पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।13.22।।
puruṣhaḥ prakṛiti-stho hi bhuṅkte prakṛiti-jān guṇān kāraṇaṁ guṇa-saṅgo ’sya sad-asad-yoni-janmasu
The soul seated in Nature experiences the qualities born of Nature; attachment to the qualities is the cause of its birth in good and evil wombs.
13.22 पुरुषः Purusha? प्रकृतिस्थः seated in Prakriti? हि indeed? भुङक्ते enjoys? प्रकृतिजान् born of Prakriti? गुणान् alities? कारणम् the cause? गुणसङ्गः attachment to the Gunas? अस्य of his? सदसद्योनिजन्मसु of birth in good and evil wombs.Commentary The soul residing in Nature and identifying itself with the body and the senses which are modifications of Nature acts through the alities of Nature and experiences pleasure and pain and delusion. It thinks? I am happy? I am miserable? I am deluded? I am wise. When it thus identifies itself with the alities? it assumes individuality and takes birth in pure and impure wombs.The soul (Jivatma) enjoys the sensual objects in conjunction with the body? mind and the senses and thus becomes the enjoyer. Brahman is the silent witness and nonenjoyer. The souls attachment to the alities of pleasure? pain and delusion is the chief cause of its birth. If you add the word Samsara to the second half of the verse? it will mean Attachment to the alities is the cause of Samsara through births in good and evil wombs.Good wombs (Sat Yoni) are those of the gods and the like evil wombs (Asat Yoni) are those of lower animals. The human womb is partly good and partly evil on account of mixed Karmas.Purushah prakritisthah Purusha (the soul) seated in Prakriti (Nature). This is Avidya (ignorance). Attachment to the alities of Nature is Kama (desire). Avidya and Kama are the cause of Samsara.Jnana (wisdom) and Vairagya (dispassion) will destroy ignorance and desire. (Cf.XIV.5XV.7)
।।13.22।। व्याख्या -- पुरुषः प्रकृतिस्थो (टिप्पणी प0 697) हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् -- वास्तवमें पुरुष प्रकृति(शरीर) में स्थित है ही नहीं। परन्तु जब वह प्रकृति(शरीर)के साथ तादात्म्य करके शरीरको मैं और मेरा मान लेता है? तब वह प्रकृतिमें स्थित कहा जाता है। ऐसा प्रकृतिस्थ पुरुष ही (गुणोंके द्वारा रचित अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिको सुखदायीदुःखदायी मानकर) अनुकूल परिस्थितिके आनेपर सुखी होता है और प्रतिकूल परिस्थितिके आनेपर दुःखी होता है। यही पुरुषका प्रकृतिजन्य गुणोंका भोक्ता बनना है।जैसे मोटरदुर्घटनामें मोटर और चालक -- दोनोंका हाथ रहता है। क्रियाके होनेमें तो केवल मोटरकी ही प्रधानता रहती है? पर दुर्घटनाका फल (दण्ड) मोटरसे अपना सम्बन्ध जोड़नेवाले चालक(कर्ता) को ही भोगना पड़ता है। ऐसे ही सांसारिक कार्योंको करनेमें प्रकृति और पुरुष -- दोनोंका हाथ रहता है। क्रियाओंके होनेमें तो केवल शरीरकी ही प्रधानता रहती है? पर सुखदुःखरूप फल शरीरसे अपना सम्बन्ध जोड़नेवाले पुरुष(कर्ता) को ही भोगना पड़ता है। अगर वह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े और सम्पूर्ण क्रियाओंको प्रकृतिके द्वारा ही होती हुई माने (गीता 13। 29)? तो वह उन क्रियाओंका फल भोगनेवाला नहीं बनेगा।कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु -- जिन योनियोंमें सुखकी बहुलता होती है? उनको सत्योनि कहते हैं और जिन योनियोंमें दुःखकी बहुलता होती है? उनको असत्योनि कहते हैं। पुरुषका सत्असत् योनियोंमें जन्म लेनेका कारण गुणोंका सङ्ग ही है।सत्त्व? रज और तम -- ये तीनों गुण प्रकृतिसे उत्पन्न होते हैं। इन तीनों गुणोंसे ही सम्पूर्ण पदार्थों और क्रियाओंकी उत्पत्ति होती है। प्रकृतिस्थ पुरुष जब इन गुणोंके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है? तब ये उसके ऊँचनीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण बन जाते हैं।प्रकृतिमें स्थित होनेसे ही पुरुष प्रकृतिजन्य गुणोंका भोक्ता बनता है और यह गुणोंका सङ्ग? आसक्ति? प्रियता ही पुरुषको ऊँचनीच योनियोंमें ले जानेका कारण बनती है। अगर यह प्रकृतिस्थ न हो? प्रकृति(शरीर) में अहंताममता न करे? अपने स्वरूपमें स्थित रहे? तो यह पुरुष सुखदुःखका भोक्ता कभी नहीं बनता? प्रत्युत सुखदुःखमें सम हो जाता है? स्वस्थ हो जाता है (गीता 14। 24)। अतः यह प्रकृतिमें भी स्थित हो सकता है और अपने स्वरूपमें भी। अन्तर इतना ही है कि प्रकृतिमें स्थित होनेमें तो यह परतन्त्र है और स्वरूपमें स्थित होनेमें यह स्वाभाविक स्वतन्त्र है। बन्धनमें पड़ना इसका अस्वाभाविक है और मुक्त होना इसका स्वाभाविक है। इसलिये बन्धन इसको सुहाता नहीं है और मुक्त होना इसको सुहाता है।जहाँ प्रकृति और पुरुष -- दोनोंका भेद (विवेक) है? वहाँ ही प्रकृतिके साथ तादात्म्य करनेका? सम्बन्ध जोड़नेका अज्ञान है। इस अज्ञानसे ही यह पुरुष स्वयं प्रकृतिके साथ तादात्म्य कर लेता है। तादात्म्य कर लेनेसे यह पुरुष अपनेको प्रकृतिस्थ अर्थात् प्रकृति(शरीर) में स्थित मान लेता है। प्रकृतिस्थ होनेसे शरीरमें मैं और मेरापन हो जाता है। यही गुणोंका सङ्ग है। इस गुणसङ्गसे पुरुष बँध जाता है (गीता 14। 5)। गुणोंके द्वारा बँध जानेसे ही पुरुषकी गुणोंके अनुसार गति होती है (गीता 14। 18)। सम्बन्ध -- उन्नीसवें? बीसवें और इक्कीसवें श्लोकमें प्रकृति और पुरुषका वर्णन हुआ। अब आगेके श्लोकमें पुरुषका विशेषतासे वर्णन करते हैं।
।।13.22।। यद्यपि पूर्ण पुरुष परमात्मा का कोई संसार नहीं है? तथापि प्रकृति से उत्पन्न उपाधियों से अविच्छिन्नसा हुआ वह भोक्ता भाव को प्राप्त होता है। यही प्रकृतिस्थ पुरुष है।शीतउष्ण? रागद्वेष? सुखदुख आदि गुण जड़ प्रकृति (क्षेत्र) के धर्म हैं। किन्तु उपाधियों के साथ अहंभाव से तादात्म्य होने के कारण यह पुरुष उसे अपने ही धर्म मानकर व्यर्थ ही दुखों को भोगता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि पुरुष का दुख प्रकृति के कारण नहीं? वरन् उसके साथ हुए तादात्म्य के कारण है।प्रकृति के गुणों के साथ अत्याधिक आसक्ति हो जाने के कारण यह पुरुष असंख्य शुभ और अशुभ? उत्तम और अधम योनियों में जन्म लेता रहता है। ये असंख्य जन्म उसे उन वासनाओं के अनुसार प्राप्त होते हैं? जिन्हें वह जगत् में कार्य करते और फल भोगते हुए अर्जित करता रहता है।इस प्रकार? पारमार्थिक दृष्टि से सच्चिदानन्द स्वरूप होते हुए भी अविद्यावशात् यह पुरुष कर्ता? भोक्ता? सुखी? दुखी? इहलोक परलोकगामी संसारी जीव बन जाता है आत्म अज्ञान और प्रकृतिजनित गुणों से आसक्ति ही पुरुष के सांसारिक दुख का कारण है। अत संसार की आत्यन्तिक निवृत्ति के लिए जो ज्ञानमार्ग है? उसके दो अंग हैं विवेक और वैराग्य। साधक को चाहिए कि वह विवेक के द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त करे और वैराग्य के द्वारा मिथ्या आसक्ति का त्याग करे।अगले श्लोक में परमात्मा का ही साक्षात् निर्देश करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं
।।13.22।।प्रकृतस्यैव मोक्षहेतोर्ज्ञानस्य साक्षान्निर्देशायोत्तरश्लोकमुत्थापयति -- तस्येति। कार्यकारणानां व्यापारवतां समीपे स्थितः संनिधिमात्रेण तेषां साक्षीत्येवमर्थत्वेनोपद्रष्टेति पदं व्याचष्टे -- समीपस्थ इति। लौकिकस्येव द्रष्टुरस्यापि स्वव्यापारविशिष्टतया निष्क्रियत्वविरोधमाशङ्क्याह -- स्वयमिति। स्वव्यापारादृते संनिधिरेव द्रष्टृत्वं। दृष्टान्तेन स्पष्टयति -- यथेति। उपद्रष्टेत्यस्यार्थान्तरमाह -- अथवेति। बहूनां द्रष्टृत्वेऽपि कस्योपद्रष्टृत्वं तत्राह -- तेषामिति। उपोपसर्गस्य सामीप्यार्थत्वेन प्रत्यगर्थत्वात्तत्रैव सामीप्यावसानात्प्रत्यगात्मा च द्रष्टा चेत्युपद्रष्टा सर्वसाक्षी प्रत्यगात्मेत्यर्थः। उक्तमेव व्यनक्ति -- यत इति। यथा यजमानस्य ऋत्विजां च यज्ञकर्मणि गुणं दोषं वा सर्वयज्ञाभिज्ञः सन्नुपद्रष्टा विषयीकरोति तथायमात्मा चिन्मात्रस्वभावः सर्वं गोचरयतीत्युपद्रष्टेति पक्षान्तरमाह -- यज्ञेति। अनुमन्ता चेत्येतद्व्याकरोति -- अनुमन्तेति। ये स्वयं कुर्वन्तो व्यापारयन्तो भवन्ति तेषु कुर्वत्सु सत्सु यास्तेषां क्रियास्तासु पार्श्वस्थस्य परितोषोऽनुमननं तच्चानुमोदनं तस्य संनिधिमात्रेण कर्ता यः सोऽनुमन्तेत्यर्थः। व्याख्यान्तरमाह -- अथवेति। तदेव स्फुटयति -- कार्येति। अर्थान्तरमाह -- अथवेत्यादिना। भर्तेति पदमादाय किं भरणं नामेति पृच्छति -- भर्तेति। तद्रूपं निरूपयन्नात्मनो भर्तृत्वं साधयति -- देहेति। भोक्तेत्युक्ते क्रियावत्त्वे प्राप्ते भोगश्चिदवसानतेति न्यायेन विभजते -- अग्नीति। विशेषणान्तरमादाय व्याचष्टे -- महेश्वर इति। परमात्मत्वमुपपादयति -- देहादीनामिति। अविद्यया कल्पितानामिति संबन्धः। परमत्वं प्रकृष्टत्वम्। स पूर्वोक्तविशेषणवानिति यावत्। परमात्मशब्दस्य प्रकृतात्मविषयत्वे श्रुतिमनुकूलयति -- अन्त इति। तस्य ताटस्थ्यं प्रश्नद्वारा प्रत्याचष्टे -- क्वेति। कस्मात्परत्वं तदाह -- अव्यक्तादिति। तत्रैव वाक्यशेषानुकूल्यमाह -- उत्तम इति। सोऽस्मिन्देहे परः पुरुष इति संबन्धः। शोधितार्थयोरैक्यज्ञानं प्रागुक्तं फलोक्त्या स्तौति -- क्षेत्रज्ञं चेति।
।।13.22।।पुरुषस्य सुखदुःखभोक्तृत्वलक्षणसंसारित्वं किंनिमित्तमितिचेत् अविद्यैक्याध्यासनिमित्तमित्याह -- पुरुष इति। हि यस्मात्पुरुषो प्रकृतावविद्यालक्षणायां स्थितस्तदैक्याध्यासं प्राप्तस्तस्मात्सुखी दुःखी मूढः पण्डितोऽहमित्येवं प्रकृते जातान्सुखदुःखमोहाकाराभिव्यक्तान् गुणान्सत्त्वादीन् भुङ्क्ते उपलभते। प्रकृतिस्थस्तत्कार्ये देहे तादात्म्येन स्थित इति त्वाचार्यैः देहतादात्म्यस्याप्यविद्यातादात्म्याध्यासायत्तत्वं मुख्यार्थत्यागापत्तिं चाभिप्रेत्य न व्याख्यातम्। भोक्तृत्वलक्षणे संसारित्वे प्रकृतिस्थत्वं कारणमुक्त्वा जन्मनः प्रधानं कारणमाह -- कारणामिति। अस्य पुरुषस्य भोक्तुः सत्यश्चासत्यश्च योनयः सद्योनयोदेवादियोनयः असद्योनयः पश्वादियोनयः। योनिद्वयनिर्देशसामर्थ्यान्मध्यवर्तिन्यः सदसद्योनयो मनुष्ययोनयोपि द्रष्टव्याः। तासु जन्मानि तेषु विषयभूतेषु गुणेषु गुणसङ्गः गुणेषु सुखदुःखमोहात्मकेषु विषयेषु भूज्यमानेषु यस्तादात्म्यभाव आसीक्तिर्वा स एव सत्यायामप्यविद्यायां प्रधानं कारणमित्यर्थः।स यथाकामो भवति तत्कतुर्भवति यत्कतुर्भवति तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते तदभिसंपद्यते इति श्रुतेः। सदसद्योनिजन्मनस्तस्य संसारस्य गुणसङ्गः कारणमिति संसारपदमध्याहृत्य वा व्याख्यायेयम्। गुणसङ्गः सत्त्वरजस्तमोगुणात्मकप्रकृतितादात्म्याभिमान इति तु प्रकृतिमात्मत्वेन गतः प्रकृतिस्थ इत्यनेन पौररुक्त्यमभिप्रेत्याचार्यैर्न व्याख्यातम्। गुणैः शुभाशुभकर्मकारिभिरिन्द्रियैः सङ्गस्य विषयसङ्गाधीनत्वमभिप्रेत्य न प्रदर्शितम्।इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था इति श्रुतेः। अन्ये तु यद्वा प्रकृतिस्थो विद्वान्वा गुणान् भुङ्क्ते। पश्वादिभिश्चाविशेषादितिन्यायात्। तत्किं विद्वानिवाविद्वानपि कुतो न मुच्यते। अविद्वानिव विद्वानपि कुतो न बध्यत इत्याशङ्क्याह -- कारणमिति। गुणेषु देहेन्द्रियविषयेषु सङ्गः अहमिदं ममेदमित्यभिनिवेशः स एव जन्म कारणं विदुषां तु तदभावान्न जन्म। समानेऽपि देहसंबन्धे यदा यक्षो देहाभिमानं धत्ते तदा स एव देहपीडया पीड्यते नतु देहपतिर्जीवः। यदात्वयं देहाभिमानं धत्ते तदा नेतर इति प्रसिद्धम्। सङ्गस्य बन्धकत्वं नतु सांनिध्यमात्रं बन्धकं अतो विद्वदविदुषो समानेपि देहसंबन्धे संगतदभावकृतो महाविशेष इति भाव इति वर्णयन्ति। भाष्यकारैस्तु प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्य्धनादी उभावपीत्युपक्रमानुरोधेन पुरुषशब्दार्थप्रदर्शनसामञ्जस्यभिप्रेत्यामर्थो न प्रदर्शितः।
।।13.22।।ननु यथा बौद्धं कर्तृत्वं पुंस्यारोप्यते एवं पौंस्नं भोक्तृत्वं बुद्धावस्त्वित्येतं भ्रमं वारयति -- पुरुष इति। हि प्रसिद्धम्। प्रकृतिस्थः देहेन्द्रियमनःसंघातमध्यारूढस्तत्तादात्म्यं गत इत्यर्थः। प्रकृतिजान् सुखदुःखमोहात्मकान् गुणान् भुङ्क्ते उपलभते। यदा तु सुप्तिसमाधिमूर्च्छादौ प्रकृतिस्थत्वं नास्ति तदा न,सुखादीनुपलभते तेनोपाधिगतान्येव सुखादीनि तदभावेन प्रतीयन्त इति सिद्धम्। श्रुतिरपिआत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः इतीन्द्रियमनोयोगादेवात्मनि भोक्तृत्वं दर्शयन्ति शुद्धस्य केवलस्य भोक्तृत्वं नास्तीति दर्शयति। कुतस्तर्ह्यभोक्तुरप्यस्य प्राकृतो बन्ध इति तत्राह -- कारणमिति। अस्य पुरुषस्य सदसद्योनिजन्मसु तत्र सद्योनिजन्मानो देवाः? असद्योनिजन्मभाजस्तिर्यञ्चः स्थावराश्च। सदसद्योनिजन्मानो मनुष्याः। एतेषु त्रिष्वपि जन्मसु प्राप्येषु अस्य पुंसो गुणसङ्गः सुखादिष्वभिष्वङ्गः कारणं हेतुः। तथा हि सात्विका देवा भवन्ति राजसा मनुष्यास्तामसाश्च पशवस्तेषां तत्तद्योनिप्राप्तौ तद्गुणप्राधान्यमेव कारणम्। वक्ष्यति चऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्वस्थाः इत्यादि। यद्वा प्रकृतिस्थो विद्वानविद्वान्वा गुणान्भुङ्क्ते।पश्वादिभिश्चाविशेषात् इति न्यायात्। तत्किं विद्वानिवाविद्वानपि कुतो न मुच्यते अविद्वानिव विद्वान्वा कुतो न बध्यत इत्याशङ्क्याह -- कारणमिति। गुणेषु देहेन्द्रियविषयेषु सङ्गः अहमिदं ममेदमित्यभिनिवेशः स एव जन्मकारणम्। विदुषां तु तदभावान्न जन्म। समानेऽपि देहसंबन्धे यदा यक्षो देहाभिमानं धत्ते तदा स एव देहपीडया पीड्यते न तु देहपतिर्जीवः। यदा त्वयं देहाभिमानं धत्ते तदा नेतर इति प्रसिद्धम्। सङ्गस्य बन्धकत्वं न तु सांनिध्यमात्रं बन्धकम्। अतो विद्वदविदुषोः समानेऽपि देहसंबन्धे सङ्गतदभावकृतो महान् विशेष इति भावः।
।।13.22।।अस्मिन् देहे अवस्थितो अयं पुरुषो देहप्रवृत्त्यनुगुणसंकल्पादिरूपेण देहस्य उपद्रष्टा अनुमन्ता च भवति तथा देहस्य भर्ता च भवति तथा देहप्रवृत्तिजनितसुखदुःखयोः भोक्ता च भवति। एवं देहनियमनेन देहभरणेन देहशेषित्वेन च देहेन्द्रियमनांसि प्रति महेश्वरः भवति। तथा च वक्ष्यते -- शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः। गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।। (गीता 15।8) इति।अस्मिन्देहे देहेन्द्रियमनांसि प्रति परमात्मा इति च अपि उक्तः। देहे मनसि च आत्मशब्दः अनन्तरम् एव प्रयुज्यते -- ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना। (गीता 13।24) इति। अपिशब्दात् महेश्वर इति अपि उक्त इति गम्यते। पुरुषः परःअनादिमत्परम् (गीता 13।12) इत्यादिना उक्तः अपरिच्छिन्नज्ञानशक्तिः अयं पुरुषः अनादिप्रकृतिसंबन्धकृतगुणसङ्गात् एतद्देहमात्रमहेश्वरो देहमात्रपरमात्मा च भवति।
।।13.22।।तथाप्यविकारिणो जन्मरहितस्य भोक्तृत्वं कथमित्यत आह -- पुरुष इति। हि यस्मात्प्रकृतिस्थः तत्कार्यदेहे तादात्म्येन स्थितः पुरुषः। अतस्तज्जनितान्सुखादीन्भुङ्क्ते। अस्य च पुरुषस्य सतीषु देवादियोनिषु? असतीषु तिर्यगादियोनिषु यानि जन्मानि तेषु गुणसङ्गः। गुणैः शुभाशुभकर्मकारिभिरिन्द्रियैः सङ्गः कारणमित्यर्थः।
[13.22] इत्यनन्तरोक्तिश्च व्याहन्येतेति भावः।।।13.22।।उक्तैकदेशे शङ्कोदयार्थमुक्तवक्ष्यमाणपुनरुक्तिपरिहारार्थं चोक्तं विविच्यानुभाषते -- एवमिति। परिशुद्धस्यानुभवसुखैकतानस्य प्रत्यगात्मनो वैषयिकबाह्यसुखदुःखोपभोगो न तात्त्विकः स्यात्? अपि तु स्फटिकमणौ जपाकुसुमपाटलिमवदासक्तिविशेषादारोपित एव स्यादिति शङ्कापुरुषः इत्यर्धेन परिह्रियत इत्याह -- पुरुषस्येति। सत्त्वादिगुणा न साक्षाद्भोक्तव्याः? सुखदुःखमोहकार्योन्नेयतयातीन्द्रियत्वात्? तत्सुखदुःखानां भोक्तृत्वं च प्रसक्तमुपपादनीयम् तच्च हिशब्देन द्योतितम्। अत्र तुप्रकृतिजान् गुणान् भुङक्ते इति गुणभोक्तृत्वं कथमुच्यते इत्यत्राह -- गुणशब्द इति।स्वकार्येष्विति लक्षणानिमित्तकथनम्। स्वशब्देन गुणस्वरूपग्रहणम्। यद्यपि गुणशब्दः सुखदुःखेष्वपि मुख्यः? तथापि प्रकृतिगुणत्वस्यविवक्षितत्वादौपचारिक इत्युक्तम्। उत्तरत्रापि हि बहुशो गुणशब्दः सत्त्वादिविषय एव। यथावस्थिताकारोऽत्र पुरुषशब्देनानूदित इत्याह -- स्वतस्स्वानुभवैकसुख इति। प्रकृतिस्थशब्दः स्वास्थ्यादिपरोऽपि प्रयुज्यत इति तद्व्युदासायप्रकृतिसंसृष्ट इत्युक्तम्।प्रकृतिजान् इत्यनेन प्रकृत्याश्रयत्वं न विवक्षितम्?सुख्यहं? दुःख्यहम् इति स्वाश्रिततयैव तदुपलम्भात्? अन्तःकरणविकाराणां सुखादीनां स्वात्मन्यारोप इति पक्षस्य निर्दिष्टप्रमाणविरुद्धत्वात्। अतस्तदुपाधिकत्वमेव विवक्षितमिति ज्ञापनाय प्रकृतिसंसर्गोपाधिकत्वोक्तिः। आदिशब्देन पूर्वसमभिव्याहृतेच्छाद्वेषादिसङ्ग्रहः। तेऽपि हि कर्मफलभूता भोक्तव्याः। आत्मनेपदान्तत्वादर्थानन्वयाच्चात्र पालनार्थत्वमयुक्तम् अभ्यवहारार्थोऽप्यत्रानौचित्यादेव त्यक्तः अतोऽत्रभुङ्क्ते इति प्रस्तुतानुभवमात्रं विवक्षितम्। स्वसमवेतवर्तमानसुखदुःखसाक्षात्कारो भोग इत्यपि हि लक्षयन्तीत्यभिप्रायेणाह -- अनुभवतीति।स्वानुभवैकतानस्य वैषयिसुखदुःखोपभोगे प्रकृतिसंसर्गो हेतुरुक्तः? परिशुद्धस्यात्मनः सोऽपि प्रकृतिसंसर्गः कथं इति शङ्कामनन्तरं परिहरतीत्यभिप्रायेणाहप्रकृतिसंसर्गहेतुमाहेति। बीजाङ्कुरन्यायेन प्रवाहानादित्वादन्योन्याश्रयणचक्रकादिपरिहारः सिद्धः अनवस्था च न दोषः प्रवाहेषु च पूर्वहेतुवैचित्र्यादुत्तरोत्तरवैचित्र्यसिद्धिः। गुगसङ्गस्य विहितनिषिद्धकर्मद्वारा तत्फलानुभवार्थविचित्रजन्महेतुत्वाच्छास्त्रसाफल्यं? रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन् ৷৷. कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरन् [छां.उ.5।10।7] इति सदसद्योनिप्राप्तेः कर्ममूलत्वश्रुत्यविरोधं चाह -- पूर्वपूर्वेति। सत्त्वादीनां साक्षात्सङ्गास्पदत्वायोगादत्रापि गुणशब्दस्य पूर्ववदौपचारिकत्वाभिप्रायेणसत्त्वादिगुणमयेषु सुखदुःखादिष्वित्युक्तम्। दुःखसङ्गो नाम दुःखे सुखभ्रान्त्या सङ्गः दुःखहेतुषु हि सागरतरणादिषु सुखलवसङ्गात्सज्जते भ्रान्तिज्ञानवतां पुंसां प्रहारोऽपि सुखायते? इति चाहुः। यो हि यदिच्छति? तस्य तस्मिन् तत्साधने वा कार्यताबोध इति स्थिते सुखस्य स्वरूपेण कर्तुमशक्यत्वात्तत्साधनेष्वेव पुरुषप्रवृत्तिरित्यभिप्रायेणतत्साधनभूतेष्वित्युक्तम्। श्रूयते च -- स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति इति अस्तिनास्तीत्याद्यर्थतायामनन्वयात्? तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वा। अथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरन् श्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा चण्डालयोनिं वा [छां.उ.5।10।7] इत्यादिश्रुत्यनुसाराच्च? साध्वसाधुशब्दः साध्वसाधुषु योनिष्विति वदतासदसतोर्योनिषु जन्मसु (शं.) इति परव्याख्या निरस्ता। बहुवचनेनैकस्यैव पुरुषस्य प्रवाहरूपेण विचित्रानन्तसदसद्योनिसम्बन्धो विवक्षित इत्यभिप्रायेणततश्च कर्मारभते? ततश्च जायत इत्यादिकमुक्तम्। एवं प्रवाहतोऽनादित्ववदविच्छेदात्प्रवाहानन्तत्वमपि किं स्यात् इति शङ्कां परिहरतियावदिति। प्रकृतिसंसर्गस्य गुणसंसर्गः कारणमित्युक्ते सति अर्थात्कारणाभावे कार्याभावः [वै.द.1।2।1] इति न्यायादमानित्वादिभिर्गुणसङ्गनिवृत्त्या सदसद्योनिजन्मप्रवाहोऽप्युच्छिद्येतेत्युक्तं भवतीत्याह -- तदिदमुक्तमिति। अत्र कण्ठोक्त्यभावेऽपि गुणसङ्गस्य पूर्वपूर्वदेहसम्बन्धप्रयुक्तत्वं कर्मद्वारा योनिप्राप्तिहेतुत्वादिकं च श्रुतिस्मृत्यन्तरानुसारादभिप्रायत उक्तमिति भावः।
।।13.20 -- 13.23।।एतल्लक्षणं कृत्वा परीक्षा क्रियते -- प्रकृतिमित्यादि पर इत्यन्तम्। प्रकृतिरप्यनादिः (?N कार्यकारणप्रकृतिरप्यनादिः) कारणान्तराभावात्। ,विकाराः पटादयः। प्रकृतिरिति कार्यकारणभावे हेतुः। पुरुषस्तु प्रधान्यात् भोक्ता। प्रकृतिपुरुषयोः पङ्ग्वन्धवत् किलान्योन्यापेक्षा वृत्तिः। अत एवास्य [पुरुषस्य] शास्त्रकृद्भिः नानाकारैर्नामभिरभिधीयते रूपम् उपद्रष्टा इत्यादिभिः। अयमत्र तात्पर्यार्थः -- प्रकृतिः तद्विकारः? चतुर्दशविधः सर्गः? तथा पुरुषः? एतत्सर्वम् अनादि नित्यं च ब्रह्मतत्वाच्छुरितत्वे सति तदनन्यत्वात्।
।।13.22।।यत्पुरुषस्य सुखदुःखभोक्तृत्वं संसारित्वमित्युक्तं तस्य किं निमित्तमित्युच्यते -- पुरुष इति। प्रकृतिर्माया तां मिथ्यैव तादात्म्येनोपगतः प्रकृतिस्थो हि एव पुरुषो भुङ्क्ते उपलभते प्रकृतिजान्गुणान्। अतः प्रकृतिजगुणोपलम्भहेतुषु सदसद्योनिजन्मसु सद्योनयो देवाद्यास्तेषु हि सात्त्विकमिष्टं फलं भुज्यते? असद्योनयः पश्वाद्यास्तेषु हि तामसमनिष्टं फलं भुज्यते? सदसद्योनयो धर्माधर्ममिश्रत्वाद्ब्राह्मणाद्या मनुष्यास्तेषु हि राजसं मिश्रं फलं भुज्यते। अतस्तत्रास्य पुरुषस्य गुणसङ्गः सत्त्वरजस्तमोगुणात्मक प्रकृतितादात्म्याभिमान एव कारणं न त्वसङ्गस्य तस्य स्वतः संसार इत्यर्थः। अथवा गुणसङ्गो गुणेषु शब्दादिषु सुखदुःखमोहात्मकेषु सङ्गोऽभिलाषः काम इति यावत्। स एवास्य सदसद्योनिजन्मसु कारणम्।स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते तदभिसंपद्यते इति श्रुतेः। अस्मिन्नपि पक्षे मूलकारणत्वेन प्रकृतितादात्म्याभिमानो द्रष्टव्यः।
।।13.22।।ततः किमत आह -- पुरुष इति। पुरुषः पुरुषरूपेण प्रकटो भगवान्? प्रकृतिस्थः स्वरसानुभवस्थानस्थितः सन् प्रकृतिजान् गुणान् भुङक्ते इतरसम्भोगं करोतीत्वर्थः। न तु पुरुषरूपस्य सदसद्योनिदेवतिर्यगादिरूपजन्मसु गुणरसभोगेच्छा कारणं हेतुरित्यर्थः।
।।13.22।। -- पुरुषः भोक्ता प्रकृतिस्थः प्रकृतौ अविद्यालक्षणायां कार्यकरणरूपेण परिणतायां स्थितः प्रकृतिस्थः? प्रकृतिमात्मत्वेन गतः इत्येतत्? हि यस्मात्? तस्मात् भुङ्क्ते उपलभते इत्यर्थः। प्रकृतिजान् प्रकृतितः जातान् सुखदुःखमोहाकाराभिव्यक्तान् गुणान् सुखी? दुःखी? मूढः? पण्डितः अहम् इत्येवम्। सत्यामपि अविद्यायां सुखदुःखमोहेषु गुणेषु भुज्यमानेषु यः सङ्गः आत्मभावः संसारस्य सः प्रधानं कारणं जन्मनः? सः यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति (बृह0 उ0 4।4।5) इत्यादिश्रुतेः। तदेतत् आह -- कारणं हेतुः गुणसङ्गः गुणेषु सङ्गः अस्य पुरुषस्य भोक्तुः सदसद्योनिजन्मसु? सत्यश्च असत्यश्च योनयः सदसद्योनयः तासु सदसद्योनिषु जन्मानि सदसद्योनिजन्मानि? तेषु सदसद्योनिजन्मसु विषयभूतेषु कारणं गुणसङ्गः। अथवा? सदसद्योनिजन्मसु अस्य संसारस्य कारणं गुणसङ्गः इति संसारपदमध्याहार्यम्। सद्योनयः देवादियोनयः असद्योनयः पश्वादियोनयः। सामर्थ्यात् सदसद्योनयः मनुष्ययोनयोऽपि अविरुद्धाः द्रष्टव्याः।।एतत् उक्तं भवति -- प्रकृतिस्थत्वाख्या अविद्या? गुणेषु च सङ्गः कामः? संसारस्य कारणमिति। तच्च परिवर्जनाय उच्यते। अस्य च निवृत्तिकारणं ज्ञानवैराग्ये ससंन्यासे गीताशास्त्रे प्रसिद्धम्। तच्च ज्ञानं पुरस्तात् उपन्यस्तं क्षेत्रक्षेत्रज्ञविषयम् यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते इति। उक्तं च अन्यापोहेन अतद्धर्माध्यारोपेण च।।तस्यैव पुनः साक्षात् निर्देशः क्रियते --,
।।13.22।।एवं कार्यभेदमुक्त्वा तद्भोक्तृत्वमपि तस्य प्रकृतिपरिणामक्षेत्रसंसर्गेणैव भवति? नान्यथेत्याह -- पुरुष इति। प्रकृतिस्थ एव क्षेत्रस्थ एव जीवः प्रकृतिजान् गुणान् सत्त्वादिपरिणामभूतांस्तत्कार्यभूतैरिन्द्रियैर्भुङ्क्ते भोक्ता भवति? न त्वन्तर्यामिवदसङ्गः अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति [ऋक्सं.2।3।17।5मुं.उ.3।1।1श्वे.उ.4।6] यथोक्तं भागवते -- [3।26।67]एवं पराभिध्यानेन कर्तृत्वं प्रकृतेः पुमान्। कर्मसु क्रियमाणेषु गुणैरात्मनि मन्यते।।तदस्य संसृतिर्बन्धः पारतन्त्र्यं च तत्कृतम्। भवत्यकर्तुरीशस्य साक्षिणो निर्वृतात्मनः इतिकार्यकारणकर्त्तृत्वे द्रव्यज्ञानक्रियाश्रयाः। बध्नन्ति नित्यदा मुक्तं मायिनं पुरुषं गुणाः [2।5।19] इति च। अतोऽस्य पुरुषस्य प्रकृतिसंसर्गेण तिरोहिताक्षरस्वभावस्य तद्गुणसङ्ग एव सदसद्योनिजन्मसु कारणं ज्ञातव्यम्।