सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च।।13.15।।
sarvendriya-guṇābhāsaṁ sarvendriya-vivarjitam asaktaṁ sarva-bhṛich chaiva nirguṇaṁ guṇa-bhoktṛi cha
Shining by the functions of all the senses, yet without being attached to them; unattached, yet supporting all; devoid of qualities, yet the experiencer of them.
13.15 सर्वेन्द्रियगुणाभासम् shining by the functions of all senses? सर्वेन्द्रयविवर्जितम् (yet) without the senses? असक्तम् unattached? सर्वभृत् (yet) supporting all? च and? एव even? निर्गुणम् devoid of alities? गुणभोक्तृ (yet) experiencer of the alities? च and.Commentary Brahman sees without eyes? hears without ears? smells without nose? eats without mouth? feels without skin? grasps without hands? walks without feet. He is the unseen seer? the unheard hearer? the unthought thinker. Other than Him there is no seer? no hearer? no thinker. He is the Self? the Inner Ruler? the Immortal. (Brihadaranyaka Upanishad III.7.23) He is free from the,alities of Nature and yet He is the enjoyer of the alities.All the senses The five organs of knowledge and the five organs of action? the inner senses? mind and intellect come under the term all the senses. The organs of action and those of knowledge perform their functions in conjunction with the mind and the intellect. They cannot function independently. Therefore? the mind and the intellect are included in the term all the senses.Brahman is transcendental and unmanifest? but It manifests Itself through the limiting adjuncts of the extrnal and the internal senses. As It is destitute of the senses It is unattached and yet It supports all. It is the support or substratum of everything. It is destitute of the alities of Nature and yet It is the enjoyer of those alities. Brahman is really mysterious.This verse is taken from the Svetasvataropanishad 3.17.
।।13.15।। व्याख्या -- सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् -- पहले परमात्मा हैं? फिर परमात्माकी शक्ति प्रकृति है। प्रकृतिका कार्य महत्तत्त्व? महत्तत्त्वका कार्य अहंकार? अहंकारका कार्य पञ्चमहाभूत? पञ्चमहाभूतोंका कार्य मन एवं दस इन्द्रियाँ और दस इन्द्रियोंका कार्य पाँच विषय -- ये सभी प्रकृतिके कार्य हैं। परमात्मा प्रकृति और उसके कार्यसे अतीत हैं। वे चाहे सगुण हों या निर्गुण? साकार हों या निराकार? सदा प्रकृतिसे अतीत ही रहते हैं। वे अवतार लेते हैं? तो भी प्रकृतिसे अतीत ही रहते हैं। अवतारके समय वे प्रकृतिको अपने वशमें करके प्रकट होते हैं।जो अपनेको गुणोंमें लिप्त? गुणोंसे बँधा हुआ मानकर जन्मतामरता था? वह बद्ध जीव भी जब परमात्माको प्राप्त होनेपर गुणातीत (गुणोंसे रहित) कहा जाता है? तो फिर परमात्मा गुणोंमें बद्ध कैसे हो सकते हैं वे तो सदा ही गुणोंसे अतीत (रहित) हैं। अतः वे प्राकृत इन्द्रियोंसे रहित हैं अर्थात् संसारी जीवोंकी तरह हाथ? पैर? नेत्र? सिर? मुख? कान आदि इन्द्रियोंसे युक्त नहीं हैं किन्तु उनउन इन्द्रियोंके विषयोंको ग्रहण करनेमें सर्वथा समर्थ है (टिप्पणी प0 689)। जैसे -- वे कानोंसे रहित होनेपर भी भक्तोंकी पुकार सुन लेते हैं? त्वचासे रहित होनेपर भी भक्तोंका आलिङ्गन करते हैं? नेत्रोंसे रहित होनेपर भी प्राणिमात्रको निरन्तर देखते रहते हैं? रसनासे रहित होनेपर भी भक्तोंके द्वारा लगाये हुए भोगका आस्वादन करते हैं? आदिआदि। इस तरह ज्ञानेन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी परमात्मा शब्द? स्पर्श आदि विषयोंको ग्रहण करते हैं। ऐसे ही वे वाणीसे रहित होनेपर भी अपने प्यारे भक्तोंसे बातें करते हैं? चरणोंसे रहित होनेपर भी भक्तके पुकारनेपर दौड़कर चले आते हैं? हाथोंसे रहित होनेपर भी भक्तके दिये हुए उपहारको ग्रहण करते हैं? आदिआदि। इस तरह कर्मेन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी परमात्मा कर्मेन्द्रियोंका सब कार्य करते हैं। यही इन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी भगवान्का इन्द्रियोंके विषयोंको प्रकाशित करना है।असक्तं सर्वभृच्चैव -- भगवान्का सभी प्राणियोंमें अपनापन? प्रेम है? पर किसी भी प्राणीमें आसक्ति नहीं है। आसक्ति न होनेपर भी वे ब्रह्मासे चींटीपर्यन्त सम्पूर्ण प्राणियोंका पालनपोषण करते हैं। जैसे मातापिता अपने बालकका पालनपोषण करते हैं? उससे कई गुना अधिक पालनपोषण भगवान् प्राणियोंका करते हैं। कौन प्राणी कहाँ है और किस प्राणीको कब किसी वस्तु आदिकी जरूरत पड़ती है? इसको पूरी तरह जानते हुए भगवान् उस वस्तुको आवश्यकतानुसार यथोचित रीतिसे पहुँचा देते हैं। प्राणी पृथ्वीपर हो? समुद्रमें हो? आकाशमें हो अथवा स्वर्गमें हो अर्थात् त्रिलोकीमें कहीं भी कोई छोटासेछोटा अथवा बड़ासेबड़ा प्राणी हो? उसका पालनपोषण भगवान् करते हैं। प्राणिमात्रके सुहृद् होनेसे वे अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंके द्वारा पापपुण्योंका नाश करके प्राणिमात्रको शुद्ध? पवित्र करते रहते हैं।निर्गुणं गुणभोक्तृ च -- वे परमात्मा सम्पूर्ण गुणोंसे रहित होनेपर भी सम्पूर्ण गुणोंके भोक्त हैं। तात्पर्य है कि जैसे मातापिता बालककी मात्र क्रियाओंको देखकर प्रसन्न होते हैं? ऐसे ही परमात्मा भक्तके द्वारा की हुई मात्र क्रियाओंको देखकर प्रसन्न होते हैं? अर्थात् भक्तलोग जो भी क्रियाएँ करते हैं? उन सब क्रियाओंके भोक्ता भगवान् ही बनते हैं।
।।13.15।। अनिर्देश्य परम ब्रह्म का आत्मरूप से निर्देश करने की एक विधि यह है कि उसे विरोधाभास की भाषा में इंगित करे। एक वाक्य को सुनकर जब बुद्धि उसके विषय में कोई धारणा बना लेती है? तब दूसरा वाक्य उस धारणा का खण्डन कर देता है। इस प्रकार स्वाभाविक है कि वह बुद्धि कल्पना शून्य होकर अपने निर्विकल्प स्वरूप के अनुभव में स्थित हो जाती है। यह विरोधाभास की भाषा आध्यात्मिक ग्रन्थों की विशेषता है। परन्तु शास्त्रों का सतही अध्ययन करने वाले लोग? शास्त्रोपदेश की विधि के मर्म को न समझ कर? अपने अविश्वास या नास्तिकता को न्यायोचित सिद्ध करने के लिए इस प्रकार के श्लोक उद्धृत करते हैं। यह श्लोक उपनिषद् से लिया गया है।आत्मचैतन्य के सम्बन्ध से ही समस्त इन्द्रियाँ अपनाअपना व्यापार करती हैं। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उनसे अवच्छिन्न आत्मा ही कार्य करता है तथा वह इन इन्द्रियों से युक्त है। किन्तु विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि इन्द्रियाँ भौतिक पदार्थ हैं और नाशवान भी हैं? जबकि उनमें व्यक्त होकर उन्हें चेतनता प्रदान करने वाला आत्मा सनातन और अविकारी है। संक्षेप में? उपाधियों की दृष्टि से आत्मा उनका धारक प्रतीत होता है? किन्तु स्वस्वरूप से वह सर्वेन्द्रिय विवर्जित है।विद्युत् शक्ति न तो बल्ब का प्रकाश है और न हीटर की उष्णता तथापि इन उपकरणों में व्यक्त होकर विद्युत् ही प्रकाश और उष्णता के रूप में प्रतीत होती है।वह असक्त किन्तु सबको धारण करने वाला है ब्रह्म को अनासक्त धारक के रूप में समझ पाना प्रारम्भिक विद्यार्थियों के लिए सरल नहीं है। तथापि अपने देश के महान् आचार्यों द्वारा इसे दृष्टान्तों और उपमाओं के द्वारा समझाने का प्रयत्न किया गया है। कोई भी तरंग सम्पूर्ण समुद्र नहीं है समस्त तरंगे सम्मिलित रूप में भी समुद्र नहीं है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि समुद्र उन तरंगों में आसक्त है? क्योंकि वह तो उन सबका स्वरूप ही है। असक्त होते हुए भी उन सबको धारण करने वाला समुद्र के अतिरिक्त और कोई नहीं होता। कपास सभी वस्त्रों में है? किन्तु वस्त्र कपास नहीं है। तथापि? कपास ही वस्त्र को धारण करने वाला होता है। इसी प्रकार? विविधता की यह सृष्टि चैतन्य ब्रह्म नहीं है? परन्तु ब्रह्म ही सर्वभृत है।वह निर्गुण? किन्तु गुणों का भोक्ता है मनुष्य का मन सदैव सत्त्व? रज और तम इन तीन गुणों के प्रभाव में कार्य करता है। इन तीनों गुणों के प्रभावों को आत्मा सदा प्रकाशित करता रहता है। प्रकाशक प्रकाश्य के धर्मों से मुक्त होने के कारण आत्मा गुणरहित है। किन्तु एक चेतन मन ही इन गुणों का अनुभव कर सकता है? इसलिए यहाँ कहा गया है कि आत्मा स्वयं निर्गुण होते हुए भी मन की उपाधियों के द्वारा गुणों का भोक्ता भी है।इस प्रकार इस श्लोक में आत्मा का सोपाधिक (उपाधि सहित) और निरुपाधिक (उपाधि रहित) इन दोनों दृष्टिकोणों से निर्देश किया गया है।इतना ही नहीं? वरन् एक व्यष्टि उपाधि में व्यक्त आत्मा ही सर्वत्र समस्त प्राणियों में स्थित है
।।13.15।।इतोऽपि ज्ञेयं ब्रह्मास्तीत्याह -- किञ्चेति। बहिरिति व्याख्येयमादाय व्याचष्टे -- त्वगिति। भूतेभ्यो बहिर्बाह्यविषयाद्यात्मकमित्यर्थः। कथमनात्मन एवात्मत्वं कल्पनयेत्याह -- आत्मत्वेनेति। अन्तःशब्दार्थमाह -- तथेति। भूतानां चराचराणामन्तर्मध्ये प्रत्यग्भूतमित्यर्थः। द्वितीयं पादमवतार्य व्याचष्टे -- बहिरित्यादिना। यन्मध्ये भूतात्मकं नानाविधदेहात्मना भासमानं तदपि ज्ञेयान्तर्भूतं तत्त्वं सदित्यर्थः। कथं चराचरात्मनो भूतजातस्य ज्ञेयत्वं तत्राह -- यथेति। अधिष्ठाने रज्ज्वां कल्पितसर्पादेरन्तर्भाववद्देहाभासस्यापि ज्ञेयान्तर्भावान्नासत्त्वं मध्ये ज्ञेयस्य शङ्कितव्यमित्यर्थः। सर्वात्मकं चेज्ज्ञेयं सर्वैरिदमिति किमिति न गृह्येतेति शङ्कते -- यदीति। इदमिति ग्राह्यत्वयोग्यत्वाभावान्नेत्याह -- उच्यत इति। सर्ववस्त्वात्मना भासते तदयोग्यत्वं कथमित्याशङ्क्याह -- सत्यमिति। सूक्ष्मत्वेऽपि किं स्यादित्याशङ्क्याह -- अत इति। सूक्ष्मत्वमतीन्द्रियत्वम् तस्याविज्ञेयत्वे कुतस्तज्ज्ञानान्मुक्तिस्तत्राह -- अविदुषामिति। विशेषणफलमाह -- विदुषां त्विति। तेषामात्मत्वेन ज्ञातं चेत्कथं दूरस्थत्वमित्याशङ्क्याह -- अविज्ञाततयेति। कथं तर्हि तस्य प्रत्यक्त्वं तत्राह -- अन्तिके चेति। विद्वदविद्वद्भेदापेक्षयादूरात्सुदूरे तदिहान्तिके च इति श्रुतिस्तदर्थोऽत्र प्रसङ्गादनूदित इत्यर्थः।
।।13.15।।अपाधिभूतपाण्यादीन्द्रियाध्यारोपणं विना ज्ञयस्य साक्षादेव तद्वत्ताभ्रमनिरासायाह -- सर्वेति। सर्वाणि च तानीन्द्रियाणि श्रोत्रवागादीनि बुद्धीन्द्रियकर्मेन्द्रियाणि ज्ञेयोपाधित्वस्य तुल्यत्वात् अन्तःकरणोपाधिद्वारेणैव श्रोत्रादीनामप्युपाधित्वाच्च सर्वेन्द्रिग्रहणेनान्तःकरणे बुद्धिमनसी अपि गृह्येते। तताजान्तःकरणबहिःकरणव्यापार उपलक्ष्यते इति श्रुत्यर्थः। व्यापृतमेव ब्रह्मेति भ्रमनिराकरणायाह। सर्वेन्द्रियविवर्जितं विशेषेण कालत्रयेऽपि सर्वकरणरहितमतो न करणव्यापारैः वस्तुतो व्यापृतं तज्ज्ञेयमित्यर्थः। ननुअपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः। स वेत्ति वेद्यं नच तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तरम् इत्यादिमन्त्रेण साक्षादेव ज्ञेयस्य वेगवद्विहरणादिक्रियावत्ताप्रतीत्या कुचोऽस्य करणव्यापारैः व्यापृतत्वमेव न व्याख्यायत इतिचेत्। ध्यायतीवेतिश्रुत्यनुसारेण मन्त्रस्यापि सर्वेन्द्रियोपाधिगुणानुगुण्यभजनशक्तिमत् ज्ञेयमत्येव प्रदर्शनार्थत्वेनान्धो मणिमविन्ददित्यादिमन्त्रार्थवादवदस्यार्थवादस्य श्रुतेः साक्षादेव चवादिक्रियावत्त्वरुपेऽर्थे तात्पर्याभावेन प्रकृतेः प्रतिकूलताया अभावात्। सर्वकरणविवर्जितत्वादक्तं सर्वसङ्गविनिर्मुक्तंअसङ्गो हीति श्रुतेः। वस्तुतः सर्वसङ्गविवर्जितमपि सर्वाधिष्टानमित्याह। सर्वभृच्चैव स्वसत्तामात्रेणाधिष्ठानतया सर्वं पुष्णातीत्यर्थः। तथाचायं प्रयोगः। विमतं सत्यध्यस्तं प्रत्येकं तदनुविद्धधीबोध्यत्वात् प्रत्येकं चन्द्रानुविद्धधीबोध्यचन्द्रभेदवदिति। तथाच सर्वस्यापि व्यावहारिकप्रातिभासिकपदार्थजातस्य निरास्पदत्वाभावात् विचार्यमाणँ तस्य सदास्पदत्वात् सर्वभृज्ज्ञेयमित्यर्थः। सर्वाधिष्ठानत्वेऽपि वस्तुतस्तस्य निर्गुणत्वमाह। निर्गुणं गुणऐः सत्त्वरजस्तमोभिः शून्यं तज्ज्ञेयम्। यद्यप्येवं तथापि मायाय गुणभोक्तृ च। गुणानां सत्त्वादीनां शब्दारिद्वारेण सुखदुःखमोहाकारेण परिणतानां भोक्तृ उपलब्धृ ज्ञेयं ब्रह्मेत्यन्वयः।
।।13.15।।सर्वेन्द्रियाणि गुणांश्चाभासयतीति सर्वेन्द्रियगुणाभासम्। इन्द्रियवर्जितत्वाद्यर्थ उक्तः पुरस्तात्।
।।13.15।।ननु यूपाहवनीयादिवदलौकिकमपि ब्रह्म कार्यकारणप्रपञ्चविशिष्टं चित्रमेव सर्वतःपाणिपादं तदित्यादिना शास्त्रेण कार्यशेषतया समर्थ्यते। न च वाच्यं उपासनापरं शास्त्रं न ब्रह्मणो वैचित्र्यं प्रतिपादयितुमीष्टे इति। देवताधिकरणन्यायेन देवताविग्रहादिवत्तद्वैचित्र्यस्याप्यवान्तरतात्पर्यविषयतयासिद्धेः। न च देवताविग्रहादेर्व्यावहारिकमेव सत्त्वं न पारमार्थिकं ब्रह्मज्ञानेन तस्य बाधादिति वाच्यम्। सत्ताद्वैविध्यस्याप्रसिद्धेः। तस्मात्सर्वतःपाणिपादत्वादिकं ब्रह्मणो वास्तवमेवेति नापवादमर्हतीत्याशङ्क्याह -- सर्वेन्द्रियेति। सर्वाणि आन्तराणि बाह्यानि च इन्द्रियाणि मनोबुद्ध्यहंकारचित्ताख्यानि श्रोत्रादीनि चेति ग्राहकमात्रसंगृहीतम्। गुणाश्च विषयाः तेन ग्राह्यमात्रं गृह्यते। समस्तग्राह्यग्राहकवदाभासते न तु ग्राह्यग्राहकस्वरूपं विचित्रम्। यथा जलसूर्योऽधस्थ इव कम्पत इवाभासते न तु वस्तुतोऽधस्थः कम्पते वा तद्वत् आत्मनो ग्राह्यग्राहकाकारत्वं मिथ्येत्यर्थः। कुत एतत्। यतः सर्वेन्द्रियविवर्जितं इन्द्रियेति गुणानामप्युपलक्षणम्। नहि ब्रह्मणि किञ्चित् ग्राह्यं रूपादि ग्राहकं वा मन आदि वर्तते।अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययंअप्राणो ह्यमनाः शुभ्रःयत्तदद्रेश्यमग्राह्यमचक्षुःश्रोत्रं तदपाणिपादम् इत्यादिशास्त्रात्। तस्मान्न प्रपञ्चविशिष्टं विचित्रं ब्रह्म। कथं तर्हि सर्वं ब्रह्मेति शास्त्रमित्याशङ्क्याह -- असक्तं सर्वभृच्चैवेति। अत्र सर्वभृदिति सर्वाधारत्वोक्त्या,सर्वस्मात्पृथग्भूतमित्युक्तम्। सर्वस्य ब्रह्मणा सहाधाराधेयभावोऽपि किं घटरूपयोरिव समवायसंबन्धेन? कुण्डबदरयोरिव संयोगसंबन्धेन वेत्याशङ्क्य संबन्धं विनैव सर्वभृत्त्वं ब्रह्मणा इत्याह -- असक्तमिति। ननु व्याहतमेतत् असक्तमिति सर्वभृदिति चेति। नैष दोषः। नह्यूषरभूमिर्मरीचिकोदकेन संसक्ता अथ च तदाधारभूतापि भवति तद्वदेतद्भविष्यति। नन्वेवं प्रपञ्चस्य मिथ्यात्वमापततीति। तथा च कर्मोपास्तिविधय उपरुध्येरन्। न। ब्रह्मात्मैकत्वज्ञानेन यावद्द्वैतं न बाध्यते तावत्िक्रयाकारकादिसर्वव्यवहारस्य सत्यत्वोपगमात्प्राणा वै सत्यं तेषामेष सत्यम् इति श्रुत्यापि प्राणोपलक्षितस्य कृत्स्नस्य प्रपञ्चस्य व्यावहारिकं सत्यत्वमुक्त्वा ततोऽप्यधिकं परमार्थसत्यं ब्रह्म दर्शितम्। सत्यत्वं चाबाध्यत्वं तत्किंचित्कालं प्राणानामस्ति ब्रह्मणस्तु सार्वत्रिकमिति यथा भूपतीनां भूपतिरित्युक्ते ऐश्वर्याल्पत्वभूयस्त्वकृतो भेदः स्पष्ट एवमिहापि द्रष्टव्यम्। तस्माद्ब्रह्मणः सविशेषत्वं निष्कलात्मबोधात्प्रागेव नतूर्ध्वमित्यवश्यं तत्त्वज्ञानेन बाधितुं शक्यमित्यनुपाधिकं ब्रह्म न केनचित्कार्यशेषतां नेतुं शक्यम्। तदधिगमे क्रियाकारकादिद्वैतोपमर्दादुपास्योपासकोपासनाभेदस्य बाधितत्वात्। तस्माद्युक्तमुक्तमुपाधिकृतं रूपं मिथ्येति। किं च निर्गुणं गुणभोक्तृ च। ग्राह्यग्राहकसंबन्धशून्यमपि ग्राहकेषु बुद्ध्यादिषु ग्राह्यसंबन्धात्सुखाद्याकारेण परिणतेषु सत्सु केवलं तत्प्रकाशकत्वमात्रेण गुणभोक्तृत्वमप्यस्य चिदाभासरूपस्योपपद्यते। यथा प्रतिबिम्बरूपे रवावुपाधिकृतं चलनादिकम्। तथा च श्रुतिःध्यायतीव लेलायतीवेति। बुद्धौ ध्यायन्त्यां तत्र प्रविष्टश्चिदाभासो ध्यायतीव विषयान्। बुद्धौ लेलायन्त्यां विषयप्रदेशं गच्छन्त्यां सोऽपि लेलायतीव न तु स्वतो ध्यायति लेलायति वेति प्रतिपादयति। एतेनअपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः इत्यपि ब्रह्मण उपाधिगुणानुगुण्यभजनशक्तिमत्त्वेनैव व्याख्येयम्। अयमपादोऽपि पादे जववति जववान् भवतीति। अन्धो मणिमविन्ददित्यादिकं वचनजातं चात्रानुसंधेयम्। तस्माद्युक्तमुक्तं निर्गुणं गुणभोक्तृ चेति। भाष्ये तु निर्गुणं सत्त्वादिगुणरहितमपि तेषां गुणानां सुखदुःखमोहात्मकत्वेन परिणतानां भोक्तृ च उपलब्धृ चेति व्याख्यातम्।
।।13.15।।पृथिव्यादीनि भूतानि परित्यज्य अशरीरो बहिः वर्तते तेषाम् अन्तः च वर्तते।जक्षन् क्रीडन् रममाणः स्त्रीभिर्वा यानैर्वा (छा0 उ0 8।12।3) इत्यादिश्रुतिसिद्धस्वच्छन्दवृत्तिषु? अचरं चरम् एव च -- स्वभावतः अचरं चरं च देहित्वे। सूक्ष्मत्वात् तद् अविज्ञेयम्? एवं सर्वशक्तियुक्तं सर्वज्ञं तद् आत्मतत्त्वम् अस्मिन् क्षेत्रे वर्तमानम् अपि अतिसूक्ष्मत्वाद् देहात् पृथक्त्वेन संसारिभिः अविज्ञेयम्।दूरस्थं च अन्तिके च तत्? अमानित्वाद्युक्तगुणरहितानां विपरीतगुणानां पुंसां स्वदेहे वर्तमानम् अपि अतिदूरस्थम्? तथा अमानित्वादिगुणोपेतानां तद् एव अन्तिके च वर्तते।
।।13.15।।किंच -- सर्वेन्द्रियेति। सर्वेषां चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां गुणेषु रूपाद्याकारासु वृत्तिषु तत्तदाकारेण भासत इति तथा। सर्वाणीन्द्रियाणि गुणांश्च तत्तद्विषयानाभासयतीति वा। सर्वेन्द्रियैर्विवर्जितं च? तथाच श्रुतिःअपाणिपादो जवनोऽग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णःइत्यादि। असक्तं सङ्गशून्यम्। तथापि सर्वं बिभर्तीति सर्वभृत्सर्वस्याधारभूतम्। तदेव निर्गुणं सत्त्वादिगुणरहितम्। गुणभोक्तृ गुणानां सत्त्वादीनां भोक्तृ च पालकम्।
।।13.15।।नन्विन्द्रियाण्येव करणभूतानि? न पुनरिन्द्रियगुणा इत्यत्राह -- इन्द्रियगुणा इन्द्रियवृत्तय इति। स्वयम्प्रकाशस्यात्मस्वरूपस्य कथमिन्द्रियवृत्तिभिराभासः विषयाभासविवक्षायामपि परिशुद्धस्वरूपप्रसङ्गे कथमैन्द्रियिकज्ञानोक्तिः -- इत्यत्राह -- इन्द्रियवृत्तिभिरपीति। स्वरूपमिन्द्रियगुणैराभासत इत्यादिपरोक्तव्युदासायाह -- इन्द्रियगुणैराभासो यस्येति। योग्यत्वं शुद्धावस्थायामप्यस्तीति भावः। एतेनसर्वेन्द्रियव्यापारैर्व्यापृतमिव? ज्ञेयम् इतिशङ्करस्योद्ग्रन्थकल्पना निरस्ता। कदाचिदिन्द्रियवतः कथं सर्वेन्द्रियविवर्जितत्वं इत्यत्राह -- स्वभावत इति। सर्वेन्द्रियनिषेधे तदधीनज्ञानाभावात्परोक्तं पाषाणकल्पत्वप्रसङ्गं प्रागुक्तेन परिहरति -- विनैवेति। मुक्तस्यापि जगदाधारत्वाभावात् पर्यायेण सर्वजातीयदेहभृत्त्वाभावाच्च तच्छक्तिरत्रापि विवक्षिता। स्वतः सङ्गराहित्यं चअसक्तम् इत्युच्यत इत्याहस्वभावतो देवादीति। सामर्थ्यं परिशुद्धावस्थाभाविना कार्येण दर्शयति -- स एकधेति। आत्मस्वरूपस्य भिदुरत्वाभावाज्जक्षणादिश्रुतिवशाच्च विग्रहद्वारैव हि त्रिधा भवनादिकथनमिति भावः। एतेनसर्वभृत्त्वं सर्वाध्यासाधिष्ठानत्वम् इति वदन् प्रत्युक्तः।निर्गुणम् इत्यत्र न सत्त्वादिगुणसमवायित्वं प्रतिषिध्यते? तस्याशुद्धावस्थायामपि प्रसङ्गाभावात्?गुणभोक्तृ च इत्येतत्प्रतिपक्षरूपत्वाभावाच्च अतोऽत्र कर्मोपाधिकस्य प्राकृतगुणभोगस्य प्रतिक्षेपः क्रियत इति न निर्विशेषवादावकाश इत्यभिप्रायेणाह -- स्वभावतः सत्त्वादिगुणरहितमिति।स्वभावत इत्यनेन गुणभोक्तृत्वविरोधपरिहारः।भोगसमर्थमित्यत्रापि पूर्ववदभिप्रायः। औपाधिकं गुणभोक्तृत्वं? स्वभावतस्तदभावः? तत्सामर्थ्यमात्रं तु नित्यमित्यविरोधः।
।।13.13 -- 13.18।।एतेन ज्ञानेन यत् ज्ञेयं तदुच्यते -- ज्ञेयमित्यादि विष्ठितमित्यन्तम्। अनादिमत् परं ब्रह्म इत्यादिभिर्विशेषणैः ब्रह्मस्वरूपाक्षेपानुग्राहकं,(S -- स्वरूपापेक्षानु -- ) सर्वप्रवादाभिहितविज्ञानापृथग्भावं कथयति (S??N सर्वप्रवादान्तराभिहितपृथग्भावकमुच्यते)। एतानि च विशेषणानि पूर्वमेव व्याख्यातानि इति किं निष्फलया,पुनरुक्त्या।
।।13.15।।अहं परा शक्तिर्यस्येति व्याख्यानेऽर्थासम्भवं कश्चिदन्यथा प्राह -- ब्रह्मणः सर्वविशेषप्रतिषेधेनैवात्र तदविजिज्ञापयिषितत्वात्। शक्तिमत्त्वप्रतिपादनं विरुद्धम् इति। तदसत्? अत्र विशेषवत्त्वस्य दर्शनादिति भावेनाह -- सर्वेति। गुणांस्तद्विषयानाभासयति प्रत्याययति प्रत्येतीति वा। भासतेः पचाद्यत्। एवंसर्वतःपाणिपादं तत् [13।14]सर्वभृत् गुणभोक्तृ च इत्यादिकमप्युदाहार्यम्। कथं तर्हि सर्वेन्द्रियविवर्जितं निर्गुणमचरमित्याद्युक्तमित्यत आह -- इन्द्रियेति। आदिशब्दात्परं शब्देत्यध्याहार्यम्। पुरस्तात् द्वितीये।
।।13.15।।अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपञ्च्यते इति न्यायमनुसृत्य सर्वप्रपञ्चाध्यारोपेणानादिमत्परं ब्रह्मेति व्याख्यातम्। अधुना तदपवादेन न सत्तन्नासदुच्यत इति व्याख्यातुमारभते निरुपाधिस्वरूपज्ञानाय -- सर्वेन्द्रियेति। परमार्थतः सर्वेन्द्रियविवर्जितं तन्मायया सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेषां बहिःकरणानां श्रोत्रादीनामन्तःकरणयोश्च बुद्धिमनसोर्गुणैरध्यवसायसंकल्पश्रवणवचनादिभिस्तत्तद्विषयरूपतयाऽवभासत इव सर्वेन्द्रियव्यापारैर्व्यापृतमिव तज्ज्ञेयं ब्रह्मध्यायतीव लेलायतीव इति श्रुतेः। अत्र ध्यानं बुद्धीन्द्रियव्यापारोपलक्षणम्। लेलायनं चलनं कर्मेन्द्रियव्यापारोपलक्षणार्थम्। तथा परमार्थतोऽसक्तं सर्वसंबन्धशून्यमेव मायया? सर्वभृच्च सदात्मना सर्वं कल्पितं धारयति पोषयतीति च सर्वभृत् निरधिष्ठानभ्रमायोगात्। तथा परमार्थतो निर्गुणं,सत्त्वरजस्तमोगुणरहितमेव गुणभोक्तृ च गुणानां सत्त्वरजस्तमसां शब्दादिद्वारा सुखदुःखमोहाकारेण परिणतानां भोक्तृ उपलब्धं च तज्ज्ञेयं ब्रह्मेत्यर्थः।
।।13.15।।किञ्च -- सर्वेन्द्रियगुणाभासमिति। सर्वेषामिन्द्रियाणां चक्षुरादीनां गुणेषु रूपादिषु भासमानम्। अनेन यत्र सौन्दर्यादिकं यत्किञ्चिदपि तद्भगवत्सम्बन्धादेवेति ज्ञापितम्। तर्हि लौकिकेन्द्रियादियुक्तं भविष्यति इत्यत आह -- सर्वेन्द्रियैर्विवर्जितं? रहितमित्यर्थः। अनेनेन्द्रियाणां पूर्वोक्तानामलौकिकत्वं ज्ञापितम्। एतदेव विवेचयति -- असक्तमित्यादिना। असक्तं सर्वत्राऽऽसक्तिरहितं तेन सङ्गाभावः सूचितः। च पुनस्तादृशमेव,सर्वभृत् सर्वाधारभूतम्। सर्वधारणेन सगुणत्वमाशङ्क्याऽऽह -- निर्गुणं सत्त्वादिगुणरहितम्৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷.। एवं गुणवैयर्थ्यमाशङ्क्याह -- गुणभोक्तृ च गुणेषु स्थित्वा तद्भोगं करोतीत्यर्थः। चकारेण तत्पालकमपीति ज्ञापितम्।
।।13.15।। -- सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वाणि च तानि इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि बुद्धीन्द्रियकर्मेन्द्रियाख्यानि? अन्तःकरणे च बुद्धिमनसी? ज्ञेयोपाधित्वस्य तुल्यत्वात्? सर्वेन्द्रियग्रहणेन गृह्यन्ते। अपि च? अन्तःकरणोपाधिद्वारेणैव श्रोत्रादीनामपि उपाधित्वम् इत्यतः अन्तःकरणबहिष्करणोपाधिभूतैः सर्वेन्द्रियगुणैः अध्यवसायसंकल्पश्रवणवचनादिभिः अवभासते इति सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियव्यापारैः व्यापृतमिव तत् ज्ञेयम् इत्यर्थः ध्यायतीव लेलायतीव (बृह0 उ0 4।3।7) इति श्रुतेः। कस्मात् पुनः कारणात् न व्यापृतमेवेति गृह्यते इत्यतः आह -- सर्वेन्द्रियविवर्जितम्? सर्वकरणरहितमित्यर्थः। अतः न करणव्यापारैः व्यापृतं तत् ज्ञेयम्। यस्तु अयं मन्त्रः -- अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः (श्वे0 उ0 3।19) इत्यादिः? स सर्वेन्द्रियोपाधिगुणानुगुण्यभजनशक्तिमत् तत् ज्ञेयम् इत्येवं प्रदर्शनार्थः? न तु साक्षादेव जवनादिक्रियावत्त्वप्रदर्शनार्थः। अन्धो मणिमविन्दत् (तै0 आ0 1।11) इत्यादिमन्त्रार्थवत् तस्य मन्त्रस्य अर्थः। यस्मात् सर्वकरणवर्जितं ज्ञेयम्? तस्मात् असक्तं सर्वसंश्लेषवर्जितम्। यद्यपि एवम्? तथापि सर्वभृच्च एव। सदास्पदं हि सर्वं सर्वत्र सद्बुद्ध्यनुगमात्। न हि मृगतृष्णिकादयोऽपि निरास्पदाः भवन्ति। अतः सर्वभृत् सर्वं बिभर्ति इति। स्यात् इदं च अन्यत् ज्ञेयस्य सत्त्वाधिगमद्वारम् -- निर्गुणं सत्त्वरजस्तमांसि गुणाः तैः वर्जितं तत् ज्ञेयम्? तथापि गुणभोक्तृ च गुणानां सत्त्वरजस्तमसां शब्दादिद्वारेण सुखदुःखमोहाकारपरिणतानां भोक्तृ च उपलब्धृ च तत् ज्ञेयम् इत्यर्थः।।किञ्च --,
।।13.15।।सर्वत्र परिच्छेदस्य प्रयोजनं तूपपादितमेवअनन्तं [11।47]अव्यक्तं [13।6] इत्यत्र। एतेन सर्वतश्चक्षुरादिकार्यकृत्त्वमुक्तं अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः [श्वे.3।19ना.प.उ.9।14] विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः [ऋक्सं.4।7।27।1म.ना.2।2श्वे.उ.3।3] इति प्राकृतनिषेधपूर्वकमप्राकृतश्रवणात्। विरुद्धर्माश्रयत्वमाह -- सर्वेन्द्रियगुणाभासमिति।