BG - 14.5

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।14.5।।

sattvaṁ rajas tama iti guṇāḥ prakṛiti-sambhavāḥ nibadhnanti mahā-bāho dehe dehinam avyayam

  • sattvam - mode of goodness
  • rajaḥ - mode of passion
  • tamaḥ - mode of ignorance
  • iti - thus
  • guṇāḥ - modes
  • prakṛiti - material nature
  • sambhavāḥ - consists of
  • nibadhnanti - bind
  • mahā-bāho - mighty-armed one
  • dehe - in the body
  • dehinam - the embodied soul
  • avyayam - eternal

Translation

These qualities, O Arjuna, born of Nature, bind fast in the body of the embodied, the indestructible: purity, passion, and inertia.

Commentary

By - Swami Sivananda

14.5 सत्त्वम् purity? रजः passion? तमः inertia? इति these? गुणाः alities? प्रकृतिसंभवाः born of Prakriti? निबध्नन्ति bind? महाबाहो O mightyarmed? देहे in the body? देहिनम् the embodied? अव्ययम् the,indestructible.Commentary Sattva is the best. Rajas comes next. Tamas is the lowest and the worst. The three alities indicate the triple mentality. They produce attachment in the individual souls? delude them and bind them down? as it were? to Samsara. Just as the three conditions of childhood? youth and old age are found in the same body? so also the three alities inhere in the mind. The soul gets limited by identifying itself with body and the three alities. It is subject to birth and death and experiences happiness and misery? pleasure and pain? joy and sorrow till it realises its identity with the supreme Self.The word Guna is usually translated as ality. It does not signify property? attribute or ality? such as the blue colour of a cloth. Gunas are really the primary constitutents of Nature and are the basis of all substances. Therefore it is not proper to call them alities inhering in substances.If you want to attain freedom or perfection? if you wish to become immortal? you must rise above the modes of Nature. You must transcend the Gunas.If the water in the vessel is agitated? the reflected sun in the water also appears to be agitated through Pratibimba Adhyasa (superimposition of reflection on water). Even so the pure unchanging Self appears to be bound by the alities of Nature through superimposition. In reality the Self is ever free and untainted. It is beyond them.The Gunas which are only forms of ignorance are ever dependent on the knower of the field. They bind? fast? as it were? the knower of the field. They have him as the basis of their existence.A knowledge of the Gunas and their operation is very necessary. Only if you have this knowledge can you free yourself from their clutches.Mahabaho Mightyarmed with strong and sinewy arms reaching down to the kness. This is a very auspicious sign. Yogis and sages have such beautiful arms.These three Gunas are present in all human beings. No one is free from the operation of any one of the three alities of Nature. They are not constant. Sometimes Sattva predominates at other times Rajas or Tamas predominates.Sattva has the characteristic of effulgence. It is also harmony and goodness or purity. Rajas is passion or activity. Tamas is inertia or darkness.Analyse all phenomena in terms of these three. Know their characteristics. Stand as a witness of these alities. Do not identify yourself with them. Separate yourself from them. Become a Gunatita. You will attain Supreme Peace? immortality and eternal bliss. (Cf.XIII.22)

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।14.5।। व्याख्या --   सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः -- तीसरे और चौथे श्लोकमें जिस मूल प्रकृतिको महद् ब्रह्म नामसे कहा है? उसी मूल प्रकृतिसे सत्त्व? रज और तम -- ये तीनों गुण पैदा होते हैं।यहाँ इति पदका तात्पर्य है कि इन तीनों गुणोंसे अनन्त सृष्टियाँ पैदा होती हैं तथा तीनों गुणोंके तारतम्यसे प्राणियोंके अनेक भेद हो जाते हैं? पर गुण न दो होते हैं? न चार होते हैं? प्रत्युत तीन ही होते हैं।निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् -- ये तीनों गुण अविनाशी देहीको देहमें बाँध देते हैं। वास्तवमें देखा जाय तो ये तीनों गुण अपनी तरफसे किसीको भी नहीं बाँधते? प्रत्युत यह पुरुष ही इन गुणोंके साथ सम्बन्ध जोड़कर बँध जाता है। तात्पर्य है कि गुणोंके कार्य पदार्थ? धन? परिवार? शरीर? स्वभाव? वृत्तियाँ? परिस्थितियाँ? क्रियाएँ आदिको अपना मान लेनेसे यह जीव स्वयं अविनाशी होता हुआ भी बँध जाता है? विनाशी पदार्थ? धन आदिके वशमें हो जाता है सर्वथा स्वतन्त्र होता हुआ भी पराधीन हो जाता है। जैसे? मनुष्य जिस धनको अपना मानता है? उस धनके घटनेबढ़नेसे स्वयंपर असर पड़ता है जिन व्यक्तियोंको अपना मानता है? उनके जन्मनेमरनेसे स्वयंपर असर पड़ता है जिस शरीरको अपना मानता है? उसके घटनेबढ़नेसे स्वयंपर असर पड़ता है। यही गुणोंका अविनाशी देहीको बाँधना है।यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि यह देही स्वयं अविनाशीरूपसे ज्योंकात्यों रहता हुआ भी गुणोंके? गुणोंकी वृत्तियोंके अधीन होकर स्वयं सात्त्विक? राजस और तामस बन जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं -- ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी।। (मानस 7। 117। 1)जीवका यह अविनाशी स्वरूप वास्तवमें कभी भी गुणोंसे नहीं बँधता परन्तु जब वह विनाशी देहको मैं? मेरा और मेरे लिये मान लेता है? तब वह अपनी मान्यताके कारण गुणोंसे बँध जाता है? और उसको परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें कठिनता प्रतीत होती है (गीता 12। 5)। देहाभिमानके कारण गुणोंके द्वारा देहमें बँध जानेसे वह तीनों गुणोंसे परे अपने अविनाशी स्वरूपको नहीं जान सकता। गुणोंसे देहमें बँध जानेपर भी जीवका जो वास्तविक अविनाशी स्वरूप है? वह ज्योंकात्यों ही रहता है? जिसका लक्ष्य भगवान्ने यहाँ,अव्ययम् पदसे कराया है।यहाँ देहिनम् पदका तात्पर्य है कि देहमें तादात्म्य? ममता और कामना होनेसे ही तीनों गुण इस पुरुषको देहमें बाँधते हैं। यदि देहमें तादात्म्य? ममता और कामना न हो? तो फिर यह परमात्मस्वरूप ही है।विशेष बातशरीरके साथ जीव दो तरहसे अपना सम्बन्ध जोड़ता है -- (1) अभेदभावसे -- अपनेको शरीरमें बैठाना? जिससे मैं शरीर हूँ ऐसा दीखने लगता है? और (2) भेदभावसे -- शरीरको अपनेमें बैठाना? जिससे शरीर मेरा है ऐसा दीखने लगता है। अभेदभावसे सम्बन्ध जो़ड़नेसे जीव अपनेको शरीर मान लेता है? जिसको अहंता कहते हैं और भेदभावसे सम्बन्ध जो़ड़नेसे जीव शरीरको अपना मान लेता है? जिसको,ममता कहते हैं। इस प्रकार शरीरसे अपना सम्बन्ध जोड़नेपर सत्त्व? रज और तम -- तीनों गुण अपनी वृत्तियोंके द्वारा शरीरमें अहंताममता दृढ़ करके जीवको बाँध देते हैं।जैसे विवाह हो जानेपर पत्नीके पूरे परिवार(ससुराल) के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है? पत्नीके वस्त्राभूषण आदिकी आवश्यकता अपनी आवश्यकता प्रतीत होने लगती है? ऐसे ही शरीरके साथ मैंमेरेका सम्बन्ध हो जानेपर जीवका पूरे संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है और शरीरनिर्वाहकी वस्तुओँको वह अपनी आवश्यकता मानने लग जाता है। अनित्य शरीरसे सम्बन्ध (एकात्मता) माननेके कारण वह अनित्य शरीरको नित्य रखनेकी इच्छा करने लगता है क्योंकि वह स्वयं नित्य है। शरीरके साथ सम्बन्ध माननेके कारण ही उसको मरनेका भय लगने लगता है क्योंकि शरीर मरनेवाला है। यदि शरीरसे सम्बन्ध न रहे? तो फिर न तो नित्य बने रहनेकी इच्छा होगी और न मरनेका भय ही होगा। अतः जबतक नित्य बने रहनेकी इच्छा और मरनेका भय है? तबतक वह गुणोंसे बँधा हुआ है।जीव स्वयं अविनाशी है और शरीर विनाशी है। शरीरका प्रतिक्षण अपनेआप वियोग हो रहा है। जिसका अपनेआप वियोग हो रहा है? उससे सम्बन्धविच्छेद करनेमें क्या कठिनता और क्या उद्योग उद्योग है तो केवल इतना ही है कि स्वतः वियुक्त होनेवाली वस्तुको पकड़ना नहीं है। उसको न पकड़नेसे अपने अविनाशी? गुणातीत स्वरूपका अपनेआप अनुभव हो जायगा। सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें भगवान्ने सत्त्व? रज और तम -- इन तीनों गुणोंके द्वारा देहीके बाँधे जानेकी बात कही। उन तीनों गुणोंमेंसे सत्त्वगुणका स्वरूप और उसके बाँधनेका प्रकार आगेके श्लोकमें बताते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।14.5।। गुण शब्द अध्यात्मशास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली का होने के कारण उसका किसी अन्य भाषा में अनुवाद करना कठिन है। विशेषकर अंग्रेजी में उसका समानार्थी कोई शब्द नहीं है। इसका कारण यह है कि पाश्चात्य मनोविज्ञान अभी भी शैशव अवस्था में ही है। जब उनके द्वारा मनोविज्ञान का सैद्धान्तिक और प्रायोगिक निरीक्षण तथा अध्ययन पूर्ण कर लिया जायेगा? केवल तभी? वे प्रत्येक व्यक्ति के अन्तकरण में उदित होने वाले विचारों पर इन गुणों के पड़ने वाले प्रभाव को समझ पायेंगे।आध्यात्मिक साहित्य में सत्त्व? रज और तम? इन तीन गुणों को क्रमश श्वेत? रक्त और कृष्ण वर्ण के द्वारा सूचित किया जाता है।संस्कृत में गुण शब्द का अर्थ रज्जु अर्थात् रस्सी भी होता है। तात्पर्य यह हुआ कि प्रकृति के ये तीन गुण रज्जु के समान हैं? जो सच्चित्स्वरूप आत्मतत्त्व को असत् और जड़ अनात्मतत्त्व के साथ बांध देते हैं। सारांशत? ये गुण वे तीन विभिन्न प्रकार के भाव हैं जिनके वशीभूत् होकर हमारा मन? निरन्तर परिवर्तनशील परिस्थितियों में विविध प्रकार से अपनी प्रतिक्रियारूपी क्रीड़ा करता रहता है।ये गुण प्रकृति से उत्पन्न हुये हैं। वे आत्मा को देह के साथ मानो बांध देते हैं? जिसके कारण वह जीव भाव को प्राप्त होकर जन्म और मरण के अविरल चक्र और संसार के दुखों में फँस जाता है। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है? प्रकृति के ये गुण द्रव्याश्रित धर्म नहीं हैं। हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि ये विभिन्न प्रकार के भाव हैं? जिनके कारण भिन्नभिन्न व्यक्तियों का व्यवहार भिन्नभिन्न प्रकार का होता है।आत्मा और अनात्मा का यह संबंध मिथ्या है? वास्तविक नहीं। देशकालादि के परिच्छेदों से मुक्त आत्मा को इन परिच्छेदों से युक्त? स्वप्न के समान प्रक्षेपित? जड़ उपाधियों के साथ कभी नहीं बांधा जा सकता। वह इनके दोषों से सदा असंस्पृष्ट ही रहता है? जैसे? स्तंभ अपने में अध्यस्त प्रेत से और जाग्रत् पुरुष स्वप्न द्रष्टा के अपराधों से वस्तुत अलिप्त ही रहता है। इसी प्रकार? जब तक त्रिगुण जनित बन्धन बना रहता है? तब तक ऐसा प्रतीत होता है? मानो आत्मा इन अनात्म उपाधियों के संसर्गवशात् जीव भाव को प्राप्त हुआ है? परन्तु यथार्थत वह नित्यमुक्त ही रहता है।उपर्युक्त विवेचन से अब यह स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार इन गुणों के स्वरूप तथा उनसे उत्पन्न बन्धन की प्रक्रिया का स्पष्ट ज्ञान हमें मुक्ति का अधिकार पत्र प्रदान कर सकता है।अब? भगवान् श्रीकृष्ण सर्वप्रथम सत्त्वगुण का लक्षण बताते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।14.5।।एवं क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगाज्जगदुत्पत्तिं दर्शयता ब्रह्मैवाविद्यया संसरतीत्युक्तमिदानीमध्यायादावुक्तमाकाङ्क्षाद्वयं पूर्वमनूद्यानन्तरश्लोकेनोत्तरमाह -- के गुणा इति। सत्त्वादिषु,कथं गुणशब्दप्रवृत्तिरित्याशङ्क्य परतन्त्रत्वादित्याह -- गुणा इति। रूपादिष्विव गुणशब्दः सत्त्वादिषु द्रव्याश्रितत्वं निमित्तीकृत्य किं न स्यादित्याशङ्क्य प्रकृत्यात्मकानां तेषां सर्वाश्रयत्वान्नैवमित्याह -- न रूपादिवदिति। गुणानां प्रकृतेश्च पृथगुक्तेरन्यत्वे कुतस्तेषां प्रकृत्यात्मत्वमित्याशङ्क्याह -- नच गुणेति। अत्यन्तभेदे गवाश्ववत्तद्भावासंभवादित्यर्थः। भेदाभेदे च तद्भावासंभवाद्विशेषात्कुतस्तेषु गुणपरिभाषेत्याशङ्क्याह -- तस्मादिति। क्षेत्रज्ञं प्रति नित्यपारतन्त्र्ये हेतुमाह -- अविद्येति। के गुणा इत्यस्योत्तरमुक्तं? कथं बध्नन्तीत्यस्योत्तरमाह -- क्षेत्रज्ञमिति। तदेवोपपादयति -- तमास्पदीकृत्येति। प्राकृतानां गुणानां प्रकृत्यात्मकत्वमाह -- ते चेति। संभवत्यस्मादिति संभवः प्रकृतिः संभवो येषां ते तथेति। सांख्यीयां प्रकृतिं प्रधानाख्यां व्यावर्तयति -- भगवदिति। इवकारानुबन्धेन नितरां बध्नन्ति स्वविकारवत्तयोपदर्शयन्तीति क्रियापदं व्याख्याय महाबाहुशब्दं व्याचष्टे -- महान्ताविति। देहवन्तं देहमात्मानं मन्यमानं देहस्वामिनमित्यर्थः। कूटस्थस्य कथं बध्यमानत्वमित्याशङ्क्यकुर्यान्मेरावणुधियम् इतिन्यायेन मायामाहात्म्यमिदमित्याह -- अव्ययमिति। स्वतो धर्मतो वा व्ययराहित्यमित्यपेक्षायामाह -- अव्ययत्वं चेति। लिप्यते न स पापेनेत्यनेन विरुद्धमिदं निबध्नन्तीति वचनमिति शङ्कते -- नन्विति। इवकारानुबन्धेन क्रियापदं व्याचक्षाणैरस्माभिरस्य चोद्यस्य परिहृतत्वान्नैवमित्याह -- परिहृतमिति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।14.5।।एवं द्वाभ्यां प्रकृतिपुरुषयोरीश्वरपारतन्त्र्यप्रतिपादनेन सांक्याभिमतं तयोः स्वातन्त्र्यं निरस्तम्? इदानीं के गुणाः कथं वा सङ्ग इति निरुपयति -- सत्त्वमित्यादि चतुर्दशबिः। सत्त्वं रजस्तम् इत्येवंनामानो गुणाः। इतिशब्दो न रुपादिवत्पारिभाषिकः सत्त्वादीनां द्रव्याश्रितत्वबोधकः। प्रकृत्यात्मकानां तेषां सर्वाश्रयत्वात्। नापि गुणगुणिनोरन्यत्वमत्र विवक्षितम्। अत्यन्तभेद गवाश्ववत्तद्भावासंभवात्। तस्माद्गुणा इव नित्यपरतन्त्राः क्षेत्रज्ञं प्रति तमास्पदीकृत्यैव तेषां प्रतिलम्भात्प्रकृतिसंभवाः त्रयाणां गुणानां साम्यावस्था प्रकृतिर्भगवतो माया संभवोऽभिव्यक्तिकारणं येषां ते देहे देहिनं देहमात्मानं देहवन्तं मन्यमानं जीवं वस्तुतोऽनादित्वादिति श्लोके प्रतिपादितं अव्ययं निर्विकारं निबध्नन्तिकुर्योन्मेरावणुधियम् इति न्यायेन मायामाहात्म्यमिदं? यदव्ययस्य बन्धनं तदपि मायिकत्वान्मिथ्याबूतमेव नतु वास्तवं तेन न करोति न लिप्यते? न स पापेनेत्यादिना देही न लिप्यत इति पूर्वमुक्तं तत्कथमिह निबन्धन्तीत्यन्यथोत्यत इति न शह्कनीयम्। महान्तौ समर्थौ वा जानुप्रलम्भौ बाहू यस्य स महाबाहुस्तस्य संबोधनं हे महाबाहो इति। अहमव्यय इति ज्ञानमेव गणकृतबन्धान्मुक्तिसाधनं नतु महाबाहुरहमिति,बाहुसामर्थ्यस्यात्रानुपयोगात्प्रत्यत देहाभीमानस्य बन्धनसाधनत्वाच्चेति द्योतनार्थम्।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।14.5।।बन्धप्रकारं दर्शयति साधनानुष्ठानाय -- सत्त्वमित्यादिना।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।14.5।।एवं ईश्वराश्रयेण प्रकृतिर्भूतानि सृजतीत्युक्तम्? इदानीं सा कथंभूता निबध्नातीति तदुच्यते -- सत्त्वमिति। प्रकृतिः सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था। ततः सकाशात्परस्पराङ्गाङ्गिभावेन वैषम्येण उद्रिच्यमानाः प्रकृतिसंभवा इत्युच्यन्ते न तु प्रकृतितो वैशेषिकाणामिव द्रव्याद्गुणा अन्ये एते हे महाबाहो? देहे अव्ययमविकारिणमपि देहिनं स्थूणायां वत्समिव रशनाभूता गुणा निबध्नन्ति।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।14.5।।सत्त्वरजस्तमांसि त्रयो गुणाः प्रकृतेः स्वरूपानुबन्धिनः स्वभावविशेषाः प्रकाशादिकार्यैकनिरूपणीयाः प्रकृत्यवस्थायाम् अनुद्भूताः तद्विकारेषु महदादिषु उद्भूताः महदादिविशेषान्तैः आरब्धदेवमनुष्यादिदेहसंबन्धिनम् एनं देहिनम् अव्ययं स्वतो गुणसम्बन्धानर्हं देहे वर्तमानं निबध्नन्ति देहे,वर्तमानत्वोपाधिना निबध्नन्ति इत्यर्थः।सत्त्वरजस्तमसाम् आकारं बन्धनप्रकारं च आह --

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।14.5।। तदेवं परमेश्वराधीनाभ्यां प्रकृतिपुरुषाभ्यां सर्वभूतोत्पत्तिं निरूप्य इदानीं प्रकृतिसंयोगेन पुरुषस्य संसारं प्रपञ्चयति -- सत्त्वमित्यादि चतुर्दशभिः। सत्त्वं रजस्तम इति त्रयो गुणाः प्रकृतिसंभवाः प्रकृतितः संभव उद्भवो येषां ते तथोक्ताः। गुणसाम्यं प्रकृतिस्तस्याः सकाशात्पृथक्त्वेनाभिव्यक्ताः सन्तः प्रकृतिकार्ये देहे तादात्म्येन स्थितं देहिनं चिदंशं वस्तुतोऽव्ययं निर्विकारमेव सन्तं निबध्नन्ति। स्वकार्यैः सुखदुःखमोहादिभिः संयोजयन्तीत्यर्थः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।14.5।।ननु नैमित्तिकसर्गादौ प्राचीनकर्मानुरूपपरमपुरुषसङ्कल्पकृताचित्संसर्गाज्जन्मोपपद्यते? प्राचीनं च कर्म तेनैव दत्तफलं? तदारम्भककर्मावसाने च तच्छरीरं विनश्येत् स्वतश्चात्मा विशुद्धः कुतः पुनरस्य नित्यसृष्टिविषयता इत्यत्र गुणबन्धप्रकरणमवतारयतिएवमिति।एवं समष्टिव्यष्टिविषयश्लोकद्वयोक्तप्रकारेणेत्यर्थः। स्वरूपनिरूपकधर्मा हि धर्मिणं कदाचिदपि न त्यजन्ति? अतः प्रकृतिसम्भवत्वमिह कार्यदशायां विषमतयोद्भवमात्रमित्यभिप्रायेणाहप्रकृतेः स्वरूपानुबन्धिन इति। निरुपधिका इत्यर्थः। कार्यावस्थप्रकृतिगतेभ्यः शब्दादिगुणेभ्यः स्वरूपनिरूपकत्वनित्यानुबन्धित्वलक्षणवैषम्यप्रकाशनाय इतिशब्दः। सत्त्वादीनामेव प्रकृतिद्रव्यतां वदतः साङ्ख्यान् प्रतिक्षिपतिस्वभावविशेषा इति। असाधारणधर्मविशेषा इति यावत्। चेतनासाधारणत्वेऽप्यौपाधिकाः सुखदुःखादयः? स्वाभाविका अपि साधारणाद्रव्यत्वादयः तदुभयव्यवच्छेदायस्वरुपानुबन्धिनः स्वभावविशेषा इति पदद्वयम्। एतेनगुणाः इति पारिभाषिकः शब्दः? न रूपादिवद्द्रव्याश्रिता इत्यादिशङ्करोक्तं निरस्तम्। गुणशब्दप्रसिद्धस्तन्मते विरुद्धेति भावः। ननु शब्दादिवन्न सत्त्वादिसंज्ञा गुणाः प्रत्यक्षेण दृश्यन्ते न च नित्यातीन्द्रियेऽनुमानं क्रमत इति शारीरके स्थापितम् नचानुपलब्धेषु प्रकृतिगुणेषु वायसरदनवदुपदेशस्य प्रयोजनं पश्यामः अतो वैशेषिकादिवदन्यपरत्वमिह वक्तुं युक्तमित्यत्राहप्रकाशादीति।अयमभिप्रायः -- प्रकाशप्रवृत्तिमोहरूपाणि कार्याणि तावत् प्रत्यक्षाणि तत्कारणविशेषाश्च कार्यभूतैस्तैरेव सामान्यतोऽनुमीयन्ते? कारणविशेषमन्तरेण कस्यापि कार्यस्यानुत्पत्तेः स च विशेषः सत्त्वादिरूप इत्यागमसिद्धम् न चात्र निष्प्रयोजनता? अतीन्द्रियविषभेषजशक्तिविशेषोपदेशवद्धानोपादानपर्यवसानात् -- इति।कार्यैकनिरूपणीयाश्चेत्प्रतिसर्गदशायां सुखदुःखादिकार्याभावात्सत्त्वादिगुणानामभावः प्राप्नोति अतः कथं स्वरूपानुबन्धित्वं इत्यत्राह -- प्रकृत्यवस्थायामनुद्भूता इति। कार्यहेतुरुद्भवः स्तदानीं नास्तीति भावः। तद्विकारेष्वित्यादिपरिणामवशात्पुष्पफलादिषु गन्धाद्युद्भववदिति भावः। प्रकृतितद्विकारस्था गुणाः स्वतोऽव्ययत्वाद्गुणसम्बन्धानर्हं कथं बध्नन्ति इत्यस्योत्तरंदेहिशब्द इत्याहमहदादिष्विति। अव्ययशब्दोऽत्र गुणसम्बन्धकृतज्ञानसङ्कोचरूपव्ययनिषेधपर इत्यभिप्रायेणाहअव्ययं स्वतो गुणसम्बन्धानर्हमिति। तथापिशरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते [13।31] इत्युक्तस्य कथं बन्धाख्यो लेपः इत्यत्र आमोक्षादविच्छिन्नदेहसम्बन्धोपाधिकत्वंदेहे इत्यनेन अभिप्रेतमित्याहदेहे वर्तमानत्वोपाधिनेति। एतेनक्षेत्रज्ञं बध्नन्तीव? तमास्पदीकृत्य आत्मानं प्रति लभन्ते इतिशङ्करदुरुक्तिर्निरस्ता। नह्येष गुणबन्धः प्रकोष्ठबलेन हन्तुं शक्यत इत्यभिप्रायेण महाबाहुशब्दः।दीर्घौ बुद्धिमतो बाहू याभ्यां हिंसति हिंसितः इति भावः। यथा त्वद्भुजबलेन परेषां बन्ध इति वा।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।14.5।।सत्त्वमिति। देही चायं आत्मतया सत्त्वरजस्तमोभिर्धर्मैः अपवर्गपर्यन्ताय भोगाय निबद्ध्यते।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।14.5।।ननु प्रतिज्ञातं ज्ञानं श्लोकद्वयेनोक्तं? तत्किमुत्तरेण ग्रन्थेनाध्यायासङ्गतमुच्यते इत्यत आह -- बन्धेति। यो हि बद्धोऽस्मीति जानाति स एव तन्निवृत्तिसाधनं विजिज्ञास्य ज्ञात्वाऽनुतिष्ठति? अतो बन्धोच्छेदसाधनानुष्ठानाय तज्ज्ञापनार्थं जिज्ञासामुत्पादयितुं गुणत्रयकृतबन्धप्रकारमादौ तावद्दर्शयतीति नासङ्गतिरित्यर्थः।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।14.5।।तदेवं निरीश्वरसांख्यनिराकरणेन क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगस्येश्वराधीनत्वमुक्तं? इदानीं कस्मिन्गुणे कथं सङ्गः के वा गुणाः कथं वा ते बध्नन्तीत्युच्यते -- सत्त्वमित्यादिनान्यमित्यतः प्राक्चतुर्दशभिः -- सत्त्वंरजस्तम इत्येवंनामानो गुणा नित्यपरतन्त्राः पुरुषंप्रति सर्वेषामचेतनानां चेतनार्थत्वात् नतु वैशेषिकाणां रूपादिवद्द्रव्याश्रिताः। नच गुणगुणिनोरन्यत्वमत्र विवक्षितम् गुणत्रयात्मकत्वात्प्रकृतेः। तर्हि कथं प्रकृतिसंभवा इत्युच्यन्तेत्रयाणां गुणानां साम्यावस्था प्रकृतिर्माया भगवतस्तस्याः सकाशात्परस्पराङ्गाङ्गिभावेन वैषम्येण परिणताः प्रकृतिसंभवा इत्युच्यन्ते। ते च देहे प्रकृतिकार्ये शरीरेन्द्रियसंघाते देहिनं देहतादात्म्याध्यासापन्नं जीवं परमार्थतः सर्वविकारशून्यत्वेनाव्ययं निबध्नन्ति निर्विकारमेव सन्तं स्वविकारवत्तयोपदर्शयन्तीव भ्रान्त्या जलपात्राणीव दिवि स्थितमादित्यं प्रतिबिम्बाध्यासेन स्वकम्पादिमत्तया। यथाच पारमार्थिको बन्धो नास्ति तथा व्याख्यातं प्राक्शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते इति।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।14.5।।ननु लीलात्मकप्रकृत्युत्पादितलीलार्थदेहादिषु स्थितस्य बीजस्य बन्धः कथं इत्यत आह -- सत्त्वमिति। सत्त्व रजस्तम इति संज्ञका गुणाः प्रकृतिसम्भवाः प्रकृतितः सम्भव उत्पत्तिर्येषां तादृशाः ते अव्ययं विनाशादिधर्मरहितं भगवतश्चिदंशात्मकं देहिनं जीवं तद्रूपेण तद्द्वारा गुणभोगार्थमाविर्भूतं निबध्नन्ति वशीकुर्वन्ति? रसपरत्वादित्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।14.5।। -- सत्त्वं रजः तमः इति एवंनामानः। गुणाः इति पारिभाषिकः शब्दः? न रूपादिवत् द्रव्याश्रिताः गुणाः। न च गुणगुणिनोः अन्यत्वमत्र विवक्षितम्। तस्मात् गुणा इव नित्यपरतन्त्राः क्षेत्रज्ञं प्रति अविद्यात्मकत्वात् क्षेत्रज्ञं निबध्नन्तीव। तम् आस्पदीकृत्य आत्मानं प्रतिलभन्ते इति निबध्नन्ति इति उच्यते। ते च प्रकृतिसंभवाः भगवन्मायासंभवाः निबध्नन्ति इव हे महाबाहो? महान्तौ समर्थतरौ आजानुप्रलम्बौ बाहू यस्य सः महाबाहुः? हे महाबाहो देहे शरीरे देहिनं देहवन्तम् अव्ययम्? अव्ययत्वं च उक्तम् अनादित्वात् (गीता 13.31) इत्यादिश्लोकेन। ननु देही न लिप्यते इत्युक्तम्। तत कथम् इह निबध्नन्ति इति अन्यथा उच्यते परिहृतम् अस्माभिः इवशब्देन निबध्नन्ति इव इति।।तत्र सत्त्वादीनां सत्त्वस्यैव तावत् लक्षणम् उच्यते --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।14.5।।अनेन स्वस्येच्छया जीवेषु निजप्रकृतिसम्भवसंसर्जनलीलामुपपाद्येदानीं बन्धलीलामुपपादयितुं चतुर्दशलोकबन्धहेतुभूतगुणानाह चतुर्दशभिः -- सत्त्वमिति। नचैते सकार्या आत्मनो गुणाः? अपितु प्रकृतेरुक्ताः प्रकृतिसम्भवा इति सम्भूतं चेतनं तत्तद्देहे गुणा एव बध्नन्ति। प्रकृतिधर्म एव तत्र हीनतापादको देहे अहंवृत्तिमान् नोपाधिविशिष्टस्य नान्यस्य। ये च भगवदंशभूतायां प्रकृतौ समागता गुणास्ते भगवतः सच्चिदानन्दा एव मूलतः परिणममाना बन्धका दोषा जडगतत्वात्। बन्धनश्लेषात्गुणाः इति संज्ञा तेषाम्। तदेवाह निबध्नन्तीति। तत्र प्रकृतिरुद्भूता गुणाः सत्त्वादयो देहाभिमानिनस्तमणुस्वरूपं चिदंशं जीवमव्ययमपि निबध्नन्ति। त्वं तं बन्धं,निवर्त्तयेति सम्बोधयति।