तत्क्षेत्रं यच्च यादृक् च यद्विकारि यतश्च यत्।स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु।।13.4।।
tat kṣhetraṁ yach cha yādṛik cha yad-vikāri yataśh cha yat sa cha yo yat-prabhāvaśh cha tat samāsena me śhṛiṇu
Hear from Me in brief what the field is, of what nature it is, what its modifications are, whence it is, who He is, and what His powers are.
13.4 तत् that? क्षेत्रम् field? यत् which? च and? यादृक् what like? च and? यद्विकारि what its modifications? यतः whence? च and? यत् what? सः He? च and? यः who? यत्प्रभावः what His powers? च and? तत् that? समासेन in brief? मे from Me? श्रृणु hear.Commentary I will tell you? O Arjuna? what the field is? why the body is called the field? what are its modifications or changes in other words what transformations it undergoes? what are its properties? what effects arise in it from what causes? to whom it belongs? whether it is cultivated or whether it grows wild.That field refers to the field mentioned in verse 1.Who He is Who is that knower of the field What are His powers (Prabhavas are powers such as the power of seeing? hearing? etc.) which originate from the limiting adjuncts (such as the eys? the ears? etc.) Do thou hear My speech which describes succinctly the real nature of the field and the knower of the field in all these specific aspects.O Arjuna? I am ite sure that thou wilt clearly comprehend the truth on hearing My speech.The body is the field. The ten senses represent the ten bulls. The bulls work unceasingly day and night through the field of the objects of the senses. The mind is the supervisor. The individual soul is the tenant. The five vital airs (Pranas) are the five labourers. The Primordial Nature is the mistress of the field. This field is Her property. She Herself watches over the field vigilantly. She is endowed with the three alities. Rajas sows the seed Sattva guards it Tamas reaps the harvest. On the threshing floor or MahatTattva (the cosmic mind) with the help of the ox called time? She -- Primordial Nature -- thrashes out the corn. If the individual soul does evil actions? it sows the seeds of sin? manures with evil? reaps a crop of sin? and undergoes the pains of Samsara? viz.? birth? decay? old age? sickness? and the three kinds of afflictions. If it does virtuous actions it sows the good seeds of virtue and reaps a crop of happiness.Lord Krishna now speaks very highly in the following verse of the true nature of the field and the knower of the field in order to create interest in the hearer.
।।13.4।। व्याख्या -- तत्क्षेत्रम् -- तत् शब्द दोका वाचक होता है -- पहले कहे हुए विषयका और दूरीका। इसी अध्यायके पहले श्लोकमें जिसको इदम् पदसे कहा गया है? उसीको यहाँ तत् पदसे कहा है। क्षेत्र सब देशमें नहीं है? सब कालमें नहीं है और अभी भी प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है -- यह क्षेत्रकी (स्वयंसे) दूरी है।यच्च -- उस क्षेत्रका जो स्वरूप है? जिसका वर्णन इसी अध्यायके पाँचवें श्लोकमें हुआ है।यादृक् च -- उस क्षेत्रका जैसा स्वभाव है? जिसका वर्णन इसी अध्यायके छब्बीसवेंसत्ताईसवें श्लोकोंमें उसे उत्पन्न और नष्ट होनेवाला बताकर किया गया है।यद्विकारि -- यद्यपि प्रकृतिका कार्य होनेसे इसी अध्यायके पाँचवें श्लोकमें आये तेईस तत्त्वोंको भी विकार कहा गया है? तथापि यहाँ उपर्युक्त पदसे क्षेत्रक्षेत्रज्ञके माने हुए सम्बन्धके कारण क्षेत्रमें उत्पन्न होनेवाले इच्छाद्वेषादि विकारोंको ही विकार कहा गया है? जिनका वर्णन छठे श्लोकमें हुआ है।यतश्च यत् -- यह क्षेत्र जिससे पैदा होता है अर्थात् प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले सात विकार और तीन गुण? जिनका वर्णन इसी अध्यायके उन्नीसवें श्लोकके उत्तरार्धमें हुआ है।स च -- पहले श्लोकके उत्तरार्धमें जिस क्षेत्रज्ञका वर्णन हुआ है? उसी क्षेत्रज्ञका वाचक यहाँ सः पद है और उसीके विषयमें यहाँ सुननेके लिये कहा जा रहा है।यः -- इस क्षेत्रज्ञका जो स्वरूप है? जिसका वर्णन इसी अध्यायके बीसवें श्लोकके उत्तरार्धमें और बाईसवें श्लोकमें किया गया है।यत्प्रभावश्च -- वह क्षेत्रज्ञ जिस प्रभाववाला है जिसका वर्णन इसी अध्यायके इकतीसवेंसे तैंतीसवें श्लोकतक किया गया है।तत्समासेन मे श्रृणु -- यहाँ तत् पदके अन्तर्गत क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ -- दोनोंको लेना चाहिये। तात्पर्य है कि वह क्षेत्र जो है? जैसा है? जिन विकारोंवाला और जिससे पैदा हुआ है -- इस तरह क्षेत्रके विषयमें चार बातें और वह क्षेत्रज्ञ जो है और जिस प्रभाववाला है -- इस तरह क्षेत्रज्ञके विषयमें दो बातें तू मेरेसे संक्षेपमें सुन।यद्यपि इस अध्यायके आरम्भमें पहले दो श्लोकोंमें क्षेत्रक्षेत्रज्ञका सूत्ररूपसे वर्णन हुआ है? जिसको भगवान्ने,ज्ञान भी कहा है तथापि क्षेत्रक्षेत्रज्ञके विभागका स्पष्टरूपसे विवेचन (विकारसहित क्षेत्र और निर्विकार क्षेत्रज्ञके स्वरूपका प्रभावसहित विवेचन) इस तीसरे श्लोकसे आरम्भ किया गया है। इसलिये भगवान् इसको सावधान होकर सुननेकी आज्ञा देते हैं।इस श्लोकमें भगवान्ने क्षेत्रके विषयमें तो चार बातें सुननेकी आज्ञा दी है? पर क्षेत्रज्ञके विषयमें केवल दो बातें -- स्वरूप और प्रभाव ही सुननेकी आज्ञा दी है। इससे यह शङ्का हो सकती है कि क्षेत्रका प्रभाव भी क्यों नहीं कहा गया और साथ ही क्षेत्रज्ञके स्वभाव? विकार और जिससे जो पैदा हुआ -- इन विषयोंपर भी क्यों नहीं कहा गया इसका समाधान यह है कि एक क्षण भी एक रूपमें स्थिर न रहनेवाले क्षेत्रका प्रभाव हो ही क्या सकता है प्रकृतिस्थ (संसारी) पुरुषके अन्तःकरणमें धनादि जड पदार्थोंका महत्त्व रहता है? इसीलिये उसको संसारमें क्षेत्रका (धनादि जड पदार्थोंका) प्रभाव दीखता है। वास्तवमें स्वतन्त्ररूपसे क्षेत्रका कुछ भी प्रभाव नहीं है। अतः उसके प्रभावका कोई वर्णन नहीं किया गया।क्षेत्रज्ञका स्वरूप उत्पत्तिविनाशरहित है? इसलिये उसका स्वभाव भी उत्पत्तिविनाशरहित है। अतः भगवान्ने उसके स्वभावका अलगसे वर्णन न करके स्वरूपके अन्तर्गत ही कर दिया। क्षेत्रके साथ अपना सम्बन्ध माननेके कारण ही क्षेत्रज्ञमें इच्छाद्वेषादि विकारोंकी प्रतीति होती है? अन्यथा क्षेत्रज्ञ (स्वरूपतः) सर्वथा निर्विकार ही है। अतः निर्विकार क्षेत्रज्ञके विकारोंका वर्णन सम्भव ही नहीं। क्षेत्रज्ञ अद्वितीय? अनादि और नित्य है। अतः इसके विषयमें कौन किससे पैदा हुआ -- यह प्रश्न ही नहीं बनता। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें जिसको संक्षेपसे सुननेके लिये कहा गया है? उसका विस्तारसे वर्णन कहाँ हुआ है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।13.4।। भगवान् श्रीकृष्ण न केवल क्षेत्र की वस्तुओं का उल्लेख ही करेंगे? वरन् क्षेत्र के गुण धर्म? उसके विकार तथा कौन से कारण से ऋ़ौन सा कार्य उत्पन्न हुआ है? इसका भी वर्णन करेंगे। उसी प्रकार? क्षेत्रज्ञ का स्वरूप तथा उपाधियों से सम्बद्ध उसके प्रभाव को भी इस अध्याय में बतायेंगे। ये सब? मुझसे संक्षेप में सुनो।अनन्त आत्मा के स्वरूप को दर्शाने वाले विशेषणों को पुन दोहराने मात्र से अथवा उस पर विशेष बल देकर कहने से एक निष्ठावान् साधक को कोई विशेष लाभ भी नहीं होता और न उसके विकास में कोई सहायता मिलती है। जिन कारणों से हमारे जीवन की समस्यायें उत्पन्न होती हैं उनकी ओर से दृष्टि फेर लेने का अर्थ है? समस्या को नहीं सुलझाना। हमारे आसपास का यह जगत्? जिसे हमने ही प्रेक्षित किया है? तथा वे ही प्रक्रियायें जिनके द्वारा हम कार्य करते हुये असंख्य विषयों? भावनाओं और विचारों की विविधता को देखते हैं इन सबका हमें सूक्ष्म निरीक्षण तथा अध्ययन करना चाहिये। इसकी उपेक्षा करने का अर्थ स्वयं को विशाल आवश्यक सारभूत ज्ञान से वंचित रखना है। यह अपनी ही प्रवंचना है।शत्रुओं के विरुद्ध युद्धनीति सम्बन्धी योजना बनाने के लिए शत्रुपक्ष की रणनीति का कमसेकम सामान्य ज्ञान होना आवश्यक होता है। इसी प्रकार? क्षेत्र से युद्ध करके उस पर विजय पाकर उसके बन्धनों से स्वयं को मुक्त करने के लिये यह जानना आवश्यक है कि क्षेत्र क्या है तथा परिस्थिति विशेष में ये उपाधियाँ किस प्रकार कार्य और व्यवहार करती हैं।इस प्रकार? शरीरशास्त्र? जीवशास्त्र? मनोविज्ञान तथा अन्य प्राकृतिक विज्ञान की शाखायें भी जीवन को समझने में अपना योगदान देती हैं। अध्यात्म का ज्ञानमार्ग समस्त लौकिक विज्ञानों का चरम बिन्दु है और उसकी पूर्तिस्वरूप है। इस बात की पुष्टि इसी तथ्य से होती है कि? युद्धभूमि पर भी अर्जुन को इस ज्ञान का उपदेश देते समय? भगवान् इस बात पर बल देने के लिए भूलते नहीं कि इस क्षेत्र का सम्पूर्ण ज्ञान होना महत्व की बात है। इसका हमें सूक्ष्म अध्ययन करना चाहिये।क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के याथात्म्य को देखने? अध्ययन करने और समझने में शिष्य की अभिरुचि उत्पन्न करने के लिए भगवान् इस विषय वस्तु की स्तुति करते हुये कहते हैं
।।13.4।।श्लोकान्तरस्य तात्पर्यमाह -- तदित्यादिना। विवक्षितं जिज्ञासितमित्यर्थः। स्तुतिफलमाह -- श्रोत्रिति। न केवलमाप्तोक्तेरेव क्षेत्रादियाथात्म्यं संभावितं किंतु वेदवाक्यादपीत्याह -- छन्दोभिश्चेति। ऋगादीनां चतुर्णामपि वेदानां नानाप्रकारत्वं शाखाभेदादिष्टम्। न केवलं श्रुतिस्मृतिसिद्धमुक्तं याथात्म्यं किंतु यौक्तिकं चेत्याह -- किञ्चेति। कानि तानि सूत्राणीत्याशङ्क्याह -- आत्मेत्येवेति। आदिपदेनब्रह्मविदाप्नोति परम्?अथ योऽन्यां देवताम् इत्यादीनि विद्याविद्यासूत्राण्युक्तानि। आत्मेति क्षेत्रज्ञोपादानं तच्च क्षेत्रोपलक्षणम्।अथातो ब्रह्मजिज्ञासा इत्यादीन्यपि सूत्राण्यत्र गृहीतान्यन्यथा छन्दोभिरित्यादिना पौनरुक्त्यादिति मत्त्वा विशिनष्टि -- हेतुमद्भिरिति।
।।13.4।।इदं शरीरमित्यादिनोपदिष्टस्य क्षेत्राध्यायार्थस्य संग्रहश्लोकं प्रतिपत्तिसौकर्यार्थमुपन्यस्याति -- तदिति। इदं शरीरमिति यन्निर्दिष्टं तत्तदा परामृशति। यच्चेदं निर्दिष्टं क्षेत्रं स्वरुपतो जडं स्तावरजंगमादिभेबैर्भिन्नं दृश्यत्वादिस्वभावं तत्। यादृक् च स्वकीयैधर्मैः यादृशं यत्प्रकारकं च यद्विकारि ये विकारा अस्य तत्। यतो यस्माच्च यत्कार्यमुत्पद्यत इति शेषः। यतश्च प्रकृतिपुरुषसंयोगाद्भवति। यदिति यैः स्तावरजंगमादिभेदैर्भिन्नमिति त्वाचार्यैर्यच्चेत्यस्मिन्नुक्तस्य यत्पदार्थस्यान्तर्भावाद्यत्पदवैयर्थ्यमभिप्रेत्य न व्याख्यातम्। अत्र चकाराः सर्वे समुच्चायार्थाः। सच क्षेत्रज्ञो यः निर्दिष्टः स्वरुपतः सच्चिदानन्दस्वभावः यत्प्रभावाः प्रभावा शक्तयो यस्य स तद्यथोक्तविशेषणविशिष्टक्षेत्रज्ञयाथात्म्यं समासेन संक्षेपेण मे मम वाक्यात् श्रृणु श्रुत्वाऽवधारयेत्यर्थः।
।।13.4।।यद्विकारि येन विकारेण युक्तम्। यतश्च यत् यतो याति प्रवर्तते। स च प्रवर्तकः। यतश्च यदित्यस्मात्प्रवर्तते क्षेत्रमिति वचनं स च य इति स्वरूपमात्रम्।
।।13.4।।क्षेत्रक्षेत्रज्ञपदे विवरीतुमारभते -- तदिति। यच्चेदं क्षेत्रं निर्दिष्टं तत् यादृक् यादृशं स्वकीयैर्धर्मैरस्ति। यद्विकारि ये च तस्य विकाराः यतश्च यत् यस्माद्विकाराद्यज्जायत इति प्राञ्चः। तत्पूर्वोक्तं क्षेत्रं यच्च यत्स्वरूपं यादृक् यत्प्रकारकं यद्विकारि ये च तस्य विकाराः यतश्च क्षेत्रावयवाद्यज्जायते तत् शृणु। तथा स च क्षेत्रज्ञः यो यत्स्वरूपः यत्प्रभावश्च तदपि मत्तः शृणु।
।।13.4।।तद् इदं क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यम् ऋषिभिः पराशरादिभिः बहुधा बहुप्रकारं गीतम्अहं त्वं च तथान्ये च भूतैरुह्याम पार्थिव। गुणप्रवाहपतितो भूतवर्गोऽपि यात्ययम्।।कर्मवश्या गुणा ह्येते सत्त्वाद्याः पृथिवीपते। अविद्यासञ्चितं कर्म तच्चाशेषेषु जन्तुषु।।आत्मा शुद्धोऽक्षरः शान्तो निर्गुणः प्रकृतेः परः। प्रवृद्ध्यपचयौ नास्य चैकस्याखिलजन्तुषु।। (वि0 पु0 2।13।69 -- 71) तथापिण्डः पृथग्यतः पुंसः शिरःपाण्यादिलक्षणः।।ततोऽहमिति कुत्रैतां संज्ञां राजन्करोम्यहम्।। (वि0 पु0 2।13।89) तथा चकिं त्वमेतच्छिरः किं नु ग्रीवा तव तथोदरम्। किमु पादादिकं त्वं वै तवैतत्किं महीपते।।समस्तावयवेम्यस्त्वं पृथक् भूप व्यवस्थितः। कोऽहमित्येव निपुणो भूत्वा चिन्तय पार्थिव।। (वि0 पु0 2।13।102103) इति।एवं विविक्तयोः द्वयोः वासुदेवात्मकत्वं च आहुः -- इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सत्त्वं तेजो बलं धृतिः। वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च।। (महा0 शान्तिपर्व 149।136) इति।छन्दोभिः विविधैः पृथक् पृथग्विधैः छन्दोभिः ऋग्यजुः सामाथर्वभिः देहात्मनोः स्वरूपं पृथग् गीतम् -- तस्माद्वा एतस्माद् आत्मन आकाशः संभूतः आकाशाद् वायुः? वायोरग्निः? अग्नेरापः? अद्भ्यः पृथिवी? पृथिव्या ओषधयः? ओषधीभ्योऽन्नम्? अन्नात् पुरुषः? स वा एष पुरुषः अन्नरसमयः (तै0 उ0 2।1) इति शरीरस्वरूपम् अभिधाय तस्माद् अन्तरं प्राणमयं तस्मात् च अन्तरं मनोमयम् अभिधायतस्माद्वा एतस्मान्मनोमयादन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः (तै0 उ0 2।4) इति क्षेत्रज्ञस्वरूपम् अभिधायतस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयात् अन्योऽन्तर आत्मानन्दमयः (तै0 उ0 2।5) इति क्षेत्रज्ञस्य अपि अन्तरात्मतया आनन्दमयः परमात्मा अभिहितः।एवम् ऋक्सामाथर्वसु च तत्र तत्र क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः पृथग्भावः तयोः ब्रह्मात्मकत्वं च सुस्पष्टं गीतम्।ब्रह्मसूत्रपदैः च एव ब्रह्मप्रतिपादनसूत्राख्यैः पदैः शारीरकसूत्रैः हेतुमद्भिः हेतुयुक्तैः। विनिश्चितैः निर्णयान्तैःन वियदश्रुतेः (ब्र0 सू0 2।3।1) इति आरभ्य क्षेत्रप्रकारनिर्णय उक्तः।नात्माऽश्रुतेर्नित्यत्वाच्च ताभ्यः (ब्र0 सू0 2।3।17) इत्यारभ्यज्ञोऽत एव (ब्र0 सू0 2।3।18) इत्यादिभिः क्षेत्रज्ञयाथात्म्यनिर्णय उक्तः।परात्तु तच्छ्रुतेः (ब्र0 सू0 2।3।41) इति च भगवत्प्रवर्त्यत्वेन भगवदात्मकत्वम् उक्तम्।एवं बहुधा गीतं क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यं मया संक्षेपेण सुस्पष्टम् उच्यमानं श्रृणु इति अर्थः।
।।13.4।।अत्र यद्यपि चतुर्विंशतिभेदैर्भिन्ना प्रकृतिः क्षेत्रमित्यभिप्रेतं तथापि देहरूपेण परिणतायामेव तस्यामहंभावेनाविवेकः स्फुट इति तद्विवेकार्थमिदं शरीरं क्षेत्रमित्याद्युक्तं? तदेतत्प्रपञ्चयिष्यन्प्रतिजानीते -- तत्क्षेत्रमिति। यदुक्तं मया तत्क्षेत्रं यत्स्वरूपतो जडं दृश्यादिस्वभावं यादृग्यादृशं चेच्छादिधर्मकं यद्विकारि यैरिन्द्रियादिविकारैर्युक्तं यतश्च प्रकृतिपुरुषसंयोगाद्भवति। यदिति यैः स्थावरजङ्गमादिभेदैर्भिन्नमित्यर्थः। स च क्षेत्रज्ञो यः स्वरूपतः? यत्प्रभावश्च अचिन्त्यैश्वर्ययोगेन यैः प्रभावैः संपन्नः तत्सर्वं संक्षेपतो मत्तः शृणु।
।।13.4।।श्रृण्वत एवार्जुनस्य पुनःश्रृणु इत्यवधानार्थमुच्यतेतत्क्षेत्रम् इति।महाभूतानि [13।6] इत्युपक्रम्यसङ्घातः [13।7] इत्यन्तवक्ष्यमाणपरामर्शादाद्यन्तौ यच्छब्दौ जडद्रव्यतत्सङ्घातविषयावित्यपुनरुक्तिरित्यभिप्रायेणाह -- यह्रव्यमिति। वक्ष्यमाणेन्द्रियाद्याश्रयत्वानुसारेण यादृक्शब्दार्थमाह -- येषामाश्रयभूतमिति। ये विकारा अस्य कार्यतया सन्ति? तद्यद्विकारि तत्र यच्छब्दनिर्दिष्टे तात्पर्यमिति प्रकाशनायये चास्य विकारा इत्युक्तम्।यतः इति नोपादानादिपरं? प्रथमं तदुक्तेरित्यभिप्रायेणाह यतो हेतोरिति।चेतना धृतिः [13।7] इति वक्ष्यमाणं हेतुविशेषमाह -- यस्मै प्रयोजनायेति। क्षेत्रकर्तुरीश्वरस्य धीस्थतया प्रयोजनमपि हेतुः प्रयुज्यते चअध्ययनेन वसति इति।यत्स्वरूपमिति -- सङ्घतिपरम्। सन्निवेशविशेषो हि शरीरत्वादि। अतः प्रथमयच्छब्दो जडाजडद्रव्यविशेषनिर्वारणार्थः? द्वितीयस्तु जडत्वनिश्चये जडद्रव्येष्वनेकेष्वन्यतमात्मकत्वसङ्घातात्मकत्वनिश्चयार्थ इति भावः।माम् इति परमात्मात्मनोऽपि प्रसङ्गात्तत्परामर्शभ्रमव्युदासायाह -- स च क्षेत्रज्ञ इति।यो यत्प्रभावः इत्युभाभ्यां स्वरूपप्रकारयोर्निदेशः। प्रभावा आश्चर्यभूताः प्रकृष्टाः स्वभावविशेषाः।
।।13.4 -- 13.5।।तत्क्षेत्रमिति। ऋषिभिरिति। येन विकारं गच्छति यद्विकारि। समासेनेति अविभागेनैव सर्वान्प्रश्नान् (S??K एतान् (S तान्) प्रश्नान्) साधारणोत्तरेण परिच्छिनत्ति। यद्यपि च ऋषिभिर्बहुधा वेदैश्चोक्तमेतत्। तथापि समासेनाहं व्याचक्षे इति।
।।13.4।।यो विकारो यस्य तत् यद्विकारि इति कश्चित् (शं.) तदसत्। बहुव्रीहितायामिनेर्वैयर्थ्यात्। किन्तु यश्चासौ विकारश्चेति यद्विकारः सोऽस्यास्तीति यद्विकारीति भावेनाह -- यदिति। अत्रयेन विकारेण इत्यनेन कर्मधारयं सूचयति। युक्तमितीनेरर्थम्। यतश्च यदित्येतत्यस्माच्च यत्कार्यमुत्पद्यते इति कश्चिद्व्याख्यातवान् (शं.) तदयुक्तम्? यद्विकारीत्यनेन गतार्थत्वात् साध्याहारत्वाच्च?विकारांश्च गुणांश्च [13।20] इत्यस्यान्यथोपपत्तेः। अपरस्तु यतश्चामानित्वादिभ्यो यज्ज्ञेयं प्राप्यत इति? तदप्यसत्? अध्याहारादेव।अमानित्वं [13।8] इत्यादेःअनादिमत् [13।13] इत्यादेश्चान्यथासिद्धेरिति भावेनान्यथा व्याचष्टे -- यतश्चेति। यतो यस्य प्रेरणया। यदितीणो लडादेशशत्रन्तस्य रूपम्। इणो यातेश्चानतिभिन्नार्थत्वाद्यातीत्युक्तम्। सर्वस्य क्षेत्रस्य गत्यभावाद्गौणीं वृत्तिमाश्रित्य विवृणोति -- प्रवर्तत इति। स च य इति जीवप्रतिज्ञेति व्याख्यानमसत्? तस्याप्रकृतत्वात् क्षेत्रज्ञशब्दस्यातद्विषयत्वादिति भावेनाह -- स चेति। यतः क्षेत्रं प्रवर्तत इति प्रवर्तकस्य प्रकृतत्वादित्याशयः। नन्वेवं चेदेतद्वक्तव्यम् -- किंयतश्च यत्स च यः इत्येकैव प्रतिज्ञा उत द्वे नाद्यः चशब्दद्वयानुपपत्तेः?तत्समासेन इत्यनेनान्वयात्स च यः इत्यस्य वैयर्थ्याच्च। न द्वितीयः? अर्थभेदाभावादित्यतो द्वितीयमङ्गीकृत्याह -- यतश्चेति।यतश्च यत् इति वचनमस्मादेवंधर्मविशिष्टात् क्षेत्रं प्रवर्तत इति वक्तुं प्रतिज्ञारूपम्।स च यः इति वचनं प्रवर्तकस्य स्वरूपमात्रं वक्तुं प्रतिज्ञारूपमित्यर्थभेद इत्यर्थः।
।।13.4।।संक्षेपेणोक्तमर्थं विवरीतुमारभते -- तत्क्षेत्रमिति। तदिदं शरीरमिति प्रागुक्तं जडवर्गरूपं क्षेत्रं यच्च स्वरूपेण जडदृश्यपरिच्छिन्नादिस्वभावं यादृक् च इच्छादिधर्मकं यद्विकारि यैरिन्द्रियादिविकारैर्युक्तं यतश्च कारणात् यत्कार्यमुत्पद्यत इति शेषः। अथवा यतः प्रकृतिपुरुषसंयोगाद्भवति। यदिति यैः स्थावरजङ्गमादिभेदैर्भिन्नमित्यर्थः। अत्रानियमेन चकारप्रयोगात्सर्वसमुच्चयो द्रष्टव्यः। स च क्षेत्रज्ञोः यः स्वरूपतः स्वप्रकाशचैतन्यानन्दस्वभावः यत्प्रभावश्च ये प्रभावा उपाधिकृताः शक्तयो यस्य तत् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यं सर्वविशेषणविशिष्टं समासेन संक्षेपेण मे मम वचनाच्छृणु। श्रुत्वावधारयेत्यर्थः।
।।13.4।।एवं प्रतिज्ञाय क्षेत्रक्षेत्रज्ञस्वरूपं सभेदकं कथयामि तच्छृण्वित्याह -- तत् क्षेत्रमिति। तन्मदुक्तं क्षेत्रं यत् मत्सत्तात्मकं? जडादिरूपमपि यादृक् यादृशं मल्लीलेच्छात्मकम्। यद्विकारि विचित्रक्रीडेच्छया नानाविकारयुक्तम्। यतश्च मदंशात्मकमत्क्रीडार्थप्रकृतिपुरुषसंयोगजम्। तत्स्थावरजङ्गमपक्ष्यादिविचित्ररूपम्। स च क्षेत्रज्ञः स्वरूपतो मदंशरूपो यत्प्रभावः सूक्ष्मोऽपि व्यापकादिसेवनयोग्याद्यचिन्त्यप्रभाववांस्तदन्यैर्याथातथ्यस्वरूपाज्ञानाद्बहुविधमुक्तं तत्सर्वं समासेन सङ्क्षेपतो मे मत्तः शृणु।
।।13.4।। --,यत् निर्दिष्टम् इदं शरीरम् इति तत् तच्छब्देन परामृशति। यच्च इदं निर्दिष्टं क्षेत्रं तत् यादृक् यादृशं स्वकीयैः धर्मैः। चशब्दः समुच्चयार्थः। यद्विकारि यः विकारः यस्य तत् यद्विकारि? यतः यस्मात् च यत्? कार्यम् उत्पद्यते इति वाक्यशेषः। स च यः क्षेत्रज्ञः निर्दिष्टः सः यत्प्रभावः ये प्रभावाः उपाधिकृताः शक्तयः यस्य सः यत्प्रभावश्च। तत् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः याथात्म्यं यथाविशेषितं समासेन संक्षेपेण मे मम वाक्यतः शृणु? श्रुत्वा अवधारय इत्यर्थः।।तत् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यं विवक्षितं स्तौति श्रोतृबुद्धिप्ररोचनार्थम् --,
।।13.4।।एतत्प्रपञ्चयिष्यन् प्रतिजानीते -- तत्क्षेत्रमिति। यच्च यद्द्रव्यं? यादृक् येषामाश्रयभूतं? ये चात्र विकाराः सन्ति? यतश्चेति यदर्थमुद्भावितं? यत् यत्स्वभावं (स्वरूपं)। स च क्षेत्रज्ञो यः यत्स्वरूपः यत्प्रभावस्तत्सर्वं सङ्क्षेपेण मे मत्तः शृणु।