BG - 11.55

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।11.55।।

mat-karma-kṛin mat-paramo mad-bhaktaḥ saṅga-varjitaḥ nirvairaḥ sarva-bhūteṣhu yaḥ sa mām eti pāṇḍava

  • mat-karma-kṛit - perform duties for my sake
  • mat-paramaḥ - considering me the Supreme
  • mat-bhaktaḥ - devoted to me
  • saṅga-varjitaḥ - free from attachment
  • nirvairaḥ - without malice
  • sarva-bhūteṣhu - toward all entities
  • yaḥ - who
  • saḥ - he
  • mām - to me
  • eti - comes
  • pāṇḍava - Arjun, the son of Pandu

Translation

He who does all actions for Me, who regards Me as the Supreme, who is devoted to Me, who is free from attachment, who bears no enmity towards any creature, he comes to Me, O Arjuna.

Commentary

By - Swami Sivananda

11.55 मत्कर्मकृत् does actions for Me? मत्परमः looks on Me as the Supreme? मद्भक्तः is devoted to Me? सङ्गवर्जितः is freed from attachment? निर्वैरः without enmity? सर्वभूतेषु towards all creatures? यः who? सः he? माम् to Me? एति goes? पाण्डव O Arjuna.Commentary This is the essence of the whole teaching of the Gita. He who practises this teaching will attain Supreme Bliss and Immortality. This verse contains the summary of the entire philosophy of the Gita.He who performs actions (duties) for the sake of the Lord? who consecrates all his actions to Him? who serves the Lord with his heart and soul? who regards the Lord as his supreme goal? who lives for Him alone? who works for Him alone? who sees the Lord in everything? who sees the whole world as the Cosmic Form of the Lord and therefore cherishes no feeling of hatred or enmity towards any creature even when great injury has been done by others to him? who has no attachment or love to wealth? children? wife? friends and relatives? and who seeks nothing else but the Lord? realises Him and enters into His Being. He becomes one with Him.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the eleventh discourse entitledThe Yoga of the Vision of the Cosmic Form.,

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।11.55।। व्याख्या--[इस श्लोकमें पाँच बातें आयी हैं। इन पाँचोंको 'साधनपञ्चक' भी कहते हैं। इन पाँचों बातोंके दो विभाग हैं। (1) भगवान्के साथ घनिष्ठता और (2) संसारके साथ सम्बन्ध-विच्छेद। पहले विभागमें 'मत्कर्मकृत्', 'मत्परमः' और 'मद्भक्तः' -- ये तीन बातें हैं; और दूसरे विभागमें 'सङ्गवर्जितः' और'निर्वैरः सर्वभूतेषू'--ये दो बातें हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।11.55।। अर्जुन ने यह सुना कि अनन्यभक्ति के द्वारा कोई भी भक्त? भगवान् के समष्टि वैभव को न केवल पहचान ही सकता है? वरन् स्वयं में ही उसका साक्षात् अनुभव भी कर सकता है। तब पाण्डव राजपुत्र के मुख पर उस अनुभव या पद को प्राप्त करने की उत्सुकता दिखाई दी। यद्यपि उसने स्पष्ट प्रश्न नहीं किया तथापि उसके मुख के भाव से ही उसे समझकर भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ वर्णन करते हैं कि कोई साधक जीवन में इस पूर्णत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है।किसी जीव को ईश्वरत्व प्राप्त करने का श्रीकृष्ण द्वारा उपदिष्ट योजना के पांच अंग हैं। उन पांच अंगों या आवश्यक गुणों को इस श्लोक में बताया गया है। वे गुण हैं (1) जो ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करता है? (2) जिसका परम लक्ष्य ईश्वर ही है? (3) जो ईश्वर का भक्त है? (4) जो आसक्तियों से रहित है? तथा (5) जो भूतमात्र के प्रति वैरभाव से रहित है।इन पांच आवश्यक गुणों में आत्मसंयम की सम्पूर्ण साधना का सारांश दिया गया है। ईश्वर के अखण्ड स्मरण से ही समस्त उपाधियों के कर्मों में अनासक्ति का भाव दृढ़ होता है। किसी व्यक्ति के प्रति वैरभाव तभी होता है? जब हम उसे पराया समझते हैं। मेरे ही दोनों हाथों के मध्य कोई वैरभाव नहीं हो सकता। आत्मैकत्व के बोध से जब सर्वत्र एकता का दर्शन और अनुभव होता है? केवल तभी समस्त भूतों के प्रति पूर्ण निर्वैरभाव प्राप्त हो सकता है।मन और बुद्धि के स्तर पर सर्वथा अनासक्ति होना असंभव है। मन और बुद्धि किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति आसक्ति के बिना नहीं रह सकते हैं। इसलिए एक साधक? सर्वप्रथम? ईश्वरार्पण की भावना के द्वारा विषयासक्ति को त्यागना सीखता है? और तत्पश्चात् अपने मन को भक्ति के साथ ईश्वर में स्थित कर देता है। इस अंग की पूर्णता के लिए पूर्व कथित गुण निश्चय ही सहायक होते हैं।इस प्रकार? सम्पूर्ण योजना का पुनरावलोकन करने पर ज्ञात होगा कि वह पूर्ण मनोवैज्ञानिक होने के कारण सर्वथा स्वीकार्य है। प्रत्येक उत्तर अंग अपने पूर्व अंग से पोषित होता है। इस श्लोक से यह भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि अध्यात्म के साधक की महान् पवित्र तीर्थयात्रा ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करने से प्रारम्भ होती है। तत्पश्चात् स्वयं ईश्वर ही उसके जीवन का परम लक्ष्य बन जाता है। इसका परिणाम होगा ईश्वर के प्रति परम प्रेम। स्वाभाविक है कि जगत् की अनित्य? परिच्छिन्न वस्तुओं के साथ उसकी आसक्ति समाप्त हो जायेगी और वह आत्मा का दर्शन कर सकेगा। जब स्वयं आत्मस्वरूप ही बनकर वह स्वयं को सर्वत्र? सब भूतों में पहचानेगा? तब उसका किसी भी प्राणी से किसी प्रकार का वैर नहीं होगा।गीता के अनुसार साधना के द्वारा प्राप्त आत्मसाक्षात्कार की पूर्णता की कसौटी है सबसे प्रेम और किसी से द्वेष नहीं होना।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो नाम एकादशोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का विश्वरूप दर्शनयोग नामक ग्यारहवां अध्याय समाप्त होता है।इस अध्याय का विश्वरूपदर्शनयोग यह नाम सार्थक है। वेदान्तशास्त्र की परिभाषिक शब्दावली के अनुसार यहाँ प्रयुक्त विश्वरूप शब्द का वास्तविक अर्थ विराट्रूप है। आत्मा एक व्यष्टि स्थूल देह के साथ तादात्म्य को प्राप्त होकर जाग्रत् अवस्था की घटनाओं का अनुभव करता है। इस अवस्था में स्थित आत्मा को वेदान्त में विश्व कहा जाता है। वही आत्मा समष्टि स्थूल देह अर्थात् ब्रह्माण्ड के साथ तादात्म्य प्राप्त कर विराट् कहलाता है। यद्यपि यहाँ भगवान् ने अपना विराट्रूप दिखाया है? तथापि इस अध्याय का नाम विश्वरूपदर्शनयोग है। इससे विश्व और विराट् के पारमार्थिक एकत्व का बोध होता है।

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।11.55।।भक्त्या त्विति विशेषणादन्येषामहेतुत्वमाशङ्क्याह -- अधुनेति। समुच्चित्य संक्षिप्य पुञ्जीकृत्येति यावत्। मत्कर्मकृदित्युक्ते मत्परमत्वमार्थिकमिति पुनरुक्तिरित्याशङ्क्याह -- करोतीति। भगवानेव परमा गतिरिति निश्चयवतस्तत्रैव निष्ठा सिध्यतीत्याह -- तथेति। न तत्रैव सर्वप्रकारैर्भजनं धनादिस्नेहाकृष्टत्वादित्याशङ्क्याह -- सङ्गेति। द्वेषपूर्वकानिष्टाचरणं वैरमनपकारिषु तदभावेऽपि भवत्येवापकारिष्विति शङ्कित्वाह -- आत्मन इति। एतच्च सर्वं संक्षिप्यानुष्ठानार्थमुक्तमेवमनुतिष्ठतो भगवत्प्राप्तिरवश्यंभाविनीत्युपसंहरति -- अयमिति। तदेवं भगवतो विश्वरूपस्य सर्वात्मनः सर्वज्ञस्य सर्वेश्वरस्य मत्कर्मकृदित्यादिन्यायेन क्रममुक्तिफलमभिध्यानमभिवदता तत्पदवाच्योऽर्थो व्यवस्थापितः।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृतौ एकादशोऽध्यायः।।11।।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।11.55।।इदानीं शास्त्रसारभूतस्य गीताशास्त्रस्य सारभूतमर्थं निःश्रेयसप्रयोजनकं संगृह्यावश्यमुष्ठानायातिकारुणिको भगवानाह। मदर्थं मत्पीत्यर्थं वेदविहितं कर्म करोतीति मत्कर्मकृत्। यतोऽहमेव परमः प्रकृष्टः प्राप्यो यस्य नतु स्वर्गादिः स तथा मत्प्राप्तिसाधनेन सर्वात्मना सर्वप्रकारैः सर्वोत्साहेन मद्भजनेन युक्तः धनाद्यासक्त्या भगवद्भजनं न सिध्यत्यत आह। धनपुत्रमित्रकलत्रादिषु सङ्गवर्जित आसक्तिरहितः भूतेषु सवैरस्य मदनन्या भक्तिरतिदूरतरेत्याह। सर्वभूतेषु निर्वैरः साधारणेषु स्वस्यात्यन्तापकारकेषु अपि शत्रुभाववर्जितः य ईदृशो दम्भरहितो मद्भक्तः स मामेति। अभेदेन साक्षात्करोति। अहमेव तस्य परा गतिर्नान्येत्यर्थः। अयं सारसंग्रहो मया तवोपदिष्टः। यतो भवान् मत्पितृभामापत्यत्वादतिप्रेमास्पद इत्याशयेनाह -- पाण्डवेति।तदनेनैकादशाध्यायेन विश्वरुपप्रतिपादकेन सर्वेश्वरस्य सर्वात्मानः सर्वज्ञस्यानन्यता भक्त्या तत्स्वरुपज्ञानादिप्रदर्शकेन तत्पदवाच्योऽर्थो निरुपितः।।चिदानन्दे यत्रादितिजनरयक्षासुरयुतं विभातं त्रैलोक्यं सति भवति नाश्चर्यजनकम्।अनन्ताण्डाधारे तमजमजरात्मानममृतं शिवं कृष्णं वन्दे निखिलहृदिगं द्रष्टुमभयम्।।1।।इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचितायां श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां एकादशोऽध्यायः।।11।।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।11.55।।शास्त्रसर्वस्वं संगृह्णाति -- मत्कर्मकृदिति। मदर्थमेव कर्माणि करोतीति मत्कर्मकृत्। अहमेव परमो निष्कलः प्राप्यो यस्येति स मत्परमः। एतेन कृत्स्नः कर्मयोगो ध्यानयोगश्च त्वंपदार्थशोधक उक्तः। मम भक्त आराधनकृदित्युपासनाकाण्डार्थसंग्रहः। सङ्गवर्जित इत्यनेन एकान्तभगवद्ध्याननिष्ठ इत्युक्तम्। निर्वैर इति विश्वं भगवदात्मना पश्येदित्युक्तम्। अन्यथा भेदबुद्धिमतो निर्वैरत्वासंभवात्। एवंभूतो यः स मां तत्पदलक्ष्यार्थभूतमखण्डानन्दैकघनमेति प्राप्नोति प्रत्यगभेदेन। हे पाण्डव विशुद्धवंशज। त्वमेवैतज्ज्ञातुं शक्नोषीति भावः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।11.55।।वेदाध्ययनादीनि सर्वाणि कर्माणि मदाराधनरूपाणि इति यः करोति स मत्कर्मकृत मत्परमः -- सर्वेषाम् आरम्भाणां अहम् एव परमोद्देश्यो यस्य स मत्परमः मद्भक्तः -- अत्यर्थमत्प्रियत्वेन मत्कीर्तनस्तुतिध्यानार्चनप्रणामादिभिः विना आत्मधारणम् अलभमानो मदेकप्रयोजनतया यः सततं तानि करोति स मद्भक्तः।सङ्गवर्जितः -- मदेकप्रियत्वेन इतरसङ्गम् असहमानः निर्वैरः सर्वभूतेषु -- मत्संश्लेषवियोगैकसुखदुःखस्वभावत्वात् स्वदुःखस्य स्वापराधनिमित्तत्वानुसंधानात् च सर्वभूतानां परमपुरुषपरतन्त्रत्वानुसंधानात् च सर्वभूतेषु वैरनिमित्ताभावात् तेषु निर्वैरः।यः एवंभूतः स माम् एति? मां यथावद् अवस्थितं प्राप्नोति। निरस्ताविद्याद्यशेषदोषगन्धो मदेकानुभवो भवति इत्यर्थः।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।11.55।। अतः सर्वशास्त्रसारं परमं रहस्यं शृण्वित्याह -- मत्कर्मकृदिति। मदर्थं कर्म करोतीति मत्कर्मकृत्? अहमेव परमः पुरुषार्थो यस्य सः? ममैव भक्तो मामेवाश्रितः? पुत्रादिषु सङ्गवर्जितो? निर्वैरश्च सर्वभूतेषु एवंभूतो यः स मां प्राप्नोति नान्य इति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।11.55।।नाहं वेदैः इत्यादेः वेदानुवचनेन [बृ.उ.4।4।22] इत्यादिश्रुतिविरोधपरिहाराय भक्त्यङ्गभावेन वेदानुवचनादीनामुपयोगं वदन्प्रवेष्टुम् इत्युक्तं प्राप्तिहेतुं भक्त्यवस्थाविशेषं विविनक्ति -- मत्कर्मकृदिति।नाहं वेदैः इत्यादिनोक्तान्येव कर्माणि भगवति समर्पणान्मत्कर्मशब्देनोच्यन्ते? कीर्तनादीनि तु प्रागुक्तानि भक्त्यन्तर्गतत्वान्मद्भक्तशब्देऽनुप्रवेशमर्हन्तीत्यभिप्रायेणाहवेदाध्ययनेति। कर्मप्रसङ्गात्तत्साध्यतया बुद्धिस्थं फलमिह मत्परमशब्देनोच्यत इत्याहसर्वेषामिति। लौकिकानामन्नपानादिस्थानेऽस्य कीर्तनादिकमित्यभिप्रायेणाहआत्मधारणमलभमान इति। भक्तेः काष्ठाप्राप्तिदशायां यादृशी निस्सङ्गता? तां सहेतुकां दर्शयतिमदेकप्रियत्वेनेति। तृषितस्यामृतधारायां तृणादिनिरोधवन्मन्यमानं सङ्गमेवैनं यथा स्वयं विरक्तो वर्जयति? तथा स्वयं सङ्गे जातोद्वेग इत्यभिप्रायेणइतरसङ्गमसहमान इत्युक्तम्। तादृश्यां भक्तिकाष्ठायां न केवलं शास्त्रवश्यत्वेन निर्वैरता अपितु कारणाभावात् कार्याभाव इत्याहमत्संश्लेषेति। परमात्मनि रक्ततया तदितरविरक्तस्य सांसारिकक्षुद्रसुखदुःखयोरुपेक्षकत्वात्तन्निवर्तकेषु तत्प्रवर्तकेषु च नास्य वैरसम्भवः। नच स्वापराधं जानतः परो द्वेषविषयः नच कशादिवत्परतन्त्रतयाऽवगताय कश्चिदनुन्मत्तः कुप्येत् आत्मन इव परेषामपि विश्वरूपभगवद्रूपत्वानुसन्धाने कथं वैरावकाशः इति भावः।एवम्भूतः एवंविधः।प्रवेष्टुम् [11।54] इति प्रागुक्तानुसन्धानेनाह -- मां यथावदवस्थितमिति। प्रवेशप्राप्त्यादिशब्दानामन्यार्थतां कुदृष्ट्यभिमतां निराकर्तुं परमनिश्श्रेयसरूपायाः प्राप्तेः स्वरूपं शोधयतिनिरस्तेति। निरस्तत्वमपुनरङ्कुरविनष्टत्वम्। अविद्या अज्ञानान्यथाज्ञानतत्कारणकर्मादिरूपा। पूर्वावस्थायामपि कतिपयाविद्यादिनिवृत्तिरस्तीति तद्व्यवच्छेदायाशेषपदम्। सवासननिरासद्योतनाय गन्धशब्दः।मदेकानुभव इति -- सर्वं ह पश्यः पश्यति [छां.उ.7।26।2] इत्युक्तं सर्वमपि सर्वशरीरोऽहमेव। तथाच श्रुत्यन्तरं ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीरा युक्तात्मानः सर्वमेवाविशन्ति [मुं.उ.3।3।5] इति -- इति भावः।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषुश्रीमद्गीताभाष्यटीकायां तात्पर्यचन्द्रिकायां एकादशोऽध्यायः।।11।।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।11.54 -- 11.55।।भक्त्येति। मत्कर्मेति। अविद्यमानान्यज्ञेयरमणीया येषां भक्तिः परिस्फुरति तेषां [ ज्ञानवान् ] मां प्रपद्यते (? N omit मां प्रपद्यते)। वासुदेवः सर्वम् (Gita VII? 19 ) इत्यादिपूर्वाभिहितोपदेशचमत्कारात् विश्वात्मकं वासुदेवतत्त्वम् अयत्नत एव बोधपदवीमवतरति इति।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।11.55।।अधुना सर्वस्य गीताशास्त्रस्य सारभूतोऽर्थो निःश्रेयसार्थिनामनुष्ठानाय पुञ्जीकृत्योच्यते -- मत्कर्मकृदिति। मदर्थं कर्म वेदविहितं करोतीति मत्कर्मकृत्। स्वर्गादिकामनायां सत्यां कथमेवमिति नेत्याह। मत्परमः अहमेव परमः प्राप्तव्यत्वेन निश्चितो नतु स्वर्गादिर्यस्य सः। अतएव मत्प्राप्त्याशया मद्भक्तः सर्वै प्रकारैर्मम भजनपरः। पुत्रादिषु स्नेहे सति कथमेवं स्यादिति नेत्याह -- सङ्गेति। सङ्गवर्जितः बाह्यवस्तुस्पृहाशून्यः। शत्रुषु द्वेषे सति कथमेवं स्यादिति नेत्याह -- निर्वैर इति। निर्वैरः सर्वभूतेषु अपकारिष्वपि द्वेषशून्यो यः स मामेत्यभेदेन। हे पाण्डव? अयमर्थस्त्वया ज्ञातुमिष्टो मयोपदिष्टो नातःपरं किंचित्कर्तव्यमस्तीत्यर्थः।दृशः कर्मभूतं हि यत्तच्च विश्वं स्वयं रूप्यते नान्यतस्तच्च रूपम्।जगद्यः स्वभासा निरस्यात्मरूपं ददावादरात्काशिराजं भजे तम्।।1।।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।11.55।।नन्वनन्यभक्तः कथं ज्ञेयः इत्याकाङ्क्षायामाह -- मत्कर्मकृदिति। मदर्थं स्वस्य सहजदासत्वेन? न तु कामनया? कर्म सेवादिरूपं करोति स तथा। मत्परमः अहमेव परमः सर्वस्वं यस्य। मद्भक्तः मद्भजनकृत् मदाश्रितो वा। सङ्गवर्जितः पुत्रादिलौकिकावैष्णवादिसङ्गवर्जितः। सर्वभूतेषु निर्वैरः द्वेषरहितः। हे पाण्डव,उत्पत्त्यैव भक्त एवंविधो यः स मामेति प्राप्नोति? सोऽनन्यो ज्ञातव्य इति भावः।प्रदर्श्य विश्वरूपं स्वं दृढीकृत्याऽर्जुनाय वै।श्रीकृष्णः साधनासाध्यं स्वस्वरूपमदर्शयत्।।1।।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।11.55।। --,मत्कर्मकृत् मदर्थं कर्म मत्कर्म? तत् करोतीति मत्कर्मकृत्। मत्परमः -- करोति भृत्यः स्वामिकर्म? न तु आत्मनः परमा प्रेत्य गन्तव्या गतिरिति स्वामिनं प्रतिपद्यते अयं तु मत्कर्मकृत् मामेव परमां गतिं प्रतिपद्यते इति मत्परमः? अहं परमः परा गतिः यस्य सोऽयं मत्परमः। तथा मद्भक्तः मामेव सर्वप्रकारैः सर्वात्मना सर्वोत्साहेन भजते इति मद्भक्तः। सङ्गवर्जितः धनपुत्रमित्रकलत्रबन्धुवर्गेषु सङ्गवर्जितः सङ्गः प्रीतिः स्नेहः तद्वर्जितः। निर्वैरः निर्गतवैरः सर्वभूतेषु शत्रुभावरहितः आत्मनः अत्यन्तापकारप्रवृत्तेष्वपि। यः ईदृशः मद्भक्तः सः माम् एति? अहमेव तस्य परा गतिः? न अन्या गतिः काचित् भवति। अयं तव उपदेशः इष्टः मया उपदिष्टः हे पाण्डव इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येएकादशोऽध्यायः।।

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।11.55।।यद्यप्येवं तथापि त्वादृशस्य मन्निगममर्यादायामनुगृहीतत्वान्मदाज्ञया मद्भक्तिपूर्वकमेव स्वधर्मकरणे मत्प्राप्तिरित्याह -- मत्कर्मकृदिति। भगवदीयस्य भगवत्सेवापूर्वककर्मकरणं विहितंमम कर्मकरणे प्रभोरिच्छाऽस्तीति यो निर्द्धारयति स करोति? य एतद्विपरीतं स न करोति? यथा शुकजडादिः। एतन्निर्द्धारश्च भगवदधीनोऽतो भक्तेष्वपि तन्निर्द्धारणानियम इत्यतः कर्म कर्त्तव्यमेव अतन्निर्द्धारणे त्वाधुनिकानाम् एवं सतीच्छाज्ञानवता तत्सन्देहवता च कर्त्तव्यं इति।तन्निर्द्धारणानियमः पृथग्यः प्रतिबन्धः फलं इत्यादि सूत्रभाष्ये निर्णीतमवगन्तव्यम्। मत्परम इति अहमेव परम उद्देश्यो यस्य परमो मद्भक्तः स मामेति पुरुषोत्तमाप्तिस्तस्य फलं भवतीत्यर्थः।