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As Krishna says, patience is a virtue
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।15.13।।
gām āviśhya cha bhūtāni dhārayāmy aham ojasā puṣhṇāmi chauṣhadhīḥ sarvāḥ somo bhūtvā rasātmakaḥ
Permeating the earth, I support all beings with My energy; and having become the watery moon, I nourish all herbs.
15.13 गाम the earth? आविश्य permeating? च and? भूतानि all beings? धारयामि support? अहम् I? ओजसा by (My) energy? पुष्णामि (I) nourish? च and? औषधीः the herbs? सर्वाः all? सोमः moon? भूत्वा having become रसात्मकः watery.Commentary The immanence of the Lord as the allsustaining life is described in this verse.Ojas The energy of the Lord (Isvara). The vast heaven and earth are firmly held by this energy. It permeates the earth to support the world. This energy is destitute of passion and attachment. As the vast earth is supported by the energy of the Lord? it does not fall? it is not broken down to pieces and it does not sink into the nether worlds.The Lord penetrates the earth and supports all movable and immovable objects by His energy.Rasatmakah somah The watery moon The moon is regarded as the repository of all savours or,fluids (Rasas). I? becoming the watery moon? nourish all herbs and plants such as rice? wheat? etc.? by infusing sap into them? and make them savoury. I feed the vegetable kingdom with My vital juice (Ojas) which pervades the soil and generates sweet juice or sap in herbs? plants and trees. The watery or savoury moon nourishes all herbs and plants by infusing sap or savours into them.Moreover --
।।15.13।। व्याख्या -- गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा -- भगवान् ही पृथ्वीमें प्रवेश करके उसपर स्थित सम्पूर्ण स्थावरजङ्गम प्राणियोंको धारण करते हैं। तात्पर्य यह है कि पृथ्वीमें जो धारणशक्ति देखनेमें आती है? वह पृथ्वीकी अपनी न होकर भगवान्की ही है (टिप्पणी प0 774.1)।वैज्ञानिक भी इस बातको स्वीकार करते हैं कि पृथ्वीकी अपेक्षा जलका स्तर ऊँचा है और पृथ्वीपर जलका भाग स्थलकी अपेक्षा बहुत अधिक है (टिप्पणी प0 774.2)। ऐसा होनेपर भी पृथ्वी जलमग्न नहीं होती -- यह भगवान्की धारणशक्तिका ही प्रभाव है।पृथ्वीके उपलक्षणसे यह समझना चाहिये कि पृथ्वीके सिवाय जहाँ भी धारणशक्ति देखनेमें आती है? वह सब भगवान्की ही है। पृथ्वीमें अन्नादि ओषधियोंको उत्पन्न करनेकी (उत्पादिका) शक्ति एवं गुरुत्वाकर्षणशक्ति भी भगवान्की ही समझनी चाहिये।पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः -- चन्द्रमामें दो शक्तियाँ हैं -- प्रकाशिकाशक्ति और पोषणशक्ति। प्रकाशिकाशक्तिमें अपने प्रभावका वर्णन पूर्वश्लोकमें करनेके बाद अब भगवान् इस श्लोकमें,चन्द्रमाकी पोषणशक्तिमें अपना प्रभाव बताते हैं कि चन्द्रमाके माध्यमसे सम्पूर्ण वनस्पतियोंको मैं ही पुष्ट करता हूँ।चन्द्रमा शुक्लपक्षमें पोषक और कृष्णपक्षमें शोषक होता है। शुक्लपक्षमें रसमय चन्द्रमाकी मधुर किरणोंसे अमृतवर्षा होनेके कारण ही लतावृक्षादि पुष्ट होते हैं और फलतेफूलते हैं। माताके उदरमें स्थित शिशु भी शुक्लपक्षमें वृद्धिको प्राप्त होता है।यहाँ सोमः पद चन्द्रलोकका वाचक है? चन्द्रमण्डलका नहीं। नेत्रोंसे हमें जो दीखता है? वह चन्द्रमण्डल है। चन्द्रमण्डलसे भी ऊपर (आँखोंसे न दीखनेवाला) चन्द्रलोक है। उपर्युक्त पदोंमें विशेषरूपसे सोमः पद देनेका अभिप्राय यह है कि चन्द्रमामें प्रकाशके साथसाथ अमृतवर्षाकी शक्ति भी है। वह अमृत पहले चन्द्रलोकसे चन्द्रमण्डलमें आता है और फिर चन्द्रमण्डलसे भूमण्डलपर आता है।यहाँ ओषधीः पदके अन्तर्गत गेहूँ? चना आदि सब प्रकारके अन्न समझने चाहिये। चन्द्रमाके द्वारा पुष्ट हुए अन्नका भोजन करनेसे ही मनुष्य? पशु? पक्षी आदि समस्त प्राणी पुष्टि प्राप्त करते हैं। ओषधियों? वनस्पतियोंमें शरीरको पुष्ट करनेकी जो शक्ति है? वह चन्द्रमासे आती है। चन्द्रमाकी वह पोषणशक्ति भी उसकी अपनी न होकर भगवान्की ही है। भगवान् ही चन्द्रमाको निमित्त बनाकर सबका पोषण करते हैं। सम्बन्ध -- समष्टिशक्तिमें अपना प्रभाव बतानेके बाद अब भगवान् जिस शक्तिसे व्यष्टिजगत्में क्रियाएँ हो रही हैं? उस व्यष्टिशक्तिमें अपना प्रभाव बताते हैं।
।।15.13।। निसन्देह कृत्रिम उर्वरकों के आविष्कार के बहुत पूर्व से पृथ्वी का दीर्घ इतिहास रहा है। संभवत अतीत के कुछ युगों में वर्तमान समय से भी अधिक जनसंख्या इस पृथ्वी रही होगी। इस पर भी पृथ्वी ने जीवन को धारण कर रखा है। इस लोक के प्राणियों के धारणपोषण करने की पृथ्वी की क्षमता? उष्णता? खनिज द्रव्य आदि सभी भगवान् के ओजस्वरूप हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जो चैतन्य सूर्य की उपाधि में प्रकाश तथा उष्णता के रूप में व्यक्त होता है? वही चैतन्य पृथ्वी में उसकी उर्वरा शक्ति और जीवन को धारण करने वाली गुप्त पौष्टिकता के रूप में व्यक्त होता है।रसस्वरूप चन्द्रमा बनकर मैं औषधियों का पोषण करता हूँ वही एक चेतन तत्त्व चन्द्रमा के माध्यम से चन्द्रप्रकाश के रूप में व्यक्त होकर वनस्पतियों को पौष्टिक तत्त्वों से भर देता है। यदि इस कथन को पूर्व की पीढ़ी ने अस्वीकार किया होगा? तो आज की वैज्ञानिक शिक्षा पाये हुये विद्यार्थी गण इस कथन को चुनौती देने का साहस नहीं करेंगे। आधुनिक कृषि विज्ञान यह सिद्ध करता है कि ग्रहमण्डलों का? और विशेष रूप से चन्द्रमा का? कृषि की अनुमानित उपज से एक अटूट सम्बन्ध है आधुनिक प्रयोगों से प्राप्त विवरणानुसार जहाँ टमाटर के बीजों को पूर्णिमा के दिन बोया गया और पुन पूर्णिमा के दिन ही तोड़ा गया? तो वहाँ अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि टमाटर की उपज सामान्य की अपेक्षा अधिक हुई थी।यह एक सुविदित और सर्वत्र स्वीकृत तथ्य है कि बीजों के लिये सुरक्षित रखे गये धान को न केवल सूर्य के ताप में सुखाया जाता है? वरन् उसे चन्द्रमा के प्रकाश में भी रखा जाता है। प्राकृतिक तथा आयुर्वेदिक चिकित्सक भी कुछ औषधियों को किसी निश्चित अवधि तक चन्द्रमा के प्रकाश में रखते हैं? और उनका यह कथन है कि इससे उन औषधियों में रोगोपचार की क्षमता आ,जाती है।इस श्लोक में इन सभी तथ्यों को इंगित मात्र किया गया है? जिससे यह सिद्ध होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण का कथन अवैज्ञानिक नहीं है।भौतिक जगत् के सूर्य? चन्द्रमा और अग्नि ये ऊर्जा के स्रोत वस्तुत अनन्तस्वरूप परमात्मा ही हैं। सूर्य में यह प्रकाश है और चन्द्रमा में वह रसस्वरूप पोषक तत्त्व है। वही चैतन्य पृथ्वी में प्रवेश कर समस्त प्राणियों का धारणपोषण करने वाला बन जाता है।और
।।15.13।।इतश्च सर्वात्मत्वं प्रकृतपदस्य युक्तमित्याह -- किञ्चेति। ईश्वरो हि पृथिवीदेवतारूपेण पृथिवीं प्रविश्य भूतशब्दितं जगदैश्वरेणैव बलेन बिभर्ति। ततो गुर्व्यपि पृथिवी विदीर्य नाधो निपततीत्यत्र प्रमाणमाह -- तथाचेति। परस्यैव हिरण्यगर्भात्मनावस्थानान्न मन्त्रयोरन्यपरतेति भावः। देवतात्मना द्यावापृथिव्योरुग्रत्वमुद्धरणत्वसामर्थ्यं तथापीश्वरायत्तमेव स्वरूपधारणं तदपेक्षया दुर्बलत्वादिति द्रष्टव्यम्। ईश्वरस्य सर्वात्मत्वे हेत्वन्तरमाह -- किञ्चेति। रसात्मकसोमरूपतापत्तावपि कथमोषधीरीश्वरः सर्वाः पुष्णातीत्याशङ्क्याह -- सर्वेति।
।।15.13।।किंच यद्धलं कामरागविवर्जितमैश्वरं जगद्विधाराणाय पृथिव्यामाविष्टं येन गुर्वी पृथ्वी नाधः पतति नापि सिकतामुष्टिवज्जलोपरिस्थितापि विशीर्यते। तथाच मन्त्रवर्णःयेन द्योरुग्रा पृथिवी च दृढा इति?स दाधार पृथिवीं इति च? तेनौजसा बलेन गां पृथिवीमाविश्य प्रविश्य भूतानि चराचराणि धारयामि। किंच रसात्मकः सर्वरसस्वभावः सोमो भूत्वा स्वात्मरसावेशेन पृथिव्या जाता ओषधीः सर्वा व्रीहियवाद्याः पुष्णामि पुष्टिमती रसस्वादवतीश्च करोमि।
।।15.12 -- 15.14।।पूर्वोक्तमेव ज्ञानं प्रपञ्चयति -- यदादित्यगतमित्यादिना। गां भूमिम्।
।।15.13।।न केवलमादित्यादिगतप्रकाशनसामर्थ्यं मामकमपि तु पृथिव्यादिगतं भूतधारणव्यापनसामर्थ्यमपि मदीयमेवेत्याह -- गामिति। गां पृथिवीमाविश्य तां पृथिवीं दृढां कृत्वा भूतान्यहमेव धारयामि ओजसा बलेन। अन्यथा पृथिवी सिकतामुष्टिवद्विशीर्येत। तथा च मन्त्रवर्णःयेन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा इति।स दाधार पृथिवीं इति। च तथाहमेव सोमो रसात्मको जलात्मकःरसो जलं रसो हर्षः इत्यनेकार्थमञ्जरी। जलमयो भूत्वा सर्वा ओषधीः पुष्णामि च रसवतीः पुष्टाश्च करोमि। सोमो हि स्वात्मरसानुप्रवेशेन सर्वा ओषधीः पुष्णातीति प्रसिद्धम्।
।।15.13।।अहं पृथिवीम् आविश्य सर्वाणि भूतानि ओजसा मम अप्रतिहतसामर्थ्येन धारयामि। तथा अहम् अमृतरसमयः सोमो भूत्वा सर्वौषधीः पुष्णामि।
।।15.13।।किंच -- गामाविश्येति। गां पृथ्वीमोजसा बलेनाधिष्ठाय अहमेव चराचराणि भूतानि धारयामि? अहमेव रसमयः सोमो भूत्वा व्रीह्याद्यौषधीः सर्वाः संवर्धयामि।
।।15.13।।एवमन्येषामपि सर्वेषां तत्तद्विशेषकार्यजननशक्तिः स्वकीयेति पृथिवीसोमवैश्वानराणां धारणाप्यायनपचनशक्तिभिरुपलक्ष्यते? अन्यथा स्वशक्तिमात्रकथने प्रकृतवैरूप्यादित्यभिप्रायेणाहपृथिव्याश्च भूतधारिण्या धारकत्वशक्तिर्मदीयेति।सर्वाणीति -- चराणि स्थावराणि चेत्यर्थः। अन्ये हि पदार्थाः प्रतिघातिना संयोगेन धारयन्ति अतस्तद्व्यवच्छेदार्थंओजसा इति स्वासाधारणशक्तिनिर्देशः। तदभावे पृथिव्या धारकत्वशक्तिः प्रतिहन्येतेत्यभिप्रायेणाहममाप्रतिहतसामर्थ्येनेति। श्रूयते च येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा [यजुः.का.1।8।5] स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां [ऋक्सं.8।7।3।1] येनेमे विधृते उभे। विष्णुना विधृते भूमी एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि द्यावापृथिव्यौ विधृते तिष्ठतः [बृ.उ.3।8।9] इति। सोमत्वाकारोऽत्र रसात्मक इति विशेष्यते? तेन पोषणद्वारविवक्षामाह -- अमृतरसमयः सोमो भूत्वेति। अत्र विशेषणशक्त्या रसैः,पुष्णामीति गम्यते।
।।15.12 -- 15.14।।यदादित्येत्यादि चतुर्विधमित्यन्तम्। अर्कादितेजस्त्रयरूपतया दशमाध्यायसूचितसृष्टिस्थितिसंहार [कर्तृत्व] प्रकटीकरणे श्रीगुरवः प्राहुः (?N श्रीगुरवस्त्त्वाहुः) -- भूतपञ्चकस्य समस्तव्यस्ततया यल्लोकधारकत्वं ( लोकद्वयाधारकत्वं च) तद्भगवत एव माहेश्वर्यमित्येतदनेन [उक्तमिति]। तथाहि -- रवितेजसः प्रकाशकत्वं धारकत्वं च तेजोधराद्वयतादात्म्यात्। तदेतदुक्तम् यदादित्यगतम् इति गामाविश्य च इति चार्धद्वयेन। चान्द्रं तेजः प्रकाशकं पोषकं च? धराजलतेजोयोगात् (K. omits धरा)। तदुक्तम् यच्चन्द्रमसि इत्यनेन भागेन पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः (?N omit चौषधीः -- त्मकः) इति चार्धश्लोकेन। वाह्नं तु तेजः प्रकाशनशोषणदहनस्वेदनपचनात्मकं पृथिव्यप्तेजोवायुयोगात्। तदेतदिहोक्तम् (N तदेवेहोक्तम्) यच्चाग्नौ इत्यनेन? अहं वैश्वानरः इत्यनेन च (S??N इति श्लोकेन च)। नभस्तु बोधावकाशरूपतया सर्वगतमेव।
।।15.13 -- 15.14।।धेनोरावेशो न भूतधारणे कारणमित्यत आह -- गामिति।
।।15.13।।किंच गां पृथिवीं पृथिवीदेवतारूपेणाविश्य ओजसा निजेन बलेन पृथिवीं धूलिमुष्टितुल्यां दृढीकृत्य भूतानि पृथिव्याधेयानि वस्तून्यहमेव धारयामि। अन्यथा पृथिवी सिकतामुष्टिवद्विशीर्येताधो निमज्जेद्वा।येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा इति मन्त्रवर्णात्स दाधार पृथिवीं इति च हिरण्यगर्भभावापन्नं भगवन्तमेवाह। किंच रसात्मकः सर्वरसस्वभावः सोमो भूत्वा ओषधीः सर्वा व्रीहियवाद्याः पृथिव्यां जाता अहमेव पुष्णामि पुष्टिमतीः स्वादुमतीश्च करोमि।
।।15.13।।एवमेव सर्वरूपो भूत्वा सर्वं करोमीत्याह -- गामाविश्येति। गां पृथ्वीं ओजसा बलेन आविश्य अहं भूतानि धारयामि। अहमेव सोमः अमृतमयरसात्मको रसमयो भूत्वा औषधीः सर्वा व्रीह्यादिकाः भूतानां पृथ्वीरूपेण धृतानां रसपोषार्थं पुष्णामि पुष्टाः करोमि वर्धयामीत्यर्थः।
।।15.13।। -- गां पृथिवीम् आविश्य प्रविश्य धारयामि भूतानि जगत् अहम् ओजसा बलेन यत् बलं कामरागविवर्जितम् ऐश्वरं रूपं जगद्विधारणाय पृथिव्याम् आविष्टं येन पृथिवी गुर्वी न अधः पतति न विदीर्यते च। तथा च मन्त्रवर्णः -- येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा (तै0 सं0 4।1।8) इति? स दाधार पृथिवीम् (तै0 सं0 4।1।8) इत्यादिश्च। अतः गामाविश्य च भूतानि चराचराणि धारयामि इति युक्तमुक्तम्। किं च? पृथिव्यां जाताः ओषधीः सर्वाः व्रीहियवाद्याः पुष्णामि पुष्टिमतीः रसस्वादुमतीश्च करोमि सोमो भूत्वा रसात्मकः सोमः सन् रसात्मकः रसस्वभावः। सर्वरसानाम् आकरः सोमः। स हि सर्वरसात्मकः सर्वाः ओषधीः स्वात्मरसान् अनुप्रवेशयन् पुष्णाति।।किं च --,
।।15.13।।किञ्च सूर्यादिष्विव भूम्यादिष्वपि या धारणपोषणपाचनशक्तिः साऽपि मदीयेत्याह -- गामिति। ओजसा भुवमाविश्य भूतानि धारयामि तत्र धारणशक्तिर्मदंशतेजोभूता। पोषणशक्तिमाह -- सोम एव पुष्णामीति रसात्मकोऽमृतमयः सोमो भूत्वौषधीः व्रीह्याद्याः पुष्णामि। इदं च सोमोत्पत्तौ निरूपितम्।