श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते।।15.9।।
śhrotraṁ chakṣhuḥ sparśhanaṁ cha rasanaṁ ghrāṇam eva cha adhiṣhṭhāya manaśh chāyaṁ viṣhayān upasevate
Presiding over the ears, eyes, touch, taste, smell, and mind, it enjoys the objects of the senses.
15.9 श्रोत्रम् the ear? चक्षुः the eye? स्पर्शनम् the (organ of) touch? च and? रसनम् the (organ of) taste? घ्राणम् the (organ of) smell? एव even? च and? अधिष्ठाय presiding over? मनः the mind? च and? अयम् this (soul)? विषयान् objects of the senses? उपसेवते enjoys.Commentary Here is a description of how the subtle body remaining in the gross body enjoys the objects of the senses.The individual soul uses the mind along with each sense separately and enjoys or experiences the objects of the senses such as sound? touch? colour (form)? taste and smell.It sits on the marvellous car of its mind? passes through the gateway of the ear in the twinkling of an eye and enjoys the various kinds of music of this world. It holds the reins of the nerves of sensation? enters the domain of touch through the portal of the skin and enjoys the diverse kinds of soft objects. It roams about in the hills of beautiful forms and enjoys them through the windows of his eyes. It enters the cave of taste by the avenue of the tongue and enjoyes dainties? palatable dishes and refreshing beverages. It enters the forest of scents through the door of the nose and enjoys them to its hearts content.It makes its abode in the ears? the eyes? the skin? the tongue and the nose? as also in the mind and enjoys the objects of the senses. It gains experiences of the outer world through the mind?,intellect? subconscious mind? egoism? the ten senses and the five vital airs.Ghranameva cha The word cha (and) indicates that we shall have to include the five organs of action? and also the fourfold inner instrument (mind? intellect? subconscious mind and egoism). In the Katha Upanishad it is said आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।।The Self? the senses and the mind united? the wise call the enjoyer.
।।15.9।। व्याख्या -- अधिष्ठाय मनश्चायम् -- मनमें अनेक प्रकारके (अच्छेबुरे) संकल्पविकल्प होते रहते हैं। इनसे स्वयं की स्थितिमें कोई अन्तर नहीं आता क्योंकि स्वयं (चेतनतत्त्व? आत्मा) जड शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धिसे अत्यन्त परे और उनका आश्रय तथा प्रकाशक है। संकल्पविकल्प आतेजाते हैं और स्वयं सदा ज्योंकात्यों रहता है।मनका संयोग होनेपर ही सुनने? देखने? स्पर्श करने? स्वाद लेने तथा सूँघनेका ज्ञान होता है। जीवात्माको मनके बिना इन्द्रियोंसे सुखदुःख नहीं मिल सकता। इसलिये यहाँ मनको अधिष्ठित करनेकी बात कही गयी है। तात्पर्य यह है कि जीवात्मा मनको अधिष्ठित करनेके अर्थात् उसका आश्रय लेकर ही इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता है।श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च -- श्रवणेन्द्रिय अर्थात् कानोंमें सुननेकी शक्ति (टिप्पणी प0 764) श्रोत्रम् है। आजतक हमने अनेक प्रकारके अनुकल (स्तुति? मान? बड़ाई? आशीर्वाद? मधुर गान? वाद्य आदि) और प्रतिकूल (निन्दा? अपमान? शाप? गाली आदि) शब्द सुने हैं पर उनसे स्वयं में क्या फरक पड़ाकिसीको पौत्रके जन्म तथा पुत्रकी मृत्युका समाचार एक साथ मिला। दोनों समाचार सुननेसे एकके जन्म तथा दूसरेकी मृत्यु का जो ज्ञान हुआ? उस ज्ञान में कोई अन्तर नहीं आया। जब ज्ञानमें भी कोई अन्तर नहीं आया? तो फिर ज्ञाता में अन्तर आयेगा ही कैसे अतः जन्म और मृत्युका समाचार सुननेसे अन्तःकरणमें (माने हुए सम्बन्धके कारण) जो असर होता है? उसकी तरफ दृष्टि न रखकर इस ज्ञान पर ही दृष्टि रखनी चाहिये। इसी तरह अन्य इन्द्रियोंके विषयमें भी समझ लेना चाहिये।नेत्रेन्द्रिय अर्थात् नेत्रोंमें देखनेकी शक्ति चक्षुः है। आजतक हमने अनेक सुन्दर? असुन्दर? मनोहर? भयानक रूप या दृश्य देखे हैं पर उनसे अपने स्वरूप में क्या फरक पड़ास्पर्शेन्द्रिय अर्थात् त्वचामें स्पर्श करनेकी शक्ति स्पर्शनम् है। जीवनमें हमारेको अनेक कोमल? कठोर? चिपचिपे? ठण्डे? गरम आदि स्पर्श प्राप्त हुए हैं? पर उनसे स्वयं की स्थितिमें क्या अन्तर आयारसनेन्द्रिय अर्थात् जीभमें स्वाद लेनेकी शक्ति रसनम् है। कड़ुआ? तीखा? मीठा? कसैला? खट्टा और नमकीन -- ये छः प्रकारके भोजनके रस हैं। आजतक हमने तरहतरहके रसयुक्त भोजन किये हैं पर विचार करना चाहिये कि उनसे स्वयंको क्या प्राप्त हुआघ्राणेन्द्रिय अर्थात् नासिकामें सूँघनेकी शक्ति घ्राणम् है। जीवनमें हमारी नासिकाने तरहतरहकी सुगन्ध और दुर्गन्ध ग्रहण की है पर उनसे स्वयं में क्या फरक पड़ाविशेष बातश्रोत्रका वाणीसे? नेत्रका पैरसे? त्वचाका हाथसे? रसनाका उपस्थसे और घ्राणका गुदासे (पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंका पाँचों कर्मेन्द्रियोंसे) घनिष्ठ सम्बन्ध है। जैसे? जो जन्मसे बहरा होता है? वह गूँगा भी होता है। पैरके तलवेमें तेलकी मालिश करनेसे नेत्रोंपर तेलका असर पड़ता है। त्वचाके होनेसे ही हाथ स्पर्शका काम करते हैं। रसनेन्द्रियके वशमें होनेसे उपस्थेन्द्रिय भी वशमें हो जाती है। घ्राणसे गन्धका ग्रहण तथा उससे सम्बन्धित गुदासे गन्धका त्याग होता है।पञ्चमहाभूतोंमें एकएक महाभूतके सत्त्वगुणअंशसे ज्ञानेन्द्रियाँ? रजोगुणअंशसे कर्मेन्द्रियाँ और तमोगुणअंशसे शब्दादि पाँचों विषय बने हैं।पञ्चमहाभूत सत्त्वगुणअंश रजोगुणअंश तमोगुणअंश? आकाश श्रोत्र वाक् शब्द?वायु त्वचा हस्त स्पर्श?अग्नि नेत्र पाद रूप? जल रसना उपस्थ रस? पृथ्वी घ्राण गुदा गन्ध पाँचों महाभूतोंके मिले हुए सत्त्वगुणअंशसे मन और बुद्धि? रजोगुणअंशसे प्राण और तमोगुणअंशसे शरीर बना है।विषयानुपसेवते -- जैसे व्यापारी किसी कारणवश एक जगहसे दूकान उठाकर दूसरी जगह दूकान लगाता है? ऐसे ही जीवात्मा एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरमें जाता है और जैसे पहले शरीरमें विषयोंका रागपूर्वक सेवन करता था ऐसे ही दूसरे शरीरमें जानेपर (वही स्वभाव होनेसे) विषयोंका सेवन करने लगता है। इस प्रकार जीवात्मा बारबार विषयोंमें आसक्ति करनेके कारण ऊँचनीच योनियोंमें भटकता रहता है।भगवान्ने यह मनुष्यशरीर अपना उद्धार करनेके लिये दिया है? सुखदुःख भोगनेके लिये नहीं। जैसे ब्राह्मणको गाय दान करनेपर हम उसको चारापानी तो दे सकते हैं? पर दी हुई गायका दूध पीनेका हमें हक नहीं है ऐसे ही मिले हुए शरीरका सदुपयोग करना हमारा कर्तव्य है? पर इसे अपना मानकर सुख भोगनेका हमें हक नहीं है।विशेष बातविषयसेवन करनेसे परिणाममें विषयोंमें रागआसक्ति ही बढ़ती है? जो कि पुनर्जन्म तथा सम्पूर्ण दुःखोंका कारण है। विषयोंमें वस्तुतः सुख है भी नहीं। केवल आरम्भमें भ्रमवश सुख प्रतीत होता है (18। 38)। अगर विषयोंमें सुख होता तो जिनके पास प्रचुर भोगसामग्री है? ऐसे बड़ेब़ड़े धनी? भोगी और पदाधिकारी तो सुखी हो ही जाते? पर वास्तवमें देखा जाय तो पता चलता है कि वे भी दुःखी? अशान्त ही हैं। कारण यह है कि भोगपदार्थोंमें सुख है ही नहीं? हुआ नहीं? होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। सुख लेनेकी इच्छासे जोजो भोग भोगे गये? उनउन भोगोंसे धैर्य नष्ट हुआ? ध्यान नष्ट हुआ? रोग पैदा हुए? चिन्ता हुई? व्यग्रता हुई? पश्चात्ताप हुआ? बेइज्जती हुई? बल गया? धन गया? शान्ति गयी एवं प्रायः दुःखशोक उद्वेग आये -- ऐसा यह परिणाम विचारशील व्यक्तिके प्रत्यक्ष देखनेमें आता है (टिप्पणी प0 765)।जिस प्रकार स्वप्नमें जल पीनेसे प्यास नहीं मिटती? उसी प्रकार भोगपदार्थोंसे न तो शान्ति मिलती है और न जलन ही मिटती है। मनुष्य सोचता है कि इतना धन हो जाय? इतना संग्रह हो जाय? इतनी (अमुकअमक) वस्तुएँ प्राप्त हो जायँ तो शान्ति मिल जायगी किंतु उतना हो जानेपर भी शान्ति नहीं मिलती? उल्टे वस्तुओंके मिलनेसे उनकी लालसा और बढ़ जाती है (टिप्पणी प0 766.1)। धन आदि भोगपदार्थोंके मिलनेपर भी और मिल जाय? और मिल जाय -- यह क्रम चलता ही रहता है। परन्तु संसारमें जितना धनधान्य है? जितनी सुन्दर स्त्रियाँ हैं? जितनी उत्तम वस्तुएँ हैं? वे सबकीसब एक साथ किसी एक व्यक्तिको मिल भी जायँ? तो भी उनसे उसे तृप्ति नहीं हो सकती (टिप्पणी प0 766.2)। इसका कारण यह है कि जीव अविनाशी परमात्माका अंश तथा चेतन है और भोगपदार्थ नाशवान् प्रकृतिके अंश तथा जड हैं। चेतनकी भूख जड पदार्थोंके द्वारा कैसे मिट सकती है भूख है पेटमें और हलवा बाँधा जाय पीठपर? तो भूख कैसे मिट सकती है प्यास लगनेपर बढ़ियासेबढ़िया गरमागरम हलवा खानेपर भी प्यास नहीं मिट सकती। इसी प्रकार जीवको प्यास तो है चिन्मय परमात्माकी? पर वह उस प्यासको मिटाना चाहता है जड पदार्थोंके द्वारा? जिससे तृप्ति होनेकी नहीं। तृप्ति तो दूर रही? ज्योंज्यों वह जड पदार्थोंको अपनाता है? त्योंत्यों उसकी भूख भी बढ़ती ही जाती है। यह उसकी कितनी बड़ी भूल हैसाधकको चाहिये कि वह आज ही दृढ़ विचार (निश्चय) कर ले कि मेरेको भोगबुद्धिसे विषयोंका सेवन करना ही नहीं है। उसका यह पक्का निर्णय हो जाय कि सम्पूर्ण संसार मिलकर भी मेरेको तृप्त नहीं कर सकता। विषयसेवन न करनेका दृढ़ विचार होनसे इन्द्रियाँ निर्विषय हो जाती हैं और इन्द्रियोंके निर्विषय हो जानेसे मन निर्विकल्प हो जाता है। मनके निर्विकल्प हो जानेसे बुद्धि स्वतः सम हो जाती है और बुद्धिके सम हो जानेसे परमात्माकी प्राप्तिका स्वतः अनुभव हो जाता है (गीता 5। 19) क्योंकि परमात्मा तो सदा प्राप्त ही हैं। विषयोंमें प्रवृत्ति होनेके कारण ही उनकी प्राप्तिका अनुभव नहीं हो पाता।सुखभोग और संग्रह -- इन दोमें जो आसक्त हो जाते हैं? उनके लिये परमात्मप्राप्ति तो दूर रही? वे परमात्माकी तरफ चलनेका दृढ़ निश्चय भी नहीं कर पाते (गीता 2। 44)।गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज श्रीरामचरितमानसके अन्तमें प्रार्थना करते हैं -- कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।(मानस 7। 130)जैसे कामीको स्त्री (भोग) और लोभीको धन (संग्रह) प्यारा लगता है? ऐसे ही रघुनाथका रूप और रामनाम मुझे निरन्तर प्यारा लगे। तात्पर्य यह है कि जैसे कामी स्त्रीके रूपमें आकृष्ट होता है? ऐसे ही मैं रघुनाथके रूपमें निरन्तर आकृष्ट रहूँ और जैसे लोभी धनका संग्रह करता रहता है? ऐसे ही मैं रामनामका (जपके द्वारा) निरन्तर संग्रह करता रहूँ। संसारका भोग और संग्रह निरन्तर प्रिय नहीं लगता -- यह नियम है पर भगवान्का रूप और नाम निरन्तर प्रिय लगता है। संतोंने भी अपना अनुभव कहा है -- चाख चाख सब छाड़िया मायारस खारा हो।नामसुधारस पीजिये छिन बारंबारा हो।। लगे मोहि राम पियारा हो।। सम्बन्ध -- पीछेके तीन श्लोकोंमें जीवात्माके स्वरूपका वर्णन किया गया है। उस विषयका उपसंहार करनेके लिये आगेके श्लोकमें जीवात्माके स्वरूपको कौन जानता है और कौन नहीं जानता -- इसका वर्णन करते हैं।
।।15.9।। शुद्ध चैतन्य स्वरूप स्वत किसी वस्तु को प्रकाशित नहीं करता है? क्योंकि उसमें विषयों का सर्वथा अभाव रहता है। परन्तु यही चैतन्य बुद्धि में परावर्तित होकर वस्तुओं को प्रकाशित करता है। यही बुद्धि का प्रकाश कहलाता है? जो इन्द्रियों के माध्यम से वस्तुओं को प्रकाशित करता है। मन सभी इन्द्रियों के साथ युक्त होता है? जिसके कारण बाह्य वस्तुओं का सम्पूर्ण ज्ञान संभव होता है। बुद्धि की उपाधि से युक्त चैतन्य ही विषयों का भोक्ता जीव है।यदि यह चैतन्य आत्मा सर्वत्र विद्यमान है और हमारा स्वरूप ही है? जिसके द्वारा हम सम्पूर्ण जगत् का अनुभव कर रहे हैं? तो क्या कारण है कि हम उसे पहचानते नहीं हैं इसका कारण अज्ञान है। भगवान् कहते हैं
।।15.9।।मनःषष्ठानीन्द्रियाण्येव प्रश्नद्वारा विशेषतो दर्शयति -- कानीति।
।।15.9।।कानि पुनस्तानि किमर्थ च तानि गृहीत्वा संयातीति चेत्तत्राह। श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च त्वग्न्द्रियं रसनं घ्राणमेवच। चकारत्प्राणादिसमुच्चयः। मनः षष्ठं प्रत्येकमिन्द्रियेण सह अधिष्ठाय देहस्थोऽयं जीवो विषयान् शब्दादीनुपसेवते भुङ्क्तेः।
।।15.9।।इन्द्रियद्वाराऽपि सोऽपि भुङ्क्ते। तद्य इमे वीणायां गायन्त्येतं ते गायन्ति इति च श्रुतिः। गुणान्वितमेव भुङ्क्ते। न ह वै देवान्पापं गच्छति [बृ.उ.1।5।20] इति श्रुतेः।
।।15.9।।कानि तानि मनःषष्ठानि। तानि गृहीत्वा गत्वा चायं किं करोतीत्यत आह -- श्रोत्रमिति। अधिष्ठाय व्यापारवन्ति कृत्वा विषयान् शब्दादीनुपसेवते प्रकाशयति। यथा दीपः स्वस्य वृत्तिलाभाय तैलवर्त्याद्यपेक्षमाणोऽपि स्वविषयावभासने स्वयमेव प्रभुः एवं जीवोऽपि घटाकारत्वलाभाय मनःषष्ठानीन्द्रियाणि सूर्यादींश्चापेक्षते तथापि घटावभासं स्वयमेव करोति नेतराणि इन्द्रियसूर्यादीनि स्वभास्यत्वात्तैलवर्त्यादिवदित्याशयः।
।।15.9।।एतानि मनःषष्ठानि इन्द्रियाणि अधिष्ठाय स्वस्वविषयवृत्त्यनुगुणानि कृत्वा तान् शब्दादीन् विषयान् उपसेवते उपभुंक्ते।
।।15.9।।तान्येवेन्द्रियाणि दर्शयन्यदर्थं गृहीत्वा गच्छति तदाह -- श्रोत्रमिति। श्रोत्रादीनि बाह्येन्द्रियाणि मनश्चान्तःकरणमधिष्ठायाश्रित्य शब्दादीन्विषयानयं जीव उपभुङ्क्ते।
।।15.9।।No commentary.
।।15.9 -- 15.11।।एवं सृष्टौ संहारे च एतैः साहित्यमस्योक्त्वा स्थितावपि स्थानासनमननादिरूपायां (N ममतादि) विषयग्रहणात्मिकायां ( omits स्थितावपि -- त्मिकायाम्) तत्सहितस्यैवास्य व्यापार इति निश्चीयते -- श्रोत्रमित्यादि अचेतस इत्यन्तम्। मनः इत्यनेनान्तःकरणमुपलक्ष्यते। अत एव शरीरस्थितियोगात्तिष्ठन्तम् शरीरान्तरग्रहणाय उत्क्रामन्तम् विषयान्वा भुञ्जानं मूढा न पश्यन्ति? अप्रबुद्धत्त्वात्। प्रबुद्धास्तु सर्वत्रैव बोधरूपमेव अनुसंदधाना (S??N -- रूपमनुसंदधानाः) जानन्त्येव? इत्यलुप्तमसमाधयः? तेषां यत्नपरत्त्वात्। ,अकृतात्मनां तु यत्नोऽपि न फलाय? अपरिपक्वकषायत्त्वात्। न हि शरदि सलिलादिसामग्रीसंमर्देऽपि धान्यबीजानि उप्यमानानि फलसंपदे अलम्। अत एव सामग्री एव सा अस्य न भवति। अन्यदेव किल,(S omits किल) मधुमाससंभृतजलधरपटलीप्रेरितमम्भः काचिदेव च सा भूः? यस्यां शिशिरविवशीकृतायां,(S??N शिशिरवशविवशी -- ) रविकरस्पर्शेनैव कान्तिः। एवम् अकृतात्मनां यत्नो न सकलाङ्गपरिपूर्णत्वमायाति (?N परिपूर्णः कर्तुमायाति)। अत एव प्राप्याप्युपायं पारमेश्वरदीक्षादि,( परमेश्वर) ये तथाविधक्रोधमोहादिग्रन्थिसन्दर्भगर्भीकृतान्तर्दृशः ( सन्दर्भीकृतान्तर्दृशः) ? तेषु उपाय एव साकल्यं न भजतीति मन्तव्यम्। यदुक्तम् (S??N तदुक्तम्) -- क्रोधादौ दृश्यमाने हि दीक्षितोऽपि न मुक्तिभाक्। इति।
।।15.9।।अस्तीश्वरस्य भोगः। किन्तु जीवेन्द्रियैर्नास्तीत्यतो जीवविषयमेतदित्यत आह -- इन्द्रियेति। राजाद्यन्तर्गतं गायन्तीत्यनेन हि तच्छ्रोत्रेण गानभोगो लभ्यते। विषयभोगाङ्गीकारे दुष्टस्यापि भोगः स्यादित्यत उत्तरवाक्यगतं विशेषणमाश्रित्याह -- गुणेति। गुणमेवेत्यर्थः। एतद्भुञ्जानस्य विशेषणमिति केचित् तान्प्रत्याह -- न ह वा इति।
।।15.9।।तान्येवेन्द्रियाणि दर्शयन् यदर्थं गृहीत्वा गच्छति तदाह -- श्रोत्रमिति। श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च चकारात्कर्मेन्द्रियाणि प्राणं च मनश्च षष्ठमधिष्ठायैव आश्रित्यैव विषयान् शब्दादीनयं जीव उपसेवते भुंक्ते।
।।15.9।।किमर्थं गृहीत्वा गच्छति इत्यत आह -- श्रोत्रमिति। श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि लौकिकस्थूलशरीरे स्थूलानि मनः अन्तःकरणं च अधिष्ठाय मुख्यरूपेण तत्र स्वयं स्थितिं कृत्वा अग्रे अलौकिकतदनुभवार्थं विषयान् उप स्वांशजीवसमीपे सेवते भोगं करोतीत्यर्थः।,
।।15.9।। --,श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च त्वगिन्द्रियं रसनं घ्राणमेव च मनश्च षष्ठं प्रत्येकम् इन्द्रियेण सह? अधिष्ठाय देहस्थः विषयान् शब्दादीन् उपसेवते।।एवं देहगतं देहात् --,
।।15.9।।तान्येवेन्द्रियाणि सेवते इति दर्शयन्यदर्थं गृहीत्वा गच्छति तदाह -- श्रोत्रमिति स्पष्टम्। प्राकृताहङ्कारकार्यं स्वस्वविषयवृत्त्यनुगुणं कृत्वा तत्तच्छब्दादीन् विषयानुपभुङ्क्ते।