द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।15.16।।
dvāv imau puruṣhau loke kṣharaśh chākṣhara eva cha kṣharaḥ sarvāṇi bhūtāni kūṭa-stho ’kṣhara uchyate
Two Purushas there are in this world: the perishable and the imperishable. All beings are perishable, and the Kutastha—the unchanging—is called the imperishable.
15.16 द्वौ two? इमौ these? पुरुषौ Purushas (beings)? लोके in the world? क्षरः the perishable? च and? अक्षरः the imperishable? एव even? च and? क्षरः the perishable? सर्वाणि all? भूतानि beings? कूटस्थः the immutable (unchanging)? अक्षरः the imperishable? उच्यते is called.Commentary Now the Lord describes the three aspects of the divine existence. One is the individual soul called the perishable? the second is the imperishable or the Maya Sakti of the Lord and the third is the Purushottama or the Supreme Being.The perishable comprises the whole world of changing forms. From Brahma down to the tiny blade of grass? all movable and immovable objects? all that can be thought of by the mind? all that is made up of the five elements? all that is changing? all that has names and forms? all that appears to the naked eye and what is described as the body and the modifications of the field? in the thirteenth chapter? are Kshara or the perishable. Kshara is the changing one. It is the everchanging form of matter which is inert or insentient. Akshara is the changeless.In Samsara there are two categories arranged in two separate groups of beings? called Purushas? as they are the limiting adjuncts of the Purusha. Maya Sakti? the illusory power of the Lord? is the seed from which the perishable being takes its birth. It is the seat of all the latent impressions of desires? actions? etc.? of various perishable creatures. Maya Sakti is the Akshara Purusha. The unmanifest condition is generally described as deep ignorance or sleep for there is neither consciousness nor unconsciousness. It is only a potential state. It is the condition in which all forms of life with its accompanying limitations lie latent? just as the tree lies latent in the seed of the fruit. In this state matter and energy are one. In this state sound? matter and energy exist in an undifferentiated state. In this state the Gunas exist in a state of eilibrium.The imperishable is known as the Kutastha? i.e.? that which remains immovable like a heap. That which is at the root (Kuta) of all these beings is the Kutastha. Or? Kuta also means illusion? and Kutastha means that which manifests itself in diverse forms of illusion. That which conceals the Truth and shows the false thing and deceives the worldyminded people is Maya or Kuta. That which is of the form of the AvaranaVikshepa Sakti (veiling and vacillating power) is Kutastha. As this Maya Sakti cannot be destroyed except by the knowledge of the Self? it is said to be endless. That is the reason why this is called Akshara. That seed of Samsara has no end. Therefore? it is said to be imperishable in the sense that it is not destroyed in the absence of knowledge of the Self. But the seed is scorched or destroyed in toto when one gets the knowledge of Brahman. The,illusion vanishes and everything is realised as the one Cosmic Consciousness. Only the illusory perception of matter is destroyed.Purushottama or the highest Purusha is distinct from these two -- the perishable and the imperishable. He is not affected by the evils of the two vehicles or limiting adjuncts of the perishable and the imperishable. He is eternal? pure? intelligent and free by nature.
।।15.16।। व्याख्या -- द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च -- यहाँ लोके पदको सम्पूर्ण संसारका वाचक समझना चाहिये। इसी अध्यायके सातवें श्लोकमें जीवलोके पद भी इसी अर्थमें आया है।इस जगत्में दो विभाग जाननेमें आते हैं -- शरीरादि नाशवान् पदार्थ (जड) और अविनाशी जीवात्मा (चेतन)। जैसे? विचार करनेसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि एक तो प्रत्यक्ष दीखनेवाला शरीर है और एक उसमें रहनेवाला जीवात्मा है। जीवात्माके रहनेसे ही प्राण कार्य करते हैं और शरीरका संचालन होता है। जीवात्माके साथ प्राणोंके निकलते ही शरीरका संचालन बंद हो जाता है और शरीर सड़ने लगता है। लोग उस शरीरको जला देते हैं। कारण कि महत्त्व नाशवान् शरीरका नहीं? प्रत्युत उसमें रहनेवाले अविनाशी जीवात्माका है।पञ्चमहाभूतों(आकाश? वायु? अग्नि? जल और पृथ्वी) से बने हुए शरीरादि जितने पदार्थ हैं? वे सभी जड और नाशवान् हैं। प्राणियोंके (प्रत्यक्ष देखनेमें आनेवाले) स्थूलशरीर स्थूल समष्टिजगत्के साथ एक हैं दस इन्द्रियाँ? पाँच प्राण? मन और बुद्धि -- इन सत्रह तत्त्वोंसे युक्त सूक्ष्मशरीर सूक्ष्म समष्टिजगत्के साथ एक हैं और कारणशरीर (स्वभाव? कर्मसंस्कार? अज्ञान) कारण समष्टिजगत्(मूल प्रकृति) के साथ एक हैं। ये सब क्षरणशील (नाशवान्) होनेके कारण क्षर नामसे कहे गये हैं।वास्तवमें व्यष्टि नामसे कोई वस्तु है ही नहीं केवल समष्टिसंसारके थोड़े अंशकी वस्तुको अपनी माननेके कारण उसको व्यष्टि कह देते हैं। संसारके साथ शरीर आदि वस्तुओंकी भिन्नता केवल (रागममता आदिके कारण) मानी हुई है? वास्तवमें है नहीं। मात्र पदार्थ? और क्रियाएँ प्रकृतिकी ही हैं (टिप्पणी प0 781.1)। इसलिये स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरकी समस्त क्रियाएँ क्रमशः स्थूल? सूक्ष्म और कारण समष्टिसंसारके हितके लिये ही करनी हैं? अपने लिये नहीं।जिस तत्त्वका कभी विनाश नहीं होता और जो सदा निर्विकार रहता है? उस जीवात्माका वाचक यहाँ अक्षरः पद है (टिप्पणी प0 781.2)। प्रकृति जड है और जीवात्मा (चेतन परमात्माका अंश होनेसे) चेतन है।इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्ने जिसका छेदन करनेके लिये कहा था? उस संसारको यहाँ क्षरः पदसे और सातवें श्लोकमें भगवान्ने जिसको अपना अंश बताया था? उस जीवात्माको यहाँ अक्षरः पदसे कहा गया है।यहाँ आये क्षर? अक्षर? और पुरुषोत्तम शब्द क्रमशः पुँल्लिङ्ग? स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग हैं। इससे यह समझना चाहिये कि प्रकृति? जीवात्मा और परमात्मा न तो स्त्री हैं? न पुरुष हैं और न नपुंसक ही हैं। वास्तवमें लिङ्ग भी शब्दकी दृष्टिसे है? तत्त्वसे कोई लिङ्ग नहीं है (टिप्पणी प0 781.3)।क्षर और अक्षर -- दोनोंसे उत्तम पुरुषोत्तम नामकी सिद्धिके लिये यहाँ भगवान्ने क्षर और अक्षर -- दोनोंको पुरुष नामसे कहा है।क्षरः सर्वाणि भूतानि -- इसी अध्यायके आरम्भमें जिस संसारवृक्षका स्वरूप बताकर उसका छेदन करनेकी प्रेरणा की गयी थी? उसी संसारवृक्षको यहाँ क्षर नामसे कहा गया है।यहाँ भूतानि पद प्राणियोंके स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरोंका ही वाचक समझना चाहिये। कारण कि यहाँ भूतोंको नाशवान् बताया गया है। प्राणियोंके शरीर ही नाशवान् होते हैं? प्राणी स्वयं नहीं। अतः यहाँ,भूतानि पद जड शरीरोंके लिये ही आया है।कूटस्थोऽक्षर उच्यते -- इसी अध्यायके सातवें श्लोकमें भगवान्ने जिसको अपना सनातन अंश बताया है? उसी जीवात्माको यहाँ अक्षर नामसे कहा गया है।जीवात्मा चाहे जितने शरीर धारण करे? चाहे जितने लोकोंमें जाय? उसमें कभी कोई विकार उत्पन्न नहीं होता वह सदा ज्योंकात्यों रहता है (गीता 8। 19 13। 31)। इसीलिये यहाँ उसको कूटस्थ कहा गया है।,गीतामें परमात्मा और जीवात्मा दोनोंके स्वरूपका वर्णन प्रायः समान ही मिलता है। जैसे परमात्माको (12। 3 में) कूटस्थ तथा (8। 4 में) अक्षर कहा गया है? ऐसे ही यहाँ (15। 16 में) जीवात्माको भी,कूटस्थ और अक्षर कहा गया है। जीवात्मा और परमात्मा -- दोनोंमें ही परस्पर तात्त्विक एवं स्वरूपगत एकता है।स्वरूपसे जीवात्मा सदासर्वदा निर्विकार ही है परन्तु भूलसे प्रकृति और उसके कार्य शरीरादिसे अपनी एकता मान लेनेके कारण उसकी जीव संज्ञा हो जाती है? नहीं तो (अद्वैतसिद्धान्तके अनुसार) वह साक्षात् परमात्मतत्त्व ही है।
।।15.16।। इस अध्याय के अब तक किये गये विवेचन से सिद्ध हो जाता है कि जिसे पूर्व के त्रयोदश अध्याय में क्षेत्र कहा गया था वह वस्तुत परमात्मा से भिन्न वस्तु नहीं है।जब वह परमात्मा सूर्य का प्रकाश और ताप? चन्द्रमा का शीतल प्रकाश? पृथ्वी की उर्वरा शक्ति? मनुष्य में ज्ञान? समृति और विस्मृति की क्षमता आदि के रूप में व्यक्त होता है? वस्तुत तब ये सब परमात्मस्वरूप ही सिद्ध होते हैं। परन्तु? इस प्रकार अभिव्यक्त होने में अन्तर केवल इतना होता है कि परमात्मा क्षेत्र के रूप में ऐसा प्रतीत होता है? मानो वह विकारी और विनाशी है। उदाहरणार्थ? स्वर्ण से बने सभी आभूषण स्वर्ण रूप ही होते हैं? परन्तु आभूषणों के रूप में वह स्वर्ण परिच्छिन्न और परिवर्तनशील प्रतीत होता है। इस प्रकार? सम्पूर्ण क्षेत्र को इस श्लोक में क्षर पुरुष कहा गया है।क्षेत्र को जानने वाले क्षेत्रज्ञ आत्मा को यहाँ अक्षर पुरुष कहा गया है। उसका अक्षरत्व इस चर जगत् की अपेक्षा से ही है। जैसे कोई व्यक्ति अपनी पत्नी की दृष्टि से पति और पुत्र की दृष्टि से पिता कहलाता है। इसी प्रकार? शरीर? मन और बुद्धि की परिवर्तनशील क्षर उपाधियों की अपेक्षा से इन सब के ज्ञाता आत्मा को अक्षर पुरुष कहते हैं।पुरुष शब्द का अर्थ है पूर्ण। केवल निरुपाधिक परमात्मा ही पूर्ण है। उपर्युक्त क्षर और अक्षर तत्त्व उसी पूर्ण पुरुष के ही दो व्यक्त रूप होने के कारण उन्हें भी पुरुष की संज्ञा दी गयी है।इस अव्यय और अक्षर आत्मा को वेदान्त में कूटस्थ कहते हैं। कूट का अर्थ है निहाई? जिसके ऊपर स्वर्ण को रखकर एक स्वर्णकार नवीन आकार प्रदान करता है। इस प्रक्रिया में स्वर्ण तो परिवर्तित होता है? परन्तु निहाई अविकारी ही रहती है। इसी प्रकार? उपाधियों के समस्त विकारों में यह आत्मा अविकारी ही रहता है? इसलिये उसे कूटस्थ कहते है।पूर्ण पुरुष? इन क्षर और अक्षर पुरुषों से भिन्न तथा इनके दोषों से असंस्पृष्ट नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव का है। भगवान् कहते है
।।15.16।।उत्तरश्लोकानां तात्पर्यं वक्तुं वृत्तं कीर्तयति -- भगवत इति। विशिष्टोपाधिराहित्यादिः। संप्रत्यध्यायसमाप्तेरुत्तरसंदर्भस्य तात्पर्यमाह -- अथेति। न केवलं निरुपाधिकात्मस्वरूपनिर्धारणायोत्तरग्रन्थः किंतु सर्वस्यैव गीताशास्त्रस्यार्थनिर्णयार्थमित्याह -- तत्रेति। क्षराक्षरोपाधिभ्यां परमात्मना च राशित्रयमुक्तेन सर्वात्मत्वेनाशुद्ध्यादिदोषप्रसक्तावुक्तं -- द्वाविमाविति। पुरुषोपाधित्वात्पुरुषत्वं न साक्षादिति विवक्षितत्वादाह --,पुरुषाविति। परं पुरुषं व्यावर्तयति -- भगवत इति। तत्र कार्यलिङ्गकमनुमानं सूचयति -- क्षराख्यस्येति। मायाशक्तिं विना भोक्तृ़णां कर्मादिसंस्कारा देवोक्तकार्योत्पत्तिरित्याशङ्क्य तस्य निमित्तत्वेऽपि मायाशक्तिरुपादानमिति मत्वाह -- अनेकेति। कामकर्मादीत्यादिशब्देन ज्ञानं गृह्यते। प्रकृतिं पुरुषं चैवेति प्रकृतयोरिह ग्रहणमिति शङ्कामाकाङ्क्षाद्वारा वारयति -- कौ ताविति। कूटशब्दार्थमुक्त्वा तेन स्थितस्य कूटस्थतेति संपिण्डितमर्थमाह -- अनेकेति। तस्य कथमक्षरत्वं विना ब्रह्मज्ञानमनाशादित्याह -- संसारेति।
।।15.16।।एवं यदादित्यगतं तेज इत्यादिना भगवत ईश्वरस्य नारायणाख्यस्य विभूतिसंक्षेपवर्णनेन सोपाधिकं स्वरुपमुक्त्वाथेदानीं तस्यैव परमात्मनः क्षराक्षरोपाधिविभक्त्या निरुपाधिकस्य केवलस्य स्वरुपनिर्धारणाय सर्वमेवातीतानागताध्यायार्थजातं त्रिधा राशीकृत्याह -- द्वाविति। क्षरक्षरोपाधिम्यां परमात्मना च राशित्रयं इमौ प्रत्यक्षादिना लोकेऽनुभूयमानौ पुरुषौ। कौ तौ पुरुषाविति तत्राह क्षरश्चाक्षर एव चेति क्षराक्षशब्दार्थं स्वयमेवाह भगवान्। क्षरः सर्वाणि भूतानि सर्वं विकारजातं क्षरतीति क्षरो विनाशी कूटस्थः कूटो राशिरिव स्थितः। यद्वा कूटात्मनाऽनेकमायावञ्चनादिप्रकारेण स्थितः कूटस्थः। संसारबीजानन्त्यान्न क्षरतीत्यक्षरो भगवतो मायाशक्तिः क्षराख्यस्योत्पत्तिबीजमनेकसंसारिजन्तुकामकर्मादिसंस्काराश्रयोऽक्षर उच्यते। यत्त्वपरे कूटः शिलाराशिः पर्वत इव देहेषु,नश्यत्स्वपि निर्विकारतया तिष्ठतीति कूटस्थश्चेतनो भोक्ता स तु अक्षरः पुरुष इत्युच्यते विवेकिभिरिति वर्णयन्ति तन्नोपादेयम् क्षेत्रज्ञस्यैवेह पुरुषोत्तमत्वेन प्रतिपाद्यत्वात्। अन्यथा क्षेत्रज्ञं तापि मां विद्धीत्यनेनोत्तमः पुरुषस्त्वन्य इत्यस्य विरोधापत्तेः।
।।15.16 -- 15.17।।क्षरः भूतानि ब्रह्मादीनि। कूटस्था प्रकृतिः। तथा च शार्कराक्षश्रुतिः -- प्रजापतिप्रमुखाः सर्वजीवाः क्षरोऽक्षरः पुरुषो वै प्रधानम्। तदुत्तमं चान्यमुदाहरन्ति जालाजालं मातरिश्वानमेकम् इति।
।।15.16।।सर्वशास्त्रहृदयं संगृह्णाति -- द्वाविमाविति। लोके प्रसिद्धौ इमौ द्वावेव पुरुषौ। क्षरो विनाशी स च सर्वाणि भूतानि प्राणवन्ति कर्मक्षये सुप्तिप्रलयकैवल्यादावुपाधिनाशमनु विनाशशीलो जीवो ब्रह्मप्रतिबिम्बभूतो जलार्कोपमः।प्रज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति इति श्रुतेः। कूटस्थो निर्विकारो मायोपाधिरक्षरः। तदुपाधेरकर्मत्वेन नाशासंभवात्। उपाधिदोषेणावशीकृतत्वाच्चासौ न क्षरति स्वरूपान्न च्यवत इत्यक्षरः।
।।15.16।।क्षरः च अक्षर एव च इति द्वौ इमौ पुरुषौ लोके प्रथितौ। तत्र क्षरशब्दनिर्दिष्टः पुरुषो जीवशब्दाभिलपनीय ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तक्षरणस्वभावाचित्संसृष्ट सर्वभूतानि अत्र अचित्सङ्गरूपैकोपाधिना पुरुषः इति एकत्वनिर्देशः।अक्षरशब्दनिर्दिष्टः कूटस्थः? अचित्संसर्गवियुक्तः? स्वेन रूपेण अवस्थितो मुक्तात्मा। स तु अचित्संसर्गाभावाद् अचित्परिणामविशेषब्रह्मादिदेहसाधारणो न भवति इति कूटस्थ इति उच्यते।अत्र अपि एकत्वनिर्देशः अचिद्वियोगरूपैकोपाधिना अभिहितः। न हि इतः पूर्वम् अनादौ काले मुक्त एक एव। यथा उक्तम् -- बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।। (गीता 4।10)मम साधर्म्यमागताः। सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।। (गीता 14।2) इति।
।।15.16।। इदानींतद्धाम परमं मम इति यदुक्तं तत्स्वकीयं सर्वोत्तमत्वं दर्शयति -- द्वाविमाविति त्रिभिः। क्षरश्चाक्षरश्चेति द्वाविमौ पुरुषौ लोके प्रसिद्धौ। तावेवाह। तत्र क्षरः पुरुषो नाम सर्वाणि भूतानि ब्रह्मादिस्थावरान्तानि शरीराणि? अविवेकिलोकस्य शरीरेष्वेव पुरुषत्वप्रसिद्धेः। कूटः शिलाराशिः पर्वत इव देहेषु नश्यत्स्वपि निर्विकारतया तिष्ठतीति कूटस्थश्चेतनो भोक्ता। स तु अक्षरः पुरुष इत्युच्यते विवेकिभिः।
।।15.16।।सर्ववेदसाररूपपुरुषोत्तमयाथात्म्यप्रतिपादनमुक्तेन सङ्गमयन्नवतारयति -- अतो मत्त एवेति। लोक्यतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या प्रमाणपरत्वमभिप्रेत्यप्रथितः इत्येतदनुषज्य वचनविपरिणामेन योजयति -- लोके प्रथिताविति। प्रमाणं च अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः [श्वे.उ.4।5] इत्यादिकमभिप्रेतम्। पुरुषशब्दनिर्दिष्टात्मनः स्वरूपेण क्षरत्वायोगाच्छरीरद्वारा तदित्यभिप्रेत्य तृतीयपादं व्याचष्टेतत्र क्षरशब्दनिर्दिष्ट इत्यादिना।क्षरः इत्येकत्वनिर्देशेनभूतानि इति बहुत्वनिर्देशस्तूपाधिकृत इति शङ्काव्युदासायाऽऽह -- अत्राचित्संसर्गेति। बद्धात्मनां स्वरूपतो भेदाभावे सर्वदुःखसुखप्रतिसन्धानं सर्वेषां स्यादिति भावः। कूटस्थशब्दोऽनेकसन्ततिमूलपुरुषे प्रसिद्धः स चात्र न परमपुरुषः?उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः [15।17] इति तस्य पृथग्वक्ष्यमाणत्वात्। नापि हिरण्यगर्भादिः? तस्य देहसम्बन्धित्वेन क्षरशब्दनिर्दिष्टत्वात् नापि मुक्तात्मा? रूढ्याद्यविषयत्वादित्यतस्तत्र योगवृत्तिमभिप्रेत्य मुक्तात्मपर इत्याह -- अचित्संसर्गवियुक्त इति। योगवृत्तिमुपपादयति -- स त्विति।ब्रह्मादिदेहेति -- ब्रह्मादिदेहसम्बन्धायत्तविचित्रसुखदुःखाद्यसाधारणाकारो न भवतीत्यर्थः। एतेन स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते [छा.उ.8।12।2] इति श्रुत्युक्तासङ्कुचितज्ञानैकाकारत्वलक्षणसाधारणाकारो भवतीत्युक्तं भवति। तथाच कूटवत्तिष्ठतीति कूटस्थ इति व्युत्पत्तिरपि सूचिता। साधारणाकारत्वमेवात्र कूटसादृश्यमिति भावः। अत्राप्येकत्वनिर्देश एकोपाधिक्रोडीकारनिबन्धन एवेत्याह -- अत्रापीति।निर्देश৷৷.अभिहित इत्येतत्पाकं पचति इतिवत् द्रष्टव्यम्। उक्तार्थे हेत्वभिप्रायेण मुक्तात्मबहुत्वं सप्रमाणमाह -- पूर्वमनादौ काल इति।
।।15.16 -- 15.18।।द्वावित्यादि पुरुषोत्तम इत्यन्तम्। द्वाविमौ पुरुषौ इति ग्रन्थेनेदमुच्यते -- लोके तावदप्रबुद्धस्वभावोऽपि सर्वः पृथिव्यादिभूतारब्धशरीरम् आत्मानं चेतनं क्षररूपं जानाति इति लोकस्य मूढत्वात् द्वैतधीर्न निवर्तते। अहं तु सकलानुग्राही द्वैतग्रन्थिं विभिद्य सकललोकव्यापकतया वेद्य इति। क्षरमतीतः? भूतानां जडत्वात्। अक्षरमतीतः? आत्मनोऽप्रबुद्धत्वे सर्वव्यापकत्वखण्डनात्। पुरुषोत्तमो लोके वेदेऽपि सः उत्तमः पुरुषः इत्यादिभिर्वाक्यैः स एव परमात्मा अद्वयः एवमुच्यते।
।।15.16 -- 15.17।।क्षराक्षरशब्दौ जडजीवार्थावित्यपव्याख्याननिरासार्थमाह -- क्षर इति। भूतग्रहणं युक्तिसूचनार्थम्। न हि जडमात्रे भूतशब्दो रूढः? किन्तु जीवेष्वपि। पुरुषशब्दस्य चैतदुपलक्षणम्। प्रकृतिश्चेतना।अक्षरं इति वक्तव्येकूटस्थः इति वचनमपि युक्तिसूचनार्थमेव। न हि जीवानां कूटस्थत्वमस्ति? सुखादिमत्त्वेन विकारित्वात्। श्रुतिसम्मत्याऽयमेवार्थ इत्याह -- तथा चेति।क्षरः इत्यनुवादेन प्रजापतीत्यादि व्याख्यानम्। अन्यं परमात्मानम्। क्षरान्तर्भूतोऽपि मातरिश्वा विवक्षाविशेषेणाक्षरोऽपि भवतीत्युच्यते -- जालेति। जालं संसारबन्धः सोऽस्यास्तीति जालःअर्श आदिभ्योऽच् [अष्टा.5।2।127] इति। तद्रहितश्चाजालः अभिमानाभावात्।
।।15.16।।एवं सोपाधिकमात्मानमुक्त्वा क्षराक्षरशब्दवाच्यकार्यकारणोपाधिद्वयवियोगेन निरुपाधिकं शुद्धमात्मानं प्रतिपादयति कृपया भगवानर्जुनाय त्रिभिः श्लोकैः -- द्वाविमावित्यादिना। द्वाविमौ पृथग्राशीकृतौ पुरुषो पुरुषोपाधित्वेन पुरुषशब्दव्यपदेश्यौ लोके संसारे। कौ तावित्याह। क्षरश्चाक्षर एव च क्षरतीति क्षरो विनाशी कार्यराशिरेकः पुरुषः। न क्षरतीत्यक्षरो विनाशरहितः। क्षराख्यस्य पुरुषस्योत्पत्तिबीजं भगवतो मायाशक्तिर्द्वितीयः पुरुषः। तौ पुरुषौ व्याचष्टे स्वयमेव भगवान्। क्षरः सर्वाणि भूतानि समस्तं कार्यजातमित्यर्थः। कूटस्थः कूटो यथार्थवस्त्वाच्छादनेनायथार्थवस्तुप्रकाशनं वञ्चनं मायेत्यनर्थान्तरं। तेनावरणविक्षेपशक्तिद्वयरूपेण स्थितः कूटस्थः भगवान्मायाशक्तिरूपः कारणोपाधिः संसारबीजत्वेनानन्त्यादक्षर उच्यते। केचित्तु क्षरशब्देनाचेतनवर्गमुक्त्वा कूटस्थोऽक्षर उच्यत इत्यनेन जीवमाहुस्तत्र सम्यक् क्षेत्रज्ञस्यैवेह पुरुषोत्तमत्वेन प्रतिपाद्यत्वात् तस्मात्क्षराक्षरशब्दाभ्यां कार्यकारणोपाधी उभावपि जडावेवोच्येते इत्येवमुक्तम्।
।।15.16।।अथ स्वज्ञापितस्वरूपज्ञानार्थं सपरिकरं स्वस्वरूपमाह -- द्वाविमाविति त्रिभिः। लोके प्रपञ्चस्थिते सर्वत्र द्वाविमावेव पुरुषौ सर्वपदार्थभोक्तारौ आधिभौतिकाध्यात्मरूपौ क्षरः अक्षरश्च। उभयोः स्वरूपमाह -- क्षरः पुरुषः सर्वाणि भूतानि ब्रह्मादिस्थावरान्तानि शरीराणि नानाविधानि लीलौपयिकलीलात्मकत्वेनानेकरूपाणि? क्षरशब्दवाच्यः पुरुषांशरूपः पुरुष इत्यर्थः। कूटः शिलासमूहः पर्वतस्तद्वत् सर्वपदार्थेषु शरीरादिषु विनश्यत्स्वपि तत्समूहस्थः अविनाशी भोक्ता मच्चरणात्मको यः? स अक्षरः पुरुष इत्यर्थः।
।।15.16।। --,द्वौ इमौ पृथग्राशीकृतौ पुरुषौ इति उच्येते लोके संसारे -- क्षरश्च क्षरतीति क्षरः विनाशी इति एको राशिः अपरः पुरुषः अक्षरः तद्विपरीतः? भगवतः मायाशक्तिः? क्षराख्यस्य पुरुषस्य उत्पत्तिबीजम् अनेकसंसारिजन्तुकामकर्मादिसंस्काराश्रयः? अक्षरः पुरुषः उच्यते। कौ तौ पुरुषौ इति आह स्वयमेव भगवान् -- क्षरः सर्वाणि भूतानि? समस्तं विकारजातम् इत्यर्थः। कूटस्थः कूटः राशी राशिरिव स्थितः। अथवा? कूटः माया वञ्चना जिह्मता कुटिलता इति पर्यायाः? अनेकमायावञ्चनादिप्रकारेण स्थितः कूटस्थः? संसारबीजानन्त्यात् न क्षरति इति अक्षरः उच्यते।।आभ्यां क्षराक्षराभ्यां अन्यः विलक्षणः क्षराक्षरोपाधिद्वयदोषेण अस्पृष्टः नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावः --,
।।15.16।।द्वाविमाविति। लोके क्षरश्चाक्षर एव चेति पुरुषौ प्रथितौ? न स्त्रीप्रकृतिकौ? नाप्यत्रान्यतरो स्त्रीप्रकृतिकः? केवलजडप्रकृतिकश्च पुरुषत्वेनैवोभयोर्निर्देशात्। एतेनाव्यक्तपदवाच्यस्याक्षरस्य स्त्रीरूपप्रकृतित्वं परोक्तमपास्तंएव च इत्यनेन स्वरूपतः क्षरोऽक्षर एवेति सूच्यते। क्षरत्वं च भगवदिच्छया प्रकृतिसंसर्गोपाधिकृतमेव? अतो जायते म्रियते इति प्रवाहः न वस्तुतः। तदेतत्स्वयं व्याचष्टेक्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते इति। सर्वाणि ब्रह्मादीनि स्तम्बपर्यन्तानि व्यष्टिभूतानि जीवशब्दाभिलपनीयानि भगवत्सदंशभूताचित्प्रकृतिसंसृष्टानि भवनादिक्रियाविषयत्वेन व्यपदिश्यमानानि क्षरः पुरुषः। अत्रैकत्वनिर्देशो व्यष्टीनां समष्ट्यैक्याशयेन अचित्संसर्गैकोपाधिना वेति केचित्। कूटस्थो मूलभूतः शुद्धः सच्चिदानन्दकः भगवद्धामादिपदवाच्योऽपि स महदादिषष्ठः कूटे भूतसमुदाये तिष्ठतीति वा। मूर्द्धन्यमणिरिव अविनाशी वाऽरेऽयमात्मा [बृ.उ.4।5।14] आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो निदिध्यासितव्यः [बृ.उ.2।4।54।5।6] इत्याद्यौपनिषज्ज्ञानेन साक्षात्कृतो योऽक्षरः पुरुष इत्युच्यते अत्रैकत्वनिर्देशो विराट्समष्टिमूलभूताभिप्रायेण (धामत्वाभिप्रायेण)। तद्वियोगरूपैकोपाधिना वेति केचित्। अयमप्युक्तः पूर्वं मुक्त्याधिगम्यः।बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः [4।10] इत्यत्राध्यात्मरूपः। वस्तुतस्तुचैत्यस्य तत्त्वममलं मणिमस्य कण्ठे [भाग.3।28।28] इति वाक्यात् कौस्तुभैक्यरूपेण मुख्यस्थितिरूप एवमुक्तिर्हित्वाऽन्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः इत्युच्यते इत्थं चावस्थानं भगवति दशमस्कन्धे भागवतेवीक्ष्यालकावृतमुखं [भाग.10।29।39] इत्यत्र श्रीमदाचार्यैर्दर्शितम्। एतेनैव क्षराक्षरस्वरूपनिरूपेण मतान्तरमपि प्रत्युक्तम्।