर्जुनने कहा था कि हम उनको जीतेंगे या वे हमें जीतेंगे -- इसका हमें पता नहीं। इस प्रकार अर्जुनके मनमें सन्देह था। यहाँ ग्यारहवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने अर्जुनको विश्वरूप देखनेकी आज्ञा दी, तो उसमें भगवान्ने कहा कि तुम और भी जो कुछ देखना चाहो, वह देख लो (11। 7) अर्थात् किसकी जय होगी और किसकी पराजय होगी -- यह भी तुम देख लो। फिर भगवान्ने विराट्रूपके अन्तर्गत भीष्म, द्रोण और कर्णके नाशकी बात दिखा दी और इस श्लोकमें वह बात स्पष्टरूपसे कह दी कि युद्धमें निःसन्देह तुम्हारी विजय होगी। विशेष बात साधकको अपने साधनमें बाधकरूपसे नाशवान् पदार्थोंका, व्यक्तियोंका जो आकर्षण दीखता है, उससे वह घबरा जाता है कि मेरा उद्योग कुछ भी काम नहीं कर रहा है; अतः यह आकर्षण कैसे मिटे ! भगवान्,'मयैवैते निहताः पूर्वमेव' और 'मया हतांस्त्वं जहि' पदोंसे ढाढ़स बँधाते हुए मानो यह आश्वासन देते हैं कि तुम्हारेको अपने साधनमें जो वस्तुओँ आदिका आकर्षण दिखायी देता है और वृत्तियाँ खराब होती हुई दीखती हैं, ये सब-के-सब विघ्न नाशवान् हैं और मेरे द्वारा नष्ट किये हुए हैं। इसलिये साधक इनको महत्त्व न दे।
।।11.34।। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को सीधे और स्पष्ट शब्दों में आश्वस्त करते हैं कि उसको उठ खड़े होकर काल के आश्रय से सफलता और वैभव को प्राप्त करना चाहिए। अधर्मियों की शक्ति और सार्मथ्य कितनी ही अधिक क्यों न हो? लोक क्षयकारी महाकाल की शक्ति ने पहले ही उन्हें मार दिया है। अर्जुन को केवल आगे बढ़कर एक वीर पुरुष की भूमिका निभाते हुए विजय के मुकुट को प्राप्त कर लेना है। हे सव्यसाचिन् मेरे द्वारा ये मारे ही हुए हैं? तुम केवल निमित्त बनो।वस्तुत? प्रत्येक विचारशील पुरुष को इस तथ्य का स्पष्ट ज्ञान होता है कि जीवन में वह ईश्वर के हाथों में केवल एक निमित्त ही है। परन्तु? सामान्यत हम इस तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते? क्योंकि हमारा गर्वभरा अभिमान इतनी सरलता से निवृत्त नहीं होता कि हमारा शुद्ध दिव्य स्वरूप अपनी सर्वशक्ति से हमारे द्वारा कार्य कर सके। जीवन के सभी कार्य क्षेत्रों में प्राप्त की गयी उपलब्धियों पर यदि हम विचार करें? तो हमें ज्ञात होगा कि प्रत्येक उपलब्धि में प्रकृति के योगदान की तुलना में हमारा योगदान अत्यन्त क्षुद्र और नगण्य है। अधिकसेअधिक हम केवल उन वस्तुओं का संयोग या मिश्रण ही कर सकते हैं? जो पहले से ही विद्यमान हैं? और इस संयोग के फलस्वरूप उनमें पूर्व निहित गुणों को व्यक्त करा सकते हैं। फिर भी हमारा अभिमान यह होता है कि हमने उस फल को उत्पन्न किया हैरेडियो? वायुयान? इंजिन? जीवन संरक्षक औषधयां? संक्षेप में? यह सम्पूर्ण नवीन जगत्? और प्रगति में इसकी उपलब्धियां ये सब ईश्वर की गोद में बैठे बच्चों के खेल के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। ईश्वर ने ही हमारे लिए विद्युत्? लोहा? आकाश? वायु इत्यादि उपलब्ध कराये और हमें उसका उपयोग करने के लिए स्वीकृति और स्वतन्त्रता प्रदान की। इन मूलभूत वस्तुओं के बिना कोई भी उपलब्धि संभव नहीं हो सकती और उपलब्धि का अर्थ है? ईश्वर प्रदत्त वस्तुओं का बुद्धिमत्तापूर्वक समायोजन करना।शरणागति तथा ईश्वर का अखण्ड स्मरण करते हुए जगत् की सेवा करने के सिद्धांतों को ऐसी व्यर्थ की कल्पनाएं नहीं समझना चाहिए जो जगत् की भौतिक सत्यता से पलायन करने के लिए विधान की गयी हों। जगत् में कुशलतापूर्वक कार्य करके सफलता पाने के लिए मनुष्य़ को अपनी योग्यता और स्वभाव को ऊँचा उठाना आवश्यक है। अखण्ड ईश्वर स्मरण वह साधन है? जिसके द्वारा हम अपने मन को सदा अथक उत्साह और आनन्दपूर्ण प्रेरणा के भाव में रख सकते हैं।अहंकारी के लिए यह जगत् एक बोझ या समस्या बना होता है। जिस सीमा तक अहंकार स्वयं को किसी महान् और श्रेष्ठ आदर्श के प्रति समर्पित कर देता है? उसी सीमा में यह जगत् और उसकी उपलब्धियां प्राप्त करना सरल और निश्चित सफलता का खेल बन जाता है। इसके पूर्व भी गीता में अनेक स्थलों पर स्पष्टत सूचित किया गया है कि अहंकार के समर्पण से हममें स्थित महानतर क्षमताओं को व्यक्त किया जा सकता है। उसी विचार को यहाँ दोहराया गया है। सम्पूर्ण सेना को यहाँ अपनी वीरता की भूमिका निभाने के लिए आमन्त्रित किया गया है। ईश्वर के हाथों में वे निमित्त बने और राजमुकुट तथा वैभव को वेतन के रूप में प्राप्त करें। अर्जुन को कौरव पक्ष के कुछ प्रधान और श्रेष्ठ पुरुषों से विशेष भय था। यहाँ भगवान् उनका नामोल्लेख करके बताते हैं कि ये वीर पुरुष भी सर्वभक्षक काल के द्वारा मारे जा चुके हैं।द्रोणाचार्य अर्जुन के गुरु थे? जिन्होंने उसे धनुर्विद्या सिखायी थी। उसके पास कुछ विशेष शस्त्रास्त्र थे और अर्जुन उनका विशेष रूप से आदर और सम्मान करता था। भीष्मपितामह को स्वेच्छा से मरण प्राप्ति का वरदान मिला हुआ था? तथा उनके पास भी अत्यन्त शक्तिशाली दिव्यास्त्र थे। एक बार उन्होंने वीर परशुराम तक को धूल चटा दी थी। जयद्रथ की अजेयता का कारण उसके पिता द्वारा किया जा रहा तप था। उन्होंने यह दृढ़ निश्चय किया था कि जो कोई भी व्यक्ति मेरे पुत्र जयद्रथ का शिर पृथ्वी पर गिरायेगा? उस व्यक्ति का शिर भी नीचे गिर पड़ेगा। कर्ण से भय का कारण यह था कि उसे भी इन्द्र से दिव्यास्त्र प्राप्त हुआ था। उपर्युक्त कारणों से स्पष्ट होता है कि भगवान् ने इन चारों पुरुषों का ही विशेषत उल्लेख क्यों किया है। ये महारथी लोग भी काल का ग्रास बन चुके थे? अत अर्जुन को चाहिए कि वह राजसिंहासन की ओर अग्रसर हो और सम्पूर्ण वैभव का स्वामी बन जाये।यह स्वाभाविक है कि जब मनुष्य की किसी तीव्र इच्छा को पूर्ण कर दिया जाता है? तो वह अकस्मात् अपने दयालु संरक्षक की स्तुति और प्रशंसा करने लगता है
।।11.34।।मयैवेत्यादिनोक्तं प्रपञ्चयति -- द्रोणं चेति। किमिति कतिचिदेवात्र द्रोणादयो गण्यन्ते तत्राह -- येष्विति। द्रोणादिषु कुतः शङ्केत्याशङ्क्य द्वयोः शङ्कानिमित्तमाह -- तत्रेत्यादिना। जयद्रथेऽपि,शङ्कानिमित्तमाह -- तथेति। दिव्यास्त्रसंपन्न इति संबन्धः। तत्र शङ्कायां कारणान्तरमाह -- यस्येति। कर्णेऽपि तत्कारणत्वं कथयति -- कर्णोऽपीति। पूर्ववदेव संबन्धः। हेत्वन्तरमाह -- वासवेति। सा खल्वमोघा पुरुषमेकमत्यन्तसमर्थं घातयित्वैव निवर्तते। जन्मनापि तस्य शङ्कनीयत्वमाह -- सूर्येति। कुन्ती हि कन्यावस्थायांमन्त्रप्रभावं ज्ञातुमादित्यमाजुहाव ततस्तस्यामेवावस्थायामयमुद्बभूव तदाह -- कानीन इति। एतदेवाभिप्रेत्य कर्णग्रहणमित्याह -- यत इति। उक्तेष्वन्येषु च न त्वया शङ्कितव्यमित्याह -- मयेति।
।।11.34।।येषु येषु योधेष्वर्जुनस्याशङ्का तांस्तान्वयपदिशति। द्रोणं च धनुर्वेदाचार्यं दिव्यास्त्रसंपन्न आत्मनश्च विशेषतो गुरुं? भीष्मं च स्वच्छन्द मृत्युं दिव्यास्त्रसंपन्नं परशुरामेणापि द्वन्द्वयुद्धेऽपराजितं? जयद्रथं च यस्य पिता तपश्चरति मम पुत्रस्य शिरो भूमौ यः पातयिष्यति तस्यापि शिरः पतिष्यतीति तं? कर्णं च कल्यया कुन्त्या संतुष्टाद्दुर्वाससो लब्धेन मन्त्रेणाहूतात्सूर्यादुत्पादितं इन्द्रदत्तया शक्त्या त्वमोघया दिव्यास्त्रैश्च संपन्नं? तथान्यानपि योधमुख्यान्भगदत्तादीन्मया कालरुपेण हतान् निमित्तमात्रेण त्वं जहि। अतो मा व्यथिष्ठास्तेभ्यो भयं मा कार्षीः। भयं त्यक्त्वा च युध्यस्व। यतः सपत्नान्? शत्रून्दुर्योधनादीन् रणे युद्धे निःसंशयं जेतासि।
।।11.34।।योऽस्य शिरश्छिन्नं भूमौ पातयति तच्छिरो भेत्स्यतीति तत्पितुर्वराज्जयद्रथोऽपि विशेषेणोक्तः।प्रवरा वासवी शक्तिः इति कर्णः।
।।11.34।।मा व्यथिष्ठाः एते महान्तः कथं हन्तुं शक्या इत्याकुलीभावं मागा इत्यर्थः। जेतासि जेष्यसि सपत्नाञ्शत्रून्।
।।11.34।।द्रोणभीष्मकर्णादीन् कृतापराधतया मया एव हनने विनियुक्तान् त्वं जहि? त्वं हन्याः एतान् गुरून् बन्धून् च अन्यान् अपि भोगसक्तान् कथं हनिष्यामि इति मा व्यथिष्ठाः? तान् उद्दिश्य धर्माधर्मभयेन बन्धुस्नेहेन कारुण्येन च मा व्यथां कृथाः। यतः ते कृतापराधाः? मया एव हनने विनियुक्ताः? अतो निर्विशङ्को युध्यस्व? रणे सपत्नान् जेतासि? जेष्यसि? न एतेषां वधे नृशंसतागन्धः? अपि तु जय एव लभ्यते इत्यर्थः।
।।11.34।। न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयः इत्यादिर्या शङ्का सापि न कार्येत्याह -- द्रोणं चोति। येभ्यस्त्वं शङ्कसे तान्द्रोणादीन्मयैव हतांस्त्वं जहि घातय। मा व्यथिष्ठाः शोकं मा कार्षीः। सपत्नान् शत्रूत्रणे युद्धे निश्चितं जेतासि जेष्यसि।
।।11.34।।अर्जुनस्यास्थानस्नेहकारुण्यधर्माधर्मभयमूलंकथं भीष्मम् [2।4] इत्यादिकं साक्षात्प्रतिवक्तिद्रोणं चेति।मा व्यथिष्ठाः इत्यत्र पूजाद्यर्हान् मन्वान इति वाक्यशेषाभिप्रायेणाहगुरूनिति।गुरून् बन्धून् भोगसक्तानिति। पदैर्धर्माधर्मभयबन्धुस्नेहकारुण्यानां हेतुप्रदर्शनम्। अत्र च धर्माधर्मभयादिव्यर्थताहेतुरित्याहतानुद्दिश्येति। धर्माधर्मभयादिकं तु पृष्ठतः करोमि द्रोणादयो हि तैस्तैर्हेतुभिर्दुर्जयाः शत्रवः युद्धसिद्धिश्च चञ्चलेति भीरुरस्मीति यदि ब्रवीषि? तर्हि मा भैषीरित्यभिप्रायेणमा व्यथिष्ठाःयुध्यस्व इत्यादिकमुच्यत इत्याहयतस्त इति।जेतासि इत्यत्र द्वितीयया तृजन्तायोगात्तृनश्च भविष्यदर्थत्वासिद्धेर्लुडन्ततयैकपद्यम् तत्रानद्यतनविवक्षापि नास्तीत्यभिप्रायेणाहजेष्यसीति। शङ्कितानिष्टनिवृत्ताविष्टप्राप्तौ च श्लोकतात्पर्यमित्याहनैतेषामिति। अर्जुनस्यापजयशङ्काभावात्मा व्यथिष्ठाः इत्यादिकमारम्भोक्तनृशंसत्वशङ्कापरिहारार्थमिति भावः। अनुकूलेषु ह्यानृशंस्यमित्यभिप्रायेण सपत्नशब्द इति चाभिप्रेतम्।
।।11.33 -- 11.34।।तस्मादिति। द्रोणमिति। तदत्र भगवता (S तदनु भवता ? N तदत्रभवता) उत्तरं जगतो विद्याविद्यात्मनः शुद्धाशुद्धमिश्रसंविद्बलग्रासीकारात् अभिधीयते इति प्रायशः सूत्रितमत्राध्याये रहस्यम्। उट्टङ्कितमात्र (N -- मात्रं) -- संवित्तिसमर्थेभ्योऽस्तु कियत्पङ्क्ितलेखनायासदौःस्थित्यमालम्भेमहि (K आलम्भेमहि)।अत्र च यदुक्तं मया हतेषु त्वं निमित्तं यशस्वी भव इति भगवता तत् प्रत्युक्तं यदुक्तं प्रागर्जुनेन नैतद्विद्मः,(?N नचैतद्विद्मः) कतरन्नो वरीयः इत्यादि।
।।11.34।।यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः [2।6] इत्यस्य सन्देहेऽपि प्रवृत्तिर्युक्ता? पक्षद्वयेऽपि फललाभादितिहतो वा [2।37] इत्युत्तरमुक्तम्? इदानीं तव पराजयशङ्काऽपि नास्तीत्युच्यते -- द्रोणं चेति। तत्र द्रोणस्य धनुर्विद्याचार्यत्वेन? भीष्मस्य स्वच्छन्दमृत्युत्वेन चाशङ्काविषयत्वाद्युक्तं योधवीरसमुदायात् पृथक्कृत्य स्वशब्देन ग्रहणम्। जयद्रथस्य कर्णस्य च कुतः इत्यत आह -- योऽस्येति। अस्य जयद्रथस्य। तच्छिरस्तस्य पातयितुः शिरः। भेत्स्यति भेत्स्यते। तत्पितुर्जयद्रथपितुः। शक्तिरस्ति कर्णस्येति शेषः। कर्णो विशेषेणोक्त इति वर्तते।
।।11.34।।ननु द्रोणो ब्राह्मणोत्तमो धनुर्वेदाचार्यो मम गुरुर्विशेषेण च दिव्यास्त्रसंपन्नः। तथा भीष्मः स्वच्छन्दमृत्युर्दिव्यास्त्रसंपन्नश्च परशुरामेण द्वन्द्वयुद्धमुपगम्यापि न पराजितः। तथा यस्य पिता वृद्धक्षत्रस्तपश्चरति मम पुत्रस्य शिरो यो भूमौ पातयिष्यति तस्यापि शिरस्तत्कालं भूमौ पतिष्यतीति स जयद्रथोऽपि जेतुमशक्यः स्वयमपि महादेवाराधनपरो दिव्यास्त्रसंपन्नश्च। तथा कर्णोऽपि स्वयं सूर्यसमस्तदाराधनेन दिव्यास्त्रसंपन्नश्च वासवदत्तया चैकपुरुषघातिन्या मोघीकर्तुमशक्यया शक्त्या विशिष्टः। तथा कृपाश्वत्थामभूरिश्रवःप्रभृतयो महानुभावाः सर्वथा दुर्जया एव एतेषु सत्सु कथं जित्वा शत्रून्राज्यं भोक्ष्ये कथं वा यशो लप्स्य इत्याशङ्कामर्जुनस्यापनेतुमाह तदाशङ्काविषयान्नामभिः कथयन् -- द्रोणं चेति। वीरान् द्रोणादींस्त्वदाशङ्काविषयीभूतान्सर्वानेव योधवीरान्कालात्मना मया हतानेवं त्वं जहि। हतानां हनने को वा परिश्रमः। अतो माव्यथिष्ठाः कथमेवं शक्ष्यामीति व्यथां भयनिमित्तां पीडां मागाः। भयं त्यक्त्वा युध्यस्व। जेतासि जेष्यस्यचिरेणैव रणे संग्रामे सपत्नान् सर्वानपि शत्रून्। अत्र द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं चेति चकारत्रयेण पूर्वोक्ताजेयत्वशङ्कानूद्यते। तथाशब्देन कर्णोऽपि अन्यानपि योधवीरानित्यत्रापिशब्देन तस्मात् कुतोपि स्वस्य पराजयं वधनिमित्तं पापं च माशङ्किष्ठा इत्यभिप्रायः।कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन। इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हौ इत्यत्रेवात्रापि समुदायान्वयानन्तरं प्रत्येकान्वयो द्रष्टव्यः।
।।11.34।।द्रोणो ब्राह्मणत्वाद्भगवता कथं वध्यः तथा भीष्मो भक्तः? तथैव जयद्रथः शिवात्प्राप्तप्रसादः? कर्णः कुन्तीपुत्रः? एतेषाममारणे कथं जयो भवेत् अतस्तन्नाम्ना प्राह -- द्रोणं चेति। च पुनः। ब्राह्मणमपि द्रोणं? भीष्मं च भक्तमपि? जयद्रथं चकारेण प्राप्तवरमपि? कर्णं च कुन्तीपुत्रमपि तथाभूतानन्यानपि योधवीरान् युद्धविशारदान् मया हतांस्त्वं जहि मारय। स्वहतत्वोक्त्याइषुभिः कथं पूजार्हान् प्रति योत्स्यामि [2।4] इति यत् पूर्वमुक्तं स दोषोऽत्रानुकूल्यकरणेन निवारितः। यत एते मया हता अतो निश्शङ्कं युद्ध्यस्वः रणे सपत्नान् शत्रून् जेतासि जेष्यसि।
।।11.34।। --,द्रोणं च? येषु येषु योधेषु अर्जुनस्य आशङ्का तांस्तान् व्यपदिशति भगवान्? मया हतानिति। तत्र द्रोणभीष्मयोः तावत् प्रसिद्धम् आशङ्काकारणम्। द्रोणस्तु धनुर्वेदाचार्यः दिव्यास्त्रसंपन्नः? आत्मनश्च विशेषतः गुरुः गरिष्ठः। भीष्मश्च स्वच्छन्दमृत्युः दिव्यास्त्रसंपन्नश्च परशुरामेण द्वन्द्वयुद्धम् अगमत्? न च पराजितः। तथा जयद्रथः? यस्य पिता तपः चरति मम पुत्रस्य शिरः भूमौ निपातयिष्यति यः? तस्यापि शिरः पतिष्यति इति। कर्णोऽपि वासवदत्तया शक्त्या त्वमोघया संपन्नः सूर्यपुत्रः कानीनः यतः? अतः तन्नाम्नैव निर्देशः। मया हतान् त्वं जहि निमित्तमात्रेण। मा व्यथिष्ठाः तेभ्यः भयं मा कार्षीः। युध्यस्व जेतासि दुर्योधनप्रभृतीन् रणे युद्धे सपत्नान् शत्रून्।।संजय उवाच --,
।।11.34।।पूर्वशङ्काऽधुना न कार्येत्याह -- द्रोणमिति। येभ्यस्त्वं पूर्वमशङ्किथास्तानेतान् मया हतप्रायान्कालदृष्ट्या प्रारब्धकर्मणा जीवितशेषान् जहि। एवं रणे सपत्नान् जेष्यसि। ततो युद्धधर्मं कुरु।