श्री भगवानुवाचमय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।12.2।।
śhrī-bhagavān uvācha mayy āveśhya mano ye māṁ nitya-yuktā upāsate śhraddhayā parayopetās te me yuktatamā matāḥ
The Blessed Lord said, "In My opinion, those who fix their minds on Me, worship Me ever steadfastly, and are endowed with supreme faith, are the best in Yoga."
12.2 मयि on Me? आवेश्य fixing? मनः the mind? ये who? माम् Me? नित्ययुक्ताः ever steadfast? उपासते worship? श्रद्धया with faith? परया supreme? उपेताः endowed? ते those? मे of Me? युक्ततमाः the best versed in Yoga? मताः (in My) opinion.Commentary Those devotees who fix their minds on Me in the Cosmi Form? the Supreme Lord and worship Me? ever harmonised and with intense and supreme faith? regarding Me as the Lord of all the masters of Yoga? who are free from attachment and other evil passions -- these? in My opinion? are the best versed in Yoga.They spend their days and nights in worshipping Me. They have no other thoughts except those,of Myself. They live for Me only. Therefore it is indeed proper to say that they are the best Yogins.Are not the others? those who contemplate the imperishable? formless? attributeless? alityless Supreme Brahman? the best of Yogins Listen now to what I have to say regarding them.
।।12.2।। व्याख्या--[भगवान्ने ठीक यही निर्णय अर्जुनके बिना पूछे ही छठे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें दे दिया था। परन्तु उस विषयमें अपना प्रश्न न होनेके कारण अर्जुन उस निर्णयको पकड़ नहीं पाये। कारण कि स्वयंका प्रश्न न होनेसे सुनी हुई बात भी प्रायः लक्ष्यमें नहीं आती। इसलिये उन्होंने इस अध्यायके पहले श्लोकमें ऐसा प्रश्न किया।
।।12.2।। अपने उत्तर के प्रारम्भ में ही भगवान् उन तीन अत्यावश्यक गुणों को बताते हैं? जिनके होने पर ही ईश्वर की भक्ति का निश्चित लाभ मिल सकता है। सामान्यत? लोगों की यह धारणा है कि भक्तिमार्ग अत्यन्त सरल है। परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि जो साधक अपना जो मार्ग स्वयं चुनता है? उसके लिए वह मार्ग कठिन नहीं होता है। मार्गों की भिन्नता केवल प्रयुक्त साधनों अर्थात् उपाधियों के कारण ही है। एक नौका के द्वारा ग्राँडट्रंक रोड् की यात्रा नहीं की जा सकती है और न हवाई जहाज के द्वारा समुद्र यात्रा? और न ही साइकिल से साठ मील प्रति घंटे की गति से मार्ग तय किया जा सकता है प्रत्येक वाहन की अपनी सीमाएं हैं। परन्तु किसी भी साधन का बुद्धिमत्ता तथा सावधानीपूर्वक उपयोग करने से गन्तव्य तक पहुँचा जा सकता है। इसी प्रकार आत्मविकास के लिए भी प्रत्येक साधक उपलब्ध शरीर? मन और बुद्धि की उपाधियों में से किसी एक की प्रधानता से कर्मयोग या भक्तियोग या ज्ञानयोग के मार्ग को चुनता है। प्रत्येक साधक को अपना चुना हुआ मार्ग सबसे सरल प्रतीत होता है।मन को मुझमें एकाग्र करके मन और बुद्धि दोनों ही वृत्तिरूप हैं? जिन्हें सूक्ष्म शरीर कहा जाता है। यह पर्याप्त नहीं है कि मन की वृत्तियां आराम से भगवान् के रूप के आसपास विचरण करती रहें। उन्हें वास्तव में? उस रूप का भेदन करके? गहराई में प्रवेश कर अन्त में? पूर्णत्व के आदर्श के साथ एकरूप हो जाना चाहिए। वह रूप तो पूर्णत्व का केवल प्रतीक होता है।इस प्रक्रिया को यहाँ आवेश्य शब्द से सूचित किया गया है। इसका अर्थ रूप के साथ वृत्ति का स्पर्श मात्र नहीं? वरन् रूप का भेदन है। वस्तुत मनुष्य का मन अपने ध्येय विषय का आकार? सुगन्ध और गुणों की आभा भी धारण करता है? इस प्रकार जब कोई भक्त पूर्ण लगन और प्रेम के साथ भगवान् का ध्यान करता है? तब वह एक व्यक्ति के रूप में क्षणभर के लिए लुप्त हो जाता है और अपने हृदयकेइष्ट भगवान् की सुन्दरता और आभा को प्राप्त होता है।नित्ययुक्त हुए मेरी पूजा (उपासना) करते हैं भक्तिमार्ग के द्वारा आत्मविकास के सम्पादन के लिए जो दूसरा गुण भक्त में होना आवश्यक है? वह नित्ययुक्तता है। नित्ययुक्त होने का अर्थ है नित्य नियमित उपासना के समय आत्मसंयम का होना। मन अपनी बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण ध्येय को त्यागकर अन्य विषयों में ही विचरण करने लगता हैं। ऐसे मन का ध्यान ध्येय में ही स्थिर करने की कला का ही नाम है? आत्मसंयम। यद्यपि संस्कृत शब्द उपासना का अनुवाद पूजा किया जा सकता है? तथापि उससे अत्यन्त सतही अर्थ नहीं लेना चाहिए। उस शब्द से हम सामान्यत यन्त्रवत् कर्मकाण्डीय पूजा समझते हैं। वास्तविक उपासना तो परमात्मा के साथ तादात्म्य करने की आन्तरिक क्रिया है? जिसके द्वारा हम परमात्मस्वरूप बन जाते हैं।परा श्रद्धा से युक्त हुए साधारणत श्रद्धा शब्द का अर्थ अन्धविश्वास समझा जाता है? परन्तु वह अनुचित है। श्रद्धा का अर्थ है किसी अज्ञात वस्तु में मेरा वह विश्वास जिसके द्वारा मुझे वह वस्तु यथार्थ रूप से ज्ञात होती है? जिसमें मेरा पहले केवल विश्वास ही था। ऐसी श्रद्धा के बिना साधक भक्त? वर्षों के अभ्यास के बाद भी पर्याप्त मात्रा में चित्तशुद्धि और स्वयं का दैवीकरण सम्पादित नहीं कर सकता है।इस प्रकार? एक सच्चा भक्त बनने के लिए इस श्लोक में जिस तीन आवश्यक एवं अपरिहार्य गुणों को बताया गया है? वे हैं (1) परम श्रद्धा (2) उपासना में नित्ययुक्तता और (3) ध्येयस्वरूप में मन की एकाग्रता। इन तीन गुणों से सम्पन्न व्यक्ति को भगवान् युक्ततम मानते हैं।तो क्या अन्य भक्त युक्ततम नहीं हैं ऐसी बात नहीं है? किन्तु उनके विषय में जो कहना है? उसे सुनो
।।12.2।।किमनयोर्योगयोर्मध्ये सुशक्यो योगो वा पृच्छ्यते किं वा साक्षान्मोक्षहेतुरिति विकल्प्य क्रमेणोत्तरं भगवानुक्तवानित्याह -- श्रीभगवानिति। यदि द्वितीयस्तथाविधयोगस्य वक्ष्यमाणत्वान्न प्रष्टव्यतेत्याह -- ये त्वक्षरेति। यद्याद्यस्तत्राह -- ये त्विति। सर्वयोगेश्वराणां सर्वेषां योगमधितिष्ठतां योगिनामित्यर्थः। विमुक्ता त्यक्ता रागाद्याख्या क्लेशनिमित्तभूता तिमिरशब्दितानाद्यज्ञानकृता दृष्टिरविद्या मिथ्या धीर्यस्य तमिति विशिनष्टि -- विमुक्तेति। नित्ययुक्तत्वं साधयति -- अतीतेति। तत्रोक्तो योऽर्थो मत्कर्मकृदित्यादि,तस्मिन्निश्चयेनायनमायो गमनं तस्य नियमेनानुष्ठानं तेनेत्यर्थः। उपासते मयि स्मृतिं सदा कुर्वन्तीत्यर्थः। उक्तोपासकानां युक्ततमत्वं व्यनक्ति -- नैरन्तर्येणेति। तदेव स्फुटयति -- अहोरात्रमिति। अह्नि च रात्रौ चातिमात्रमतिशयेन मामेव विषयान्तरविमुक्ताश्चिन्तयन्तीत्यर्थः।
।।12.2।।सविशेषानिर्विशेषोपासनयोः सुशकत्वगुणेन किमुपासनं श्रष्ठमिति पृच्छते किंवा साक्षान्मोक्षहेतुत्वेन गुणेनेति विकल्प्य? साक्षान्मोक्षहेतुत्वेन श्रैष्ठ्यं निर्विशेषोपासनस्योक्तं वक्ष्यमाणं च सुशकत्वेन तु प्रथमस्य श्रृण्वित्याशयवान् श्रीभगवानुवाच। मयि विश्वरुपे परमेश्वरं त्रिगुणमायानदीनर्तके सर्वात्मनि परमप्रमास्पदे ये मन आवेश्य समाधाय भक्तः सन्तो मां समस्तयोगादीश्वराधीश्वरं सर्वज्ञं त्यक्तरागादिरुपक्लेशनिमित्तभूतानाद्यज्ञानाविद्यालक्षणमिध्यादृष्टिं नित्ययुक्ताःमत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। निर्वैरः सर्वभूतेषु यः सस मामेति पाण्डव इत्येवं सततयुक्ताः श्रद्धया परया प्रकृष्टया ईश्वरभजनादेवोद्धार इति निश्चयापन्ना उपासते ते मम युक्ततमाः श्रेष्ठतमा मता अभिप्रेताः यतो विषान्तरविमुखा नैरन्तर्येण मयि मन आवेश्य मामेवाहर्निशं चिन्तयन्तीत्यत इति भावः। येतु मे मतमिति ज्ञानिनमात्मत्वेनैव पश्यतो मर्खेष्वपि,कारुण्यात्पक्षपातवतः सर्वज्ञस्य युक्ततमा मता इति वदन्ति तेषां पक्षेऽस्मिन्प्रकरणे एतदुक्ते सामञ्जस्यं चिन्त्यम्। भगवता कारुण्यात्पक्षापातेन युक्ततमत्वेनाभिमतानां भगवद्भक्तानां सुशकोपासने प्रवृत्ता अतो युक्तातमा इति वस्तुवृत्त्याऽभिप्रेतस्य श्रेष्ठतमत्वस्यासिद्धेः स्पष्टत्वात्।
।।12.2।।निर्गुणस्य दुष्प्रापत्वोक्त्यैव श्रेष्ठत्वं सूचयन् सगुणप्राशस्त्यं च शब्दतो दर्शयन् श्रीभगवानुवाच -- मयीति। मयि सगुणे ब्रह्मणि मन आवेश्य प्रवेश्य ये नित्ययुक्ताः सदोद्युक्ता मां परमेश्वरमुपासते चिन्तयन्ति श्रद्धया आस्तिक्यबुद्ध्या परया सात्विक्या अवश्यं परमात्मायमाराधितोऽस्मांस्तारयिष्यतीत्येवं निश्चयरूपया श्रद्धया उपेतास्ते मे ममज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् इति ज्ञानिनमात्मत्वेनैव पश्यतो मूर्खेष्वपि कारुण्यात्पक्षपातवतः सर्वज्ञस्य युक्ततमा मताः।
।।12.2।।श्रीभगवानुवाच -- अत्यर्थमत्प्रियत्वेन मनो मयि आवेश्य श्रद्धया परया उपेता नित्ययुक्ता नित्ययोगं काङ्क्षमाणा ये माम् उपासते? प्राप्यविषयं मनो मयि आवेश्य ये माम् उपासते इत्यर्थः ते युक्ततमा मे मताः। मां सुखेन अचिरात् प्राप्नुवन्ति इत्यर्थः।
।।12.2।। तत्र प्रथमाः श्रेष्ठा इत्युत्तरं श्रीभगवानुवाच -- मयीति। मयि परमेश्वरे सर्वज्ञत्वादिगुणविशिष्टे मन आवेश्यैकाग्रं कृत्वा नित्ययुक्ता मदर्थकर्मानुष्ठानादिना मन्निष्ठाः सन्तः श्रेष्ठया श्रद्धया युक्ता ये मामाराधयन्ति ते युक्ततमा ममाभिमताः।
।।12.2।।मयीति।मय्यावेश्य इत्यत्रोपासनान्यथानुपपत्तिलभ्यविषयीकरणमात्रपरत्वे निष्प्रयोजनत्वादक्षरनिष्ठस्याप्युपायतया भगवति चित्तावेशसाम्यात्तद्व्यवच्छेदार्थमाहप्राप्यविषयमिति।
।।12.2।।मयीति। माहेश्वर्यविषयो येषां समावेशः अकृत्रिमस्तन्मयीभावः (?N तन्मयो भावः) ते युक्ततमा मम (S omits मम) मताः इत्यनेन प्रतिज्ञा क्रियते।
।।12.2।।तत्र सर्वज्ञो भगवानर्जुनस्य सगुणविद्यायामेवाधिकारं पश्यंस्तं प्रति तां विधास्यति? यथाधिकारं तारतम्योपेतानि च साधनानि। अतः प्रथमं साकारब्रह्मविद्यां प्ररोचयितुं स्तुवन् प्रथमाः श्रेष्ठा इत्युत्तरं श्रीभगवानुवाच -- मयीति। मयि भगवति वासुदेवे परमेश्वरे सगुणे ब्रह्मणि मन आवेश्यानन्यशरणतया निरतिशयप्रियतया च प्रवेश्य। हिङ्गुलरङ्ग इव जतु तन्मयं कृत्वा ये मां सर्वयोगेश्वराणामीश्वरं सर्वज्ञं समस्तकल्याणगुणनिलयं साकारं नित्ययुक्ताः सततोद्युक्ताः श्रद्धया परया प्रकृष्टया सात्त्विक्योपेताः सन्त उपासते सदा चिन्तयन्ति ते युक्ततमा मे मम मता अभिप्रेताः। ते हि सदा मदासक्तचित्ततया मामेव विषयान्तरविमुखाश्चिन्तयन्तोऽहोरात्राण्यतिवाहयन्ति। अतस्त एव युक्ततमा मता अभिमताः।
।।12.2।।तत्र ये प्रकटपुरुषोत्तमरूपमद्भजनकर्तारस्त उत्तमा इत्याशयेनोत्तरमाह श्रीभगवान् -- मयीति। मयि प्रकटरूपे सम्यक् निष्कामतया मनः सर्वदैकरूपमावेश्य आसमन्तात् सर्वात्मभावेन निवेश्य ये भाग्यवन्तो नित्ययुक्ताः मत्सेवैकतत्पराः परया प्रेमैकलक्षणया श्रद्धया उपेताः युक्तास्ततो मामुपासते सेवन्ते ते युक्ततमा उत्तमाः मे मताः सम्मता इत्यर्थः।
।।12.2।। --,मयि विश्वरूपे परमेश्वरे आवेश्य समाधाय मनः? ये भक्ताः सन्तः? मां सर्वयोगेश्वराणाम् अधीश्वरं सर्वज्ञं विमुक्तरागादिक्लेशतिमिरदृष्टिम्? नित्ययुक्ताः अतीतानन्तराध्यायान्तोक्तश्लोकार्थन्यायेन सततयुक्ताः सन्तः उपासते श्रद्धया परया प्रकृष्टया उपेताः? ते मे मम मताः अभिप्रेताः युक्ततमाः इति। नैरन्तर्येण हि ते मच्चित्ततया अहोरात्रम् अतिवाहयन्ति। अतः युक्तं तान् प्रति युक्ततमाः इति वक्तुम्।।किमितरे युक्ततमाः न भवन्ति न किंतु तान् प्रति यत् वक्तव्यम्? तत् श्रृणु --,
।।12.2।।तत्र सिद्धान्तं वदन् श्रीभगवानुवाच -- मयीति। सर्वनियन्तरि सकलालौकिकगुणे साक्षान्मन्मथमन्मथे निरवद्या(ध्य)नन्तनित्यलोके करुणाशीले परमानन्दे लोकोत्तरनामरूपाङ्गेऽसङ्ख्येयसर्वधर्माश्रये परतत्त्वे रसात्मके पूर्णपुरुषोत्तमे साक्षात्कर्त्तरि परदेवतायां भगवति सर्वमूलभूते मयि ये प्रेममात्रसम्बन्धेन (येनकेन च सम्बन्धेन) नित्ययुक्ता मन आवेश्य मामुपासते।अयमेवास्माकं भजनीयगुणालयः परः प्रेयानात्मा? नान्यः इति परया श्रद्धयोपेतास्ते युक्ततमा मे मताः।