BG - 14.3

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।14.3।।

mama yonir mahad brahma tasmin garbhaṁ dadhāmy aham sambhavaḥ sarva-bhūtānāṁ tato bhavati bhārata

  • mama - my
  • yoniḥ - womb
  • mahat brahma - the total material substance, prakṛiti
  • tasmin - in that
  • garbham - womb
  • dadhāmi - impregnate
  • aham - I
  • sambhavaḥ - birth
  • sarva-bhūtānām - of all living beings
  • tataḥ - thereby
  • bhavati - becomes
  • bhārata - Arjun, the son of Bharat
  • -

Translation

My womb is the great Brahma; in it I place the germ; thence, O Arjuna, is the birth of all beings.

Commentary

By - Swami Sivananda

14.3 मम My? योनिः womb? महत् the great? ब्रह्म Brahma? तस्मिन् in that? गर्भम् germ? दधामि bears? अहम I? संभवः the birth? सर्वभूतानाम् of all beings? ततः thence? भवति is? भारत O descendant of Bharata (Arjuna).Commentary My womb is the great Nature. The cosmos is evolved out of His Nature. Nature is called the great Brahma for She is the resting place of the five subtle elements and also the Mahat (cosmic mind). She is callled the great Brahma? because through Her the whole manifestation takes place.All changes arise out of this great Nature. So She has got the name Mulaprakriti or Primordial Nature or the original principle. From the point of view of the Unmanifest She is called Avyakta. The Vedantins call Her Maya (illusion). The Sankhyas call Her Prakriti.This Prakriti is called great because She is greater than all Her effects. This Nature? made of the three alities? is the material cause of all beings. As She is the source or cause of all Her,modifications and also nourishes all the modifications with Her energy? She is called Brahma.I place in it (the Mahabrahma) the embryo of life then all beings begin to come to life therefrom. In the great Brahma or Nature I place the germ or the seed for the birth of Hiranyagarbha and the seed gives birth to all beings. The birth of Hiranyagarbha or Brahma (the Creator) gives rise to the birth of beings. The Primordial Nature is like the clay. She cannot create the forms Herself. She gives birth to Brahma Who creates all beings just as the potter creates various forms from the clay. I am endowed with the two Saktis? viz.? the superior and the inferior Natures (Cf. VII. 4 and 5)? the field and its knower. I unite these two (the Spirit and the matter). The individual soul comes under the influence of the limiting adjuncts? viz.? ignorance? desire and action. On account of ignorance (Avidya)? the individual soul forgets his original divine nature? gets himself entangled in the meshes of desire (Kama) and action (Karma)? and revolves in the wheel of birth and death. The individual soul turns towards ignorance without knowing his own true divine nature. The Jiva (individual soul) being overpowered by ignorance and the modifications? forgets its pristine purity and moves in various forms.The Primordial Nature or the Unmanifested is a dark matrix with infinite potentialities. It is not a substance. Sound and energy are in an undifferentiated state in It. The whole world gets involved into It during the cosmic dissolution. There is no relationship of substance or ality between It and the three Gunas. The alities are the Mulaprakriti and the latter is the former in a state of poise or eilibrium. This manifested world of the three alities is compared to a twisted rope of three colours? viz.? white? red and black. Each colour represents a Guna. Sattvic is white? Rajas is red and Tamas is black. The three are not in a state of eilibrium in the manifested world.Water and the seed coming in contact with the earth produce sprouts which grow into trees. In the womb of Nature? the seed develops into the eightfold elements -- earth? water? fire? air? ether? mind? intellect and egoism. The first fruit of the contact of Nature with the soul is the MahatTattva or intellect. From intellect mind is born from mind egoism from egoism? the five elements.There are four classes of beings? viz.? Jarayuja? Andaja? Svedaja and Udbhijja. The Jarayuja is born of the placenta (viviparous). Human beings? cows? elephants? horses? etc.? belong to this class. In this variety the five senses of knowledge exist. The Andaja is born of eggs (oviparous). In this variety the elements of wind and ether predominate. Lice come under the category of Svedaja they are born of sweat. In this variety fire and water predominate. Trees that are born of seeds are classified under the head Udbhijja in this variety earth and water predominate. (Cf.VII.6IX.17XV.7)

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।14.3।। व्याख्या --   मम योनिर्महद्ब्रह्म -- यहाँ मूल प्रकृतिको महद्ब्रह्म नामसे कहा गया है? इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे -- (1) परमात्मा छोटेपन और बड़ेपनसे रहित हैं अतः वे सूक्ष्मसेसूक्ष्म भी हैं और महान्सेमहान् भी हैं -- अणोरणीयान्महतो महीयान् (श्वेताश्वतरोपनिषद् 3। 20)। परन्तु संसारकी दृष्टिसे सबसे बड़ी चीज मूल प्रकृति ही है अर्थात् संसारमें सबसे बड़ा व्यापक तत्त्व मूल प्रकृति ही है। परमात्माके सिवाय संसारमें इससे बढ़कर कोई व्यापक तत्त्व नहीं है। इसलिये इस मूल प्रकृतिको यहाँ महद्ब्रह्म कहा गया है।(2) महत् (महत्तत्त्व अर्थात् समष्टि बुद्धि) और ब्रह्म(परमात्मा) के बीचमें होनेसे मूल प्रकृतिको महद्ब्रह्म कहा गया है।(3) पीछेके (दूसरे) श्लोकमें सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च पदोंमें आये सर्ग और प्रलय शब्दोंका अर्थ क्रमशः ब्रह्माका दिन और ब्रह्माकी रात माना जा सकता है। अतः उनका अर्थ महासर्ग (ब्रह्माका प्रकट होना) और महाप्रलय (ब्रह्माका लीन होना) सिद्ध करनेके लिये यहाँ महद्ब्रह्म शब्द दिया है। तात्पर्य है कि जीवन्मुक्त महापुरुषोंका इस मूल प्रकृतिसे ही सम्बन्धविच्छेद हो जाता है? इसलिये वे महासर्गमें भी पैदा नहीं होते और महाप्रलयमें भी व्यथित नहीं होते।सबका उत्पत्तिस्थान होनेसे इस मूल प्रकृतिको योनि कहा गया है। इसी मूल प्रकृतिसे अनन्त ब्रह्माण्ड पैदा होते हैं और इसीमें लीन होते हैं। इस मूल प्रकृतिसे ही सांसारिक अनन्त शक्तियाँ पैदा होती हैं।इस मूल प्रकृतिके लिये मम पदका प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि यह प्रकृति मेरी है। अतः इसपर आधिपत्य भी मेरा ही है। मेरी इच्छाके बिना यह प्रकृति अपनी तरफसे कुछ भी नहीं कर सकती। यह जो कुछ भी करती है? वह सब मेरी अध्यक्षतामें ही करती है (गीता 9। 10)।मैं मूल प्रकृति(महद्ब्रह्म) से भी श्रेष्ठ साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हूँ -- इसको बतानेके लिये भगवान्ने,मम महद्ब्रह्म पदोंका प्रयोग किया है।महद् ब्रह्मसे भी श्रेष्ठ परब्रह्म परमात्माका अंश होते हुए भी जीव परमात्मासे विमुख होकर प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है। इतना ही नहीं? वह प्रकृतिके कार्य तीनों गुणोंसे सम्बन्ध जोड़ लेता है और उससे भी नीचे गिरकर गुणोंके भी कार्य शरीर आदिसे सम्बन्ध जोड़ लेता है और बँध जाता है। अतः भगवान् मम महद्ब्रह्म पदोंसे कहते हैं कि जीवका सम्बन्ध वास्तवमें मूल प्रकृतिसे भी श्रेष्ठ मुझ परमात्माके साथ है -- मम एव अंशः (गीता 15। 7)? इसलिये प्रकृतिके साथ सम्बन्ध मानकर उसको अपना पतन नहीं करना चाहिये।तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् -- यहाँ गर्भम् पद कर्मसंस्कारोंसहित जीवसमुदायका वाचक है। भगवान् कोई नया गर्भ स्थापन नहीं करते। अनादिकालसे जो जीव जन्ममरणके प्रवाहमें पड़े हुए हैं? वे महाप्रलयके समय अपनेअपने कर्मसंस्कारोंसहित प्रकृतिमें लीन हो जाते हैं (गीता 9। 7)। प्रकृतिमें लीन हुए जीवोंके कर्म जब परिपक्व होकर फल देनेके लिये उन्मुख हो जाते हैं? तब महासर्गके आदिमें भगवान् उन जीवोंका प्रकृतिके साथ पुनः विशेष सम्बन्ध (जो कि कारणशरीररूपसे पहलेसे ही था) स्थापित करा देते हैं -- यही भगवान्के द्वारा जीवसमुदायरूप गर्भको प्रकृतिरूप योनिमें स्थापन करना है।सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत -- भगवान्के द्वारा प्रकृतिमें गर्भस्थापन करनेके बाद सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है अर्थात् वे प्राणी सूक्ष्म और स्थूल शरीर धारण करके पुनर्जन्म प्राप्त करते हैं। महासर्गके आदिमें प्राणियोंका यह उत्पन्न होना ही भगवान्का विसर्ग (त्याग) है? आदिकर्म है (गीता 8। 3)।[जीव जबतक मुक्त नहीं होता? तबतक प्रकृतिके अंश कारणशरीरसे उसका सम्बन्ध बना रहता है और वह महाप्रलयमें कारणशरीरसहित ही प्रकृतिमें लीन होता है।] सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें समष्टि संसारकी उत्पत्तिकी बात बतायी? अब आगेके श्लोकमें व्यष्टि शरीरोंकी उत्पत्तिका वर्णन करते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।14.3।। महद् ब्रह्म योनि यहाँ महद् ब्रह्म को भूतमात्र की योनि अर्थात् कारण कहा गया है। परन्तु? यहाँ महद् ब्रह्म यह शब्द सम्पूर्ण विश्वाधिष्ठान परमात्मा के लिये प्रयुक्त नहीं है। यह शब्द जगत् की अव्यक्त अवस्था अर्थात् जड़ प्रकृति को इंगित करता है। वह अपने स्थूल और सूक्ष्म कार्यरूप विकारों की अपेक्षा बड़ी? व्यापक होने से महत् है तथा स्वविकारों का भरणपोषण करने के कारण ब्रह्म कहलाती है। इस प्रकार व्युत्पत्ति के आधार पर प्रकृति को यहाँ महद्ब्रह्म कहा गया है। इसी महद्ब्रह्म के लिये पूर्व के अध्यायों में अपरा प्रकृति? क्षेत्र? प्रकृति इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया गया था।उससे मैं गर्भाधान करता हूँ यह महद्ब्रह्मरूप प्रकृति स्वयं जड़ होने के कारण स्वत स्वतन्त्ररूप से सृष्टि नहीं कर सकती है। इसमें शुद्ध चैतन्यस्वरूप परमात्मा जब प्रतिबिम्बित होता है? तब यह चेतनयुक्त होकर सृष्टिकार्य में प्रवृत्त होती है। परमात्मा का इसमें चैतन्यरूप से व्यक्त हो जाना ही गर्भाधान की क्रिया है। इसके फलस्वरूप सर्वप्रथम समष्टि मन को धारण करने वाले ईश्वर जिसे इस अवस्था में वेदान्त के अनुसार हिरण्यगर्भ कहते हैं व्यक्त होता है और तत्पश्चात् असंख्य जीव और नामरूपमय सृष्टि उत्पन्न होती है।सृष्टि की इस प्रक्रिया को हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि किसी भी रचनात्मक कार्य का प्रादुर्भाव एवं विकास कर्ता के मन में उदित होने वाली वृत्ति के साथ होता है। जीवनी शक्ति से युक्त होकर वह वृत्ति शक्तिशाली बनकर स्वयं को व्यक्त करने के लिये अधीर हो उठती है। फलत वह विचारों और भावनाओं के रूप में व्यक्त होकर अन्त में कर्मरूप में परिणत हो जाती है। एक चित्रकार अपने विचारों को रंगों के माध्यम से व्यक्त करता है तो एक गायक संगीत के रूप मे शिल्पकार उसे पाषाणों के द्वारा प्रगट करता है और साहित्यकार शब्दों के माध्यम से। परन्तु इनमें से किसी भी कल्पना के मृत हो जाने पर वह अपने विचारों को कर्म रूप में अभिव्यक्त न्ाहीं कर सकता है। जैसे व्यष्टि की सृष्टि है? वैसे ही समष्टि सृष्टि को भी समझना चाहिये।समष्टि वासनाओं? विचारों? भावनाओं एवं कर्मों के संगठित रूप को प्रकृति कहते हैं? जो सत्त्वरजतमोगुणात्मिका होने से इन गुणों से नियन्त्रित होती है। इसी प्रकृति को यहाँ महद्ब्रह्म कहा गया है? जिसे वेदान्त में माया शब्द से भी सूचित किया जाता है। माया के व्यष्टि रूप को ही अविद्या कहते हैं। जीव ओर ईश्वर में भेद यह है कि जीव अविद्या के अधीन रहता है? जबकि ईश्वर माया को अपने वश में रखता है।भगवान् आगे कहते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।14.3।।ज्ञानस्तुत्या तदभिमुखायावहितचेतसे विवक्षितमर्थमाह -- क्षेत्रेति। स्वरूपत्वेन स्वभूतत्वं वारयति -- मदीयेति। ईश्वरीं चिच्छक्तिं व्यावर्तयति -- त्रिगुणात्मिकेति। सांख्यीयप्रकृतिरपि मदीयेति व्यावर्तिता। योनिशब्देन सर्वाणि भवनयोग्यानि कार्याणि प्रत्युपादानत्वमभिप्रेतमित्याह -- सर्वभूतानामिति। प्रकृतेर्महत्त्वं साधयति -- सर्वेति। सर्वकार्यव्याप्तिमादाय योनावेव ब्रह्मशब्दः। लिङ्गवैषम्यान्महद्ब्रह्मेत्यर्थान्तरं किंचिदित्याशङ्क्याह -- योनिरिति। तस्मिन्नित्यादि व्याचष्टे -- तस्मिन्निति। ईदृशस्य क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगस्य भूतकारणत्वमिति वक्तुमुपक्रम्य किमिदमन्यदादर्शितमित्याशङ्क्याह -- क्षेत्रेति। गर्भशब्देनोक्तसंयोगस्य फलं दर्शयति -- संभव इति।आदिकर्ता स भूतानाम् इति स्मृत्या हिरण्यगर्भकार्यत्वावगमाद्भूतानां कथंयथोक्तगर्भाधाननिमित्तत्वमित्याशङ्क्याह -- हिरण्यगर्भेति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।14.3।।ज्ञानस्तुत्या तदभिमुखाय समाहितचित्ताय क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोग ईदृशो भूतकारणमिति विवक्षितमर्थमाह -- ममेति। मम मदीया मदधिष्ठिता नतु स्वतन्त्रा माया त्रिगुणात्मिका प्रकृतिः सर्वभूतानां योनिः कारणम्। मम योनिः गर्भाधानस्थानमिति तु सुगमत्वादाचार्यैर्न व्याख्यातम्। योनिमेव विशिनष्टि। सर्वकार्येब्यो महत्त्वात्स्वविकाराणां भरणाच्च महद्ब्रह्म। महत्तत्त्वस्य प्रथमकार्यस्य ब्रह्म बृंहकं कारणमिति तु ब्रह्मशब्दस्य कारणरुपामुख्यार्थपरत्वं लधुभूतकर्मधारयत्यागं ब्रह्म महदिति वक्ष्यमाणाननुरोधे चासमञ्जसमभिप्रेत्याचार्यैर्न व्याख्यातम्। तस्मिन्महति ब्रह्मणि योनौ गर्भं हिरण्यगर्भादिस्रवभूतानां जन्मकारणं बीजमहं दधामि निक्षिपामि। क्षेत्रक्षेत्रज्ञप्रकृतिद्वयशक्तिमानीस्वरोऽहमविद्याकामकर्मोपाधिस्वरुपानुविधायिनं क्षेत्रज्ञं क्षेत्रेण संयोजयामीत्यर्थः। ततस्तस्माद्गर्भाधानात्सर्वभूतानां हिरण्यगर्भादिस्तम्बपर्यन्तानां संभव उत्पत्तिर्भवति। ननु हिरण्यगर्भस्य ततः संभवेऽपि सर्वेषां कथं ततः संभवः स्वस्वमातृपित्रादेस्तत्तद्भूतसंभवदर्शनादितिचेत्तत्राह -- भारतेति। यथा पित्रादेरुत्पन्नानामपि भवदादीनां भरतोद्भवत्वेन भारतत्वं तथेति संबोधनाशयः।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।14.3।।महद्ब्रह्म प्रकृतिः? सा च श्रीर्भूर्दुर्गेति भिन्ना। उमासरस्वत्याद्यास्तु तदंशयुता अन्यजीवाः। तथा च काषायणश्रुतिः -- श्रीर्भुर्दुर्गा महती तु माया या लोकसूतिर्जगतो बन्धिका च। उमावागाद्या अन्यजीवास्तदंशास्तदात्मना सर्ववेदेषु गीताः इति। मम योनिरिति गर्भाधानार्था योनिः? न तु माता? वाक्यशेषात्। तथा हि सामवदे शार्कराक्षश्रुतौ -- विष्णोर्योनिर्गर्भसन्धारणार्था महामाया सर्वदुःखैर्विहीना। तथाऽप्यात्मानं दुःखिवन्मोहनार्थं प्रकाशयन्ती सह विष्णुना सा इति। अतः सीतादुःखादिकं सर्वं मृषा प्रदर्शनमेव। तथा कूर्मपुराणे -- न चेयं भूः [ब्र.सं.पु.] तथा च सौकरायणश्रुतिः -- अन्या भूर्भूरियं तस्य छाया भूताऽवमा सा हि भूतैकयोनिः इति। अवाप स्वेच्छया दास्यं जगतां प्रपितामही इत्यनभिम्लानश्रुतिः। मत्स्यपुराणोक्तमपि स्वेच्छयैव। महद्ब्रह्मशब्दवाच्या़ऽपि प्रकृतिरेवमहती ब्रह्मणी द्वे तु प्रकृतिश्च महेश्वरः इति तत्रैव।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।14.3।।अथेदानीं का वा भूतप्रकृतिः किमाश्रयेण तस्या भूतजनकत्वं तदाह -- ममेति। मम शुद्धचिन्मात्रस्य योनिः प्रवेशस्थानम्। महद्ब्रह्म महत्तत्त्वस्य प्रथमकार्यस्य ब्रह्म बृंहकं कारणमव्यक्ताव्याकृतापरपर्यायं त्रिगुणात्मकमायाख्यं तस्मिन् गर्भं स्वप्रतिबिम्बरूपं दधाम्यर्पयामि अहं चिदात्मा। ततो मत्प्रतिबिम्बगर्भिता या माया ततः सर्वेषां भूतानां भवनधर्माणां महदादीनां हिरण्यगर्भादीनां च संभव उत्पत्तिर्भवति हे भारत। एतेन चित्प्रतिबिम्बसापेक्षत्वोपपादनेन प्रकृतेः सांख्याभिमतं स्वातन्त्र्यं निरस्तम्।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।14.3।।मम मदीयं कृत्स्नस्य जगतो योनिभूतं महद् ब्रह्म यत् तस्मिन् गर्भं दधामि अहम्।भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टघा।।अपेरयम् (गीता 7।45) इति निर्दिष्टा अचेतना प्रकृतिः महदहंकारादिविकाराणां कारणतयामहद्ब्रह्म इति उच्यते। श्रुतौ अपि क्वचित् प्रकृतिः अपि ब्रह्म इति निर्दिश्यते।यः सर्वज्ञः सर्ववित्? यस्य ज्ञानमयं तपः? तस्मादेतद्ब्रह्म नामरूपमन्नं च जायते (मु0 उ0 1।1।9) इतिइतस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीवभूताम् (गीता 7।5) इति चेतनपुञ्जरूपा या प्रकृति निर्दिष्टा? सा इह सकलप्राणिबीजतया गर्भशब्देन उच्यतेतस्मिन् अचेतने योनिभूते महति ब्रह्मणि चेतनपुञ्जरूपं गर्भं दधामि अचेतनप्रकृत्या भोगक्षेत्रभूतया भोक्तृवर्गपुञ्जभूतां चेतनप्रकृतिं संयोजयामि इत्यर्थः। ततः तस्मात् प्रकृतिद्वयसंयोगात् मत्संकल्पकृतात् सर्वभूतानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानां सम्भवो भवति।कार्यावस्थः अपि चितचित्प्रकृतिसंसर्गो मया एव कृतः इत्याह --

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।14.3।।तदेवं प्रशंसया श्रोतारमभिमुखीकृत्य परमेश्वराधीनयोः प्रकृतिपुरुषयोः सर्वभूतोत्पत्तिं प्रति हेतुत्वं नतु स्वतन्त्रयोरितीमं विवक्षितमर्थं कथयति -- ममेति। देशतः कालतश्चानवच्छिन्नत्वान्महत्? बृंहणत्वात्स्वकार्याणां वृद्धिहेतुत्वाद्वा ब्रह्म। प्रकृतिरित्यर्थः। तन्महद्ब्रह्म मम परमेश्वरस्य योनिर्गर्भाधानस्थानं? तस्मिन्नहं गर्भं जगद्विस्तारहेतुं चिदाभासं दधामि निक्षिपामि। प्रलये मयि लीनं सन्तमविद्याकामकर्मानुशयवन्तं क्षेत्रज्ञं सृष्टिसमये भोग्येन क्षेत्रेण संयोजयामीत्यर्थः। ततो गर्भाधानात्सर्वभूतानां ब्रह्मादीनां संभव उत्पत्तिर्भवतीति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।14.3।।प्रसिद्धगर्भासम्भवात् गर्भशब्दाभिलप्यत्वमत्र जीवस्य कथं इत्यत्राह -- इतस्त्वन्यामिति।मम योनिः इत्यनेन प्रत्यभिज्ञापितस्वकीयप्रकृतिद्वयविषयप्राचीनवचनपरामर्शादनन्तरग्रन्थसामञ्जस्याच्च गर्भशब्दोऽत्र परप्रकृतिशब्दनिर्दिष्टचित्समष्टिपर इति भावः।गर्भम् इत्येकवचनं समुदायैक्यपरमिति ख्यापनाय पु़ञ्जशब्दः। अन्वितार्थमाह -- तस्मिन्निति। ननु पूर्वंययेदं धार्यते जगत् [7।5] इति चेतनप्रकृतेराधारत्वमचेतनस्य च धार्यत्वमुक्तम्। इह तुतस्मिन् गर्भं दधाम्यहम् इति तद्विपरीतमुच्यत इत्यत्राह -- अचेतनेति। नात्र तादधीन्यपर्यन्ताधाराधेयभावोऽभिमतः अपित्वभेदनिर्देशमात्रयोग्यः संयोगः तथाविधसंयोगकरणस्य कर्मवश्यानां पुंसां कर्मानुरूपभोगप्रदानं प्रयोजनमित्युक्तं भवति। अत्र तत इति नानन्तर्यपरः? मन्दप्रयोजनत्वात् आनन्तर्येण,हेतुभावस्य फलितत्वादपि तत्कण्ठोक्तेर्युक्तत्वात्। अतःक्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् [13।27] इति पूर्वाध्यायोक्त एव हेतुरिह साङ्ख्यमतशङ्कानिरासाय स्वाधीनत्वेन विशेष्यत इत्यभिप्रायेणाहप्रकृतिद्वयसंयोगान्मत्सङ्कल्पकृतादिति। अतएव तस्य कार्यकरत्वं चोपपन्नमिति भावः।अत्रसर्वभूतानाम् इति न महदादितत्त्वपरं? भूतशब्दस्य महदादिष्वरूढत्वात् नापि महाभूतादिविवक्षा? क्षेत्रज्ञानां बन्धहेतुप्रकारपरत्वात् तच्च क्षेत्रज्ञतत्त्वं भूतशब्दविवक्षितसृज्यत्वाविशेषात्आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ता जगदन्तर्व्यवस्थिताः। प्राणिनः कर्मजनितसंसारवशवर्तिनः [वि.ध.104।23]ब्रह्माद्याः सकला देवा मनुष्याः पशवस्तथा। विष्णुमायामहावर्तमोहान्धतमसावृताः [वि.पु.5।30।17]हिरण्यगर्भो भगवान् [वि.पु.6।7।56] इत्यादिभिश्च ब्रह्मेशानादेरपि समानमित्यभिप्रायेण सर्वशब्द इति दर्शयितुंब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानामित्युक्तम्।अबुद्धिपूर्वकः सर्गः प्रादुर्भूतस्तमोमयः [वि.पु.6।7।56] इत्यादिषु चतुर्मुखसङ्कल्पमन्तरेणैव स्थावरादिसृष्टिवचनाद्धिरण्यगर्भवत्तत्सृष्टानामपि स्तम्बपर्यन्तानां परमात्मसृज्यत्वं स्पष्टम्।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।14.3।।तत्रादौ संसृतौ क्रममाह। हातव्ये ज्ञाते तत्करणे च? सुकरं हि हानम् -- ममेति। मम तावत् अव्यपदेश्यपरमानन्दरूपस्य महद् ब्रह्म बृंहकात्मीयशक्तिरूपं ब्रह्म। आत्मीयामेव हि विमर्शशक्तिमालम्ब्य अहमनादीन् आत्माणून् अनुग्रहार्थ संसारयामि।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।14.3।।अत्र महत् ब्रह्मेति जडाऽविद्योच्यत इति प्रतीतिनिरासार्थमाह -- महदिति। प्रकृतिर्महालक्ष्मीः। ननु सत्त्वं रजस्तम इति जडा प्रकृतिर्वक्ष्यते? तत्सन्निधानादत्रापि सैव युक्तेति चेत्? न तत्रापि चेतनप्रकृत्यभिधानात्? कथमस्याः सत्त्वादिभेदभिन्नत्वं इत्यत आह -- सा चेति। जडप्रकृतेरभिमानिनी तत्कार्यसत्त्वादिगुणाभिमानिन्येतद्रूपत्रयवतीत्यर्थः। ननु भगवती माहेश्वरी ब्राह्मी कौमारी माहेन्द्री श्रीर्भूर्दुर्गेति सप्तधा भिन्नाऽऽगमेषूच्यते? तत्कथं त्रिधा भिन्नोच्यते इत्यत आह -- उमेति। आद्याश्चतस्रो भगवत्या अन्याः। कुतः जीवाः। कथं तद्रूपत्वोक्तिः तदंशयुतास्तत्सन्निधानोपेताः। कुत एतत् इत्यत आह -- तथा चेति।मम योनिः इत्येतत्परे व्याचक्षते मम स्वरूपभूता योनिः कारणं विश्वस्य प्रतीत एवान्वये मम मातेत्यापत्तेरिति तन्निरासार्थमाह -- ममेति भार्येत्यर्थः। ममेत्यनुवादेनान्यथा प्रतीतावन्वयबाधः स्यादिति सूचयति। प्रतीतान्वयाङ्गीकारेमाता इत्यपि प्रतीयेत? तत्र कथं भार्येति निश्चयः इत्यत आह -- न त्विति। इति प्रतीतिः प्रसज्ज्यत इति शेषः। कुतो न इत्यत आह -- वाक्येति।तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम् इति वाक्यशेषाद्भार्यार्थतानिश्चयात्। श्रुतिबलाच्चेत्याह -- तथा हीति। प्रकाशयन्ती प्रवर्तते। अनयैव श्रुत्याऽन्यदपि लब्धमिति प्रसङ्गादाह -- अत इति। मृषाऽयथार्थं प्रदर्शनं यस्य तत्तथा। इतश्चैवमेवेत्याह -- तथेति। तत्र ह्येवमुक्तम्दग्ध्वा मायामयीं सीतां भगवानुग्रदीधितिः। रामायादर्शयत्सीतां पावकोऽसौ सुरप्रियः [ ] इत्यादि। ननु महालक्ष्मीः श्रीर्भूर्दुर्गेति भिन्नेत्युक्तम्। भुवश्चगौर्भूत्वाऽश्रुमुखी खिन्ना [भाग.10।1।18] इति दुःखं प्रतीयते? तत्कथं तत् इत्यत आह -- न चेति। इयं भूताभिमानिनी प्रसिद्धा भूः भगवत्या रूपं न भवति? किन्त्वियमन्यैव। कुतः इत्यत आह -- तथा चेति। महालक्ष्मीरूपं भूरन्या? इयं प्रसिद्धा? तस्य तस्याः। छाया प्रतिमा। ननु रावणहरणादिकं भवतु मायासीतायाः वाल्मीकिदास्यं तावन्मत्स्यपुराणे साक्षात्सीताया एवोक्तम्दास्ये च दुःखमवर्जनीयं इत्याशङ्कां प्रमाणपूर्वकमपाकरोति -- अवापेति। श्रुतिरस्ति।यतोऽतः इति शेषः। महद्ब्रह्म प्रकृतिरित्युक्तम्? तत्र प्रमाणं वक्तुं व्यवहितत्वात्पुनः प्रतिजानीते -- महदिति।महत्? ब्रह्म इति भिन्ने पदे ततः परमितिशब्दोऽध्याहार्यः। कुतः इत्यत आह -- महतीति। तत्रैव मत्स्यपुराणे। अर्थक्रमेणमम योनिर्महद्ब्रह्म इत्यत्र व्युत्क्रमेण व्याख्यानम्। मत्स्यपुराणोदाहरणप्रसङ्गादत्रोपपादनमिति।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।14.3।।तदेवं प्रशंसया श्रोतारमभिमुखीकृत्य परमेश्वराधीनयोः प्रकृतिपुरुषयोः सर्वभूतोत्पत्तिंप्रति हेतुत्वं नतु सांख्यसिद्धान्तवत्स्वतन्त्रयोरितीमं विवक्षितमर्थमाह द्वाभ्याम् -- सर्वकार्यापेक्षयाऽधिकत्वात्कारणं महत्? सर्वकार्याणां वृद्धिहेतुत्वरूपाद्ब्रंहणत्वाद्ब्रह्म अव्याकृतं? प्रकृतिस्त्रिगुणात्मिका माया? महद्ब्रह्म तच्च ममेश्वरस्य योनिर्गर्भाधानस्थानम्। तस्मिन्महति ब्रह्मणि योनौ गर्भं सर्वभूतजन्मकारणं अहंबहुस्यां प्रजायेय इतीक्षणरूपं संकल्पं दधामि धारयामि। तत्संकल्पविषयीकरोमीत्यर्थः। यथाहि कश्चित्पिता पुत्रमनुशयिनं व्रीह्याद्याहाररूपेण स्वस्मिन् लीनं शरीरेण योजयितुं योनौ रेतःसेकपूर्वकं गर्भमाधत्ते तस्माच्च गर्भाधानात्स पुत्रः शरीरेण युज्यते तदर्थं च मध्ये कललाद्यवस्था भवन्ति? तथा प्रलये मयि लीनमविद्याकामकर्मानुशयवन्तं क्षेत्रज्ञं सृष्टिसमये भोग्येन क्षेत्रेण कार्यकरणसंघातेन योजयितुं चिदाभासाख्यरेतःसेकपूर्वकं मायावृत्तिरूपं गर्भमहमादधामि। तदर्थं च मध्ये आकाशवायुतेजोजलपृथिव्याद्युत्पत्त्यवस्थाः। ततो गर्भाधानात्संभव उत्पत्तिः सर्वभूतानां हिरण्यगर्भादीनां भवति हे भारत? नत्वीश्वरकृतगर्भाधानं विनेत्यर्थः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।14.3।।एवं फलरूपतामुक्त्वा तदेव प्रपञ्चयति -- ममेति। महत् देशकालाद्यपरिच्छिन्नं ब्रह्म बृहत्त्वाद्बृंहणत्वेन मल्लीलार्थवस्तुवृद्धिहेतुत्वात् ब्रह्म प्रकृतिः मम पुरुषोत्तमस्य योनिः क्रीडार्थविचित्रानेकवस्तुरूपप्रकटनात्मकगर्भाधानस्थानम्। तस्मिन् गर्भं क्रीडेच्छात्मकभावं दधामि स्थापयामि। ततो गर्भाधानानन्तरं सर्वभूतानां सम्भव उत्पत्तिर्भवति। भारत इति सम्बोधनं विश्वासार्थम्।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।14.3।। --,मम स्वभूता मदीया माया त्रिगुणात्मिका प्रकृतिः योनिः सर्वभूतानां कारणम्। सर्वकार्येभ्यो महत्त्वात् भरणाच्च स्वविकाराणां महत् ब्रह्म इति योनिरेव विशिष्यते। तस्मिन् महति ब्रह्मणि योनौ गर्भं हिरण्यगर्भस्य जन्मनः बीजं सर्वभूतजन्मकारणं बीजं दधामि निक्षिपामि क्षेत्रक्षेत्रज्ञप्रकृतिद्वयशक्तिमान् ईश्वरः अहम्? अविद्याकामकर्मोपाधिस्वरूपानुविधायिनं क्षेत्रज्ञं क्षेत्रेण संयोजयामि इत्यर्थः। संभवः उत्पत्तिः सर्वभूतानां हिरण्यगर्भोत्पत्तिद्वारेण ततः तस्मात् गर्भाधानात् भवति हे भारत।।

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।14.3।।तदेवं प्रशंसया श्रोतारमभिमुखीकृत्य स्वस्याचिन्त्यशक्तिवैभवलीलां दर्शयति -- ममेति। तत्रसर्गेऽपि नोपजायन्ते [14।2] इत्यत्राभिप्रेतं सर्गस्य प्राकृतत्वेन सगुणत्वं वदन् तत्सम्भवमाह -- मम योनिरिति। गुणानां हेतुभूता सर्वस्य भूतजातस्य मत्प्रकृतिगुणसंसर्गजत्वं पूर्वोक्तं मयैव कृतमिति स्पष्टयितुं ममेति। मम सदंशभूता योनिः निषेकस्थानं प्रकृतिः त(तस्मा)देतद्ब्रह्म नामरूपमन्नं च जायते [मुं.उ.1।1।9] इति श्रुतेर्ब्रह्मांशभूतत्वान्महद्ब्रह्मेत्युच्यते सूत्रभूतादिकारणभूताऽचेतना? तत्र गर्भं बीजभूतं सूत्रं चेतनपुञ्जीभूतं च दधाम्यहमक्षरात्मा पुरुषः स धारणमीक्षणद्वारा भवति तदेव बीजमित्युच्यते तत्सम्मृष्टपुरुषो विराट्? तत्संसृष्टा उभयस्वरूपाश्चेतना अणवो व्युञ्चरिता जायायामिवात्मा वै जायते इति तदंशभूता मत्स्वरूपचैतन्यतोऽभिन्नाः प्राणधारणप्रयत्नवन्तोऽनेके जीवा इति व्यपदिश्यन्ते। तदाह -- तत इति। गर्भात्सर्वभूतानां सम्भवो भवति।