अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।13.32।।
anāditvān nirguṇatvāt paramātmāyam avyayaḥ śharīra-stho ’pi kaunteya na karoti na lipyate
Being without beginning, devoid of any qualities, the Supreme Self, imperishable, though dwelling in the body, O Arjuna, neither acts nor is tainted.
13.32 अनादित्वात् being without beginning? निर्गुणत्वात् being devoid of alities? परमात्मा the Supreme Self? अयम् this? अव्ययः imperishable? शरीरस्थः dwelling in this body? अपि though? कौन्तेय O son of Kunti (Arjuna)? न not करोति acts? न not? लिप्यते is tainted.Commentary The Supreme Self is beyond Nature. Therefore It is without alities. It is Nirguna. The activity in Nature is really due to its own alities which inhere in it. The Supreme Self existed before the body came into being and will continue to be after its dissolution. It is eternally the same and imperishable.Avyaya That which is free from the changes of birth and death or appearance and destruction. That which has a beginning has birth. After the object is born it is subject to the changes of being (growth? decay? etc.). As the Self is birthless? It is free from the changes of state (existence? birth? growth? change? decay and death). As the Self is free from all sorts of functions? It is Avyaya. Even if the reflection of the sun in the water moves? the sun does not move a bit. Even so the Supreme Self is not touched by the fruits of action as It is not the doer? as It is without the alities of Nature? or limbs? indivisible? devoid of parts? without action? beginningless and unattached and causeless.This Supreme Self is free from the three kinds of differences? viz.? Sajatiyabheda? Vijatiyabheda and Svagatabheda. A mango tree is different from a fig tree. This is Sajatiyabheda. A mango tree is different from a stone. This is Vijatiyabheda. In the same mango tree there is difference between leaves? flowers and fruits. This is Svagatabheda. But the Supreme Self is one without a second. There is no other Brahman Which is eal to It. Therefore? there cannot be Sajatiyabheda in Brahman. This world is a mere appearance. It is a mere figment of our imagination. It is superimposed on the Absolute on account of ignorance. An imaginary object has no independent existence apart from its substratum? just as the snake in the rope has no independent existence apart from its substratum? the rope. Therefore? there cannot be Vijatiyabheda in Brahman. Brahman is indivisible? partless? without alities? without form and without any limbs. Therefore there cannot be Svagatabheda in Brahman.Brahman or the Supreme Self is beginningless. It is without a cause. It is selfexistent. It is without parts. It is without alities. Therefore Brahman is imperishable. As It is unattached? It is neither the doer nor the enjoyer. If Brahman also is the doer and enjoyer. It is no longer Brahman. It is in no way better than ourselves. This cannot be. Agency and enjoyment are attributed to the ego on account of ignorance. It is Nature that acts. (Cf.V.14XV.9)
।।13.32।। व्याख्या -- अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः -- इसी अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें जिसको अनादि कहा है? उसीको यहाँ भी अनादित्वात् पदसे अनादि कहा है अर्थात् यह पुरुष आदि(आरम्भ) से रहित है। अब प्रश्न होता है कि वहाँ तो प्रकृतिको भी अनादि कहा है? इसलिये प्रकृति और पुरुष -- दोनोंमें,क्या फरक रहा इसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं -- निर्गुणत्वात् अर्थात् यह पुरुष गुणोंसे रहित है। प्रकृति अनादि तो है? पर वह गुणोंसे रहित नहीं है? प्रत्युत गुणों और विकारोंवाली है। उससे सात्त्विक? राजस और तामस -- ये तीनों गुण तथा विकार पैदा होते हैं। परन्तु पुरुष इन तीनों गुणोँ और विकारोंसे सर्वथा रहित (निर्गुण और निर्विकार) है। ऐसा यह पुरुष साक्षात् अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है अर्थात् यह पुरुष विनाशरहित परम शुद्ध आत्मा है।शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते -- यह पुरुष शरीरमें रहता हुआ भी न कुछ करता है और न किसी कर्मसे लिप्त ही होता है। तात्पर्य है कि इस पुरुष(स्वयं) ने न तो पहले किसी भी अवस्थामें कुछ किया है? न वर्तमानमें कुछ करता है और न आगे ही कुछ कर सकता है अर्थात् यह पुरुष सदासे ही प्रकृतिसे निर्लिप्त? असङ्ग है तथा गुणोंसे रहित और अविनाशी है। इसमें कर्तृत्व और भोक्तृत्व है ही नहीं।यहाँ शरीरस्थोऽपि कहनेका तात्पर्य है कि यह पुरुष जिस समय अपनेको शरीरमें स्थित मानकर अपनेको कार्यका कर्ता और सुखदुःखका भोक्ता मानता है? उस समय भी वास्तवमें यह तटस्थ? प्रकाशमात्र ही रहता है। सुखदुःखका भान इसीसे होता है अतः इसको प्रकाशक कह सकते हैं? पर इसमें प्रकाशकधर्म नहीं है।यहाँ अपि पदसे ऐसा मालूम होता है कि अनादिकालसे अपनेको शरीरमें स्थित माननेवाला हरेक (चींटीसे ब्रह्मापर्यन्त) प्राणी स्वरूपसे सदा ही निर्लिप्त? असङ्ग है। उसकी शरीरके साथ एकता कभी हुई ही नहीं क्योंकि शरीर तो प्रकृतिका कार्य होनेसे सदा प्रकृतिमें ही स्थित रहता है और स्वयं परमात्माका अंश होनेसे सदा परमात्मामें ही स्थित रहता है। स्वयं परमात्मासे कभी अलग हो सकता ही नहीं। शरीरके साथ एकात्मता माननेपर भी? शरीरके साथ कितना ही घुलमिल जानेपर भी? शरीरको ही अपना स्वरूप माननेपर भी उसकी निर्लिप्तता कभी नष्ट नहीं होती? वह स्वरूपसे सदा ही निर्लिप्त रहता है। अपनी निर्लिप्तताका अनुभव न होनेपर भी उसके स्वरूपमें कुछ भी विकृति नहीं होती। अतः उसने अपने स्वरूपसे न कभी कुछ किया है और न करता ही है तथा वह स्वयं न कभी लिप्त हुआ है और न लिप्त होता ही है।यद्यपि पुरुष अपनेको शरीरमें स्थित माननेसे ही कर्ता और भोक्ता बनता है? तथापि इक्कीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि प्रकृतिमें स्थित पुरुष ही भोक्ता बनता है और यहाँ कहते हैं कि शरीर में स्थित होनेपर भी पुरुष कर्ताभोक्ता नहीं है। ऐसा कहनेका तात्पर्य यह है कि प्रकृति और उसका कार्य शरीर -- दोनों एक ही हैं। अतः पुरुषको चाहे प्रकृतिमें स्थित कहो? चाहे शरीरमें स्थित कहो? एक ही बात है। एक शरीरके साथ सम्बन्ध होनेसे मात्र प्रकृतिके साथ? मात्र शरीरोंके साथ सम्बन्ध हो जाता है। वास्तवमें पुरुषका सम्बन्ध न तो व्यष्टि शरीरके साथ है और न समष्टि प्रकृतिके साथ ही है। अपना सम्बन्ध शरीरके साथ माननेसे ही वह अपनेको कर्ताभोक्ता मान लेता है। वास्तवमें वह न कर्ता है और न भोक्ता है। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें कहा गया कि वह पुरुष न करता है और न लिप्त होता है? तो अब प्रश्न होता है कि वह कैसे लिप्त नहीं होता और कैसे नहीं करता इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं।
।।13.32।। यद्यपि चैतन्य आत्मा के सान्निध्य मात्र से देहेन्द्रियादि उपाधियाँ स्वक्रियाओं में प्रवृत्त होती हैं? तथापि आत्मा सदा अकर्त्ता ही रहता है। शास्त्रों के इस प्रतिपादन को समझना वेदान्त के प्रारम्भिक विद्यार्थियों को कठिन प्रतीत होता है। इसलिए? उपनिषदों के ऋषियों ने विशेष परिश्रमपूर्वक हमें यह समझाने का प्रयत्न किया है कि किस प्रकार एकमेव अद्वितीय? परिपूर्ण सर्वव्यापी परमात्मा अकर्ता है। पहले भीगीता में कहा जा चुका है कि आत्मा क्षेत्र के साथ तादात्म्य करके जीवरूपक्षेत्रज्ञ बन जाता है? जो कर्मों का कर्ता और फलों का भोक्ता है।शरीरों में स्थित होने पर भी आत्मा के दोषमुक्तत्व को सिद्ध करने के लिए यहाँ कुछ हेतु दिये गये हैं। जब एक न्यायाधीश श्रीगोपाल राव किसी हत्यारे अपराधी को मृत्युदण्ड सुनाते हैं? तब उसकी मृत्यु का पातक न्यायाधीश को प्रभावित नहीं कर सकता। श्रीगोपाल राव न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर आसीन होकर निर्णय देते हैं? न कि अपनी व्यक्तिगत क्षमता में।अनादि जिस वस्तु का कारण होता है? उसी का प्रारम्भ भी हो सकता है। प्रारम्भ रहित का अर्थ कारणरहित होगा। परम सत्य वह है जिससे सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है। अत परमात्मा कारण रहित कारण होने से अनादि कहा गया है। इसी कारण से वह अव्यय? अविनाशी भी है।निर्गुण गुणवान् वस्तु ही विकारी होती है। हमने देखा कि जगत्कारण परमात्मा अविकारी है? अत उसका निर्गुण होना भी आवश्यक है।यह परमात्मा अव्यय है जगत्कारण? अनादि और निर्गुण होने से परमात्मा का अव्ययत्व सिद्ध हो जाता है।यह परमात्मा अपने सान्निध्य मात्र से जड़ उपाधियों को चेतनवत् व्यवहार करने में सक्षम करता है? परन्तु वह स्वयं किसी प्रकार की क्रिया नहीं,करता।उपर्युक्त सिद्धांत वेदान्त के कुछ सूक्ष्म सिद्धांतों में से एक है? और दुर्बल मति के विद्यार्थियों को प्राय इसे समझने में कठिनाई अनुभव होती है। यद्यपि यह वेदान्त साहित्य का कठिन भाग माना गया है? तथापि प्रयत्नपूर्वक इस पर मनन करने से सन्देह और कठिनाई दूर हो सकती हैं।उपाधियों के सभी निषिद्ध और आसुरी कर्मों में भी आत्मा के अकर्तृत्वऔर निर्गुणत्व को दर्शाने के लिए? भगवान् कुछ दृष्टान्त देते हैं
।।13.32।।सूक्ष्मभावात् अप्रतिहतस्वभावत्वादित्यर्थः। न संबध्यते पङ्कादिभिरिति शेषः।
।।13.32।।नन्वेकस्यात्मनः सर्वत्र समवस्थितत्वेन देहादिगतकर्तृत्वादिमत्त्वं प्राप्तं पवित्रस्यापि गङ्गाजलादेः अपवित्रप्राण्युतरान्तरदोषेण दोषवक्त्ववदिति तत्राह -- अनादित्वादीति। अयं परमात्माव्ययोऽपक्षयरहितः कूटस्थ इत्यर्थः। तत्र,व्ययस्त्रिविधः स्वभावतो वा? अवयवद्वारको वा गुणाद्वारको वा। स्वतस्तु परब्रह्मणो न संभवतीति कथयितुं परमात्मेत्युक्तम्। द्वितीयासंभवे हेतुमाह -- अनादित्वादिति। आदिः कारणं नास्ति तदनादि। घटादेरादिमत्त्वेन सावयवत्वाद्य्वयो दृष्टः? आत्मनस्तवनादित्वेन निरवयवत्वादवयवद्वारको व्ययो न संभवतीत्यर्थः। तृतीयं निराकरोति -- निर्गुणत्वादिति। तथा सगुणो गुणव्ययाद्य्वेति अयंतु निर्गुणत्वान्न व्येति। गुणद्वारकोऽस्य व्ययो न संभवतीत्यर्थः। यत एवमतः शरीरस्थोपि शरीरेष्वात्मन उपलब्धिधर्मवतीति शरीरस्थ उच्यते। सर्वगतत्वेन सर्वात्मत्वेन च देहादौ स्थितोऽपि स्वतो देहात्मना वा न करोति कूटस्थात्वाद्देहादेश्च तस्मिन्कल्पितत्वादित्यर्थः। कर्तृत्वाभावादेव कर्मफलेन न लिप्यते। कुन्त्युत्पन्नशरीरस्थस्यापि तव कर्तृत्वं लेपश्च नास्तीति संबोधनाशयः। ननु एवं यः शरीरस्थः करोति लिप्यते च स कः किमुक्तलक्षणादकर्तुरलिप्तादात्मनोऽन्यः किंचाऽनन्यः। नाद्यः तत्त्वमसि? क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धीति क्षेत्रज्ञेश्वरैकत्वप्रतिपादनानुपप्तिप्रसङ्गात्। द्वितीये परमात्मनः कर्तत्वाद्यभावेन प्रतीयमानस्य कर्तृत्वादेरधिकरणं वाच्यम्। तथाच सर्वथेदं दुरुपपादमितिचेन्न। स्वभावस्तु प्रवर्तत इत्यविद्यामात्रस्वभावो हि करोति लिप्यत इति व्यवहारदशायामाविद्यकस्य कर्तृत्वादेर्भगवतैव निरुपितत्वात्। एवंच प्रत्यगभिन्ने ब्रह्मण्याविधकं कर्तृत्वादि न पारमार्थिकमिति भगवता प्रोक्ते औपनिषदे परमार्थसांख्यदर्शने दुर्विज्ञयत्वात् सांख्यवैसेषिकादिभिभ्रान्तिजन्यय पूर्वोक्तशङ्क्या परित्यक्ते स्थितानां ज्ञाननिष्ठानामविद्यापरिकल्पितकर्तृत्वाद्यपगमेन मोक्षप्राप्तिः नत्वन्यस्मिन् शुक्तिरुप्यकल्पे सांख्यादिपरिकल्पितते निष्टावतामिति।
।।13.32।।न च व्ययादिस्तस्येत्याह -- अनादित्वादिति। सादि हि प्रायो व्ययि गुणात्मकं च। न करोतीत्यादेरर्थ उक्तः पुरस्तात्। न लौकिकक्रियादिस्तस्य। अतोन प्रज्ञं इत्यादिवदिति।
।।13.32।।नन्वात्मनो विभुत्वेन रूपेण कर्तृत्वं मास्वीकारि देहाद्यवच्छिन्नेन तु रूपेण तद्वक्तव्यमन्यथानुभवविरोधादित्याशङ्क्याह -- अनादित्वादिति। अयं सर्वेषां प्राणिनां नित्यापरोक्षः परमो देहादिभ्योऽपरमेभ्य आत्मभ्योऽन्यः कोशपञ्चकातीत आत्मा परमात्मा। अव्ययः न व्येति परिच्छिद्यते देशतः कालतो वस्तुतश्चेत्यव्ययः। अव्ययत्वे हेतुः -- अनादित्वादिति। यद्धि आदिमदाकाशादि तद्व्येति न त्वयं व्येति अनादित्वात्। नन्वनादिभावस्यानन्त्यनियमेनात्मनः कालतः परिच्छेदो मास्तु। तथा देशतः परिच्छिन्नस्य नाशावश्यंभावादनादित्वायोगाच्च देशतोऽपि परिच्छेदो ब्रह्मणो मास्तु। ननु परमाणुवद्भविष्यतीतिचेन्न। दशदिगवच्छेद्यप्रदेशभेदवतो द्रव्यस्य निरवयवत्वरूपाणुत्वासिद्धेः। नहि परमाणोः पूर्वदिगवच्छिन्नो भागः पश्चिमया व्यवच्छेत्तुं शक्यते अनुभवविरोधात्। देशतः परिच्छेदाभावादेव सजातीयविजातीयवस्तुसद्भावकृतः,परिच्छेदोऽपि मास्तु तथापि विचित्रशक्तियुक्तस्याभिनवप्रपञ्चरचनापटीयसः परस्य सर्वेश्वरत्वसर्वज्ञत्वादिगुणयुक्तस्य स्वगतभेदोऽवश्यंभावी। स्वशक्तिमायावच्छिन्नेन रूपेण जगत्कर्तृत्वं देहावच्छेदेनाग्रिहोत्रादिकर्तृत्वं चावश्यं वक्तव्यमित्याशङ्क्याह -- निर्गुणत्वादिति। यो हि गुणवानाकाशादिः सं संयोगं विभागं वोपाधिं प्राप्य स्वगुणं शब्दमाविष्करोति न तु स्वस्मिन्नसन्तं स्पर्शं केनचिदप्युपाधिना दर्शयितुमीष्टे। एवं आत्मा सर्वगुणहीनः सत्यप्यवच्छेदलाभे कर्तृत्वादिकं गुणमाविष्कर्तुं न समर्थ इति। फलितमाह -- शरीरस्थोऽपीति। स्पष्टार्थमेतत्।
।।13.32।।यथा आकाशं सर्वगतम् अपि सर्वैः वस्तुभिः संयुक्तम् अपि सौक्ष्म्यात् सर्ववस्तुस्वभावैः न लिप्यते? तथा आत्मा अतिसौक्ष्म्यात् सर्वत्र देवमनुष्यादौ देहे अवस्थितः अति तत्तद्देहस्वमावैः न लिप्यते।
।।13.32।। तथापि परमेश्वरस्य संसारावस्थायां देहकर्मसंबन्धनिमित्तैः कर्मभिस्तत्फलैश्च सुखदुःखादिवैषम्यं दुष्परिहरमिति कुतः समदर्शनं तत्राह -- अनादित्वादिति। यदुत्पत्तिमत्तदेव हि व्येति विनाशमेति। यच्च गुणवद्वस्तु तस्य गुणनाशे व्ययो भवति। अयं तु परमात्मा अनादिर्निर्गुणश्चातोऽव्ययः। अविकारीत्यर्थः। तस्माच्छरीरे स्थितोऽपि किंचिन्न करोति? नच कर्मफलैर्लिप्यत इति।
।।13.32।।आत्मनो नित्यत्वानित्यत्वापरिणामित्वादिभिरुक्तं वैधर्म्यं सहेतुकं स्थिरीकरोति -- अनादित्वादिति श्लोकेन। आपेक्षिकपरमात्मत्वविषयेणअयं परमात्मा इत्यनेनाभिप्रेतमाह -- देहान्निष्कृष्येत्यादिना। ज्ञानसङ्कोचरूपव्ययस्य देहादिप्रेरणरूपकर्तृत्वस्य च प्रत्यक्षादिसिद्धत्वात् कथमव्ययत्वादिः इत्यत्राह -- स्वभावेन निरूपित इति। अनादित्वादित्यव्ययहेतुरुत्पत्तिराहित्यं विवक्षितमित्याहअनारभ्यत्वादिति। आरभ्यमाणमेव हि व्येतीति दृष्टमिति भावः।निर्गुणत्वात् इति सामान्येन ज्ञानादिगुणनिषेधपरिहारायाह -- सत्त्वादिगुणरहितत्वादिति। एवं हेतुद्वयशक्त्यनुसारेण यथायोग्यं साध्यद्वयान्वयो दर्शितः। लेपशङ्काप्रतिषेधयोः सम्भावितविषययोरेव युक्तत्वात्? तत्सप्तधातु त्रिमलं द्वियोनिं चतुर्विधाहारमयं शरीरम् [गर्भो.1] इत्याम्नातस्य शरीरस्य पटादिषु पङ्कादेरिव संसर्गेण लेपकत्वस्वभावात्शरीरस्थोऽपि इत्यनेन सूचितमाह -- देहस्वभावैरिति।
।।13.31 -- 13.33।।यदि वा -- यदेत्यादि नोपलिप्यत इत्यन्तम्। विस्तीर्णत्वेन सर्वव्याप्त्या यदा भूतानां पृथक्तां भिन्नताम् (S चित्रताम्) आत्मन्येव पश्यति? आत्मन एव च उदितां तां मन्यते? तदापि सर्वकर्तृत्त्वात् न लेपभाक् यतः असौ परमात्मैव शरीरस्थोऽपि न लिप्यते आकाशवत्।
।।13.32।।अव्यय इत्यनुवादेन लेपाभावमात्रं विधीयत इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासार्थमाह -- न चेति। एतेनाव्ययत्वमपि साध्यमप्राप्तत्वादित्युक्तं भवति। तस्य विष्णोः अनेन जीवविशेषणमेतत् तस्य प्राप्तिसद्भावेन प्रतिषेधोपपत्तेरिति निरस्तम्। विष्णोरपिशरीरस्थोऽपि इति प्राप्तेरुक्तत्वात् अनादित्वनिर्गुणत्वयोरव्ययत्वे हेतुत्वमुपपादयितुं व्याप्तिमाह -- सादीति। यद्व्ययि तत्प्रायः सादि गुणात्मकं चेति योजना। प्रागभावे व्यभिचारपारहारायप्रायः इत्युक्तम्। ससाद्यव गुणात्मकमेवेत्यवधारणेन यथास्थितयोजना वा। न करोति निर्गुणत्वादिति ईश्वरस्य क्रियागुणाभावः प्रतीयत इत्यत आह -- न करोतीति। पुरस्तादुक्तमेव स्मारयति -- नेति। इत्यादिवदक्रियत्वादिकं व्याख्येयमिति शेषः। यद्यप्यव्ययत्वमप्यत्र साध्यं तथापि तल्लोकतो ज्ञातुं शक्यत इति लोपाभावमात्रं? यथा सर्वगतिमित्युपपद्यते।
।।13.32।।आत्मनः स्वतोऽकर्तृत्वेऽपि शरीरसंबन्धादौपाधिकं कर्तृत्वं स्यादित्याशङ्कामपानुदन् यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यतीत्येतद्विवृणोति -- अनादित्वादिति। अयमपरोक्षः परमात्मा परमेश्वराभिन्नः प्रत्यगात्मा अव्ययो न व्येतीत्यव्ययः। सर्वविकारशून्य इत्यर्थः। तत्र व्ययो द्विधा धर्मिणः स्वरूपस्यैवोत्पत्तिमत्तया वा? धर्मिस्वरूपस्यानुत्पाद्यत्वेऽपि धर्माणामेवोत्पत्त्यादिमत्तया वा? तत्राद्यमपाकरोति -- अनादित्वादिति। आदिः प्रागसत्त्वावस्था। सा नास्ति सर्वदा सत आत्मनः अतस्तस्य कारणाभावाज्जन्माभावः। नह्यनादेर्जन्म संभवति। तदभावे च तदुत्तरभाविनो भावविकारा न संभवन्त्येव। अतो न स्वरूपेण व्येतीत्यर्थः। द्वितीयं निराकरोति -- निर्गुणत्वादिति। निर्धर्मकत्वादित्यर्थः। नहि धर्मिणमधिकृत्य कश्चिद्धर्म उपैत्यपैति वा धर्मधर्मिणोस्तादात्म्यात्।,अयं तु निर्धर्मकोऽतो न धर्मद्वारापि व्येतीत्यर्थः।अविनाशी वा अरेयमात्माऽनुच्छित्तिधर्मा इति श्रुतेः। यस्मादेष,जायतेऽस्ति वर्धते विपरिणमतेऽपक्षीयते विनश्यतीत्येवं षड्भावविकारशून्यः आध्यासिकेन संबन्धेन शरीरस्थोपि तस्मिन्कुर्वत्ययमात्मा न करोति। यथाध्यासिकेन संबन्धेन जलस्थः सविता तस्मिंश्चलत्यपि न चलत्येव तद्वत्। यतो न करोति किंचिदपि कर्म अतः केनापि कर्मफलेन न लिप्यते यो हि यत्कर्मकरोति स तत्फलेन लिप्यते न त्वयम्। अकर्तृत्वादित्यर्थः। इच्छा द्वेषः सुखं दुःखमित्यादीनां क्षेत्रधर्मत्वकथनात् प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानीति मायाकार्यत्वव्यपदेशाच्च। अतएव परमार्थदर्शिनां सर्वकर्माधिकारनिवृत्तिरिति प्राग्व्याख्यातम्। एतेनात्मनो निर्धर्मकत्वकथनात्स्वगतभेदोपि निरस्तः। प्रकृत्यैव च कर्माणीत्यत्र सजातीयभेदो निवारितः? यदा भूतपृथग्भावमित्यत्र विजातीयभेदः? अनादित्वान्निर्गुणत्वादित्यत्र स्वगतो भेद इत्यद्वितीयं ब्रह्मैवात्मेति सिद्धम्।
।।13.32।।ननु यथा ब्रह्मांशस्यादिजीवस्य देहसम्बन्धात् कर्मलेपस्तेनैवाज्ञानं तन्नाशश्च प्रेरकात्मसम्बन्धात्तस्यैव जीवसम्बन्धालेपे सति कथं समदर्शनं इत्याशङ्क्याऽऽह -- अनादित्वादिति। यस्यैवोत्पत्तिस्तस्यैवान्यसम्बन्धेन नाशः। स च अनादिर्नत्वाविद्यकजीवभाववदुत्पत्तिरतएव तत्सम्बन्धाभावार्थं साक्षित्वं पूर्वं निरूपितम्। तस्मात् गुणसम्बन्धिन एव तन्नाशे नाशः? स च निर्गुणस्तस्मादयं परमात्मा अव्ययः परसम्बन्धादिनाशशून्यः। अतः शरीरस्थोऽपि कर्माणि न करोति? अत एव न लिप्यते।
।।13.32।। --,अनादित्वात् अनादेः भावः अनादित्वम्? आदिः कारणम्? तत् यस्य नास्ति तत् अनादि। यद्धि आदिमत् तत् स्वेन आत्मना व्येति अयं तु अनादित्वात् निरवयव इति कृत्वा न व्येति। तथा निर्गुणत्वात्। सगुणो हि गुणव्ययात् व्येति अयं तु निर्गुणत्वाच्च न व्येति इति परमात्मा अयम् अव्ययः न अस्य व्ययो विद्यते इति अव्ययः। यत एवमतः शरीरस्थोऽपि? शरीरेषु आत्मनः उपलब्धिः भवतीति शरीरस्थः उच्यते तथापि न करोति। तदकरणादेव तत्फलेन न लिप्यते। यो हि कर्ता? सः कर्मफलेन लिप्यते। अयं तु अकर्ता? अतः न फलेन लिप्यते इत्यर्थः।।कः पुनः देहेषु करोति लिप्यते च यदि तावत् अन्यः परमात्मनो देही करोति लिप्यते च? ततः इदम् अनुपपन्नम् उक्तं क्षेत्रज्ञेश्वरैकत्वम् क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि (गीता 13।2) इत्यादि। अथ नास्ति ईश्वरादन्यो देही? कः करोति लिप्यते च इति वाच्यम् परो वा नास्ति इति सर्वथा दुर्विज्ञेयं दुर्वाच्यं च इति भगवत्प्रोक्तम् औपनिषदं दर्शनं परित्यक्तं वैशेषिकैः सांख्यार्हतबौद्धैश्च। तत्र अयं परिहारो भगवता स्वेनैव उक्तः स्वभावस्तु प्रवर्तते (गीता 5।14) इति। अविद्यामात्रस्वभावो हि करोति लिप्यते इति व्यवहारो भवति? न तु परमार्थत एकस्मिन् परमात्मनि तत् अस्ति। अतः एतस्मिन् परमार्थसांख्यदर्शने स्थितानां ज्ञाननिष्ठानां परमहंसपरिव्राजकानां तिरस्कृताविद्याव्यवहाराणां कर्माधिकारो नास्ति इति तत्र तत्र दर्शितं भगवता।।किमिव न करोति न लिप्यते इति अत्र दृष्टान्तमाह --,
।।13.32।।स्वतः पुरुषस्य प्राकृतसम्बन्धाभाव इत्युपपादयति -- अनादित्वादिति। परमात्माऽन्तःपुरुषः अथवा अक्षररूपत्वेन अनादित्वान्निर्गुणत्वादयं आत्मा जीवः पुरुषोऽव्ययः केवलं भगवदिच्छया स्वतः पृथग्भावितोऽप्यकर्त्ताऽलिप्तः अध्यासेनैव तथा? नान्यथेति भावः।