BG - 13.20

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्।।13.20।।

prakṛitiṁ puruṣhaṁ chaiva viddhy anādī ubhāv api vikārānśh cha guṇānśh chaiva viddhi prakṛiti-sambhavān

  • prakṛitim - material nature
  • puruṣham - the individual souls
  • cha - and
  • eva - indeed
  • viddhi - know
  • anādī - beginningless
  • ubhau - both
  • api - and
  • vikārān - transformations (of the body)
  • cha - also
  • guṇān - the three modes of nature
  • cha - and
  • eva - indeed
  • viddhi - know
  • prakṛiti - material energy
  • sambhavān - produced by

Translation

Know that Nature (matter) and the Spirit are both beginningless, and know also that all modifications and qualities are born from Nature.

Commentary

By - Swami Sivananda

13.20 प्रकृतिम् matter? पुरुषम् spirit? च and? एव even? विद्धि know? अनादी beginningless? उभौ both? अपि also? विकारान् modifications? च and? गुणान् alities? च and? एव even? विद्धि know? प्रकृतिसंभवान् born of Prakriti.Commentary Steps are necessary to reach the top floor of a building. Even so? steps are necessary to reach the summit of the knowledge of the Self. That is the reason why Lord Krishna took Arjuna to the summit of knowledge step by step. He first taught Arjuna the nature of the field? then knowledge? ignorance or nonwisdom? and ultimately the knowable. When a child is to be fed,the intelligent mother divides the food into small portions and feeds the child little by little. Even so Lord Krishna fed His spiritual child Arjuna with the spiritual food little by little.Lord Krishna says O Arjuna I will give you the same teaching in another form by the description of the Spirit and Nature.Till now the Lord expounded the knowledge of the field and the Self in accordance with the philosophy of the Upanishads. Now He explains the same knowledge in accordance with the Sankhya philosophy? but without accepting its dual nature in the form of discrimination between the Spirit and Nature.Vikaras Modifications from the MahatTattva or intellect down to the physical body the twentyfour principles of the Sankhyas. The Self within is changeless. All changes take place in Nature. Mulaprakriti (the Primordial Nature? the Unmanifested) becomes modified into Mahat? egoism? mind? the great elements and other minor modifications.Just as coolness and ice? the day and the night? are inseparable? so also matter and Spirit are inseparable. The three alities Sattva? Rajas and Tamas are born of Nature (matter). All actions proceed from the mind? the lifeforce? the senses and the physical body.According to the Sankhya philosophy? Prakriti and Purusha are not only eternal and beginningless but also independent of each other and selfcreated. According to Vedanta philosophy? Prakriti or Maya originates from Brahman and is? therefore? neither selfcreated nor independent. Isvara has Maya under His perfect control. Maya is His causal body. Maya is His illusory power.Matter and Spirit are the Natures of Isvara. Know that these two are beginningless. That which has no beginning is Anadi. As Isvara is eternal? His two Natures also should be eternal. (This is according to the Sankhyas.)Isvara possesses these two Natures (superior and inferior) by which He causes the creation? preservation and destruction of the universe. Therefore He has the Lordship and rules over the universe. The two Natures have no beginning. Therefore they are the cause of Samsara.The inferior Nature (Apara Prakriti) which consists of the eightfold division of Nature referred to in chapter VII? verse 4? is the Prakriti of chapter XIII? verse 19. The superior Nature (Para Prakriti) referred to in chapter VII? verse 5? is the Purusha of chapter XIII? verse 19. Purusha here means Jiva (the individual soul).Even a child smiles and experiences exhilaration? grief? fear? anger? pleasure and pain. Who taught it The impressions of the virtuous and vicious actions of this birth cannot be the cause of these. The impressions of the previous birth alone are the cause of all these. They (the impressions) must have a support. From this we can clearly infer the existence of the individual soul in the previous birth and that the individual soul is beginningless. If you do not accept that the individual soul is beginningless? the two defects of Kritanasa (nonfruition of actions performed) and Akritabhyagama (causeless effect) will creep in. Pleasure and pain which are the fruits of virtuous and vicious actions done previously will pass away without being experienced. This is the defect of Kritanasa. So also? one will have to enjoy pleasure and pain? the fruits of good and bad actions which were not done by him previously. This is the defect of Akritabhyagama. In order to get rid of these two defects we will have to accept that the individual soul is beginningless. The scriptures,also emphatically declare that the soul is beginningless.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।13.20।। व्याख्या --   [इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्ने क्षेत्रके विषयमें यच्च (जो है)? यादृक् च (जैसा है)? यद्विकारि (जिन विकारोंवाला है) और यतश्च यत् (जिससे जो उत्पन्न हुआ है) -- ये चार बातें सुननेकी आज्ञा दी थी। उनमेंसे यच्च का वर्णन पाँचवें श्लोकमें और यद्विकारि का वर्णन छठे श्लोकमें कर दिया। यादृक् च का वर्णन आगे इसी अध्यायके छब्बीसवेंसत्ताईसवें श्लोकोंमें करेंगे। अब यतश्च यत् का वर्णन करते हुए प्रकृतिसे विकारों और गुणोंको उत्पन्न हुआ बताते हैं। इसमें भी देखा जाय तो विकारोंका वर्णन पहले छठे श्लोकमें इच्छा द्वेषः आदि पदोंसे किया जा चुका है। यहाँ गुण प्रकृतिसे उत्पन्न होते हैं -- यह बात नयी बतायी है।बारहवेंसे अठारहवें श्लोकतक ज्ञेय तत्त्व(परमात्मा) का वर्णन है और यहाँ उन्नीसवेंसे चौंतीसवें श्लोकतक पुरुष(क्षेत्रज्ञ) का वर्णन है। वहाँ तो ज्ञेय तत्त्वके अन्तर्गत ही सब कुछ है और यहाँ पुरुषके अन्तर्गत सब कुछ है अर्थात् वहाँ ज्ञेय तत्त्वके अन्तर्गत पुरुष है और यहाँ पुरुषके अन्तर्गत ज्ञेय तत्त्व है। तात्पर्य यह है कि ज्ञेय तत्त्व (परमात्मा) और पुरुष (क्षेत्रज्ञ) -- दोनों तत्त्वसे दो नहीं हैं? प्रत्युत एक ही हैं।]प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि -- यहाँ प्रकृतिम्पद सम्पूर्ण क्षेत्र(जगत्)की कारणरूप मूल प्रकृतिका वाचक है। सात प्रकृतिविकृति (पञ्चमहाभूत? अहंकार और महत्तत्त्व) तथा सोलह विकृति (दस? इन्द्रियाँ? मन और पाँच विषय) -- ये सभी प्रकृतिके कार्य हैं और प्रकृति इन सबकी मूल कारण है।पुरुषम् पद यहाँ क्षेत्रज्ञका वाचक है? जिसको इसी अध्यायके पहले श्लोकमें क्षेत्रको जाननेवाला कहा गया है।प्रकृति और पुरुष -- दोनोंको अनादि कहनेका तात्पर्य है कि जैसे परमात्माका अंश यह पुरुष (जीवात्मा) अनादि है? ऐसे ही यह प्रकृति भी अनादि है। इन दोनोंके अनादिपनेमें फरक नहीं है किन्तु दोनोंके स्वरूपमें फरक है। जैसे -- प्रकृति गुणोंवाली है और पुरुष गुणोंसे सर्वथा रहित है प्रकृतिमें विकार होता है और पुरुषमें विकार नहीं होता प्रकृति जगत्की कारण बनती है और पुरुष किसीका भी कारण नहीं बनता प्रकृतिमें कार्य एवं कारणभाव है और पुरुष कार्य एवं कारणभावसे रहित है।उभौ एव कहनेका तात्पर्य है कि प्रकृति और पुरुष -- दोनों अलगअलग हैं। अतः जैसे प्रकृति और पुरुष अनादि हैं? ऐसे ही उन दोनोंका यह भेद (विवेक) भी अनादि है।इसी अध्यायके पहले श्लोकमें आये इदं शरीरं क्षेत्रम् पदोंसे मनुष्यशरीरकी तरफ ही दृष्टि जाती है अर्थात् व्यष्टि मनुष्यशरीरका ही बोध होता है और क्षेत्रज्ञः पदसे मनुष्यशरीरको जाननेवाले व्यष्टि क्षेत्रज्ञका ही,बोध होता है। अतः प्रकृति और उसके कार्यमात्रका बोध करानेके लिये यहाँ प्रकृतिम् पदका और मात्र क्षेत्रज्ञोंका बोध करानेके लिये यहाँ पुरुषम् पदका प्रयोग किया गया है।इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें क्षेत्रज्ञकी परमात्माके साथ एकता जाननेके लिये विद्धि पदका प्रयोग किया था और यहाँ पुरुषकी प्रकृतिसे भिन्नता जाननेके लिये विद्धि पदका प्रयोग किया गया है। तात्पर्य है कि मनुष्य स्वयंको और शरीरको एक समझता है? इसलिये भगवान् यहाँ विद्धि पदसे अर्जुनको यह आज्ञा देते हैं कि ये दोनों सर्वथा अलगअलग हैं -- इस बातको तुम ठीक तरहसे समझ लो।विकारांश्च गुणंश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् -- इच्छा? द्वेष? सुख? दुःख? संघात? चेतना और धृति -- इन सात विकारोंको तथा सत्त्व? रज और तम -- इन तीन गुणोंको प्रकृतिसे उत्पन्न हुए समझो। इसका तात्पर्य यह है कि पुरुषमें विकार और गुण नहीं हैं।सातवें अध्यायमें तो भगवान्ने गुणोंको अपनेसे उत्पन्न बताया है (7। 12) और यहाँ गुणोंको प्रकृतिसे उत्पन्न बताते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ भक्तिका प्रकरण होनेसे भगवान्ने गुणोंको अपनेसे उत्पन्न बताया है और गुणमयी मायासे तरनेके लिये अपनी शरणागति बतायी है। परन्तु यहाँ ज्ञानका प्रकरण होनेसे गुणोंको प्रकृतिसे उत्पन्न बताया है। अतः साधक गुणोंसे अपना सम्बन्ध न मानकर ही गुणोंसे छूट सकता है।कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते -- आकाश? वायु? अग्नि? जल और पृथ्वी तथा शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्ध -- इन दस(महाभूतों और विषयों)का नाम कार्य है। श्रोत्र? त्वचा? नेत्र? रसना? घ्राण? वाणी? हस्त? पाद? उपस्थ और गुदा तथा मन? बुद्धि और अहंकार -- इन तेरह(बहिःकरण और अन्तःकरण)का नाम करण है। इन सबके द्वारा जो कुछ क्रियाएँ होती हैं? उनको उत्पन्न करनेमें प्रकृति ही हेतु है।जो उत्पन्न होता है? वह कार्य कहलाता है और जिसके द्वारा कार्यकी सिद्धि होती है? वह करण कहलाता है अर्थात् क्रिया करनेके जितने औजार (साधन) हैं? वे सब करण कहलाते हैं। करण तीन तरहके होते हैं -- (1) कर्मेन्द्रियाँ? (2) ज्ञानेन्द्रियाँ और (3) मन? बुद्धि एवं अहंकार। कर्मेन्द्रियाँ स्थूल हैं? ज्ञानेन्द्रियाँ सूक्ष्म हैं और मन? बुद्धि एवं अहंकार अत्यन्त सूक्ष्म हैं। कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियोंको बहिःकरण कहते हैं तथा मन? बुद्धि और अहंकारको अन्तःकरण कहते हैं। जिनसे क्रियाएँ होती है? वे कर्मेन्द्रियाँ हैं और कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियोंपर जो शासन करते हैं? वे मन? बुद्धि और अहंकार हैं। तात्पर्य है कि कर्मेन्द्रियोंपर ज्ञानेन्द्रियोंका शासन है? ज्ञानेन्द्रियोंपर मनका शासन है? मनपर बुद्धिका शासन है और बुद्धिपर अहंकारका शासन है। मन? बुद्धि और अहंकारके बिना कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ काम नहीं करतीं। ज्ञानेन्द्रियोंके साथ जब मनका सम्बन्ध हो जाता है? तब विषयोंका ज्ञान होता है। मनसे जिन विषयोंका ज्ञान होता है? उन विषयोंमेंसे कौनसा विषय ग्राह्य है और कौनसा त्याज्य है? कौनसा विषय ठीक है और कौनसा बेठीक है -- इसका निर्णय बुद्धि करती है। बुद्धिके द्वारा निर्णीत विषयोंपर अहंकार शासन करता है।अहंकार दो तरहका होता है -- (1) अहंवृत्ति और (2) अहंकर्ता। अहंवृत्ति किसीके लिये कभी दोषी नहीं होती? पर उस अहंवृत्तिके साथ जब स्वयं (पुरुष) अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है? तादात्म्य कर लेता है? तब वह अहंकर्ता बन जाता है। तात्पर्य है कि अहंवृत्तिसे मोहित होकर? उसके परवश होकर स्वयं उस अहंवृत्तिसे मोहित होकर? उसके परवश होकर स्वयं उस अहंवृत्तिमें अपनी स्थिति मान लेता है तो वह कर्ता बन जाता है -- अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते (गीता 3। 27)।प्रकृतिका कार्य बुद्धि (महत्तत्त्व) है और बुद्धिका कार्य अहंवृत्ति (अहंकार) है। यह अहंवृत्ति है तो बुद्धिका कार्य? पर इसके साथ तादात्म्य करके स्वयं बुद्धिका मालिक बन जाता है अर्थात् कर्ता और भोक्ता बन जाता है -- पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् (गीता 13। 21)। परन्तु जब तत्त्वका बोध हो जाता है? तब स्वयं न कर्ता बनता है और न भोक्ता ही बनता है -- शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते (गीता 13। 31)। फिर कर्तृत्वभोक्तृत्वरहित पुरुषके शरीरद्वारा जो कुछ क्रियाएँ होती हैं? वे सब क्रियाएँ अहंवृत्तिसे ही होती हैं। इसी अहंवृत्तिके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको गीतामें कई तरहसे बताया गया है जैसे -- प्रकृतिके द्वारा ही सब क्रियाएँ होती हैं। (13। 29) प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही सब क्रियाएँ होती हैं (3। 27) गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं (3। 28) गुणोंके सिवाय दूसरा कोई कर्ता नहीं है (14। 19) इन्द्रियाँ ही अपनेअपने विषयोंमें बरत रही हैं (5। 9) आदि। तात्पर्य है कि बहिःकरण और अन्तःकरणके द्वारा जो क्रियाएँ होती हैं? वे सब प्रकृतिसे ही होती हैं।पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते -- अनुकूल परिस्थितिके आनेपर सुखी (राजी) होना -- यह सबका भोग है और प्रतिकूल परिस्थितिके आनेपर दुःखी (नाराज) होना -- यह दुःखका भोग है। यह सुखदुःखका भोग पुरुष(चेतन)में ही होता है -- प्रकृति(जड)में नहीं क्योकि जड प्रकृतिमें सुखीदुःखी होनेकी सामर्थ्य नहीं है। अतः सुखदुःखके भोक्तापनमें पुरुष हेतु कहा गया है। अगर पुरुष अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंसे मिलकर राजीनाराज न हो तो वह सुखदुःखका भोक्ता नहीं बन सकता।सातवें अध्यायके चौथेपाँचवें श्लोकोंमें भगवान्ने अपरा (जड) और परा (चेतन) नामसे अपनी दो प्रकृतियोंका वर्णन किया है। ये दोनों प्रकृतियाँ भगवान्के स्वभाव हैं? इसलिये ये दोनों स्वतः ही भगवान्की ओर जा रही हैं। परन्तु परा प्रकृति (चेतन)? जो परमात्माका अंश है और जिसकी स्वाभाविक रुचि परमात्माकी ओर जानेकी ही है? तात्कालिक सुखभोगमें आकर्षित होकर अपरा प्रकृति(जड)के साथ तादात्म्य कर लेता है। इतना ही नहीं? प्रकृतिके साथ तादात्म्य करके वह प्रकृतिस्थ पुरुषके रूपमें अपनी एक स्वतन्त्र सत्ताका निर्माण कर लेता है (गीता 13। 21)? जिसको अहम् कहते हैं। इस अहम् में जड और चेतन दोनों हैं। सुखदुःखरूप जो विकार होता है? वह जडअंशमें ही होता है? पर जडसे तादात्म्य होनेके कारण उसका परिणाम ज्ञाता चेतनपर होता है अर्थात् जडके सम्बन्धसे सुखदुःखरूप विकारको चेतन अपनेमें मान लेता है कि मैं सुखी हूँ? मैं दुःखी हूँ। जैसे? घाटा लगता है दूकानमें? पर दूकानदार कहता है कि मुझे घाटा लग गया। ज्वर शरीरमें आता है? पर मान लेता है कि मेरेमें ज्वर आ गया। स्वयंमें ज्वर नहीं आता (टिप्पणी प0 696)? यदि आता तो कभी मिटता नहीं।सुखदुःखका परिणाम चेतनपर होता है? तभी वह सुखदुःखसे मुक्ति चाहता है। अगर वह सुखीदुःखी न हो? तो उसमें मुक्तिकी इच्छा हो ही नहीं सकती। मुक्तिकी इच्छा जडके सम्बन्धसे ही होती है क्योंकि जडको स्वीकार करनेसे ही बन्धन हुआ है। जो अपनेको सुखीदुःखी मानता है? वही सुखदुःखरूप विकारसे अपनी मुक्ति चाहता है और उसीकी मुक्ति होती है। तात्पर्य है कि तादात्म्यमें मुक्ति(कल्याण) की इच्छामें चेतनकी मुख्यता और भोगोंकी इच्छामें जडकी मुख्यता होती है? इसलिये अन्तमें कल्याणका भागी चेतन ही होता है? जड नहीं।विकृतिमात्र जडमें ही होती है? चेतनमें नहीं। अतः वास्तवमें सुखीदुःखी होना चेतनका धर्म नहीं है? प्रत्युत जडके सङ्गसे अपनेको सुखीदुःखी मानना ज्ञाता चेतनका स्वभाव है। तात्पर्य है कि चेतन सुखीदुःखी होता नहीं? प्रत्युत (सुखाकारदुःखाकार वृत्तिसे मिलकर) अपनेको सुखीदुःखी मान लेता है। चेतनमें एकदूसरेसे विरुद्ध सुखदुःखरूप दो भाव हो ही कैसे सकते हैं दो रूप परिवर्तनशील प्रकृतिमें ही हो सकते हैं। जो परिवर्तनशील नहीं है? उसके दो रूप नहीं हो सकते। तात्पर्य यह है कि सब विकार परिवर्तनशीलमें ही हो सकते हैं। चेतन स्वयं ज्योंकात्यों रहते हुए भी परिवर्तनशील प्रकृतिके संगसे उसके विकारोंको अपनेमें आरोपित करता रहता है। यह सबका अनुभव भी है कि हम सुखमें दूसरे तथा दुःखमें दूसरे नहीं हो जाते। सुख और दुःख दोनों अलगअलग हैं? पर हम एक ही रहते हैं इसीलिये कभी सुखी होते हैं और कभी दुःखी होते हैं। सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें भगवान्ने पुरुषको सुखदुःखके भोगनेमें हेतु बताया। इसपर प्रश्न होता है कि कौनसा पुरुष सुखदुःखका भोक्ता बनता है इसका उत्तर अब भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।13.20।। इसके पूर्व सातवें अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी दो प्रकृतियों अपरा और परा का वर्णन करते हुए कहा था कि ये दोनों प्रकृतियाँ ही सृष्टि की योनि अर्थात् कारण हैं। इन दोनों का ही निर्देश यहाँ क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के रूप में किया गया है।उक्त विचार को ही दूसरी शब्दावली में बताते हुए भगवान् कहते हैं कि प्रकृति (क्षेत्र) और पुरुष (क्षेत्रज्ञ) दोनों ही अनादि हैं। ये दोनों ही परमात्मा के ही दो रूप हैं। परमेश्वर नित्य है? इसलिए उसके इन दो रूपों का भी अनादि होना? उचित ही है। प्रकृति और पुरुष ही परस्पर सम्बन्ध के द्वारा इस जगत् की उत्पत्ति? स्थिति और लय के कारण हैं। इस प्रकार? यद्यपि संसार के कारण ये दोनों हैं? तथापि इनका अधिष्ठान ज्योतियों की ज्योतिस्वरूप ब्रह्म ही है।भगवान् आगे कहते हैं कि समस्त देह? इन्द्रिय? मन और बुद्धि ये विकार और सुखदुख? मोहादिक ये गुण जिनका वर्णन गीता में ही आगे किया जाने वाला है प्रकृति से उत्पन्न होते हैं और आत्मा स्वयं अविकारी रहते हुए इन विकारों को प्रकाशित करता है।प्रकृति से उत्पन्न वे गुण और विकार क्या हैं सुनो

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।13.20।।विकाराणां गुणानां प्रकृतेश्च स्वरूपमाकाङ्क्षाद्वारा निर्णेतुमुत्तरश्लोकपूर्वार्धं पातयति -- के पुनरिति। पुरुषस्यानादित्वकृतं बन्धहेतुत्वमाह -- पुरुष इति। पूर्वार्धं व्याचष्टे -- कार्यमित्यादिना। ज्ञानेन्द्रियपञ्चकं कर्मेन्द्रियपञ्चकं मनो बुद्धिरहंकारश्चेति त्रयोदश करणानि। तथापि भूतानां विषयाणां च ग्रहणात्कथं तेषां प्रकृतिकार्यतेत्याशङ्क्याह -- देहेति। तथापि गुणानामिहाग्रहणान्न प्रकृतिकार्यत्वं तत्राह -- गुणाश्चेति। उक्तरीत्या निष्पन्नमर्थमाह -- एवमिति। पाठान्तरमनूद्य व्याख्यापूर्वकमर्थाभेदमाह -- कार्येत्यादिना। व्याख्यान्तरमाह -- अथवेति। एकादशेन्द्रियाणि पञ्च विषया इति षोडशसंख्याकविकारोऽत्र कार्यशब्दार्थः? महानहंकारो भूततन्मात्राणीति प्रकृतिविकृतयः सप्त कारणं? तेषामारम्भकत्वेन कर्तृत्वेन हेतुराश्रयो मूलप्रकृतिरित्यर्थः। उत्तरार्धस्य तात्पर्यमाह -- पुरुषश्चेति। तस्य परमात्मत्वं व्यवच्छिनत्ति -- जीव इति। तस्य प्राणधारणनिमित्तस्य तदर्थं चेतनत्वमाह -- क्षेत्रज्ञ इति। तस्यानौपाधिकत्वं वारयति -- भोक्तेति। तयोः,संसारकारणत्वमुपपादयितुं शङ्कते -- कथमिति। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां तयोस्तथात्वमित्याह -- अत्रेति। तत्र व्यतिरेकं दर्शयति -- कार्येति। नहि नित्यमुक्तस्यात्मनः स्वतः संसारोऽस्तीत्यर्थः। इदानीमन्वयमाह -- यदेति। अन्वयादिफलमुपसंहरति -- अत इति। आत्मनोऽविक्रियस्य संसरणं नोचितमित्याक्षिपति -- कः पुनरिति। सुखदुःखान्यतरसाक्षात्कारो भोगः स चाविक्रियस्यैव द्रष्टुः संसारस्तथाविधभोक्तृत्वमस्य संसारित्वमित्युत्तरमाह -- सुखेति। श्लोकव्याख्यासमाप्तावितिशब्दः।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।13.20।।सप्तमे ईश्वरस्य द्वे प्रकृती परापरे क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणे उपन्यस्य एतद्योनीनि भूतानित्युक्तं तत्र प्रकृतिद्वयनिरुपणार्थमारब्धेऽस्मिन्नध्याये इदं शरीरमिति द्वाभ्यां क्षेत्रक्षेत्रलक्षणप्रकृतिद्वयस्वरुपं निर्दिश्य तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्चेत्यादिना तत्प्रतिपादितं? ततो महाभूतानीत्यादिना यच्च यादृक्चेति प्रतिपाद्य सच यो यत्प्रभावश्चेति पुरुष इति द्वाभ्यां प्रतिपादयितुमादौ एतद्योनीनि भूतानिति निरुपणाय प्रतिज्ञातं यद्विकारि यतश्च यदिति प्रतिपादयति -- प्रकृतिमिति द्वाभ्याम्। प्रकृतिरीश्वरस्य हि विकारकारणशक्तिस्त्रिगुणात्मिका मायामायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरं।देवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया िति श्रुतिस्मृतिभ्यां पुरुषः क्षेत्रज्ञलक्षणा परा प्रकृतिः तौ प्रकृतिपुरुषावुभावपि अनादी एव नतु सादी इति विद्धि। नैक्सायपि सादित्त्वमिति द्रढयितुमुभावपीत्युक्तं। न विद्यते आदिः कारणं ययोस्तावनादी। ईश्वरस्य नित्यत्वात्तत्प्रकृत्योरपि तथात्वेन भवितुं युक्तम्। संसारोत्पादनोपयुक्तमनादित्वं ययोस्ताभ्यां प्रकृतिभ्यामीश्वरस्य जगदुत्पत्तिस्थतिप्रलयहेतुत्वसंपत्त्या तद्वयवत्त्वमेव तस्येश्वरत्वम्। ननु प्रकृतिपुरुषोरनादित्वे तयोरेव जगत्कर्तृत्वं नेश्वरस्य तयोरादिमत्त्वे त्वीश्वरस्य तत्कर्तृत्वं सिध्यतीत्यतो न अनादीति तत्पुरुषसमासो वक्तव्य इतिचेन्न। प्रकृतिपुरुषोरुत्पत्तेः प्रागीशितव्याभावादीश्वरस्यानीश्वरत्वप्रशङ्गात्। संसारस्य निर्निमित्तत्वे मुक्तानामपि संसारापत्तेरनिषेधादनिर्मोक्षप्रसघङ्गेन शास्त्रानर्थक्यप्रसङ्गात्। तदुतयात्पर्वं बन्धस्याभावेन तन्निवृत्त्यात्मनो मोक्षास्याभावात् बन्धमोक्षाभावप्रसङ्गाच्च। प्रकृतिपुरुषयोरनादित्वे विकाराणआं गुणानां च प्रकृतिकार्यत्वादात्म नो निर्विकारत्वं निर्गुणत्वं च सिध्यति। इदमेवाभिप्रेत्याह। इदमेवाभिप्रेत्याह। विकारन्वक्ष्यमाणान् बुद्य्धादिदेहेन्द्रियान्तान् गुणांस्चैव सुखदुःखमोहप्रत्ययाकारपरिणतान् सत्त्वरजस्तमःसंज्ञान् प्रकृतिसंभवान् त्रिगुणात्मिकमायापरिणामान् विद्धि जानीहि। पुरुषं च वित् हि विद्धीति पुरुषादिशब्दावृत्त्या उत्तरार्धस्तविद्धीत्यस्य संबन्धेन योज्यम्। तेन नित्यज्ञानस्वरुपस्य विवक्षितत्वात्पुरुषशब्दस्य कार्यकरणसंघाते प्रसिद्धेस्तस्य च सादित्वात्कथमनादित्मिति शङ्का न प्रभवतीति क्लिष्टकल्पना तु पूर्वं महता प्रयत्नेन संघातात्पुरुषवैलक्षण्यप्रतिपादनादस्याः शङ्कयाया एवाभावात्सर्वज्ञैराचार्यैः कथं कर्तव्येति तदकरणातेषां न्यूनता न शङ्कनीया।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।13.20।।यतश्च यत् [13।4] इति वक्तुं प्रकृतिविकारपुरुषान् सङ्क्षिप्याऽऽह। गुणाः सत्त्वादयः। तेषामत्यल्पो विशेषो लयात्सर्ग इति विकाराः पृथगुक्ताः। कार्याकार्यगुणास्तिस्रो यतः स्वल्पोद्भवो जनौ इति माधुच्छन्दसशाखायाम्।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।13.20।।एवं क्षेत्रं शरीराख्यमव्यक्तमुक्तं तत्प्रकाराश्च महदाद्यास्त्रयोविंशतिस्तद्विकारा इच्छादयो ज्ञानाज्ञानशब्दिता अमानित्वमानित्वादयः पुरुषश्च उक्तः। इदानीं क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्मध्ये यस्माद्यज्जायते तच्च क्षेत्रज्ञस्य प्रभावश्चेति द्वयं वक्तव्यं तत्राद्यं विवृणोति त्रिभिः -- प्रकृतिमिति। सप्तमाध्यायेऽष्टधा या प्रकृतिरपरा उक्ता सात्र प्रकृतिः। या तु जीवभूता परा प्रकृतिरुक्ता सात्र पुरुषशब्देनोच्यते। एतौ हि संपृक्तौ संसारं जनयतः। वियोगश्च तयोर्मोक्षः। तत्र तावुभावप्यनादी विद्धि। तयोरादिमत्त्वे संसारस्याकस्मिकत्वापातात् कृतहानाकृताभ्यागमप्रसङ्गश्चेत्यन्यत्र विस्तरः। विकारान् इच्छादीन् गुणान् बुद्धीन्द्रियादींश्च प्रकृतिसंभवान् विद्धि।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।13.20।।कार्यं शरीरं कारणानि ज्ञानकर्मात्मकानि समनस्कानि इन्द्रियाणि? तेषां क्रियाकारित्वे पुरुषाधिष्ठिता प्रकृतिः एव हेतुः? पुरुषाधिष्ठितक्षेत्राकारपरिणतप्रकृत्याश्रया भोगसाधनभूता क्रिया इत्यर्थः।पुरुषस्य तु अधिष्ठातृत्वम् एव तदपेक्षया अधिकंकर्ताशास्त्रार्थवत्त्वात् (ब्र0 सू0 2।3।33) इत्यादिकम् उक्तम् शरीराधिष्ठानप्रयत्नहेतुत्वम् एव हि पुरुषस्य कर्तृत्वम्। प्रकृतिसंसृष्टः पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुः? सुखदुःखानुभवाश्रयः इत्यर्थः।एवम् अन्योन्यसंसृष्टयोः प्रकृतिपुरुषयोः कार्यभेद उक्तः पुरुषस्य स्वतः स्वानुभवैकसुखस्य अपि वैषयिकसुखदुःखोपभोगहेतुत्वम् आह --

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।13.20।।तदेवंतत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च इत्येतावत्प्रपञ्चितम्। इदानीं तुयद्विकारि यतश्च यत्। स च यो यत्प्रभावश्च इत्येतत्पूर्वं प्रतिज्ञातमेव प्रकृतिपुरुषयोः संसारहेतुत्वकथनेन प्रपञ्चयति -- प्रकृतिमिति पञ्चभिः। तत्र प्रकृतिपुरुषयोरादिमत्त्वे तयोरपि प्रकृत्यन्तरेण भाव्यमित्यनवस्थापत्तिः स्यात्। अतस्तावुभावनादी विद्धि। अनादेरीश्वरस्य शक्तित्वात्प्रकृतिरनादिः? पुरुषोऽपि तदंशत्वादनादिरेव? अत्र च परमेश्वरस्य तच्छक्तीनां चानादित्वं नित्यत्वं च श्रीमच्छंकरभगवद्भाष्यकृद्भिरतिप्रबन्धेनोपपादितमिति ग्रन्थबाहुल्यान्नास्माभिः प्रतन्यते। विकारांश्च देहेन्द्रियादीन्? गुणांश्च गुणपरिणामान्सुखदुःखमोहादीन्प्रकृतेः संभवान्संभूतान्विद्धि।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।13.20।।अथबन्धहेतुः इत्यनेन सङ्गृहीतंप्रकृतिं पुरुषम् इत्यारभ्य विवेकानुसन्धानात्पूर्वस्यार्थं विविनक्ति -- अथेति।संसर्गहेतुश्चेति प्रवाहानादेः संसर्गस्य निमित्तमित्यर्थः।उभावनादी इत्यत्रप्रकृतिं पुरुषं च इतीतरेतरयोगपरचकारेण लब्धं विशेषं दर्शयति -- प्रकृतिपुरुषावुभावन्योन्यसंसृष्टाविति। तदपेक्षया द्विवचनान्तप्रयोग उपपन्नः।प्रकृतिपुरुषावित्यत्रपरवल्लिङ्गं द्वन्द्वतत्पुरुषयोः [अष्टा.2।4।26] इति पुल्लिङ्गत्वम्। तद्विशेषणत्वात्उभावनादी इत्यनयोरपि तल्लिङ्गतैव।इच्छा द्वेषः इत्यादिनाअमानित्वम् [13।7?8] इत्यादिना च निर्दिष्टा यथाक्रमं विकारगुणशब्दाभ्यामनूद्यन्त इति दर्शयतिबन्धहेतुभूतानिति।तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि [13।4] इति प्रकरणोपक्रमे विकारशब्दः क्षेत्रकार्यमात्रपरः?,तत्प्रत्यभिज्ञानाच्चात्रापि विकारशब्दस्तद्विषयः। अतः प्रकरणबलान्न महदादिविकारपरत्वम्। तत्साहचर्याच्च गुणशब्दस्यापि प्राकरणिकार्थविषयत्वौचित्यात्? सत्त्वादिगुणविषयत्वमयुक्तमिति भावः।विकारांश्च गुणांश्च इति भेदोक्तिनिदानज्ञापनाय बन्धमोक्षहेतुत्वेन वचनम्। हेयोपादेयगुणवर्गद्वयोपदेशो हानोपादानार्थतया सप्रयोजनः तस्य प्रकृतिसम्भवत्वोपदेशस्तु किमर्थः इति शङ्कायामुच्यमानतया ज्ञातव्यार्थेविद्धि इत्यधिकोक्त्यभिप्रेतमाह -- पुरुषेणेति। प्रकृतेरेवाकारभेदेन हेयत्वोपादेयत्वज्ञापनार्थस्तत्सम्भवत्वोपदेश इति भावः।स्वविकारैरित्यमानित्वादीनां विकारत्वभाषणंप्रकृतिसम्भवान् इत्युक्तप्रकृतिकारणत्वाविशेषाद्गोबलीवर्दनयसूचनार्थम्।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।13.20 -- 13.23।।एतल्लक्षणं कृत्वा परीक्षा क्रियते -- प्रकृतिमित्यादि पर इत्यन्तम्। प्रकृतिरप्यनादिः (?N कार्यकारणप्रकृतिरप्यनादिः) कारणान्तराभावात्। विकाराः पटादयः। प्रकृतिरिति कार्यकारणभावे हेतुः। पुरुषस्तु प्रधान्यात् भोक्ता। प्रकृतिपुरुषयोः पङ्ग्वन्धवत् किलान्योन्यापेक्षा वृत्तिः। अत एवास्य [पुरुषस्य] शास्त्रकृद्भिः नानाकारैर्नामभिरभिधीयते रूपम् उपद्रष्टा इत्यादिभिः। अयमत्र तात्पर्यार्थः -- प्रकृतिः तद्विकारः? चतुर्दशविधः सर्गः? तथा पुरुषः? एतत्सर्वम् अनादि नित्यं च ब्रह्मतत्वाच्छुरितत्वे सति तदनन्यत्वात्।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।13.20।।ननुप्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धि इत्यादिकमप्रतिज्ञातं किमित्युच्यते मैवम्।यादृक्च [13।4] इति प्रतिज्ञातस्य सप्रकारस्य क्षेत्रस्य कथनात् तत्प्रतिज्ञाक्रमेण प्रागेव कुतो नोक्तं इत्यत आह -- यतश्चेति।यतश्च यत् [13।4] इति प्रतिज्ञातं प्रेरकस्वरूपं तावत्प्रभावानन्तरं वक्तव्यं प्राप्तम्। तत्र प्रेरकस्य स्वरूपनिरूपणं प्रेर्यज्ञानमपेक्षते। प्रेर्यं च सप्रकारं क्षेत्रम्? प्रेरकस्वरूपं वक्तुं अनेन प्रेरणीयं सप्रकारं क्षेत्रमुच्यते। तस्य प्रागपि वचने,गौरवं स्यादिति भावः। तर्हि प्रकृतीत्यादि कथमुच्यते ईश्वरातिरिक्तः सर्वोऽपि चेतनाचेतनवर्गः क्षेत्रमित्युच्यते। तत्र प्रकृतिशब्देनमहाभूतानि [13।6] इत्यादिनोक्तानि चतुर्विंशतितत्त्वानि गृह्यन्ते। विकारशब्देनेच्छाद्युपलक्षिताः क्षेत्रान्तर्भूता अपि गुणत्रयाद्याः सर्वे विकारा विवक्षाविशेषवशेन पृथगुपात्ताः। पुरुषशब्देन जीव इति।यावत्सञ्जायते [13।27] इत्यादिना पुनर्वक्ष्यमाणत्वात्पुनरुक्तिदोषं परिहर्तुं संङ्क्षिप्येत्युक्तम्। आह सप्रकारान्निरूपयति। गुणाः सुखदुःखमोहा इति [शं.] कश्चित्। कार्यकारणलक्षणा इत्यन्वयः? तदुभयं निराकर्तुं व्याचष्टे -- गुणा इति। ननु सत्वरजस्तमसामपि प्रकृतिविकारत्वात्विकारांश्च गुणांश्च इति। पृथगुक्तिः किमर्था इत्यत आह -- तेषामिति। इति ज्ञापयितुमिति शेषः। विकाराः पृथगुक्ता इति विकाराश्च गुणाश्च पृथगुक्ता इत्यर्थः। कार्याश्च तेऽकार्याश्च। तिखस्त्रयः। अनेन सुखाद्यङ्गीकारे विकारेभ्यः पृथग्ग्रहणमयुक्तमित्यपि सूचितम्।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।13.20।।तदनेन ग्रन्थेन तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्चेत्येतद्व्याख्यातम्। इदानीं यद्विकारि यतश्च यत् स च यो,यत्प्रभावश्चेत्येतद्व्याख्यातव्यम्। तत्र प्रकृतिपुरुषयोः संसारहेतुत्वकथनेन यद्विकारि यतश्च यदिति,प्रकृतिमित्यादि द्वाभ्यां प्रपञ्च्यते। स च यो यत्प्रभावश्चेति तु पुरुष इत्यादिद्वाभ्यामिति विवेकः। तत्र सप्तमे ईश्वरस्य द्वे प्रकृती परापरे क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणे उपन्यस्य एतद्योनीनि भूतानीत्युक्तं? तत्रापरा प्रकृतिः क्षेत्रलक्षणा परा तु जीवलक्षणेति तयोरनादित्वमुक्त्वा तदुभययोनित्वं भूतानामुच्यते। प्रकृतिमिति प्रकृतिर्मायाख्या त्रिगुणात्मिका पारमेश्वरी शक्तिः क्षेत्रलक्षणा या प्रागपरा प्रकृतिरित्युक्ता। या तु परा प्रकृतिर्जीवाख्या प्रागुक्ता स इह पुरुष इत्युक्त इति न पूर्वापरविरोधः। प्रकृतिं पुरुषं च उभावपि अनादी एव विद्धि। न विद्यत आदिः कारणं ययोस्तौ। तथा प्रकृतेरनादित्वं सर्वजगत्कारणत्वात्? तस्या अपि कारणतापेक्षत्वेऽनवस्थाप्रसङ्गात्? पुरुषस्यानादित्वं तद्धर्माधर्मप्रयुक्तत्वात्? कृत्स्नस्य जगतः जातस्य हर्षशोकभयसंप्रतिपत्तेः अन्यथा कृतहान्यकृताभ्यागमप्रसङ्गात्। यतः प्रकृतिरनादिः अतस्तस्या भूतयोनित्वमुक्तं प्रागुपपद्यत इत्याह -- विकारानिति। विकारांश्च षोडश पञ्चमहाभूतान्येकादशेन्द्रियाणि च? गुणांश्च सत्त्वरजस्तमोरूपान् सुखदुःखमोहान् प्रकृतिसंभवानेव प्रकृतिकारणकानेव विद्धि जानीहि।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।13.20।।एवं पूर्वप्रतिज्ञातंतत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च [13।4] इति निरूपितम् स्वांशत्वेन तत्र क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंज्ञा कथं इत्याशङ्क्ययद्विकारि [13।4] इत्यादिना पूर्वमेव प्रतिज्ञातं उभयोः स्वरूपं निरूपयति -- प्रकृतिमित्याद्यैः पञ्चभिः पद्यैः। प्रकृतिं सर्वजननसमर्था व्यापकत्वादिधर्मयुतां भगवच्छक्तित्वादनादिं? पुरुषं च,तद्रसभोक्तारं भोक्त्रंशरूपं भगवदंशत्वादनादिम्? एवमुभावपि अनादी विद्धि जानीहि।अत्रायं भावः -- पूर्वं ब्रह्मप्रकृतिपुरुषरूपेण त्रिचित्ररसभोगार्थमाविभूर्य ततः सर्वं कृतवान्? स्वांशानां जीवानां ज्ञापनार्थं तत्र मोहकस्वभावमायासम्बन्धादन्यथा ज्ञानेन सम्बन्धो भवति? तदभावायाऽनादिस्वभगवच्छक्तिभगवदंशादिज्ञानेन मोहो न भवेदित्यर्थः। एवं तावनादी ज्ञात्वा विकारान् देहेन्द्रियादीन् सेवौपयिकान् गुणान् सुखदुःखमोहात्मकान् प्रकृतिसम्भवानेव विद्धि।अत्रायं भावः कयाचिदवस्थयाऽवस्थितस्वस्वरूपेण स्वरसानुभवार्थं देहादीन् सत्तात्मकान् शक्तितः प्रकटीकरोति? तथैव सङ्गमसुखानुभवविरहदुःखानन्दानुभवासक्त्यात्मकानन्दमोहात्मकान् गुणानपि प्रकटयति? अतस्तथा विद्धि। एवं ज्ञानप्रयोजनं चाग्रे स्फुटीभविष्यति।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।13.20।। --,प्रकृतिं पुरुषं चैव ईश्वरस्य प्रकृती तौ प्रकृतिपुरुषौ उभावपि अनादि विद्धि? न विद्यते आदिः ययोः तौ अनादी। नित्येश्वरत्वात् ईश्वरस्य तत्प्रकृत्योरपि युक्तं नित्यत्वेन भवितुम्। प्रकृतिद्वयवत्त्वमेव हि ईश्वरस्य ईश्वरत्वम्। याभ्यां प्रकृतिभ्याम् ईश्वरः जगदुत्पत्तिस्थितिप्रलयहेतुः? ते द्वे अनादी सत्यौ संसारस्य कारणम्।।न आदी अनादी इति तत्पुरुषसमासं केचित् वर्णयन्ति। तेन हि किल ईश्वरस्य कारणत्वं सिध्यति। यदि पुनः प्रकृतिपुरुषावेव नित्यौ स्यातां तत्कृतमेव जगत् न ईश्वरस्य जगतः कर्तृत्वम्। तत् असत् प्राक् प्रकृतिपुरुषयोः उत्पत्तेः ईशितव्याभावात् ईश्वरस्य अनीश्वरत्वप्रसङ्गात्? संसारस्य निर्निमित्तत्वे अनिर्मोक्षप्रसङ्गात् शास्त्रानर्थक्यप्रसङ्गात् बन्धमोक्षाभावप्रसङ्गाच्च। नित्यत्वे पुनः ईश्वरस्य प्रकृत्योः सर्वमेतत् उपपन्नं भवेत्। कथम् विकारांश्च गुणांश्चैव वक्ष्यमाणान्विकारान् बुद्ध्यादिदेहेन्द्रियान्तान् गुणांश्च सुखदुःखमोहप्रत्ययाकारपरिणतान् विद्धि जानीहि प्रकृतिसंभवान्? प्रकृतिः ईश्वरस्य विकारकारणशक्तिः त्रिगुणात्मिका माया? सा संभवो येषां विकाराणां गुणानां च तान् विकारान् गुणांश्च विद्धि प्रकृतिसंभवान् प्रकृतिपरिणामान्।।के पुनः ते विकाराः गुणाश्च प्रकृतिसंभवाः --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।13.20।।अथस च यो यत्प्रभावश्च [13।4] इत्येतत्पूर्वप्रतिज्ञातं पुरुषतत्त्वं कथयिष्यन् अत्यन्तविभक्तस्वभावयोः प्रकृत्यात्मनोः कारणस्वरूपादनन्ययोः सफलं सर्वहेतुत्वमाह -- पञ्चभिः। तत्र प्रकृतिरात्मव्यतिरिक्ता साङ्ख्यैकदेशिनो मते पुरुषवन्नित्या। भगवदीयसाङ्ख्ये तु भागवतः शक्तिः। साङ्ख्यशास्त्रं तु न भगवन्तं विषयीकरोति तत्प्रवर्त्तकत्वात्तन्नियामकत्वाच्च। अक्षरादर्वागेव तच्छास्त्रप्रवृत्तेः पञ्चधा भावना अनादिः पुरुषोत्तमोऽक्षरं कालः प्रकृतिपुरुषाविति। इदं मतमाश्रित्यात्र साङ्ख्यसिद्धान्तप्रवृत्तिः? न तु प्राकृतमाश्रित्य।तथाहि -- प्रकृतिमिति। पुरुषमिति। उभयत्र सर्वसमष्टिरूपविवक्षयैकवचनम्। एतच्चस एव (एषः) प्रकृतिं सूक्ष्मां दैवीं गुणमयीं विभुः। यदृच्छयैवोपगतामभ्यपपद्यत लीलया। गुणैर्विचित्राः सृजतीं सरूपाः प्रकृतिं प्रजाः। विलोक्य सद्यो मुमुहे स इह ज्ञानगृहया [भाग.3।26।4?5] इति भागवतवाक्येनैकार्थयति। तत्र कार्यकारणरूपेण प्रकृतिर्द्विविधा? कार्यरूपा जीवात्मोपाधिरविद्यायुक्ता कारणरूपा माया परमात्मनः। एवं पुरुषोऽपि द्विविधः कारणमंशी मूलपुरुषात्मा? तस्य कार्यं अंशा जीवपुरुषा इति। तत्र स एव पुरुषः प्रकृतिं लीलया क्रीडया हेतुनाऽभ्यपद्यत। कीदृशीं प्रकृतिं यदृच्छयैव भगवदिच्छयैवोपगतामिति। तां तं च उभावप्येतौ चिरादधिगम्यमानौ मदंशभूतौ सच्चित्स्वभावौ कारणस्वरूपानन्यत्वादनादी एव विद्धि। बन्धहेतुभूतान्विकारांश्चेच्छाद्वेषादीन् अमानित्वाद्विकारांश्च। गुणानमृतहेतुभूतान्सत्वादीन्वा प्रकृतिसम्भवाननादीन् विद्धि। सर्गकाले मे मायांशागुणात्मिकाऽचेतना प्रकृतिः पुरुषेण मूलभूताक्षरांशेन संसृष्टा महदहङ्कारभूम्यादिरूपिणी क्षेत्राकारेण विपरिणता अन्तरासृष्ट्या नीहाररूपयाऽविद्ययाऽध्यस्ता प्रकृतिः सविकारैरिच्छाद्वेषादिभिः पुरुषस्य बन्धहेतुः। सैव मायानिर्मितया विद्ययाऽवगताऽमानित्वादिभिः स्वविकारैः पुरुषस्यामृतहेतुर्भवतीत्यर्थः।