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As Krishna says, patience is a virtue
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।14.4।।
sarva-yoniṣhu kaunteya mūrtayaḥ sambhavanti yāḥ tāsāṁ brahma mahad yonir ahaṁ bīja-pradaḥ pitā
Whatever forms are produced, O Arjuna, in any womb whatsoever, the great Brahma is their womb, and I am the seed-giving father.
14.4 सर्वयोनिषु in all the wombs? कौन्तेय O son of Kunti (Arjuna)? मूर्तयः forms? सम्भवन्ति are produced? याः which? तासाम् their? ब्रह्म Brahma? महत् great? योनिः womb? अहम् I? बीजप्रदः seedgiving? पिता father.Commentary I am the father The Primordial Nature is the mother. The whole manifested world is the child Nature has produced in its association with me. Therefore I am called the father of this world.Wombs Such as the gods? the manes? men? cattle? beasts? birds? etc.Forms Bodies consisting of parts? limbs? organs? etc.
।।14.4।। व्याख्या -- सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः -- जरायुज (जेरके साथ पैदा होनेवाले मनुष्य? पशु आदि)? अण्डज (अण्डेसे उत्पन्न होनेवाले पक्षी? सर्प आदि)? स्वेदज (पसीनेसे उत्पन्न होनेवाले जूँ? लीख आदि) और उद्भिज्ज (पृथ्वीको फोड़कर उत्पन्न होनेवाले वृक्ष? लता आदि) -- सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्तिके ये चार खानि अर्थात् स्थान हैं। इन चारोंमेंसे एकएक स्थानसे लाखों योनियाँ पैदा होती हैं। उन लाखों योनियोंमेंसे एकएक योनिमें भी जो प्राणी पैदा होते हैं? उन सबकी आकृति अलगअलग होती है। एक योनिमें? एक जातिमें पैदा होनेवाले प्राणियोंकी आकृतिमें भी स्थूल या सूक्ष्म भेद रहता है अर्थात् एक समान आकृति किसीकी भी नहीं मिलती। जैसे? एक मनुष्ययोनिमें अरबों वर्षोंसे अरबों शरीर पैदा होते चले आये हैं? पर आजतक किसी भी मनुष्यकी आकृति परस्पर नहीं मिलती। इस विषयमें किसी कविने कहा है -- पाग भाग वाणी प्रकृति? आकृति वचन विवेक। अक्षर मिलत न एकसे? देखे देश अनेक।।अर्थात् पगड़ी? भाग्य? वाणी (कण्ठ)? स्वभाव? आकृति? शब्द? विचारशक्ति और लिखनेके अक्षर -- ये सभी दो मनुष्योंके भी एक समान नहीं मिलते। इस तरह चौरासी लाख योनियोंमें जितने शरीर अनादिकालसे पैदा होते चले आ रहे हैं? उन सबकी आकृति अलगअलग है। चौरासी लाख योनियोंके सिवाय देवता? पितर?,गन्धर्व? भूत? प्रेत आदिको भी यहाँ सर्वयोनिषु पदके अन्तर्गत ले लेना चाहिये।तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता -- उपर्युक्त चार खानि अर्थात् चौरासी लाख योनियाँ तो शरीरोंके पैदा होनेके स्थान हैं और उन सब योनियोंका उत्पत्तिस्थान (माताके स्थानमें) महद्ब्रह्म अर्थात् मूल प्रकृति है। उस मूल प्रकृतिमें जीवरूप बीजका स्थापन करनेवाला पिता मैं हूँ।भिन्नभिन्न वर्ण और आकृतिवाले नाना प्रकारके शरीरोंमें भगवान् अपने चेतनअंशरूप बीजको स्थापित करते हैं -- इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक प्राणीमें स्थित परमात्माका अंश शरीरोंकी भिन्नतासे ही भिन्नभिन्न प्रतीत होता है। वास्तवमें सम्पूर्ण प्राणियोंमें एक ही परमात्मा विद्यमान हैं (गीता 13। 2)। इस बातको एक दृष्टान्तसे समझाया जाता है। यद्यपि दृष्टान्त सर्वांशमें नहीं घटता? तथापि वह बुद्धिको दार्ष्टान्तके नजदीक ले जानेमें सहायक होता है। कपड़ा और पृथ्वी -- दोनोंमें एक ही तत्त्वकी प्रधानता है। कपड़ेको अगर जलमें डाला जाय तो वह जलके निचले भागमें जाकर बैठ जाता है। कपड़ा ताना (लम्बा धागा) और बाना(आ़ड़ा धागा) से बुना जाता है। प्रत्येक ताने और बानेके बीचमें एक सूक्ष्म छिद्र रहता है। कपड़ेंमें ऐसे अनेक छिद्र होते हैं। जलमें पड़े रहनेसे कपड़के सम्पूर्ण तन्तुओंमें और अलगअलग छिद्रोंमें जल भर जाता है। कपड़ेको जलसे बाहर निकालनेपर भी उसके तन्तुओंमें और असंख्य छिद्रोंमें एक ही जल समानरीतिसे परिपूर्ण रहता है। इस दृष्टान्तमें कपड़ा प्रकृति है? अलगअलग असंख्य छिद्र शरीर हैं और कपड़े तथा उसके छिद्रोंमें परिपूर्ण जल परमात्मतत्त्व है। तात्पर्य है कि स्थूल दृष्टिसे तो प्रत्येक शरीरमें परमात्मतत्त्व अलगअलग दिखायी देता है? पर सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो सम्पूर्ण शरीरोंमें? सम्पूर्ण संसारमें एक ही परमात्मतत्त्व परिपूर्ण है। सम्बन्ध -- परमात्मा और उनकी शक्ति प्रकृतिके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले जीव प्रकृतिजन्य गुणोंसे कैसे बँधते हैं -- इस विषयका विवेचन आगेके श्लोकसे आरम्भ करते हैं।
।।14.4।। सृष्टि की ओर एक दृष्टिक्षेप करने से ही यह ज्ञान होता है कि यहाँ प्राणियों की निरन्तर उत्पत्ति हो रही है। मृत प्राणियों का स्थान असंख्य नवजात जीव लेते रहते हैं। मनुष्य? पशु? मृग? वनस्पति इन सभी योनियों में यही प्रक्रिया निरन्तर चल रही है। ये सभी प्राणी जड़ और चेतन के संयोग से ही बने हैं। इनमें विषमता या भेद जड़ उपाधियों के कारण है? जबकि सभी में चेतन तत्त्व एक ही है। यह जड़ प्रकृति ही महद्ब्रह्म शब्द से इंगित की गई है।भगवान् श्रीकृष्ण अपने सच्चिदानन्दस्वरूप के साथ तादात्म्य करके कहते हैं? इस प्रकृति रूप योनि में बीज की स्थापना करने वाला पिता मैं हूँ। उनका यह कथन लाक्षणिक है। जैसा कि पूर्व श्लोक की व्याख्या में हम देख चुके है? प्रकृति में परमात्मा का चैतन्यरूप में व्यक्त होना ही उनके द्वारा बीज स्थापित करना है? जिसके फलस्वरूप वह जड़ प्रकृति चेतन होकर कार्यक्षम होती है जैसे वाष्पशक्ति से युक्त होने पर ही इन्जिन में गति आती है? अन्यथा वह एक आकार विशेष में लोहमात्र होता है यही स्थिति चैतन्य के बिना शरीर? मन और बुद्धि उपाधियों की भी होती है। एक अविवाहित पुरुष में प्रजनन की क्षमता होने मात्र से ही वह किसी का पिता नहीं कहलाया जा सकता। इसके लिये विवाहोपरान्त उसे गर्भ में अपना बीज स्थापित करना होता है। इसी प्रकार? प्रकृति के बिना केवल पुरुष स्वयं को व्यक्त नहीं कर सकता। इसी सिद्धान्त को भगवान् यहाँ सारांश में बताते हैं कि वे सम्पूर्ण विश्व के सनातन पिता हैं? जो विश्व मञ्च पर जीवननाटक के मंचन की व्यवस्था करते हैं।यद्यपि अन्य धर्म के अनुयायियों के द्वारा हमें यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया जाता है कि ईश्वर का जगत्पितृत्व केवल ईसाई धर्म ने ही सर्वप्रथम पहचाना और मान्य किया? तथापि वस्तुस्थिति इस धारणा का खण्डन ही करती है? क्योंकि ईसा मसीह से हजारों वर्ष पूर्व गीता का उपदेश अर्जुन को दिया गया था। अधिकसेअधिक हम इतना ही कह सकते हैं कि इस विचार को ईसा मसीह ने अपने से पूर्व विद्यमान धर्मों से ही लिया होगा। हिन्दुओं ने ईश्वर के जगत्पितृत्व पर अधिक बल नहीं दिया। यद्यपि यह कल्पना काव्यात्मक है? तथापि सैद्धान्तिक दृष्टि से अधिक युक्तिसंगत नहीं कही जा सकती। परन्तु? सामान्य जनता को यह कल्पना सरलता से बोधगम्य होने के कारण पश्चात् के धर्म संस्थापकों ने इसे पूर्वकालीन धर्मों से उदारतापूर्वक स्वीकार कर लिया।इस अध्याय के मुख्य विषय का प्रारम्भ करते हुये भगवान् श्रीकृष्ण बताते हैं कि प्रकृति के वे गुण कौन से हैं और वे किस प्रकार आत्मा को अनात्मा के साथ बांध देते हैं
।।14.4।।ननु कथमुक्तकारणानुरोधेन हिरण्यगर्भोद्भवमभ्युपेत्य भूतानामुत्पत्तिरुच्यते देवादिजातिविशेषेषु देहविशेषाणां कारणान्तरस्य संभवात्तत्राह -- सर्वयोनिष्विति। तत्र तत्र हेत्वन्तरप्रतिभासे कुतोऽस्य हेतुत्वमित्याशङ्क्य तद्रूपेणास्यैवावस्थानादित्याह -- सर्वावस्थमिति।
।।14.4।।न केवलं सृष्ट्युपक्रमे एव प्रकृतेः योनिरहं च गर्भाधानकर्ता अपितु सर्वदैवेत्याह -- सर्वयोनिष्विति। सर्वाषु योनिषु मनुष्याद्यासु निषु या मूर्तयो देहसंस्थानलक्षणाः संभवन्ति हे कैन्तेय? यथा तव कुन्ती तथा तासां ब्रह्म महत्तत्रतत्र तत्तत्कारणरुपेणावस्थितं योनिः कारणमहमीशो बीजप्रदः गर्भाधानस्य कर्ता पिता। तथाच प्रकृतेरेवावस्थाविशेषेषु कारणान्तरेषु गर्भाधानकर्तुः परमेस्वरस्यैव सर्वत्र सत्त्वात् युक्तमुक्तं संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारतेति।
।।14.4।।किंच सर्वेषु भूतेषु योनिषु उपादानभूतेषु पृथिव्यामोषधय इव या मूर्तयः शरीराणि सुरनरतिर्यक्स्थावरात्मकानि चतुर्विधानि संभवन्ति तासां मूर्तीनां ब्रह्ममहत्पूर्वोक्तं महतो ब्रह्म ब्रह्ममहत्। राजदन्तादित्वादुपसर्जनस्य परनिपातः। मायैव योनिरित्यर्थः। अहं तु तासां बीजप्रदः पिता तास्वपि स्वप्रतिबिम्बस्यार्पयिता। यथा पुरुषो भार्यायामनुशयिसंपृक्तं रेतो निषिञ्चति ततो भार्यातः पिण्डोत्पत्तिः रेतोंशतस्तत्र चैतन्योत्पत्तिरिति चैतन्यविशिष्टस्य पिण्डस्य पिताऽहं माता च मायेत्यर्थः।
।।14.4।।सर्वासु देवगन्धर्वयक्षराक्षसमनुष्यपशुमृगपक्षिसरीसृपादिषु योनिषु तत्तन्मूर्तयः याः संभवन्ति जायन्ते तासां ब्रह्म महद् योनिः कारणं मया संयोजितचेतनवर्गा महदादिविशेषान्तावस्था प्रकृतिः कारणम् इत्यर्थः। अहं बीजप्रदः पिता तत्र तत्र च तत्तत्कर्मानुगुण्येन चेतनवर्गस्य संयोजकः च अहम् इत्यर्थः।एवं सर्गादौ प्राचीनकर्मवशाद् अचित्संसर्गेण देवादियोनिषु जातानां पुनः पुनः देवादिभावेन जन्महेतुम् आह --
।।14.4।। न केवलं सृष्ट्युपक्रम एव मदधिष्ठिताभ्यां प्रकृतिपुरुषाभ्यामयं भूतोत्पत्तिप्रकारः अपितु सर्वदैवेत्याह -- सर्वयोनिष्विति। सर्वासु योनिषु मनुष्याद्यासु या मूर्तयः स्थावरजङ्गमात्मिका उत्पद्यन्ते तासां मूर्तीनां महद्ब्रह्म प्रकृतिः योनिर्मातृस्थानीया। अहं च बीजप्रदः गर्भाधानादिकर्ता पिता।
।।14.4।।एवमनेन श्लोकेन प्राकृतनैमित्तिकसृष्ट्योः स्वाधीनत्वमुक्तम् अथ नित्यसृष्टिरपि स्वेनैव कृतेत्युच्यतेसर्वयोनिषु इति श्लोकेन। श्लोकयोः पुनरुक्तिपरिहारमभिप्रेत्याहकार्यावस्थोऽपीति। नित्यसर्गावच्छिन्नोऽपीत्यर्थः। हिरण्यगर्भमूलचतुर्विधसृष्टेः समनन्तरमप्याप्रलयात्क्षुद्रेष्वपि जन्तुषु या सन्ततिः? तत्रापि नेश्वरः स्वयमुदासीनः सन्नन्यैः कारयतीत्यभिप्रायेण सर्वयोनिशब्द इत्याहदेवगन्धर्वेत्यादिना। प्रमाणसिद्धं प्रतिनियतकारणवस्तुवैजात्यलक्षणं वैचित्र्यं स्रष्टुः स्वस्य विचित्रशक्तियोगज्ञप्तयेयाः इति प्रसिद्धवन्निर्देशेनानूद्यत इत्यभिप्रायेणाहतत्तन्मूर्तय इति।सम्भवन्ति इत्यस्य सम्भावनार्थताव्युदासार्थमुपादानोपादेयभावज्ञापनार्थं चाहजायन्त इति। अव्यवहितोपादानत्वाद्यभावात्कारणमित्युक्तम्। चित्सम्पर्कविरहे सर्वेश्वराधिष्ठानविरहे च केवलस्याचिन्मात्रस्य हेतुत्वायोगमभिप्रेत्याहमया संयोजितचेतनवर्गेति।सर्वयोनिषु इत्यादिना निर्दिश्यमानचरमव्यष्टिसृष्टौ बहुयोनिकतया प्रतीयमानायां च कथमेकस्या मूलप्रकृतेर्योनित्वं इत्यत्राह -- महदादिविशेषान्तावस्थेति। विशेषाः पञ्चभूतानि। अत्र को बीजशब्दार्थः किञ्च पितृत्वव्यपदेशहेतुभूतं तत्प्रदानंतासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता इत्यनेन च सेश्वरसाङ्ख्यवत् प्रकृतेरेवोपादानत्वम्? ईश्वरस्य च केवलनिमित्तत्वं प्रतीयते? तच्च श्रुतिविरुद्धम् एकस्यामेव च योनावेकस्मिन्नेवाविषमे पितरि जायमानानां वैचित्र्यं किन्निबन्धनं इत्यत्राहतत्र तत्रेति।महद्ब्रह्म योनिः इति पूर्वश्लोकोक्ता प्रकृतिरत्रापि स्वशब्देनोपात्ता। तत्र गर्भशब्दस्थानीयो बीजशब्दस्तत्तत्सृष्ट्यनुगुणचेतनवाचीति भावः।
।।14.4।।अत एव -- सर्वयोनिष्विति। सर्वासु योनिषु आदिकारणतया (S? आद्यकारणतया) बृंहिका भगवच्छक्तिः सकलसंसारजननस्वभावा (?K -- वमनस्वभावा) माता। पिता त्वहं शक्तिमान् अव्यपदेश्यः।
।।14.4।।ननु कथं सर्वभूतानां ततः संभवो देवादिदेहविशेषाणां कारणान्तरसंभवादित्याशङ्क्याह -- सर्वयोनिष्विति। देवपितृमनुष्यपशुमृगादिसर्वयोनिषु या मूर्तयो जरायुजाण्डजस्वेदजोद्भिज्जादिभेदेन विलक्षणविविधसंस्थानास्तनवः संभवन्ति हे कौन्तेय? तासां मूर्तीनां तत्तत्कारणभावापन्नं महत् ब्रह्मैव योनिर्मातृस्थानीयां। अहं परमेश्वरो बीजप्रदो गर्भाधानस्य कर्ता पिता। तेन महतो ब्रह्मण एवावस्थाविशेषाःकारणान्तराणीति युक्तमुक्तं संभवः सर्वभूतानां ततो भवतीति।
।।14.4।।नन्वनेकविधवस्तूनामनेकयोनिषु नानाविधप्रतीतौ कथमेकयोनित्वं इत्यत आह -- सर्वयोनिष्विति। पूर्वं तु सर्वोत्पत्तिरूपसर्वयोन्युत्पत्तिः? ततः सर्वयोनिषु हे कौन्तेय या मूर्तयः स्वरूपाणि सम्भवन्ति? तासां महद्ब्रह्म प्रकृतियोनिरुत्पत्तिस्थानं मातृस्थानीयं बीजप्रदः इच्छाज्ञानात्मकबीजप्रदः पिता उत्पादकः? अहमेवेत्यर्थः। तदेव ब्रह्म मदिच्छया नानायोनिरूपेण भूत्वा भासते इत्यर्थः।
।।14.4।। --,देवपितृमनुष्यपशुमृगादिसर्वयोनिषु कौन्तेय? मूर्तयः देहसंस्थानलक्षणाः मूर्छिताङ्गावयवाः मूर्तयः संभवन्ति याः? तासां मूर्तीनां ब्रह्म महत् सर्वावस्थं योनिः कारणम् अहम् ईश्वरः बीजप्रदः गर्भाधानस्य कर्ता पिता।।के गुणाः कथं बध्नन्तीति? उच्यते --,
।।14.4।।एवं कार्यावस्थोऽयं चिदचित्प्रकृतिसर्गो मयैव कृत इति सर्वयोनिष्विति। नेदमपूर्वतरमिवोच्यते किन्तु सर्वत्रैवमेव लोके दृश्यत इत्याह एकः पिताऽन्यत्क्षेत्रमिति। तत्र तासां भूतमूर्तीनां महद्ब्रह्म योनिः? अहं बीजप्रदः पितेति वस्तुतोऽवसेयम्। अत एव विष्णुपुराणादौ लक्ष्मीनारायणौ गौरीशङ्करौ सर्वत्र स्त्रीपुम्भावापन्नस्वरूपौ निरूपितौ।