BG - 14.7

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्।।14.7।।

rajo rāgātmakaṁ viddhi tṛiṣhṇā-saṅga-samudbhavam tan nibadhnāti kaunteya karma-saṅgena dehinam

  • rajaḥ - mode of passion
  • rāga-ātmakam - of the nature of passion
  • viddhi - know
  • tṛiṣhṇā - desires
  • saṅga - association
  • samudbhavam - arises from
  • tat - that
  • nibadhnāti - binds
  • kaunteya - Arjun, the son of Kunti
  • karma-saṅgena - through attachment to fruitive actions
  • dehinam - the embodied soul

Translation

Know, O Arjuna, that Rajas is of the nature of passion, the source of thirst and attachment; it binds fast the embodied one by attachment to action.

Commentary

By - Swami Sivananda

14.7 रजः Rajas? रागात्मकम् of the nature of passion? विद्धि know? तृष्णासङ्गसमुद्भवम् the source of thirst and attachment? तत् that? निबध्नाति binds? कौन्तेय O son of Kunti (Arjuna)? कर्मसङ्गेन by attachment to action? देहिनम् the embodied one.Commentary The ality of Rajas denotes activity and ambition. The Rajasic man is full of cravings and desires. The cravings force him to act for their fulfilment. He gets attached to those who help him in the fulfilment of his desire and hates those who stand in his way. He is attached to action. He enters on great undertakings. He performs various sorts of sacrifices and rituals and charitable activities. He runs after sensual pleasures and his desires become insatiable like a flame fed by oil. The Self is not the doer. It is the silent witness but Rajas creates in the man the idea? I am the doer.Rajas pleases the mind and keeps alive the passions.A Rajasic man is never contented. He is ever greedy and restless. The more he acires? the more passionate and greedy he becomes. Desires multiply. Nothing gives him satisfaction. If he is a millionaire? he tries to become a multimillionaire. It is like petrol poured into the fire? which inflames it further. A Rajasic man loses his understanding and power of discrimination. His understanding is clouded. He is under intoxication of the pride of wealth. His intellect is turbid. He has a perverted intellect. On account of perversion of intellect misery appears to him to be happiness pain appears to him to be pleasure sorrow appears to be joy. His goal is money and women. He worships mammon as his god.He runs after name? fame and comforts and involves himself in endless activities. Quickness has been associated with the fish? with the flash of lightning and with the glance of a woman. But Rajas is icker than these. A Rajasic man is more active than these. He thinks What will happen to me after my possessions are gone and thus worries himself unnecessarily and engages himself in endless activities. He has no peace of mind.He thirsts for what has not been attained and is attached to what has already been obtained. He wishes and tries to protect his possessions. This is Sanga. I will do such and such an action. I will get such and such a result. I will do this sacrifice. I will enjoy in heaven. This sort of clinging to action and its fruits is Karma Sanga.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।14.7।। व्याख्या --   रजो रागात्म्कं विद्धि -- यह रजोगुण रागस्वरूप है अर्थात् किसी वस्तु? व्यक्ति? परिस्थिति? घटना? क्रिया आदिमें जो प्रियता पैदा होती है? वह प्रियता रजोगुणका स्वरूप है।रागात्मकम् कहनेका तात्पर्य है कि जैसे स्वर्णके आभूषण स्वर्णमय होते हैं? ऐसे ही रजोगुण रागमय है।पातञ्जलयोगदर्शनमें क्रिया को रजोगुणका स्वरूप कहा गया है (टिप्पणी प0 717.1)। परन्तु श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् (क्रियामात्रको गौणरूपसे रजोगुण मानते हुए भी) मुख्यतः रागको ही रजोगुणका स्वरूप मानते हैं (टिप्पणी प0 717.2)। इसीलिये योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्ग त्यक्त्वा ( 2। 48) पदोंमें आसक्तिका त्याग करके कर्तव्यकर्मोंको करनेकी आज्ञा दी गयी है। निष्कामभावसे किये गये कर्म मुक्त करनेवाले होते हैं (3। 19)। इसी अध्यायके बाईसवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि प्रवृत्ति अर्थात् क्रिया करनेका भाव उत्पन्न होनेपर भी गुणातीत पुरुषका उसमें राग नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि गुणातीत पुरुषमें भी रजोगुणके प्रभावसे प्रवृत्ति तो होती है? पर वह रागपूर्वक नहीं होती। गुणातीत होनेमें सहायक होनेपर भी सत्त्वगुणको सुख और ज्ञानकी आसक्तिसे बाँधनेवाला कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि आसक्ति ही बन्धनकारक है? सत्त्वगुण स्वयं नहीं। अतः भगवान् यहाँ रागको ही रजोगुणका मुख्य स्वरूप जाननेके लिये कह रहे हैं।महासर्गके आदिमें परमात्माका बहु स्यां प्रजायेय -- यह संकल्प होता है। यह संकल्प रजोगुणी है। इसको गीताने कर्म नामसे कहा है (8। 3)। जिस प्रकार दहीको बिलोनेसे मक्खन और छाछ अलगअलग हो जाते हैं? ऐसे ही सृष्टिरचनाके इस रजोगुणी संकल्पसे प्रकृतिमें क्षोभ पैदा होता है? जिससे सत्त्वगुणरूपी मक्खन और तमोगुणरूपी छाछ अलगअलग हो जाती है। सत्त्वगुणसे अन्तःकरण और ज्ञानेन्द्रियाँ? रजोगुणसे प्राण और कर्मेन्द्रियाँ तथा तमोगुणसे स्थूल पदार्थ? शरीर आदिका निर्माण होता है। तीनों गुणोंसे संसारके अन्य पदार्थोंकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकार महासर्गके आदिमें भगवान्का सृष्टिरचनारूप कर्म भी सर्वथा रागरहित होता है (गीता 4। 13)।तृष्णासङ्गसमुद्भवम् -- प्राप्त वस्तु? व्यक्ति? पदार्थ? परिस्थिति? घटना आदि बने रहें तथा वे और भी मिलते रहें -- ऐसी जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई की तरह तृष्णा पैदा हो जाती है। इस तृष्णासे फिर वस्तु आदिमें आसक्ति पैदा हो जाती है।व्याकरणके अनुसार इस तृष्णासङ्गसमुद्भवम् पदके दो अर्थ होते हैं -- (1) जिससे तृष्णा और आसक्ति पैदा होती है (टिप्पणी प0 718.1) अर्थात् तृष्णा और आसक्तिको पैदा करनेवाला और (2) जो तृष्णा और आसक्तिसे पैदा होता है (टिप्पणी प0 718.2) अर्थात् तृष्णा और आसक्तिसे पैदा होनेवाला। जैसे बीच और वृक्ष अन्योन्य कारण हैं? अर्थात् बीजसे वृक्ष पैदा होता है और वृक्षसे फिर बहुतसे बीज पैदा होते हैं? ऐसे ही रागस्वरूप रजोगुणसे तृष्णा और आसक्ति बढ़ती है तथा तृष्णा और आसक्तिसे रजोगुण बहुत बढ़ जाता है। तात्पर्य है कि ये दोनों ही एकदूसरेको पुष्ट करनेवाले हैं। अतः उपर्युक्त दोनों ही अर्थ ठीक हैं।तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् -- रजोगुण कर्मोंकी आसक्तिसे शरीरधारीको बाँधता है अर्थात् रजोगुणके बढ़नेपर ज्योंज्यों तृष्णा और आसक्ति बढ़ती है? त्योंहीत्यों मनुष्यकी कर्म करनेकी प्रवृत्ति बढ़ती है। कर्म करनेकी प्रवृत्ति बढ़नेसे मनुष्य नयेनये कर्म करना शुरू कर देता है। फिर वह रातदिन इस प्रवृत्तिमें फँसा रहता है अर्थात् मनुष्यकी मनोवृत्तियाँ रातदिन नयेनये कर्म आरम्भ करनेके चिन्तनमें लगी रहती हैं। ऐसी अवस्थामें उसको अपना कल्याण? उद्धार करनेका अवसर ही प्राप्त नहीं होता। इस तरह रजोगुण कर्मोंकी सुखासक्तिसे शरीरधारीको बाँध देता है अर्थात् जन्ममरणमें ले जाता है। अतः साधकको प्राप्त परिस्थितिके अनुसार निष्कामभावसे कर्तव्य कर्म तो कर देना चाहिये? पर संग्रह और सुखभोगके लिये नयेनये कर्मोंका आरम्भ नहीं करना चाहिये।देहिनम् पदका तात्पर्य है कि देहसे अपना सम्बन्ध माननेवाले देहीको ही यह रजोगुण कर्मोंकी आसक्तिसे बाँधता है।सकामभावसे कर्मोंको करनेमें भी एक सुख होता है और कर्मोंका अमुक फल भोगेंगे इस फलासक्तिमें भी एक सुख होता है। इस कर्म और फलकी सुखासक्तिसे मनुष्य बँध जाता है।कर्मोंकी सुखासक्तिसे छूटनेके लिये साधक यह विचार करे कि ये पदार्थ? व्यक्ति? परिस्थिति? घटना आदि कितने दिन हमारे साथ रहेंगे। कारण कि सब दृश्य प्रतिक्षण अदृश्यतामें जा रहा है जीवन प्रतिक्षण मृत्युमें जा रहा है सर्ग प्रतिक्षण प्रलयमें जा रहा है महासर्ग प्रतिक्षण महाप्रलयमें जा रहा है। आज दिनतक जो बाल्य? युवा आदि अवस्थाएँ चली गयीं? वे फिर नहीं मिल सकतीं। जो समय चला गया? वह फिर नहीं मिल सकता। बड़ेबड़े राजामहाराजाओं और धनियोंकी अन्तिम दशाको याद करनेसे तथा बड़ेबड़े राजमहलों और मकानोंके खण्डहरोंको देखनेसे साधकको यह विचार आना चाहिये कि उनको जो दशा हुई है? वही दशा इस शरीर? धनसम्पत्ति? मकान आदिकी भी होगी। परन्तु मैंने इनके प्रलोभनमें पड़कर अपनी शक्ति? बुद्धि? समयको बरबाद कर दिया है। यह तो बड़ी भारी हानि हो गयी ऐसे विचारोंसे साधकके अन्तःकरणमें सात्त्विक वृत्तियाँ आयेंगी और वह कर्मसङ्गसे ऊँचा उठ जायगा।अगर मैं रातदिन नयेनये कर्मोंके करनेमें ही लगा रहूँगा? तो मेरा मनुष्यजन्म निरर्थक चला जायगा और उन कर्मोंकी आसक्तिसे मेरेको न जाने किनकिन योनियोंमें जाना पड़ेगा और कितनी बार जन्मनामरना पड़ेगा इसलिये मुझे संग्रह और सुखभोगके लिये नयेनये कर्मोंका आरम्भ नहीं करना है? प्रत्युत प्राप्त परिस्थितिके अनुसार अनासक्तभावसे कर्तव्यकर्म करना है ऐसे विचारोंसे भी साधक कर्मोंकी आसक्तिसे ऊँचा उठ जाता है। सम्बन्ध --   तमोगुणका स्वरूप और उसके बाँधनेका प्रकार क्या है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।14.7।। अपने मन पर विजय प्राप्त करने के इच्छुक साधक को मन की उन समस्त सूक्ष्म प्रवृत्तियों एवं रुचियों का ज्ञान होना चाहिये? जिनके द्वारा वह बारम्बार उन्मत्त के समान विषयों की ओर भागता है। इस प्रकार? यह मन साधक के आन्तरिक व्यक्तित्व को नष्ट करने के षड्यन्त्र में ही लगा रहता है।रजोगुण को रागस्वरूप जानो जब अन्तकरण में रजोगुण के प्रभावों का घातक आक्रमण होता है तब वह मनुष्य के मन को असंख्य पीड़ादायक उद्वेगों से चूरचूर कर देता है। मन के स्तर पर उठने वाले ये उद्वेग ही रजोगुण के मुख्य लक्षण हैं। ये मनोवेग असंख्य प्रकार से व्यक्त होते हैं? जैसे हठ? कामना? भावना इत्यादि। तथापि इन सबका समावेश केवल दो वृत्तियों में किया जा सकता है तृष्णा और संग अर्थात् आसक्ति। यहाँ इन दोनों का ही समस्त उद्वेगों के मुख्य स्रोत के रूप में निर्देश किया गया है।तृष्णा और संग विषयोपभोग की इच्छा के लिये संस्कृत में शब्द है तृष्णा अर्थात् प्यास। एक प्यासे व्यक्ति के लिये उस समय जल से अधिक महत्व की और कोई शान्तिप्रद वस्तु प्रतीत ही नहीं होती है। वह तृष्णा के कारण छटपटाता है? और केवल किसी प्रकार किसी भी स्थान से जल प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करता है। इसी प्रकार एक बार किसी विषय की कामना मन में उत्पन्न हो जाती है? तब उसकी सन्तुष्टि किये बिना मनुष्य को शान्ति अनुभव नहीं होती। यदि इष्ट वस्तु की प्राप्ति हो जाती है? तो उसके प्रति संग हो जाता है। संग एक ऐसा दुष्ट मनोवेग है? जो मन के सुख और शान्ति को भंग कर देता है। संक्षेपत? अप्राप्त वस्तु को पाने की काम्ाना तृष्णा कहलाती है? और प्राप्त वस्तु से आसक्ति को संग कहते हैं।विषयों के प्रति मन में उत्पन्न होने वाली तृष्णा और संग ही वे ज्वालामुखी पर्वत हैं? जो निरन्तर अपना पिघला लावा उगल कर जीवन के हंसते उपवन को झुलसाकर ध्वस्त कर देते हैं। इन आग्नेय पर्वतों से उगला गया तप्त लावा विविध प्रकार के मनोद्वेग हैं? जो मनुष्य के कामुक जीवन में असंख्य वस्तुओं को अर्जित करने? उन पर अधिकार जमाने और उन्हें सुरक्षित रखने के लिये संघर्ष और कलह को जन्म देते हैं।यह रजोगुण मनुष्य को कर्मासक्ति से बांधता है रजोगुण के वशीभूत पुरुष के मन में विभिन्न इच्छाएं उत्पन्न होती हैं? जिन्हें पूर्ण करने के लिये स्वाभाविक है कि वह दिनरात कर्म में ही व्यस्त और आसक्त हो जाता है। उसका सम्पूर्ण जीवन धन के आय और व्यय? वस्तुओं के अर्जन और रक्षण करने में ही व्यतीत होता है। इस प्रक्रिया में उसका शरीर तो वृद्ध होता जाता है परन्तु उसकी तृष्णा नवयौवन को प्राप्त होती जाती है अधिकाधिक भोग को प्राप्त करने की व्याकुलता और प्राप्त वस्तु के नष्ट होने के भय के कारण वह एक कर्म से दूसरे कर्म में प्रवृत्त रहता है। इस प्रकार अपने ही कर्मों से उत्पन्न हुए सुख दुख रूप फलों को भोगने के लिए य्ाह जीव देह से बंधा रहता है।यदि सत्त्वगुण के बन्धन में मनुष्य को यह अभिमान होता है कि मैं सुखी हूँ और मैं जानने वाला हूँ? तो रजोगुण में मैं कर्ता हूँ इस प्रकार कर्तृत्व का अभिमान होता है। इस तथ्य का हमें स्मरण रहे कि इन गुणों से उत्पन्न ये बन्धन प्रतीतिक ही हैं? वास्तविक नहीं।

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।14.7।।रजस्तर्हि किंलक्षणं कथं वा पुरुषं निबध्नातीत्याशङ्क्याह -- रज इति। रज्यते संसृज्यतेऽनेन पुरुषो दृश्यैरिति रागोऽसावात्मास्येति रागात्मकं रजो जानीहीत्याह -- रञ्जनादिति। समुद्भवत्यस्मादिति समुद्भवस्तृष्णा चासङ्गश्च तृष्णासङ्गौ तयोः समुद्भवस्तमिति विग्रहं गृहीत्वा कार्यद्वारा रजो विवक्षुस्तृष्णासङ्गयोरर्थभेदमाह -- तृष्णेत्यादिना। रजसो लक्षणमुक्त्वा निबन्धृत्वप्रकारमाह -- तद्रज इति। कर्मसङ्गं विभजते -- दृष्टेति। अकर्तारमेव पुरुषं करोमीत्यभिमानेन प्रवर्तयतीत्यर्थः।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।14.7।।रजः किंलक्षणं कथं वा देहिनं बध्नातीत्यपेक्षायां तस्य लक्षणं बन्धकत्वं चाह -- रज इति। रजः रागात्मकं रज्यते संसज्यतेऽनेन पुरुषो दृश्यैरीति रागो दृष्टादृष्टसुखं तत्साधनविषयकः कामः गंधः स एवात्मा यस्य तद्रागात्मकं विद्धि जानीहि। अप्राप्तोभिलाषस्तृष्णा मनसः प्रीतिलक्षणः संश्लेष आसङ्गः समुद्भवत्यस्मादिति समुद्भवः। तृष्णासङ्गयोः समुद्भूवं निदानं एतादृशं तद्रजः। कर्मसङ्गेन दृष्टादृष्टार्थेषु सञ्जनं तत्परता कर्मसङ्गेस्तेन देहिनं निबध्नाति। अकर्तारमेव करोमीत्यभिमानेन प्रवर्तयतीत्यर्थः। बध्वा च जननीजढरवासादिरुपां संसृतिं विस्तारयतीति ध्वनयन्नाह -- हे कौन्तेयेति।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।14.7।।रज इति। तृष्णासङ्गयोः समुद्भवं तयोः कारणम्।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।14.7।।रजोगुणो रागो रञ्जना तदात्मकं विद्धि। तृष्णा प्राप्यमाणेष्वप्यर्थेष्वतृप्तिः। सङ्गः प्राप्ते विषये मनसः प्रीतिलक्षणः संश्लेषस्तयोः समुद्भवं निदानभूतं तद्रजो हे कौन्तेय? कर्मसङ्गेन दृष्टादृष्टार्थेषु कर्मसु सङ्गस्तत्परता तेन निबध्नाति देहिनं देहाभिमानिनम्।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।14.7।।रजो रागात्मकं रागहेतुभूतम्? रागो योषितपुरुषयोः अन्योन्यस्पृहा। तृष्णासङ्गसमुद्भवं तृष्णासङ्गयोः उद्भवस्थानं तृष्णासङ्गहेतुभूतम् इत्यर्थः। तृष्णा शब्दादिसर्वविषयस्पृहा। सङ्गः पुत्रमित्रादिषु संबन्धिषु संश्लेषस्पृहा। तथा देहिनं कर्मसु क्रियासु स्पृहाजननद्वारेण निबध्नाति क्रियासु हि स्पृहया याः क्रिया आरभते देही? ताः च पुण्यपापरूपा इति तत्फलानुभवसाधनभूतासु योनिषु जन्महेतवो भवन्ति? अतः कर्मसङ्गद्वारेण रजो देहिनं निबध्नाति। तद् एवं रजो रागतृष्णासङ्गहेतुः कर्मसङगहेतुः च इति उक्तं भवति।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।14.7।।रजसो लक्षणं बन्धकत्वं चाह -- रजोरागेति। रजःसंज्ञकं गुणं रागात्मकमनुरञ्जनरूपं विद्धि। अतएव तृष्णासङ्गसमुद्भवम्। तृष्णा अप्राप्तेऽर्थेऽभिलाषः? सङ्गः प्राप्तेऽर्थे प्रीतिर्विशषेणासक्तिस्तयोस्तृष्णासङ्गयोः समुद्भवो यस्मात्तद्रजो देहिनं दृष्टादृष्टार्थेषु कर्मसु सङ्गेनासात्तया नितरां बध्नाति। तृष्णासङ्गाभ्यां हि कर्मस्वासक्तिर्भवति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।14.7।।रजसो लोभ एव च [14।17] इति वक्ष्यते अतःप्रकाशकंमोहनाम् इति पूर्वोत्तरवत्रागात्मकम् इत्यत्रापि रागहेतुत्वं विवक्षितमित्याहरागहेतुभूतमिति। कारणे कार्योपचारः। रज्यतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या वा रागहेतुत्वं रागशब्देन विवक्षितमिति भावः। सहप्रयुक्ततृष्णादिशब्दपुनरुक्तिपरिहाराय रागशब्दं प्रयोगप्राचुर्यानुसारेण विषयविशेषे नियच्छति -- योषित्पुरुषयोरन्योन्यस्पृहेति। तृष्णासङ्गाभ्यां रजस उत्पत्तिकथनं मन्दम् रजोगुणात्तयोरुत्पत्त्यभिधानं तु बन्धावान्तरव्यापारज्ञापनेन सार्थकमित्यभिप्रायेणाहतृष्णासङ्गयोरुद्भवस्थानमिति। आत्मधर्मभूतयोस्तयोरात्मैव ह्युद्भवस्थानमित्यत्राहतृष्णासङ्गहेतुभूतमित्यर्थ इति।क्षुत्तृष्णोपशमम् इत्यादिप्रयोगात्पिपासामात्रशङ्काव्यावृत्त्यर्थमाहतृष्णाशब्दादिविषयेति। सांस्पर्शिकगुणपञ्चकग्रहणमिदम्।पुत्रमित्रादिष्वित्याभिमानिकपरम्? विषयतृष्णा विषयवैतृष्ण्यमित्यादिप्रयोगात्। तृष्णा सांस्पर्शिकसमस्तविषया सङ्गस्तु परिशेषात् प्रयोगानुसाराच्च आभिमानिकविषय इति भावः। रागादिहेतुकस्तद्विषयोपायसङ्गोऽत्र कर्मसङ्ग इत्याहतथेति। ननु रागतृष्णासङ्गा अप्यन्यत्र सुखविशेषसङ्गा एव व्याख्याताः। ज्ञानसुखयोः सङ्गे जाते तत्साधनेषु प्रवृत्तिवचनात्सत्त्वेनापि क्रियासङ्गो जन्यते? तत्कथं विवेकः इत्थं सत्त्वगुणः सुखं प्रधानीकृत्य तदर्थतयाऽन्यत्र,सञ्जयतिप्रयोजनेषु सज्जन्ते न विशेषेषु पण्डिताः [ ] इतिवत्। रजोगुणस्तु तत्तद्वस्तूनि क्रियास्वरूपं च प्रधानीकृत्य सुखमल्पं प्रभूतं वेत्यत्रोदासीनो भवति। राजदाराभिलाषदुष्पुत्रादिसंरक्षणवृथाचेष्टादिष्वेतद्व्यक्तम् -- इति। कर्मसङ्गस्य कथं बन्धद्वारत्वं इत्यत्राहक्रियासु हीति। कर्मसङ्गवद्रागादेरपि बन्धद्वारत्वज्ञापनाय पिण्डितमाहतदेवमिति। तत् रागादीनां बन्धे पर्यवसानेन साफल्यादित्यर्थः। एवं सत्त्वतमोव्यावृत्तस्वभावेनोक्तप्रकारेणेत्यर्थः।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।14.6 -- 14.8।।क्रमेणैषां रूपमुच्यते -- तत्रेत्यादि भारतेत्यन्तम्। सत्त्वं निर्मलम्। तृष्णासंगस्य समुद्भवो यतः। दुर्लभस्यापि चिरतरसंचितपुण्यशतलब्धस्य अपवर्गप्राप्तावेककारणस्य मानुष्यकस्य वृथा अतिवाहनं प्रमादः। तथाह्युक्तम्,(?N तथाभ्युक्तम्) -- आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते।स वृथा नीयते येन स प्रमादी नराधमः।।14.इति (S in the margin? and ?N in the text itself add the followingयथा वा श्रीमद्भागवते -- निद्रया ह्रियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः।दिवा चार्थेहया राजन् कुटुम्बभरणेन वा।।1।।देहापत्यकलत्रादिष्वात्मसैन्येष्वसत्स्वपि।तेषां प्रमत्तो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति।।2।। -- The hagavata Purana ( Gorakhpur Ed.) II? i? verse 34तथा --,किं प्रमत्तस्य बहुभिः परोक्षैर्हायनैरिह।वरं मुहूर्त्तं विदितं घटेत श्रेयसे यतः।।3।। -- ibid? 12.अयमेव प्रमादः तत्रैवैकादशस्कन्धे आत्महत्याशब्दवाच्यो निर्णीतो भगवता,यथा -- नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्।मयानुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत्स आत्महा।।4।। इति -- ibid. XI? xx? 17.)आलस्यं शुभकरणीयेषु। निःशेषेण द्राणं कुत्सिता गतिः निद्रा।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।14.7।।अत्ररजस्तृष्णासङ्गसमुद्भवं इत्यस्यतृष्णासङ्गाभ्यां समुद्भवो यस्य इत्यपव्याख्यानमिति भावेन विग्रहप्रदर्शनपूर्वकमर्थमाह -- तृष्णेति। समुद्भवत्यस्मादिति समुद्भवं कारणम्। अन्यथाप्रकृतिसम्भवाः (14।5) इत्युक्तविरोधात् समुद्भवशब्देनाविर्भावो विवक्षित इति चेत् तथापि गुणकार्यकथनप्रकरणविरोधात्।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।14.7।।रज्यते विषयेषु पुरुषोऽनेनेति रागः? कामो गर्धः स एवात्मा स्वरूपं यस्य धर्मधर्मिणोस्तादात्म्यात् तद्रागात्मकं रजो विद्धि। अतएव अप्राप्ताभिलाषस्तृष्णा? प्राप्तस्योपस्थितेऽपि विनाशे संरक्षणाभिलाष आसङ्गतयोस्तृष्णासङ्गयोः संभवो यस्मात्तद्रजो निबध्नाति हे कौन्तेय? कर्मसङ्गेन कर्मसु दृष्टादृष्टार्थेषु अहमिदं करोम्येतत्फलं भोक्ष्य इत्यभिनिवेशविशेषेण देहिनं वस्तुतोऽकर्तारमेव कर्तृत्वाभिमानिनम्। रजसः प्रवृत्तिहेतुत्वात्।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।14.7।।सत्त्वलक्षणमुक्त्वा रजोलक्षणमाह -- रजो रागात्मकमिति। रजः रजोगुणं रागात्मकं अनुरञ्जनात्मकं नानापदार्थोत्पादनेन भगवद्रञ्जनात्मकं विद्धि। तत् तृष्णासङ्गसमुद्भवं तृष्णा,भगवदर्थोत्पन्नवस्तुमात्राज्ञानेन स्वाभिलाषः? तत्सङ्गेन समुद्भव उत्पत्तिर्यस्य तादृशं देहिनं? न तु भगवदर्थकज्ञानात्मकम्। कर्मसङ्गेन तत्स्वाभिलषितप्राप्त्यर्थं क्रियासङ्गेन बध्नाति लौकिकासक्तिं जनयतीत्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।14.7।। --,रजः रागात्मकं रञ्जनात् रागः गैरिकादिवद्रागात्मकं विद्धि जानीहि। तृष्णासङ्गसमुद्भवं तृष्णा अप्राप्ताभिलाषः? आसङ्गः प्राप्ते विषये मनसः प्रीतिलक्षणः संश्लेषः? तृष्णासङ्गयोः समुद्भवं तृष्णासङ्गसमुद्भवम्। तन्निबध्नाति तत् रजः निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन? दृष्टादृष्टार्थेषु कर्मसु सञ्जनं तत्परता कर्मसङ्गः? तेन निबध्नाति रजः देहिनम्।।

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।14.7।।रजसोऽप्याह -- रज इति। अनुरागात्मकंरञ्ज रागे इति धातोः स्पष्टमेव। कर्मसु,रञ्जनाद्बन्धकम्।