तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।12.7।।
teṣhām ahaṁ samuddhartā mṛityu-saṁsāra-sāgarāt bhavāmi na chirāt pārtha mayy āveśhita-chetasām
To those whose minds are set on Me, O Arjuna, verily I soon become the savior out of the ocean of Samsara.
12.7 तेषाम् for them? अहम् I? समुद्धर्ता the saviour? मृत्युसंसारसागरात् out of the ocean of the mortal Samsara? भवामि (I) become? नचिरात् ere long? पार्थ O Arjuna? मयि in Me? आवेशितचेतसाम् of those whose minds are set.Commentary Mortal Samsara The round of birth and death. The devotee who does total? unconditional? and ungrudging selfsurrender to the Lord? who places himself completely at the mercy of the Lord? and who fixes of actions by offering them to the Lord and who thus destroys any power in the actions to bear fruit? and who has abandoned even the idea of liberation? is soon lifted by the Lord from the mortal plane to the abode of Immortality.I redeem such persons who have become Macchitta i.e.? mind united with Me? from the ocean of the mortal world or worldly life? without delay. (Cf.X.10.11XII.6and7)
।।12.7।। व्याख्या--'तेषामहं समुद्धर्ता ৷৷. मय्यावेशितचेतसाम्'--जिन साधकोंका लक्ष्य, उद्देश्य, ध्येय,भगवान् ही बन गये हैं और जिन्होंने भगवान्में ही अनन्य प्रेमपूर्वक अपने चित्तको लगा दिया है तथा जो स्वयं भी भगवान्में ही लग गये हैं, उन्हींके लिये यहाँ 'मय्यावेशितचेतसाम्' पद आया है।
।।12.7।। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण सगुणोपासकों के लिए श्रद्धापूर्वक अनुष्ठेय गुणों अथवा नियमों का वर्णन करते हुए यह आश्वासन देते हैं कि निष्ठावान् साधकों का? इस संसारसागर से? उद्धार स्वयं भगवान् ही करेंगे। इन नियमों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करने पर यह ज्ञात होगा कि किस प्रकार साधक के मन का शनैशनै विकास होकर वह दिव्य और श्रेष्ठ पद को प्राप्त होता है? जिसके पश्चात् उसे किसी प्रकार की बाह्य सहायता की अपेक्षा नहीं रह जाती है। प्रारम्भ में? साधक को साधनाभ्यास करने के लिए आवश्यक आत्मविश्वास को पाने के लिए अपने गुरु से आश्वासन तथा प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है।जो समस्त कर्मों को मुझे अर्पण करते हैं किसी संस्था? या आदर्श अथवा राजसत्ता के लिए समस्त कर्मों को अर्पण करने या संन्यास करने का अर्थ है? अपनी व्यक्तिगत सीमाओं को नष्ट करना तथा अपने आदर्श से तादात्म्य रखना। इस प्रकार? एक अन्य नागरिक? विदेशों में स्वराष्ट्र के राजदूत के रूप में एक शक्तिशाली व्यक्तित्व रखता है क्योंकि वह अपने भाषण? कर्म और विचारों के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है। इसी प्रकार? जब कोई भक्त अपने आप को पूर्णत ईश्वर के चरणों में अर्पण कर देता है? और फिर ईश्वर के दूत अथवा ईश्वरी संकल्प के प्रतिनिधित्व के रूप में कार्य करता है? तब वह दैवी शक्ति से सम्पन्न हो जाता है। उसे अपने प्रत्येक कार्य में ही परमात्मा की उपस्थिति और अनुग्रह का भान बना रहता है।जो मुझे ही परम लक्ष्य समझता है एक नर्तकी को कभी साथ के मृदंग के ताल और लय का विस्मरण नहीं होता। एक संगीतज्ञ को तानपूरे की श्रुति का भान सदा बना रहता है। इसी प्रकार? एक भक्त को उपदेश दिया जाता है कि वह ईश्वर को ही अपने जीवन का परम लक्ष्य माने और जीवन में सदैव उसे ही प्राप्त करने का प्रयत्न करे। धर्म को अतिरिक्तसमय का एक मनोरंजन अथवा दैनिक कार्यों से क्षणभर की मुक्ति का साधन नहीं समझना चाहिए। सारांश में? हमें यह उपदेश दिया जाता है कि सांस्कृतिक पूर्णत्व के उच्चतर शिखरों पर आरोहण करने के लिए आवश्यक है कि हम अपने जीवन के सम्पर्कों? व्यवहारों एवं अनुभवों का उपयोग उस परमात्मा की उपल्ाब्धि के लिए करे जिसकी उपासना हम उसके सगुण साकार रूप में करते हैं।अनन्ययोग के द्वारा वे सभी प्रयत्न योग कहलाते हैं? जिनके द्वारा हम अपने मन का तादात्म्य अपने पूर्णत्व के लक्ष्य के साथ स्थापित कर सकते हैं। अपने मन को उसके वर्तमान विक्षेपों तथा अपव्ययी प्रवृत्तियों से ऊँचा उठाकर विशाल आनन्द और पूर्ण ज्ञान के श्रेष्ठतर लक्ष्य की ओर प्रवृत्त करना ही योग है। यह शक्ति हम सबमें निहित है और उसका सदैव हम उपयोग भी कर रहे हैं। परन्तु योग का परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि कौनसे लक्ष्य की ओर हम अग्रसर हो रहे हैं। दुर्भाग्य से? प्राय हमारा लक्ष्य दिव्य नहीं होता है केवल वैषयिकआनन्द के लिए ही प्रयत्न करना भोग है? योग नहीं।सामान्यत? हमारा लक्ष्य निरन्तर परिवर्तित होता रहता है? और इस कारण सतत संघर्षरत होने पर भी हम किसी भी निश्चित स्थान को नहीं पहुंचते हैं। यदि छुट्टियां बिताने के लिए किसी व्यक्ति के मन में दो स्थान हैं? परन्तु वह अपना गन्तव्य ही निश्चित नहीं कर पाता है? तो वह कहीं भी नहीं पहुंच सकता । वह व्यर्थ ही अपनी शक्ति और समय का अपव्यय करेगा। यहाँ प्रयुक्त अनन्ययोग शब्द का तात्पर्य यह है कि जिसमें साधक का लक्ष्य निश्चित और स्थिर है तथा उसके मन में लक्ष्य के प्रति अन्य भाव नहीं है अर्थात् जिसमें साधक और साध्य का एकत्व है।यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमारे मन का विघटन लक्ष्य के प्रति अन्य भाव के कारण हो सकता है? और ध्येय को त्यागकर अन्य विषयों में मन के विचरण के कारण भी हो सकता है।इस प्रकार जो भक्तजन (क) सब कर्मों का संन्यास मुझमें करते हैं? (ख) जो मुझे ही परम लक्ष्य मानते हैं? और (ग) जो अनन्ययोग से उपासना ध्यान करते हैं? वे मेरे उत्तम भक्त हैं। यह पहले भी कहा जा चुका है कि उपासना का वास्तविक अर्थ है लक्ष्य के साथ तादात्म्य करने का प्रयत्न करके तत्स्वरूप ही बन जाना। यही साधक का लक्ष्य है और इसी में उसकी कृत्कृत्यता है।भगवान् श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं कि उक्त गुणों से सम्पन्न साधकों को ध्यानाभ्यास के समय इस बात की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है कि किस प्रकार वे अपने दुख विक्षेप और अपूर्णताओं के परे जा सकते हैं क्योंकि? मैं उनका उद्धारकर्ता बनूंगा। यह स्वयं भगवान् का दिया हुआ वचन है। यह संभव है कि वर्षों की दीर्घकालीन साधना के पश्चात् भी यदि साधक आत्मानुभव के कहीं समीप भी नहीं पहुंचे? तो वे अधीर हो जायेंगे। अत भगवान् का आश्वासन आवश्यक है। भगवान् यहाँ यह भी वचन देते हैं कि शीघ्र ही मैं उनका उद्धारकर्ता बनूंगा।जिनका मन मुझमें स्थित है सामान्यत मन अपनी ध्येय वस्तु का आकार ग्रहण करता है। जब निरन्तर साधना के फलस्वरूप विजातीय प्रवृत्तियों का सर्वथा त्यागकर सजातीय वृत्ति प्रवाह को बनाये रखने की क्षमता साधक में आ जाती है? तब उसका मन अनन्त ब्रह्मरूप ही बन जाता है। यह मन ही है? जो हमारे जीवभाव के परिच्छेदों का आभास निर्माण करता है? और यही मन अपने अनन्तत्व का आत्मरूप से साक्षात् अनुभव भी करता है। बन्धन और मोक्ष दोनों मन के ही हैं। आत्मा तो नित्यमुक्त है? कदापि बद्ध नहीं।
।।12.7।।तेषां भगवद्ध्यायिनां किं फलतीति शङ्कामनुभाष्य फलमाह -- तेषामित्यादिना। समुद्धर्ता सम्यगूर्ध्वं नेता ज्ञानावष्टम्भदानेनेत्यर्थः। मृत्युरज्ञानं मरणाद्यनर्थहेतुत्वात्तेन कार्यतया युक्तः संसारः।
।।12.6 -- 12.7।।अक्षरोपासका मामेव प्राप्नुवन्तीत्युक्त्या तेषां साक्षात्स्वप्राप्तियोग्यत्वमुक्तं ये तु पूर्वे ते तु बहुश्रवणादिनाधिकतरक्लेशमन्तरेणैव मद्दत्तज्ञानेन संसारान्मुच्यन्त इत्याशयेनाह -- ये त्विति द्वाभ्याम्। ये तु सगुणोपासकाः सर्वाणि कर्माणि मय परमेश्वरे संन्यस्य समर्प्य अहं परः परमपुरुषार्थत्वेनोपास्यो येषां ते मत्पराः न स्वर्गादिपरा एतादृशाः सन्तोऽनन्येनैव योगेन न विद्यते विश्वरुपं देवमात्मानमीश्वरमनन्तगुणनिधिं तत्तद्रूपेण भूतलेऽवतीर्णं मुक्त्वान्यदालम्बनं यस्य तेन योगेन समाधिना मां ध्यायन्तश्चिन्तयन्त उपासते मयि परमेश्वरे विश्वरुपे आवेशितं प्रवेशितं चित्तं येषां तेषां नचिरात् शीघ्रमेव मृत्युयुक्तात्संसारसमुद्रादहमुद्धर्ता भवामि। अनन्यभक्त्या संतुष्टः मन् बुद्धियोगं दत्त्वा मूलाज्ञानसहिततत्कार्यरुपात्संसारादुद्धरामीत्यभिप्रायः। तदुक्तंमच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्। कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च। तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते। हे पार्थेति संबोधयन् यथा पृथासुतानां भवतां भक्त्या वशीकृतस्तत्तत्संकटादुद्धर्ता तथेति ध्वनयति।
।।12.6 -- 12.7।।मदुपासकानां भक्तानां न कश्चित्क्लेश इति दर्शयति -- ये त्वित्यादिना। उक्तं च सौकरायणश्रुतौ -- उपासते ये पुरुषं वासुदेवमव्यक्तादेरीप्सितं किन्नु तेषाम् इति।तेषामेकान्तिनः श्रेष्ठास्ते चैवानन्यदेवताः। अहमेव गतिस्तेषां निराशीः कर्मकारिणाम् इति च मोक्षधर्मे [म.भा.12]।
।।12.7।।तेषां ध्यायिनां नचिराच्छीघ्रमेवाहं समुद्धर्ता समुद्धरणकर्ता। यतस्ते मयि सगुणे विश्वरूपे आवेशितचेतसो भवन्ति अतो व्यक्तासक्ता अपि शीघ्रमेव परं पदमारोढुमर्हा इति नाव्यक्तेऽत्यन्ताभिनिवेष्टव्यमिति भावः।
।।12.7।।ये तु लौकिकानि देहयात्राशेषभूतानि देहधारणार्थानि च अशनादीनि कर्माणि? वैदिकानि च यागदानहोमतपःप्रभृतीनि सर्वाणि सकारणानि सोद्देश्यानि अध्यात्मचेतसा मयि संन्यस्य? मत्पराः मदेकप्राप्याः,अनन्येन एव योगेन मां ध्यायन्तः उपासते? ध्यानार्चनप्रणामस्तुतिकीर्तनादीनि स्वयम् एव अत्यर्थप्रियाणि प्राप्यसमानि कुर्वन्तो माम् उपासते इत्यर्थः। तेषां मत्प्राप्तिविरोधितया मृत्युभूतान् संसाराख्यात् सागराद् अहम् अचिरेण एव कालेन समुद्धर्ता भवामि।
।।12.7।। तेषामिति। एवं मय्यावेशितं चेतो यैस्तेषां मृत्युयुक्तात्संसारसागरादहं सम्यगुद्धर्ता अचिरेणैव भवामि।
।। 12.7 ये तु सर्वाणि इति।देहयात्राशेषभूतानि कृष्यादीनिसकारणानि? सन्ध्यावन्दनसहितानिसोद्देश्यानि स्वर्गाद्युद्देशेन चोदितानि।अध्यात्मचेतसा आत्मनि परमात्मनि यच्चेतः? तदध्यात्मम् तेन चेतसा। मत्पराः अहं परः परमप्राप्यं येषां ते मत्परा इति हृदि निधायमदेप्राकप्या इत्युक्तम्।अनन्यप्रयोजनेनेति उपलक्षणं भगवद्ध्यानंसततं कीर्तयन्तः [9।14] इत्याद्युक्तानाम्। भगवत्प्राप्त्युपाये प्रयोजनत्वधीर्भवति तद्बुद्धेर्विधिरिति भावः।स्वयमेवेति -- न तु फलापेक्षयेत्यर्थः।मृत्युभूतात्संसाराख्यादिति -- निषादस्थपतिन्यायात्समानाधिकरणसमास उचितः। हेयत्वार्थं च विशेषणमत्रोपयुक्तमिति भावः।मत्प्राप्तिविरोधितयेति मृत्युत्वोपचारनिमित्तम्। सत्यां हि भगवत्प्राप्तौ अमृतत्वम्।न इत्यस्य व्यस्ततया क्रियान्वयभ्रमव्युदासायअचिरेणैव कालेन समुद्धर्तेत्यन्वय उक्तः।
।।12.6 -- 12.8।।येत्वित्यादि आस्थित इत्यन्तम्। प्रागुक्तोपदेशेन (S प्रागुपदेशेन) तु ये सर्वं मयि संन्यस्यन्ति? तेषामहं समुद्धर्त्ता सकलविघ्नादिक्लेशेभ्यः। चेतस आवेशनं व्याख्यातम्। तथा च एष एवोत्तमो योगः? अकृत्रिमत्त्वात्। तथा च मम स्तोत्रे -- विशिष्टकरणासनस्थितिसमाधिसंभावना विभाविततया यदा कमपि बोधमुल्लासयेत्।न सा तव सदोदिता स्वरसवाहिनी या चिति र्यतस्त्रितयसन्निधो स्फुटमिहापि संवेद्यते।।यदा तु विगतेन्धनः स्ववशवर्त्तितां संश्रय न्नकृत्रिमसमुल्लसत्पुलककम्पबाष्पानुगः।शरीरनिरपेक्षतां स्फुटमुपाददानश्चितः स्वयं झगिति बुध्यते युगपदेव बोधानलः।तदैव तव देवि तद्वपुरुपाश्रयैर्वर्जितं ( -- वपुरुपाशयैर्वर्जितं N -- वपुरुपाशयैर्वर्जितं (श्रितैर्वर्जितं) महेशमवबुध्यते विवशपाशसंक्षोभकम्।।इत्यादि।
।।12.6 -- 12.7।।नन्वव्यक्तोपासकानां क्लेशातिशयो गीतायां प्रतीयते? भगवदुपासकानां तु तदभावो न प्रतीयते? अतस्तदेतत्सर्वमिति कथमुक्तं इत्यत आह -- मदुपासकानामिति।भक्तानां इत्यनेन,नान्यत्रात्यन्तमादर इति सूचयति। अत्रअनन्येनैव योगेन इत्यादिनाविनाऽव्यक्तोपासनम् इत्येतत्प्रतीयते। उपासन इत्येवोक्त्याऽतिशयोपासनाद्यभावः।न चिरात् इत्यनेन तत्रापीत्यादिकम्।तेषामहं समुद्धर्ता भवामि [12।1] इत्यनेन देवस्त्वित्यादिकं आगामिगीतावाक्यमपेक्ष्य प्राग्बुद्ध्यारोहाय तदुक्तमिति। अत्र श्रुत्यादिसम्मतिं चाह -- उक्तं चेति। तेषामार्तादीनां मध्ये गतिः साधनादिसम्पादकः।
।।12.6 -- 12.7।।ननु फलैक्ये क्लेशाल्पत्वाधिक्याभ्यामुत्कर्षनिष्कर्षौ स्यातां तदेव तु नास्ति। निर्गुणब्रह्मविदां हि फलमविद्यातत्कार्यनिवृत्त्या निर्विशेषपरमानन्दबोधब्रह्मरूपता सगुणब्रह्मविदां त्वधिष्ठानप्रमाया अभावेनाविद्यानिवृत्त्यभावादैश्वर्यविशेषः कार्यब्रह्मलोकगतानां फलम्। अतः फलाधिक्यार्थमायासाधिक्यं न न्यूनतामापादयतीति चेत् न। सगुणोपासनया निरस्तसर्वप्रतिबन्धानां विना गुरूपदेशं विना च श्रवणमनननिदिध्यासनाद्यावृत्तिक्लेशं स्वयमाविर्भूतेन वेदान्तवाक्येनेश्वरप्रसादसहकृतेन तत्त्वज्ञानोदयादविद्यातत्कार्यनिवृत्त्या ब्रह्मलोक ऐश्वर्यभोगान्ते निर्गुणविद्याफलपरमकैवल्योपपत्तेःस एतस्माज्जीवघनात्परात्परं पुरिशयं पुरुषमीक्षते इति श्रुतेः संप्राप्तहिरण्यगर्भैश्वर्यः भोगान्ते एतस्माज्जीवघनात्ससर्वजीवसमष्टिरूपात्पराच्छ्रेष्ठात् हिरण्यगर्भात्परं विलक्षणं श्रेष्ठं च पुरिशयं स्वहृदयगुहानिविष्टं पुरुषं पूर्णं प्रत्यगभिन्नमद्वितीयं परमात्मानमीक्षते स्वयमाविर्भूतेन वेदान्तप्रमाणेन साक्षात्करोति तावता च मुक्तो भवतीत्यर्थः। तथाच विनापि प्रागुक्तक्लेशेन सगुणब्रह्मविदामीश्वरप्रसादेन निर्गुणब्रह्मविद्याफलप्राप्तिरितीममर्थमाह द्वाभ्याम् -- ये त्वित्यादिना। तुशब्द उक्ताशङ्कानिवृत्त्यर्थः। ये सर्वाणि कर्माणि मयि सगुणे वासुदेवे संन्यस्य समर्प्य मत्परा अहं भगवान् वासुदेव एव परः प्रकृष्टप्रीतिविषयो येषां ते तथा सन्तोऽनन्येनैव योगेन न विद्यते मां भगवन्तं मुक्त्वाऽन्यदालम्बनं यस्य तादृशेनैव योगेन समाधिना एकान्तभक्तियोगापरनाम्ना मां भगवन्तं वासुदेवं सकलसौन्दर्यसारनिधानमानन्दघनविग्रहं द्विभुजं चतुर्भुजं वा समस्तजनमनोमोहिनीं मुरलीमतिमनोहरैः सप्तभिः स्वरैरापूरयन्तं वा,दरकमलकौमोदकीरथाङ्गसङ्गिपाणिपल्लवं वा नरसिंहत्वादिरूपं वा परमकारुणिकं सुन्दरसुन्दरं श्रीमद्रघुनन्दनरूपं वराहादिरूपं वा यथादर्शितविश्वरूपं वा ध्यायन्तश्चिन्तयन्त उपासते समानाकारमविच्छिन्नं चित्तवृत्तिप्रवाहं संतन्वते समीपवर्तितया आसते तिष्ठन्ति वा तेषां मय्याववेशितचेतसां मयि यथोक्ते आवेशितमेकाग्रतया प्रवेशितं चेतो यैस्तेषामहं सततोपासितो भगवान् मृत्युसंसारसागरात् मृत्युयुक्तो यः संसारः मिथ्याज्ञानतत्कार्यप्रपञ्चः स एव सागर इव दुरुत्तरस्तस्मात्समुद्धर्ता सम्यगनायासेन उदूर्ध्वे सर्वबाधावधिभूते शुद्धे ब्रह्मणि धर्ता धारयिता ज्ञानावष्टम्भदानेन भवामि नचिरात् क्षिप्रमेव तस्मिन्नेव जन्मनि। हे पार्थेति संबोधनमाश्वासार्थम्।
।।12.7।।हे पार्थ मद्भक्त मयि आ समन्तात् सर्वभावेनाऽऽवेशितं चेतो येषां तेषां मृत्युसंसारसागरात् वारंवारं मरणधर्मयुक्तशरीरप्रापकरूपात् अलौकिकभजनौपयिक स्वरूपदानेन उद्धर्ता। न चिरात् शीघ्रमेवाऽहं भवामि?,ध्याने मूर्तौ वा प्रकटो भवामीत्यर्थः।
।।12.7।। --,तेषां मदुपासनैकपराणाम् अहम् ईश्वरः समुद्धर्ता। कुतः इति आह -- मृत्युसंसारसागरात् मृत्युयुक्तः संसारः मृत्युसंसारः? स एव सागर इव सागरः? दुस्तरत्वात्? तस्मात् मृत्युसंसारसागरात् अहं तेषां समुद्धर्ता भवामि न चिरात्। किं तर्हि क्षिप्रमेव हे पार्थ? मयि आवेशितचेतसां मयि विश्वरूपे आवेशितं समाहितं चेतः येषां ते मय्यावेशितचेतसः तेषाम्।।यतः एवम्? तस्मात् --,
।।12.7।।तेषां तादृशानामहं तत्सन्बध्येवाहमित्यर्थःअहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज। वशे कुर्वन्ति मां भक्त्या सत्िस्त्रयः सत्पतिं यथा [भाग.9।4।63] इति वाक्यात्। न च तादृशानां कथं समुद्धारः सोपाधिभावनिदर्शनादिति वाच्यम् मन्निष्ठत्वेन निर्गुणत्वादित्याह -- मय्यावेशितचेतसामचिरेण समुद्धर्त्ता भवामीति मयि तथा भावकारणे वस्तुशक्तिरेवोद्धारिकान मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते इति वाक्यात्। न च तथात्वे तथाभूतानां सोपाधिकभक्तिमत्त्वं सगुणत्वापादकमिति शङ्क्यम् भगवद्रूपत्वेन तत्कामस्य निर्बीजत्वनिदर्शनात्। अतएवोक्तं भगवता -- केवलेन हि भावेन गोप्या गावो नगा मृगाः। येऽन्ये मूढधियो नागाः सिद्धा मामीयुरञ्जसा [भाग.11।12।8] इतिमन्निष्ठं निर्गुणं मतं इति च। अन्यथा सोपाधिकत्वेन विघातकत्वेन च कामस्य तत्र सत्त्वाद्भगवत्प्राप्तिर्नोक्ता स्यादित्युपरम्यते। इदं च विशेषतः श्रीमत्प्रभुचरणैः स्पष्टीकृतमेवेति ततोऽवसेयम्।