BG - 13.28

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।।13.28।।

samaṁ sarveṣhu bhūteṣhu tiṣhṭhantaṁ parameśhvaram vinaśhyatsv avinaśhyantaṁ yaḥ paśhyati sa paśhyati

  • samam - equally
  • sarveṣhu - in all
  • bhūteṣhu - beings
  • tiṣhṭhan-tam - accompanying
  • parama-īśhvaram - Supreme Soul
  • vinaśhyatsu - amongst the perishable
  • avinaśhyantam - the imperishable
  • yaḥ - who
  • paśhyati - see
  • saḥ - they
  • paśhyati - perceive

Translation

He who sees the Supreme Lord existing truly in all beings, the imperishable within the perishable, sees indeed.

Commentary

By - Swami Sivananda

13.28 समम् eally? सर्वेषु (in) all? भूतेषु in beings? तिष्ठन्तम् existing? परमेश्वरम् the Supreme Lord? विनश्यस्तु among the perishing? अविनश्यन्तम् the unperishing? यः who? पश्यति sees? सः he? पश्यति sees.Commentary He who beholds the Supreme Lord through the inner eye of wisdom? Him Who is seated in all beings from the Creator down to the unmoving objects and Who is not destroyed even when all beings are destroyed? he is said to have realised the Self.In different kinds of fire? the heat is the same. Gold is the same in different forms of ornaments. The light from many lamps is the same. So also in all living being?s the soul is the same. The soul or the Self is uniform everywhere. The Self is the same in ants? elephants? kings? beggars? saints and rogues.The Self is indestructible all living beings are perishable. It is the Supreme Lord when compared to the body? senses? mind? intellect? the Unmanifested Nature and the individual soul.Birth is the root cause of the BhavaVikaras or the modifications? viz.? change? growth? decay and death. The other changes of state manifest themselves after the birth of the body.The Supreme Lord is one and changeless as He is birthless? decayless and deathless. He is the one common consciousness in all beings. He sees rightly who sees the Supreme Lord as now described. He is a Jivanmukta. He has knowledge of the knower of the field or the immortal Self. He is the real seer or a liberated sage.The sage alone sees properly on account of knowledge. The whole world sees erroneously on account of ignorance. He who is suffering from defective vision beholds many moons. He sees erroneously. But he who sees one moon only sees in the proper manner? correctly. Even so he who beholds the one immortal indivisible Self in all beings really sees the Truth. He alone sees. He who sees many distinct selves erroneously does not really see though he sees. He is like the man who beholds many moons. (Cf.VIII.20

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।13.28।। व्याख्या --   समं सर्वेषु भूतेषु -- परमात्माको सम्पूर्ण प्राणियोंमें सम कहनेका तात्पर्य है कि सभी प्राणी विषम हैं अर्थात् स्थावरजङ्गम हैं? सात्त्विकराजसतामस हैं? आकृतिसे छोटेबड़े? लम्बेचौड़े हैं? नाना वर्णवाले हैं -- इस प्रकार तरहतरहके जितने भी प्राणी हैं? उन सब प्राणियोंमें परमात्मा समरूपसे स्थित हैं। वे परमात्मा किसीमें छोटेबड़े? कमज्यादा नहीं हैं।पहले इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने क्षेत्रज्ञके साथ अपनी एकता बताते हुए कहा था कि तू सम्पूर्ण प्राणियोंमें क्षेत्रज्ञ मेरेको समझ? उसी बातको यहाँ कहते हैं कि सम्पूर्ण प्राणियोंमें परमात्मा समरूपसे स्थित हैं।तिष्ठन्तम् -- सम्पूर्ण प्राणी उत्पत्ति? स्थिति और प्रलय -- इन तीन अवस्थाओंमें जाते हैं सर्गप्रलय? महासर्गमहाप्रलयमें जाते हैं ऊँचनीच गतियोंमें? योनियोंमें जाते हैं अर्थात् सभी प्राणी किसी भी क्षण स्थिर नहीं रहते। परन्तु परमात्मा उन सब अस्थिर प्राणियोंमें नित्यनिरन्तर एकरूपसे स्थित रहते हैं।परमेश्वरम् -- सभी प्राणी अपनेको किसीनकिसीका ईश्वर अर्थात् मालिक मानते ही रहते हैं परन्तु परमात्मा उन सभी प्राणियोंके तथा सम्पूर्ण जडचेतन संसारके परम ईश्वर हैं।विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति -- प्रतिक्षण विनाशकी तरफ जानेवाले प्राणियोंमें विनाशरहित? सदा एकरूप रहनेवाले परमात्माको जो निर्विकार देखता है? वही वास्तवमें सही देखता है। तात्पर्य है कि जो,परिवर्तनशील शरीरके साथ अपनेआपको देखता है? उसका देखना सही नहीं है किन्तु जो सदा ज्योंकेत्यों रहनेवाले परमात्माके साथ अपनेआपको अभिन्नरूपसे देखता है? उसका देखना ही सही है।पहले इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा था कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका ज्ञान ही मेरे मतमें ज्ञान है? उसी बातको यहाँ कहते हैं कि जो नष्ट होनेवाले प्राणियोंमें परमात्माको नाशरहित और सम देखता है? उसका देखना (ज्ञान) ही सही है। तात्पर्य है कि जैसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके संयोगमें क्षेत्रमें तो हरदम परिवर्तन होता है? पर क्षेत्रज्ञ ज्योंकात्यों ही रहता है? ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न और नष्ट होते हैं? पर परमात्मा सब अवस्थाओंमें समानरूपसे स्थित रहते हैं।पीछेके (छब्बीसवें) श्लोकमें भगवान्ने यह बताया कि जितने भी प्राणी पैदा होते हैं? वे सभी क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके संयोगसे ही पैदा होते हैं। परन्तु उन दोनोंमें क्षेत्र तो किसी भी क्षण स्थिर नहीं रहता और क्षेत्रज्ञ एक क्षण भी नहीं बदलता। अतः क्षेत्रज्ञसे क्षेत्रका जो निरन्तर वियोग हो रहा है? उसका अनुभव कर ले। इस (सत्ताईसवें) श्लोकमें भगवान् यह बताते हैं कि उत्पन्न और नष्ट होनेवाले सम्पूर्ण विषम प्राणियोंमें जो परमात्मा नाशरहित और समानरूपसे स्थित रहते हैं? उनके साथ अपनी एकताका अनुभव कर ले। सम्बन्ध --   अब भगवान् नष्ट होनेवाले सम्पूर्ण प्राणियोंमें अविनाशी परमात्माको देखनेका फल बताते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।13.28।। जिस अधिष्ठान पर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के परस्पर मिथ्या तादात्म्य की क्रीड़ा और परिणामत दुखपूर्ण संसार की प्रतीति होती है? वह एक परमेश्वर ही है? जो भूतमात्र में समभाव से स्थित है? जैसे समस्त तरंगों में जल होता है।नश्वर भूतों में अनश्वर केवल सतही दृष्टि से निरीक्षण करने वाले पुरुष को जगत् में निरन्तर परिवर्तन होता दिखाई देगा। वस्तुएं स्वभावत परिवर्तित होती रहती हैं और उनके परस्पर के सम्बन्ध भी। परिवर्तन होना यह वैषयिक और वैचारिक दोनों ही जगतों का स्थायी धर्म है। इस जगत् की तुलना से कहा गया है कि इन सबमें वह परमेश्वर नित्य और अविकारी अधिष्ठान है? जिसके कारण ये सब परिवर्तन जाने जाते हैं।जन्म? वृद्धि? व्याधि? क्षय और मृत्यु ये वे विकार हैं? जो प्रत्येक अनित्य वस्तु को प्राप्त होते हैं। जिसकी उत्पत्ति हुई हो? उसे ही आगे के विकारों से भी गुजरना पड़ेगा। यहाँ परमेश्वर को अविनाशी कहकर उसके पूर्व के विकारों का भी अभाव सूचित किया गया है। यह अविनाशी चैतन्य ही नाश का प्रकाशक और जगत् का आधार है? जैसे रूपान्तरित होने वाले आभूषणों का आधार स्वर्ण है।वह पुरुष जो इस सम और अविनाशी परमेश्वर को समस्त विषम और विनाशी भूतों में पहचानता है? वही पुरुष वास्तव में उसे देखता है जिसे देखना चाहिए। यहाँ देखने से तात्पर्य आत्मानुभव से है।भौतिक जगत् की वस्तुएं इन्द्रियगोचर होती हैं? जब कि भावनाओं और विचारों का ज्ञान क्रमश मन और बुद्धि से होता है। इसी प्रकार आत्मबोध भी आध्यात्मिक ज्ञानचक्षु से होता है? चर्मचक्षु से नहीं। जैसे हमारे नेत्र विचारों को नहीं देख सकते वैसे ही मन और बुद्धि आत्मा को नहीं देख सकते। स्थूल के द्वारा सूक्ष्म का दर्शन नहीं हो सकता। सूक्ष्मतम आत्मा समस्त उपाधियों से अतीत है।जो (इस समतत्त्व को) देखता है? वही (वास्तव में) देखता है यह कथन वेदान्त की विशेष वाक्यशैली है? जो अत्यन्त प्रभावपूर्ण है। सभी लोग देखते हैं? परन्तु पारमार्थिक सत्य को नहीं। उनके इस विपरीत दर्शन से ही उनके प्रमाणों (ज्ञान के कारणों) में दोष का अस्तित्व सिद्ध होता है। विभ्रम और वस्तु का अन्यथा दर्शन? मिथ्या कल्पनाएं और विक्षेप ये सब वस्तु के यथार्थ स्वरूप को आच्छादित कर देते हैं। इसलिए? योगेश्वर श्रीकृष्ण विशेष बल देकर कहते हैं कि जो पुरुष इस सम सत्य को देखता है वही वास्तव में देखता है। शेष लोग तो भ्रान्ति में पड़े रहते हैं।अब यथोक्त सम्यक् दर्शन श्रेष्ठ फल को दर्शाकर उसकी स्तुति करते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।13.28।।प्रकृतसम्यग्ज्ञानेन किमित्यपेक्षायां तत्फलोक्त्या तस्यैव स्तुत्या तद्धेतौ पुरुषं प्रवर्तयितुं श्लोकान्तरमित्याह -- यथोक्तस्येति। यस्मादित्यस्य ततःशब्देन संबन्धः। सर्वभूतेषु तुल्यतयावस्थितं पूर्वोक्तलक्षणमीश्वरं निर्विशेषं पश्यन्नात्मानमात्मना यस्मान्न हिनस्ति ततस्तस्मान्मोक्षाख्यां परां गतिं यातीति योजना। तत्र पादत्रयेण ज्ञानादज्ञानध्वस्त्या ध्वस्तिरनर्थस्योक्ता। अज्ञानमिथ्याज्ञानयोरावरणयोर्नाशे सर्वोत्कृष्टां,गतिं परमपुरुषार्थं परमानन्दमनुभवति विद्वानिति चतुर्थपादार्थः। न हिनस्त्यात्मनात्मानमिति यथाश्रुतमादाय चोदयति -- नन्विति। न पृथिव्यामिति प्राप्तिद्वारा निषेधवन्नान्तरिक्षे न दिवीति प्राप्त्यभावाच्चायं निषेधो मुख्यो नेष्यते तथेहापि प्राप्तिं विना निषेधो न युक्तिमानित्याह -- यथेति। अज्ञानामात्मनैवात्महिंसासंभवाद्विदुषां तद्भावोक्तिर्युक्तेति समाधत्ते -- नैष दोष इति। संग्रहवाक्यं विवृणोति -- सर्वो हीति। अनात्मशब्दो देहादिविषयः। अविदुषामारोपितात्महन्तृत्वं निगमयति -- इत्यात्महेति। तथापि पारमार्थिकस्यात्मनो हननाभावान्न तेषां सर्वेषामात्महन्तृत्वमित्याशङ्क्याह -- यस्त्विति। उक्तरीत्या सर्वेषामविदुषामात्महन्तृत्वं सिद्धमित्युपसंहरति -- सर्व इति। आत्मनैवात्महननमविदुषां दृष्टं तदिह विद्वद्विषये शक्यं निषेद्धुमित्याह -- यस्त्वितर इति। उभयथापीति। आरोपानारोपाभ्यामित्यर्थः। ज्ञानादनर्थभ्रमभ्रंशे पूर्वोक्तपरमानन्दप्राप्त्या परितृप्तत्वं युक्तमित्याह -- तत इति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।13.28।।न स भूयोभिजायत इत्यनेन सभ्यग्दर्शनफलमविद्यादिसंसारबीजनिवृत्तिद्वारेण ज्माभाव उक्तो जन्मकारणं चाविद्यानिमित्तकक्षेत्रक्षेत्रसंयोग उक्तः। अतः सर्वथापि सर्वानर्थमूलभूतस्याज्ञानस्य निवर्तकं सभ्यग्दर्शनमुक्तमप्यतिसूक्ष्मार्थस्य पुनः पुनर्वचनेनाधिकारिभेदानुग्रहं मत्वा शब्दान्तरेण पुनराह -- सममिति। सर्वेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु भूतेषु भवनधर्मकेषु प्राणिषु परस्परमत्यन्तविषमेष्वनेकेषु समं तिष्ठन्तं निर्विशेषमेवं स्थितिं कुर्वन्तं परमेश्वरं देहेन्द्रियाद्यात्मानमपेक्ष्य परमश्चासावीशनशीलश्च तं विनश्यत्सु सर्वेषां भावविकारणां जन्मोत्तरभावित्वात् नाशेन षट्भावविकारा गृह्यन्ते। सर्वभाविकारवत्सु अविनश्यन्तं सर्वविकाररहितं। तथाचसर्वभूतेब्योऽत्यन्तविलक्षणं प्रत्यगभिन्नं परमेश्वरं यः पश्यति स एव पश्यति नतु विपरीतदर्शी। यताऽनेकचन्द्रदर्श्यपेक्षया एकचन्द्रदर्शी विशिष्यते तथा विभक्तानेकात्मविपरीतदर्शिभ्यो यथोक्तात्मदर्श्यपीत्यर्थः।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।13.28।।तन्नाशोपायमाह -- सममिति। सममपरिणामिनं कूटस्थं नित्यं सर्वेषु भूतेषु देहाद्याकारेण परिणतेषु तिष्ठन्तम्। एतेन देह एव तदधिगमस्थानमित्युक्तम्। परमेश्वरमन्तर्यामिणं सर्गस्थित्यन्तकर्तारम्। अतएवान्तर्मुखदृष्ट्या विनश्यत्सु तेषु भूतेषु रज्जूरगादिवत्कल्पितत्वाददर्शनं गच्छत्सु विभुत्वादात्मत्वान्नित्यदृग्रूपत्वाच्चाविनश्यन्तं सर्वास्वप्यवस्थास्वदर्शनमगच्छन्तं यः पश्यति स एव पश्यति अन्येऽन्धा इत्यर्थः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।13.28।।सर्वत्र देवादिशरीरेषु तत्तच्छेषित्वेन आधारतया नियन्तृतया च स्थितम् ईश्वरम् आत्मानं देवादिविषमाकारवियुक्तं ज्ञानैकाकारतया समं पश्यन् आत्मना मनसा स्वम् आत्मानं न हिनस्ति रक्षति? संसारात् मोचयति। ततः तस्माद् ज्ञातृतया सर्वत्र समानाकारदर्शनात् परां गतिं याति।गम्यत इति गतिः? परं गन्तव्यं यथावद् अवस्थितम् आत्मानं प्राप्नोति। देवाद्याकारयुक्ततया सर्वत्र विषमम् आत्मानं पश्यन् आत्मानं हिनस्ति? भवजलधिमध्ये प्रक्षिपति।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।13.28।।अविवेककृतं संसारोद्भवमुक्त्वा तन्निवृत्तये विविक्तात्मविषयं सम्यग्दर्शनमाह -- सममिति। स्थावरजङ्गमात्मकेषु भूतेषु निर्विशेषं सद्रूपेण समं यथा भवत्येवं तिष्ठन्तं परमात्मानं यः पश्यति? अतएव तेषु विनश्यत्स्वप्यविनश्यन्तं यः पश्यति स एव सम्यवपश्यति नान्यः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।13.28।।अथ समत्वविषमत्वनियन्तृत्वनियाम्यत्वनित्यत्वानित्यत्वैर्द्वयोर्विवेकानुसन्धानमभिधाय तदेव तत्त्वाध्यवसायरूपत्वेन परमपुरुषार्थहेतुतया प्रशंसतिसममिति श्लोकेन।क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् [13।27] इत्यत्रशङ्करेणोक्तम् आकाशवन्निरवयवतया अवयवसंश्लेषलक्षणसंयोगासम्भवात् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरितरेतरकार्यकारणभावानभ्युपगमेन समवायासम्भवाच्च विषयविषयिणोस्तयोरितरेतरधर्माध्यासलक्षणः संयोगः तन्निवर्तनं च सम्यग्दर्शनंसमं सर्वेषु इत्यादिनोच्यते इति तदेतद्बालिशभाषितम्? निरवयवस्यापि संयोगसम्भवात्युतसिद्धयोः सम्बन्धः संयोगः इति हि तं लक्षयन्ति स च निरवयवयोः सावयवयोर्निरवयवसावयवयोश्च सम्भवति। तन्मते च अध्यासानुपपत्त्यादयः प्रपञ्चिताः।सर्वेषु भूतेषु इति देवमनुष्यादिरूपवैषम्यं विवक्षितम्। यथा मृण्मयहिरण्मयादिघटोपात्तस्यापि गङ्गोदकस्य तत्रतत्र स्थितिमात्रमेव? न पुनर्मृण्मयत्वादिसिद्धिः तथाऽऽत्मनोऽपि देवमनुष्यादिदेहेषु स्थितिमात्रमेव नतु रुमाप्रतिक्षिप्तकाष्ठादिलवणत्वन्यायेन स्वरूपेण देवमनुष्यत्वादिवैषम्याश्रयत्वमिति।तिष्ठन्तम् इत्यस्याभिप्रायमाहदेवादिविषमाकाराद्वियुक्तमिति। यद्वासमम् इति वचनादर्थाक्षिप्तं वैषम्यनिवृत्तिकथनमिदम्तिष्ठन्तम् इति तु परत्रान्वेतव्यम्। अतो हि भाष्यतेपरमेश्वरत्वेन स्थितमिति।अनीश्वरस्याल्पशक्तेः क्षेत्रज्ञस्य कथं परमेश्वरत्वं इत्यत्र पूर्ववत्सङ्कोचमाहतत्रतत्र तत्तद्देहेन्द्रियमनांसि प्रतीति। देहात्माभिमानिनो हि देहनाशादात्मनाशं मन्यन्ते नत्वप्रतीतस्य परमात्मनो नाशम् तस्मात्अविनश्यन्तम् इति प्रसक्तविनाशप्रतिषेधार्थपदसमानाधिकरणः परमेश्वरशब्दः प्रक्रान्तविषय इति भावः। समशब्देन न बाह्यदेवत्वादिवैषम्यनिवृत्तिमात्रं विवक्षितम् अपितु गवामनेकवर्णानां क्षीरस्य त्वेकवर्णता। क्षीरवत्पश्यति ज्ञानं लिङ्गिनस्तु गवां यथा [ब्र.बिं.उ.10त्रि.ता.उ.5।19] इति श्रुत्यनुसारेणात्मनां स्वरूपेषु मिथोवैषम्यनिवृत्तिरपि। तच्च साम्यं कथम्भूतमिति शङ्कायाम्एतद्यो वेत्ति [13।2] इति प्रक्रमानुसारेणाहज्ञातृत्वेन समानाकारमिति। ज्ञानत्वादेरप्युपलक्षणमेतत्।येन सर्वमिदं ततम् [18।46] इत्यादिना प्रपञ्चितानविनाशित्वहेतून् स्मारयतिविनाशानर्हस्वभावेनेति।यः पश्यति स पश्यति इत्यनयोरनतिशयितार्थतया नैरर्थक्यं उद्देश्योपादेयभङ्गश्चेत्यत्राहस आत्मानं यथावदवस्थितमिति। इतरे तु पीतशङ्खादिदर्शिवद्विपरीतदर्शितया पश्यन्तोऽपि न पश्यन्तीति भावः।स पश्यति इति प्रशंसाऽत्र परमपुरुषार्थलाभादिनिबन्धना। व्यतिरेकनिन्दा चात्र फलितेत्यभिप्रायेणाहयस्त्विति।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।13.28।।अत एव -- ।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।13.28।।एवं संसारमविद्यात्मकमुक्त्वा तन्निवर्तकविद्याकथनाय य एवं वेत्ति पुरुषमिति प्रागुक्तं विवृणोति -- समं सर्वेष्विति। सर्वेषु भूतेषु भवनधर्मकेषु स्थावरजङ्गमात्मकेषु प्राणिषु अनेकविधजन्मादिपरिणामशीलतया गुणप्रधानभावापत्त्या च विषमेषु अतएव चञ्चलेषु। प्रतिक्षणपरिणामिनो हि भावा नापरिणम्य क्षणमपि स्थातुमीशते। अतएव परस्परबाध्यबाधकभावापन्नेषु। एवमपि विनश्यत्सु दृष्टनष्टस्वभावेषु मायागन्धर्वनगरादिप्रायेषु समं सर्वत्रैकरूपं प्रतिदेहमेकं जन्मादिपरिणामशून्यतया च तिष्ठन्तमपरिणममानं परमेश्वरं सर्वजडवर्गसत्तास्फूर्तिप्रदत्वेन बाध्यबाधकभावशून्यं सर्वदोषानास्कन्दितं अविनश्यन्तं दृष्टनष्टप्रायसर्वद्वैतबाधेऽप्यबाधितं एवं सर्वप्रकारेण जडप्रपञ्चविलक्षणमात्मानं विवेकेन यः शास्त्रचक्षुषा पश्यति,स एव पश्यत्यात्मानं जाग्रद्बोधेन स्वप्नभ्रमं बाधमान इव। अज्ञस्तु स्वप्नदर्शीव भ्रान्त्या विपरीतं पश्यन्नपश्यत्येव।,अदर्शनात्मकत्वाद्भ्रमस्य। नहि रज्जुं सर्पतया पश्यन् पश्यतीति व्यपदिश्यते रज्ज्वदर्शनात्मकत्वात्सर्पदर्शनस्य। एवंभूतान्यानुपरक्तशुद्धात्मदर्शनात्तददर्शनात्मिकाया अविद्याया निवृत्तिस्ततस्तत्कार्यसंसारनिवृत्तिरित्यभिप्रायः। अत्रात्मानमिति विशेष्यलाभो विशेषणमर्यादया परमेश्वरमित्येव वा। विशेष्यपदं विषमत्वचञ्चलत्वबाध्यबाधकरूपत्वलक्षणं जडगतं वैधर्म्यं समत्वतिष्ठत्त्वपरमेश्वरत्वरूपात्मविशेषणवशादर्थात्प्राप्तम्। अन्यत्कण्ठोक्तमिति विवेकः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।13.28।।एतदेव फलरूपत्वेन विशदयति -- सममिति। सर्वेषु प्रपञ्चान्तःपातिस्थावरजङ्गमात्मकेषु भूतेषु लीलया अनेकविधरसभोगार्थं तिष्ठन्तं रसानुभवार्थं नीचोच्चादिधर्मरहितं समं? तेषु विनश्यत्सु च अविनश्यन्तं तादृग्लीलावबोधरहितत्वाद्विनाशं प्राप्तेषु अन्यथाभावेन क्रोधादिराहित्येन तथैव लीलानुभवं कुर्वन्तं यः पश्यति? स परमेश्वरं पश्यति। अत एवंदर्शनाभावे सापराधो भवत्येव।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।13.28।। --,समं निर्विशेषं तिष्ठन्तं स्थितिं कुर्वन्तम् क्व सर्वेषु समस्तेषु भूतेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु प्राणिषु कम् परमेश्वरं देहेन्द्रियमनोबुद्ध्यव्यक्तात्मनः अपेक्ष्य परमेश्वरः? तं सर्वेषु भूतेषु समं तिष्ठन्तम्। तानि विशिनष्टि विनश्यत्सु इति? तं च परमेश्वरम् अविनश्यन्तम् इति? भूतानां परमेश्वरस्य च अत्यन्तवैलक्षण्यप्रदर्शनार्थम्। कथम् सर्वेषां हि भावविकाराणां जनिलक्षणः भावविकारो मूलम् जन्मोत्तरकालभाविनः अन्ये सर्वे भावविकाराः विनाशान्ताः विनाशात् परो न कश्चित् अस्ति भावविकारः? भावाभावात्। सति हि धर्मिणि धर्माः भवन्ति। अतः अन्त्यभावविकाराभावानुवादेन पूर्वभाविनः सर्वे भावविकाराः प्रतिषिद्धाः भवन्ति सह कार्यैः। तस्मात् सर्वभूतैः वैलक्षण्यम् अत्यन्तमेव परमेश्वरस्य सिद्धम्? निर्विशेषत्वम् एकत्वं च। यः एवं यथोक्तं परमेश्वरं पश्यति? सः पश्यति।।ननु सर्वोऽपि लोकः पश्यति? किं विशेषणेन इति। सत्यं पश्यति किं तु विपरीतं पश्यति। अतः विशिनष्टि -- स एव पश्यतीति। यथा तिमिरदृष्टिः अनेकं चन्द्रं पश्यति? तमपेक्ष्य एकचन्द्रदर्शी विशिष्यते -- स एव पश्यतीति तथा इहापि एकम् अविभक्तं यथोक्तं आत्मानं यः पश्यति? सः विभक्तानेकात्मविपरीतदर्शिभ्यः विशिष्यते -- स एव पश्यतीति। इतरे पश्यन्तोऽपि न पश्यन्ति? विपरीतदर्शित्वात् अनेकचन्द्रदर्शिवत् इत्यर्थः।।यथोक्तस्य सम्यग्दर्शनस्य फलवचनेन स्तुतिः कर्तव्या इति श्लोकः आरभ्यते --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।13.28।।अथ पुनरपि सुग्रहणायात्मदर्शनमाह -- तत्रात्मा त्रिविधोऽन्तर्यामी पुरुषोऽव्यक्तश्च। तत्र प्रथमस्य दर्शने फलमाह -- द्वाभ्यां सममिति। तत्र यः समं तिष्ठन्तं सर्वभूतेषु परमात्मानमन्तर्यामिणमीश्वरं पश्यति स सम्यग्दर्शनः? विनश्यदवस्थेषु सत्प्रकृतिकार्यशरीरेषु जातिवदविनश्यन्तं ज्ञातृत्वेन समानाकारं यः पश्यति स पश्यति।