BG - 15.3

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।15.3।।

na rūpam asyeha tathopalabhyate nānto na chādir na cha sampratiṣhṭhā aśhvattham enaṁ su-virūḍha-mūlam asaṅga-śhastreṇa dṛiḍhena chhittvā

  • na - not
  • rūpam - form
  • asya - of this
  • iha - in this world
  • tathā - as such
  • upalabhyate - is perceived
  • na - neither
  • antaḥ - end
  • na - nor
  • cha - also
  • ādiḥ - beginning
  • na - never
  • cha - also
  • sampratiṣhṭhā - the basis
  • aśhvattham - sacred fig tree
  • enam - this
  • su-virūḍha-mūlam - deep-rooted
  • asaṅga-śhastreṇa - by the axe of detachment
  • dṛiḍhena - strong
  • chhittvā - having cut down
  • -

Translation

Its form is not perceived here as such, nor its end, origin, foundation, or resting place; having cut asunder this firmly rooted peepul tree with the strong axe of non-attachment.

Commentary

By - Swami Sivananda

15.3 न not? रूपम् form? अस्य its? इह here? तथा as such? उपलभ्यते is perceived? न not? अन्तः (its) end? न not? च and? आदिः (its) origin? न not? च and? संप्रतिष्ठा foundation or resting place? अश्वत्थम् Asvattha? एनम् this? सुविरूढमूलम् firmrooted? असङ्गशस्त्रेण with the axe of nonattachment? दृढेन strong? छित्त्वा having cut asunder.Commentary The idea is continued in the next verse.So long as one is under the sway of ignorance? he cannot understand the form of this tree? its end? origin and foundation (middle). O Arjuna Thou mayest perhaps consider that such a huge tree cannot be uprooted by any means whatever. It is not so. However firmly rooted it may be? it can be cut by the powerful axe of nnattachment or dispassion within the twinkling of an eye.After cutting this tree you will have to look within? meditate on the Self and behold the Supreme.Tatha As such As described above. Is it necessary to pull down castles in the air or to break the horns of a hare or to pluck a flower growing in the sky or to get butter from the milk of a tortoise or oil from stone Similarly? O Arjuna? there is no reality in this tree. Therefore why should you entertain any fear as to whether it may be uprooted or not Its form as such is not perceived by anybody here it is like a dream or a mirage or an imaginary city in the sky formed by the clouds or caused by a juggler. It appears and disappears. This tree has DrishtaNashtaSvarupa like the mirage. That object which is destroyed when one beholds it is DrishtaNashta. Nobody has perceived the end? the origin or the foundation of this illusory tree. No one can say that it has arisen from such and such a place or point.Samsara or the peepul tree is inveterately deeprooted. You will have to struggle hard to uproot it with its seed or the selfreproducing deep root.Asanga Dispassion? freedom from attachment to children? wealth and the world.Dridhena Strong. You will have to cut the tree with a strong axe which is sharpened again and again on the whetstone of the practice of discrimination. Further your mind should be turned towards the Supreme Being with the strong determination that you can attain eternal bliss only in Him and that He is the ony Reality.The desire for sensual pleasure is Sanga. Its opposite (dispassion) is Asanga. Renunciation of the three kinds of Eshanas (desires)? viz.? children? wealth and the world (PutraVittaLokeshana) is Asanga. Just as the axe cuts the tree? so also dispassion cuts this tree of Samsara. Hence dispassion is termed an axe. Cutting the tree of Samsara is annihilation of egoism? ignorance? latent tendencies? and renunciation of the fruits of all actions? through the practice of dispassion? control of the mind and the senses? etc. (Cf.VII.14)

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।15.3।। व्याख्या --   न रूपमस्येह तथोपलभ्यते -- इसी अध्यायके पहले श्लोकमें संसारवृक्षके विषयमें कहा गया है कि लोग इसको अव्यय (अविनाशी) कहते हैं और शास्त्रोंमें भी वर्णन आता है कि सकामअनुष्ठान करनेसे लोकपरलोकमें विशाल भोग प्राप्त होते हैं। ऐसी बातें सुनकर मनुष्यलोक तथा स्वर्गलोकमें सुख? रमणीयता और स्थायीपन मालूम देता है। इसी कारण अज्ञानी मनुष्य काम और भोगके परायण होते हैं और इससे बढ़कर कोई सुख नहीं है -- ऐसा उनका निश्चय हो जाता है (गीता 2। 42 16। 11)। जबतक संसारसे तादात्म्य? ममता और कामनाका सम्बन्ध है? तबतक ऐसा ही प्रतीत होता है। परन्तु भगवान् कहते हैं कि विवेकवती बुद्धिसे संसारसे अलग होकर अर्थात् संसारसे सम्बन्धविच्छेद करके देखनेसे उसका जैसा रूप हमने अभी मान रखा है? वैसा उपलब्ध नहीं होता अर्थात् यह नाशवान् और दुःखरूप प्रतीत होता है।नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा -- किसी वस्तुके आदि? मध्य और अन्तका ज्ञान दो तरहका होता है -- देशकृत और कालकृत। इस संसारका कहाँसे आरम्भ है? कहाँ मध्य है और कहाँ इसका अन्त होता है -- इस प्रकारसे संसारके देशकृत आदि? मध्य? अन्तका पता नहीं और कबसे इसका आरम्भ हुआ है? कबतक यह रहेगा और कब इसका अन्त होगा -- इस प्रकारसे संसारके कालकृत आदि? मध्य? अन्तका भी पता नहीं।मनुष्य किसी विशाल प्रदर्शनीमें तरहतरहकी वस्तुओंको देखकर मुग्ध हुआ घूमता रहे? तो वह उस प्रदर्शनीका आदिअन्त नहीं जान सकता। उस प्रदर्शनीसे बाहर निकलनेपर ही वह उसके आदिअन्तको जान सकता है। इसी तरह संसारसे सम्बन्ध मानकर भोगोंकी तरफ वृत्ति रखते हुए इस संसारका आदिअन्त कभी जाननेमें नहीं आ सकता।मनुष्यके पास संसारके आदिअन्तका पता लगानेके लिये जो साधन (इन्द्रियाँ? मन और बुद्धि) हैं? वे सब संसारके ही अंश हैं। यह नियम है कि कार्य अपने कारणमें विलीन तो हो सकता है? पर उसको जान नहीं सकता। जैसे मिट्टीका घड़ा पृथ्वीको अपने भीतर नहीं ला सकता? ऐसे ही व्यष्टि इन्द्रियाँमनबुद्धि समष्टि,संसार और उसके कार्यको अपनी जानकारीमें नहीं ला सकते। अतः संसारसे (मन? बुद्धि? इन्द्रियोंसे भी) अलग होनेपर संसारका स्वरूप (स्वयंके द्वारा) ठीकठीक जाना जा सकता है।वास्तवमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ता (स्थिति) है ही नहीं। केवल उत्पत्ति और विनाशका क्रममात्र है। संसारका यह उत्पत्तिविनाशका प्रवाह ही स्थितिरूपसे प्रतीत होता है। वास्तवमें देखा जाय तो उत्पत्ति भी नही है? केवल नाशहीनाश है। जिसका स्वरूप एक क्षण भी स्थायी न रहता हो? ऐसे संसारकी प्रतिष्ठा (स्थिति) कैसी संसारसे अपना माना हुआ सम्बन्ध छोड़ते ही उसका अपने लिये अन्त हो जाता है और अपने वास्तविक स्वरूप अथवा परमात्मामें स्थिति हो जाती है।विशेष बातइस संसारके आदि? मध्य और अन्तका पता आजतक कोई वैज्ञानिक नहीं लगा सका और न ही लगा सकता है। संसारसे सम्बन्ध रखते हुए अथवा सांसारिक भोगोंको भोगते हुए संसारके आदि? मध्य और अन्तको ढूँढ़ना चाहें? तो कोल्हूके बैलकी तरह उम्रभर रहनेपर भी कुछ हाथ आनेका नहीं।वास्तवमें इस संसारके आदि? मध्य और अन्तका पता लगानेकी जरूरत भी नहीं है। जरूरत संसारसे अपने माने हुए सम्बन्धका विच्छेद करनेकी ही है।संसार अनादिसान्त है या अनादिअनन्त है अथवा प्रतीतिमात्र है? इत्यादि विषयोंपर दार्शनिकोंमें अनेक मतभेद हैं परन्तु संसारके साथ हमारा सम्बन्ध असत् है? जिसका विच्छेद करना आवश्यक है -- इस विषयपर सभी दार्शनिक एकमत हैं।संसारसे सम्बन्धविच्छेद करनेका सुगम उपाय है -- संसारसे प्राप्त (मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ? शरीर? धन? सम्पत्ति आदि) सम्पूर्ण सामग्रीको अपनी और अपने लिये न मानते हुए उसको संसारकी ही सेवामें लगा देना।सांसारिक स्त्री? पुत्र? मान? बड़ाई? धन? सम्पत्ति? आयु? नीरोगता आदि कितने ही प्राप्त हो जायँ यहाँतक कि संसारके समस्त भोग एक ही मनुष्यको मिल जायँ? तो भी उनसे मनुष्यको तृप्ति नहीं हो सकती क्योंकि जीव स्वयं अविनाशी है और सांसारिक भोग नाशवान् हैं। नाशवान्से अविनाशी कैसे तृप्त हो सकता हैअश्वत्थमेनं सुविरूढमूलम् -- संसारको सुविरूढमूलम् कहनेका तात्पर्य यह है कि तादात्म्य? ममता और कामनाके कारण यह संसार (प्रतिष्ठारहित होनेपर भी) दृढ़ मूलोंवाला प्रतीत हो रहा है।व्यक्ति? पदार्थ? क्रिया आदिमें राग? ममता होनेसे सांसारिक बन्धन अधिकसेअधिक दृढ़ होता चला जाता है। जिन पदार्थों? व्यक्तियोंमें राग? ममताका घनिष्ठ सम्बन्ध हो जाता है? उनको मनुष्य अपना स्वरूप ही मानने लग जाता है। जैसे? धनमें ममता होनेसे उसकी प्राप्तिमें मनुष्यको बड़ी प्रसन्नता होती है और मैं बड़ा धनवान् हूँ -- ऐसा अभिमान हो जाता है। धनके नाशसे वह अपना नाश मानने लग जाता है। लोभ बढ़नेसे धनकी प्राप्तिके लिये वह अन्याय? पाप आदि न करनेलायक काम भी कर बैठता है। फिर इतना लोभ बढ़ जाता है कि उसके भीतर यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि झूठ? कपट? बेईमानी आदिके बिना धन कमाया ही नहीं जा सकता। उसे यह विचार ही नहीं होता कि पापसे धन कमाकर मैं यहाँ कितने दिन ठहरूँगा पापसे कमाया धन तो शरीरके साथ यहीँ छूट जायगा किंतु धनके लिये किये झूठ? कपट? बेईमानी? चोरी आदि पाप तो मेरे साथ जायँगे (टिप्पणी प0 748)? जिससे परलोकमें मेरी कितनी दुर्गति होगी आदि। इतना ही नहीं? वह दूसरोंको भी प्रेरणा करने लग जाता है कि धन कमानेके लिये पाप करनेमें कोई खराबी नहीं यह तो व्यापार है? इसमें झूठ बोलना? ठगना आदि सब उचित है इत्यादि। इस दुर्भावका होना ही तादात्म्य? ममता और कामनारूप मूलोंका दृढ़ होना है। इस प्रकारके दूषित भावोंके दृढ़मूल होनेसे मनुष्य वैसा ही बन जाता है (गीता 17। 3)।ये तादात्म्य? ममता और कामनारूप मूल अन्तःकरणमें इतनी दृढ़तासे जमे हुए हैं कि पढ़ने? सुनने तथा विचारविवेचन करनेपर भी सर्वथा नष्ट नहीं होते। साधक प्रायः कहा करते हैं कि सत्सङ्गचर्चा सुनते समय तो इन दोषोंके त्यागकी बात अच्छी और सुगम लगती है परन्तु व्यवहारमें आनेपर ऐसा होता नहीं। इनको छोड़ना तो चाहते हैं? पर ये छूटते नहीं। इन दोषोंके न छूटनेमें खास कारण है -- सांसारिक सुख लेनेकी इच्छा। साधकसे भूल यह होती है कि वह सांसारिक सुख भी लेना चाहता है और साथ ही दोषोंसे भी बचना चाहता है। जैसे लोभी व्यक्ति विषयुक्त लड्डुओंकी मिठासको भी लेना चाहे और साथ ही विषसे भी बचना चाहे ऐसा कभी सम्भव नहीं है। संसारसे कभी किञ्चिन्मात्र भी सुखकी आशा न रखनेपर इसका दृढ़मूल स्वतः नष्ट हो जाता है।दूसरी बात यह है कि तादात्म्य? ममता और कामनाका मिटना बहुत कठिन है -- साधककी यह मान्यता ही इन दोषोंको मिटने नहीं देती। वास्तवमें तो ये स्वतः मिट रहे हैं। किसी भी मनुष्यमें ये दोष सदा नहीं रहते उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं किंतु अपनी मान्यताके कारण ये स्थायी दीखते हैं। अतः साधकको चाहिये कि वह इन दोषोंके मिटनेको कभी कठिन न माने।असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा -- भगवान् कहते हैं कि यद्यपि इस संसारवृक्षके अवान्तर मूल बहुत दृढ़ हैं? फिर भी इनको दृढ़ असङ्गतारूप शस्त्रके द्वारा काटा जा सकता है। किसी भी स्थान? व्यक्ति? वस्तु? परिस्थिति आदिके प्रति मनमें आकर्षण? सुखबुद्धिका होना और उनके सम्बन्धसे अपनेआपको बड़ा तथा सुखी मानना पदार्थोंके प्राप्त होने अथवा संग्रह होनेपर प्रसन्न होना -- यही सङ्ग कहलाता है। इसका न होना ही असङ्गता अर्थात् वैराग्य है। वैराग्यके दो प्रकार हैं -- (1) साधारण वैराग्य और (2) दृढ़ वैराग्य। दृढ़ वैराग्यको उपरति अथवा पर वैराग्य भी कहते हैं।वैराग्यसम्बन्धी विशेष बात वैराग्यके अनेक रूप हैं? जो इस प्रकार हैं -- पहला वैराग्य धन? मकान? जमीन आदि पदार्थोंसे होता है। इन पदार्थोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेपर भी अगर मनमें उनका महत्त्व बना हुआ है और मैं त्यागी हूँ -- ऐसा अभिमान है? तो वास्तवमें यह वैराग्य नहीं है। अन्तःकरणमें जडपदार्थोंका किञ्चिन्मात्र भी महत्त्व और आकर्षण न रहे -- यही वैराग्य है। दूसरा वैराग्य अपने कहलानेवाले माता? पिता? स्त्री? पुत्र? भाई? भौजाई आदि(परिवार)से होता है। उनकी सेवा करने या उनको सुख पहुँचानेके लिये ही उनसे अपना सम्बन्ध मानना चाहिये। अपने सुखके लिये उनसे किञ्चिन्मात्र भी अपना सम्बन्ध न मानना ही बन्धुबान्धवोंसे वैराग्य है।तीसरा और वास्तविक वैराग्य अपने शरीरसे होता है। अगर शरीरसे सम्बन्ध बना हुआ है तो सम्पूर्ण संसारसे सम्बन्ध बना हुआ है क्योंकि शरीर संसारका ही बीज अथवा अंश है। शरीरसे तादात्म्य न रहना ही शरीरसे वैराग्य है।तादात्म्य (शरीरके साथ मानी हुई एकता अर्थात् अहंता) का नाश करनेके लिये साधकको पहले मान? प्रतिष्ठा? पूजा? धन आदिकी कामनाका त्याग करना चाहिये। इनकी कामनाका त्याग करनेपर भी (शऱीरके) नाम में ममता रहनेके कारण यश? कीर्ति? बड़ाई आदिकी कामना रह जाती है। इसके कारण मरनेके बाद,भी अपने नामकी कीर्ति? अपना स्मारक बननेकी चाह आदि सूक्ष्म कामनाएँ रह जाती हैं। इन सब कामनाओंका नाश करना आवश्यक है। कहींकहीं साधकके भीतर दूसरोंकी प्रशंसा सुनकर? दूसरेकी बड़ाई देखकर ईर्ष्याका भाव जाग्रत् हो जाता है। अतः इसका भी नाश करना आवश्यक है।उपर्युक्त कामनाओंका नाश करनेके बाद शरीरमें ममता रह जाती है। यह ममताका सम्बन्ध मृत्युके बाद भी बना रहता है। इसी कारण मृत शरीरको जला देनेके बाद भी हड्डियोंको गङ्गाजीमें डालनेसे जीव(जिसने शरीरमें ममता की है)की आगे गति होती है। विवेक (जडचेतन? प्रकृतिपुरुष अथवा शरीरशरीरीकी भिन्नताका ज्ञान) जाग्रत् होनेपर ममताका नाश हो जाता है। कामना और ममता -- दोनोंका नाश होनेके बाद तादात्म्य (अहंता) नष्टप्राय हो जाता है अर्थात् बहुत सूक्ष्म रह जाता है। तादात्म्यका अत्यन्ताभाव भगवत्प्रेमकी प्राप्ति होनेपर होता है।जब मनुष्य स्वयं यह अनुभव कर लेता है कि मैं शरीर नहीं हूँ शरीर मेरा नहीं है? तब कामना? ममता और तादात्म्य -- तीनों मिट जाते हैं। यही वास्तविक वैराग्य है।,जिसके भीतर दृढ़ वैराग्य है उसके अन्तःकरणमें सम्पूर्ण वासनाओँका नाश हो जाता है। अपने स्वरूपसे विजातीय (जड) पदार्थ -- शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि? आदिसे किञ्चिन्मात्र भी अपना सम्बन्ध न मानकर -- सबका कल्याण हो? सब सुखी हों? सब नीरोग हों? कभी किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख न हो (टिप्पणी प0 750.1) -- इस भावका रहना ही दृढ़ वैराग्यका लक्षण है।यह(इदम्) रूपसे जाननेमें आनेवाले स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरसहित सम्पूर्ण संसारको जाननेवाला,मैं? (अहम्) कहलाता है। यह? (जाननेमें आनेवाला दृश्य) और मैं (जाननेवाला द्रष्टा) कभी एक नहीं हो सकते -- यह नियम है। इस प्रकार संसार और शरीर नष्ट होनेवाले हैं और मैं (स्वयं) अविनाशी है -- इस विवेकका आदर करते हुए अपनेआपको संसार और शरीरसे सर्वथा अलग अनुभव करना ही असङ्गशस्त्रके द्वारा संसारवृक्षका छेदन करना है। इस विवेकको महत्त्व न देनेके कारण ही संसार दृढ़ मूलोंवाला प्रतीत होता है।सांसारिक वस्तुओंका अत्यन्ताभाव अर्थात् सर्वथा नाश तो नहीं हो सकता? पर उनमें रागका सर्वथा अभाव हो सकता है। अतः छेदन का तात्पर्य सांसारिक वस्तुओंका नाश करना नहीं? प्रत्युत उनसे अपना राग हटा लेना है। संसारसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर संसारका अपने लिये सर्वथा अभाव हो जाता है? जिसे,आत्यन्तिक प्रलय भी कहते हैं। जो हमारा स्वरूप नहीं है तथा जिसके साथ हमारा वास्तविक सम्बन्ध नहीं है? उसीका त्याग (छेदन) होता है। हम स्वरूपतः चेतन और अविनाशी हैं एवं संसार जड और विनाशी है अतः संसारसे हमारा सम्बन्ध अवास्तविक और भूलसे माना हुआ है। स्वरूपसे हम संसारसे असङ्ग ही हैं। पहलेसे ही जो असङ्ग है? वही असङ्ग होता है -- यह नियम है। अतः संसारसे हमारी असङ्गता स्वतःसिद्ध है -- इस वास्तविकताको दृढ़तासे मान लेना चाहिये। संसार कितना ही सुविरूढमूल क्यों न हो? उसके साथ अपना सम्बन्ध न माननेसे वह स्वतः कट जाता है क्योंकि संसारके साथ अपना सम्बन्ध है नहीं? केवल माना हुआ है। अतः संसारके साथ अपना सम्बन्ध न माननेसे उसका छेदन हो जाता है -- इसमें साधकको सन्देह नहीं करना चाहिये चाहे (आरम्भमें) व्यवहारमें ऐसा दिखायी दे या न दे।जीवने अपनी भूलसे शरीरसंसारसे सम्बन्ध माना था। इसलिये इसका छेदन करनेकी जिम्मेवारी भी जीवपर ही है। अतः भगवान् इसे ही छेदन करनेके लिये कह रहे हैं। संसारसे सम्बन्धविच्छेदके कुछ सुगम उपाय(1) कुछ भी लेनेकी इच्छा न रखकर संसारसे प्राप्त सामग्रीको संसारकी सेवामें ही लगा देना।(2) सांसारिक सुख(भोग और संग्रह) की कामनाका सर्वथा त्याग करना।(3) संसारके आश्रयका सर्वथा त्याग करना।(4) शरीरसंसारसे मैं और मेरापनको बिलकुल हटा लेना।(5) मैं भगवान्का हूँ भगवान् मेरे हैं -- इस वास्तविकतापर दृढ़तासे डटे रहेना।(6) मुझे एक परमात्माकी तरफ ही चलना है -- ऐसे दृढ़ निश्चय(व्यवसायात्मिका बुद्धि) का होना।(7) शास्त्रविहित अपनेअपने कर्तव्यकर्मों(स्वधर्म) का तत्परतापूर्वक पालन करना (टिप्पणी प0 750.2) (गीता 18। 45)।(8) बचपनमें शरीर? पदार्थ? परिस्थिति? विद्या? सामर्थ्य आदि जैसे थे? वैसे अब नहीं हैं अर्थात् वे सबकेसब बदल गये? पर मैं स्वयं वही हूँ? बदला नहीं -- अपने इस अनुभवको महत्त्व देना।(9) संसारसे माने हुए सम्बन्धका सद्भाव (सत्ताभाव) मिटाना। सम्बन्ध --   संसारवृक्षका छेदन करनेके बाद साधकको क्या करना चाहिये -- इसका विवेचन आगेके श्लोकमें करते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।15.3।। See Commentary under 15.4

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।15.3।।पुनःपुना रागादीना प्रवृत्तत्वेनानादित्वान्न संसारवृक्षः स्वयमुच्छिद्यते न चोच्छेत्तुं शक्यते केनापीत्याशङ्क्याह -- यस्त्विति। यथा पूर्वं वर्णितं यथा च लोके प्रसिद्धं तथास्य रूपमिह शास्त्रादनुमीयते तथाचास्य ज्ञानापनोद्यत्वं युक्तमित्याह -- यथेति। तस्याप्रमितत्वे हेतुमाह -- स्वप्नेति। तस्य स्वप्नादिसमत्वे दृष्टनष्टस्वरूपत्वं हेतुं करोति -- दृष्टेति। इत्यमेयतेति शेषः। तमेवामेयत्वं हेतुं कृत्वावसानमपि तस्य न भातीत्याह -- अत एवेति। ज्ञानं विना भ्रान्तिवासनाकर्मणामन्योन्यनिमित्तत्वान्नावसानमस्तीत्यर्थः। इदंप्रथमत्वमपि नास्य परिच्छेत्तुं शक्यमित्याह -- तथेति। आद्यन्तवन्मध्यमपि नास्य प्रामाणिकमित्याह -- मध्यमिति। संसारवृक्षस्याश्वत्थशब्दितस्य क्षणभङ्गुरस्य स्वयमेवोच्छेदसंभवात्तदुच्छेदार्थं न प्रयतितव्यमित्याशङ्क्याह -- अश्वत्थमिति। व्युत्थानं वैराग्यपूर्वकं पारिव्राज्यम्। दृढीकृतत्वमेव विवेकपूर्वकत्वेन स्फुटयति -- पुनःपुनरिति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।15.3।।को अद्धा वेद क इह प्रवोचत्कृत आजाता कुत इयं विसृष्टिः। अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव इत्यादिश्रुतिबोधितं संसारस्यानिर्वचनीयत्वं वदन्नास्य ज्ञानायोद्यतत्वं युक्तमपितुच्छेदायेति बोधयति -- नेति। अस्य वर्णितस्य संसारवृक्षस्य रुपमिह शास्त्रे यथा र्णितं तथा नैवोपलभ्यते। इह संसारे स्थितैः प्राणिभिरुधर्वमूलत्वादि यथा वर्णितं तथा नोपलभ्यत इति वा। दृष्टनष्टस्वरुपत्वेन स्वप्नमरीच्युदकमायागन्धर्वनगररज्जूरगशुक्तिरुप्यद्विजन्द्रसमत्वात्। एवंच यथा सत्त्वा सत्त्वाभ्यामनिर्वाच्यत्वात्स्वप्नादिकममेयं तथायं संसारोऽपीति भावः। अमेयत्वादेवास्य संसारस्यान्तः कदायं समाप्यत इति परिसमाप्तिर्नोपलभ्यते ज्ञानं विनाऽनन्तत्वात्। तथेत आरभ्यायं प्रवृत्त इत्यादिरस्य न चोपलभ्यते कैश्चिन्न गम्यते अनादित्वात्। नच संप्रतिष्ठा संस्थितिः। मध्यमस्य केनचिदुपलभ्यते। आद्यन्तज्ञानाधीनत्वादस्य तस्मादेनं यथोक्तमश्वत्थं संसारवृक्षं सर्वानर्थकरं सुष्टु विरुढानि विरोहं गतानि सुदृढानि मूलान्यविद्याकामकर्मवासनारुपाणि यस्य ते सुविरुढमूलत्वाद्दुरुच्छेदमसङ्गशस्त्रेण सङ्गस्य पुत्रवित्तलोकैषणादिरुपस्य परित्यागोऽसङ्गः स एव शस्त्रं संसारवृक्षच्छेदनसाधनं तेन दृढेन परमात्माभिमुख्यनिश्चयदृढीकृतेन पुनः पुनर्निवेकाब्यासशिलापादिततैक्ष्ण्येन छित्त्वा संसारवृक्षं समलमुत्कृत्य ततः पदं तत्परिमार्गितव्यमन्विष्य ज्ञातव्यमित्यर्थः।सोऽन्वेष्टव्यः स विजिज्ञासितव्यः इति श्रुतेः। किं तदिति तत्राह। यस्मिन्पदे परमं पदं तत्परिमार्गितव्यमन्विष्य ज्ञातव्यमित्यर्थः।सोऽन्वेष्टव्यः स विजज्ञासितव्यः इति श्रुतेः। किं तदिति तत्राह। यस्मिन्पदे गताः प्रविष्टा भूयः पुनर्न निवर्तन्ते संसाराय नावर्तन्तेन स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तते इति श्रुतेः। तत्कथं परिमार्गितव्यमित्याकाङ्क्षायामाह -- तमिति। यः यच्छब्देनोक्तस्तमेवादौ भवमाद्यं पुरुषं पूर्णं प्रपद्ये शरणं कतोस्मीत्येवं तच्छरणतया परिमार्गितव्यमित्यर्थः। तथाच श्रुतिःयो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै। तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये।परीत्य भूतानि परीत्य लोकान्परीत्य सर्वाः प्रदिशो दिशश्च। उपस्थाय प्रतमजामृतस्यात्मनात्मानभिसंविवेष इत्याद्या। सर्वे? भूतेष्वहमस्मि सर्वाणि भूतानि च मयि सन्तीति परिज्ञाय। एवमग्रेऽपि प्रथमजां वाचं ऋतस्य श्रीविष्णोरात्मानं स्वरुपमभिसंविवेश आश्रितवानित्यर्थः। कोऽसौ पुरुष इति तत्राह। यतो यस्मान्मायामयस्य संसारवृक्षस्य प्रवृत्तिः प्रसृता निःसृता ऐन्द्रजालिकादिव मायामयवृक्षप्रवृत्तिः। इतआरभ्य प्रवृत्ता इति तु वक्तुं न शक्यत इत्याशयेनाह। पुराणी चिरंतनी। यत्तु संसारिणां मोक्षप्रवृत्तिसिद्धये स्वयमसंसार्यपि भगवान्साक्षात्कर्तव्यं प्राप्यं चाविद्यातीतमात्मानं स्वस्यापि प्राप्यस्थानत्वेनाऽऽकारेण प्रकटयति तमेवेति। यतः यत्र अपुराणी नूतनेति तन्नोषादेयम्।मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय।ब्राह्मणो हि प्रतिष्ठाहं -- शाश्वतस्यामृतस्य च।नान्तो न चादिः इत्यादिभगवद्वचनाननुरुपत्वात्।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।15.3।।यथास्थितस्तथा नोपलभ्यते। अन्तादिर्विष्णुः।त्वमादिरन्तो जगतोऽस्य मध्यम् इति भागवते।अनाद्यन्तं परं ब्रह्म न देवा नर्षयो विदुः इति च मोक्षधर्मे। असङ्गशस्त्रेण सङ्गराहित्यसहितेन ज्ञानेन।ज्ञानासिनोपासनया शितेन [11।28।17] इति भागवते। छेदश्च विमर्श एव। ततश्च तस्यैवाबन्धकं भवति। तथा हि मूलस्थं ब्रह्म प्रतीयते। तच्चोक्तं तच्छ्रुतावेव -- विमर्शो ह्यस्य छेदः स तन्न बध्नाति बध्नाति चान्यान् [ ] इति।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।15.3।।ननु श्वोऽपि स्थातुमनर्हश्चाव्ययश्चेत्युक्ते प्रतिक्षणविनाशिविज्ञानसंतानरूपो वा व्रीह्यादिवत्प्रवाहनित्यो वायं संसारस्तर्हि दुरुच्छेद्यो वासनानां कर्मणां च बीजाङ्कुरवदन्योन्यजन्महेतुत्वस्यावर्जनीयत्वादित्याशङ्क्य सत्त्वासत्त्वाभ्यामनिर्वचनीयोऽयमित्येवं पक्षमाश्रित्य परिहरति -- न रूपमिति। रज्जूरगस्येवास्य रूपं सम्यग्दृशा वीक्ष्यमाणं सन्नोपलभ्यते। इह जीवत्येव देहे। यथा पूर्वमज्ञानदशायां तथा नोपलभ्यते ज्ञानदशायाम्। तेनास्य मृषात्वमनुभवैकवेद्यमित्युक्तम्। एतेनानुपलभ्यरूपत्ववचनेन स्वप्रकाशानां विज्ञानानां रूपवतां बीजादीनां च सादृश्यस्य व्यावृत्तिः। तर्हि शशविषाणवत्तुच्छ एवायं स्यादित्यत आह -- नान्तो न चादिरिति। उपादानस्य मूलाज्ञानस्याद्यन्तशून्यत्वादयमप्याद्यन्तशून्य इत्यर्थः। तर्हि आत्मवदपरिहार्यः स्यादित्याशङ्क्याह -- न च संप्रतिष्ठा। अस्य प्रतिष्ठाख्यं लयस्थानं वृक्षस्य भूमिरिव नास्ति। न चायं ब्रह्मणो विकारो येन तत्रैव लीयेत। न चेष्टापत्तिः ब्रह्मणः कौटस्थ्यभङ्गापत्तेः। किं तर्हि तुच्छमज्ञानमस्योपादानं तस्मिंश्च ज्ञानेन विनष्टे समूलस्यास्योच्छेदो भवति। अज्ञानस्य च तुच्छत्वंतुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत् इत्यादिश्रुत्या। तत्कार्यस्य रज्जूरगादेः प्रलये तदनुपलम्भस्यानुभवेन च सिद्धम्। तस्मादस्य प्रतिष्ठा नोपलभ्यत इति युक्तमेवोक्तम्। तमेनमश्वत्थं वासनानां दार्ढ्यात् सुविरूढमूलं दृढतरमूलमपि असङ्गशस्त्रेण सङ्गोदेहादितादात्म्यबुद्धिस्तद्वर्जनमसङ्गः स एव शस्त्रं तेन दृढेन परिपक्वेन छित्त्वा। ततः पदं तत्परिमार्गितव्यमित्युत्तरेणान्वयः। यद्यपि स्थूलसूक्ष्मयोः संसारयोरसङ्गः सुषुप्तौ स्वयमेव जायते तेन तन्मूलवासनाभिरप्यात्मनोऽसङ्गोऽनुमीयते तथापि वासनामूलस्याज्ञानस्य ज्ञानेनानुच्छेदान्नासङ्गधीर्दृढा भवति तस्मान्निर्विकल्पसमाध्यभ्यासेन कारणशरीरस्याप्यसङ्गः साध्यः। तेन चासङ्गशस्त्रेणास्य छेदो मूलोच्छेदो लवणोदकवद्रज्जूरगवद्वा प्रविलापनरूपः कर्तव्यः। न तु सांख्यानामिव स्वरूपेण सतः परिवर्जनमात्रम्।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।15.3।।अस्य वृक्षस्य चतुर्मुखादित्वेन ऊर्ध्वमूलत्वं तत्संतानपरम्परया मनुष्याग्रत्वेन अधःशाखत्वं मनुष्यत्वे कृतैः कर्ममिः मूलभूतैः पुनः अपि अधः च ऊर्ध्वं च प्रसृतशाखत्वम् इति यथा इदं रूपं निर्दिष्टं न तथा,संसारिभिः उपलभ्यते।मनुष्यः अहं देवदत्तस्य पुत्रो यज्ञदत्तस्य पिता तदनुरूपपरिग्रहः च इति एतावन्मात्रम् उपलभ्यते।तथा अस्य वृक्षस्य अन्तो विनाशः अपि गुणमयभोगेषु असङ्गकृतः इति न उपलभ्यते तथा अस्य गुणसङ्ग एव आदिः इति न उपलभ्यते। तस्य प्रतिष्ठा च अनात्मनि आत्माभिमानरूपम् अज्ञानम् इति न उपलभ्यतेप्रतितिष्ठति अस्मिन् एव इति हि अज्ञानम् एव अस्य प्रतिष्ठा।एनम् उक्तप्रकारं सुविरूढमूलं सुष्ठु विविधं रूढमूलम् अश्वत्थं सम्यग्ज्ञानमूलेन दृढेन गुणमयभोगासङ्गाख्येन शस्त्रेण छित्त्वा ततः विषयासङ्गाद् हेतोः तत् पदं परिमार्गितव्यम् अन्वेषणीयाम् यस्मिन् गता भूयः न निवर्तन्ते।कथम् अनादिकालप्रवृत्तो गुणमयभोगसङ्गः तन्मूलं च विपरीतज्ञानं निवर्तते इति अत्र आह --,अज्ञानादिनिवृत्तये तम् एव च आद्यं कृत्स्नस्य आदिभूतम्।मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। (गीता 9।10)अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।। (गीता 10।8)मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय। (गीता 7।7) इत्यादिषु उक्तम् आद्यं पुरुषम् एव शरणं प्रपद्ये तम् एव शरणं प्रपद्येत। यतः यस्मात् कृत्स्नस्य स्रष्टुः इयं गुणमयभोगसङ्गप्रवृत्तिः पुराणी पुरातनी प्रसृता। उक्तं हि मया एव पूर्वम् एतत् -- दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। (गीता 7।14) इति।प्रपद्य इयतः प्रवृत्तिः इति वा पाठः। तम् एव च आद्यं पुरुषं प्रपद्य शरणमुपगम्य इयतः अज्ञाननिवृत्त्यादेःकृत्स्नस्य एतस्य साधनभूता प्रवृत्तिः पुराणी पुरातनी प्रसृता। पुरातनानां मुमुक्षूणां प्रवृत्तिः पुराणी पुरातना हि मुमुक्षवो माम् एव शरणम् उपगम्य निर्मुक्तबन्धाः संजाता इत्यर्थः।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।15.3।।किंच -- न रूपमस्येति। इह संसारे स्थितैः प्राणिभिरस्य संसारवृक्षस्य तथोर्ध्वमूलत्वादिप्रकारेण रूपं नोपलभ्यते। न चान्तोऽवसानं? अपर्यन्तत्वात्। न चादिरनादित्वात्। नच संप्रतिष्ठा स्थितिः कथं तिष्ठतीति न चोपलभ्यते। यस्मादेवंभूतोऽयं संसारवृक्षो दुरुच्छेद्योऽनर्थकरश्च तस्मादेनं दृढेन वैराग्येण शस्त्रेण छित्त्वा तत्त्वज्ञाने यतेतेत्याह -- अश्वत्थमेनमिति सार्धेन। एनमश्वत्थं सुविरूढमूलमत्यन्तं बद्धमूलं सन्तमसङ्गः सङ्गराहित्यं अहंममतात्यागस्तेन दृढेन शस्त्रेण सम्यग्विचारेण छित्त्वा पृथक्कृत्य।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।15.3।।ननु सर्वप्रत्यक्षसम्मतेऽस्मिन् संसारेयस्तं वेद इति कस्यचित्तद्वेदनेन प्रशंसनमयुक्तमित्यत्रोच्यतेन रूपमस्येति। नात्र रूपानुपलम्भवचनस्य रूपाभावे तात्पर्यं? निर्दिष्टरूपविरोधादित्यभिप्रायेणाह -- अस्य वृक्षस्येति। सर्वेषां संसारोपलम्भे सत्यपि प्रकृताकारेण नोपलम्भ इति तथाशब्दाभिप्रेतं विवृणोति -- चतुर्मुखादित्वेनेत्यादिना।संसारिभिरिति -- अपवर्गोपयुक्तज्ञानरहितैरिति भावः। संसारिष्वेव यस्तथा वेद? स मुक्तप्राय इति वा। कूटस्थपितृपुत्रादिरूपेण लोकेऽपि मूलशाखापल्लवादिकं दृश्यत इत्यत्राह -- मनुष्योऽहमिति। तेषां हेयस्यापि संसारस्योपादानोपयुक्तं ज्ञानमस्ति न तु हानार्थमिति भावः।नान्तः इत्यादावपि तथाशब्दस्यानुषङ्गमाह -- तथाऽस्येति। समभिव्याहृतासङ्गशस्त्रच्छेद्यत्वानुगुणमन्तशब्दार्थमाहविनाश इति। आत्यन्तिकप्रलय इहासङ्गनिष्पादितान्तशब्देन विवक्षितः तस्य च स्वरूपतः कारणतश्चानुपलम्भः नित्यप्रलयमात्रं हि संसारिभिर्दृश्यत इत्यभिप्रायेणाह -- गुणमयभोगेष्वसङ्गकृत इति। भोगशब्दोऽत्र भोग्यपरः। प्रमाणसिद्धस्यान्तस्यादेः प्रतिष्ठायाश्च स्वरूपनिषेधभ्रमव्युदासायउपलभ्यते इतिपदमनुषञ्जितम्। गर्भादिरूपस्यावान्तरादेरुपलम्भात्प्रधानभूत आदिरिह विवक्षित इत्याह -- गुणसङ्ग एवेति। अत्र प्रतिष्ठाशब्देन परोक्तं परमात्माभिधानमयुक्तं? निस्सङ्गानां सङ्गविषयस्य तस्यासङ्गशस्त्रच्छेद्यवृक्षप्रतिष्ठात्वनिर्देशानौचित्यात् अत आदिभूतस्य सङ्गस्यापि निदानं क्षेत्रादिस्थानीयमज्ञानमिह अर्थौचित्यात्प्रतिष्ठोच्यत इत्याह -- अनात्मन्यात्माभिमानरूपमिति। एतेन सम्प्रतिष्ठा मध्यमिति व्याख्याऽपि निरस्ता। अज्ञाने कथं प्रतिष्ठाशब्दवृत्तिः इत्यत्राह -- प्रतितिष्ठतीति।अयं भावः -- मूलस्थितिभूमिः वृक्षस्य प्रतिष्ठा कर्म च संसारवृक्षस्य मूलत्वेनोक्तम् तच्चअविद्यासञ्चितं कर्म [वि.पु.2।13।70] इति वचनादज्ञाने स्थितं? तदधीनत्वात्तदनुष्ठानस्य? ममकारस्यापि कर्महेतोरहङ्कार एव कन्द इति स इह संसारवृक्षप्रतिष्ठेति।एनम् इति सङ्गास्पदप्रकृतिवैचित्र्यपरामर्श इत्याह -- उक्तप्रकारमिति। सुष्ठुत्वं दृढनिरूढवासनत्वेनान्यैः छेत्तुमशक्यत्वम्। विविधत्वं प्रायश्चित्तादिभिरेकैकस्य कर्माख्यमूलस्य च्छेदेऽप्यनादिकालं मनोवाक्कायैर्बुद्धिपूर्वकमबुद्धिपूर्वकं च विधिनिषेधविषयविचित्रकर्मणामनन्तप्रकारसम्भृतत्वम्। असङ्गोऽपि कदाचित्तादात्विकव्याध्यादिक्लेशादपि भवति स तु न दृढः अतःसम्यग्ज्ञानमूलेनेत्युक्तम्। विषयत्यागदशायामिव आत्मान्वेषणदशायामप्यसङ्गोऽनुवर्तनीय इति ज्ञापनायततश्शब्दः। अत एवततः परम् इति परशब्दाध्याहारेण व्याख्यान्तरमयुक्तमित्यभिप्रायेणाह -- ततो विषयासङ्गाद्धेतोरिति।आत्मानमन्विच्छेत् [जा.उ.6] इत्यादिसूचनायाह -- अन्वेषणीयमिति। छन्दोनुरोधाय च्छान्दसंनिवर्तन्ति इति परस्मैपदमित्यभिप्रायेण स्वयमात्मनेपदं प्रायुङ्क्त।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।15.3 -- 15.5।।न रूपमित्यादि अव्ययं तदित्यन्तम्। तं छित्त्वेति। विशेष्ये क्रियाऽभिधीयमाना सामर्थ्यादत्र विशेषणपदमुपादत्ते दण्डी प्रैष्याननुब्रूयात् इति विधिवत्। तेन अधोरूढानि मूलानि अस्य छिन्द्यादिति। तत् पदं प्रशान्तम् अव्ययं पदं तदेव।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।15.3।।अस्य रूपं नोपलभ्यत इत्युक्ते प्रमाणबाधः? अत उक्तम् -- तथेति। तत्सापेक्षमित्यतः पूरयति -- यथेति। विकारित्वादिनेत्यर्थः। जगतो देशकालाभ्यां परिच्छेदस्योपलभ्यमानत्वान्नान्त इत्याद्युक्तमयुक्तमित्यत आह -- अन्तादिरिति। संहर्तृत्वादेरिति शेषः। अत्र सम्मतिमाह -- त्वमिति। मध्यं स्थितेः कर्ता। तस्यानुपलभ्यमानत्वे प्रमाणमाह -- अनादीति। आद्यन्तरहितम्। असङ्ग एव शस्त्रमिति व्याख्यानमसदिति भावेनाह -- असङ्गेति। असङ्गः सङ्गराहित्यं तेन सहितं ज्ञानमसङ्गशस्त्रम्। दध्योदनादिवत्। वृत्तौ साहित्यस्यान्तर्भावादप्रयोग इति,भावः। प्रतीतार्थः कुतो न इत्यतो ज्ञानस्यैव तत्र कारणत्वोक्तेरित्याह -- ज्ञानेति।छित्त्वा इत्यस्यसबीजमुद्धृत्य इति (शं.) व्याख्यानमसदिति भावेनाह -- छेदश्चेति। चस्त्वर्थः विमर्शो विवेकः। व्याख्यानान्तरपरित्यागेनैवं व्याख्याने को हेतुः इत्यत आह -- ततश्चेति। यतो विमर्श एव प्रकृत्यादेर्विश्वस्य छेदो न सर्वथोद्धारणम्। तत एव तस्यैकस्यैवेदमबन्धकं भवतीति युज्यते। अन्यथैकेन छेदे कृते सर्वमुक्तिः स्यादिति भावः। इतश्चायमेव छेद इत्याह -- तथा हीति। अत्र ह्यश्वत्थमेनं छित्त्वाततः परं तत्परिमार्गितव्यं [15।4] इति विश्वच्छेदस्य ब्रह्मप्रतीतावुपायत्वमुच्यते। तथाहि। विश्वस्य कार्यत्वादिना विमर्शे सति कार्यस्य कारणापेक्षत्वात् चेतनानधिष्ठितादुपादानादुत्पत्त्यसम्भवात्परतन्त्राणां मुख्यतोऽधिष्ठातृत्वायोगान्मूलस्थमुपादानकारणाधिष्ठातृ ब्रह्म प्रतीयते न विश्वविनाशे। अतो योग्यतावशाद्विमर्श एव च्छेदो न विनाश इति गम्यत इत्यर्थः। विश्वमिथ्यात्वज्ञानमेव च्छेद इति चेत्? न अस्य मिथ्याज्ञानत्वात् श्रुतिसंवादाच्चैवमेवेत्याह -- तच्चेति। तं वै प्रपद्ये यं वै प्रपद्ये इति तच्छुतावेव अतस्तं छेदकमेव।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।15.3।।न रूपमिति। यस्त्वयं संसारवृक्षो वर्णित इह संसारे स्थितैः प्राणिभिरस्य संसारवृक्षस्य यथावर्णितमूर्ध्वमूलत्वादि तथा तेन प्रकारेण रूपं नोपलभ्यते स्वप्नमरीच्युदकमायागन्धर्वनगरवन्मृषात्वेन दृष्टनष्टस्वरूपत्वात्तस्य। अतएव तस्यान्तोऽवसानं नोपलभ्यते एतावता कालेन समाप्तिं गमिष्यतीत्यपर्यन्तत्वात्। न चास्यादिरुपलभ्यते इत आरभ्य प्रवृत्त इत्यनादित्वात्। नच संप्रतिष्ठा स्थितिर्मध्यस्योपलभ्यते आद्यन्तप्रतियोगिकत्वात्तस्य। यस्मादेवंभूतोऽयं संसारवृक्षो दुरुच्छेदः सर्वानर्थकरश्च तस्मादनाद्यज्ञानेन सुविरूढमूलमत्यन्तबद्धमूलं प्रागुक्तमश्वत्थमेनमसङ्गशस्त्रेण सङ्गः स्पृहा असङ्गः सङ्गविरोधि वैराग्यं पुत्रवित्तलोकैषणात्यागरूपं तदेव शस्त्रं रागद्वेषमयसंसारविरोधित्वात् तेनासङ्गशस्त्रेण दृढेन परमात्माज्ञानौत्सुक्यदृढीकृतेन पुनः पुनर्विवेकाभ्यासनिशितेन छित्त्वा समूलमुद्धृत्य वैराग्यशमदमादिसंपत्त्या सर्वकर्मसंन्यासं कृत्वेत्येतत्।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।15.3।।ननु कथं तैः सृष्टिः इत्यत आह -- न रूपमिति। इहाऽस्मिन् लौकिके संसारे कर्मासक्तानामस्य तच्छाखारूपत्वे सत्यपि तथाऽलौकिकक्रीडात्मकं रूपं न लभ्यते। न च अन्तः? क्रीडात्मकेन नित्यत्वात्। न च आदिः? पुरुषोत्तममूलकत्वेनाऽनादित्वात्। न च पुनः सम्प्रतिष्ठा स्थितिः तस्माल्लौकिकसंसारात्मकवृक्षं छित्त्वा पुनरलौकिकान्वेषणं कार्यमित्याह -- अश्वत्थमिति। एनं परिदृश्यमानं लौकिकमश्वत्थं नश्वरं सुविरूढमूलं दृढं? दृढेन निश्चयात्मकेन असङ्गशस्त्रेण एतन्मध्यपातिदुष्टविषयादिदोषपर्यालोचनसङ्गाभावात्मकेन शस्त्रेणैतच्छेदपटुना च्छित्त्वा भिन्नं कृत्वा।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।15.3।। --,न रूपम् अस्य इह यथा उपवर्णितं तथा नैव उपलभ्यते? स्वप्नमरीच्युदकमायागन्धर्वनगरसमत्वात् दृष्टनष्टस्वरूपो हि स इति अत एव न अन्तः न पर्यन्तः निष्ठा परसमाप्तिर्वा विद्यते। तथा न च आदिः? इतः आरभ्य अयं प्रवृत्तः इति न केनचित् गम्यते। न च संप्रतिष्ठा स्थितिः मध्यम् अस्य न केनचित् उपलभ्यते। अश्वत्थम् एनं यथोक्तं सुविरूढमूलं सुष्ठु विरूढानि विरोहं गतानि सुदृढानि मूलानि यस्य तम् एनं सुविरूढमूलम्? असङ्गशस्त्रेण असङ्गः पुत्रवित्तलोकैषणादिभ्यः व्युत्थानं तेन असङ्गशस्त्रेण दृढेन परमात्माभिमुख्यनिश्चयदृढीकृतेन पुनः पुनः विवेकाभ्यासाश्मनिशितेन च्छित्वा संसारवृक्षं सबीजम् उद्धृत्य।।

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।15.3।।किञ्च न रूपमिति। इह मायामोहितैर्वादिभिरस्य स्वरूपं याथात्म्यं तथा वेदोक्तप्रकारेण नोपलभ्यतेमायामात्रं तु कात्स्न्र्येनानभिव्यक्तस्वरूपत्वात्। [ब्र.सू.3।2।3] किञ्च नान्तो निर्णयो न चादिः न च सम्प्रतिष्ठाऽपि। तेनासम्प्रतिष्ठमसत्यं स्वाज्ञानकल्पितं जगदुच्यते। वक्ष्यति च मायावादिनामासुराणां लक्षणेअसत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् [16।8] इति। ततो नेदं जगदसत्यं? किन्त्वेतदुपर्यावरणभूतं जीवकल्पितं सुवर्णजलवत्कार्यभूतसंसाराख्यं दुष्टांशमेनमभिन्नतया हंसोक्तितः प्रतीयमानम् अतएव सुतरां विरूढानि मूलानि,जीवकल्पितानि वासनामयानि दोषरूपाणि यत्र तमसङ्गशस्त्रेण दृढवैराग्यरूपेणाभजनीयतया सक्त्यभावेन छित्वा पृथक्कृत्य ततःपदमात्मरूपं भगवद्धामभूतमक्षरं ब्रह्म परिमार्गितव्यमित्यन्तरेणान्वयः। न चेह जीवकृतो जगदुच्छेद एव यथा श्रुतो वाच्योऽपि शिष्टत्वनिरूपणादिति वाच्यम्? उच्छेदिते दण्डे दण्डी पुरुषो नेतिवदविरोधात्।