यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।15.18।।
yasmāt kṣharam atīto ’ham akṣharād api chottamaḥ ato ’smi loke vede cha prathitaḥ puruṣhottamaḥ
As I transcend the perishable and am even higher than the imperishable, I am declared to be the highest Purusha in the world and in the Vedas.
15.18 यस्मात् as? क्षरम् the perishable? अतीतः transcend? अहम् I? अक्षरात् than the imperishable? अपि also? च and? उत्तमः best? अतः therefore? अस्मि (I) am? लोके in the world? वेदे in the Vedas? च and? प्रथितः declared? पुरुषोत्तमः the Highest Purusha.Commentary Purushottama is a wellknown name of the Lord. The name is ite appropriate as He is the supreme Purusha.Kshara The perishable -- the tree of Samsara.Akshara The imperishable -- the seed of the tree of Samsara.Because I excel the perishable (the tree of illusory Samsara) and am more excellent also than the imperishable (the seed of the tree of the illusory Samsara) and because I am thus superior to the perishable and the imperishable? I am proclaimed in the world and in the Vedas as the highest Purusha. Devotees know Me as such. Poets also describe Me as such.I am beyond all limitations. There is no trace of dualism in Me. Therefore? I am called by all and by the scriptures the highest Purusha.
।।15.18।। व्याख्या -- यस्मात्क्षरमतीतोऽहम् -- इन पदोंमें भगवान्का यह भाव है कि क्षर (प्रकृति) प्रतिक्षण परिवर्तनशील है और मैं नित्यनिरन्तर निर्विकाररूपसे ज्योंकात्यों रहनेवाला हूँ। इसलिये मैं क्षरसे सर्वथा अतीत हूँ।शरीरसे पर (व्यापक? श्रेष्ठ? प्रकाशक? सबल? सूक्ष्म) इन्द्रियाँ हैं? इन्द्रियोंसे पर मन है और मनसे पर बुद्धि है (गीता 3। 42)। इस प्रकार एकदूसरेसे पर होते हुए भी शरीर? इन्द्रियाँ? मन और बुद्धि एक ही जातिके? जड हैं। परन्तु परमात्मतत्त्व इनसे भी अत्यन्त पर है क्योंकि वह जड नहीं है? प्रत्युत चेतन है।अक्षरादपि चोत्तमः -- यद्यपि परमात्माका अंश होनेके कारण जीवात्मा(अक्षर) की परमात्मासे तात्त्विक एकता है? तथापि यहाँ भगवान् अपनेको जीवात्मासे भी उत्तम बताते हैं। इसके कारण ये हैं -- (1) परमात्माका अंश होनेपर भी जीवात्मा क्षर(जड प्रकृति) के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है (गीता 15। 7) और प्रकृतिके गुणोंसे मोहित हो जाता है? जबकि परमात्मा (प्रकृतिसे अतीत होनेके कारण) कभी मोहित नहीं होते (गीता 7।13)। (2) परमात्मा प्रकृतिको अपने अधीन करके लोकमें आते? अवतार लेते हैं (गीता 4। 6)? जबकि जीवात्मा प्रकृतिके वशमें होकर लोकमें आता है (गीता 8। 19)। (3) परमात्मा सदैव निर्लिप्त रहते हैं? (गीता 4। 14 9। 9)? जबकि जीवात्माको निर्लिप्त होनेके लिये साधन करना पड़ता है (गीता 4। 18 7। 14)।भगवान्द्वारा अपनेको क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम बतानेसे यह भाव भी प्रकट होता है कि क्षर और अक्षर -- दोनोंमें भिन्नता है। यदि उन दोनोंमें भिन्नता न होती? तो भगवान् अपनेको या तो उन दोनोंसे ही अतीत बताते या दोनोंसे ही उत्तम बताते। अतः यह सिद्ध होता है कि जैसे भगवान् क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम हैं? ऐसे ही अक्षर भी क्षरसे अतीत और उत्तम है।अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः -- यहाँ लोके पदका अर्थ है -- पुराण? स्मृति आदि शास्त्र। शास्त्रोंमें भगवान् पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हैं।शुद्ध ज्ञानका नाम वेद है? जो अनादि है। वही ज्ञान आनुपूर्वीरूपसे ऋक्? यजुः आदि वेदोंके रूपसे प्रकट हुआ है। वेदोंमें भी भगवान् पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हैं।पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा था कि क्षर और अक्षर -- दोनोंसे उत्तम पुरुष तो अन्य ही है। वह उत्तम पुरुष कौन है -- इसको बताते हुए भगवान् यह रहस्य प्रकट करते हैं कि वह उत्तम पुरुष -- पुरुषोत्तम मैं ही हूँ।विशेष बात(1) भौतिक सृष्टिमात्र क्षर (नाशवान्) है और परमात्माका सनातन अंश जीवात्मा अक्षर (अविनाशी) है। क्षरसे अतीत और उत्तम होनेपर भी अक्षरने क्षरसे अपना सम्बन्ध मान लिया -- इससे बढ़कर और कोई दोष? भूल या गलती है ही नहीं। क्षरके साथ यह सम्बन्ध केवल माना हुआ है? वास्तवमें एक क्षण भी रहनेवाला नहीं है। जैसे बाल्यावस्थासे अबतक शरीर बिलकुल बदल गया? फिर भी हम कहते हैं कि मैं वही हूँ। यह भी हम नहीं बता सकते कि अमुक दिन बाल्यावस्था खत्म हुई और युवावस्था शुरू हुई। कारण कि नदीके प्रवाहकी तरह शरीर निरन्तर ही बहता रहता है? जब कि अक्षर (जीवात्मा) नदीमें स्थित शिला(चट्टान) की तरह सदा अचल और असङ्ग रहता है। यदि अक्षर भी क्षरकी तरह निरन्तर परिवर्तनशील और नाशवान् होता तो इसकी आफत मिट जाती। परन्तु स्वयं (अक्षर) अपरिवर्तनशील और अविनाशी होते हुए भी निरन्तर परिवर्तनशील और नाशवान् क्षरको पकड़ लेता है -- उसको अपना मान लेता है। होता यह है कि अक्षर क्षरको छोड़ता नहीं और क्षर एक क्षण भी ठहरता नहीं। इस आफतको मिटानेका सुगम उपाय है -- क्षर(शरीरादि) को क्षर(संसार) की ही सेवामें लगा दिया जाय -- उसको संसाररूपी वाटिकाकी खाद बना दी जाय।मनुष्यको शरीरादि नाशवान् पदार्थ अधिकार करने अथवा अपना माननेके लिये नहीं मिले हैं? प्रत्युत सेवा करनेके लिये ही मिले हैं। इन पदार्थोंके द्वारा दूसरोंकी सेवा करनेकी ही मनुष्यपर जिम्मेवारी है? अपना माननेकी बिलकुल जिम्मेवारी नहीं।(2) पन्द्रहवें अध्यायमें भगवान्ने पहले क्षर -- संसारवृक्षका वर्णन किया। फिर उसका छेदन करके परम पुरुष परमात्माके शरण होने अर्थात् संसारसे अपनापन हटाकर एकमात्र परमात्माको अपना माननेकी प्रेरणा की। फिर अक्षर -- जीवात्माको अपना सनातन अंश बताते हुए उसके स्वरूपका वर्णन किया। उसके बाद भगवान्ने (बारहवेंसे पन्द्रहवें श्लोकतक) अपने प्रभावका वर्णन करते हुए बताया कि सूर्य? चन्द्र और अग्निमें मेरा ही तेज है मैं ही पृथ्वीमें प्रविष्ट होकर अपनी शक्तिसे चराचर सब प्राणियोंको धारण करता हूँ मैं ही अमृतमय चन्द्रके रूपसे सम्पूर्ण वनस्पतियोंको पुष्ट करता हूँ वैश्वानर अग्निके रूपमें मैं ही प्राणियोंके शरीरमें स्थित होकर उनके द्वारा खाये हुए अन्नको पचाता हूँ मैं ही सब प्राणियोंके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विद्यमान हूँ मेरेसे ही स्मृति? ज्ञान और अपोहन (भ्रम? संशय आदि दोषोंका नाश) होता है वेदादि सब शास्त्रोंके द्वारा,मैं ही जाननेयोग्य हूँ और वेदोंके अन्तिम सिद्धान्तका निर्णय करनेवाला तथा वेदोंको जाननेवाला भी मैं ही हूँ। इस प्रकार अपना प्रभाव प्रकट करनेके बाद इस श्लोकमें भगवान् यह गुह्यतम रहस्य प्रकट करते हैं कि जिसका यह सब प्रभाव है? वह (क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम) पुरुषोत्तम मैं (साक्षात् साकाररूपसे प्रकट श्रीकृष्ण) ही हूँ।भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनपर बहुत विशेष कृपा करके ही अपने रहस्यकी बात अपने मुखसे प्रकट की है जैसे -- कोई पिता अपने पुत्रके सामने अपनी गुप्त सम्पत्ति प्रकट कर दे अथवा कोई आदमी किसी भूलेभटके मनुष्यको अपना परिचय दे दे कि जिसके लिये तू भटक रहा है? वह मैं ही हूँ और तेरे सामने बैठा हूँ, सम्बन्ध -- चौदहवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें भगवान्ने जिस अव्यभिचारिणी भक्तिकी बात कही थी और जिसको प्राप्त करानेके लिये इस पन्द्रहवें अध्यायमें संसार? जीव और परमात्माका विस्तृत विवेचन किया गया? उसका अब आगेके श्लोकमें उपसंहार करते हैं।
।।15.18।। जैसा कि पूर्व के दो श्लोकों के विवेचन में कहा गया है कि एक परमात्मा ही परिवर्तनशील जगत् के रूप में क्षर और उस जगत् के अपरिवर्तनशील ज्ञाता के रूप में अक्षर कहलाता है। यह सर्वविदित है कि एक अपरिवर्तनशील वस्तु के बिना अन्य परिवर्तनों का ज्ञान होना संभव नहीं होता है। अत यदि शरीर? मन? बुद्धि और बाह्य जगत् के विकारों का हमें बोध होता है? तो उससे ही इस अक्षर का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है? जो स्वयं कूटस्थ रहकर अन्य विचारों को प्रकाशित करता है।यह भी स्पष्ट हो जाता है कि केवल क्षर की दृष्टि से ही परमात्मा को अक्षर का विशेषण प्राप्त हो जाता है? अन्यथा वह स्वयं निर्विशेष ही है।इसलिये यहाँ भगवान् कहते हैं? क्षर और अक्षर से अतीत होने के कारण लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ। अर्थात् भगवान् पूर्ण होने से पुरुष है तथा क्षर और अक्षर से अतीत होने से उत्तम भी है? इसलिये वेदों में तथा लोक में भी कवियों और लेखकों ने उन्हें पुरुषोत्तम नाम से भी संबोधित और निर्देशित किया है।अब? परमात्मा के ज्ञान का फल बताते हुये कहते है
।।15.18।।किञ्च लोकवेदयोर्भगवतो नामप्रसिद्ध्या सिद्धमप्रपञ्चत्वमित्याह -- यथेति। अश्वकर्णादिवदस्य नाम्नो रूढत्वादर्थविशेषाभावाद्भगवतोऽपि लौकिकेश्वरवदीश्वरत्वं सातिशयमिति नेत्याह -- तस्येति। यस्मादित्यस्यापेक्षितं निक्षिपति -- अत इति। उत्तमः पुरुष इति वाक्यशेषः।
।।15.18।।अतएव क्षराक्षराभ्यामुत्तम इति। मम नाम्नो निर्वचनप्रसिद्धिरर्थवतीत्याह। यस्मात्क्षरं संसारमायावृक्षं अश्वत्थाख्यमतीतोऽहमक्षरादपि तद्वीजभूतान्मायासंज्ञकादपि चोत्तमः उत्कृष्टमः ऊर्ध्वतमो वा? अतः क्षराक्षराभ्यामुत्तमत्वाद्धेतोर्लोके कविकाव्यातौ वेदे च पुरुषोत्तमः प्रथितः प्रख्यातःहरिर्यथैकः पुरुषोत्तमः स्मतःस उत्तमः पुरुषः इत्यादिलोकवेदप्रसिद्धा पुरुषोत्तम इति मां भक्तजाना विदुः।
।।15.18।।यस्मादिति। क्षरं उपाधिं अक्षरं च उपाधिं अतीतोऽतिक्रम्य स्थितोऽहमतोऽक्षरादपि चेति चशब्दात् क्षरादपि उत्तम उत्कृष्टतमः। जडात्क्षररूपादुपाधेरुत्कृष्टस्तदुपहितो जीवश्चेतनत्वात्? ततोऽप्युत्कृष्टतरो मायोपाधिः स्वतन्त्रत्वात्? ततोऽप्युत्कृष्टतमोऽनुपाधिरनागन्तुकरूपत्वात्? अक्षरार्थः स्पष्टः।
।।15.18।।यस्माद् एवम उक्तैः स्वभावैः क्षरं पुरुषम् अतीतः अहम्? अक्षरात् मुक्ताद् अपि उक्तैः हेतुभिः उत्कृष्टतमः? अतः अहं लोके वेदे च पुरुषोत्तमः इति प्रथितः अस्मि। वेदार्थावलोकनात् लोक इति स्मृतिः इह उच्यते। श्रुतौ स्मृतौ च इत्यर्थः।श्रुतौ तावत् -- परं ज्योतिरूपं संपद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते स उत्तमः पुरुषः (छ0 उ0 8।12।3) इत्यादौ। स्मृतौ अपिअंशावतारं पुरुषोत्तमस्य ह्यनादिमध्यान्तमजस्य विष्णोः। (वि0 पु 5।17।33) इत्यादौ।
।।15.18।। एवंभूतं पुरुषोत्तमत्वमात्मनो नामनिर्वचनेन दर्शयति -- यस्मादिति। यस्मात्क्षरं जडवर्गमतिक्रान्तोऽहं नित्यमुक्तत्वात्? अक्षराच्चेतनवर्गादप्युत्तमश्च नियन्तृत्वात्? अतो लोके वेदे च पुरुषोत्तम इति प्रथितः प्रख्यातोऽस्मि। तथाच श्रुतिःस वा अयमात्मा सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशास्ति इत्यादिः।
।।15.18।।एवं प्रतिज्ञातमन्यत्वं श्रुतिस्मृतिप्रसिद्धधात्वर्थया समाख्यया स्थापितम् तदेव पुनस्तथाभूतसमाख्यान्तरेणउत्तमः पुरुषः इत्यनुवादस्मारितेन स्थिरीक्रियतेयस्मात् इतिश्लोकेन। एतेन पूर्वश्लोके पराक्त्वनिर्देशोऽपि स्वविषय एवेति दर्शितम्। अत्रयतोऽसावग्निमान्? अतएव धूमवान् इत्यादिवत्साध्यमेव साधकं प्रति नियामकतया हेतुर्व्यपदिश्यते। तच्च साध्यं सहेतुकमिह समाख्यानिदानमित्यभिप्रायेणाहयस्मादेवमुक्तैः स्वभावैरिति।क्षरमतीतः इति तत्स्वभावगन्धानाघ्रातत्वमुच्यते। अत्रापि क्षरशब्दः प्रस्तुतैकार्थ्यान्न प्रधानविषय इत्याहक्षरं पुरुषमिति। अक्षरशब्दस्य प्रधानेश्वरादिष्वपि प्रयोगात्तद्व्यवच्छेदायकूटस्थोऽक्षरः [15।16] इत्युक्तैकार्थ्यमाहअक्षरान्मुक्तादिति। एतेन पुरुषोत्तमशब्दनिरुक्तिरप्यत्र दर्शिता।उक्तैर्हैतुभिरिति -- षष्ठी हेतुप्रयोगे [अष्टा.2।3।26] इति नियमस्य प्रयोजनरूपहेतुविषयतयैव प्रयोगप्राचुर्यान्न तृतीययानुपपत्तिः। उत्तमशब्दे प्रकृतिप्रत्ययभेदेन विवक्षितमाह -- उत्कृष्टतम इति। मुक्तो हि बद्धादुत्कृष्टः ततोऽप्यसौ सर्वान्तरात्मत्वादिभिरुक्तैर्हेतुभिरुत्कृष्टतमः। प्रथितशब्देन केवलप्रधनविधेः प्रकृतानन्वयात्सविशेषणोऽसौ विशेषणोपसंक्रामीत्यभिप्रायेणपुरुषोत्तम इतीति इतिकरणम्। नात्र लोकशब्दो भुवनविषयः? जनविषयो वा तत्र प्रकृतनिरुक्तिविवक्षाप्रमाणत्वासम्भवात्। नच काव्यादिप्रयोगपरता? तत्राप्यतितरां स्वारस्याभावात्। अतो वेदसहपाठात्तदनुवर्तिस्मृतिपरोऽयम्। तत्र च लोक्यतेऽनेन वेदार्थ इति व्युत्पत्त्या वृत्तिरित्यभिप्रायेणाह -- वेदार्थावलोकनादिति।श्रुतौ स्मृतौ चेत्यर्थ इति। अयमभिप्रायः -- श्रूयते नित्यमिति हि श्रुतिः। अतो वक्तृदोषप्रसङ्गाभावादशिथिलसम्प्रदायत्वाच्च तदुक्तं तावत्प्रामाणिकमेव। स्मृतिरप्यल्पश्रुतैर्दुरवबोधसकलशाखानुगतमर्थं सङ्कलव्योपबृंहयन्ती परमात्मतममन्वादिप्रणीता प्रमाणमेवेति तया वेदार्थावलोकनं युक्तम् -- इति।परं ज्योतिरुपसम्पद्य इति मुक्तोपसम्पत्तव्यतया निर्दिष्टो निरतिशयदीप्तियुक्तः पुरुष एवात्र स उत्तमः पुरुषः इति परामृश्य विशेष्यते तदुपबृंहणाय हिउत्तमः पुरुषस्त्वन्यः [15।17] इति तत्तुल्यव्यस्तप्रयोगोऽयं प्रदर्शित इत्यभिप्रायेणपरं ज्योतिः इत्यादिवाक्योदाहरणम्। अत्रप्रथितः पुरुषोत्तमः इत्युक्तसमस्तप्रयोगप्रदर्शनार्थतयाअंशावतारं पुरुषोत्तमस्य [वि.पु.5।17।33] इति स्मृत्युदाहृतिः। अत्रविष्णोः इति संज्ञानिर्देशेऽपिपुरुषोत्तमस्य इति विशेषणैकार्थ्यस्य विवक्षितत्वाद्योगरूढोऽयं शब्द इति सिद्धम्। एतेनरूढ्या तु कामं पुरुषोत्तमोऽस्तु इति प्रलपन् वेदबाह्यः प्रत्युक्तः। ननु कथं यौगिकार्थविवक्षायामस्य साधुता न तावदसौ समानाधिकरणसमासःसन् महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः पूज्यमानैः [अष्टा.2।1।61] इति प्रथमानिर्दिष्टस्योत्तमशब्दस्योपसर्जनतया पूर्वनिपातापातात्। नापि व्यधिकरणः। उत्तमः पुरुष इवेत्युपमितविवक्षानुपपत्तेः तदर्थतयोदाहृतायां श्रुतावपि वैयधिकरण्यादर्शनात्। नचासौ षष्ठीसमासः? निर्धारणे तन्निषेधात् नचान्यस्यापीह सम्भव इति। मैवं? षष्ठीसमासस्यैवात्र युक्तत्वात् नहि वयमत्र निर्धारणार्थतां ब्रूमः। पुत्रादिवत्सम्बन्धिशब्दो ह्यसौ। अधमादिसापेक्षं ह्युत्तमत्वम्। इदं च सूचितम् -- उक्तैर्हेतुभिरुत्कृष्टतम इति जातिगुणाद्यसम्बन्धिशब्देषु हि निर्धारणे षष्ठी। सम्बन्धसामान्यविहिता च षष्ठी तत्तत्सम्बन्धिशब्दसमभिव्याहारानुरोधेन तत्सम्बन्धविशेषं प्रतिपादयति। एवमेव हि नागोत्तमादिशब्दानां साधुत्वं वैयाकरणैर्व्याख्यातम्। अत्र चउत्तमः पुरुषस्त्वन्यः [15।17]क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः इति चार्थकथनमात्रं? न तु तत्समासांशद्वयविवक्षा। एवमेव स उत्तमः पुरुषः इति श्रुत्युदाहरणमपि। केचित्तु पञ्चमीसमासं व्याकुर्वते। न चोत्तमशब्दयोगे पञ्चमी न शिष्टेति वाच्यं यथायस्मादधिकम् [अष्टा.2।3।9] इत्यादिसौत्रप्रयोगादशिष्टस्यापि परिग्रहःएवमक्षरादपि चोत्तमः इत्यादिप्रयोगबलादेव तत्परिग्रहोपपत्तेः। इदमपि सूचितंमुक्तादप्युक्तैर्हेतुभिरुत्कृष्टतम इति। योगविभागाच्च पञ्चम्या उत्तमादिशब्दैः समासोऽप्यनुशिष्ट एव। एवं सप्तमीसमासत्वेऽपि न दोषः? शौण्डादिष्वपठितत्वेऽपि तत्रापि योगविभागाभ्यनुज्ञानादेव तदुपपत्तेः। एतत्सर्वं विजानद्भिर्महाकविभिरपि विवक्षितयोग एवायं प्रयुज्यते प्रतिपाद्यते च। तथाऽऽदिकाव्येन च तेन विना निद्रां लभते पुरुषोत्तमः [वा.रा.1।18।30] इति। तदेतत्सर्वमभिसन्धाय भगवद्यामुनमुनिभिरुक्तं स्तोत्रेकः पुण्डरीकनयनः पुरुषोत्तमः कः इति।
।।15.16 -- 15.18।।द्वावित्यादि पुरुषोत्तम इत्यन्तम्। द्वाविमौ पुरुषौ इति ग्रन्थेनेदमुच्यते -- लोके तावदप्रबुद्धस्वभावोऽपि सर्वः पृथिव्यादिभूतारब्धशरीरम् आत्मानं चेतनं क्षररूपं जानाति इति लोकस्य मूढत्वात् द्वैतधीर्न निवर्तते। अहं तु सकलानुग्राही द्वैतग्रन्थिं विभिद्य सकललोकव्यापकतया वेद्य इति। क्षरमतीतः? भूतानां जडत्वात्। अक्षरमतीतः? आत्मनोऽप्रबुद्धत्वे सर्वव्यापकत्वखण्डनात्। पुरुषोत्तमो लोके वेदेऽपि सः उत्तमः पुरुषः इत्यादिभिर्वाक्यैः स एव परमात्मा अद्वयः एवमुच्यते।
।।15.18।।इदानीं यथाव्याख्यातेश्वरस्य क्षराक्षरविलक्षणस्य पुरुषोत्तम इत्येतत्प्रसिद्धनामनिर्वचनेन ईदृशः परमेश्वरोऽहमेवेत्यात्मानं दर्शयति भगवान् ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहं तद्धाम परमं ममेत्यादिप्रागुक्तनिजमहिमनिर्धारणाय -- यस्मादिति। यस्मात् क्षरं कार्यत्वेन विनाशिनं मायामयं संसारवृक्षमश्वत्थाख्यमतीतोऽतिक्रान्तोऽहं परमेश्वरोऽक्षरादपि मायाख्यादव्याकृतात्अक्षरात्परतः परः इति पञ्चम्यन्ताक्षरपदेन श्रुत्या प्रतिपादितात्संसारवृक्षबीजभूतात्सर्वकारणादपि चोत्तम उत्कृष्टतमः। अतः क्षराक्षराभ्यां पुरुषोपाधिभ्यामध्यासेन पुरुषपदव्यपदेश्याभ्यामुत्तमत्वादस्मि भवामि लोके वेदे च प्रथितः प्रख्यातः पुरुषोत्तम इति स उत्तमः पुरुष इति वेद उदाहृत एव। लोके च कविकाव्यादौहरिर्यथैकः पुरुषोत्तमः स्मृतः इत्यादिप्रसिद्धंकारुण्यतो नरवदाचरतः परार्थान्पार्थाय बोधितवतो निजमीश्वरत्वम्। सच्चित्सुखैकवपुषः पुरुषोत्तमस्य नारायणस्य महिमा न हि मानमेति।केचिन्निगृह्य करणानि विसृज्य भोगमास्थाय योगममलात्मधियो यतन्ते। नारायणस्य महिमानमनन्तपारमास्वादयन्नमृतसारमहं तु मुक्तः।
।।15.18।।तद्रूपश्चाऽयमेवातः सोऽहमेवेत्याह -- यस्मादिति। यस्मात् क्षरं जडादिदेहधर्मं अतीतोऽतिक्रान्तोऽहं परिदृश्यमान आनन्दरूपः। अक्षरादपि कूटस्थचेतनात्मकादपि उत्तमोऽस्मि? अतो लोके चतुर्दशभुवनात्मके? वेदे? चकारेण सूत्रस्मृत्यादिष्वपि पुरुषोत्तमः प्रथितः कथितो विख्यात इति भावः।
।।15.18।। --,यस्मात् क्षरम् अतीतः अहं संसारमायावृक्षम् अश्वत्थाख्यम् अतिक्रान्तः अहम् अक्षरादपि संसारमायारूपवृक्षबीजभूतादपि च उत्तमः उत्कृष्टतमः ऊर्ध्वतमो वा? अतः ताभ्यां क्षराक्षराभ्याम् उत्तमत्वात् अस्मि लोके वेदे च प्रथितः प्रख्यातः। पुरुषोत्तमः इत्येवं मां भक्तजनाः विदुः। कवयः काव्यादिषु च इदं नाम निबध्नन्ति। पुरुषोत्तम इत्यनेनाभिधानेनाभिगृणन्ति।।अथ इदानीं यथानिरुक्तम् आत्मानं यो वेद? तस्य इदं फलम् उच्यते --,
।।15.18।।एवम्भूतं पुरुषोत्तमत्वं स्वस्य निरुक्त्या स्वयं निर्दिशति -- यस्मादिति। क्षरमतिक्रम्येतः अक्षरादपि चोत्तम इति अतो लोके वेदे च प्रथितोऽहं पुरुषोत्तम इति पुरुषाभ्यां क्षराक्षराभ्यां उत्तम इत्येवं वेदे ब्रह्मविदाप्नोति परं [तै.उ.2।1] इति श्रुतौ लोके च माहात्म्यदर्शनात् अतः सच्चिदानन्दाकृतिरेवाहं परिदृश्यमानोऽपि? प्रतीत्यन्तरं तु माययेति सिद्धान्तः।