संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।12.4।।
sanniyamyendriya-grāmaṁ sarvatra sama-buddhayaḥ te prāpnuvanti mām eva sarva-bhūta-hite ratāḥ
Having restrained all the senses, being even-minded everywhere, and intent on the welfare of all beings, they verily come unto Me.
12.4 संनियम्य having restrained? इन्द्रियग्रामम् the aggregate of the senses? सर्वत्र everywhere? समबुद्धयः evenminded? ते they? प्राप्नुवन्ति obtian? माम् Me? एव only? सर्वभूतहिते in the welfare of all beings? रताः rejoicers.Commentary Those who are free from likes and dislikes (attraction and repulsion) can possess,eanimity of mind. Those who have destroyed ignorance which is the cause for exhilaration and grief? through the knowledge of the Self? those who are free from all kinds of sensual cravings through the constant practice of finding the defects or the evil in sensual pleasures can have evenness of mind. Those who are neither elated nor troubled when they get desirable or undesirable objects can possess evenness of mind.The two currents of love and hatred (likes and dislikes) make a man think of harming others. When these two are destroyed through meditation on the Self? the Yogi is intent on the welfare of others. He rejoices in doing service to the people. He plunges himself in service. He works constantly for the solidarity or wellbeing of this world. He gives fearlessness (Abhayadana) to all creatures. No creature is afraid of him. He becomes a Paramahamsa Sannyasi who gives shelter to all in his heart. He attains Selfrealisation. He becoes a knower of Brahman. The knower of Brahman becomes Brahman.By means of the control of the senses the Yogi closes the ten doors (the senses) and withdraws the senses from the sensual objects and fixes the mind on the innermost Self. Those who meditate on the imperishable transcendental Brahman? restraining and subduing the senses? regarding everything eally? rejoicing in the welfare of all beings -- these also come to Me. It needs no saying that they reach Myself? because I hold the wise as verily Myself (Cf.VII.18). Further it is not necessary to say that they are the best Yogins as they are one with Brahman Himself. (Cf.V.25XI.55)But --
।।12.4।। व्याख्या --'तु'--यहाँ 'तु' पद साकार-उपासकोंसे निराकार-उपासकोंकी भिन्नता दिखानेके लिये आया है। 'संनियम्येन्द्रियग्रामम्' -- 'सम्' और 'नि' -- दो उपसर्गोंसे युक्त 'संनियम्य' पद देकर भगवान्ने यह बताया है कि सभी इन्द्रियोंको सम्यक् प्रकारसे एवं पूर्णतः वशमें करे? जिससे वे किसी अन्य विषयमें न जायँ। इन्द्रियाँ अच्छी प्रकारसे पूर्णतः वशमें न होनेपर निर्गुणतत्त्वकी उपासनामें कठिनता होती है। सगुण-उपासनामें तो ध्यानका विषय सगुण भगवान् होनेसे इन्द्रियाँ भगवान्में लग सकती हैं; क्योंकि भगवान्के सगुण स्वरूपमें इन्द्रियोंको अपने विषय प्राप्त हो जाते हैं। अतः सगुण-उपासनामें इन्द्रिय-संयमकी आवश्यकता होते हुए भी इसकी उतनी अधिक आवश्यकता नहीं है, जितनी निर्गुण-उपासनामें है। निर्गुण-उपासनामें चिन्तनका कोई आधार न रहनेसे इन्द्रियोंका सम्यक् संयम हुए बिना (आसक्ति रहनेपर) विषयोंमें मन जा सकता है और विषयोंका चिन्तन होनेसे पतन होनेकी अधिक सम्भावना रहती है (गीता 2। 62 -- 63)। अतः निर्गुणोपासकके लिये सभी इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाते हुए सम्यक् प्रकारसे पूर्णतः वशमें करना आवश्यक है। इन्द्रियोंको केवल बाहरसे ही वशमें नहीं करना है, प्रत्युत विषयोंके प्रति साधकके अन्तःकरणमें भी राग नहीं रहना चाहिये; क्योंकि जबतक विषयोंमें राग है, तबतक ब्रह्मकी प्राप्ति कठिन है (गीता 15। 11)।
।।12.4।। पूर्व श्लोकों में सगुणोपासक भक्तों के लिए आवश्यक गुणों का वर्णन करने के पश्चात् अब भगवान् श्रीकृष्ण निर्गुण के उपासकों का वर्णन उपर्युक्त दो श्लोकों में करते हैं।अक्षर रूप और गुणों से युक्त सभी वस्तुएं द्रव्य हैं और सभी द्रव्य क्षर अर्थात् नाशवान होते हैं। इन्द्रियों के द्वारा केवल इन द्रव्यों का ही ज्ञान हो सकता है। अत अक्षर शब्द से यह सूचित किया गया है कि इन्द्रियों के द्वारा परमतत्त्व का ज्ञान कदापि संभव नहीं है।अनिर्देश्य जो परिभाषित नहीं किया जा सकता है उसे अनिर्देश्य कहते हैं। सभी परिभाषाएं दृश्य वस्तु के सन्दर्भ में ही दी जा सकती हैं। अत जो इन्द्रियों का दृश्य नहीं होता? उसकी न परिभाषा दी जा सकती है और न ही उसे अन्य वस्तुओं से भिन्न करके जाना जा सकता है।सर्वत्रगम् जो अनन्त तत्त्व गुण रहित होने से व्यक्त नहीं हैं? और इसी कारण अनिर्देश्य है? उसको सर्वव्यापी होना आवश्यक है। यदि परमात्मा से कोई स्थान रिक्त हो? तो परमात्मा को आकार विशेष प्राप्त हो जायेगा। और साकार वस्तु विनाशी भी होगी।अचिन्त्यम् मन के द्वारा जिस वस्तु का चिन्तन किया जा सकता है? वह दृश्य पदार्थ होने के कारण नाशवान् होगी। इसलिए अविनाशी तत्त्व निश्चित ही अकल्पनीय? अग्राह्य और अचिन्त्य होगा।कूटस्थम् (अविकारी) यद्यपि चैतन्यस्वरूप आत्मा वह अधिष्ठान है? जिसके ऊपर सब विकार और परिवर्तन होते रहते हैं? परन्तु वह स्वयं अपरिवर्तनशील और अविकारी ही रहता है। कूट शब्द का अर्थ है निहाई। एक लुहार की दुकान में निहाई पर अन्य लौह खण्डों को रखकर उन पर आघात करके उन्हें विभिन्न आकार दिये जाते हैं? परन्तु निहाई स्वयं अपरिवर्तित ही रहती है। उसी प्रकार चैतन्य के सम्बन्ध से उपाधियों तथा व्यक्तित्व में विकार होता है? किन्तु चैतन्य तत्त्व कूट के समान अविकारी रहता है।अचलम् चलन का अर्थ है वस्तु का देश और काल की मर्यादा में परिवर्तन होना। कोई वस्तु अपने में ही चल नहीं सकती उसका चलन वही पर संभव है? जहाँ पर वह पहले से विद्यमान नहीं है। यहाँ? इस क्षण मैं कुर्सी पर बैठा हूँ। मैं दूसरे क्षण दूसरा स्थान ग्रहण करने जा सकता हूँ। परन्तु? यहीं और इसी क्षण अपनी कुर्सी पर बैठा मैं अपने में ही चल फिर नहीं सकता? क्योंकि मैं स्वयं को पूर्णत व्याप्त किये हुए हूँ। परमात्मा सर्वव्यापी है? और इसलिए? देश या काल में ऐसा कोई स्थान या क्षण नहीं है? जहाँ वह विद्यमान न हो? अत वह अचल कहलाता है। वह यत्र? तत्र? सर्वत्र है उसमें ही भूत? वर्तमान और भविष्य का अस्तित्व है।ध्रुवम् (शाश्वत् सनातन) विकारी वस्तु देश और काल से अवच्छिन्न होती है। परन्तु जो देश और काल का भी अधिष्ठान है? वह परमात्मा इन दोनों से परिच्छिन्न नहीं हो सकता है। अनन्त स्वरूप चैतन्य आत्मा सर्वत्र? सब काल में एक ही है। शैशव? यौवन और वृद्धावस्था में? सर्वत्र? सब काल और सुखदुख? लाभहानि की समस्त परिस्थितियों में आत्मा एक समान ही रहता है। जब हम अपने शरीर? मन और बुद्धि के स्तर पर आते हैं? केवल तभी हम आइन्स्टीन के द्वारा वर्णित देश और काल की सापेक्षता के जगत् में प्रवेश करते हैं। परमात्मा कालविच्छिन्न नहीं है वह काल का भी शासक है। वह ध्रुव है।यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन दो श्लोकों में प्रयुक्त शब्द उपनिषदों से लिये गये हैं। इन शब्दों के द्वारा उस परमात्मा का निर्देश किया जाता है? जो इस नित्य परिवर्तनशील नाम और रूपों? कर्म और घटनाओं? विषय ग्रहण और भावनाओं? विचारों तथा अनुभवों के जगत् का एकमेव सनातन अधिष्ठान है। सभी उपासकों में निम्नलिखित तीन गुणों का होना आवश्यक है।इन्द्रियसंयम इन्द्रियों के द्वारा अपनी शक्तियों का अपव्यय करना अविचारी एवं निम्न स्तर की रुचि वाले मनुष्यों का कार्य़ होता है। पूर्णत्व के शिखर पर पहुँचकर परमानन्द का अनुभव करने की जिस साधक की महत्त्वाकांक्षा है? उसको चाहिए कि वह इस अपव्यय में कटौती करे? और इस प्रकार उपार्जित शक्तियों का सदुपयोग ध्यान में आत्मानुभव को प्राप्त करने के लिए करे। पांच ज्ञानेन्द्रियां ही वे द्वार हैं? जिनके माध्यम से मन को विचलित करने वाले बाह्य जगत् के विषय चोरी छिपे मन में प्रवेश करके हमारी आन्तरिक शान्ति को नष्ट कर देते हैं। और फिर हमारा मन कर्मेन्द्रियों के द्वारा बाह्य जगत् में अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करने को दौड़ पड़ता है। इस प्रकार? विषयग्रहण और प्रतिक्रिया रूप यह व्यवहार मन के सामंजस्य और सन्तुलन को तोड़ देता है। इसलिए? यहाँ श्रीकृष्ण का इन्द्रियसंयम पर बल देना उचित ही है? क्योंकि ध्यानमार्ग की सफलता इसी पर निर्भर करती है।सर्वत्र समबुद्धि सफलता के लिए आवश्यक यह दूसरा गुण है। समस्त प्रकार की परिस्थितियों और अनुभवों में बुद्धि की समता होनी चाहिए। बाह्य विक्षेपरहित दशा की आशा और प्रतीक्षा करना मूर्खता का लक्षण ही है। ऐसी आदर्श परिस्थिति का होना असम्भव है। जगत् की वस्तुएं अपने में ही तथा विशिष्ट संरचनाओं के रूप में भी निरन्तर परिवर्तित होती रहती हैं। इसलिए ऐसे नित्य परिवर्तनशील रचना वाले जगत् में किसी ऐसी इष्ट स्थिति की अपेक्षा रखना जो साधक के ध्यानाभ्यास के लाभ के लिए निरन्तर एक समान बनी रहे? वास्तव में अविवेकपूर्ण ही कहा जा सकता है। यह सर्वथा असंभव है। इसलिए? ऐसे परिवर्तनशील जगत् में साधक को ही चाहिए कि व्ाह अपने बौद्धिक मूल्यांकनों? मन की आसक्तियों तथा बाह्य जगत् के साथ होने वाले सम्पर्कों को विवेकपूर्ण संयमित करके बुद्धि की समता और मन का सन्तुलन बनाये रखे। दृष्टि के समक्ष मन में विकार या विक्षेप उत्पन्न करने वाले विषयों या परिस्थितियों के होने पर भी जो पुरुष अपना सन्तुलन नहीं खोता है? वही समबुद्धि कहलाता है। जिस पुरुष ने अपनी विवेकशक्ति का विकास किया है? वह बड़ी सरलता से सौन्दर्य के उस स्वर्णिम तार को देख और पहचान सकता है? जो इस जगत् की उन समस्त वस्तुओं को धारण किये हुए है? जो सुन्दर और आकर्षक तथा कुरूप और प्रतिकर्षक है। इस क्षमता से सम्पन्न साधक को ही यहाँ समबुद्धि कहा गया है।किसी व्यक्ति का शिशु पुत्र किसी समय मैला है तो दुसरे समय अत्यन्त चंचल प्रात रुदन कर रहा होता है? तो दोपहर में हंसता है संध्याकाल में तंग करता है और रात में उन्मत्त और फिर भी? उसकी इन सब दशाओं में उसका पिता एक पुत्र को ही देखता है? और इसलिए उसके भिन्नभिन्न रूपों में भी उसे समान रूप से ही प्रेम करता है। यह उस प्रेमपूर्ण पिता की समबुद्धि है। इसी प्रकार एक सच्चा साधक अपने जीवन के भयानक दुखान्तों और आनन्ददायक सुखान्तों में तथा अभूतपूर्व सफलताओं और निराशाजनक विफलताओं में भी अपने हृदय के इष्ट देव को पहचानना सीखता है। इसलिए? वह बौद्धिक समता को प्राप्त हो जाता है।भूतमात्र के हित में रत होते हैं सफलता के लिए आवश्यक तीसरे गुण को बताते हुए भगवान् कहते हैं कि साधक को अर्पण की भावना से सदैव यथाशक्ति भूतमात्र की सेवा में रत रहना चाहिए। जब तक मनुष्य इस शरीर को धारण किये जीवित रहता है? तब तक उसके लिये यह सर्वथा असंभव है कि नित्य निरन्तर प्रत्येक समय अपने मन और बुद्धि को आत्मचिन्तन में ही स्थिर कर सके। जगत् के साथ उसे सामान्य व्यवहार करना ही होगा। इस प्रकार के व्यवहारों में उसे निरन्तर अथक प्रय़त्न करके प्राणीमात्र की सेवा करनी चाहिए। यह तो इस ज्ञान का स्वरूप ही है। भूतमात्र को प्रेम करना तो उसका धर्म ही है।इस प्रकार उक्त तीन गुणों से सम्पन्न होकर जो साधकगण अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं? वे भी मुझे ही प्राप्त होते हैं यह भगवान् श्रीकृष्ण की घोषणा है।अर्जुन द्वारा पूछा गया प्रश्न वास्तव में विवादास्पद है? जबकि भगवान् द्वारा दिया गया उसका उत्तर एक अविवादास्पद सत्य की घोषणा है। यहाँ महान् दार्शनिक भगवान् श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि किस प्रकार दोनों ही उपासक एक ही लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। दोनों में ही सफलता के लिए कौन से समान गुणों का होना आवश्यक है। यहाँ वर्णित साधना पद्धतियों का निष्ठापूर्वक और पूर्णतया पालन करने पर सगुणसाकार अथवा निर्गुणनिराकार की उपासना के द्वारा एक ही परमात्मा की प्राप्ति होगी।परन्तु? सामान्यत? बहुसंख्यक साधकों के विषय में वे कहते हैं
।।12.4।।कथमक्षरमुपासते तदुपासने वा किं स्यादिति तदाह -- संनियम्येति। तुल्या हर्षविषादरागद्वेषादिरहिता सम्यग्ज्ञानेनाज्ञानस्यापनीतत्वात्। क्रमपरम्परापेक्षयोरसंभवं विवक्षित्वाह -- ते य इति। सर्वेभ्यो भूतेभ्यो हिते रताः सर्वेभ्यो भूतेभ्यो हितमेव चिन्तयन्तस्तदेवाचरन्ति। ज्ञानवतां यथाज्ञानं भगवत्प्राप्तेरर्थसिद्धत्वादनुवादमात्रमित्याह -- नत्विति। ज्ञानिनो भगवत्प्राप्तिः सिद्धैवेत्यत्र प्रमाणमाह -- ज्ञानी,त्विति। ज्ञानवतां भगवत्प्राप्तौ त एव युक्ततमा वक्तव्याः कथं सगुणब्रह्मोपासकान्युक्ततमानुक्तवानसीत्याशङ्क्याह -- नहीति।
।।12.4।।उपासनस्य प्रकारं फलं चाह। इन्द्रियग्राममिन्द्रियसमूहं संनियम्य स्वविषयेभ्य उपसंहृत्य सर्वत्र समबुद्धयः सर्वस्मिन्काले इष्टानिष्टप्राप्तौ सभा रागद्वेषरहिता बुद्धिर्येषां ते? अतएव सर्वेषां भूतानां हिते रताः प्रीतिमन्तः ये एवंप्रकारेणाक्षरमुपासते ते मां परमात्मानं प्राप्नुवन्ति। एवकारेणैषामेव साक्षान्मोक्षप्राप्तियोग्यतां बोधयति। प्राप्तिप्यत्र विस्मृतग्रैवकस्य प्राप्तस्य प्राप्तिरेव बोध्या नत्वप्राप्तस्य ग्रामादेः प्राप्तिरिव।विमुक्तश्च विमुच्यते इति श्रुतेः।ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् इति स्मृतेश्च।
।।12.3 -- 12.4।।भवन्तु त्वदुपासका एवोत्तमाः? इतरेषां तु किं फलं इत्यत आह -- ये त्वित्यादिना। अनिर्देश्यत्वं चोक्तं भागवते मायायाः -- अप्रतर्क्यादनिर्देश्यादिति केष्वपि निश्चयः [ ] इति। ईश्वरस्तु देवशब्देनोक्तःदैवमन्ये परे [4।25] इत्यत्र। उक्तं च सामवेदे काषायणश्रुतौ -- नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम् [ऋक्सं.8।7।18।1] इति। न महाभूतं नोपभूतं तदासीत् इत्याद्यारभ्य तम आसीत्तमसा,गूढमग्रे [ऋक्सं.8।7।17।3] इति। तमो ह्यव्यक्तमजरमनिर्द्देश्यमेषा ह्येव प्रकृतिः इति।सर्वगाऽचिन्त्यादिलक्षणा हि सा। तथाहि मोक्षधर्मे -- नारायणगुणाश्रयादजरामरादतीन्द्रियादग्राह्यादसम्भवतः। असत्यादहिंस्राल्ललामाद्वितीयप्रवृत्तिविशेषादवैरादक्षयादमरादक्षरादमूर्तितः। सर्वस्याः सर्वस्य सर्वकर्त्तुः शाश्वततमसः [म.भा.12।342।6] इतिआसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्। अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः इति मानवे [1।5]।कूटस्थोऽक्षर उच्यते [15।16] वक्ष्यति इति। कूटे आकाशे स्थिता कूटस्था। आकाशे संस्थिता त्वेषा ततः कूटस्थिता मता इति ह्यग्वेदखिलेषु। सा सर्वगा निश्चला लोकयोनिः सा चाक्षरा विश्वगा विरजस्का इति सामवेदे गौपवनशाखायाम्।
।।12.4।।एवंविधमक्षरं कथमुपासनीयमित्यत आह -- संनियम्येति। सर्वत्र काले सर्वदा। एतेन ध्यानस्य,नैरन्तर्यमुक्तम्। इन्द्रियग्रामं समनस्कानीन्द्रियाणि संनियम्य एकीभावेनात्मनि वशे कृत्वा। स्वकारणे प्रविलाप्येत्यर्थः। समा चाञ्चल्यहीना बुद्धिर्येषां ते समबुद्धयो ये भवन्ति तेऽपि मामेव निर्विकल्पं परं ब्रह्म परां काष्ठां प्राप्नुवन्ति। श्रुतिश्चयदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्। इति। सर्वभूतहिते रता इत्यनेन सर्वभूताभयदानेन संन्यासोऽपि ध्यानाङ्गमिति विधीयते।
।।12.4।।ये तु अक्षरं प्रत्यगात्मस्वरूपं अनिर्देश्यं देहाद् अन्यतया देवादिशब्दानिर्देश्यम् अतएव चक्षुरादिकरणानभिव्यक्तं सर्वत्रगम् अचिन्त्यं च सर्वत्र देवादिदेहेषु वर्तमानम् अपि तद्विसजातीयतया तेन तेन रूपेण चिन्तयितुम् अनर्हम्? तत एव कूटस्थं सर्वसाधारणं तत्तद्देवाद्यसाद्यारणाकारासंबन्धम् इत्यर्थः। अपरिणामित्वेन स्वासाधारणाकारात् न चलति? न च्यवते इति अचलं तत एव ध्रुवं नित्यम् सन्नियम्य इन्द्रियग्रामं चक्षुरादिकम् इन्द्रियग्रामं सर्वस्वव्यापारेभ्यः सम्यक् नियम्य सर्वत्र समबुद्धयः सर्वत्र देवादिविषमाकारेषु देहेषु अवस्थितेषु आत्मसु ज्ञानैकाकारतया समबुद्धयः तत एव सर्वभूतहिते रताः सर्वभूताहितरतित्वात् निवृत्ताः? सर्वभूताहितरतित्वं हि आत्मनो देवादिविषमाकाराभिमाननिमित्तम्? ये एवम् अक्षरम् उपासते ते अपि मां प्राप्नुवन्ति एव। मत्समानाकारम् असंसारिणम् आत्मानं प्राप्नुवन्ति एव इत्यर्थः।मम साधर्म्यमागताः (गीता 14।2) इति वक्ष्यते श्रूयते च -- निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति (मु0 उ0 3।1।3) इति।तथा अक्षरशब्दनिर्दिष्टात् कूटस्थाद् अन्यत्वं परस्य ब्रह्मणो वक्ष्यते।कूटस्थोऽक्षर उच्यते। (गीता 15।16)उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः (गीता 15।17) इति। अथपरा यथा तदक्षरमधिगम्यते (मु0 उ0 1।1।5) इति अक्षरविद्यायां तु अक्षरशब्दनिर्दिष्टं परम् एव ब्रह्म? भूतयोनित्वाद् एव।
।।12.4।। संनियम्येति। स्पष्टम्।
।। 12.4 अक्षरनिष्ठस्यापकर्षमाह -- ये त्वक्षरम् इत्यादिश्लोकत्रयेण। सर्वप्रकारनिर्देशनिषेधस्य स्ववचनविरोधादिदुष्टत्वाद्यथावस्थितस्वरूपे निषेध्यतया विवक्षितं निर्देशविशेषं सहेतुकमाहदेहादन्यतयेति। यद्यपि देहादन्यस्मिन्नपि देहिनि देहद्वारा देवादिशब्दाः प्रवर्तन्ते तथापि विविच्य निर्देष्टव्ये प्रकृतिसम्बन्धरहिते चापवृक्तात्मस्वरूपे तावत्तादृशवृत्तिरपि न सम्भवतीत्यभिप्रायः।तत एव देहादन्यतयैवेत्यर्थः। अत्यन्तानभिव्यक्तत्वविवक्षायांउपासते इति स्ववाक्येनापि विरोध इत्यभिप्रायेणाह -- चक्षुरादिकरणानभिव्यक्तमिति।सर्वत्रगम् इत्यत्राणुत्व श्रुतिविरोधपरिहारायाहदेवादिदेहेष्विति। यद्वा निषेध्यस्य चिन्त्यत्वस्य प्रसङ्गार्थंसर्वत्रगम् इत्युक्तमित्याह -- देवादिदेहेषु वर्तमानमपीति।तेन तेन रूपेणेति आत्मचिन्ताविधिविरोधाच्चिन्त्यमात्रनिषेधो न शक्यत इति भावः।तत एव कूटस्थमिति तत्तद्विलक्षणत्वादित्यर्थः। अनेकेषां सन्तन्यमानानां पुरुषाणां साधारणो हि पूर्वः पुरुषः कूटस्थः अत्र तु साधारण्यमात्रं लक्ष्यत इत्याहसर्वसाधारणमिति। एतेन कूटशब्दनिर्दिष्टमायाध्यक्षत्वं वा राशिवत्स्थितत्वं वा वदन्तः प्रसिद्धार्थपरित्यागादिभिर्निरस्ताः। अतः कूट इव निश्चलं वृद्धिक्षयादिरहितमित्यप्यत्र मन्दम्। नन्वेकदा सर्वसाधारणत्वमसिद्धं? कालभेदेन सर्वजातीयशरीरपरिग्रहेऽपि सर्वव्यक्तिपरिग्रहो नास्ति? अतः कथं सर्वसाधारणत्वमित्यत आहदेवादीति। नह्यसाधारणा देवत्वादय आत्मन्यव्यवधानेन सम्बध्यन्त इति भावः।उत्क्रान्त्यादिमतो जीवस्य स्पन्दनिषेधादेरनुपपन्नत्वादत्राचलशब्दविवक्षितमाह -- अपरिणामित्वेनेति। अनित्यत्वं हि परिणामेन व्याप्तम्। ततश्च व्यापकाभावाद्व्याप्याभावो विवक्षित इत्यपुनरुक्तिरित्याह -- तत एव ध्रुवमिति।उपासते [12।2] इत्यनेनैव मनोनियमनस्य सिद्धत्वात्तदुपयुक्तबाह्येन्द्रियव्यापारनियमनपरतया व्याचष्टेसम्यङ्नियम्येति।अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यपरिग्रहः [वि.ध.104।3बृ.ना.31।76] इत्यादिकमभिप्रेत्योक्तंसर्वत्रेति।शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः [5।18] इत्यादिकमभिप्रेत्यआत्मसु ज्ञानैकाकारतया समबुद्धय इत्युक्तम्।तत एव -- समबुद्धित्वादेव।य एवमक्षरमुपासते अक्षरशब्दवाच्यं प्रत्यगात्मानं प्राप्यतया निश्चित्य परमात्मानं तत्प्रापकतयोपासते।तेऽपीति मद्व्यतिरिक्तप्राप्यान्तरनिश्चयवन्तोऽपीत्यर्थः।मां प्राप्नुवन्त्येव -- विष्णुशक्तिः परा प्रोक्ता [वि.पु.6।7।61] इत्युक्तप्रकारेणअविभागेन दृष्टत्वात् [ब्र.सू.4।4।3] इत्यपृथक्सिद्धविशेषणभूतं मुक्तस्वरूपं मत्समानाकारं प्राप्नुवन्तीत्यर्थ इत्यर्थः।प्रमेयशरीरं साधीयः? यदि प्रमाणमुपलभामह इत्याशङ्क्य सोपबृंहणश्रुतिमुदाहरतिपरमं साम्यमुपैतीति। ननु अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते [मुं.उ.1।1।5]अक्षरमम्बरान्तधृतेः [ब्र.सू.1।3।10] इत्यादिषु परब्रह्मसाधारणतया प्रयुज्यमानमक्षरपदं कथं जीवात्मवाचकम् उच्यते अमृताक्षरं हरः [श्वे.उ.1।10]कूटस्थोऽक्षर उच्यते [15।16] इत्यादिषूक्तत्वादित्याहतथाक्षरशब्दनिर्दिष्टादित्यादिना।पञ्चविंशकमव्यक्तं षड्विंशः पुरुषोत्तमः। एतज्ज्ञात्वा विमुच्यन्ते यतयः शान्तबुद्धयः [य.स्मृ.] इत्युक्तप्रकारेणाव्यक्तजीवात्मासक्तचेतसां क्लेशस्त्वधिकतरः? मय्यावेशितचेतस्त्वाभावात्। अव्यक्तविषया मनोवृत्तिः सर्वेन्द्रियोपरतिरूपा। ननु देहवत्त्वं सनकादीनामपि सम्भवतीत्याशङ्क्यदेहात्माभिमानयुक्तैरित्युक्तम्।
।।12.3 -- 12.5।।येत्वित्यादि अवाप्यते इत्यन्तम्। ये पुनरक्षरं (S ये त्वक्षरम्) ब्रह्म उपास्ते आत्मानं [ तैरपि ] सर्वत्रगम् इत्यादिभिर्विशेषणैः आत्मनः सर्वे ईश्वरधर्मा आरोप्यन्ते। अतो ब्रह्मोपासका अपि मामेव यद्यपि यान्ति तथापि अधिकतरस्तेषां क्लेशः। आत्मनि किल अपहतपाप्मत्वादिगुणाष्टकारोपं विधाय पश्चात्तमेव उपासते इति स्वतः सिद्धगुणग्रामगरिमणि ईश्वरे ( ईश्वरेऽपि) अयत्नसाध्ये स्थितेऽपि द्विगुणमायासं विन्दन्ति।
।।12.3 -- 12.4।।एवं तर्हिमय्यावेश्य [12।2] इत्यनेनैव मदुपासका एवोत्तमा इति प्रश्नस्योत्तरं जातं? किमुत्तरेण वाक्येन इत्यत आह -- भवन्त्विति। आक्षेपगर्भोऽयमभ्युपगमः। न युक्तं त्वदुपासकानामेवोत्तमत्वमिति भावः। तदुपपादनाय पृच्छति -- इतरेषामिति। अव्यक्तोपासकानां किं फलं मोक्षोऽस्ति? न वा नोचेदुदाहृतवाक्यविरोधः। आद्ये कथं त्वदुपासकानामुत्तमत्वम् फलसाम्यादिति भावः। नन्वेषां विशेषणानां ब्रह्मणोऽन्यत्रासम्भवात् कथमितरेषां किं फलं इत्यस्योत्तरत्वेन एतदवतार इत्यतोऽक्षराव्यक्तत्वयोर्मायायामुपपादितत्वात् तदन्यानि तत्रोपपादयन्ननिर्देश्यत्वं तावदुपपादयति -- अनिर्देश्यत्वं चेति शब्दागोचरम् धर्मस्य मम पादभङ्ग इत्यन्वयः। नन्वत्रापीश्वरोऽस्त्वनिर्देश्य इत्यत आह -- ईश्वरस्त्विति। दैवं पादभङ्गकारणमाहुः। तथा च पुनरुक्तिः स्यादिति भावः। न च दैवशब्दोऽदृष्टवाची। तस्यअपरे कर्म इति पृथगुक्तत्वात्। मायाया अनिर्देश्यत्वे स्पष्टं च प्रमाणमाह -- उक्तं चेति। महाभूतमाकाशवायुरूपम्। उपभूतं तेजोब्भूलक्षणम्। तदा प्रलये। अजरमित्यादिकं प्रलयेऽवस्थानस्योपपादकम्। नचैतत् ब्रह्मेति प्रदर्शनायएषा,ह्येव प्रकृतिः इत्युदाहृतम्।इदानींसर्वत्रगं इत्यादिकं मायायामुपपादयितुमाह -- सर्वगेति। भावप्रधानो निर्देशः। स्वरूपवाची वा लक्षणशब्दः नारायणगुणस्तदिच्छादिलक्षण आश्रयो यस्य तत्तथोक्तम्। अनेन ब्रह्मणो व्यावृत्तिः। अजरादमरादिति जडप्रधानादेः? तस्य तत्प्राप्त्यभावात्। अग्राह्यान्मनसोऽप्यगोचरादित्यनेनाचिन्त्यमिति सिद्ध्यति। असम्भवतोऽक्षयादक्षरादिति ध्रुवत्वसिद्धिः। असति प्रलये भवमसत्त्यम्। ललामं प्रधानम्। द्वितीया भगवदेकाधीना प्रवृत्तिर्विशेषो यस्य तत्तथा। अमूर्तितः प्राकृतदेहरहितात्। सर्वस्याः सर्वगाया इति छान्दसो लिङ्गव्यत्ययः? अनाद्यविद्याभिमानित्वात्। शाश्वततमसः पुरुषोऽभूदित्यन्वयः। इदं प्रसिद्धं तमो मायाख्यं प्रलये सर्वतः प्रसुप्तमिव निर्व्यापारमासीत्। अभूतमजातम्।अप्रज्ञातं इत्यादिना प्रत्यक्षानुमानागमवेद्यत्वाभाव उच्यते। अवेद्यलक्षणत्वादप्रतर्क्यम्। अनेन सर्वत्रगमचिन्त्यं ध्रुवमिति सिध्यति। गीतावाक्येन कूटस्थत्वं नित्यत्वं चेत् ध्रुवमिति पुनरुक्तिः। कूटमनृतं तिष्ठत्यस्मिन्नित्यसम्भवीत्यत आह -- कूट इति। कूटशब्दस्याकाशवाचित्वेऽभिधानं प्राक् पठितम्। तथापि दार्ढ्याय श्रुत्युदाहरणम्। श्रुत्यनुसारेण स्त्रीलिङ्गम्। सा सर्वगैत्युक्तार्थे स्पष्टं प्रमाणम्। निश्चला स्वपदादभ्रष्टा। विश्वं गतमाश्रितमस्यामिति विश्वगा। एतानि चोक्तविशेषणानि तदुपासनस्य मोक्षसाधनत्वाङ्गीकारसमर्थनार्थानीति ज्ञेयम्।
।।12.3 -- 12.4।।निर्गुणब्रह्मविदपेक्षया सगुणब्रह्मविदां कोऽतिशयो येन त एव युक्ततमास्तएवाभिमता इत्यपेक्षायां तमतिशयं वक्तुं तन्निरूपकान्निर्गुणब्रह्मविदः प्रस्तौति द्वाभ्यां -- येत्वित्यादिना। येऽक्षरं मामुपासते तेऽपि मामेव प्राप्नुवन्तीति द्वितीयगतेनान्वयः। पूर्वेभ्यो वैलक्षण्यद्योतनाय तुशब्दः। अक्षरं निर्विशेषं ब्रह्म वाचक्नवीब्राह्मणे प्रसिद्धं तस्य समर्पणाय सप्त विशेषणानि। अनिर्देश्यं शब्देन व्यपदेष्टुमशक्यं। यतोऽव्यक्तं शब्दप्रवृत्तिनिमित्तैर्जातिगुणक्रियासंबन्धै रहितं जातिं गुणं क्रियां संबन्धं वा द्वारीकृत्य शब्दप्रवृत्तेर्निर्विशेषे प्रवृत्त्ययोगात् कुतो जात्यादिराहित्यमत आह -- सर्वत्रगमिति। सर्वत्रगं सर्वव्यापि सर्वकारणं अतो जात्यादिशून्यं परिच्छिन्नस्य कार्यस्यैव जात्यादियोगदर्शनात्? आकाशादीनामपि कार्यात्वाभ्युपगमाच्च। अतएवाचिन्त्यं शब्दप्रवृत्तेरिव मनोवृत्तेरपि न विषयः। तस्या अपि परिच्छिन्नविषयत्वात्यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह इति श्रुतेः। तर्हि कथंतं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि इति?दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या इति च श्रुतिःशास्त्रयोनित्वात् इति सूत्रं च। उच्यते। अविद्याकल्पितसंबन्धेन शब्दजन्यायां बुद्धिवृत्तौ चरमायां परमानन्दबोधरूपे शुद्धे वस्तुनि प्रतिबिम्बितेऽविद्यातत्कार्ययोः कल्पितयोर्निवृत्त्युपपत्तेरुपचारेण विषयत्वाभिधानात्। अतस्तत्र कल्पितमविद्यासंबन्धं प्रतिपादयितुमाह -- कूटस्थमिति। कूटस्थं यन्मिथ्याभूतं सत्यतया प्रतीयते तत्कूटमिति लोकैरुच्यते। यथा कूटकार्षापणः कूटसाक्षित्वमित्यादौ। अज्ञानमपि मायाख्यं सहकार्यप्रपञ्चेन मिथ्याभूतमपि लौकिकैः सत्यतया प्रतीयमानं कूटं तस्मिन्नाध्यासिकेन संबन्धेनाधिष्ठानतया तिष्ठतीति कूटस्थमज्ञानतत्कार्याधिष्ठानमित्यर्थः। एतेन सर्वानुपपत्तिपरिहारः कृतः। अतएव सर्वविकाराणामविद्याकल्पितत्वात्तदधिष्ठानं साक्षिचैतन्यं निर्विकारमित्याह -- अचलमिति। अचलं चलनं,विकारः अचलत्वादेव ध्रुवं अपरिणामि नित्यं एतादृशं शुद्धं ब्रह्म मां पर्युपासते श्रवणेन प्रमाणगतामसंभावनामपोद्य मननेन च प्रमेयगतामनन्तरं विपरीतभावनानिवृत्तये ध्यायन्ति। विजातीयप्रत्ययतिरस्कारेण तैलधारावदविच्छिन्नसमानप्रत्ययप्रवाहेण निदिध्यासनसंज्ञकेन ध्यानेन विषयीकुर्वन्तीत्यर्थः। कथं पुनर्विषयेन्द्रियसंयोगे सति विजातीयप्रत्ययतिरस्कारोऽत आह -- संनियम्येति। संनियम्य स्वविषयेभ्य उपसंहृत्येन्द्रियग्रामं करणसमुदायम्। एतेन शमदमादिसंपत्तिरुक्ता। विषयभोगवासनायां सत्यां कुत इन्द्रियाणां ततो निवृत्तिस्तत्राह -- सर्वत्रेति। सर्वत्र विषये समा तुल्या हर्षविषादाभ्यां रागद्वेषाभ्यां च रहिता मतिर्येषाम्। सम्यग्ज्ञानेन तत्कारणस्याज्ञानस्यापनीतत्वाद्विषयेषु दोषदर्शनाभ्यासेन स्पृहाया निरसनाच्च ते सर्वत्र समबुद्धयः। एतेन वशीकारसंज्ञावैराग्यमुक्तं। अतएव सर्वत्रात्मदृष्ट्या हिंसाकारणद्वेषरहितत्वात्सर्वभूतहिते रताःअभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः स्वाहा इति मन्त्रेण दत्तसर्वभूताभयदक्षिणाः। कृतसंन्यासा इति यावत्।अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा संन्यासमाचरेत् इति स्मृते। एवंविधाः सर्वसाधनसंपन्नाः सन्तः स्वयं ब्रह्मभूता निर्विचिकित्सेन साक्षात्कारेण सर्वसाधनफलभूतेन मामक्षरं ब्रह्मैव ते प्राप्नुवन्ति। पूर्वमपि मद्रूपा एव सन्तोऽविद्यानिवृत्त्या मद्रूपा एव तिष्ठन्तीत्यर्थः।ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येतिब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति इत्यादि श्रुतिभ्य इहापि चज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् इत्युक्तम्।
।।12.4।।इन्द्रियग्रामं सन्नियम्य वशीकृत्य सर्वत्र मयि देवादिषु लौकिकेषु सुखदुःखेषु वा समबुद्धयः सर्वभूतहिते रताः सन्तो ये पर्युपासते ध्यायन्ति ते मामेव प्राप्नुवन्ति। एवकारेणाक्षरसम्बन्धव्यवहिताः। प्राप्नुवन्तीति भावः? स्वयुक्ततमत्वाभावश्च ज्ञापितः।
।।12.4।। -- संनियम्य सम्यक् नियम्य उपसंहृत्य इन्द्रियग्रामम् इन्द्रियसमुदायं सर्वत्र सर्वस्मिन् काले समबुद्धयः समा तुल्या बुद्धिः येषाम् इष्टानिष्टप्राप्तौ ते समबुद्धयः। ते ये एवंविधाः ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः। न तु तेषां वक्तव्यं किञ्चित् मां ते प्राप्नुवन्ति इति ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् (गीता 7।18) इति हि उक्तम्। न हि भगवत्स्वरूपाणां सतां युक्ततमत्वमयुक्ततमत्वं वा वाच्यम्।।किं तु --,
।।12.3 -- 12.4।।येत्विति। तुशब्दो भेदं द्योतयति। ये त्वक्षरमन्तर्यामिस्वरूपांशं पूर्वोक्तमनामरूपत्वादव्यक्तं गणितानन्दं बृहत्स्वरूपं पर्युपासते। स्वष्ट एव भेदः। अक्षरोऽव्यक्तः? अहं तु व्यक्तः। सोऽनिर्देश्यः? अहं तु स्वेच्छयाऽलौकिकनिर्देशार्हः। स सर्वत्रगः? अहं तु भक्तैकगम्यः। स चाचिन्त्यः अहं तु भक्तैश्चिन्त्यः। स तु कूटस्थः सर्वसाधारणः अहमसाधारणः। स त्वचलः स्थिरात्मा? अहं चलः तत्रतत्र विहरन् चलामि। स तु ध्रुवं पदरूपमैश्वर्यमध्यात्मं? अहं त्वीश्वरस्तन्निलयन इति। तदुपासका मां ब्रह्मानन्दात्मिकां श्रियमेव ध्रुवात्मानं वा मां प्राप्नुवन्ति।