सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत।।14.9।।
sattvaṁ sukhe sañjayati rajaḥ karmaṇi bhārata jñānam āvṛitya tu tamaḥ pramāde sañjayaty uta
Sattva attaches to happiness, Rajas to action, O Arjuna, while Tamas, verily shrouding knowledge, attaches to heedlessness.
14.9 सत्त्वम् purity? सुखे to happiness? सञ्जयति attaches? रजः active force? कर्मणि to action? भारत O Bharata? ज्ञानम् knowledge? आवृत्य shrouding? तु verily? तमः inertia? प्रमादे to heedlessness? सञ्जयति attaches? उत but.Commentary Just as a dark cloud enshrouds the sun? so also Tamas envelops knowledge or the light of the Self. Tamas creates an attachment for heedlessness? that is? ignorance or forgetfulness of duty or the nonperformance of necessary (obligatory) duties.
।।14.9।। व्याख्या--'सत्त्वं सुखे सञ्जयति'--सत्त्वगुण साधकको सुखमें लगाकर अपनी विजय करता है, साधकको अपने वशमें करता है। तात्पर्य है कि जब सात्त्विक सुख आता है, तब साधककी उस सुखमें आसक्ति हो जाती है। सुखमें आसक्ति होनेसे वह सुख साधकको बाँध देता है अर्थात् उसके साधनको आगे नहीं बढ़ने देता, जिससे साधक सत्त्वगुणसे ऊँचा नहीं उठ सकता, गुणातीत नहीं हो सकता।यद्यपि भगवान्ने पहले छठे श्लोकमें सत्त्वगुणके द्वारा सुख और ज्ञानके सङ्गसे बाँधनेकी बात बतायी है, तथापि यहाँ सत्त्वगुणकी विजय केवल सुखमें ही बतायी है, ज्ञानमें नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि वास्तवमें साधक सुखकी आसक्तिसे ही बँधता है। ज्ञान होनेपर साधकमें एक अभिमान आ जाता है कि 'मैं कितना जानकार हूँ !'इस अभिमानमें भी एक सुख मिलता है, जिससे साधक बँध जाता है। इसलिये यहाँ सत्त्वगुणकी केवल सुखमें ही विजय बतायी है। 'रजः कर्मणि भारत'--रजोगुण मनुष्यको कर्ममें लगाकर अपनी विजय करता है। तात्पर्य है कि मनुष्यको क्रिया करना अच्छा लगता है, प्रिय लगता है। जैसे छोटा बालक पड़े-पड़े हाथ-पैर हिलाता है तो उसको अच्छा लगता है और उसका हाथ-पैर हिलाना बंद कर दिया जाय तो वह रोने लगता है। ऐसे ही मनुष्य कोई क्रिया करता है तो उसको अच्छा लगता है और उसकी उस क्रियाको बीचमें कोई छुड़ा दे तो उसको बुरा लगता है। यही क्रियाके प्रति आसक्ति है, प्रियता है, जिससे रजोगुण मनुष्यपर विजय करता है। 'कर्मोंके फलमें तेरा अधिकार नहीं है' (गीता 2। 47) आदि वचनोंसे फलमें आसक्ति न रखनेकी तरफ तो साधकका खयाल जाता है, पर कर्मोंमें आसक्ति न रखनेकी तरफ साधकका खयाल नहीं जाता। वह 'तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है; कर्म न करनेमें तेरी आसक्ति न हो' (गीता 2। 47), जो योगारूढ़ होना चाहता है, उसके लिये निष्कामभावसे कर्म करना कारण है (गीता 6। 3) आदि वचनोंसे यही समझ लेता है कि कर्म तो करने ही चाहिये। अतः वह कर्म करता है, तो कर्मोंको करतेकरते उसकी उन कर्मोंमें आसक्ति, प्रियता हो जाती है, उनका आग्रह हो जाता है। इसकी तरफ खयाल करानेके लिये, सजग करानेके लिये भगवान् यहाँ कहते हैं कि रजोगुण कर्ममें लगाकर विजय करता है अर्थात् कर्मोंमें आसक्ति पैदा करके बाँध देता है। अतः साधककी कर्तव्यकर्म करनेमें तत्परता तो होनी चाहिये, पर कर्मोंमें आसक्ति, प्रियता, आग्रह कभी नहीं होना चाहिये -- 'न कर्मस्वनुषज्जते' (गीता 6। 4)। 'ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत'-- जब तमोगुण आता है, तब वह सत्-असत्, कर्तव्य-अकर्तव्य, हित-अहितके ज्ञान-(विवेक-) को ढक देता है, आच्छादित कर देता है अर्थात् उस ज्ञानको जाग्रत् नहीं होने देता। ज्ञानको ढककर वह मनुष्यको प्रमादमें लगा देता है अर्थात् कर्तव्य-कर्मोंको करने नहीं देता और न,करनेयोग्य कर्मोंमें लगा देता है। यही उसका विजयी होना है। सत्त्वगुणसे ज्ञान (विवेक) और प्रकाश (स्वच्छता) -- ये दो वृत्तियाँ पैदा होती हैं। तमोगुण इन दोनों ही वृत्तियोंका विरोधी है, इसलिये वह ज्ञान-(विवेक-) को ढककर मनुष्यको प्रमादमें लगाता है और प्रकाश-(इन्द्रियों और अन्तःकरणकी निर्मलता-) को ढककर मनुष्यको आलस्य एवं निद्रामें लगाता है, जिससे ज्ञानकी बातें कहने-सुनने, पढ़नेपर भी समझमें नहीं आतीं। सम्बन्ध--एक-एक गुण मनुष्यपर कैसे विजय करता है--इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।14.9।। प्रस्तुत श्लोक पूर्व के तीन श्लोकों का सारांश है। गीता गुरु शिष्य संवाद के रूप में होने से जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण सामान्य बुद्धि के अपने शिष्य अर्जुन के कल्याण के इच्छुक होने के कारण विवेचित विषय का ही संक्षेप में निर्दश करते हैं? जिन्हें पहले हम विस्तारपूर्वक देख चुके हैं।ये गुण उपर्युक्त कार्य कब करते हैं इस पर कहते हैं
।।14.9।।उक्तानां मध्ये कस्मिन्कार्ये कस्य गुणस्योत्कर्षस्तत्राह -- पुनरिति। सुखे साध्ये विषये समुत्कृष्यते सत्त्वमित्याह -- सत्त्वमिति। संजयतीत्यस्यार्थमाह -- संश्लेषयतीति। कर्मणि साध्ये रजः समुत्कृष्यत इत्याह -- रज इति। प्रमादे प्राधान्यं तमसो दर्शयति -- ज्ञानमिति।
।।14.9।।पुनः संक्षेपेण गुणानां व्यापारमाह -- सत्त्वमिति। सत्त्वं सुखे संजयति संश्लेषयति। रजः कर्मणि संजयतीत्यनुवर्तते। रजसा कर्मासक्तस्य भरतस्य वंशे समुद्भूतस्त्वं स्वकर्मण्यासक्तो न भवसीत्यतिचित्रमिति ध्वनन्नाह -- हे भारतेति। तमस्तु स्वेनावरणात्मना ज्ञानं सत्त्वकृतं विवेकमाच्छाद्य प्रमादे प्राप्तकर्तव्यताऽकरणे संजयति। अप्यर्थादुतशब्दादालस्यादिकं गृह्यते। प्राप्तज्ञायमानताकस्याप्यज्ञानं प्रमाद इति तु ज्ञानमावृत्येत्यस्मिन्नन्ततर्भावमभिप्रतेयाचार्यैर्न व्याख्यातम्। तथाच सुखे साध्ये सत्त्वस्य कर्मणि साध्ये रजसः प्रमादादौ तमस उत्कर्ष इति भावः।
।।14.9।।सत्त्वमिति।
।।14.9।।सत्त्वमुत्कृष्टं सत् सुखे दुःखकारणमभिभूय संजयति संश्लेषं जनयति। एवमुत्तरत्रापि। ज्ञानं प्रकाश आवृत्त्य प्रमादे अवश्यकर्तव्यस्याकरणे।
।।14.9।।सत्त्वं सुखसङ्गप्रधानम्? रजः कर्मसङ्गप्रधानम्? तमः तु वस्तुयाथात्म्यज्ञानम् आवृत्य विपरीतज्ञानहेतुतया कर्तव्यविपरीतप्रवृत्तिसङ्गप्रधानम्।देहकारपरिणतायाः प्रकृतेः स्वरूपानुबन्धिनः सत्त्वादयो गुणाः। ते च स्वरूपानुसंबन्धित्वेन सर्वदा सर्वे वर्तन्ते इति परस्परविरुद्धं कार्यं कथं जनयन्ति इत्यत्राह --
।।14.9।।सत्त्वादीनामेवं स्वकार्यकरणे सामर्थ्यातिशयमाह -- सत्त्वमिति। सत्त्वं सुखे संजयति संश्लेषयति। दुःखशोकादिकारणे सत्यपि सुखाभिमुखमेव देहिनं करोतीत्यर्थः। एवं सुखादिकारणे सत्यपि रजः कर्मण्येव संजयति। तमस्तु महत्सङ्गेनोत्पद्यमानमपि ज्ञानमावृत्याच्छाद्य प्रमादे संजयति महद्भिरुपदिश्यमानस्यार्थस्यानवधाने योजयति। उत अपि आलस्यादावपि संयोजयतीत्यर्थः।
।।14.9।।सत्त्वं सुखे इति श्लोकस्य अर्थविभागेन पुनरुक्ततां परिहरति -- सत्त्वादीनामिति।सत्त्वं सुखसङ्गप्रधानमिति ज्ञानसङ्गोऽपि सुखार्थ इति भावः।रजः कर्मसङ्गप्रधानमिति रागतृष्णादयोऽपि हि कर्मणि विश्राम्यन्तीति भावः। निश्शेषज्ञानावरणे सुषुप्त्यादिरूपत्वात् प्रमादाख्यदशा न स्यादित्यत्राह -- वस्तुयाथात्म्यज्ञानमावृत्त्येति।
।।14.9 -- 14.10।।सत्त्वमिति। रज इति। संजयति योजयति। रजस्तमसी अभिभूय सत्त्वं वर्धते रस्तु सत्त्वतमसी? तमः सत्त्वरजसी। उक्तं हि --,अन्योन्याभिभवेन गुणवृद्धिः इति।
।।14.9।।सत्त्वमिति।
।।14.9।।उक्तानां मध्ये कस्मिन्कार्ये कस्य गुणस्योत्कर्ष इति तत्राह -- सत्त्वमुत्कृष्टं सत् सुखे संजयति दुःखकारणमभिभूय सुखे संश्लेषयति। सर्वदेहिनमित्यनुषज्यते। एवं रज उत्कृष्टं सत्सुखकारणमभिभूय कर्मणि? संजयतीत्यनुषज्यते। तमस्तु प्रमादबलेनोत्पद्यमानमपि सत्त्वकार्यं ज्ञानमावृत्य आच्छाद्य प्रमादे प्राप्तज्ञायमानताकस्याप्यज्ञाने संजयति। उत अपि प्राप्तकर्तव्यताकस्याप्यकरणे आलस्ये तामस्यां च निद्रायां संजयतीत्यर्थः।
।।14.9।।एवं सत्त्वादीनां स्वरूपमुक्त्वा तेषां स्वकार्यकरणातिशयत्वमाह -- सत्त्वमिति। सत्त्वं सत्त्वगुणः सुखे भगवज्ज्ञानात्मके सञ्जयति संयोजयति। एवमेव रजः कर्मणि पूर्वोक्ते संयोजयति। तथा तमो भगवदीयसङ्गादिना जायमानं ज्ञानं निद्रालस्याद्यैरावृत्य प्रमादे अनवधानतायां संयोजयति। यद्वा सुख उत्पादिते सत्त्वं सञ्जयति सर्वोत्कर्षेण तिष्ठति? तथैव कर्मणि रजः? प्रमादे तमः।अत्रायं भावः -- भगवता त्रयोऽपि गुणा एतद्वैचित्र्यार्थमेवोत्पादितास्तेषां तत्कृतकार्यदर्शनेन सन्तुष्यति प्रभुस्तेनैव तदुत्कर्षः सिद्ध्यतीति।
।।14.9।। --,सत्त्वं सुखे सञ्जयति संश्लेषयति? रजः कर्मणि हे भारत सञ्जयति इति अनुवर्तते। ज्ञानं सत्त्वकृतं विवेकम् आवृत्य आच्छाद्य तु तमः स्वेन आवरणात्मना प्रमादे सञ्जयति उत प्रमादः नाम प्राप्तकर्तव्याकरणम्।।उक्तं कार्यं कदा कुर्वन्ति गुणा इति उच्यते --,
।।14.9।।सत्त्वादाना स्वभावमाह -- सत्त्वमिति। सुखादिसञ्जनस्वभावमित्यर्थः। एवमन्यदपि ज्ञेयं तत्र हेतुमाह -- ज्ञानमिति।