सञ्जय उवाच एवमुक्त्वाऽर्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्। विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।1.47।।
sañjaya uvācha evam uktvārjunaḥ saṅkhye rathopastha upāviśhat visṛijya sa-śharaṁ chāpaṁ śhoka-saṁvigna-mānasaḥ
Sanjaya said, Having thus spoken in the midst of the battlefield, Arjuna cast away his bow and arrow and, his mind overwhelmed with sorrow, sat down on the seat of the chariot.
1.47 एवम् thus? उक्त्वा having said? अर्जुनः Arjuna? संख्ये in the battle? रथोपस्थे on the seat of the chariot? उपाविशत् sat down? विसृज्य having cast away? सशरम् with arrow? चापम् bow? शोकसंविग्नमानसः with a mind distressed with sorrow.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the first discourse entitledThe Yoga of the Despondency of Arjuna.
।।1.47।। व्याख्या--'एवमुक्त्वार्जुनः ৷৷. शोकसंविग्नमानसः'--युद्ध करना सम्पूर्ण अनर्थोंका मूल है, युद्ध करनेसे यहाँ कुटुम्बियोंका नाश होगा, परलोकमें नरकोंकी प्राप्ति होगी आदि बातोंको युक्ति और प्रमाणसे कहकर शोकसे अत्यन्त व्याकुल मनवाले अर्जुनने युद्ध न करनेका पक्का निर्णय कर लिया। जिस रणभूमिमें वे हाथमें धनुष लेकर उत्साहके साथ आये थे, उसी रणभूमिमें उन्होंने अपने बायें हाथसे गाण्डीव धनुषको और दायें हाथसे बाणको नीचे रख दिया और स्वयं रथके मध्यभागमें अर्थात् दोनों सेनाओंको देखनेके लिये जहाँपर खड़े थे, वहींपर शोकमुद्रामें बैठ गये। अर्जुनकी ऐसी शोकाकुल अवस्था होनेमें मुख्य कारण है--भगवान्का भीष्म और द्रोणके सामने रथ खड़ा करके अर्जुनसे कुरुवंशियोंको देखनेके लिये कहना और उनको देखकर अर्जुनके भीतर छिपे हुए मोहका जाग्रत् होना। मोहके जाग्रत् होनेपर अर्जुन कहते हैं कि युद्धमें हमारे कुटुम्बी मारे जायँगे। कुटुम्बियोंका मरना ही बड़े नुकसानकी बात है। दुर्योधन आदि तो लोभके कारण इस नुकसानकी तरफ नहीं देख रहे हैं। परन्तु युद्धसे कितनी अनर्थ परम्परा चल पड़ेगी--इस तरफ ध्यान देकर हमलोगोंको ऐसे पापसे निवृत्त हो ही जाना चाहिये। हमलोग राज्य और सुखके लोभसे कुलका संहार करनेके लिये रणभूमिमें खड़े हो गये हैं--यह हमने बड़ी भारी गलती की! अतः युद्ध न करते हुए शस्त्ररहित मेरेको यदि सामने खड़े हुए योद्धालोग मार भी दें तो उससे मेरा हित ही होगा। इस तरह अन्तःकरणमें मोह छा जानेके कारण अर्जुन युद्धसे उपरत होनेमें एवं अपने मर जाननेमें भी हित देखते हैं और अन्तमें उसी मोहके कारण बाणसहित धनुषका त्याग करके विषादमग्न होकर बैठ जाते हैं। यह मोहकी ही महिमा है कि जो अर्जुन धनुष उठाकर युद्धके लिये तैयार हो रहे थे, वही अर्जुन धनुषको नीचे रखकर शोकसे अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं! इस प्रकार ऊँ, तत्, सत्--इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें 'अर्जुनविषादयोग' नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ।।1।।
।।1.47।। रणभूमि में संजय ने जो कुछ भी देखा उसका वह वर्णन करता है। अपने ही तर्कों से थका और शोक में डूबा हुआ अर्जुन अपने शस्त्रास्त्रों को फेंककर रथ में बैठ जाता है। गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन को हम इसी स्थिति में छोड़ देते हैं। conclusion ँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्याय।। इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवदगीतोपनिषद् का अर्जुनविषादयोग नामक प्रथम अध्याय समाप्त होता है। प्राचीन काल में शास्त्रीय ग्रन्थों की समाप्ति किसी चिन्ह अथवा विशिष्ट संकेत द्वारा सूचित की जाती थी। आधुनिक काल की मुद्रित पुस्तकों में इसकी आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि हम पुस्तक में एक अध्याय की समाप्ति और नये अध्याय को प्रारम्भ किया हुआ देख सकते हैं। मुद्रित पुस्तकों में भी इसे अध्यायों के विभिन्न शीर्षकों के द्वारा अंकित किया जाता है। प्राचीन काल में पुस्तकों के अभाव में विद्यार्थियों को मौखिक उपदेश दिया जाता था। इस प्रकार ग्रन्थों के नवीन संस्करण उनके मस्तिष्क के स्मृति पटल पर ही अंकित होते थे। उस समय मौखिक उपदेश होने के कारण विद्यार्थीगण उसे कण्ठस्थ कर लेते थे। इसलिए यह आवश्यक था कि एक अध्याय की समाप्ति और दूसरे अध्याय का प्रारम्भ बताने वाला कोई सूचक चिह्न हो। उपनिषदों में इसे सूचित करने के लिए अध्याय के अन्तिम मन्त्र अथवा मन्त्र के अन्तिम अंश को दो बार दोहराया जाता है। परन्तु गीता के प्रत्येक अध्याय के अन्त में केवल एक संकल्प वाक्य पाया जाता है। प्रत्येक अध्याय के संकल्प वाक्य में अन्तर केवल अध्याय की संख्या और उसके विशेष नाम का ही है। गीता का संकल्प वाक्य अत्यन्त सुन्दर एवं सारगर्भित शब्दों से पूर्ण है। यह स्वयं ही इस ग्रन्थ की विषय वस्तु के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी देता है। यहाँ सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता को ही नहीं अपितु उसके प्रत्येक अध्याय को भी उपनिषद् की संज्ञा दी गयी है। अठारह अध्यायी गीतोपनिषद् के प्रथम अध्याय का नाम अर्जुनविषादयोग है। इन अध्यायों को उपनिषद् कहने का कारण यह है कि इनमें उपनिषद् के विषय का ही प्रतिपादन किया गया है। इनके लक्ष्यार्थ को ऐसे पाठक गण नहीं समझ सकेंगे जो बिना किसी पूर्व तैयारी के इनका अध्ययन करेंगे। सरल प्रतीत होने वाले श्लोकों में छिपे गूढ़ार्थ को समझने के लिये मनन की अत्यन्त आवश्यकता होती है। उपनिषद् विद्या के समान यहाँ भी गीता के श्लोकों में निहित परमार्थ निधि को पाने के लिये एक कृपालु एवं योग्य गुरु की आवश्यकता है। उपनिषद् शब्द का अर्थ है वह विद्या जिसका अध्ययन गुरु के समीप (उप) पहुँचकर उसके चरणों के पास अत्यन्त नम्र भाव से और निश्चयपूर्वक (नि) बैठकर (षद्) किया जाता है। विश्व के सभी धार्मिक शास्त्र ग्रन्थों का विषय एक ही है। वे सभी हमको यह शिक्षा देते हैं कि इस नित्य परिवर्तनशील जगत् के पीछे एक अविनाशी पारमार्थिक सत्य है जो इस जगत् का मूल स्वरूप है। इस अद्वैत सत्य को हिन्दू धर्म ग्रन्थों में ब्रह्म कहा गया है। इसलिये ब्रह्म का ज्ञान तथा उसके अनुभव के लिये साधनों का उपदेश देने वाली विद्या ब्रह्मविद्या कहलाती है। पाश्चात्य दर्शन के विपरीत आर्य लोगों को कोई भी दर्शन तभी स्वीकार होता था जब कोई दार्शनिक ऐसे साधनों का भी निरूपण करता था जिनके द्वारा प्रत्येक साधक उस दर्शन के लक्ष्य तक पहुँच सकता है। इस प्रकार हिन्दू दर्शनशास्त्र के दो भाग हैं तत्त्वज्ञान और योगशास्त्र। इस दूसरे भाग में अभ्यसनीय साधनों का वर्णन किया गया है। योग शब्द युज धातु से बना है जिसका अर्थ है जोड़ना । स्वयं को वर्तमान की स्थिति से ऊँचा उठाकर किसी श्रेष्ठ एवं पूर्ण आदर्श को प्राप्त करने के लिये साधक जो प्रयत्न करता है उसे योग कहते हैं और इस विज्ञान को योगशास्त्र। संकल्प वाक्य में गीता को योगशास्त्र कहा जाता गया है। इसलिये इससे हम उन साधनों के ज्ञान की अपेक्षा रखते हैं जिनके अभ्यास द्वारा परमार्थ सत्य का साक्षात् अनुभव प्राप्त किया जा सकता है। अत्यन्त सूक्ष्म एवं शास्त्रीय विषय होने के कारण तत्त्वज्ञान और योगशास्त्र में संसार के सामान्य जनों का विशेष आकर्षण और रुचि नहीं होती है। इसमें प्रतिपादित ज्ञान किसी दृश्य पदार्थ का नहीं है। एक गणितज्ञ के अतिरिक्त अन्य सामान्य जनों को गणित विषय शुष्क और नीरस प्रतीत होता है। गणित के ज्ञान की व्यावहारिक जीवन में अत्यधिक आवश्यकता भी नहीं होती। परन्तु धर्म का प्रयोजन संसार दुख की निवृत्ति होने के कारण सभी लोगों को इसकी आवश्यकता है। अत तत्त्वज्ञान के कठिन विषय को सरल और आकर्षक ढंग से सामान्य जनों के सम्मुख प्रस्तुत करने का प्रयत्न सभी आचार्यों ने किया है। गुरु के मुख से उपदेश प्राप्त करने की विधि का उन्होंने सफल उपयोग किया। एक सुपरिचित गुरु के शब्द भी हमें सुपरिचित मालूम पड़ने लगते हैं। तत्त्वज्ञान का प्राथमिक शिक्षण देने वाले ग्रन्थ स्मृति ग्रन्थ हैं जैसे मनुस्मृति गौतमस्मृति आदि। ये ग्रन्थ सरलतापूर्वक समझ में आ सकते हैं। उपनिषदों में हमें गुरु और शिष्य का वर्णन मिलता है किन्तु वह अधिक विस्तार में नहीं है। गीता में हमें इसका सम्पूर्ण चित्र मिलता है। गीता की पार्श्वभूमि में युद्ध की उत्तेजक स्थिति के बीच औपनिषदीय पुरातन सत्य की एक बार पुन उद्घोषणा की गयी है। यहाँ इस ज्ञान का उपदेश स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण अपने परम मित्र अर्जुन को ऐसी संघर्षपूर्ण स्थिति के संदर्भ में दे रहे हैं जहाँ वह पूर्णतया मानसिक सन्तुलन को खोकर विषाद की अवस्था को प्राप्त होता है। इसलिये गीता से हम ऐसे उपदेश और मार्गदर्शन की अपेक्षा रख सकते हैं जो अत्यन्त सहानुभूतिपूर्वक किया गया हो। उपनिषद् के ऋषियों का सम्बन्ध सामान्य जनों से इतना अधिक नहीं था कि वे उनकी दुर्बलताओं को पूर्णतया समझ सकें। गीता की यह विशेषता संकल्पवाक्य में यह कहकर बतायी गयी है कि यह स्वयं भगवान् द्वारा एक र्मत्य पुरुष को दिया गया उपदेश है श्रीकृष्णार्जुनसंवादे। इस अध्याय का शीर्षक अर्जुनविषादयोग है जो कि वास्तव में परस्पर विरोधी शब्दों से बना है। यदि विषाद ही योग हो तो हम सब बिना किसी इच्छा या प्रयत्न के योगी ही हैं। इस अध्याय की व्याख्या में मैंने पहले ही सूचित किया है कि अर्जुन की विषाद की यह स्थिति इष्ट है क्योंकि इसमें गीतोपदेश के बीज बोकर श्रीकृष्ण के पूर्णत्व के पुष्प प्राप्त किये जा सकते हैं। किसी एक व्यक्ति समाज या राष्ट्र में धर्म और तत्त्वज्ञान की माँग तभी होगी जब उनके हृदय में अर्जुन के विषाद का अनुभव होगा। आज का जगत् जितनी अधिक मात्रा में यह अनुभव करेगा कि वह जीवन संग्राम का सामना करने में असहाय है और उसमें यह साहस नहीं कि स्वयं के द्वारा निर्मित अपने प्रिय आर्थिक मूल्यों एवं औद्योगिक लोभ का वह संहार कर सके उतनी ही अधिक मात्रा में वह गीतोपदेश का पात्र है। केवल पाकशास्त्र की क्रिया स्वयं में पूर्णता नहीं रखती। उसकी पूर्णता भोजन करने में है। उसी प्रकार जीवन में उच्च आराम और अनेक सुख सुविधाओं के साधन जुटा लेने पर भी पूर्णता अथवा कृतकृत्यता का अनुभव नहीं होता है। ऐसे समय में ही मनुष्य को पूर्णत्व प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा होती है। विषाद की स्थिति प्राप्त किये बिना अकेले शास्त्र हमारी सहायता नहीं कर सकते। आत्मयोग के पूर्व विषाद की स्थिति अनिवार्य होने के कारण उसे यहाँ योग कहा गया है। गीता में वर्णित योग को सीखने एवं जीने के लिए अर्जुनविषाद की स्थिति प्राथमिक साधना है।
।।1.47।।एतद्वृ़त्तान्तं संजयो धृतराष्ट्रं प्रत्यावेदितवानित्याह संजय इति। एवमुक्त्वा उक्तेन प्रकारेण श्रीकृष्णं प्रति विज्ञापनं कृत्वा पूर्वं शूराणामवलोकनायोत्थितोऽर्जुनः परया कृपयाविष्टः। शोकग्रहणं मोहस्याप्युपलक्षणार्थम्। शोकमोहाभ्यां सभ्यगुद्विग्नं मनो यस्य स एतादृशः सन् संख्ये संग्रामभूमिमध्ये शरेण सहितं चापं कार्मुकं विसृज्य त्यक्त्वा रथोपस्थे रथस्योपरि उपाविशत् उपविष्टवानित्यर्थः। इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचितायां गीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां प्रथमोऽध्यायः।।1।।
।।1.47।।एतद्वृ़त्तान्तं संजयो धृतराष्ट्रं प्रत्यावेदितवानित्याह संजय इति। एवमुक्त्वा उक्तेन प्रकारेण श्रीकृष्णं प्रति विज्ञापनं कृत्वा पूर्वं शूराणामवलोकनायोत्थितोऽर्जुनः परया कृपयाविष्टः। शोकग्रहणं मोहस्याप्युपलक्षणार्थम्। शोकमोहाभ्यां सभ्यगुद्विग्नं मनो यस्य स एतादृशः सन् संख्ये संग्रामभूमिमध्ये शरेण सहितं चापं कार्मुकं विसृज्य त्यक्त्वा रथोपस्थे रथस्योपरि उपाविशत् उपविष्टवानित्यर्थः। इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचितायां गीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां प्रथमोऽध्यायः।।1।।
।।1.47।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.47।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.47।।एतान्न हन्तुमिच्छामि 1।35यदि मामप्रतीकारम् 1।46 इत्यादेरभिप्रेतमाह सर्वथाहमिति। सर्वथा बहुप्रकारम्। एषामाततायित्वेऽपि इदानीं हन्तुमुद्यतत्वेऽपि युद्धान्निवृत्तेरधर्माकीत्यादिहेतुत्वेऽपि युद्धस्य त्रैलोक्यराज्याद्युपायत्वेऽपि किं बहुना सर्वेश्वरेश्वरेण मम हिततमोपदेशिना भवतोक्तत्वेऽपीति भावः। बन्धुविनाशस्य सिद्धत्वाध्यवसायः शोकहेतुः विषादमात्रपरो वाऽत्रशोकशब्दः। स शोकः शरचापपरित्यागे हेतुरिति व्युत्क्रमपाठेन दर्शितम्।संविग्नमानसः इति अत्यर्थचलितयुद्धाध्यवसाय इत्यर्थः।ओ विजी भयचलनयोः इति धातुः। एवं चलितयुद्धाध्यवसायत्वात् समराध्वरस्रुक्स्रुवादिस्थानीयं सशरं चापं विसृज्य प्रायोपवेशादिपर इव रथोपस्थे रथिस्थानाद्विनिवृत्य रथोत्सङ्ग उपाविशदिति भावः। इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतंत्रस्वतंत्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु
।।1.47।।एतान्न हन्तुमिच्छामि 1।35यदि मामप्रतीकारम् 1।46 इत्यादेरभिप्रेतमाह सर्वथाहमिति। सर्वथा बहुप्रकारम्। एषामाततायित्वेऽपि इदानीं हन्तुमुद्यतत्वेऽपि युद्धान्निवृत्तेरधर्माकीत्यादिहेतुत्वेऽपि युद्धस्य त्रैलोक्यराज्याद्युपायत्वेऽपि किं बहुना सर्वेश्वरेश्वरेण मम हिततमोपदेशिना भवतोक्तत्वेऽपीति भावः। बन्धुविनाशस्य सिद्धत्वाध्यवसायः शोकहेतुः विषादमात्रपरो वाऽत्रशोकशब्दः। स शोकः शरचापपरित्यागे हेतुरिति व्युत्क्रमपाठेन दर्शितम्।संविग्नमानसः इति अत्यर्थचलितयुद्धाध्यवसाय इत्यर्थः।ओ विजी भयचलनयोः इति धातुः। एवं चलितयुद्धाध्यवसायत्वात् समराध्वरस्रुक्स्रुवादिस्थानीयं सशरं चापं विसृज्य प्रायोपवेशादिपर इव रथोपस्थे रथिस्थानाद्विनिवृत्य रथोत्सङ्ग उपाविशदिति भावः। इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतंत्रस्वतंत्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु
।।1.47।।No commentary.
।।1.47।।ततः किं कृतवानित्यपेक्षायां सञ्जय आह। एवमुक्त्वा अर्जुनः सङ्ख्ये सङ्ग्रामे रथोपस्थे रथोपरि स्थितः भक्त्यन्तरायत्वेन युद्धोपक्रान्तिराज्यानाकाङ्क्षणेऽपि भगवदनुत्तरे भक्तिज्ञानार्थं शोकसंविग्नमानसो भूत्वा सशरं चापं विसृज्य उप समीपे भगवत आविशत् स्थित इत्यर्थः। एवमस्मिन्नध्यायेऽर्जुनस्य विषादे लोकशास्त्रातिक्रमो हेतुत्वेनोक्तः। न चार्त्ताधिकारस्याग्रिमाध्यायारम्भ एव सिद्धेरस्याध्यायस्य किं प्रयोजनमिति शङ्क्यम् कृपावेशबोधनार्थत्वेन सप्रयोजनत्वात्। अत एव पाद्मे गीतामाहात्म्ये तस्मादध्यायमाद्यं यः पठेद्यः संस्मरेत्तथा। अभ्यासादस्य न भवेद्भवाम्भोधिः सुदुस्तरः श्लो.53 इति फलमुक्तं तस्मादुपोद्धातसङ्गतिः।।
।।1.47।।ततः किं कृतवानित्यपेक्षायां सञ्जय आह। एवमुक्त्वा अर्जुनः सङ्ख्ये सङ्ग्रामे रथोपस्थे रथोपरि स्थितः भक्त्यन्तरायत्वेन युद्धोपक्रान्तिराज्यानाकाङ्क्षणेऽपि भगवदनुत्तरे भक्तिज्ञानार्थं शोकसंविग्नमानसो भूत्वा सशरं चापं विसृज्य उप समीपे भगवत आविशत् स्थित इत्यर्थः। एवमस्मिन्नध्यायेऽर्जुनस्य विषादे लोकशास्त्रातिक्रमो हेतुत्वेनोक्तः। न चार्त्ताधिकारस्याग्रिमाध्यायारम्भ एव सिद्धेरस्याध्यायस्य किं प्रयोजनमिति शङ्क्यम् कृपावेशबोधनार्थत्वेन सप्रयोजनत्वात्। अत एव पाद्मे गीतामाहात्म्ये तस्मादध्यायमाद्यं यः पठेद्यः संस्मरेत्तथा। अभ्यासादस्य न भवेद्भवाम्भोधिः सुदुस्तरः श्लो.53 इति फलमुक्तं तस्मादुपोद्धातसङ्गतिः।।
।।1.47।।एवं तु पार्थो महाकरुणो लोकवेदधर्मपण्डितमानी कोमलमना वासुदेवसहायो निहनिष्यमाणान् विलोक्य बन्धुस्नेहेनाधमभयेन च प्रस्विन्नाङ्गः सर्वथा न योत्स्यामीत्युक्त्वा मोहशोकाविष्टः सशरं चापं उत्सृज्य रथोपस्थ उपाविशत् सर्वतो दुःखेन निर्विण्ण उपविष्टः इत्यार्तवत्वं तस्य सूचितम्।