नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।।14.19।।
nānyaṁ guṇebhyaḥ kartāraṁ yadā draṣhṭānupaśhyati guṇebhyaśh cha paraṁ vetti mad-bhāvaṁ so ’dhigachchhati
When the seer beholds no agent other than the Gunas and knows that which is higher than them, he attains to My Being.
14.19 न not? अन्यम् other? गुणेभ्यः than the Gunas? कर्तारम् agent? यदा when? द्रष्टा the seer? अनुपश्यति beholds? गुणेभ्यः than the alities? च and? परम् higher? वेत्ति knows? मद्भावम् My Being? सः he? अधिगच्छति,attains to.Commentary The Supreme Self is in no way contaminated by the alities. The liberated sage exclaims I am the witness of the alities. I am neither the enjoyer nor the doer. The alities form the motive power of all actions. I am beyond the Gunas. The Gunas alone are responsible for all actions. I am entirely distinct from the alities. I am pure consciousness. I cannot be touched by the alities. I am like the ether.When a man gets illumination or attains knowledge of the Self? when he realises that there is no agent except the Gunas which are themselves modified as the bodies? the senses and their objects? when he knows that it is the Gunas only that become the agent in all transformations? in all states and in all actions? and when he realises the Supreme Self Who is distinct from the Gunas? Who is the silent witness of the Gunas and their functions? he attains to My state (liberation)? i.e.? becomes identical with Me. He becomes a Gunatita? i.e.? one who has transcended the three Gunas.
।।14.19।। व्याख्या -- नान्यं गुणेभ्यः ৷৷. मद्भावं सोऽधिगच्छति -- गुणोंके सिवाय अन्य कोई कर्ता है ही नहीं अर्थात् सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंसे ही हो रही हैं? सम्पूर्ण परिवर्तन गुणोंमें ही हो रहा है। तात्पर्य है कि सम्पूर्ण क्रियाओं और परिवर्तनोंमें गुण ही कारण हैं? और कोई कारण नहीं है। वे गुण जिससे प्रकाशित होते हैं? वह तत्त्व गुणोंसे पर है। गुणोंसे पर होनेसे वह कभी गुणोंसे लिप्त नहीं होता अर्थात् गुणों और क्रियाओँका उसपर कोई असर नहीं पड़ता। ऐसे उस तत्त्वको जो विचारकुशल साधक जान लेता है अर्थात् विवेकके द्वारा अपनेआपको गुणोंसे पर? असम्बद्ध? निर्लिप्त अनुभव कर लेता है कि गुणोंके साथ अपना सम्बन्ध न कभी,हुआ है? न है? न होगा और न हो ही सकता है। कारण कि गुण परिवर्तनशील हैं और स्वयंमें कभी परिवर्तन होता ही नहीं। वह फिर मेरे भावको? मेरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि वह जो भूलसे गुणोंके साथ अपना सम्बन्ध मानता था? वह मान्यता मिट जाती है और मेरे साथ उसका जो स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है? वह ज्योंकात्यों रह जाता है।
।।14.19।। अब तक किये गये वर्णन से तो आत्मा का ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण चित्र सामने उभरकर आता है कि मानों वह कभी इन गुणों के बन्धन से मुक्त ही नहीं हो सकता। गीता के अध्येता को इस स्थल पर निराशा का अनुभव हो सकता है। जब तक हम रेलगाड़ी में आसीन रहेंगे? तब तक रेल की गति हमारी गति होगी। परन्तु जैसे ही हम गन्तव्य स्थान पर उतर जाते हैं? तब हम स्थिर हो जाते हैं हैं? केवल रेल गतिमान रहती है। इसी प्रकार? देहादि उपाधियों को ही अपना स्वरूप समझकर उनसे तादात्म्य करने पर उनके विकारों को हम अपने ही विकार मानकर दुख? कष्ट और बन्धन का अनुभव करते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि आत्मा के अनुभव में आने वाला बन्धन अविद्याजनित (मिथ्या) है? वास्तविक नहीं। अत उपाधियों में स्थित अहंभाव को त्यागकर उसके साक्षीस्वरूप आत्मा में स्थिति प्राप्त करना ही तीनगुणों से मुक्ति है।निदिध्यासन की साधना में इस तादात्म्य की निवृत्ति और स्वस्वरूप में स्थिति प्राप्त करने का अभ्यास किया जाता है। जिस साधक में ध्यान की योग्यता है? वह आत्मा को देखेगा अर्थात् साक्षात् आत्मरूप से अनुभव करेगा। यह आत्मा समस्त दोषों से सर्वथा मुक्त है परन्तु यह देखना घटपटादि दृश्य वस्तु को देखने के समान नहीं है आत्मा इन्द्रिय? मन और बुद्धि का भी द्रष्टा है? उनका दृश्य नहीं। दर्शन से तात्पर्य ऐसे निश्चयात्मक ज्ञान से है? जिसको प्राप्त कर लेने के पश्चात् तत्त्व के विषय में संकल्पविकल्प करने का कोई अवसर ही नहीं रह जाता।गुणों के अतिरिक्त किसी अन्य को कर्ता नहीं देखता आत्मानुभवी पुरुष न केवल अपने अनन्तस्वरूप को पहचानता है? वरन् यह भी जानता है कि अब तक जिस अहंकार को कर्तृत्व का अभिमान था वह इन गुणों के अतिरिक्त कोई वस्तु नहीं है? अर्थात् अहंकार उन गुणों का ही कार्य है। ये गुण ही हमारे विचारों पर शासन करके उनकी दिशा को निर्धारित करते हैं। अत कर्तृत्वभोक्तृत्वादि अभिमान जिसमें स्थित है? वह सूक्ष्म शरीर यहाँ गुण शब्द से सूचित किया गया है।और गुणों से परे तत्त्व को जो जानता है मन स्वयं जड़ होने के कारण न कुछ कार्य कर सकता है और न स्वयं अपनी वृत्तियों को देख सकता है। अत जो चेतन तत्त्व उसे चेतनता प्रदान कर कार्यक्षम बनाता है? वह उस मन से भिन्न ही होगा। यदि किसी पात्र में रखा जल पिघले हुये रजत के समान चमक रहा हो? तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसने वह प्रभा सूर्य से प्राप्त की होगी। जल में अपनी स्वयं की कोई चमक नहीं होती। अब यदि उस जल में स्थित सूर्य का प्रतिबिम्ब छिन्नभिन्न होता है? तो उसका कारण पात्र में स्थित जल का स्वभाव होगा? न कि स्वयं सूर्य ही आकाश में नृत्य कर रहा होगा मन की उपाधि में व्यक्त हुआ चैतन्य ही व्यष्टि जीव कहलाता है? जिसे उपाधि के परिच्छेदों का कष्ट अनुभव होता है।जो पुरुष जीवभाव को त्यागकर उसके बिम्बभूत सच्चिदानन्द आत्मा को अपने स्वरूप से पहचान लेता है? वही पुरुष सभी परिच्छेदों के बन्धनों? दुख के अश्रुओं और निराशाओं के निश्वासों से सदा के लिये मुक्त हो जाता है।वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है उपनिषद् की घोषणा के अनुसार आत्मवित् पुरुष स्वयं ही आत्मा बन जाता है। मेरे स्वरूप से तात्पर्य आत्मस्वरूप से ही है। भगवान् श्रीकृष्ण को देवकीपुत्र या वृन्दावन के मुरली मनोहर कृष्ण ही नहीं समझना चाहिये। यहाँ श्रीकृष्ण भूतमात्र की आत्मा के रूप में उपदेश दे रहे हैं और गीता के प्रत्येक अध्येता को यह समझना चाहिये कि उसकी आत्मा ही जीव को उपदेश दे रही है।जाग्रतपुरुष स्वप्न में ऐसी स्थिति को उत्पन्न करता है कि वहाँ स्वप्नद्रष्टा के रूप में वह वस्तुओं को प्राप्त कर या खोकर सुखी और दुखी होता है। ये समस्त सुखदुख स्वयं में ही निहित स्वप्नद्रष्टा को होते हैं। जब वह स्वप्न से जागता है? तो स्वप्न जगत् और उसके बन्धन समाप्त हो जाते हैं और स्वयं स्वप्नद्रष्टा ही जाग्रतपुरुष बन जाता है। कल्पना कीजिये कि स्वप्नवस्था में उस दुखी स्वप्न द्रष्टा को उसकी जाग्रत अवस्था की चेतना आकर उपदेश देती है? तो वह यही श्लोक कहेगी कि जब स्वप्नद्रष्टा तुम स्वप्न देखने वाले मन के अतिरिक्त किसी कर्ता को नहीं देखोगे? और अपने में ही उस तत्त्व को जानोगे? जो इस मन से परे हैं तब तुम मेरे इस स्वरूप को अर्थात् जाग्रत की चेतना को प्राप्त होगे।इसी प्रकार? यहाँ चैतन्य की दृष्टि से उपदेश देते हैं कि जो मनुष्य अपने जाग्रतस्वप्नसुषुप्ति के व्यक्तित्व को त्यागकर उससे परे स्थित आत्मस्वरूप को पहचानता है? वही वास्तव में परम सत्य का जाग्रत पुरुष कहा जा सकता है। वह स्वयं आत्मस्वरूप (मद्भाव) बन जाता है।इस ज्ञान के फल को और अधिक स्पष्ट करते हुये भगवान् कहते है
।।14.19।।कस्मिन्गुणे कथमित्यादिप्रश्नान्प्रत्याख्याय गुणेभ्यो मोक्षणं कथमिति प्रत्याख्यानार्थं वृत्तानुवादपूर्वकं मिथ्याज्ञाननिवर्तकं सम्यग्ज्ञानं प्रस्तौति -- पुरुषस्येत्यादिना। पुरुषस्य या गतिः सा चेति शेषः। मोक्षो गुणेभ्यो विश्लेषपूर्वको ब्रह्मभावः। सम्यग्ज्ञानोक्तिपरं श्लोकं व्याख्यातुं प्रतीकमादत्ते -- नान्यमिति। सत्त्वादिकार्यविषयस्य गुणशब्दस्य विवक्षितमर्थमाह -- कार्येति। विद्यानन्तर्यमनुशब्दार्थः। अक्षरार्थमुक्त्वा पूर्वार्धस्यार्थिकमर्थमाह -- गुणा एवेति। सर्वावस्थास्तत्तत्कार्यकरणाकारपरिणता इति यावत्। सर्वकर्मणां कायिकवाचिकमानसानां विहितप्रतिषिद्धानामित्यर्थः। परं व्यतिरिक्तम्। व्यतिरेकमेव स्फोरयति -- गुणेति। निर्गुणब्रह्मात्मानमित्यर्थः। मद्भावं ब्रह्मात्मतामसौ प्राप्नोति। ब्रह्मभावोऽस्याभिव्यज्यत इत्यर्थः।
।।14.19।।प्रकृतिस्थस्वरुपेण मिथ्याज्ञानेन युक्तस्य पुरुषस्य भोग्येषु गुणेषु सुखदुःखमोहात्मकेषु सुखी दुःखी मूढोऽहमस्मीत्येवंरुपः सङ्गः पुरुषस्य सदसद्यो निजन्मप्राप्तिलक्षणस्य संसारस्य कारणमितिपुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्। कारणं गुणसङ्गेऽस्य सदसद्योनिजन्मसु इति पूर्वोध्याये संक्षेपेण यदुक्तं तदस्मिन्नध्यायेसत्त्वं रजस्तम् इति गुणाः
।।14.19 -- 14.20।।परिणामिकर्त्तारं गुणेभ्योऽन्यं न पश्यति। अन्यथा यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम् [मुण्ड.3।1।3] इति श्रुतिविरोधः।नाहं कर्त्ता न कर्त्ता त्वं कर्त्ता यस्तु सदा प्रभुः इति मोक्षधर्मे।
।।14.19।।कथं प्रकृतिः पुरुषं बध्नातीत्यस्योत्तरमुक्तम्। कथं वा ततोऽस्य मुक्तिरित्यस्योत्तरमाह -- नान्यमिति। गुणेभ्यः कार्यकारणविषयाकारपरिणतेभ्योऽन्यं दृशिमात्रं आत्मानं द्रष्टा जीवः कर्तारं नानुपश्यति विवेकमनु न पश्यति। किंतु गुणा एव कर्तार इत्येव पश्यति न त्वहं कर्तेति। तथा गुणेभ्यः परं गुणव्यापारसाक्षिभूतं मां यदि वेत्ति तदा स वेदिता मद्भावं ब्रह्मभावं गच्छति। अन्यथा तु गुणभावं गतो भवति।
।।14.19।।एवं सात्त्विकाहारसेवया फलाभिसन्धिरहितभगवदाराधनरूपकर्मानुष्ठानैः च रजस्तमसी सर्वात्मना अभिभूय उत्कृष्टसत्त्वनिष्ठो यदा अयं द्रष्टा गुणेभ्यः अन्यं कर्तारं न अनुपश्यति गुणा एव स्वानुगुणप्रवृत्तिषु कर्तारः इति पश्यति? गुणेभ्यः च परं वेत्ति? कर्तृभ्यो गुणेभ्यः च परम् अन्यम् आत्मानम् अकर्तारं वेत्ति? स,मद्भावम् अधिगच्छति? मम यो भावः तम् अधिगच्छति।एतद् उक्तं भवति आत्मनः स्वतः परिशुद्धस्वभावस्य पूर्वपूर्वकर्ममूलगुणसङ्गनिमित्तं विविधकर्मसु कर्तृत्वम्? आत्मा स्वतः तु अकर्ता अपरिच्छिन्नज्ञानैकाकारः इति एवम् आत्मानं यदा पश्यति? तदा मद्भावम् अधिगच्छति इति।कर्तृभ्यो गुणेभ्यः अन्यम् अकर्तारम् आत्मानं पश्यन् भगवद्भावम् अधिगच्छति इति उक्तम्? स भगवद्भावः कीदृशः इति अत्र आह --
।।14.19।।तदेवं प्रकृतिगुणसङ्गकृतं संसारं प्रपञ्चमुक्त्वा इदानीं तद्विवेकतो मोक्षं दर्शयति -- नान्यमिति। यदा तु द्रष्टा विवेकी भूत्वां बुद्ध्याद्याकारपरिणतेभ्यो गुणेभ्योऽन्यं कर्तारं नानुपश्यति? अपितु गुणा एव कर्माणि कुर्वन्तीति पश्यति? गुणेभ्यश्च परं व्यतिरिक्तं तत्साक्षिणमात्मानं वेत्ति स तु मद्भावं ब्रह्मत्वमधिगच्छति प्राप्नोति।
।।14.19।।ननुऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः [14।18] इति यदि सत्त्वस्थस्यापवर्गोऽभिधीयते तर्ह्यनन्तरं गुणत्रयातीतस्यापवर्गवचनं व्याहन्येतेति शङ्कायामनन्तरग्रन्थमवतारयतिआहारविशेषैरिति। आहारविशेषादेः सत्त्वविवृद्धिहेतुत्वं पूर्वापरसिद्धम्। सांसारिकत्रिगुणातिक्रमः? प्रवृद्धेन सत्त्वेनोर्ध्वगमनं च सुसङ्गतमिति भावः।यज्ञशिष्टाशिनः सन्तः [3।13]भोक्तारं यज्ञतपसां [5।29]रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत [14।10] इति पूर्वोक्तानुसारेण प्रकृतसङ्गतमर्थमाहएवं सात्त्विकाहारेति।सर्वात्मनेति अपुनरुद्भवमित्यर्थः।नान्यं गुणेभ्यः कर्तारम् इति गुणव्यतिरिक्तस्य कर्तृत्वनिषेधः। तत्र कर्तुरात्मनो गुणेभ्योऽन्यत्वनिषेधधीर्मा भूदित्याहगुणा एवेति। पुरुषधर्मभूतप्रयत्नाश्रयत्वलक्षणकर्तृत्वव्युदासायाहस्वानुगुणप्रवृत्तिषु कर्तार इति। क्वचित्कर्तृत्वानुदर्शनस्यानात्मविदामपि सम्भवात्ततो विशेष उच्यतेगुणेभ्यश्चेति। परत्वं प्रकृताकारापेक्षया नियन्तुमाहकर्तृभ्य इति।कर्तृभ्यः परम् इत्युक्त्या कर्तृत्वातिशयधीव्युदासःअन्यमिति। गुणानां परस्परमिवान्यत्वेऽपि कर्तृत्वमविरुद्धमित्यत्र प्रस्तुताकारविरहोऽन्यशब्दाभिप्रेत इत्याहअकर्तारमिति। गुणाश्रयप्रवृत्तीनामनाश्रयभूतं स्वतश्च तन्मूलप्रवृत्त्यनर्हमित्यर्थः। स्वरूपैक्यभ्रमव्युदासायानन्तरग्रन्थ इत्यभिप्रायेण मद्भावशब्दार्थमाह -- मम यो भाव इति। गुणानां कर्तृत्वज्ञानमनुपयुक्तम्? आत्मनोऽकर्तृत्वं तुकर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात् [ब्र.सू.2।3।33] इत्यादिविरुद्धम् तत्राहएतदुक्तमिति। पुण्यपापरूपेषु लौकिकेषु च कर्मसु कर्तृत्वमस्वाभाविकं? न पुनः प्रयत्नाश्रयत्वमित्यभिप्रायेणाहआत्मनः स्वत इति। एतेन परशब्दस्यात्र परमात्मपरत्वं न विवक्षितमित्यपि दर्शितम्।विविधकर्मस्विति सांसारिकसात्त्विकराजसतामसकर्मस्वित्यर्थः।स्वतस्त्वकर्तेति गुणकृतेषु तेष्वेव अन्यथाजक्षन्क्रीडन् [छा.उ.8।12।3] इत्यादिविरोधात्। अत्रमद्भावम् इति तादात्म्य प्रतीतं स्यात्? तच्चमम साधर्म्यमागताः [14।2] इति प्रागुक्तविरुद्धम्। श्रुतिश्च परमं साम्यमुपैति [मुं.उ.3।1।3] इति। श्रुत्यन्तरं च यथोदकं (के) शुद्धे शुद्धमासित्त तादृगेव भवति? एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम [कठो.2।4।15] इति। अत्रोदकद्वयस्य संसर्गेऽपि स्वरूपै क्यासम्भवात्तादृक्छब्दस्वारस्याच्च साम्यपरत्वं व्यक्तम्। आ च जनकाय वसिष्ठः -- परेण परधर्मा च भवत्येष समेत्य वै विशुद्धधर्मा शुद्धेन बुद्धेन च स बुद्धिमान्। विमुक्तधर्मा मुक्तेन समेत्य हि तदा भवेत् (पुरुषर्षभ)। वियोगधर्मिणा चैव वियोगात्मा भवत्य(थ)पि। विमोक्षिणा विमोक्षी च समेत्येह तदा (तथा) भवेत्। शुचिना च (शुद्धधर्मा) शुचिश्चैव भवत्यमितदीप्तिमान्। विमलात्मा भवत्येष (च भवति) समेत्य विमलात्मना। केवलात्मा तथा चैव केवलेन समेत्य वै। स्वतन्त्रश्च स्वतन्त्रेण स्वतन्त्रत्वम -- (वाप्नुते) वाप्नुयात् [म.भा.12।308।2630] इति।
।।14.16 -- 14.20।।कर्मण इत्यादि अश्नुते इत्यन्तम्। अत्र केचिदसंबद्धाः श्लोकाः कल्पिताः? पुनरुक्तत्वात् ( पुनरुक्तार्थत्वात्) ते त्याज्या एव। एतद्गुणातीतवृत्तिस्तु (N गुणातीतश्रुतिस्तु) मोक्षायैव कल्पते।
।।14.19 -- 14.20।।नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं इति स्वतन्त्रकर्तृत्वं गुणानामेव? नान्यस्येत्युच्यत इत्यपव्याख्याननिरासार्थमाह -- परिणामीति। कुत एतत् इत्यत आह -- अन्यथेति गुणेभ्योऽन्यस्य कर्तृत्वाभावे। मोक्षधर्मे परमेश्वरस्य कर्तृत्वमुक्तं तद्विरोधश्चेति वाक्यशेषः।
।।14.19।।अस्मिन्नध्याये वक्तव्यत्वेन प्रस्तुतमर्थत्रयं। तत्र क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगस्येश्वराधीनत्वं के वा गुणाः कथं वा ते बध्नन्तीत्यर्थद्वयमुक्तम्। अधुना तु गुणेभ्यः कथं मोक्षणं? मुक्तस्य च किं लक्षणमिति वक्तव्यमवशिष्यते। तत्र मिथ्याज्ञानात्मकत्वाद्गुणानां सम्यग्ज्ञानात्तेभ्यो मोक्षणमित्याह -- गुणेभ्यः कार्यकरणविषयाकारपरिणतेभ्योऽन्यं कर्तारं यदा द्रष्टा विचारकुशलः सन्नानुपश्यति विचारमनु न पश्यति गुणा एवान्तःकरणबहिष्करणशरीरविषयभावापन्नाः सर्वकर्मणां कर्तार इति पश्यति। गुणेभ्यश्च तत्तदवस्थाविशेषेण परिणतेभ्यः परं गुणतत्कार्यासंस्पृष्टं तद्भासकमादित्यमिव जलतत्कम्पाद्यसंस्पृष्टं निर्विकारं सर्वसाक्षिणं सर्वत्र समं क्षेत्रज्ञमेकं वेत्ति मद्भावं मद्रूपतां स द्रष्टाधिगच्छति।
।।14.19।।एवं स्वेच्छया स्वक्रीडार्थोत्पादितगुणादिरूपमुक्त्वा कृतोच्चमध्यनीचादिधर्मेषूच्चत्वादिबुद्धिरहितो मत्क्रीडाज्ञानवांस्तत्सङ्गरहितो यः स मद्भक्तिमाप्नोतीत्येतदर्थमेतन्निरूपितमित्याह -- नान्यमिति। यदा मत्कृपाविशिष्टकाले द्रष्टा विवेकवान् गुणेभ्यः स्वक्रीडार्थप्रकटरूपेभ्यः कृत्वा कर्तारं सर्वमूलभूतमनुपश्यति? नान्यम् च पुनः गुणेभ्यो विचित्ररूपेभ्यः परं पुरुषोत्तमं वेत्ति स मद्भावं मद्भक्तिमधिगच्छति? प्राप्नोतीत्यर्थः।अत्रायं भावः -- गुणकृतनानावैचित्र्यदर्शनेन पुरुषोत्तममाहात्म्यज्ञानेन सर्वत्र तद्वैचित्र्यं पश्यन्तं तत्कर्तारं तद्रूपेणाऽऽविर्भूतम् अनु तद्वदेव यथा भगवान् स्वात्मकमेव पश्यति तथा पश्यति? नान्यं कञ्चन पश्यति स मद्भावं प्राप्नोति।
।।14.19।। --,न अन्यं कार्यकरणविषयाकारपरिणतेभ्यः गुणेभ्यः कर्तारम् अन्यं यदा द्रष्टा विद्वान् सन् न अनुपश्यति? गुणा एव सर्वावस्थाः सर्वकर्मणां कर्तारः इत्येवं पश्यति? गुणेभ्यश्च परं गुणव्यापारसाक्षिभूतं वेत्ति? मद्भावं मम भावं सः द्रष्टा अधिगच्छति।।कथम् अधिगच्छति इति? उच्यते --,
।।14.19 -- 14.20।।एवं गुणसर्गभेदोक्तौ पुरुषस्य सर्वस्य बन्धलीलामुपपाद्येदानीं तद्विवेकतो गुणात्ययद्वारा मोक्षलीलामाहू द्वाभ्याम् -- नान्यमिति। यदा गुणेभ्योऽन्यं कर्त्तारं नानुपश्यति गुणा एव स्वानुगुणप्रवृत्तिषु कर्त्तार,इति पश्यति गुणेभ्यश्च परमात्मानं वेत्ति तदा द्रष्टा मद्भावं ब्रह्माक्षरभावं प्राप्नोति ब्रह्मवित् (ब्रह्म वेद) ब्रह्मैव भवति [मुं.उ.3।2।9] इति श्रुतेः। निर्गुणं हि ब्रह्म स्वयमव्ययं तदा गुणांस्त्रीनेतानतीत्यामृतमश्नुते प्राप्नुते ब्रह्मसुखं वा भुङ्क्ते।