BG - 13.35

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्।।13.35।।

kṣhetra-kṣhetrajñayor evam antaraṁ jñāna-chakṣhuṣhā bhūta-prakṛiti-mokṣhaṁ cha ye vidur yānti te param

  • kṣhetra - the body
  • kṣhetra-jñayoḥ - of the knower of the body
  • evam - thus
  • antaram - the difference
  • jñāna-chakṣhuṣhā - with the eyes of knowledge
  • bhūta - the living entity
  • prakṛiti-mokṣham - release from material nature
  • cha - and
  • ye - who
  • viduḥ - know
  • yānti - approach
  • te - they
  • param - the Supreme

Translation

They who, by the eye of knowledge, perceive the distinction between the field and its knower, as well as the liberation from the Nature of being, go to the Supreme.

Commentary

By - Swami Sivananda

13.35 क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः between the Kshetra and the Kshetrajna? एवम् thus? अन्तरम् distinction? ज्ञानचक्षुषा by the eye of knowledge? भूतप्रकृतिमोक्षम् the liberation from the Prakriti of being? च and? ये who? विदुः know? यान्ति go? ते they? परम् the Supreme.Commentary They who know through the eye of intuition opened by meditation and the instructions of the spiritual preceptor and the scriptures? that the field is insentient? the doer? changing and finite? and that the knower of the field (the Self) is pure consciousness? the nondoer? unchanging and infinite? and who also perceive the nonexistence of Nature? ignorance? the Unmanifested? the material cause of being -- they attain the Supreme. Through the attainment of Selfrealisation or knowledge of the Self? they are entirely liberated from the clutches or the influence of Maya (delusion) and ignorance. They do not assume any more bodies. They are not born again. They attain Kaivalya Moksha.In accordance with the doctrine of the Sankhyas? bondage and freedom do not pertain to the Self because It is always unattached and it is the nondoer and nonenjoyer and also without limbs or parts. But on account of Its union with Nature? It assumes agency through superimposition. When ignorance is annihilated through the knowledge of the Self? Nature which is conjoined with the Self is liberated. Then She gives up Her play or dance in front of the Spirit. She has discharged all Her duties well for the sake of the enjoyment and the release (Bhoga and Apavarga) of the Purusha (Spirit). Therefore the Sankhyas declare that bondage and freedom are states of Nature only. Some interpret that the Self is emancipated from the shackles of Nature and Her modifications.(This chapter is known by the name PrakritiPurushaVibhagaYoga also.)Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the thirteenth discourse entitledThe Yoga of the Distinction BetweenThe Field and the Knower of the Field. ,

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।13.35।। व्याख्या --   [ज्ञानमार्ग विवेकसे ही आरम्भ होता है और वास्तविक विवेक(बोध) में ही समाप्त होता है। वास्तविक विवेक होनेपर प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होकर स्वतःसिद्ध परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है -- इसी बातको यहाँ बताया गया है।]क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा -- सत्असत्? नित्यअनित्य? क्षेत्रक्षेत्रज्ञको अलगअलग जाननेका नाम,ज्ञानचक्षु (विवेक) है। यह क्षेत्र विकारी है? कभी एकरूप नहीं रहता। यह प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है। ऐसा कोई भी क्षण नहीं है? जिसमें यह स्थिर रहता हो। परन्तु इस क्षेत्रमें रहनेवाला? इसको जाननेवाला क्षेत्रज्ञ सदा एकरूप रहता है। क्षेत्रज्ञमें परिवर्तन न हुआ है? न होगा और न होना सम्भव ही है। इस तरह जानना? अनुभव करना ही ज्ञानचक्षुसे क्षेत्रक्षेत्रज्ञके विभागको जानना है।भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् -- वास्तविक विवेक अर्थात् बोध होनेपर भूत और प्रकृतिसे अर्थात् प्रकृतिके कार्यमात्रसे तथा प्रकृतिसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होनेपर अर्थात् प्रकृतिसे अपने अलगावका ठीक अनुभव होनेपर साधक परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाते हैं।भगवान्ने पहले अव्यक्तकी उपासना करनेवालोंको अपनी प्राप्ति बतायी थी -- ते प्राप्नुवन्ति मामेव (12। 4)? उसी बातको इस अध्यायके अठारहवें श्लोकमें मद्भावायोपपद्यते पदसे? तेईसवें श्लोकमें न स भूयोऽभिजायते पदोंसे और यहाँ यान्ति ते परम् पदोंसे कहा है।ज्ञानमार्गमें देहाभिमान ही प्रधान बाधा है। इस बाधाको दूर करनेके लिये भगवान्ने इसी अध्यायके आरम्भमें,इदं शरीरम् पदोंसे शरीर(क्षेत्र) से अपनी (क्षेत्रज्ञकी) पृथक्ताका अनुभव करनेके लिये कहा? और दूसरे श्लोकमें क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानम् पदसे क्षेत्रक्षेत्रज्ञके ज्ञानको वास्तविक ज्ञान कहा? फिर क्षेत्रक्षेत्रज्ञकी पृथक्ताका कई तरहसे वर्णन किया। अब उसी विषयका उपसंहार करते हुए भगवान् अन्तमें कहते हैं कि क्षेत्रक्षेत्रज्ञकी पृथक्ताको ठीकठीक जान लेनेसे क्षेत्रके साथ सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है।क्षेत्रज्ञने ही परमात्मासे विमुख होकर परमात्मासे भिन्नता मानी है और क्षेत्रके सम्मुख होकर क्षेत्रसे एकता मानी है। इसलिये परमात्मासे एकता और क्षेत्रसे सर्वथा भिन्नता -- दोनों बातोंको कहना आवश्यक हो गया। अतः भगवान्ने इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि पदोंसे क्षेत्रज्ञकी परमात्मासे एकता बतायी और यहाँ क्षेत्रकी समष्टि संसारसे एकता बता रहे हैं। दोनोंका तात्पर्य क्षेत्रज्ञ और परमात्माकी अभिन्नता बतानेमें ही है।जैसे किसी मकानमें चारों ओर अँधेरा है। कोई कह देता है कि मकानमें प्रेत रहते हैं? तो उसमें प्रेत दीखने लग जाते हैं अर्थात् उसमें प्रेत होनेका वहम हो जाता है। परन्तु किसी साहसी पुरुषके द्वारा मकानके भीतर जाकर प्रवेश कर देनेसे अँधेरा और प्रेत -- दोनों ही मिट जाते हैं। अँधेरेमें चलते समय मनुष्य धीरेधीरे चलता है कि कहीं ठोकर न लग जाय? कहीं गड्ढा न आ जाय। उसको गिरनेका और साथ ही बिच्छू? साँप? चोर आदिका भय भी लगा रहता है। परन्तु प्रकाश होते ही ये सब भय मिट जाते हैं। ऐसे ही सर्वत्र परिपूर्ण प्रकाशस्वरूप परमात्मासे विमुख होनेपर अन्धकारस्वरूप संसारकी स्वतन्त्र सत्ता सर्वत्र दीखने लग जाती है और तरहतरहके भय सताने लग जाते हैं। परन्तु वास्तविक बोध होनेपर संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती और सब भय मिट जाते हैं। एक प्रकाशस्वरूप परमात्मा ही शेष रह जाता है। अँधेरेको मिटानेके लिये तो प्रकाशको लाना पड़ता है? परमात्माको कहींसे लाना नहीं पड़ता। वह तो सब देश? काल? वस्तु? व्यक्ति? परिस्थिति आदिमें ज्योंकात्यों परिपूर्ण है। इसलिये संसारसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होनेपर उसका अनुभव,अपनेआप हो जाता है।इस प्रकार ? तत्? सत् -- इन भगवान्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।13।।,

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।13.35।। आत्मा सर्वप्रकाशक होने से प्रकाश्य के धर्मों से लिप्त नहीं होता है। इस सिद्धांत का वर्णन करने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि मानव जीवन का परम लक्ष्य है? क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के स्वरूप? कार्य और सम्बन्ध को जानकर अपने परमात्मस्वरूप का साक्षात्कार करना। जीवन का यह साध्य वही साधक सम्पादित कर सकता है जो इस अध्याय में निर्दिष्ट विवेक और हृदय के गुणों से साधन सम्पन्न होता है। केवल वही साधक अपने एकमेव अद्वितीय सच्चिदानन्द ब्रह्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव कर सकता है। आत्मानुभव का साधन अन्तर्प्रज्ञा कहलाता है? जिसे हिन्दू शास्त्रों में ज्ञानचक्षु कहा गया है।परमात्मस्वरूप में स्थित होकर जिन्होंने प्रकृति (क्षेत्र? अव्यक्त? अविद्या) के आत्यन्तिक अभाव को पहचान लिया है? वे ही पूर्ण ज्ञानी पुरुष हैं। केवल अविद्या वशात् ही प्रकृति की प्रतीति होती है वास्तव में केवल ब्रह्म ही एक पारमार्थिक सत्य है।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविज्ञानयोगो नाम त्रयोदशोऽध्याय।।इस प्रकार? श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग नामक तेरहवाँ अध्याय समाप्त होता है।गीता का यह अतिशय उज्ज्वल अध्याय है? जो हमें अपने नित्यशुद्धबुद्धमुक्त आत्मस्वरूप के ध्यान करने के साक्षात् साधन का उपदेश देता है? जिसके अभ्यास से हम अपरोक्षनुभूति प्राप्त कर सकते हैं। स्वप्न से जाग जाने का अर्थ स्वप्नावस्था के सब दुखों का अन्त हो जाना है। जाग्रत् ? स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं के मध्य यातायात की कोई निश्चित सीमा नहीं निर्धारित की गयी है अर्थात् अवस्थान्तर के लिए हमें कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता है। इसी प्रकार हमारा संसारदुख प्रकृति के साथ हमारे अविद्याजनित मिथ्या तादात्म्य के कारण ही है। अत क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विवेक के द्वारा प्राप्त आत्मबोध से संसार की निवृत्ति हो जाती है। यही एकमात्र ज्ञेय वस्तु है। सम्पूर्ण गीता में? परमात्मा का इससे अधिक स्पष्ट और साक्षात् निर्देशन हमें किसी अन्य अध्याय में नहीं मिलता है।

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।13.35।।अध्यायार्थं सफलमुपसंहरति। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरुक्तप्रकारेण व्याख्यातयोरेवं यथा प्रदर्शितप्रकारेणान्तरमितरेतरवैलक्ष्ण्यविशेषं कौटस्थ्यपरिणामादिलक्षणं शास्त्राचार्योपदेशजनितमात्मप्रत्यक्षं ज्ञानं चक्षुस्तेन ज्ञानचक्षुषा भूतानां प्रकृतिरविद्यालक्षणाऽव्यक्ताख्या तस्या भूतप्रकृतेः परमार्थात्मविद्यया मोक्षमभावगमनं ये विदुर्जानन्ति ते परं परमार्थतत्त्वं ब्रह्म यान्ति गच्छन्ति पुर्देहं नाददत इत्यर्थः। तदनेन त्रयोदशाध्यायेनामानित्यवादिकं निरुपयता तन्निष्ठस्य क्षेत्रक्षेत्रयाथात्म्यविज्ञानवतः सर्वानर्थनिवृत्त्या परिपूर्णपुरुषार्थसिद्धिरितिवदता तत्त्वंपदयोरैक्यं प्रतिपादितम्।क्षेत्रक्षेत्रयाथात्म्यं सभ्यग्येन प्रकाशितम्। वन्दे तं परमात्मानं शंररं कृष्णमद्वयम्।।1।।इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचितायां श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां त्रयोदशोऽध्यायः।।13।।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।13.35।।अध्यायार्थं सफलमुपसंहरति। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरुक्तप्रकारेण व्याख्यातयोरेवं यथा प्रदर्शितप्रकारेणान्तरमितरेतरवैलक्ष्ण्यविशेषं कौटस्थ्यपरिणामादिलक्षणं शास्त्राचार्योपदेशजनितमात्मप्रत्यक्षं ज्ञानं चक्षुस्तेन ज्ञानचक्षुषा भूतानां प्रकृतिरविद्यालक्षणाऽव्यक्ताख्या तस्या भूतप्रकृतेः परमार्थात्मविद्यया मोक्षमभावगमनं ये विदुर्जानन्ति ते परं परमार्थतत्त्वं ब्रह्म यान्ति गच्छन्ति पुर्देहं नाददत इत्यर्थः। तदनेन त्रयोदशाध्यायेनामानित्यवादिकं निरुपयता तन्निष्ठस्य क्षेत्रक्षेत्रयाथात्म्यविज्ञानवतः सर्वानर्थनिवृत्त्या परिपूर्णपुरुषार्थसिद्धिरितिवदता तत्त्वंपदयोरैक्यं प्रतिपादितम्।क्षेत्रक्षेत्रयाथात्म्यं सभ्यग्येन प्रकाशितम्। वन्दे तं परमात्मानं शंररं कृष्णमद्वयम्।।1।।इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचितायां श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां त्रयोदशोऽध्यायः।।13।।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।13.35।।भूतेभ्यः प्रकृतेश्च मोक्षसाधनं अमानित्वादिकम् [13।8]।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।13.35।।अध्यायार्थं कृत्स्नमुपसंहरति -- क्षेत्रेति। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः पूर्वोक्तयोरेवमुक्तरीत्या अन्तरं भेदं जडत्वाजडत्वकर्तृत्वाकर्तृत्वविकारित्वाविकारित्वकृतं वैलक्षण्यं ज्ञानचक्षुःशास्त्राचार्योपदेशात्मप्रत्ययजनितेन ज्ञानचक्षुषा ये विदुस्ते परं मोक्षं यान्ति प्राप्नुवन्ति। किं सांख्यानामिवास्माकमपि गुणपुरुषान्तरज्ञानादेव कैवल्यमुच्यत इत्याशङ्क्याह -- भूतप्रकृतिमोक्षमिति। भूतानां वियदादीनां प्रकृतिरुपादानं त्रिगुणात्मिका अविद्या तस्या विद्यया मोक्षं निरन्वयोच्छेदं च ये विदुस्त एव परं यान्ति न तु क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरन्तरमात्रविद इत्यर्थः। यद्येका सत्या विभ्वी च प्रकृतिस्तर्हि विभूनामलिप्तदृशां बहूनां पुरुषाणां मुक्तानामपि तद्दर्शनमपरिहार्यम्। तथा च तेषामपि बन्धप्रसक्तिः। यदि तु मिथ्या तर्हि यस्यैवात्मसाक्षात्कारो जातस्तद्दृष्ट्या सर्वथैव रज्जूरगवद्बाधिता कालत्रयेऽपि नास्ति इतरेषां त्वनादिरनन्तास्त्येवेति वक्तुं शक्यम्। तस्मान्न प्रकृतिपुरुषान्तरज्ञानमात्रात्कैवल्यं किंतु प्रकृतिबाधेन पुरुषज्ञानात् सर्पबाधेन रज्जुदर्शनाद्भयनिवृत्तिवद्बन्धनिवृत्तिरिति सिद्धम्।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।13.35।। अध्यायार्थमुपसंहरति -- क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरिति। एवमुक्तप्रकारेण क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरन्तरं भेदं विवेकज्ञानलक्षणेन चक्षुषा ये विदुः? तथा चेयमुक्ता भूतानां प्रकृतिस्तस्याः सकाशान्मोक्षं मोक्षोपायं ध्यानादिकं च ये विदुस्ते परं पदं यान्ति।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।13.35।। अध्यायार्थमुपसंहरति -- क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरिति। एवमुक्तप्रकारेण क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरन्तरं भेदं विवेकज्ञानलक्षणेन चक्षुषा ये विदुः? तथा चेयमुक्ता भूतानां प्रकृतिस्तस्याः सकाशान्मोक्षं मोक्षोपायं ध्यानादिकं च ये विदुस्ते परं पदं यान्ति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।13.35।।अथैतदध्यायप्रधानार्थभूतहेयोपादेयतदुपायविज्ञानस्य फलमुच्यतेक्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरिति। एवंशब्दानूदितमाहउक्तेन प्रकारेणेति। अज्ञत्ववेदितृत्वधार्यत्वधारकत्वशेषत्वशेषित्वादिप्रकारेणेत्यर्थः।अन्तरमवकाशावधिपरिधानान्तर्धिभेदतादर्थ्ये [अमरः3।3।186] इत्यनेकार्थस्यान्तरशब्दस्यात्र विवक्षितमाह -- विशेषमिति।ज्ञानचक्षुषा इत्यत्र दिव्यज्ञानादिप्रसङ्गव्युदासार्थं विवेकविषयत्वोक्तिः। प्रक्रान्तोपदेशलब्धज्ञानमिह विवक्षितमिति भावः। ज्ञानस्य चक्षुष्ट्वरूपणमपरोक्षज्ञानान्तरहेतुत्वात्। विविच्यतेऽनेनेति विवेकः अत्र व्यावर्तकाकारः -- भूतमय्याः प्रकृतेर्मोक्षः भूतप्रकृतिमोक्षः? भूतानां जीवानां प्रकृतेर्मोक्ष इति वा। यत्तुभूतानां प्रकृतिरविद्यालक्षणा अव्यक्ताख्या? तस्याः प्रकृतेर्मोक्षणमभावगमनम् इतिशङ्करेणोक्तम्? तत् गौरनाद्यन्तवती [मं.को.5] इत्यादिश्रुतिविरोधादवधीरणीयम्। जीवात्मज्ञानफलविषयत्वात्परशब्दोऽत्र परिशुद्धजीवविषयः। तस्य च परत्वं संसारित्वलक्षणस्वकीयपूर्वावस्थापेक्षयेत्यभिप्रायेणाह -- निर्मुक्तबन्धमिति।अध्यायारम्भे क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ पूर्वमुपपादितौ परम्परया परिशुद्धात्मप्राप्त्युपायतया अमानित्वादिगुणवर्गश्च अतोऽत्र निगमनेऽपि क्षेत्रक्षेत्रज्ञाभ्यां सह समुच्चीयमानो भूतप्रकृतिमोक्षः स एव गुणवर्गो भवितुमर्हतीत्यभिप्रायेणाह -- मोक्ष्यतेऽनेनेति। लुप्ताभ्यासे सन्नन्ते वा? मोक्षशब्दप्रकृतिके मोक्षयतीति णिजन्ते वामोक्ष मोक्षणे इति धात्वन्तरे वा -- मोक्ष्यत इति यक्प्रयोगः। तत्र चायं मोक्षशब्दःअकर्तरि च कारके संज्ञायाम् [अष्टा.3।3।19] इति करणार्थघञन्तः। उक्तेषु ज्ञातव्येषु सिद्धं ज्ञातव्यांशं विवृण्वन्वाक्यार्थज्ञानमात्रस्य साक्षान्मोक्षहेतुत्वाभावादनुष्ठानशेषतां च ज्ञापयन् भूतप्रकृतिमोक्षशब्देनानिष्टनिवृत्तेः सूचनं?परं याति इत्यनेन चेष्टाप्राप्तेर्विवक्षितत्वं दर्शयन् पिण्डितं महावाक्यार्थमाह -- क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरिति।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु,

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।13.35।।क्षेत्रेति। एवमध्यायेन यदुक्तं ज्ञेयं? ज्ञानं? क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरन्तरं? भूतप्रकृतेश्च (?N क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरन्तरं भूतप्रकृतेरन्तरं भूतप्रकृतेश्च) स्वल्पात् परिणामधर्मत्वात् मोचनम्? तत् ये ज्ञानलक्षणेन (S??N येन ज्ञानलक्षणेन) सर्वत्राप्रतिहतेन अलौकिकेन चक्षुषा पश्यन्ति ते वासुदेवतां प्राप्य लभन्त एव परमं (?N परं) शिवमिति।।।शिवम्।।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।13.35।।भूतप्रकृतिमोक्षं इत्यस्यभूतानां प्रकृतिरविद्या तस्याः मोक्षमवसानलक्षणं [शं.] इति व्याख्यानमसत्? भूतशब्दवैयर्थ्यात् अविद्याध्वंसस्यानुक्तत्वेनैवमिति परामर्शायोगाच्चेति भावेनाह -- भूतेभ्य इति। अनेन भूतप्रकृतीति द्वन्द्वः। ततः पञ्चमीति योगविभागात्पञ्चमीतत्पुरुष इत्युक्तं भवति। भूतेभ्यः पृथिव्यादिभ्यः। ननु मोक्षो न प्रागुक्त इत्यत उक्तम् -- मोक्षसाधनमिति। करणे घञित्यर्थः। मोक्षसाधनमपि नोक्तमित्यत आह -- अमानित्वादिकमिति। ज्ञानसाधनमपि परम्परया मोक्षसाधनमिति भावः। मोक्षशब्दस्य नित्यसापेक्षत्वान्नासमर्थत्वम्। यद्वा भूतेभ्यः प्रकृतेश्चेति समासद्वयसूचनार्थं पृथगेव वाक्यम्? ततो मोक्षपदव्याख्यानं पृथगेवेति।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।13.35।।इदानीमध्यायार्थं सफलमुपसंहरति -- क्षेत्रेति। क्षेत्रक्षेत्रयज्ञोः प्राग्व्याख्यातयोरेवमुक्तेन प्रकारेणान्तरं परस्परवैलक्षण्यं जाड्यचैतन्यविकारित्वनिर्विकारत्वादिरूपं ज्ञानचक्षुषा शास्त्राचार्योपदेशजनितात्मज्ञानरूपेण चक्षुषा ये विदुः भूतप्रकृतिमोक्षं च भूतानां सर्वेषां प्रकृतिरविद्या मायाख्या तस्याः परमार्थात्मविद्यया मोक्षमभावगमनं च ये विदुर्जानन्तियान्ति ते परं पदार्थात्मवस्तुस्वरूपं कैवल्यं न पुनर्देहमाददत इत्यर्थः। तदेवममानित्वादिसाधननिष्ठस्य क्षेत्रक्षेत्रज्ञविवेकविज्ञानवतः सर्वानर्थनिवृत्त्या परमपुरुषार्थसिद्धिरिति सिद्धम्।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।13.35।।उपसंहरति -- क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरिति। एवं पूर्वोक्तप्रकारेण क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरन्तरं भेदं लौकिकसृष्टितः ज्ञानचक्षुषा ये विदुः? च पुनः भूतानां सम्बन्धिनी या प्रकृतिः संसारोपयोगिनी ततो मोक्षसाधनं ध्यानाद्यात्मकं ये विदुस्ते परं मोक्षं यान्ति प्राप्नुवन्तीत्यर्थः।क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवं रूपमुक्त्वेश्वरः स्वयम्। मोहं निवारयामास फाल्गुनस्य नमामि तम्।।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।13.35।। --,क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः यथाव्याख्यातयोः एवं यथाप्रदर्शितप्रकारेण अन्तरम् इतरेतरवैलक्षण्यविशेषं ज्ञानचक्षुषा शास्त्राचार्यप्रसादोपदेशजनितम् आत्मप्रत्ययिकं ज्ञानं चक्षुः? तेन ज्ञानचक्षुषा? भूतप्रकृतिमोक्षं च? भूतानां प्रकृतिः अविद्यालक्षणा अव्यक्ताख्या? तस्याः भूतप्रकृतेः मोक्षणम् अभावगमनं च ये विदुः विजानन्ति? यान्ति गच्छन्ति ते परं परमात्मतत्त्वं ब्रह्म? न पुनः देहं आददते इत्यर्थः।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येत्रयोदशोऽध्यायः।।श्रीमच्छंकरभगवत्पादविरचितम्श्रीमद्भगवद्गीताभाष्यम्

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।13.35।।उक्तमुपसंहरति -- क्षेत्रेति। उक्तप्रकारेण अन्तरं भेदं विवेकं तत्त्वज्ञानदृष्ट्या भूतप्रकृतेर्मोक्षो यस्मात्तमुपायं अमानित्वादिकं च ये विदुस्ते परं तत्त्वज्ञानं पुरुषोत्तमप्रापकं प्राप्नुवन्ति।