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As Krishna says, patience is a virtue
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा।।14.10।।
rajas tamaśh chābhibhūya sattvaṁ bhavati bhārata rajaḥ sattvaṁ tamaśh chaiva tamaḥ sattvaṁ rajas tathā
Now, O Arjuna, Sattva prevails, having overpowered Rajas and Tamas; then Rajas, having overpowered Sattva and Tamas; and then Tamas, having overpowered Sattva and Rajas.
14.10 रजः Rajas? तमः inertia? च and? अभिभूय having overpowered? सत्त्वम् Sattva? भवति arises? भारत O Arjuna? रजः Rajas? सत्त्वम् Sattva? तमः inertia? च and? एव even? तमः inertia? सत्त्वम् purity? रजः active force? तथा also.Commentary Just as winter has its sway when summer and autumn have gone? just as sleep has its sway when a man is neither dreaming nor waking? so also Sattva has its sway when Rajas and Tamas are suppressed and makes people say that they are happy. The Sadhana for increasing Sattva is given in the 17th and 18th chapters.Each ality acts in its own turn at different times. All the three alities cannot operate at one and the same time. When one ality asserts itself or prdominates by overpowering or suppressing the other two? it produces its own effect. Sattva produces knowledge and happiness Rajas action Tamas veiling of knowledge? inertia? error? indolence? sloth and sleep. When Sattva is in the ascendant in a man? he is endowed with discrimination. Sublime thoughts roll in his mind. He has pure understanding. His mind turns away from sensual pleasures and moves inward towards the Self.What is the characteristic mark by which you can know that a particular ality is predominant or is in the ascendant The answer is given in the following three verses.
।।14.10।। व्याख्या--'रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत'--रजोगुणकी और तमोगुणकी वृत्तियोंको दबाकर सत्त्वगुण बढ़ता है अर्थात् रजोगुणकी लोभ, प्रवृत्ति, नये-नये कर्मोंका आरम्भ, अशान्ति, स्पृहा, सांसारिक भोग और संग्रहमें प्रियता आदि वृत्तियाँ और तमोगुणकी प्रमाद, आलस्य, अनावश्यक निद्रा, मूढ़ता आदि वृत्तियाँ -- इन सबको 'सत्त्वगुण' दबा देता है और अन्तःकरणमें स्वच्छता, निर्मलता, वैराग्य, निःस्पृहता, उदारता, निवृत्ति आदि वृत्तियोंको उत्पन्न कर देता है। 'रजः सत्त्वं तमश्चैव'--सत्त्वगुणकी और तमोगुणकी वृत्तियोंको दबाकर रजोगुण बढ़ता है अर्थात् सत्त्वगुणकी ज्ञान, प्रकाश, वैराग्य, उदारता आदि वृत्तियाँ और तमोगुणकी प्रमाद, आलस्य, अनावश्यक, निद्रा, मूढ़ता आदि वृत्तियाँ -- इन सबको रजोगुण दबा देता है और अन्तःकरणमें लोभ, प्रवृत्ति, आरम्भ, अशान्ति, स्पृहा आदि वृत्तियोंको उत्पन्न कर देता है। 'तमः सत्त्वं रजस्तथा'--वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुणको दबाकर तमोगुण बढ़ता है अर्थात् सत्त्वगुणकी स्वच्छता, निर्मलता, प्रकाश, उदारता आदि वृत्तियाँ और रजोगुणकी चञ्चलता, अशान्ति, लोभ आदि वृत्तियाँ -- इन सबको तमोगुण दबा देता है और अन्तःकरणमें प्रमाद, आलस्य, अतिनिद्रा, मूढ़ता आदि वृत्तियोंको उत्पन्न कर देता है। दो गुणोंको दबाकर एक गुण बढ़ता है, बढ़ा हुआ गुण मनुष्यपर विजय करता है और विजय करके मनुष्यको बाँध देता है। परन्तु भगवान्ने यहाँ (छठेसे दसवें श्लोकतक) उलटा क्रम दिया है अर्थात् पहले बाँधनेकी बात कही, फिर विजय करना कहा और फिर दो गुणोंको दबाकर एकका बढ़ना कहा। ऐसे क्रम देनेका तात्पर्य है -- पहले भगवान्ने दूसरे श्लोकमें बताया कि जिन महापुरुषोंका प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद हो चुका है, वे महासर्गमें भी उत्पन्न नहीं होते और महाप्रलयमें भी व्यथित नहीं होते। कारण कि महासर्ग और महाप्रलय दोनों प्रकृतिके सम्बन्धसे ही होते हैं। परन्तु जो मनुष्य प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जो़ड़ लेते हैं, उनको प्रकृतिजन्य गुण बाँध देते हैं (14। 5)। इसपर स्वाभाविक ही यह प्रश्न होता है कि उन गुणोंका स्वरूप क्या है और वे मनुष्यको किस प्रकार बाँध देते हैं? इसके उत्तरमें भगवान्ने छठेसे आठवें श्लोकतक क्रमशः सत्त्व, रज और तम--तीनों गुणोंका स्वरूप और उनके द्वारा जीवको बाँधे जानेका प्रकार बताया। इसपर प्रश्न होता है कि बाँधनेसे पहले तीनों गुण क्या करते हैं इसके उत्तरमें भगवान्ने बताया कि बाँधनेसे पहले बढ़ा हुआ गुण मनुष्यपर विजय करता है, तब उसको बाँधता है (14। 9)। अब प्रश्न होता है कि गुण मनुष्यपर विजय कैसे करता है? इसके उत्तरमें भगवान्ने कहा कि दो गुणोंको दबाकर एक गुण मनुष्यपर विजय करता है (14। 10)। इस प्रकार विचार करनेसे मालूम होता है कि भगवान्ने छठेसे दसवें श्लोकतक जो क्रम रखा है, वह ठीक ही है। सम्बन्ध--जब दोगुणोंको दबाकर एक गुण बढ़ता है, तब उस बढ़े हुए गुणके क्या लक्षण होते हैं-- इसको बतानेके लिये पहले बढ़े हुए सत्त्वगुणके लक्षणोंका वर्णन करते हैं।
।।14.10।। पूर्वोक्त विवेचन के सन्दर्भ में एक बुद्धिमान् साधक की यह जिज्ञासा होगी कि क्या ये तीन गुण अपना कार्य भिन्नभिन्न समय पर किसी क्रम विशेष में अथवा एक ही समय में सब कार्य करते हैं। यदि एक ही साथ तीनों कार्य करते हैं? तो क्या इनमें सामंजस्य होता है या विरोध इस प्रकार के प्रश्न का पूर्वानुमान करके भगवान् श्रीकृष्ण अपने दिव्यगान के इस श्लोक में इसका उत्तर देते हैं। वे वर्णन करते हैं कि किस प्रकार ये गुण भिन्नभिन्न समय पर कार्य करते हैं। प्रत्येक गुण उस क्षणविशेष तक प्रमुख और शक्तिशाली बन जाता है।विचारपूर्वक अध्ययन करने पर ज्ञात होगा कि समयसमय पर किसी एक गुण की अधिकता से प्रभावित होकर मनुष्य कार्य कर रहा होता है। उस दशा में अन्य दो गुणों का सर्वथा अभाव नहीं होता? किन्तु उनका महत्व गौण हो जाता है। जब हम कहते हैं कि कोई पुरुष सत्त्वगुण के प्रभाव में है? तब उसका अर्थ यह होता है कि उस समय उसमें रजोगुण और तमोगुण इतने अधिक प्रबल नहीं होते कि वे अपने प्रभाव को व्यक्त कर सकें। यही बात अन्य गुणों के विषय में भी समझनी चाहिये।वर्धमान गुण के लक्षण को हम किस प्रकार पहचान सकते हैं भगवान् बताते हैं
।।14.10।।इतरेतराविरोधेन वा सत्त्वादयो गुणा युगपदुत्कृष्यते विरोधेन वा क्रमेण वेति संदेहात्पृच्छति -- उक्तमिति। सत्त्वोत्कर्षार्थिनामितराभिभवार्थं क्रमपक्षमाश्रित्योत्तरमाह -- उच्यत इति। सत्त्वाभिवृद्धिमेव विवृणोति -- तदेति। रजस्तमसोस्तिरोधानदशायामिति यावत्। रजसो वृद्धिप्रकारं तत्कार्यं च कथयति -- तथेति। तमसोऽपि विवृद्धिं तत्कार्यं च निर्दिशति -- तम इति।
।।14.10।।इतराविरोधेन सत्त्वादयो गुणा युगपदुत्कृष्यन्ते विरोधेन वा क्रमेण वेत्यपेक्षायां सत्त्वोत्कर्षार्थिनामितराबिभवार्थं क्रमपक्षमाश्रित्याह -- रज इति। रजस्तमश्चोभावप्यभिमूय तिरोधाय सत्त्वं भवत्युत्भवति वर्धते यदा तदा रजस्तमसोस्तिरोधानदशायां लब्धात्मकं सत्त्वं स्वं कार्यं ज्ञानसुखाद्यारभत इति शेषः। भारतेति संबोधयन् भायां ब्रह्मविद्यायां रतेन रजस्तमसोस्तिरोधायिका सत्त्ववृद्धिः संपाद्येति द्योतयति। तथा रजोगुणो यदा सत्त्वं तमश्चैवोभावभिभूय वर्धते तदा कर्म तृष्णादि स्वं कार्यमारभते। एवं तमआख्योऽपि गुणो यदा सत्त्वं रजश्चैवोभावभिभूय वर्धते तदा ज्ञानावरणप्रमादादि स्वं कार्यभारभत इत्यर्थः।
।।14.10।।सत्त्वादयः कदा स्वस्वकार्ये प्रभवन्तीत्याशङ्क्येतरेतरयोरभिभवे सतीत्याह -- रज इति। रजस्तमसी अभिभूय सत्त्वं भवति वर्धते। एवं रजोपि सत्वतमसी अभिभूय भवति। तथा तमोऽपि सत्त्वरजसी अभिभूय भवतीत्यर्थः।
।।14.10।।यद्यपि सत्त्वादयस्त्रयः प्रकृतिसंसृष्टात्मस्वरूपानुबन्धिनः? तथापि प्राचीनकर्मवशाद् देहाप्यायनभूताहारवैषम्यात् च सत्त्वादयःपरस्परसमुद्भवाभिभवरूपेण वर्तन्ते। रजस्तमसी कदाचिद् अभिभूय सत्त्वम् उद्रिक्तं वर्तते। तथा तमःसत्त्वे अभिभूय रजः कदाचित् कदाचित् च रजःसत्त्वे अभिभूय तमः।तत् च कार्योपलब्ध्या एव अवगच्छेद् इत्याह --
।।14.10।।तत्र हेतुमाह -- रज इति। रजस्तमश्चेति गुणद्वयमभिभूय तिरस्कृत्य सत्त्वं भवत्यदृष्टवशादुद्भवति। ततः,स्वकार्ये सुखज्ञानादौ संयोजयतीत्यर्थः। एवं रजोऽपि सत्त्वं तमश्चेति गुणद्वयमभिभूयोद्भवति। ततः स्वकार्ये तृष्णाकर्मादौ संयोजयति। एवं तमोऽपि सत्त्वं रजश्चाभिभूयोद्भवति। ततश्च स्वकार्ये प्रमादालस्यादौ संयोजयतीत्यर्थः।
।।14.10।।अनन्तरग्रन्थस्यासङ्गतिशङ्कां परिहरति -- देहाकारेति। परस्परविरुद्धं यथार्थायथार्थज्ञानसुखदुःखसङ्गादिरूपमित्यर्थः। उद्भवाभिभवानियमप्रसङ्गपरिहाराय भगवदनुग्रहनिग्रहहेतूनां कर्मणां विषमविपाकसमयत्वात्तदनुरूपोद्भवाभिभवप्रवाह उपपद्यत इत्याहप्राचीनकर्मवशादिति। यथा वातपित्तकफानां तत्तत्प्रचुरैर्द्रव्यैरुपचयंवृद्धिः समानैः सर्वेषां विपरीतैर्विपर्ययः [अष्टांगहृ.सू.स्था.1।15] इत्यायुर्वेदविदो वदन्ति? तथाऽत्रापि वक्ष्यमाणसात्त्विकाद्याहारभेदादित्याह -- देहाप्यायनभूताहारवैषम्याच्चेति। ततो देवा अभवन् परासुराः इत्यादि(श्रुति)ष्विव भवतिरत्रोद्भवविषय इत्याहउद्रिक्तं वर्तत इति। रजस्तमसोरुद्भूतयोः परिहारार्थमयमुद्भवाभिभवोपदेशः।
।।14.9 -- 14.10।।सत्त्वमिति। रज इति। संजयति योजयति। रजस्तमसी अभिभूय सत्त्वं वर्धते रस्तु सत्त्वतमसी? तमः सत्त्वरजसी। उक्तं हि --,अन्योन्याभिभवेन गुणवृद्धिः इति।
।।14.10।।उक्तं कार्यं कदा कुर्वन्ति गुणा इत्युच्यते -- रजस्तमश्च युगपदुभावपि गुणावभिभूय सत्त्वं भवत्युद्भवति वर्धते यदा तदा स्वकार्यं प्रागुक्तमसाधारण्येन करोतीति शेषः। एवं रजोऽपि सत्त्वं तमश्चेति गुणद्वयमभिभूयोद्भवति यदा तदा स्वकार्यं प्रागुक्तं करोति। तथा तद्वदेव तमोऽपि सत्त्वं रजश्चेत्युभावपि गुणावभिभूय उद्भवति यदा तदा स्वकार्यं प्रागुक्तं करोतीत्यर्थः।
।।14.10।।ननु सुखदुःखाद्यदृष्टसाधनत्वे सति स्वकार्यकरणमन्यथाभावकत्वं कथं इत्याशङ्क्य तेषां तथा सामर्थ्यं मया दत्तमस्तीति ज्ञापनाय सिद्धवत्कारेणानुवदति -- रजस्तम इति। रजस्तमः दुःखाज्ञानात्मकगुणद्वयमभिभूय तिरस्कृत्य सत्त्वं भवतीत्यर्थः। भारत इतिसम्बोधनेन यथा मदिच्छया सर्वपराभवेन त्वं जयसि तथेत्यर्थो द्योतितः। एवं रजोऽपि सत्त्वं तमश्चेति गुणद्वयाभिभवेन भवति। एवकारेण तमसो मोहकसामर्थ्याधिक्येऽपि तथाकर्तृत्वं व्यज्यते। तथा तमः सत्त्वं रजश्चाभिभूय भवतीत्यर्थः।
।।14.10।। --,रजः तमश्च उभावपि अभिभूय सत्त्वं भवति उद्भवति वर्धते यदा? तदा लब्धात्मकं सत्त्वं स्वकार्यं ज्ञानसुखादि आरभते हे भारत। तथा रजोगुणः सत्त्वं तमश्च एव उभावपि अभिभूय वर्धते यदा? तदा कर्म तृष्णादि स्वकार्यम् आरभते। तम आख्यो गुणः सत्त्वं रजश्च उभावपि अभिभूय तथैव वर्धते यदा? तदा ज्ञानावरणादि स्वकार्यम् आरभते।।यदा यो गुणः उद्भूतः भवति? तदा तस्य किं लिङ्गमिति उच्यते --,
।।14.10।।रजस्तमश्चेति। गुणद्वयमभिभूय सत्त्वं भवत्यदृष्चवशात्। एवमन्यदपि।