BG - 14.6

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ।।14.6।।

tatra sattvaṁ nirmalatvāt prakāśhakam anāmayam sukha-saṅgena badhnāti jñāna-saṅgena chānagha

  • tatra - amongst these
  • sattvam - mode of goodness
  • nirmalatvāt - being purest
  • prakāśhakam - illuminating
  • anāmayam - healthy and full of well-being
  • sukha - happiness
  • saṅgena - attachment
  • badhnāti - binds
  • jñāna - knowledge
  • saṅgena - attachment
  • cha - also
  • anagha - Arjun, the sinless one

Translation

Of these, sattva, which is luminous and healthy due to its stainlessness, binds one by attachment to happiness and knowledge, O sinless one.

Commentary

By - Swami Sivananda

14.6 तत्र of these? सत्त्वम् purity? निर्मलत्वात् from its stainlessness? प्रकाशकम् luminous? अनामयम् healthy? सुखसङ्गेन by attachment to happiness? बध्नाति binds? ज्ञानसङ्गेन by attachment to knowledge? च and? अनग O sinless one.Commentary Sattva is stainless like the crystal. It lays for one the trap of happiness and knowledge. It is a golden fetter. A Sattvic man compares himself with others and rejoices in his excellence. He is puffed up with his knowledge. His heart is filled with pride when he thinks that he,has more comforts or more pleasant experiences. He thinks? I am happy I am wise? and so he is bound as it were. These ideas really belong to the field but they are transferred through superimposition to the Self on account of the force of SattvaGuna.Rajas and Tamas are pitfalls on the path of knowledge.This attachment to happiness is an illusion. This is ignorance. An attribute of the object cannot belong to the subject. All the alities from desire to firmness (Cf.XIII.6) belong to the field. From ignorance? nondiscrimination is born and so the individual self is not able to discriminate between the permanent and the impermanent? the subject and the object.Knowledge is an attribute of the Antahkarana (inner instrument? viz.? mind? intellect? the unconscious and the ego) but not of the Self. It if were an attribute of the Self? it could not produce attachment and bondage. Sattva binds the soul to knowledge through attachment.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।14.6।। व्याख्या --   तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् -- पूर्वश्लोकमें सत्त्व? रज और तम -- इन तीनों गुणोंकी बात कही। इन तीनों गुणोंमें सत्त्वगुण निर्मल (मलरहित) है। तात्पर्य है कि रजोगुण और तमोगुणकी तरह सत्त्वगुणमें मलिनता नहीं है? प्रत्युत यह रजोगुण और तमोगुणकी अपेक्षा निर्मल? स्वच्छ है। निर्मल होनेके कारण यह परमात्मतत्त्वका ज्ञान करानेमें सहायक है।प्रकाशकम् -- सत्त्वगुण? निर्मल? स्वच्छ होनेके कारण प्रकाश करनेवाला है। जैसे प्रकाशके अन्तर्गत वस्तुएँ साफसाफ दीखती हैं? ऐसे ही सत्त्वगुणकी अधिकता होनेसे रजोगुण और तमोगुणकी वृत्तियाँ साफसाफ दीखती हैं। रजोगुण और तमोगुणसे उत्पन्न होनेवाले काम? क्रोध? लोभ? मद? मात्सर्य आदि दोष भी साफसाफ दीखते हैं अर्थात् इन सब विकारोंका साफसाफ ज्ञान होता है।सत्त्वगुणकी वृद्धि होनेपर इन्द्रियोंमें प्रकाश? चेतना और हलकापन विशेषतासे प्रतीत होता है? जिससे प्रत्येक पारमार्थिक अथवा लौकिक विषयको अच्छी तरह समझनेमें बुद्धि पूरी तरह कार्य करती है और कार्य करनेमें बड़ा उत्साह रहता है।सत्त्वगुणके दो रूप हैं -- (1) शुद्ध सत्त्व? जिसमें उद्देश्य परमात्माका होता है? और (2) मलिन सत्त्व? जिसमें उद्देश्य सांसारिक भोग और संग्रहका होता है (टिप्पणी प0 716)। शुद्ध सत्त्वगुणमें परमात्माका उद्देश्य होनेसे परमात्माकी तरफ चलनेमें स्वाभाविक रुचि होती है। मलिन सत्त्वगुणमें पदार्थोंके संग्रह और सुखभोगका उद्देश्य होनेसे सांसारिक प्रवृत्तियोंमें रुचि होती है? जिससे मनुष्य बँध जाता है।मलिन सत्त्वगुणमें भी बुद्धि सांसारिक विषयको अच्छी तरह समझनेमें समर्थ होती है। जैसे? सत्त्वगुणकी वृद्धिमें ही वैज्ञानिक नयेनये आविष्कार करता है किन्तु उसका उद्देश्य परमात्माकी प्राप्ति न होनेसे वह अंहकार? मानबड़ाई? धन आदिसे संसारमें बँधा रहता है।अनामयम् -- सत्त्वगुण रज और तमकी अपेक्षा विकाररहित है। वास्तवमें प्रकृतिका कार्य होनेसे यह सर्वथा निर्विकार नहीं है। सर्वथा निर्विकार तो अपना स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व ही है? जो कि गुणातीत है। परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें सहायक होनेसे भगवान्ने सत्त्वगुणको भी विकाररहित कह दिया है।सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ -- जब अन्तःकरणमें सात्त्विक वृत्ति होती है? कोई विकार नहीं होता है? तब एक सुख मिलता है? शान्ति मिलती है। उस समय साधकके मनमें यह विचार आता है कि ऐसा सुख हरदम बना रहे? ऐसी शान्ति हरदम बनी रहे? ऐसी निर्विकारता हरदम बनी रहे। परन्तु जब ऐसा सुख? शान्ति? निर्विकारता नहीं रहती? तब साधकको अच्छा नहीं लगता। यह अच्छा लगना और अच्छा न लगना ही सत्त्वगुणके सुखमें आसक्ति है? जो बाँधनेवाली है।जब सत्त्व? रज और तम -- इन तीनों गुणोंका? इनकी वृत्तियोंका? विकारोंका साफसाफ ज्ञान होता है और साधकको ऐसी बहुतसी आश्चर्यजनक बातोंकी जानकारी होती है? जो पहले कभी जानी हुई नहीं होती? तब साधकके मनमें आता है कि यह ज्ञान हरदम बना रहे। यह ज्ञानमें आसक्ति है? जो बाँधनेवाली है। मैं दूसरोंकी अपेक्षा अधिक (विशेष) जानता हूँ -- यह अभिमान भी बाँधनेवाला होता है।इस तरह सत्त्वगुण सुख और ज्ञानके सङ्ग(आसक्ति) से साधकको बाँध देता है अर्थात् उसको गुणातीत नहीं होने देता। यह सङ्ग ही रजोगुण है जो बाँधनेवाला है (गीता 13। 21)। यदि साधक सुख और ज्ञानका सङ्ग न करे तो सत्त्वगुण उसको बाँधता नहीं? प्रत्युत उसको गुणातीत कर देता है। तात्पर्य है कि यदि सङ्ग न हो तो साधक सत्त्वगुणसे भी ऊँचा उठ जाता है और अपने गुणातीत स्वरूपका अनुभव कर लेता है।सत्त्वगुणसे सुख और ज्ञान होनेपर साधकको यह सावधानी रखनी चाहिये कि यह सुख और ज्ञान मेरा लक्ष्य नहीं है। ये मेरे भाग्य नहीं हैं। ये तो लक्ष्यकी प्राप्तिमें कारण हैं। मेरेको तो उस लक्ष्यको प्राप्त करना है? जो,इस सुख और ज्ञानको भी प्रकाशित करनेवाला है।सुख? ज्ञान आदि सभी सत्त्वगुणकी वृत्तियाँ हैं। ये कभी घटती हैं? कभी बढ़ती हैं कभी आती हैं? कभी जाती हैं। परन्तु अपना स्वरूप निरन्तर एकरस रहता है। उसमें कभी घटबढ़ नहीं होती। अतः साधकको सत्त्वगुणकी वृत्तियोंसे सदा तटस्थ? उदासीन रहना चाहिये। उनका उपभोग नहीं करना चाहिये। इससे वह सुख और ज्ञानकी आसक्तिमें फँसेगा नहीं।अगर साधक सत्त्वगुणसे होनेवाले सुख और ज्ञानका सङ्ग न करे? तो उसको शीघ्र ही परमात्मप्राप्ति हो जाती है। परन्तु अगर वह इनके सङ्गका त्याग न करे तो (परमात्मप्राप्तिका लक्ष्य होनेसे) समय पाकर उसकी इस सुख और ज्ञानसे स्वतः अरुचि हो जाती है और वह परमात्मप्राप्ति कर लेता है। सम्बन्ध --   रजोगुणका स्वरूप और उसके बाँधनेका प्रकार क्या है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।14.6।। विज्ञान की सभी शाखाओं में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि किसी वस्तु के लक्षणों का वर्णन किये बिना उसे परिभाषित नहीं किया जा सकता है। किसी रोग या किसी भावना के विषय में भी यही बात सत्य है। इसी प्रकार इन गुणों की भी अपने आप में कोई परिभाषा नहीं दी जा सकती। आगे के श्लोकों में यह वर्णन किया गया है कि इन गुणों के लक्षण क्या हैं तथा जब कभी कोई गुण अधिक प्रबल हो जाता है? तब उससे प्रभावित व्यक्ति का व्यवहार किस प्रकार होता है। निसन्देह? यह लक्षणात्मक वर्णन हम साधकों के लिए अधिक सहायक होगा? क्योंकि हम अपने मन में उठने वाले विचारों एवं भावनाओं का निरीक्षण और विश्लेषण कर यह निश्चित कर सकेंगे कि किसी क्षण विशेष में हम कौन से गुण के वश में हैं। इस प्रकार? उस प्रभाव के बन्धन से मुक्त होने का प्रयत्न भी हम कर सकेंगे।निर्मल होने से सत्त्वगुण प्रकाशमय है जिस प्रकार जल स्वत शुद्ध होता है? परन्तु अन्य मिश्रणों से अशुद्ध बन जाता है। उसी प्रकार सत्त्वगुण भी स्वत निर्मल होने से प्रकाशक अर्थात् आत्मचैतन्य को स्पष्ट प्रतिबिम्बित करने वाला है। उसमें न रजोगुण का विक्षेप है न तमोगुण का घोर अज्ञान।अनामय इस शब्द का अर्थ है उपद्रवरहित अर्थात् दोषरहित। आत्मस्वरूप का अज्ञान तथा उससे उत्पन्न अहंकार और स्वार्थ ही मूल दोष हैं? जिनसे अन्य अनर्थों की उत्पत्ति होती है। ये दोष रजोगुण और तमोगुण से ही उत्पन्न होते हैं। इसलिये यहाँ कहा गया है कि सत्त्वगुण स्वत इन दोषों से रहित है। यद्यपि सत्त्वगुण निर्मल है तथापि वह भी बन्धनकारक होता है। उससे उत्पन्न होने वाले बंधनों का निर्देश यहाँ किया गया है।सत्त्वगुण सुख और ज्ञान की आसक्ति से जीव को बांधता है अपने आनन्दस्वरूप को न जानकर जीव सदैव विषयों में ही सुख की खोज करता रहता है। यह अज्ञान तमोगुण का लक्षण है तथा विषयों में सुख की कल्पना और विक्षेप रजोगुण का लक्षण है। प्रयत्नों के फलस्वरूप जब कभी इष्ट विषय की प्राप्ति होती है? तब क्षणभर के लिये विक्षेपों की शान्ति हो जाती है। उस शान्त स्थिति में आत्मा का आनन्द अभिव्यक्त होता है। परन्तु जीव यही समझता है कि वह सुख उसे विषय से प्राप्त हुआ है और मन की उस सुख वृत्ति के साथ तादात्म्य करके कहता है? मैं सुखी हूँ। इस प्रकार? विषयोपभोग से उत्पन्न यह सुखवृत्ति क्षेत्र का धर्म होने पर भी उसे अपना धर्म समझ कर उसमें आसक्त होना ही सत्त्वगुण से उत्पन्न हुआ बंधन है।सत्त्वगुण प्रधान बुद्धि स्वभावत स्थिर होती है। इसलिये उसमें चैतन्य का प्रकाश स्पष्टरूप से प्रतिबिम्बित होता है। इस प्रतिबिम्बित प्रकाश को ही हम बुद्धि का प्रकाश कहते हैं? जिसके द्वारा हमें विषयों का ज्ञान होता है। यही कारण है कि इस गुण के न्यूनाधिक्य के कारण ही सभी व्यक्तियों की बौद्धिक क्षमता एक समान नहीं होती।इस प्रकार? बुद्धि के इस प्रकाश से प्रकाशित होकर विषय के ज्ञान की वृत्ति अन्तकरण में उदित होती है मनुष्य इसी वृत्ति के साथ तादात्म्य करके अभिमानपूर्वक कहता है? मैं इस वस्तु का ज्ञाता हूँ। यहाँ भी क्षेत्र के धर्म के साथ तादात्म्य है और यही ज्ञान से आसक्ति का बन्धन है।इन दोनों का सरल अर्थ यह भी है कि जब मनुष्य को सूक्ष्मतर सुख या ज्ञान का अनुभव हो जाता है? तब उसका मन उसी में इतना अधिक आसक्त होकर रमता है कि उसका ध्यान सूक्ष्मतम वस्तु की ओर सहसा आकर्षित ही नहीं होता। यह सत्त्वगुण का बन्धन है। यह स्वर्ण की शृंखला है? परन्तु है तो शृंखला हीभगवान् कहते हैं कि सत्त्वगुण सुख संग और ज्ञान के साथ आसक्ति से बांध देता है। एक बार जब कोई व्यक्ति रचनात्मक चिन्तन तथा सदाचार और ज्ञान के अनुप्राणित जीवन के सात्त्विक आनन्द का अनुभव कर लेता है? तब उसमें वह इतना आसक्त हो जाता है कि फिर उसके लिये वह अपने सर्वस्व का भी त्याग करने के लिये तत्पर रहता है। विज्ञान को अपना जीवन समर्पित किये हुये प्रयोगशाला में कार्यरत एक सच्चा वैज्ञानिक क्षुधा और व्याधि से दुर्बल अपनी चित्रशाला में चित्रांकन कर रहा चित्रकार समाज द्वारा बहिष्कृत सार्वजनिक उद्यानों में रहकर अपनी कल्पनाओं? भावों और शब्दों के ही आनन्द में निमग्न एक कवि क्रूर उत्पीड़न को सहने वाले देशभक्त दीर्घकाल तक देश निष्कासन का जीवन जीने वाले राजनीतिज्ञ मृत्यु का आलिंगन करने वाले पर्वतारोही ये सब उदाहरण ऐसे पुरुषों के हैं? जिन्हें सात्त्विक आनन्द का अनुभव होता है और जो उसी में आसक्त हो जाते हैं? जैसे स्थूल बुद्धि के लोग धन तथा अन्य भौतिक वस्तुओं के परिग्रह में आसक्त रहते हैं।रजोगुण का बन्धन निम्न प्रकार से होता है

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।14.6।।किंलक्षणो गुणः केन बध्नातीत्यपेक्षायामाह -- तत्रेति। निर्धारणार्थतया सप्तमीं व्याचष्टे -- तत्र सत्त्वादीनामिति। पुनस्तत्रेत्यनुवादमात्रं? निर्मलत्वं स्वच्छत्वमावरणवारणक्षमत्वं? तस्मात्प्रकाशकं? चैतन्याभिव्यञ्जकं? निरुपद्रवमिति निर्मलं सत्सुखस्याभिव्यञ्जकमित्यर्थः। केन द्वारेण तदात्मानं निबध्नातीति पृच्छति -- कथमिति। सुखसङ्गेन बध्नातीत्युत्तरं तदेव विवृणोति -- सुख्यहमित्यादिना। मुख्यसुखस्याभिव्यञ्जकसत्त्वपरिणामोऽत्र विषयसंभूतं सुखमुच्यते -- संश्लेषापादनमेव विशदयति -- मृषैवेति। किमिति मृषैवेति विशेषणं सङ्गस्य वस्तुत्वसंभवादित्याशङ्क्याह -- सैषेति। नन्विच्छा सङ्गोऽभिनिवेशश्चेत्येकोऽर्थस्तत्रेच्छादेरात्मधर्मत्वात्किमविद्ययेत्याशङ्क्य मनोधर्मत्वादिच्छादेर्नात्मधर्मतेत्याह -- नहीति। इच्छादेरनात्मधर्मत्वे किं प्रमाणमित्याशङ्क्याह -- इच्छादि चेति। तस्यात्मधर्मत्वासंभवे फलितमाह -- अत इति। संजयतीव सत्त्वमिति शेषः। इवकारप्रयोगे हेतुमाह -- अविद्ययेति। तस्या वस्तुतो नात्मसंबन्धस्तथापि संबन्ध्यन्तराभावादस्वातन्त्र्याच्चात्मधर्मत्वमापाद्य दृष्टत्वमाचष्टे -- स्वकीयेति। वृत्तिमदन्तःकरणस्य विषयत्वादात्मनः साधकत्वेन तद्विषयत्वेऽपि तदविवेकरूपाविद्येति तत्स्वरूपमाह -- विषयेति। यथोक्ताविद्यामाहात्म्यमिदं यदस्वरूपेऽतद्धर्मे च सक्तिसंपादनमित्याह -- अस्वेति। तदेव स्फुटयति -- सक्तमिवेति। प्रकारान्तरेण सत्त्वस्य निबन्धनत्वमाह -- तथेति। ज्ञायतेऽनेनेति सत्त्वपरिणामो ज्ञानं तेन ज्ञान्यहमिति विपरीताभिमानेन सत्त्वमात्मानं निबध्नातीत्याह -- ज्ञानमित्यादिना। विपक्षे दोषमाह -- आत्मेति। स्वाभाविकत्वेन प्राप्तत्वात्तत्र स्वतः संयोगात्तद्द्वारा बन्धे च तन्निवृत्त्यनुपपत्तेर्नात्मधर्मत्वमित्यर्थः। ज्ञानैश्वर्यादावपि क्षेत्रधर्मे सङ्गस्य पूर्ववदाविद्यकत्वं सूचयति -- सुख इवेति। पापादिदोषहीनस्यैवात्र शास्त्रेऽधिकार इति द्योतयति -- अनघेति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।14.6।।किंलक्षणो गुणः केन सङ्गेन बध्नातीत्यपेक्षायामाह -- तत्रेति। तेषु सत्त्वादिगुणेषु सत्त्वं निर्मलत्वास्फटिकवत्सच्छत्वात् प्रकाशकं चैतन्याभिव्यञ्जकमनामयं निरुपद्रवम्। एतादृशं सत्त्वं सुख्यहमिति विषयभूतस्य सुखस्य विषयिणि प्रत्यगात्मनि मृषैव संश्लेषापादनेन सुखसङ्गेन बध्नाति अविद्ययैव ह्यन्यधर्मोऽन्यस्मिन्नारोप्यते इच्छादिकं धृत्यन्तं क्षेत्रस्य धर्म इत्युक्तं भगवतातोऽविद्ययैव स्वकीयधर्मभूतया विषयविषय्यविवेकलक्षणयाऽस्वात्मभूते सुखे संजयतीवासङ्गं सक्तमिव करोति। असुखिनं सुखिनमिव। तथाच यथोक्ताविद्यामाहात्म्यमिदं यदस्वरुपेऽतद्धर्मे च सक्तिसंपादनम्। प्रकारन्तरेण सत्त्वस्य निबन्धनहेतुत्वमाह -- ज्ञानसङ्गेनचेति। ज्ञायतेऽनेनेति सत्त्वपरिणामो ज्ञानं तेन ज्ञान्यहमिति विपरीताभिमानेन सत्त्वमात्मानं निबध्नाति ज्ञानमिति। सुखासाहचर्यात्। क्षेत्रस्यैवान्तःकरणस्य धर्मो नात्मनः आत्मधर्मत्वे सङ्गानुपपत्तर्बन्धानुपपतेश्च सुखइव ज्ञानादौ सङ्गो मन्तव्यो हेऽनघाघशन्याव्यसन? अनघेति संबोधयन् सुखादिव्यसनाभावसंपत्त्या सत्त्वप्रयुक्तं बन्धनं नार्हसीति सूचयति। पापादिदोषहीनस्यैवात्र शास्त्रेऽधिकार इति द्योतयतीत्येके।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।14.6।।तत्र कः केन सङ्गेन बध्नातीत्युच्यते -- तत्रेति। तत्र तेषु गुणेषु सत्त्वं निर्मलत्वाद्दुःखमोहाख्यमलराहित्यात् प्रकाशकं आलोकवत्सर्वार्थावद्योतकम्। यतोऽनामयं रजस्तमोभ्यामनभिभूतम्। तत्सुखसङ्गेन ज्ञानसङ्गेन च नरं अविद्यया तिरोहितस्वरूपज्ञानानन्दं अहं सुखी अहं ज्ञानीत्यभिमानेन अन्तःकरणवृत्तिधर्मयोः सुखज्ञानयोरात्मनि आरोपेण बध्नाति। हे अनघ अव्यसनिन्।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।14.6।।तत्र सत्त्वरजस्तमःसु सत्त्वस्य स्वरूपम् ईदृशं निर्मलत्वात् प्रकाशकम् प्रकाशसुखावरणस्वभावरहितता निर्मलत्वम् प्रकाशसुखजननैकान्तस्वभावतया प्रकाशसुखहेतुभूतम् इत्यर्थः। प्रकाशो वस्तुयाथात्म्यावबोधः अनामयम् आमयाख्यकार्यं न विद्यते? इति अनामयम् अरोगताहेतुः इत्यर्थः।एष सत्त्वाख्यगुणो देहिनम् एनं सुखसङ्गेन ज्ञानसङ्गेन च बध्नाति? पुरुषस्य सुखसङ्गं ज्ञानसङ्गं च जनयति इत्यर्थः।ज्ञानसुखयोः सङ्गे हि जाते तत्साधनेषु लौकिकवैदिकेषु प्रवर्तते? ततः च तत्फलानुभवसाधनभूतासु योनिषु जायते इति सत्त्वं सुखज्ञानसङ्गद्वारेण पुरुषं बध्नाति ज्ञानसुखजननं पुनः अपि तयोः सङ्गजननं च सत्त्वम् इति उक्तं भवति।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।14.6।। तत्र सत्त्वस्य लक्षणं बन्धकत्वप्रकारं चाह -- तत्रेति। तत्र तेषां गुणानां मध्ये सत्त्वं निर्मलत्वात्स्वच्छत्वात् स्फटिकवत् प्रकाशकं भास्वरम्? अनामयं च निरुपद्रवम्। शान्तमित्यर्थः। अतः शान्तत्वात्स्वकार्येण सुखेन यः सङ्गस्तेन बध्नाति। प्रकाशकत्वाच्च स्वकार्येण ज्ञानेन यः सङगस्तेन च बध्नाति। हे अनघ निष्पाप? अहं सुखी ज्ञानी चेति मनोधर्मास्तदभिमानिनि क्षेत्रज्ञे संयोजयतीत्यर्थः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।14.6।।तत्र इत्यादिश्लोकत्रयस्य प्रकृतसङ्गतिमाह -- सत्त्वेति।आकारं? निरूपकस्वभावमित्यर्थः।तत्र इति निर्धारणार्थः समुदायनिर्देश इत्याहसत्त्वरजस्तमस्स्विति। ननु निर्मलानां स्फटिकर्मण्यादीनां न प्रकाशकत्वं दृश्यत इत्यत्राहप्रकाशेति। मलशब्दोऽत्र तमस्स्वभावभूतप्रकाशविरोध्याकारपर इत्यर्थः। वक्ष्यमाणपरामर्शादिह सुखोपादानम्। आवरणस्वभावरहितानामप्याकाशवाय्वादीनां न प्रकाशकत्वमित्यत्राहप्रकाशसुखजननैकान्तस्वभावतयेति। सत्त्वमिश्ररजस्तमसोरपि भ्रान्तिबुद्धिविशेषहेतुत्वस्य वक्ष्यमाणत्वात्कथमिह सत्त्वस्यैव प्रकाशजनकत्वं इत्यत्राहप्रकाशो वस्तुयाथात्म्यावबोध इति। राजसतामसधियोरप्यधिष्ठानस्वरूपप्रकाशादिकं सत्त्वस्यांश इति भावः। सत्त्वस्यामयप्रसङ्गाभावात्तन्निषेधो न युक्त इत्यत्राहआमयाख्यं कार्यं न विद्यत इति। अत्र सहपठिते गुणान्तरे कार्यत्वेनामयस्य सम्बन्धोऽस्ति? सोऽत्र प्रसक्तः प्रतिषिध्यत इति भावः। आमयाख्यकार्यनिषेधोऽत्र फलतस्तद्विपरीतकार्यान्तरविध्यभिप्रायेणेत्याह -- अरोगताहेतुरिति।तन्निबध्नात इत्युत्तरश्लोकयोरिवात्रापि स्वरूपनिर्देशेन बन्धहेतुत्वनिर्देशेन च वाक्यभेदमाहएष इति। अन्यतस्सिद्धस्य सुखादिसङ्गस्य करणतामात्रं तृतीयया प्रतिपादितम् नच तद्युक्तं? हेत्वन्तरानुक्तेः। तत्राहपुरुषस्येति। बन्धावान्तरव्यापारत्वमिह विवक्षितमिति भावः। बन्धो हि कर्मफलानुभवार्थदेहसम्बन्धः स च कर्ममूलः? स कथं सुखादिसङ्गादित्यत्राहज्ञानसुखयोरिति। ननु वैदिकसाधनानुष्ठानं योनिप्राप्त्यैव भवतीति युक्तम्? लौकिकं तु साधनं दृष्टफलमात्राय स्याद्वा न वा न तु जन्मान्तरादिप्रसाधकम्। प्रवृत्तिदृष्टान्ततयाऽपि लौकिकग्रहणं मन्दप्रयोजनम्।अत्र ब्रूमः -- अत्र लौकिकशब्देन स्मार्तग्रहणम्? अथवा निषिद्धग्रहणम् हिंसादेः सुखसाधनत्वं हि लौकिकम् अलौकिक्या तु शक्त्या पापिष्ठजन्मादिप्रसाधकत्वम् -- इति। रजसि च वक्ष्यतिताश्च क्रियाः पुण्यपापरूपाः [पृ.118पं.35] इति। यदि सत्त्वमेव प्रकाशं सुखं च स्वयं जनयति? ततः सिद्धयोस्तयोः प्रवृत्तिहेतुः सङ्गो न जायेतेत्यत्राहज्ञानसुखेति। बीजाङ्कुरन्यायेनोत्तरसङ्गतद्विषययोः सत्त्वं साधकमित्यर्थः।न काङ्क्षे विजयम् [1।31] इत्यादिवदतस्तव न सङ्ग इत्यभिप्रायेणानघशब्दः।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।14.6 -- 14.8।।क्रमेणैषां रूपमुच्यते -- तत्रेत्यादि भारतेत्यन्तम्। सत्त्वं निर्मलम्। तृष्णासंगस्य समुद्भवो यतः। दुर्लभस्यापि चिरतरसंचितपुण्यशतलब्धस्य अपवर्गप्राप्तावेककारणस्य मानुष्यकस्य वृथा अतिवाहनं प्रमादः। तथाह्युक्तम्,(?N तथाभ्युक्तम्) -- आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते।स वृथा नीयते येन स प्रमादी नराधमः।।14.इति (S in the margin? and ?N in the text itself add the followingयथा वा श्रीमद्भागवते -- निद्रया ह्रियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः।दिवा चार्थेहया राजन् कुटुम्बभरणेन वा।।1।।देहापत्यकलत्रादिष्वात्मसैन्येष्वसत्स्वपि।तेषां प्रमत्तो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति।।2।। -- The hagavata Purana ( Gorakhpur Ed.) II? i? verse 34तथा --,किं प्रमत्तस्य बहुभिः परोक्षैर्हायनैरिह।वरं मुहूर्त्तं विदितं घटेत श्रेयसे यतः।।3।। -- ibid? 12.अयमेव प्रमादः तत्रैवैकादशस्कन्धे आत्महत्याशब्दवाच्यो निर्णीतो भगवता,यथा -- नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्।मयानुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत्स आत्महा।।4।। इति -- ibid. XI? xx? 17.)आलस्यं शुभकरणीयेषु। निःशेषेण द्राणं कुत्सिता गतिः निद्रा।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।14.6।।तत्र को गुणः केन सङ्गेन बध्नातीत्युच्यते -- तत्रेति। तत्र तेषु गुणेषु मध्ये सत्त्वं प्रकाशकं,चैतन्यस्य तमोगुणकृतावरणतिरोधायकं निर्मलत्वात्स्वच्छत्वात्। चिद्बिम्बग्रहणयोग्यत्वादिति यावत्। न केवलं चैतन्याभिव्यञ्जकं किंत्वनामयम्। आमयो दुःखं तद्विरोधिसुखस्यापि व्यञ्जकमित्यर्थः। तत् बध्नाति सुखसङ्गेन ज्ञानसङ्गेन च देहिनम् हे अनघाव्यसन। सर्वत्र संबोधनानामभिप्रायः प्रागुक्तः स्मर्तव्यः। अत्र सुखज्ञानशब्दाभ्यामन्तःकरणपरिणामौ तद्व्यञ्जकावुच्येते।इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः इति सुखचेतनयोरपीच्छादिवत्क्षेत्रधर्मत्वेन पाठात्। तत्रान्तःकरणधर्मस्य सुखस्य ज्ञानस्य चात्मन्यध्यासः सङ्गः अहं सुखी अहं जान इति च। नहि विषयधर्मो विषयिणो भवति। तस्मादविद्यामात्रमेतदिति शतश उक्तं प्राक्।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।14.6।।अथ त्रयाणां बन्धनरीतिं सलक्षणामाह -- तत्रेति। तत्र गुणत्रये सत्त्वं निर्मलत्वाद्भगवदिच्छात्मकपदार्थस्थितिहेतुत्वेन शुद्धत्वात् प्रकाशकं भगवद्रमणात्मकसर्वस्वरूपप्रकटीकरणसमर्थम् अनामयं भगवत्सेवाप्रतिबन्धात्मकरागादिदोषरहितम्? अतः सुखसङ्गेन भगवतः साधनात्मकसेवनसुखजनकदेहाद्युत्तमत्वसङ्गेन बध्नाति। च पुनः ज्ञानसङ्गेन ज्ञानोत्पत्तिसाधकत्वेन बध्नाति। अनघ इतिसम्बोधनेन मत्कृपाविशिष्टत्वात्तव बन्धाभाव इति ज्ञापितम्।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।14.6।। --,निर्मलत्वात् स्फटिकमणिरिव प्रकाशकम् अनामयं निरुपद्रवं सत्त्वं तन्निबध्नाति। कथम् सुखसङ्गेन सुखी अहम् इति विषयभूतस्य सुखस्य विषयिणि आत्मनि संश्लेषापादनं मृषैव सुखे सञ्जनम् इति। सैषा अविद्या। न हि विषयधर्मः विषयिणः भवति। इच्छादि च धृत्यन्तं क्षेत्रस्यैव विषयस्य धर्मः इति उक्तं भगवता। अतः अविद्ययैव स्वकीयधर्मभूतया विषयविषय्यविवेकलक्षणया अस्वात्मभूते सुखे सञ्जयति इव? आसक्तमिव करोति? असङ्गं सक्तमिव करोति? असुखिनं सुखिनमिव। तथा ज्ञानसङ्गेन च? ज्ञानमिति सुखसाहचर्यात् क्षेत्रस्यैव विषयस्य अन्तःकरणस्य धर्मः? न आत्मनः आत्मधर्मत्वे सङ्गानुपपत्तेः? बन्धानुपपत्तेश्च। सुखे इव ज्ञानादौ सङ्गः मन्तव्यः। हे अनघ अव्यसन।।

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।14.6।।तत्र क्रमतो लक्षणं गुणानां बन्धनप्रकारं च वदन् पूर्वं सत्त्वस्य तदाह -- तत्रेति। सत्त्वं प्राकृतत्वात् सुखसङ्गेन ज्ञानसङ्गेन च लौकिकेन बध्नाति? पुरुषस्य सुखे ज्ञाने च सङ्गं जनयतीत्यर्थः। ज्ञानसुखयोः सङ्गे जाते तत्साधनेषु लौकिकवैदिकेषु पुरुषप्रवृत्तिः? ततश्च तत्फलानुभवसाधनभूतासु योनिषु जायते इति सत्त्वं मर्यादया तद्द्वारेण पुरुषं बध्नाति। एवमेवान्यत्र। लक्षणं तु निर्मलत्वादिति मूले उक्तमेव? एवमन्ययोरपि लक्षणं स्पष्टमेव मूले। तथा च सत्त्वं प्राकृतं सोऽहं सुखी शब्दादिज्ञानी चेति ज्ञानसुखसङ्गजनेन () बन्धकमित्युक्तं भवति।