ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममृतस्याव्ययस्य च।शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।14.27।।
brahmaṇo hi pratiṣhṭhāham amṛitasyāvyayasya cha śhāśhvatasya cha dharmasya sukhasyaikāntikasya cha
For I am the abode of Brahman, the immortal, immutable, and everlasting Dharma, and absolute bliss.
14.27 ब्रह्मणः of Brahman? हि indeed? प्रतिष्ठा the abode? अहम् I? अमृतस्य the immortal? अव्ययस्य the immutable? च and? शाश्वतस्य everlasting? च and? धर्मस्य of Dharma? सुखस्य of bliss? एकान्तिकस्य absolute? च and.Commentary The Self Which is immortal and immutable? Which is attainable by the eternal Dharma or the knowledge of the Self? Which is unending bliss? abides in Me? the Supreme Being.,I? the innermost Self? am the abode of the Supreme Self. The aspirant beholds? with the eye of intuition? that the innermost Self is the very Supreme Self? through Selfrealisation.The Lord bestows grace and mercy on His devotees through His Sakti? energy or power? or Maya. Sakti and the Lord are one. Just as heat is inseparable from fire? so also Maya or Sakti is inseparable from the Lord. Sakti cannot be distinct from the Lord in Whom She inheres.There is another interpretation. By Brahman here is meant the Brahman with attributes or alities? the conditioned Brahman. I? the Absolute Brahman? transcending the attributes or alities? the unconditioned Absolute? am the abode of the Saguna (conditioned) Brahman Who is immortal and imperishable. I am also the abode of the eternal Dharma of Jnananishtha (establishment in the highest wisdom) and the abode of the unending bliss born of that unswerving devotion.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the fourteenth discourse entitledThe Yoga of the Division of the Three Gunas.,
।।14.27।। व्याख्या -- ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम् -- मैं ब्रह्मकी प्रतिष्ठा? आश्रय हूँ -- ऐसा कहनेका तात्पर्य ब्रह्मसे अपनी अभिन्नता बतानेमें है। जैसे जलती हुई अग्नि साकार है और काष्ठ आदिमें रहनेवाली अग्नि निराकार है -- ये अग्निके दो रूप हैं? पर तत्त्वतः अग्नि एक ही है। ऐसे ही भगवान् साकाररूपसे हैं और ब्रह्म निराकररूपसे है -- ये दो रूप साधकोंकी उपासनाकी दृष्टिसे हैं? पर तत्त्वतः भगवान् और ब्रह्म एक ही हैं? दो नहीं। जैसे भोजनमें एक सुगन्ध होती है और एक स्वाद होता है नासिकाकी दृष्टिसे सुगन्ध होती है और रसनाकी दृष्टिसे स्वाद होता है? पर भोजन तो एक ही है। ऐसे ही ज्ञानकी दृष्टिसे ब्रह्म है और भक्तिकी दृष्टिसे भगवान् हैं? पर तत्त्वतः भगवान् और ब्रह्म एक ही हैं।भगवान् कृष्ण अलग हैं और ब्रह्म अलग है -- यह भेद नहीं है किन्तु भगवान् कृष्ण ही ब्रह्म हैं और ब्रह्म ही भगवान् कृष्ण है। गीतामें भगवान्ने अपने लिये ब्रह्म शब्दका भी प्रयोग किया है -- ब्रह्मण्याधाय कर्माणि (5। 10) और अपनेको अव्यक्तमूर्ति भी कहा है -- मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना (9। 4)। तात्पर्य है कि साकार और निराकार एक ही हैं? दो नहीं।अमृतस्याव्ययस्य च -- अविनाशी अमृतका अधिष्ठान मैं ही हूँ और मेरा ही अधिष्ठान अविनाशी अमृत है। तात्पर्य है कि अविनाशी अमृत और मैं -- ये दो तत्त्व नहीं हैं? प्रत्युत एक ही हैं। इसी अविनाशी अमृतकी प्राप्तिको भगवान्ने अमृतमश्नुते (13। 12 14। 20) पदसे कहा है।शाश्वतस्य च धर्मस्य -- सनातन धर्मका आधार मैं हूँ और मेरा आधार सनातन धर्म है। तात्पर्य है कि सनातन धर्म और मैं -- ये दो नहीं हैं? प्रत्युत एक ही हैं। सनातन धर्म मेरा ही स्वरूप है (टिप्पणी प0 738)। गीतामें अर्जुनने भगवान्को शाश्वतधर्मका गोप्ता (रक्षक) बताया है (11। 18)। भगवान् भी अवतार लेकर सनातन धर्मकी रक्षा किया करते हैं (4। 8)।सुखस्यैकान्तिकस्य च -- ऐकान्तिक सुखका आधार मैं हूँ और मेरा आधार ऐकान्तिक सुख है अर्थात् मेरा ही स्वरूप ऐकान्तिक सुख है। भगवान्ने इसी ऐकान्तिक सुखको अक्षय सुख (5। 21)? आत्यन्तिक सुख (6। 21) और अत्यन्त सुख (6। 28) नामसे कहा है।इस श्लोकमें ब्रह्मणः? अमृतस्य आदि पदोंमें राहोः शिरः की तरह अभिन्नतामें षष्ठी विभक्तिका प्रयोग किया गया है। तात्पर्य है कि राहुका सिर -- ऐसा जो प्रयोग होता है? उसमें राहु अलग है और सिर अलग है -- ऐसी बात नहीं है? प्रत्युत राहुका नाम ही सिर है और सिरका नाम ही राहु है। ऐसे ही यहाँ ब्रह्म? अविनाशी अमृत आदि ही भगवान् कृष्ण हैं और भगवान् कृष्ण ही ब्रह्म? अविनाशी अमृत आदि हैं।ब्रह्म कहो? चाहे कृष्ण कहो? और कृष्ण कहो? चाहे ब्रह्म कहो अविनाशी अमृत कहो? चाहे कृष्ण कहो? और कृष्ण कहो चाहे अविनाशी अमृत कहो शाश्वत धर्म कहो? चाहे कृष्ण कहो और कृष्ण कहो चाहे शाश्वत धर्म कहो ऐकान्तिक सुख कहो चाहे कृष्ण कहो और कृष्ण कहो चाहे ऐकान्तिक सुख कहो एक ही बात है। इसमें कोई आधारआधेय भाव नहीं है? एक ही तत्त्व है। इसलिये भगवान्की उपासना करनेसे ब्रह्मकी प्राप्ति होती है -- यह बात ठीक ही है।इस प्रकार ? तत्? सत् -- इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें गुणत्रयविभागयोग नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।14।।,
।।14.27।। भक्तियोग तथा उसके परम लक्ष्य का वर्णन करते हुये भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा था? तत्पश्चात्? तुम मुझमें ही निवास करोगे। ईश्वर के प्रति अपने प्रेम से प्रेरणा पाकर भक्त अपने भिन्न व्यक्तित्व को विस्मृत करके अपने ध्येय परमात्मा के साथ लीन हो जाता है। पूर्व के श्लोक में भगवान् ने कहा था कि अव्यभिचारी भक्तियोग से उनकी सेवा करने वाला साधक अनात्म उपाधियों के साथ के अपने तादात्म्य से शनै शनै मुक्त हो जाता है। जिस मात्रा में अहंकार समाप्त होता है? उसी मात्रा में आत्मा की दिव्यता की अभिव्यक्ति होती है। जैसेजैसे निद्रा का आवेश बढ़ता जाता है वैसेवैसे मनुष्य जाग्रत अवस्था से दूर होता हुआ निद्रा की शान्त स्थिति में लीन हाेता जाता है। अनुभव के एक स्तर को त्यागने का अर्थ ही दूसरे अनुभव में प्रवेश करना है।मैं ब्रह्म की प्रतिष्ठा हूँ जो चैतन्य साधक के हृदय में आत्माभाव से स्थित है? वही सर्वत्र समान रूप से व्याप्त अमृत? अव्यय? नित्य? आनन्दस्वरूप तत्त्व ब्रह्म है। आत्मा की पहिचान ही विश्वाधिष्ठान अनन्त ब्रह्म की अनुभूति है। घट उपाधि की दृष्टि से उससे अवच्छिन्न आकाश (घटाकाश) बाह्य सर्वव्यापी आकाश से भिन्न प्रतीत होता है? परन्तु उपाधि के अभाव में वह घटाकाश ही महाकाश बन जाता है। इसी प्रकार एक देह की उपाधि से चैतन्य तत्त्व को आत्मा कहते हैं? किन्तु वस्तुत वही अनन्त ब्रह्म है। यह ब्रह्म अमृत और अव्यय? नित्य और आनन्दस्वरूप है।श्री शंकाराचार्य अपने अत्यन्त युक्तियुक्त एवं विश्लेषणात्मक भाष्य में इस श्लोक की व्याख्या में चार पर्यायों की ओर संकेत करते हैं। ये अर्थ परस्पर भिन्न नहीं? वरन् प्रत्येक अर्थ इस श्लोक के दार्शनिक पक्ष को अधिकाधिक उजागर करता है। वे कहते हैं प्रतिष्ठा का अर्थ है जिसमें वस्तु की स्थिति होती है? क्योंकि अमृत और अव्यय ब्रह्म की प्रतिष्ठा मैं हूँ? अत मैं प्रत्यगात्मा हूँ। यह प्रत्यागात्मा ही परमात्मा अर्थात् भूत मात्र की आत्मा है? ऐसा सम्यक् ज्ञान से निश्चित किया गया है।जिस शक्ति से ब्रह्म अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये प्रवृत्त होता है? वह शक्ति ब्रह्म ही है? जो मैं हूँ। यहाँ शक्ति शब्द से शक्तिमान ईश्वर लक्षित है। इसका अभिप्राय यह है कि निर्गुण ब्रह्म ही माया शक्ति के द्वारा ईश्वर के रूप में भक्तों पर अनुग्रह करता है।अथवा? ब्रह्म शब्द से सगुण? सोपाधिक ब्रह्म कहा गया है? जिसकी प्रतिष्ठा निरुपाधिक ब्रह्म मैं ही हूँ। जैसा कि पहले कहा गया है? इन अर्थों में परस्पर भेद नहीं है। हमारी बुद्धि की सीमित क्षमता के द्वारा सोपाधिक ब्रह्म को ही समझा जा सकता है तथा वाणी के द्वारा प्रकृति से भिन्न रूप में उसका वर्णन किया जा सकता है।प्रकृति और सोपाधिक ब्रह्म की प्रतिष्ठा निरुपाधिक चैतन्य ब्रह्म है? जो इन दोनों को ही प्रकाशित करता है। अत वस्तुत निर्विकल्प? अमृत? अव्यय? अनिर्वचनीय आनन्दस्वरूप ब्रह्म मैं हूँ। अब यह स्पष्ट हो जाता है कि साधन सपन्न उत्तम अधिकारी भगवान् श्रीकृष्ण के कथनानुसार मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है? और मैं ब्रह्म हूँ? इसलिये वह साधक ब्रह्म ही बन जाता है।अगले अध्याय में ब्रह्म के विषय में और अधिक विस्तृत निरूपण किया गया है।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे।श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्याय।।
।।14.27।।विद्वान् ब्रह्मैवेत्यत्र हेतुं पृच्छति -- कुत इति। तत्रोत्तरमाह -- उच्यत इति। ब्रह्मशब्दस्यासति बाधके मुख्यार्थग्रहणमभिप्रेत्याह -- परमात्मन इति। तं प्रति प्रत्यगात्मनो यत्प्रतिष्ठात्वं तदुपपादयति -- प्रतितिष्ठतीति। यद्ब्रह्म प्रत्यगात्मनि प्रतितिष्ठति तत्किंविशेषणमित्यपेक्षायामुक्तम् -- अमृतस्येत्यादि। तत्रामृतशब्देनाव्ययशब्दस्य पुनरुक्तिं परिहरति -- अविकारिण इति। नित्यत्वमपक्षयराहित्यं तेन पूर्वाभ्यामपौनरुक्त्यम्। प्रसिद्धार्थस्य धर्मशब्दस्य ब्रह्मण्यनुपपत्तिमाशङ्क्याह -- ज्ञानेति। अर्थेन्द्रियसंबन्धोत्थं सुखं व्यावर्तयितुमैकान्तिकस्येत्युक्तम्। अक्षरार्थमुक्त्वा वाक्यार्थमाह -- अमृतादीति। प्रतिष्ठा यस्मादिति पूर्वेण संबन्धः। तस्मात्प्रत्यगात्मा परमात्मतया निश्चीयते सम्यग्ज्ञानेनेति योजना। अस्य श्लोकस्य पूर्वश्लोकेनैकवाक्यतामाह -- तदेतदिति। विवक्षितं वाक्यार्थं प्रपञ्चयति -- ययेति। सा शक्तिर्ब्रह्मैवेति कथं सामानाधिकरण्यं तत्राह -- शक्तीति। व्याख्यानान्तरमाह -- अथवेति। विशेषणानि पूर्ववदपौनरुक्त्यानि नेतव्यानि। तदनेनाध्यायेन क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगस्य संसारकारणत्वं पञ्चप्रश्ननिरूपणद्वारेण च सम्यग्ज्ञानस्य सकलसंसारनिवर्तकत्वमित्येतदुपपादयता मुमुक्षोर्यत्नसाध्यं गुणैरचाल्यत्वादि मुक्तस्यायत्नसिद्धं लक्षणमिति निर्धारितम्।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृतौचतुर्दशोऽध्यायः।।14।।
।।14.27।।योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन मां सेवते स गुणान्समतीत्य ब्रह्मभूयाय कल्पत इत्यत्र हेतुमाह -- ब्रह्मणो हीति। हि यस्माद्ब्रह्मणः परमात्मनोऽहं प्रत्यगात्मा प्रतिष्ठा प्रतितिष्ठत्यस्मिन्नति प्रतिष्ठा यत् ब्रह्म प्रत्यगात्मनि प्रतितिष्ठति। तद्विशिनष्टि। अमृतस्याविनाशिनः अव्ययस्याविकारिणः। शाश्वतस्य नित्यस्यापक्षयरहितस्य। तेन न पौनरुक्त्यम्। धर्मस्य,धर्मज्ञानस्येत्यर्थः। सुखस्य ज्ञानयोगधर्मप्राप्यस्यानन्दरुपस्येन्द्रियसंबन्धोत्थं सुखं व्यावर्थयितुमाह। एकान्तिस्याव्यभिचारिणः। अमृतादिस्वभावस्य परमात्मनः प्रत्यगात्मा प्रतिष्ठा यस्मात्तस्मात्सभ्यग्ज्ञानेन स परमात्मेति निश्चीयते तदेतब्रह्म भूयाय कल्पते इत्युक्तं। यया चेश्वरशक्त्या भक्तानुग्रहादिप्रयोजनाय ब्रह्म प्रवर्तते सा शक्तिः ब्रह्मैवाहं शक्तिशक्तिमतोरभेदादित्यभिप्रायः। यद्वा ब्रह्मशब्दवाच्यत्वात्सविकल्पकं ब्रह्म ब्रह्मशब्देनाभिधीयते तस्य ब्रह्मणे निर्विकल्पोऽहमवाच्यः प्रतिष्ठाश्रयः। सविकल्पकं ब्रह्म विशिनष्टि। अमृतस्य मरणधर्मरहितस्याव्ययस्य व्ययरहितस्य किंच शाश्वतस्यच नित्यस्य धर्मस्य ज्ञाननिष्ठालक्षणस्य सुखस्य च जनितस्यैकान्तिस्यैकान्तनियतस्य च प्रतिष्ठाहं इति वर्तते। अतो मत्सेवया युक्तैव ब्रह्मभावप्राप्तिरित्यर्थः। हि यस्माद्ब्रह्मणोऽहं प्रतिष्ठा प्रतिमास्थानिभूतं यथा घनीभूतप्रकाश एव सूर्यमण्डलं तद्वदित्यर्थः। तथाव्यस्यामृतस्य नित्यस्य मोक्षस्य नित्यमुक्त्वात्। तथा तत्साधनस्य शाश्वतस्य च धर्मस्य शुद्धसत्त्वात्मकत्वात्। तथैकान्तिकस्य सुखस्य च प्रतिष्ठाहं परमानन्दरुपत्वात् इत्यपरे। तथा तत्साधनस्य शाश्वतस्य च धर्मस्य शुद्धसत्त्वात्मकत्वात्। तथैकान्तिकस्य सुखस्य च प्रतिष्ठाहं परमानन्दरुपत्वात् इत्यपरे। त्वद्भक्तस्त्वद्भावमाप्नोतुनाम कथंतु ब्रह्मभावाय कल्पते ब्रह्मणः सकाशात्तवान्यत्वादिति तत्राह। ब्राह्मणः परमात्मनः प्रतिष्ठा पर्याप्तिरहमेव नतु मद्भिन्नं ब्रह्मेत्यर्थः। तथामृतस्याव्ययस्य प्रतिष्ठाहमेव मय्येव मोक्षः पर्यवसितः। मत्प्राप्तिरेव मोक्ष इत्यर्थः। तथा शाश्वतस्य नित्यस्य मोक्षफलस्य धर्मस्य ज्ञाननिष्ठालक्षणस्य च पर्याप्तिरहमेव। ज्ञाननिष्ठालक्षणो धर्मो मय्येव पर्यवसितस्ततो न तेन मद्भिन्नं किंचित्प्राप्यमित्यर्थः। तथामृतस्याव्ययस्य प्रतिष्ठाहमेव मय्येव मोक्षः पर्यवसितः। मत्प्राप्तिरेव मोक्ष इत्यर्थः। तथा शाश्वतस्य नित्यस्य मोक्षफलस्य धर्मस्य ज्ञाननिष्ठालक्षणस्य च पर्याप्तिरहमेव। ज्ञाननिष्ठालक्षणो धर्मो मय्येव पर्यवसितस्ततो न तेन मद्भिन्नं नित्यस्य मोक्षफलस्य ध्मस्य ज्ञाननिष्ठालक्षणस्य च पर्याप्तिरहमेव। ज्ञाननिष्ठालक्षणो धर्मो मय्येव पर्यवसितस्ततो न तेन मद्भिन्नं किंचित्प्राप्यमित्यर्थः। तथा ऐसान्तिकस्य सुखस्य च पर्याप्तिरहमेव परमानन्दत्वात्। न मद्भिन्नं किंचित्सुखं प्राप्यमस्तीत्यर्थः। इति केचित्। अन्ये तु वासिष्ठोक्तं ज्ञानभूमिसप्तकं प्रखाशमित्यादिश्लोकैर्दर्शयन्ति। तथाहिज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या प्रथमा समुदाहृता। विचारणा द्वितीया तु तृतीया तनुमानसा। सत्त्वपात्तिश्चतुर्थी स्यात्ततो संसक्तिनामिका। पदार्थाभाविनी षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता इति। तत्र यथोक्तसाधनसंपन्मुमुक्षुता प्रथमा? श्रवणगननविचारात्मिका द्वितीया? निदिध्यासनरुपा तृतीया? एताः साधनभूमयः। ब्रह्मसाक्षात्काररुपा चतुर्थी फलभूता। अस्यां योगी कृतार्थोऽपि जीवन्मुक्तिसुखं पुष्कलं नानुभवति। परास्तिन्नो जीवन्मुक्तेरवान्तरभेदाः। तत्रापि पञ्चम्यामसंसक्तिनामिकायां स्थितो योगी ब्रह्मविद्वरः स्वयमेवोत्तिष्ठते। षष्ठ्यां पदार्थाभाविन्यां स्थितो ब्रह्मविद्वरीयान् परप्रयत्नेन व्युत्तिष्ठते। सप्तम्यां तुर्यगायां ब्रह्मविद्वरिष्ठः न स्वतः परतो वा व्युत्तिष्ठति। तत्र नित्यसमाधिर्स्थोत्यभूमिगः प्रकाशमिति श्लोकेनोक्तः। उदासीन इत्यनेनोपान्त्यभूमिगः समदुःखसुखः इति पञ्चम्यां स्थितो मानापमानयोरिति चतुर्थ्यां मां चेति तृतीयायां स्थितो योगी उक्तः। विषयप्रदर्शनद्वाराऽमृतसाधनस्याव्ययस्यानादित्वादनन्तत्वाच्चपौरुषेत्वेनाप्रामाण्यशङ्काकलङ्कशून्यस्य स्वतःप्रमाणभूतस्येत्यर्थः। एतेनोपक्रमोपसंहारदितात्पर्यालोचनया वेदाविरुद्धतर्कोपकरणया कृत्स्त्रस्य वेदस्य तात्पर्यप्रदर्शनकामेन निर्णेतव्यमिति विचारणाख्या द्वितीया भूमिरुक्ता। हेतुफलोपदर्शनमुखेन शुभेच्छाख्यां प्रथमां भूमिमाह -- शाश्वतस्येति। काम्यधर्मवत्फलदानेन नाशाभावात्। भगवत्यर्पितो नित्यो धर्मः शाश्वतः। विवितषादिपारंपर्येण मोक्षाख्यशास्वतफलत्वात्। तस्य च प्रतिष्ठा परमं प्राप्यमहमेव। तथा सुखस्यैकान्तिकस्य मोक्षसुखस्य च प्रतिष्ठा अहमेव। सेयं प्रथमा भूमिरुक्ता। अत्र परां परां भूमिमारोढुमशक्तस्य पूर्वो पूर्वा भूमिरुपदिश्यते इति तदेतद्यत्किंचित्कल्पनं सर्वज्ञानां मार्गप्रदर्शकानामाचार्याणां न शोभतेऽत एतदनुक्त्या तेषां न्यूनता नापादनीया। तदनेन चतुर्दशाध्यायेन सर्वमुत्पद्यमानं क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगाद्यथोत्पद्यते यस्मिन्गुणे च यथा सङ्ग ये वा गुणाः यथा वा बध्नन्ति गणेभ्यश्च मोक्षणं यथा स्यात् मुक्तस्य च यल्लक्षणं तत्सर्वं प्रतिपादयता तत्त्ववित्प्राप्तयं प्रत्यगभिन्नं ब्रह्म प्रदर्शितम्।इति श्रीमत्परमहंस0 श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां चतुर्दशोऽध्यायः।।14।।
।।14.27।।ब्रह्मण इति। ब्रह्मणो मायायाः।
।।14.27।।विषयप्रदर्शनद्वारा विचारणाख्यां द्वितीयां भूमिमाह -- ब्रह्मणो हीति। ब्रह्मणो वेदस्य प्रतिष्ठा तात्पर्येण पर्यवसानस्थानमहमेव। अमृतस्य कर्मब्रह्मोभयदर्शनद्वाराऽमृतसाधनस्य। अव्ययस्य अनादित्वादनन्तत्वाच्चापौरुषेयत्वेनाप्रामाण्यशङ्काकलङ्कशून्यस्य। स्वतःप्रमाणभूतस्येत्यर्थः। एतेनोपक्रमोपसंहारादिपर्यालोचनया वेदाविरुद्धतर्कोपकरणया कृत्स्नस्य वेदस्य तात्पर्यं मद्दर्शनकामेन निर्णेतव्यमिति विचारणाख्या द्वितीया भूमिरुक्ता। हेतुफलोपदर्शनमुखेन शुभेच्छाख्यां प्रथमां भूमिमाह -- शाश्वतस्येति। काम्यधर्मवत्फलदानेन नाशाभावात् भगवत्यर्पितो नित्यो धर्मः शाश्वतः। विविदिषादिपारम्पर्येण मोक्षाख्यशाश्वतफलहेतुत्वात्। शाश्वतस्य च धर्मस्य प्रतिष्ठा परमं प्राप्यं फलमहमेव। तथा ऐकान्तिकं विषयसङ्गजन्यसुखव्यभिचारि स्वरूपभूतं मोक्षसुखं तस्यापि प्रतिष्ठा पराकाष्ठा अहमेव। एवं निष्कामधर्मेण विशुद्धचित्तस्यैकान्तिकसुखेच्छा भवति सेयं शुभेच्छाख्या प्रथमा भूमिः। अत्र परां परां भूमिमारोढुमशक्तस्य पूर्वा पूर्वा भूमिरुपदिश्यते। यथा ध्यानेनात्मनि पश्यन्तीत्यत्र निदिध्यासनाशक्तस्य सांख्यनामा विचारस्तत्राप्यशक्तस्य कर्मयोग उपदिश्यते तद्वत्।
।।14.27।।हि शब्दो हेतौ यस्माद् अहम् अव्यभिचारिभक्तियोगेन सेवितः अमृतस्य अव्ययस्य च ब्रह्मणः प्रतिष्ठा? तथा शाश्वतस्य च धर्मस्य अतिशयितनित्यैश्वर्यस्य ऐकान्तिकस्य सुखस्य चवासुदेवः सर्वम् (गीता 8।।9) इत्यादिना निर्दिष्टस्य ज्ञानिनः प्राप्यस्य सुखस्य इत्यर्थः।।यद्यपि शाश्वतधर्मशब्दः प्रापकवचनः? तथापि पूर्वोत्तरयोः प्राप्यरूपत्वेन तत्साहचर्याद् अयम् अपि प्राप्यलक्षकः।।एतद् उक्तं भवति पूर्वत्रदैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।।मामेव ये प्रपद्यन्ते (गीता 7।।14) इत्यारभ्य गुणात्ययस्य तत्पूर्वकाक्षरैश्वर्यभगवत्प्राप्तीनां च भगवत्प्रपत्त्येकोपायतायाः प्रतिपादितत्वात् तदेकान्तभगवत्प्रपत्त्येकोपायो गुणात्ययः तत्पूर्वकब्रह्मभावः च इति।
।।14.27।।तत्र हेतुमाह -- ब्रह्मणो हीति। हि यस्माद्ब्रह्मणोऽहं प्रतिष्ठा प्रतिमा? घनीभूतं ब्रह्मैवाहम्। यथा घनीभूतः प्रकाश एव सूर्यमण्डर्ल तद्वदेवेत्यर्थः। तथाव्ययस्य नित्यस्यामृतस्य मोक्षस्य च नित्यमुक्तत्वात्। तथा तत्साधनस्य शाश्वतस्य च धर्मस्य? शुद्धसत्त्वात्मकत्वात्। तथा ऐकान्तिकस्याखण्डितस्य सुखस्य च प्रतिष्ठाऽहं? परमानन्दैकरूपत्वात्। अतो मत्सेविनो मद्भावस्यावश्यंभावित्वाद्युक्तमेवोक्तं ब्रह्मभूयाय कल्पत इति।
।।14.27।।एवमपवर्गप्रदानप्रसङ्गे शारीरके यथाफलमत उपपत्तेः [ब्र.सू.3।2।38] इति सामान्यतः सकलफलप्रदत्वं फलस्यानन्याधीनत्वख्यापनायोपपादितं? तथात्रापि मध्यमषट्कप्रपञ्चितफलत्रयप्रदातृत्वं प्रकृतहेतुत्वस्थापनार्थतयाऽनन्तरश्लोकेनोच्यत इत्यभिप्रायेणाहहिशब्दो हेताविति। नात्र ब्रह्मशब्दः साक्षात्परब्रह्मविषयः?अहं ब्रह्मणः प्रतिष्ठा इति वैयधिकरण्यादिविरोधात् न च भोक्तृभोग्यनियन्तृरूपेण त्र्यंशस्य ब्रह्मण ईश्वरांशः पृथुत्वात् प्रतिष्ठेति वाच्यम्? ईश्वरस्यैव ब्रह्मत्वस्थापनात् नच निर्विकल्पकं रूपं विकल्पितस्य ब्रह्मणः प्रतिष्ठेति वा? प्रत्यगात्मा परमात्मनः प्रतिष्ठेति वा वाच्यं? श्रुत्यादिवैपरीत्यात्? तन्मतनिर्मूलनाच्च नापि मूलप्रकृत्यादिविषयः? प्रस्तुतहेतुत्वायोगात् अतोब्रह्मभूयाय कल्पते [14।26] इति जीवस्य फलदशाभावित्वेन निर्दिष्टं रूपमिह ब्रह्मशब्देनोपचर्यते तादृशस्य रूपस्याहं प्रतिष्ठा।किमुक्तं भवति मुमुक्षोः परब्रह्मसमानपरिशुद्धस्वरूपप्राप्तौ शास्त्रोदितेषु सिद्धेषु साद्ध्येषु च पदार्थेषु कः प्रधानहेतुः इति विमर्शे अहमेव विमर्शविश्रान्तिभूमिरिति। यद्वा प्रतिष्ठाशब्द आधारवाची? तच्चाधारत्वं एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः [बृ.उ.2।8।9] इति श्रुत्यनुसारेण नियमनगर्भमितिसा च प्रशासनात् [ब्र.सू.1।3।11] इति सूत्रेणोक्तम्। अतः शुद्धात्मस्वरूपस्यापि मदेकनिर्वाह्यत्वात् प्रस्तुतं ब्रह्मभूयं मद्भजनैकलभ्यमित्यर्थः। शाश्वतधर्मशब्देन तत्फललक्षणामाहअतिशयितनित्यैश्वर्यस्येति। इन्द्रप्रजापतिप्रभृतिभोगापेक्षयाऽतिशयितत्वम्। नित्यत्वं ह्यतिचिरकालवर्तित्वमात्रमापेक्षिकमिह मन्तव्यम्।वासुदेव इत्यादि।अयमभिप्रायः -- एकान्तिलभ्यं सुखमिहैकान्तिसम्बन्धादैकान्तिकमुच्यते -- इति। निर्दिष्टस्येति। ज्ञानिविशेषणम्। एवमपवर्गेऽप्यैकान्तिकसुखवचनात्पाषाणकल्पादिपक्षाः परिक्षीणाः। न चइच्छा द्वेषः सुखं दुःखम् [13।7] इति गणनात्सुखं सर्वं क्षेत्रकार्यमिति भ्रमितव्यं?रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दीभवति [तै.उ.2।7।1] इत्यन्यादृशसुखाभिधानात्। अतएव अशरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः [छा.उ.8।12।1] इति श्रुतिरपि दुःखसहचारिसुखनिषेधपरेति मन्तव्यम्।ननु शाश्वतधर्मशब्देनातिशयितैश्वर्यलक्षणा न युक्ता? मुख्यार्थबाधाद्यभावात्नारायणः शाश्वतधर्मगोप्ता [म.भा.12।335।5] इत्यादिषु च प्रसिद्धः कार्तयुगधर्मोऽत्र शाश्वतविशेषणेन प्रतीयते तस्य प्रलयादिषु पाषण्डाद्युपप्लवेषुयदा यदा [4।7] इति क्रमेण परिपालनात्तदेकप्रतिष्ठत्वं च सर्वत्र प्रसिद्धम् तत्राह -- यद्यपीति।ब्रह्मणो हि इत्यस्य प्राप्यरूपत्वमुपपादितम्।सुखस्यैकान्तिकस्य इत्यस्य तु साक्षाद्भगवदनुभवसुखपरत्वं स्पष्टम्। अल्पत्वादिदूषितात्मानुभवैश्वर्यसुखव्यवच्छेदाय ह्यैकान्तिकशब्दः। तदुभयमध्यपाठादग्र्यप्रायन्यायेन प्रागुक्तमैश्वर्यमिह विवक्षितमिति तत्साधनवाचिना तल्लक्षणा युक्ता। अतएवानेन कार्तयुगधर्मोऽपि न विवक्षितः। ऐकान्तिकसुखसाधनत्वेन तु पृथक्सोऽनुसन्धातव्य इति। नन्विहाप्रस्तुतैश्वर्यादिप्रसङ्गः किमर्थः नचान्यदुपक्रम्यान्यन्निगमयितुं युक्तम्? कथं च तत्प्रतिष्ठारूपत्वस्य प्रकृतहेतुत्वं सिद्धस्य च हेतुभावः क्व तत्सिद्धिः कथं च गुणात्ययमन्तरेणाव्यभिचरितभगवद्भक्तियोगः तेनैव तदत्ययेऽन्योन्याश्रयणमित्यादिशङ्कायामाह -- एतदुक्तमिति। प्रागुक्तसर्वपुरुषार्थस्वाधीनताप्रत्यभिज्ञापनस्य प्रस्तुतस्य गुणात्ययपूर्वकब्रह्मभूयस्वाधीनतास्थापनं प्रयोजनम्। अव्यभिचरितभक्तियोगशब्दोऽत्र भक्त्यङ्गभूतं प्रपदनं क्रोडीकरोतीति पूर्वोत्तरैकार्थ्यमिति भावः।इति श्रीकवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु श्रीमद्भगवद्रामानुजप्रणीतश्रीमद्गीताभाष्यटीकायां तात्पर्यचन्द्रिकायां चतुर्दशोऽध्यायः।।14।। ,
।।14.27।।ब्रह्मण इति। अहमेव हि ब्रह्मणः प्रतिष्ठा। मयि सेव्यमाने ब्रह्म भवति अन्यथा जडरूपतया ब्रह्म,उपास्यमानं मोक्षमपि सौषुप्तादविशिष्टमेव प्रापयेत् इति।
।।14.27।।ब्रह्मणो हि इत्येतत्परब्रह्मणो हि इति व्याचक्षते (शां.) तदसत्? प्रतिष्ठाऽहमिति वचनात्। उपचारोऽसाविति चेत्? न मुख्ये सम्भवति तदुपादानायोगादिति भावेनाह -- ब्रह्मण इति। मायेति प्रकृता महालक्ष्मीः।
।।14.27।।अत्र हेतुमाह -- ब्रह्मणस्तत्पदवाच्यस्य सोपाधिकस्य जगदुत्पत्तिस्थितिलयहेतोः प्रतिष्ठा पारमार्थिकं निर्विकल्पकं सच्चिदानन्दात्मकं निरुपाधिकं तत्पदलक्ष्यमहं निर्विकल्पको वासुदेवः प्रतितिष्ठत्यत्रेति प्रतिष्ठा कल्पितरूपरहितमकल्पितं रूपमतो यो मामनुपाधिकं ब्रह्म सेवते स ब्रह्मभूयाय कल्पत इति युक्तमेव। कीदृशस्य ब्रह्मणः प्रतिष्ठाहमित्याकाङ्क्षायां विशेषणानि। अमृतस्य विनाशरहितस्य अव्ययस्य विपरिणामरहितस्य च शाश्वतस्यापक्षयरहितस्य च धर्मस्य ज्ञाननिष्ठालक्षणधर्मप्राप्यस्य सुखस्य परमानन्दरूपस्य। सुखस्य विषयेन्द्रियसंयोगजत्वं वारयति -- ऐकान्तिकस्याव्यभिचारिणः सर्वस्मिन्देशे काले च विद्यमानस्य। ऐकान्तिकसुखरूपस्येत्यर्थः। एतादृशस्य ब्रह्मणो यस्मादहं वास्तवं स्वरूपं तस्मान्मद्भक्तः संसारान्मुच्यत इति भावः। तथाचोक्तं ब्रह्मणा भगवन्तं श्रीकृष्णंप्रतिएकस्त्वमात्मा पुरुषः पुराणः सत्यः स्वयंज्योतिरनन्त आद्यः। नित्योऽक्षरोजस्रसुखो निरञ्जनः पूर्णोऽद्वयो मुक्त उपाधितोऽमृतः इति. सर्वोपाधिशून्य आत्मा ब्रह्म त्वमित्यर्थः। शुकेनापि स्तुतिमन्तरेणैवोक्तंसर्वेषामेव वस्तूनां भावार्थो भवति स्थितः। तस्यापि भगवान्कृष्णाः किमतद्वस्तु रूप्यताम् इति। सर्वेषामेव कार्यवस्तूनां भावार्थः सत्तारूपः परमार्थो भवति कार्याकारेण जायमाने सोपाधिके ब्रह्मणि स्थितः कारणसत्तातिरिक्तायाः कार्यसत्ताया अनभ्युपगमात्। तस्यापि भवतः कारणस्य सोपाधिकस्य ब्रह्मणो भावार्थः सत्तारूपोऽर्थो भगवान्कृष्णः सोपाधिकस्य निरुपाधिके कल्पितत्वात्? कल्पितस्य चाधिष्ठानानतिरेकाद्भगवतः कृष्णस्य च सर्वकल्पनाधिष्ठानत्वेन परमार्थसत्यनिरुपाधिब्रह्मरूपत्वात्। अतः किमतद्वस्तु तस्माच्छ्रीकृष्णादन्यद्वस्तु पारमार्थिकं किं निरूप्यताम्। तदेवैकं पारमार्थिकं नान्यत्किमपीत्यर्थः। तदेतदिहाप्युक्तं ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहमिति। अथवा त्वद्भक्तस्त्वद्भावमाप्नोतु नाम कथं नु ब्रह्मभावाय कल्पते। ब्रह्मणः सकाशात्तवान्यत्वादित्याशङ्क्याह -- ब्रह्मणः परमात्मनः प्रतिष्ठा पर्याप्तिरहमेव नतु मद्भिन्नं ब्रह्मेत्यर्थः। तथामृतस्यामृतत्वस्य मोक्षस्य चाव्ययस्य सर्वथानुच्छेद्यस्य च प्रतिष्ठाहमेव। मय्येव मोक्षः पर्यवसितो मत्प्राप्तिरेव मोक्ष इत्यर्थः। तथा शाश्वतस्य नित्यमोक्षफलस्य धर्मस्य ज्ञाननिष्ठालक्षणस्य च पर्याप्तिरहमेव। ज्ञाननिष्ठालक्षणस्य पर्याप्तिरेव मोक्ष इत्यर्थः। ज्ञाननिष्ठालक्षणो धर्मो मय्येव पर्यवसितो न तेन मद्भिन्नं किंचित्प्राप्यमित्यर्थः। तथैकान्तिकस्य सुखस्य च पर्याप्तिरहमेव परमानन्दरूपत्वान्न मद्भिन्नं किंचित्सुखं प्राप्यमस्तीत्यर्थः। तस्माद्युक्तमेवोक्तं मद्भक्तो ब्रह्मभूयाय कल्पत इति।पराकृतनमद्बन्धं परं ब्रह्म नराकृति। सौन्दर्यसारसर्वस्वं वन्दे नन्दात्मजं महः।।
।।14.27।।ब्रह्मशब्दस्याऽक्षरवाचकत्वे तद्भावे धर्मात्मकभाव एव भविष्यति? न मुख्यभाव इत्यत आह -- ब्रह्मण इति। हीति निश्चयेन यस्माद्धेतोः ब्रह्मणः अक्षरात्मकस्यापि प्रतिष्ठा स्थितिरूपोऽहमेव? अमृतस्य मोक्षस्य? अव्ययस्य नित्यात्मकवैकुण्ठस्यापि? शाश्वतस्य नित्यरूपस्य? शास्त्रीयभक्त्यादिरूपस्य धर्मस्य च। च पुनः। तथा एकान्तिकस्य रक्षात्मकस्य भावादिरूपस्य सुखस्याऽहं प्रतिष्ठा? मूलमित्यर्थः। अतएवमेतैरुत्पन्नो भावो मदात्मक एवेति भावः।एवं चतुर्दशेऽध्याये गुणानां स्वस्वरूपताम्।द्विरूपतां च क्रीडार्थं प्रोक्तवानर्जुनं हरिः।।
।।14.27।। --,ब्रह्मणः परमात्मनः हि यस्मात् प्रतिष्ठा अहं प्रतितिष्ठति अस्मिन् इति प्रतिष्ठा अहं प्रत्यगात्मा। कीदृशस्य ब्रह्मणः अमृतस्य,अविनाशिनः अव्ययस्य अविकारिणः शाश्वतस्य च नित्यस्य धर्मस्य धर्मज्ञानस्य ज्ञानयोगधर्मप्राप्यस्य सुखस्य आनन्दरूपस्य ऐकान्तिकस्य अव्यभिचारिणः अमृतादिस्वभावस्य परमानन्दरूपस्य परमात्मनः प्रत्यगात्मा प्रतिष्ठा? सम्यग्ज्ञानेन परमात्मतया निश्चीयते। तदेतत् ब्रह्मभूयाय कल्पते (गीता 14।26) इति उक्तम्। यया च ईश्वरशक्त्या भक्तानुग्रहादिप्रयोजनाय ब्रह्म प्रतिष्ठते प्रवर्तते? सा शक्तिः ब्रह्मैव अहम्? शक्तिशक्तिमतोः अनन्यत्वात् इत्यभिप्रायः। अथवा? ब्रह्मशब्दवाच्यत्वात् सविकल्पकं ब्रह्म। तस्य ब्रह्मणो निर्विकल्पकः अहमेव नान्यः प्रतिष्ठा आश्रयः। किंविशिष्टस्य अमृतस्य अमरणधर्मकस्य अव्ययस्य व्ययरहितस्य। किं च? शाश्वतस्य च नित्यस्य धर्मस्य ज्ञाननिष्ठालक्षणस्य सुखस्य तज्जनितस्य ऐकान्तिकस्य एकान्तनियतस्य च? प्रतिष्ठा अहम् इति वर्तते।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येचतुर्दशोऽध्यायः।।
।।14.27।।ब्रह्मभूयाय [14।26] इत्यादौ तत्र तत्र च निर्दिष्टानां ब्रह्मामृतधर्मसुखानां सर्वेषामभिन्न आश्रयोऽहमेवेत्याशयेन स्वस्य परत्वमाह -- ब्रह्मणो हीति। अक्षरस्य द्युभ्वाद्यायतनस्य ब्रह्मणोऽहं प्रतिष्ठा मूलस्थानं? तद्येन प्रतिष्ठितं वा सोऽहं ऐश्वर्यधामत्वात्तस्येत्यर्थः। अमृतस्य मोक्षस्य ब्रह्मानन्दस्याव्ययस्य च प्रतिष्ठाऽहं? तथा शाश्वतस्य सनातनस्य भगवद्धर्मस्य मोक्षार्थस्य तथैकान्तिकस्य भजनानन्दस्यागणितस्वरूपस्य क्षराक्षरातीतमत्स्वरूपात्मकस्याहमभिन्न आश्रयः? प्रतिष्ठा? तत्तत्पदैरहमेव तत्तदधिकारिणां तत्तद्भावनाविषयो वाच्यप्राप्य इत्यर्थः। एवं साङ्ख्यविवृतं स्वतात्पर्यवृत्त्येति ज्ञेयम्।