अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वाऽन्येभ्य उपासते।तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः।।13.26।।
anye tv evam ajānantaḥ śhrutvānyebhya upāsate te ’pi chātitaranty eva mṛityuṁ śhruti-parāyaṇāḥ
Others, too, who do not know thus, worship, having heard of It from others; they, too, cross beyond death, regarding what they have heard as the supreme refuge.
13.26 अन्ये others? तु indeed? एवम् thus? अजानन्तः not knowing? श्रुत्वा having heard? अन्येभ्यः from others? उपासते worship? ते they? अपि also? च and? अतितरन्ति cross beyond? एव even? मृत्युम् death? श्रुतिपरायणाः regarding what they have heard as the Supreme refuge.Commentary The three paths? viz.? the Yoga of meditation? the Yoga of knowledge? and the Yoga of action to attain the knowledge of the Self were described in the previous verse. In this verse the Yoga of worship is described.Some who are ignorant of the methods described in the previous verse listen to the teachings of the spiritual preceptors regarding this great Truth or the Self with intense and unshakable faith? solely depending upon the authority of others instructions? and through constant remembrance and contemplation of them attain immortality. They are devoted to their preceptor. Some study the books written by realised seers? stick with great faith to the teachings contained therein and live according to them. They also overcome death. Whichever path one follows? one eventually attains the knowledge of the Self and final liberation from birth and death? -- salvation (Moksha). There are several paths to suit aspirants of different temperaments and eipments.Freeing oneself from ignorance with its effects through the knowledge of the Self? is crossing the Samsara or attaining immortality or overcoming death or obtaining release or salvation.
।।13.26।। व्याख्या -- अन्ये त्वेवमजानन्तः ৷৷. मृत्युं श्रुतिपरायणाः -- कई ऐसे तत्त्वप्राप्तिकी उत्कण्ठावाले मनुष्य हैं? जो ध्यानयोग? सांख्ययोग? कर्मयोग? हठयोग? लययोग आदि साधनोंको समझते ही नहीं अतः वे साधन उनके अनुष्ठानमें भी नहीं आते। ऐसे मनुष्य केवल तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंकी आज्ञाका पालन करके मृत्युको तर जाते हैं अर्थात् तत्त्वज्ञानको प्राप्त कर लेते हैं। जैसे धनी आदमीकी आज्ञाका पालन करनेसे धन मिलता है? ऐसे ही तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंकी आज्ञाका पालन करनेसे तत्त्वज्ञान मिलता है। हाँ? इसमें इतना फरक है कि धनी जब देता है? तब धन मिलता है परन्तु सन्तमहापुरुषोंकी आज्ञाका पालन करनेसे? उनके मनके? संकेतके? आज्ञाके अनुसार तत्परतापूर्वक चलनेसे मनुष्य स्वतः उस परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है? जो कि सबको सदासे ही स्वतःस्वाभाविक प्राप्त है। कारण कि धन तो धनीके अधीन होता है? पर परमात्मतत्त्व किसीके अधीन नहीं है।शरीरके साथ सम्बन्ध रखनेसे ही मृत्यु होती है। जो मनुष्य महापुरुषोंकी आज्ञाके परायण हो जाते हैं? उनका शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध छूट जाता है। अतः वे मृत्युको तर जाते हैं अर्थात् वे पहले शरीरकी मृत्युसे अपनी मृत्यु मानते थे? उस मान्यतासे रहित हो जाते हैं।ऐसे श्रुतिपरायण साधकोंकी तीन श्रेणियाँ होती हैं -- 1 -- यदि साधकमें सांसारिक सुखभोगकी इच्छा नहीं है? केवल तत्त्वप्राप्तिकी ही उत्कट अभिलाषा है और वह जिनकी आज्ञका पालन करता है? वे अनुभवी महापुरुष हैं? तो साधकको शीघ्र ही परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।2 -- यदि साधकमें सुखभोगकी इच्छा शेष है? तो केवल महापुरुषकी आज्ञाका पालन करनेसे ही उसकी उस इच्छाका नाश हो जायगा और उसको परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी।3 -- साधक जिनकी आज्ञाका पालन करता है? वे अनुभवी महापुरुष नहीं हैं? पर साधकमें किञ्चिन्मात्र भी सांसारिक इच्छा नहीं है और उसका उद्देश्य केवल परमात्माकी प्राप्ति करना है? तो उसको भगवत्कृपासे परमात्मप्राप्ति हो जायगी क्योंकि भगवान् तो उसको जानते ही हैं।अगर किसी कारणवश साधककी संतमहापुरुषके प्रति अश्रद्धा? दोषदृष्टि हो जाय तो उनमें साधकको अवगुणहीअवगुण दीखेंगे? गुण दीखेंगे ही नहीं। इसका कारण यह है कि महापुरुष गुणअवगुणोंसे ऊँचे उठे (गुणातीत) होते हैं अतः उनमें अश्रद्धा होनेपर अपना ही भाव अपनेको दीखता है। मनुष्य जिस भावसे देखता है? उसी भावसे उसका सम्बन्ध हो जाता है। अवगुण देखनेसे उसका सम्बन्ध अवगुणोंसे हो जाता है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह तत्त्वज्ञ महापुरुषकी क्रियाओंपर? उनके आचरणोंपर ध्यान न देकर उनके पास तटस्थ होकर रहे। संतमहापुरुषसे ज्यादा लाभ वही ले सकता है? जो उनसे किसी प्रकारके सांसारिक व्यवहारका सम्बन्ध न रखकर केवल पारमार्थिक (साधनका) सम्बन्ध रखता है। दूसरी बात? साधक इस बातकी सावधानी रखे कि उसके द्वारा उन महापुरुषकी कहीं भी निन्दा न हो। यदि वह उनकी निन्दा करेगा? तो उसकी कहीं भी उन्नति नहीं होगी। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें कहा गया कि श्रुतिपरायण साधक भी मृत्युको तर जाते हैं? तो अब प्रश्न होता है कि मृत्युके होनेमें क्या कारण है इसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।
।।13.26।। उत्तम और मध्यम अधिकारियों के लिए उपयुक्त मार्गों को बताने के पश्चात् अब मन्द बुद्धि साधकों के लिए गीताचार्य एक उपाय बताते हैं।अन्यों से श्रवण कुछ ऐसे भी लोग होते हैं? जो ध्यान? सांख्य और कर्मयोग इन तीनों में से किसी एक को भी करने में असमर्थ होते हैं। उनके विकास के लिए एकमात्र उपाय यह है कि उनको किसी आचार्य से,पूजा या उपासना के विषय में श्रवण कर तदनुसार ईश्वर की आराधना करनी चाहिए।वे भी मृत्यु को तर जाते हैं जगत् में यह देखा जाता है कि जिनकी बुद्धि मन्द होती है? उनमें श्रद्धा का आधिक्य होता है। अत? यदि ऐसे मन्दबुद्धि साधक श्रद्धापूर्वक उपदिष्ट प्रकार से उपासना करें? तो वे भी इस अनित्य मृत्युरूप संसार को पार करके नित्य तत्त्व का अनुभव कर सकते हैं। देह के अन्त को ही मृत्यु नहीं समझना चाहिए। यह शब्द उसके व्यापक अर्थ में यहाँ प्रयुक्त किया गया है। अनित्य? अनात्म उपाधियों के साथ तादात्म्य करने से हम भी उनके परिवर्तनों से प्रभावित होते रहते हैं। यह परिवर्तन का दुखपूर्ण अनुभव ही मृत्यु कहलाता है। इनसे भिन्न नित्य अविकारी आत्मा को जानना ही मृत्यु को तर जाना है? अर्थात् सभी परिवर्तनों में अविचलित और अप्रभावित रहना है श्री शंकराचार्य कहते हैं कि स्वयं विवेकरहित होते हुए भी केवल परोपदेश के श्रवण से ही यदि ये साधक मोक्ष को प्राप्त होते हैं? तो फिर प्रमाणपूर्वक विचार के प्रति स्वतन्त्र विवेकी साधकों के विषय में कहना ही क्या है कि वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं।इन सब साधनों के द्वारा हमें कौन से साध्य का सम्पादन करना है इस पर कहते हैं
।।13.26।।ऐक्यधीर्मुक्तिहेतुरिति प्रागुक्तमनूद्य प्रश्नपूर्वकं जिज्ञासितहेतुपरत्वेन श्लोकमवतारयति -- क्षेत्रेति। सर्वस्य प्राणिजातस्य क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंबन्धाधीना यस्मादुत्पत्तिस्तस्मात्क्षेत्रज्ञात्मकपरमात्मातिरेकेण प्राणिनिकायस्याभावादैक्यज्ञानादेव मुक्तिरित्याह -- कस्मादिति। क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंबन्धमुक्तमाक्षिपति -- कः पुनरिति। क्षेत्रज्ञस्य क्षेत्रेण संबन्धः संयोगो वा समवायो वेति विकल्प्याद्यं दूषयति -- न तावदिति। द्वितीयं निरस्यति -- नापीति। वास्तवसंबन्धाभावेऽपि तयोरध्यासस्वरूपः सोऽस्तीति परिहरति -- उच्यत इति। भिन्नस्वभावत्वे हेतुमाह -- विषयेति। इतरेतरवत्क्षेत्रे क्षेत्रज्ञे वा तद्धर्मस्य क्षेत्रानधिकरणस्य क्षेत्रज्ञगतस्य चैतन्यस्य क्षेत्रज्ञानाधारस्य च क्षेत्रनिष्ठस्य जाड्यादेरारोपरूपो योगस्तयोरित्याह -- इतरेति। तत्र निमित्तमाह -- क्षेत्रेति। अविवेकादारोपितसंयोगे दृष्टान्तमाह -- रज्िज्वति। उक्तं संबन्धं निगमयति -- सोऽयमिति। तस्य निवृत्तियोग्यत्वं सूचयति -- मिथ्येति। कथं तर्हि मिथ्याज्ञानस्य निवृत्तिरित्याशङ्क्याह -- यथेति।योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु इत्यादि त्वंपदार्थविषयं शास्त्रमनुसृत्य विवेकज्ञानमापाद्य महाभूतादिधृत्यन्तात्क्षेत्रादुपद्रष्टृत्वादिलक्षणं प्रागुक्तं क्षेत्रज्ञं मुञ्जेषीकान्यायेन विविच्य सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं ब्रह्म स्वरूपेण ज्ञेयं योऽनुभवति तस्य मिथ्याज्ञानमपगच्छतीति संबन्धः। कथमस्य निर्विशेषत्वं क्षेत्रज्ञस्य सविशेषत्वहेतोः सत्त्वादित्याशङ्क्याह -- क्षेत्रं चेति। बहुदृष्टान्तोक्तेर्बहुविधत्वं क्षेत्रस्य द्योत्यते। उक्तज्ञानान्मिथ्याज्ञानापगमे हेतुमाह -- यथोक्तेति। तथापि कथं पुरुषार्थसिद्धिः कालान्तरे तुल्यजातीयमिथ्याज्ञानोदयसंभवादित्याशङ्क्याह -- तस्येति। सम्यग्ज्ञानादज्ञानतत्कार्यनिवृत्त्या मुक्तिरिति स्थिते फलितमाह -- य एवमिति।
।।13.26।।मन्दतरानाह। अन्येतु। तुशब्दः पूर्वेभ्यो वैलक्षण्यद्योतनार्थः। एषु विकल्पेषु अन्यतरेणाप्येवं यथोक्तमात्मानमजानन्तः श्रुतिपरायणाः श्रुतिः श्रवणं परमयनं मोक्षमार्गप्रवृत्तौ परं साधनं येषां केवलं परोपदेशप्रमाणाः स्वयं विवेकररिताः अन्येभ्य आचार्येभ्य इदमेव चिन्तयतेति वदद्य्भः श्रुत्वा श्रद्दधानाः सन्तस्तदेवोपासते चिन्तयन्ति तेऽपि च मृत्युयुक्तं संसारं अतितरन्त्येवातिक्रामन्त्येव। चकारः पूर्वोक्तसमुच्चयार्थः। तेप्यतितरन्ति पूरवोक्तास्त्रयः तरन्तीति किमु वक्तव्यमिति कैमुत्यन्यायबोधनार्थोऽपिशब्दः तेषामुक्तमादित्वाभावेऽपि संसारातितरणे संशयो नास्तीत्यवधारणार्थः।
।।13.25 -- 13.26।।साङ्ख्येन वेदोक्तभगवत्स्वरूपज्ञानेन। कर्मिणामपि श्रुत्वा ज्ञात्वा ध्यात्वा दृष्टिः। श्रावकाणां च ज्ञात्वा ध्यात्वा। साङ्ख्यानां च ध्यात्वा। तथा च गौपवनश्रुतिः -- कर्म कृतवा च तच्छ्रुत्वा ज्ञात्वा ध्यात्वाऽनुपश्यति। श्रावकोऽपि तथा ज्ञात्वा ध्यात्वा ज्ञान्यपि पश्यति। अन्यथा तस्य दृष्टिर्हि कथञ्चिन्नोपजायते इति। अन्य इत्यशक्तानामप्युपायदर्शनार्थम्।
।।13.26।।पक्षान्तरमाह -- अन्येत्विति। अन्ये ऊहापोहकौशलहीनाः। तुशब्देन पूर्वोक्तेभ्यो विलक्षणाः एवं पूर्वोक्तप्रकारमजानन्तोऽन्येभ्य आचार्येभ्यः श्रुत्वा आत्मनो निर्विशेषब्रह्मचैतन्यरूपत्वं तदुपासनामार्गं चाधिगत्य उपासते यथोक्तप्रकारेण ध्यायन्ति तेऽपि च मृत्युं संसारं तरन्त्येव। अपिशब्दात्पूर्वश्लोकोक्तास्तरन्तीत्यत्र,किमाश्चर्यमिति गम्यते। एवशब्दात्तेषां मुख्यक्रमाभावेऽपि तरणे संशयो नास्ति। यतस्ते श्रुतिपरायणाः श्रुतिः श्रवणं तदेव परं अयनं मोक्षसाधनं येषां ते तथा। ध्याने प्रवृत्त्यतिशयान्न तेषां चित्तशुद्ध्यर्थं कर्मापेक्षा। वेदोक्ततत्त्वे दृढनिश्चयाच्चासंभावनानिवृत्त्यर्थं श्रवणमननापेक्षेति भावः। अयं च ब्रह्मसाक्षात्कारः संवादिभ्रमरूप इति केचित्। प्रमारूप इत्यन्ये। तथाहि यथा कश्चिन्मणिप्रभां मणिबुद्ध्या पश्यन् भ्रान्त एव तथापि तद्ग्रहणकाले मणिं लभतेऽतः स संवादिभ्रमः। एवं त्वंपदार्थं तत्पदार्थमणिप्रभाभूतं तत्पदार्थबुद्ध्या भावयन् व्यवहारतो भ्रान्त एव तथापि तत्साक्षात्कारकाले तदनन्यस्य तत्पदार्थस्य साक्षात्कारोऽपि संवादिभ्रमन्यायेन जायत इति। तथा च वसिष्ठःअसत्ये सत्यता साधो शाश्वती परिदृश्यते। शून्येन ध्यानयोगेन शाश्वतं प्राप्यते पदम् इति। व्यवहारतो निर्विशेषस्वरूपत्वेनासत्ये आत्मनि तत्र निर्विशेषत्वभावनं शून्यो निर्विषयोऽयं ध्यानयोगो योषित्यग्निध्यानवत् तथापि तेन शाश्वती सत्यता प्राप्यते दृश्यत इति वसिष्ठवाक्यार्थः। कल्पद्रुमाचार्यास्तुवेदान्तवाक्यजध्यानभावनाजाऽपरोक्षधीः। मूलप्रमाणदार्ढ्येन भ्रमत्वं प्रतिपद्यते इति प्राहुः।
।।13.26।।यावत् स्थावरजङ्गमात्मना सत्त्वं जायते तावत् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरितरेतरसंयोगाद् एव जायते? संयुक्तम् एव जायते? न तु इतरेतरवियुक्तम् इत्यर्थः।
।।13.26।। अतिमन्दाधिकारिणां निस्तारोपायमाह -- अन्य इति। अन्ये तु सांख्ययोगादिमार्गेणैवंभूतमुपद्रष्टृत्वादिलक्षणमात्मानं साक्षात्कर्तुमजानन्तोऽन्येभ्य आचार्येभ्य उपदेशेन श्रुत्वा उपासते ध्यायन्ति। ते च श्रद्धयोपदेशश्रवणपरायणाः सन्तो मृत्युं,संसारं शनैरतितरन्त्येव।
।।13.26।।अनिष्पन्नकर्मयोगानां मुमुक्षूणां कर्मयोगोपक्रमदशोच्यते।अन्ये तु इति तुशब्देन?एवमजानन्तः इत्यनेन च स्वविवेचनशक्त्याद्यभावात् कर्मयोगादिष्वनधिकृतत्वं द्योतितम्।अन्येभ्यः इत्यनेन उपदेष्ट्टत्वविषयेणउपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः [4।34] इति प्रागुक्ता विवक्षिता इत्यभिप्रायेणोक्तंतत्त्वदर्शिभ्यो ज्ञानिभ्य इति।तेऽपि इत्यादिना कर्मयोगोपक्रमेऽप्यसमर्था निर्दिश्यन्त इत्यभिप्रायेणाहतेऽप्यात्मेति। यद्वाऽस्य वाक्यस्य पूर्वेणान्वयःश्रुतिपरायणाश्च इत्यन्वयेन वाक्यान्तरम् तद्दर्शयति -- ये श्रुतिपरायणा इति। श्रुतिः परमयनं निष्ठा येषां ते श्रुतिपरायणाः श्रुतिपरायणशब्दः श्रुत्वोपासीनेभ्यो व्यवच्छेदकः अन्यथा श्रुत्वेत्युक्तेऽपि श्रुतिपरायणशब्दस्य नैरर्थक्यप्रसङ्गादित्यभिप्रायेणाहश्रवणमात्रनिष्ठा इति। अत्र श्रवणनिष्ठायाः पावनत्वरूपं प्राशस्त्यं विवक्षितमित्याहश्रवणनिष्ठाः पूतपापा इति।क्रमेणेत्यादिना कर्मयोगादिविधिवैयर्थ्यप्रसङ्गपरिहारः। अत्र पृथगुपायान्तरपरत्वं किं न स्यात् इत्यत्राहअपिशब्दादिति। अपिशब्देनान्येषां कैमुत्यमेषामपकृष्टपर्वनिष्ठत्वं च सूचितमिति भावः।
।।13.25 -- 13.26।।ध्यानेनेति। अन्य इति। ईदृशं च ज्ञानं प्रधानम्। कैश्चित् [आत्मा] आत्मतया उपास्यते अन्यैः प्रागुक्तेन सांख्यनयेन अपरैः कर्मणा इतरैरपि स्वयमीदृशं (?N ईदृग्) ज्ञानमजानद्भिरपि श्रवणप्रवणैः यथाश्रुतमेवोपास्यते। तेऽपि मृत्युं संसारं तरन्ति। येन केनचिदुपायेन,भगवत्तत्त्वमुपास्यमानमुत्तारयति। अतः सर्वथा एवमासीतेत्युक्तम्।
।।13.25 -- 13.26।।अन्ये साङ्ख्येन योगेन इत्यत्र कापिलतन्त्रोक्तप्रकृतिपुरुषविवेकज्ञानं साङ्ख्यमिति व्याख्यानमसत्? कापिलतन्त्रस्यावैदिकस्यात्र ग्रहणायोगात्? तस्य भगवद्दर्शने प्रधानसाधनत्वायोगाच्चेति भावेनान्यथा व्याचष्टे -- साङ्ख्येनेति। ज्ञानेन परोक्षज्ञानेन। ध्यानेनेत्यत्र ध्यानादीनां केवलानामेवेश्वरदर्शनसाधनत्वमुच्यत इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासार्थमाह -- कर्मिणामिति। दृष्टिः प्राप्येति शेषः। पाठक्रमादर्थक्रमस्य प्राधान्याद्व्युत्क्रमेणोक्तिः। कुत एतत् इत्यत आह -- तथा चेति। ध्यात्वेत्येतज्ज्ञान्यपीत्युत्तरेणापि सम्बध्यते। ननु सर्वत्र सर्वस्य संयोजने सत्येक एवायं प्रकारः स्यात्तथा चकेचिदन्ये परं इत्युक्तमयुक्तं स्यादित्यत आह -- अन्य इति। ध्यानादावुत्तरोत्तरसाधने साक्षादशक्तानामपिं तत्तदुपायज्ञानादिप्रदर्शनार्थमवस्थाभेदमाश्रित्यान्य इत्याद्युक्तमित्यर्थः।
।।13.26।।मन्दतराणां ज्ञानसाधनमाह -- अन्येत्विति। अन्ये तु मन्दतराः। तुशब्दः पूर्वश्लोकोक्तत्रिविधाधिकारिवैलक्षण्यद्योतनार्थः। एषूपायेष्वन्यतरेणाप्येवं यथोक्तमात्मानमजानन्तोऽन्येभ्यः कारुणिकेभ्य आचार्येभ्यः श्रुत्वेदमेवं चिन्तयतेत्युक्ता उपासते श्रद्दधानाः सन्तश्चिन्तयन्ति तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं संसारं श्रुतिपरायणाः स्वयं विचारासमर्था अपि श्रद्दधानतया गुरूपदेशश्रवणमात्रपरायणाः। तेऽपीत्यपिशब्दाद्ये स्वयं विचारसमर्थास्ते मृत्युमतितरन्तीति किमु वक्तव्यमित्यभिप्रायः।
।।13.26।।अन्ये तु मूर्खाः अजानन्तः अन्येभ्यो गुरुभ्यः श्रुत्वा विनैवानुभवम्? एवं पूर्वोक्तप्रकारैरुपासते उपासनां कुर्वन्ति? तेऽपि च सर्वे मृत्युमतितरन्त्येव युक्ता भवन्तीत्यर्थः। कथं इत्यत आह -- श्रुतिपरायणाः? श्रुत्युक्तप्रकारत्वात् श्रद्धया करणादित्यर्थः। अयमर्थः -- स्ववाक्यसत्यत्वाय तानपि तारयामि निर्बन्धेन? न तु स्नेहेन इदमेवैधकारापिशब्दाभ्यां व्यञ्जितम्।
।।13.26।। --,अन्ये तु एषु विकल्पेषु अन्यतरेणापि एवं यथोक्तम् आत्मानम् अजानन्तः अन्येभ्यः आचार्येभ्यः श्रुत्वा इदमेव चिन्तयत इति उक्ताः उपासते श्रद्दधानाः सन्तः चिन्तयन्ति। तेऽपि च अतितरन्त्येव अतिक्रामन्त्येव मृत्युम्? मृत्युयुक्तं संसारम् इत्येतत्। श्रुतिपरायणाः श्रुतिः श्रवणं परम् अयनं गमनं मोक्षमार्गप्रवृत्तौ परं साधनं येषां ते श्रुतिपरायणाः केवलपरोपदेशप्रमाणाः स्वयं विवेकरहिताः इत्यभिप्रायः। किमु वक्तव्यम् प्रमाणं प्रति स्वतन्त्राः विवेकिनः मृत्युम् अतितरन्ति इति अभिप्रायः।।क्षेत्रज्ञेश्वरैकत्वविषयं ज्ञानं मोक्षसाधनम् यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते इत्युक्तम्? तत् कस्मात् हेतोरिति? तद्धेतुप्रदर्शनार्थं श्लोकः आरभ्यते --,
।।13.26।।अन्ये त्विति। अतिमन्दाधिकारिणोऽन्येभ्यस्तत्त्वदर्शिभ्यो ज्ञानिभ्यः श्रुत्वाकर्मणा [3।20] इत्यादिभिरात्मानमुपासते? ततस्तेऽप्यात्मदर्शनेन मृत्युं संसारमतितरन्ति? ये श्रुतिपरायणास्त एव। अपिचशब्दोपादानात्पूर्वभेदोऽवगम्यते।