BG - 12.20

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।।12.20।।

ye tu dharmyāmṛitam idaṁ yathoktaṁ paryupāsate śhraddadhānā mat-paramā bhaktās te ’tīva me priyāḥ

  • ye - who
  • tu - indeed
  • dharma - of wisdom
  • amṛitam - nectar
  • idam - this
  • yathā - as
  • uktam - declared
  • paryupāsate - exclusive devotion
  • śhraddadhānāḥ - with faith
  • mat-paramāḥ - intent on me as the supreme goal
  • bhaktāḥ - devotees
  • te - they
  • atīva - exceedingly
  • me - to me
  • priyāḥ - dear

Translation

They who follow this immortal Dharma, endowed with faith and regarding Me as their supreme goal, are exceedingly dear to Me.

Commentary

By - Swami Sivananda

12.20 ये who? तु indeed? धर्म्यामृतम् immortal Dharma (Law)? इदम् this? यथोक्तम् as declared (above)? पर्युपासते follow? श्रद्दधानाः endowed with faith? मत्परमाः regarding Me as their Supreme? भक्ताः devotees? ते they? अतीव exceedingly? मे to Me? प्रियाः dear.Commentary The Blessed Lord has in this verse given a description of His excellent devotee.Amrita Dharma Amrita is the lifegiving nectar. Dharma is righteousness or wisdom. Dharma is that which leads to immortality when practised. The real devotees regard Me as their final or supreme refuge.Above Beginning with verse 13.A great truth that should not go unnoticed is that the devotee? the man of wisdom and the Yogi have all the same fundamental characteristics.Priyo hi Jnaninotyartham (I am exceedingly dear to the wise man) (VII.12) has thus been explained at length and concluded here thus? Te ativa me priyah (they are exceedinlgy dear to Me).He who follows this immortal Dharma as described above becomes exceedingly dear to the Lord. Therefore? every aspirant who thirsts for salvation? and who longs to attain the Supreme Abode of the Lord should follow this immortal Dharma with zeal and intense faith.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the twelfth discourse entitledThe Yoga of Devotion.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।12.20।। व्याख्या --   ये तु -- यहाँ ये पदसे भगवान्ने उन साधक भक्तोंका संकेत किया है? जिनके विषयमें अर्जुनने पहले श्लोकमें प्रश्न करते हुए ये पदका प्रयोग किया था। उसी प्रश्नके उत्तरमें भगवान्ने दूसरे श्लोकमें सगुणकी उपासना करनेवाले साधकोंको अपने मतमें (ये और ते पदोंसे) युक्ततमाः बताया था। फिर उसी सगुणउपासनाके साधन बताये और फिर सिद्ध भक्तोंके लक्षण बताकर अब उसी प्रसङ्गका उपसंहार करते हैं।यहाँ ये पद उन परम श्रद्धालु भगवत्परायण साधकोंके लिये आया है। जो सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको आदर्श मानकर साधन करते हैं।तु पदका प्रयोग प्रकरणको अलग करनेके लिये किया जाता है। यहाँ सिद्ध भक्तोंके प्रकरणसे साधक भक्तोंके प्रकरणको अलग करनेके लिये तु पदका प्रयोग हुआ है। इस पदसे ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्ध भक्तोंकी अपेक्षा साधक भक्त भगवान्को विशेष प्रिय हैं।श्रद्दधानाः -- भगवत्प्राप्ति हो जानेके कारण सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें श्रद्धाकी बात नहीं आयी क्योंकि जबतक नित्यप्राप्त भगवान्का अनुभव नहीं होता? तभीतक श्रद्धाकी जरूरत रहती है। अतः इस पदको श्रद्धालु साधक भक्तोंका ही वाचक मानना चाहिये। ऐसे श्रद्धालु भक्त भगवान्के धर्ममय अमृतरूप उपदेशको (जो भगवान्ने तेरहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक कहा है) भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे अपनेमें उतारनेकी चेष्टा किया करते हैं।यद्यपि भक्तिके साधनमें श्रद्धा और प्रेमका तथा ज्ञानके साधनमें विवेकका महत्त्व होता है? तथापि इससे यह नहीं समझना चाहिये कि भक्तिके साधनमें विवेकका और ज्ञानके साधनमें श्रद्धाका महत्त्व नहीं है। वास्तवमें श्रद्धा और विवेककी सभी साधनोंमें बड़ी आवश्यकता है। विवेक होनेसे भक्तिसाधनमें तेजी आती है। इसी प्रकार शास्त्रोंमें तथा परमात्मतत्त्वमें श्रद्धा होनेसे ही ज्ञानसाधनका पालन हो सकता है। इसलिये भक्ति और ज्ञान दोनों ही साधनोंमें श्रद्धा और विवेक सहायक हैं।मत्परमाः -- साधक भक्तोंका सिद्ध भक्तोंमें अत्यन्त पूज्यभाव होता है। उनकी सिद्ध भक्तोंके गुणोंमें श्रेष्ठ बुद्धि होती है। अतः वे उन गुणोंको आदर्श मानकर आदरपूर्वक उनका अनुसरण करनेके लिये भगवान्के परायण होते हैं। इस प्रकार भगवान्का चिन्तन करनेसे और भगवान्पर ही निर्भर रहनेसे वे सब गुण उनमें स्वतः आ जाते हैं।भगवान्ने ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकमें मत्परमः पदसे और इसी (बारहवें) अध्यायके छठे श्लोकमें,मत्पराः पदसे अपने परायण होनेकी बात विशेषरूपसे कहकर अन्तमें पुनः उसी बातको इस श्लोकमें,मत्परमाः पदसे कहा है। इससे सिद्ध होता है कि भक्तियोगमें भगवत्परायणता मुख्य है। भगवत्परायण होनेपर भगवत्कृपासे अपनेआप साधन होता है और असाधन(साधनके विघ्नों) का नाश होता है।धर्म्यामृतमिदं यथोक्तम् -- सिद्ध भक्तोंके उनतालीस लक्षणोंके पाँचों प्रकरण धर्ममय अर्थात् धर्मसे ओतप्रोत हैं। उनमें किञ्चिन्मात्र भी अधर्मका अंश नहीं है। जिस साधनमें साधनविरोधी अंश सर्वथा नहीं होता? वह साधन अमृततुल्य होता है। पहले कहे हुए लक्षण समुदायके धर्ममय होनेसे तथा उसमें साधनविरोधी कोई बात न होनेसे ही उसे धर्म्यामृत संज्ञा दी गयी है।साधनमें साधनविरोधी कोई बात न होते हुए भी जैसा पहले कहा गया है? ठीक वैसाकावैसा धर्ममय अमृतका सेवन तभी सम्भव है? जब साधकका उद्देश्य किञ्चिन्मात्र भी धन? मान? बड़ाई? आदर? सत्कार? संग्रह? सुखभोग आदि न होकर एकमात्र भगवत्प्राप्ति ही हो।प्रत्येक प्रकरणमें सब लक्षण धर्म्यामृत हैं। अतः साधक जिस प्रकरणके लक्षणोंको आदर्श मानकर साधन करता है? उसके लिये वही धर्म्यामृत है।धर्म्यामृतके जो अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः ৷৷. आदि लक्षण बताये गये हैं? वे आंशिकरूपसे साधकमात्रमें रहते हैं और इनके साथसाथ कुछ दुर्गुणदुराचार भी रहते हैं। प्रत्येक प्राणीमें गुण और अवगुण दोनों ही रहते हैं? फिर भी अवगुणोंका तो सर्वथा त्याग हो सकता है? पर गुणोंका सर्वथा त्याग नहीं हो सकता। कारण कि साधन और स्वभावके अनुसार सिद्ध पुरुषमें गुणोंका तारतम्य तो रहता है परन्तु उनमें गुणोंकी कमीरूप अवगुण किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहता। गुणोंमें न्यूनाधिकता रहनेसे उनके पाँच विभाग किये गये हैं परन्तु अवगुण सर्वथा त्याज्य हैं अतः उनका विभाग हो ही नहीं सकता।साधक सत्सङ्ग तो करता है? पर साथहीसाथ कुसङ्ग भी होता रहता है। वह संयम तो करता है? पर साथहीसाथ असंयम भी होता रहता है। वह साधन तो करता है? पर साथहीसाथ असाधन भी होता रहता है। जबतक साधनके साथ असाधन अथवा गुणोंके साथ अवगुण रहते हैं? तबतक साधककी साधना पूर्ण नहीं होती। कारण कि असाधनके साथ साधन अथवा अवगुणोंके साथ गुण उनमें भी पाये जाते हैं? जो साधक नहीं है। इसके सिवाय जबतक साधनके साथ असाधन अथवा गुणोंके साथ अवगुण रहते हैं? तबतक साधकमें अपने साधन अथवा गुणोंका अभिमान रहता है? जो आसुरी सम्पत्तिका आधार है। इसलिये धर्म्यामृतका यथोक्त सेवन करनेके लिये कहा गया है। तात्पर्य यह है कि इसका ठीक वैसा ही पालन होना चाहिये? जैसा वर्णन किया गया है। अगर धर्म्यामृतके सेवनमें दोष (असाधन) भी साथ रहेंगे तो भगवत्प्राप्ति नहीं होगी। अतः इस विषयमें साधकको विशेष सावधान रहना चाहिये। यदि साधनमें किसी कारणवश आंशिकरूपसे कोई दोषमय वृत्ति उत्पन्न हो जाय? तो उसकी अवहेलना न करके तत्परतासे उसे हटानेकी चेष्टा करनी चाहिये। चेष्टा करनेपर भी न हटे? तो व्याकुलतापूर्वक प्रभुसे प्रार्थना करनी चाहिये।जितने सद्गुण? सदाचार? सद्भाव आदि हैं? वे सबकेसब सत्(परमात्मा) के सम्बन्धसे ही होते हैं। इसी प्रकार दुर्गुण? दुराचार? दुर्भाव आदि सब असत्के सम्बन्धसे ही होते हैं। दुराचारीसेदुराचारी पुरुषमें भी सद्गुणसदाचारका सर्वथा अभाव नहीं होता क्योंकि सत्(परमात्मा)का अंश होनेके कारण जीवमात्रका सत्से नित्यसिद्ध सम्बन्ध है। परमात्मासे सम्बन्ध रहनेके कारण किसीनकिसी अंशमें उसमें सद्गुणसदाचार रहेंगे ही। परमात्माकी प्राप्ति होनेपर असत्से सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और दुर्गुण? दुराचार? दुर्भाव आदि सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।सद्गुणसदाचारसद्भाव भगवान्की सम्पत्ति है। इसलिये साधक जितना ही भगवान्के सम्मुख अथवा भगवत्परायण होता जायगा? उतने ही अंशमें स्वतः सद्गुणसदाचारसद्भाव प्रकट होते जायँगे और दुर्गुणदुराचारदुर्भाव नष्ट होते जायँगे।रागद्वेष? हर्षशोक? कामक्रोध आदि अन्तःकरणके विकार हैं? धर्म नहीं (गीता 13। 6)। धर्मीके साथ धर्मका नित्यसम्बन्ध रहता है। जैसे? सूर्यरूप धर्मीके साथ उष्णतारूप धर्मका नित्यसम्बन्ध रहता है? जो कभी मिट नहीं सकता। अतः धर्मीके बिना धर्म तथा धर्मके बिना धर्मी नहीं रह सकता। कामक्रोधादि विकार साधारण मनुष्यमें भी हर समय नहीं रहते? साधन करनेवालेमें कम होते रहते हैं और सिद्ध पुरुषमें तो सर्वथा ही नहीं रहते। यदि ये विकार अन्तःकरणके धर्म होते? तो हर समय एकरूपसे रहते और अन्तःकरण(धर्मी) के रहते हुए कभी नष्ट नहीं होते। अतः ये अन्तःकरणके धर्म नहीं? प्रत्युत आगन्तुक (आनेजानेवाले) विकार हैं।,साधक जैसेजैसे अपने एकमात्र लक्ष्य भगवान्की ओर बढ़ता है? वैसेहीवैसे रागद्वेषादि विकार मिटते जाते हैं और भगवान्को प्राप्त होनेपर उन विकारोंका अत्यन्ताभाव हो जाता है।गीतामें जगहजगह भगवान्ने तयोर्न वशमागच्छेत् (3। 34)? रागद्वेषवियुक्तैः (2। 64)? रागद्वेषौ व्युदस्य (18। 51) आदि पदोंसे साधकोंको इन रागद्वेषादि विकारोंका सर्वथा त्याग करनेके लिये कहा है। यदि ये (रागद्वेषादि) अन्तःकरणके धर्म होते तो अन्तःकरणके रहते हुए इनका त्याग असम्भव होता और असम्भवको सम्भव बनानेके लिये भगवान् आज्ञा भी कैसे दे सकते थेगीतामें सिद्ध महापुरुषोंको रागद्वेषादि विकारोंसे सर्वथा मुक्त बताया गया है। जैसे? इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकसे उन्नीसवें श्लोकतक जगहजगह भगवान्ने सिद्ध भक्तोंको रागद्वेषादि विकारोंसे सर्वथा मुक्त बताया है। इसलिये भी ये विकार ही सिद्ध होते हैं? अन्तःकरणके धर्म नहीं। असत्से सर्वथा विमुख होनेसे उन सिद्ध महापुरुषोंमें ये विकार लेशमात्र भी नहीं रहते। यदि अन्तःकरणमें ये विकार बने रहते? तो फिर वे मुक्त किससे होतेजिसमें ये विकार लेशमात्र भी नहीं हैं? ऐसे सिद्ध महापुरुषके अन्तःकरणके लक्षणोंको आदर्श मानकर भगवत्प्राप्तिके लिये उनका अनुसरण करनेके लिये भगवान्ने उन लक्षणोंको यहाँ धर्म्यामृतम्के नामसे सम्बोधित किया है।पर्युपासते -- साधक भक्तोंकी दृष्टिमें भगवान्के प्यारे सिद्ध भक्त अत्यन्त श्रद्धास्पद होते हैं। भगवान्की तरफ स्वाभाविक आकर्षण (प्रियता) होनेके कारण उनमें दैवी सम्पत्ति अर्थात् सद्गुण (भगवान्के होनेसे) स्वाभाविक ही आ जाते हैं। फिर भी साधकोंका उन सिद्ध महापुरुषोंके गुणोंके प्रति स्वाभाविक आदरभाव होता है और वे उन गुणोंको अपनेमें उतारनेकी चेष्टा करते हैं। यही साधक भक्तोंद्वारा उन गुणोंका अच्छी तरहसे सेवन करना? उनको अपनाना है।इसी अध्यायके तेरहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक? सात श्लोकोंमें धर्म्यामृतका जिस रूपमें वर्णन किया गया है? उसका ठीक उसी रूपमें श्रद्धापूर्वक अच्छी तरह सेवन करनेके अर्थमें यहाँ पर्युपासते पद प्रयुक्त हुआ है। अच्छी तरह सेवन करनेका तात्पर्य यही है कि साधकमें किञ्चिन्मात्र भी अवगुण नहीं रहने चाहिये। जैसे? साधकमें सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति करुणाका भाव पूर्णरूपसे भले ही न हो? पर उसमें किसी प्राणीके प्रति अकरुणा(निर्दयता) का भाव बिलकुल भी नहीं रहना चाहिये। साधकोंमें ये लक्षण साङ्गोपाङ्ग नहीं होते? इसीलिये उनसे इनका सेवन करनेके लिये कहा गया है। साङ्गोपाङ्ग लक्षण होनेपर वे सिद्धकी कोटिमें आ जायँगे।साधकमें भगवत्प्राप्तिकी तीव्र उत्कण्ठा और व्याकुलता होनेपर उसके अवगुण अपनेआप नष्ट हो जाते हैं क्योंकि उत्कण्ठा और व्याकुलता अवगुणोंका खा जाती है तथा उसके द्वारा साधन भी अपनेआप होने लगता है। इस कारण उसको भगवत्प्राप्ति जल्दी और सुगमतासे हो जाती है।भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः -- भक्तिमार्गपर चलनेवाले भगवदाश्रित साधकोंके लिये यहाँ भक्ताः पद प्रयुक्त हुआ है।भगवान्ने ग्यारहवें अध्यायके तिरपनवें श्लोकमें वेदाध्ययन? तप? दान? यज्ञ आदिसे अपने दर्शनकी दुर्लभता बताकर चौवनवें श्लोकमें अनन्यभक्तिसे अपने दर्शनकी सुलभताका वर्णन किया। फिर पचपनवें श्लोकमें अपने भक्तके लक्षणोंके रूपमें अनन्यभक्तिके स्वरूपका वर्णन किया। इसपर अर्जुनने इसी (बारहवें) अध्यायके पहले श्लोकमें यह प्रश्न किया कि सगुणसाकारके उपासकों और निर्गुणनिराकारके उपासकोंमें श्रेष्ठ कौन है,भगवान्ने दूसरे श्लोकमें इस प्रश्नके उत्तरमें (सगुणसाकारकी उपासना करनेवाले) उन साधकोंको श्रेष्ठ बताया? जो भगवान्में मन लगाकर अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उनकी उपासना करते हैं। यहाँ उपसंहारमें उन्हीं साधकोंके लिये भक्ताःपद आया है।उन साधक भक्तोंको भगवान् अपना अत्यन्त प्रिय बताते हैं।सिद्ध भक्तोंको प्रिय और साधकोंको अत्यन्त प्रिय बतानेके दो कारण इस प्रकार हैं -- (1) सिद्ध भक्तोंको तो तत्त्वका अनुभव अर्थात् भगवत्प्राप्ति हो चुकी है किन्तु साधक भक्त भगवत्प्राप्ति न होनेपर भी श्रद्धापूर्वक भगवान्के परायण होते हैं। इसलिये वे भगवान्को अत्यन्त प्रिय होते हैं।(2) सिद्ध भक्त भगवान्के बड़े पुत्रके समान हैं।मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानी।परन्तु साधक भक्त भगवान्के छोटे? अबोध बालकके समान हैं --,बालक सुत सम दास अमानी।।(मानस 3। 43। 4)छोटा बालक स्वाभाविक ही सबको प्रिय लगता है। इसलिये भगवान्को भी साधस भक्त अत्यन्त प्रिय हैं।(3) सिद्ध भक्तको तो भगवान् अपने प्रत्यक्ष दर्शन देकर अपनेको ऋणमुक्त मान लेते हैं? पर साधक भक्त तो (प्रत्यक्ष दर्शन न होनेपर भी) सरल विश्वासपूर्वक एकमात्र भगवान्के आश्रित होकर उनकी भक्ति करते हैं। अतः उनको अभीतक अपने प्रत्यक्ष दर्शन न देनेके कारण भगवान् अपनेको उनका ऋणी मानते हैं और इसीलिये उनको अपना अत्यन्त प्रिय कहते हैं।इस प्रकार ? तत्? सत् -- इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें भक्तियोग नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।12।। ,

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।12.20।। यथोक्त अमृत धर्म उपर्युक्त पंक्तियों में सनातन धर्म का सार दिया गया है। वस्तुत हिन्दू धर्म के अनुयायियों के जीवन का लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार करके उसे जीवन को अपने व्यक्तित्व के सभी स्तरों शारीरिक? मानसिक और बौद्धिक पर जीने का है। उसके लिये केवल इतना पर्याप्त नहीं है कि वह इस ज्ञान को बौद्धिक स्तर पर समझता है अथवा नियमित रूप से शास्त्रग्रन्थ का पाठ करता है? या उन्हें अच्छी प्रकार दूसरों को समझा भी सकता है। उसे चाहिए कि वह शास्त्रीय ज्ञान को आत्मसात् करके स्वयं पूर्ण पुरुष बन जाये। इसलिए? भगवान् कहते हैं कि उसे श्रद्धावान् होना चाहिए यहाँ श्रद्धा शब्द का अर्थ है स्वयं के अनुभव के द्वारा शास्त्र प्रतिपादित आत्मज्ञान्ा को आत्मसात् करने की क्षमता।ऐसे भक्त मुझे अतिशय प्रिय हैं इस श्लोक के साथ भक्त के लक्षणों का वर्णन करने वाले इस प्रकरण का षष्ठ भाग तथा यह अध्याय भी समाप्त होता है। यद्यपि इसमें और कोई नया लक्षण नहीं बताया गया है? तथपि इसमें भगवान् का समस्त साधकों को दिया हुआ पुनराश्वासन है कि उक्त गुणों से सम्पन्न साधकों को भगवान् की परा भक्ति प्राप्त होगी।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुन संवादे भक्तियोगोनाम द्वादशोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुन संवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का भक्तियोग नामक बारहवां अध्याय समाप्त होता है।

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।12.20।।अद्वेष्टेत्यादिधर्मजातं ज्ञानवतो लक्षणमुक्तं तदुपपादितमनूद्योपसंहारश्लोकमवतारयति -- अद्वेष्टेत्यादिना। चतुर्थपादस्य तात्पर्यमाह -- प्रियो हीति। यद्यपि यथोक्तं धर्मजातं ज्ञानवतो लक्षणं तथापि जिज्ञासूनां ज्ञानोपायत्वेन यत्नादनुष्ठेयमिति वाक्यार्थमुपसंहरति -- यस्मादिति। तदेवं सोपाधिकाभिध्यानपरिपाकान्निरुपाधिकमनुसंदधानस्याद्वेष्टा सर्वभूतानामित्यादिधर्मविशिष्टस्य मुख्यस्याधिकारिणः श्रवणाद्यावर्तयतस्तत्त्वसाक्षात्कारसंभवात्ततो मुक्त्युपपत्तेस्तद्धेतुवाक्यार्थधीविष(योऽन्व)ययोग्यस्तत्पदार्थोऽनुसंधेय इति सिद्धम्।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृतौ द्वादशोऽध्यायः।।12।।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।12.20।।अद्वेष्टा सर्वभूतानामित्यादिनाक्षरोपासकानां निवृत्तसर्वैषणानां संन्यासिनां परमार्थज्ञाननिष्ठानां धर्मजातमुपपाद्यपसंहरति -- ये त्विति। येतु श्रद्दधानाः परया श्रद्धया युक्ताः सन्तो मत्परमा अहमेवाक्षरात्मा परमे निरतिशया गतिर्येषां ते पर्युपासतेऽनुतिष्ठन्ति मद्भक्ताः उत्तमां परमार्थज्ञानलक्षणां भक्तिमास्थितास्ते मे मम वासुदेवस्य परमात्मनोऽतिशयेन प्रियाः।प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं सच मम प्रियः इति यत्सूचितं तत्प्रतिपाद्योपसंहृतं भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया इति। यस्माद्यथोक्तमिदं धर्मामृतमुतिष्ठन् भगवतो वासुदेवस्यातिशयेन प्रियो भवति तस्माद्वासुदेवस्य विष्णोः प्रियं धाम जिगमुषुणा मुमुक्षुणा इदं धर्मामृतं यथावद्यत्नतोऽनुष्ठेयमिति वाक्यार्थः। एवं द्वादशाध्यायेन सोपाधिकध्यानपरिपाकान्निरुपाधिकमक्षरमनुसंदधानस्याद्वेष्टा सर्वभूतानामित्यादिधर्मविशिष्टस्य श्रवणाद्यावर्तनेन परमार्थज्ञानवतो मुख्याधिकारिणः साक्षान्मोक्षप्राप्तियोग्यत्वं निरुपयता सोपाधिकनिरुपाधिकस्तत्पदार्थः प्रदर्शितः।यं संराध्य दुरत्ययां प्रकृतिमुन्मुच्याप्नुवन्त्यक्षरं ध्येयं ज्ञेयमनेकयोगविभवैर्युक्तं परं कारणम्।विश्वाकारमनाद्यनन्तममलं भक्तप्रियं माधवं देवेशं शुभमध्यषट्कविदितं तं तत्पदार्थ भजे।।1।।सुधाधाराधारं विधुरमधराद्यैरघहरं धराधाराधारं निखिलजगदाधारमजरम्।निराधारं सारं जलजजमुखैर्ध्येयचरणं शिवं कृष्णं वन्दे सकलजनकं भक्तिसुलभम्।।2।।इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचितायां श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां द्वादशोऽध्यायः।।12।।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।12.20।।पिण्डीकृत्योपसंहरति -- ये तु धर्म्यामृतमिति। धर्मो विष्णुस्तद्विषयं धर्म्यम्। धर्म्यम्? अमृतं,मृत्यादिसंसारनाशकं चेति धर्म्यामृतम्। श्रदास्तिक्यम्?श्रन्नामास्तिक्यमुच्यते इत्यभिधानम्। तद्दधानाः श्रद्दधानाः।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।12.20।।मुक्तलक्षणान्येव मुमुक्षोः साधनत्वेन विधत्ते -- ये त्विति। ये मुमुक्षवः तु पूर्वोक्तमुक्तापेक्षया विलक्षणाः। इदं अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् इत्यादिना ग्रन्थेन प्रतिपादितं धर्मजातं तदेवामृतस्य मोक्षस्य साधनत्वादमृतं धर्मामृतम्। यथोक्तमुक्तानतिक्रमेण पर्युपासते साकल्येनानुतिष्ठन्ति। श्रद्दधानाः श्रद्धायुक्ताः मत्परमाः अहमेव भगवान्वासुदेवोऽक्षराख्यः सर्वविशेषरहितः परमानन्दरूपः परमः पार्यन्तिकः प्राप्यो येषां ते मत्परमाः भक्ताः शान्तिदान्त्यादिमन्तो मद्भजनशीलास्तेऽतीव मे मम प्रियाः। ज्ञानी तु भगवत आत्मैव। परिशेषादतीव प्रियत्वं भक्तेष्वेव पर्यवसन्नम्। यो मुक्तानां स्वाभाविको धर्मः स मुमुक्षुणा यत्नतोऽनुष्ठेय इत्यर्थः। यथोक्तं वार्तिकेउत्पन्नात्मप्रबोधस्य ह्यद्वेष्टृत्वादयो गुणाः। अयत्नतो भवन्त्येव न तु साधनरूपिणः। इति। समाप्त उपासनाप्रधानस्तत्पदार्थविवेकः। अतःपरं वाक्यार्थविचारो जीवब्रह्माभेदप्रतिपादको भविष्यति। ,

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।12.20।।धर्म्यं च अमृतं चइति धर्म्यामृतं ये तु प्राप्यसमं प्रापकं भक्तियोगं यथोक्तंमय्यावेश्य मनो ये माम् (गीता 12।2) इत्यादिना उक्तेन प्रकारेण उपासते ते भक्ता अतितरां मे प्रियाः। ,

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।12.20।।उक्तं धर्मजातं सफलमुपसंहरति -- ये त्विति। यथोक्तमुक्तप्रकारं धर्म एवामृतममृतत्वसाधनत्वात्। धर्म्यामृतमिदमिति केचित्पठन्ति। तद्य उपासतेऽनुतिष्ठन्ति श्रद्धां कुर्वन्तो मत्परमाश्च सन्तो मद्भक्ता अतीव मे प्रिया इति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।12.20।।अध्यायोपक्रमे प्रश्नपूर्वकं भक्तियोगनिष्ठस्य अक्षरनिष्ठाच्छ्रैष्ठ्यं ह्युक्तम् भक्तियोगाशक्तिप्रसङ्गेन अक्षरयोगस्य परम्परया भक्तियोगसाधनत्वं तदपेक्षितगुणाश्चोक्ताः अथाध्यायारम्भगतप्रश्नस्योत्तरं प्रपञ्चितं निगमयतीत्याह -- अस्मादिति।मय्यावेश्य मनो ये माम् [12।2] इति श्लोकोऽयं चैकार्थ एव ह्युपलभ्यत इत्यभिप्रायेणयथोपक्रममित्युक्तम्। तत्रनित्ययुक्ताः [12।2] इत्युक्त एवार्थोऽत्रमत्परमाः इत्युच्यते। तत्रश्रद्धया परयोपेताः [12।2] इत्युक्तम् अत्र तुश्रद्दधानाः इति। तत्रते मे युक्ततमा मताः [12।2] इत्युक्तम् अत्र तु तत्फलितत्वेनभक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः इत्युच्यते। अतः स एवार्थोऽत्रोपसंह्रियते। अस्य चाधिकार्यन्तरपरत्वे तुशब्दविशेषणादयो हेतवः पूर्वमेवोक्ताः। अनेनैव च श्लोकेन मध्यमषट्कप्रधानार्थभक्तियोगोपसंहारश्च कृतो भवति।धर्म्यामृतम् इत्यनेन विवक्षितमाकारद्वयं वक्तुं तदुपयुक्तं कर्मधारयत्वं दर्शयति -- धर्म्यं चामृतं चेति। धर्मादनपेतं धर्म्यम्। अतोऽत्र धर्म्यशब्देन साधनत्ववचनादमृतशब्देनामृतसाधनत्वस्याविवक्षितत्वात्फलवदेव भोग्यत्वं विवक्षितमित्याहये तु प्राप्यसममिति।यथोक्तमिति व्याख्येयपदोपादानम्। प्रसङ्गागतकर्मयोगोक्तेर्व्युदासायमय्यावेश्येत्यादिकमुक्तम्। पूर्वोक्तानामन्येषामपि भक्तत्वमस्तीति तद्व्यवच्छेदायते भक्ता इति विशेष्यते। पूर्वेषु प्रियत्वमुदारत्वप्रयुक्तम् अस्मिंस्तु स्वाभिमतान्तरात्मत्वप्रयुक्तम्। अतो ह्यतीव प्रियत्वमिहोक्तम्। उक्तं च प्रागेवउदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् [7।18] इत्याद्युपक्रम्यस महात्मा सुदुर्लभः [7।19] इति। एतेनअद्वेष्टा [12।13] इत्यादिना प्रक्रान्तं धर्मजातंये तु धर्म्यामृतम् इति श्लोकेनोपसंह्रियत इति परोक्तं निरस्तम्? भिन्नाधिकारविषयत्वस्य व्यञ्जितत्वात्।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु,

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।12.15 -- 12.20।।यस्मादित्यादि मे प्रिया इत्यन्तम्। अनिकेतः -- इदमेव मया कर्तव्यम् इति यस्य नास्ति प्रतिज्ञा। यथाप्राप्तहेवाकितया सुखदुःखादिकमुपभुञ्ज्ञानः परमेश्वरविषयसमावेशितहृदयः सुखेनैव प्राप्नोति परमकैवल्यम् इति।।।शिवम्।।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।12.20।।ये तु इत्युक्तमेव किमर्थमुच्यते इत्यत आह -- पिण्डीकृत्येति। धर्म्यामृतमित्येतदप्रतीतार्थं व्याख्यातुं धर्मशब्दं तावद्व्याख्याति -- धर्म इति। तद्विषयं तदुपासनाङ्गत्वात् धर्मादनपेतं धर्म्यं? धर्मश्च विष्णुः। नादृष्टं प्रवृत्तस्यासम्भवात्। निवृत्तस्यैतत्साधनत्वात्। इदानीममृतशब्दं व्याकुर्वन् धर्म्यामृतमिति कर्मधारयोऽयमित्याह -- धर्म्यमिति। न मृतं अमृतम्? नञ् विरुद्धार्थेऽमृतशब्दश्चोपलक्षक इत्यर्थः। श्रद्दधाना इत्येतद्व्युत्पादयति -- श्रदिति। श्रच्छब्दस्योपसङ्ख्यानमित्युपसर्गत्वेनोपसङ्ख्यायमानस्याप्यस्य सत्त्ववाचित्वमविरुद्धम्? उपसर्गत्वस्य कार्यविशेषार्थत्वात्।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।12.20।।अद्वेष्टेत्यादिनाऽक्षरोपासकादीनां संन्यासिनां लक्षणभूतं स्वभावसिद्धं धर्मजातमुक्तं। यथोक्तं वार्तिकेउत्पन्नात्मावबोधस्य ह्यद्वेष्टृत्वादयो गुणाः। अयत्नतो भवन्त्येव नतु साधनरूपिणः।। इति। एतदेव च पुरा स्थितप्रज्ञलक्षणरूपेणाभिहितं? तदिदं धर्मजातं प्रयत्नेन संपाद्यमानं मुमुक्षोर्मोक्षसाधनं भवतीति प्रतिपादयन्नुपसंहरति -- येत्विति। ये तु संन्यासिनो मुमुक्षवो धर्म्यामृतं धर्मरूपममृतं अमृतत्वसाधनत्वात् अमृतवदास्वाद्यत्वाद्वा? इदं यथोक्तं अद्वेष्टा सर्वभूतानामित्यादिना प्रतिपादितं पर्युपासतेऽनुतिष्ठन्ति प्रयत्नेन श्रद्दधानाः सन्तो मत्परमाः अहं भगवानक्षरात्मा वासुदेव एव परमः प्राप्तव्यो निरतिशयगतिर्येषां ते मत्परमा भक्ता मां निरुपाधिकं ब्रह्म भजमानास्तेऽतीव मे प्रियाः।प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः इति पूर्वसूचितस्यायमुपसंहारः। यस्माद्धर्म्यामृतमिदं श्रद्धयानुतिष्ठन्भगवतो विष्णोः परमेश्वरस्यातीव प्रियो भवति तस्मादिदं ज्ञानवतः स्वभावसिद्धतया लक्षणमपि मुमुक्षुणात्मतत्त्वजिज्ञासुनात्मज्ञानोपायत्वेन यत्नादनुष्ठेयं विष्णोः परमं पदं जिगमिषुणेति वाक्यार्थः। तदेवं सोपाधिब्रह्माभिध्यानपरिपाकान्निरुपाधिकं ब्रह्मानुसंदधानस्याद्वेष्टृत्वादिधर्मविशिष्टस्य मुख्यस्याधिकारिणः श्रवणमनननिदिध्यासनान्यावर्तयतो वेदान्तवाक्यार्थतत्त्वसाक्षात्कारसंभवात्ततो मुक्त्युपपत्तेर्मुक्तिहेतुवेदान्तमहावाक्यार्थोन्वययोग्यस्तत्पदार्थोऽनुसंधेय इति मध्यमेन षट्केन सिद्धम्। जीवन्मुक्तेर्निर्विकल्पाद्विशिष्टा निष्ठोक्तातोऽजेन भक्तेर्वरिष्ठा। तत्रानन्दाब्धौ कृता मे प्रतिष्ठा येनातस्तं काशिराजं भजेऽहम्। ,

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।12.20।।उक्तभक्तिरूपमुपसंहरति -- ये त्विति। य इति सामान्योक्त्या नात्र वर्णादिनियमः किन्तु ये केचन भाग्यवन्त इदं पुरत उक्तं धर्म्यामृतम् अक्षयं मत्प्रसादात्मकफलरूपं यथोक्तं श्रद्दधानाः मदुक्तं सत्यमिति ज्ञानवन्तो मत्परमाः मदेकनिष्ठाः सन्तः पर्युपासते मां सेवन्ते ते भक्ता मे अतीव स्वात्मनः प्रिया भवन्तीत्यर्थः।नाऽहमात्मानमाशासे [भाग.9।4।64] इतिवत्।एवमर्जुनमासिञ्चद्भक्तियोगामृतोक्तिभिः। सर्वसंशयमाच्छिद्य लोकोद्धारपरो हरिः।।1।।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।12.20।। --,ये तु संन्यासिनः धर्म्यामृतं धर्मादनपेतं धर्म्यं च तत् अमृतं च तत्? अमृतत्वहेतुत्वात्? इदं यथोक्तम्? अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् इत्यादिना पर्युपासते अनुतिष्ठन्ति श्रद्दधानाः सन्तः मत्परमाः यथोक्तः अहं अक्षरात्मा परमः निरतिशया गतिः येषां ते मत्परमाः? मद्भक्ताः च उत्तमां परमार्थज्ञानलक्षणां भक्तिमाश्रिताः? ते अतीव मे प्रियाः। प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थम् इति यत् सूचितं तत् व्याख्याय इह उपसंहृतम् भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः इति। यस्मात् धर्म्यामृतमिदं यथोक्तमनुतिष्ठन् भगवतः विष्णोः परमेश्वरस्य अतीव प्रियः भवति? तस्मात् इदं धर्म्यामृतं मुमुक्षुणा यत्नतः अनुष्ठेयं विष्णोः प्रियं परं धाम जिगमिषुणा इति वाक्यार्थः।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येद्वादशोऽध्यायः।।

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।12.20।।एवं मर्यादायामक्षरात्मनिष्ठात्स्वपुष्टिभक्तियोगनिष्ठस्यातीव प्रियत्वं प्रतिपादयन्नुक्तमुपसंहरति -- ये त्विति। ये दैवजीवा इदमेव सेवाधर्मादनपेतमुक्तममृतं यथावत्पर्युपासते निषेवन्ते श्रद्दधाना मदाश्रयास्ते भक्ता अतीव मे प्रिया इति। तथा भवेति भावः।अव्यक्तोपासनामार्गे दुःखं मर्यादयाऽपि हि। सुखं पुष्टया कृष्णभक्तिमार्गे सम्यगुदीरितम्।।1।।