यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।।15.19।।
yo mām evam asammūḍho jānāti puruṣhottamam sa sarva-vid bhajati māṁ sarva-bhāvena bhārata
He who, undeluded, knows Me as the highest Purusha, he, knowing all, worships Me with his whole being (heart), O Arjuna.
15.19 यः who? माम् Me? एवम् thus? असम्मूढः undeluded? जानाति knows? पुरुषोत्तमम् the Supreme Purusha? सः he? सर्ववित् allknowing? भजति worships? माम् Me? सर्वभावेन with his whole being (heart)? भारत O Bharata.Commentary The glory of the knowledge of the Self is described in this verse.Asammudhah Undeluded? free from delusion. The undeluded does not identify himself with the physical body. He never looks upon the physical body? the lifeforce? senses? mind? intellect and the causal body as the Self or as belonging to himself? because he is resting in his own essential nature as ExistenceKnowledgeBliss Absolute and because he identifies himself with Brahman or the Supreme Being.That aspirant who knows that Sri Krishna is not a human being and that He is the highest Purusha or the Supreme Being is undeluded. Such an aspirant or devotee alone worships Him with his whole being. He is the Sarvavit or Sarvajna? allknower. He knows and realises that Lord Krishna? the supreme Lord? is the Inner Self of all beings. He beholds the One in the many? and the many in the One. For him there is neither high nor low? neither pleasure nor pain? neither virtue nor vice? neither good nor evil? neither likes nor dislikes.Me The Lord as specified above.Sarvavit One who knows everything in detail.Knows that I am He.Sarvabhavena With all his heart? with his whole being? wholeheartedly with his whole thought devoted exclusively to the Self of all with his whole mind centred on the Supreme Self alone.
।।15.19।। व्याख्या -- यो मामेवमसम्मूढः -- जीवात्मा परमात्माका सनातन अंश है। अतः अपने अंशी परमात्माके वास्तविक सम्बन्ध(जो सदासे ही है) का अनुभव करना ही उसका असम्मूढ़ (मोहसे रहित) होना है।संसार या परमात्माको तत्त्वसे जाननेमें मोह (मूढ़ता) ही बाधक है। किसी वस्तुकी वास्तविकताका ज्ञान तभी हो सकता है? जब उस वस्तुसे राग या द्वेषपूर्वक माना गया कोई सम्बन्ध न हो। नाशवान् पदार्थोंसे रागद्वेषपूर्वक सम्बन्ध मानना ही मोह है।संसारको तत्त्वसे जानते ही परमात्मासे अपनी अभिन्नताका अनुभव हो जाता है और परमात्माको तत्त्वसे जानते ही संसारसे अपनी भिन्नताका अनुभव हो जाता है। तात्पर्य है कि संसारको तत्त्वसे जाननेसे संसारसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद हो जाता है और परमात्माको तत्त्वसे जाननेसे परमात्मासे वास्तविक सम्बन्धका अनुभव हो जाता है।संसारसे अपना सम्बन्ध मानना ही भक्तिमें व्यभिचारदोष है। इस व्यभिचारदोषसे सर्वथा रहित होनेमें ही उपर्युक्त पदोंका भाव समझना चाहिये।जानाति पुरुषोत्तमम् -- जिसकी मूढ़ता सर्वथा नष्ट हो गयी है? वही मनुष्य भगवान्को पुरुषोत्तम जानता है।क्षरसे सर्वथा अतीत पुरुषोत्तम(परमपुरुष परमात्मा) को ही सर्वोपरि मानकर उनके सम्मुख हो जाना? केवल उन्हींको अपना मान लेना ही भगवान्को यथार्थरूपसे पुरुषोत्तम जानना है।संसारमें जो कुछ भी प्रभाव देखनेसुननेमें आता है? वह सब एक भगवान्(पुरुषोत्तम) का ही है -- ऐसा मान लेनेसे संसारका खिंचाव सर्वथा मिट जाता है। यदि संसारका थोड़ासा भी खिंचाव रहता है? तो यही समझना चाहिये कि अभी भगवान्को दृढ़तासे माना ही नहीं।स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत -- जो भगवान्को पुरुषोत्तम जान लेता है और इस विषयमें जिसके अन्तःकरणमें कोई विकल्प? भ्रम या संशय नहीं रहता? उस मनुष्यके लिये जाननेयोग्य कोई तत्त्व शेष नहीं रहता। इसलिये भगवान् उसको सर्ववित् कहते हैं (टिप्पणी प0 785.1)।भगवान्को जाननेवाला व्यक्ति कितना ही कम पढ़ालिखा क्यों न हो? वह सब कुछ जाननेवाला है क्योंकि उसने जाननेयोग्य तत्त्वको जान लिया। उसको और कुछ भी जानना शेष नहीं है।जो मनुष्य भगवान्को पुरुषोत्तम जान लेता है? उस सर्ववित् मनुष्यकी पहचान यह है कि वह सब प्रकारसे स्वतः भगवान्का ही भजन करता है।जब मनुष्य भगवान्को क्षरसे अतीत जान लेता है? तब उसका मन (राग) क्षर(संसार) से हटकर भगवान्में लग जाता है और जब वह भगवान्को अक्षरसे उत्तम जान लेता है? तब उसकी बुद्धि (श्रद्धा) भगवान्में लग जाती है (टिप्पणी प0 785.2)। फिर उसकी प्रत्येक वृत्ति और क्रियासे स्वतः भगवान्का भजन होता है। इस प्रकार सब प्रकारसे भगवान्का भजन करना ही अव्यभिचारिणी भक्ति है।शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि आदि सांसारिक पदार्थोंसे जबतक मनुष्य रागपूर्वक अपना सम्बन्ध मानता है? तबतक वह सब प्रकारसे भगवान्का भजन नहीं कर सकता। कारण कि जहाँ राग होता है? वृत्ति स्वतः वहीं जाती है।मैं भगवान्का हूँ और भगवान् ही मेरे हैं -- इस वास्तविकताको दृढ़तापूर्वक मान लेनेसे स्वतः सब प्रकारसे भगवान्का भजन होता है। फिर भक्तकी मात्र क्रियाएँ (सोना? जागना? बोलना? चलना? खानापीना आदि) भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही होती हैं? अपने लिये नहीं।ज्ञानमार्गमें जानना और भक्तिमार्गमें मानना मुख्य होता है। जिस बातमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह न हो? उसे दृढ़तापूर्वक मानना ही भक्तिमार्गमें जानना है। भगवान्को सर्वोपरि मान लेनेके बाद भक्त सब प्रकारसे भगवान्का ही भजन करता है (गीता 10। 8)।भगवान्को पुरुषोत्तम (सर्वोपरि) माननेसे भी मनुष्य सर्ववित् हो जाता है? फिर सब प्रकारसे भगवान्का भजन करते हुए भगवान्को पुरुषोत्तम जान जाय -- इसमें तो कहना ही क्या है सम्बन्ध -- अरुन्धतीदर्शनन्याय(स्थूलसे क्रमशः सूक्ष्मकी ओर जाने) के अनुसार भगवान्ने इस अध्यायमें पहले क्षर और फिर अक्षर का विवेचन करनेके बाद अन्तमें पुरुषोत्तम का वर्णन किया -- अपने पुरुषोत्तमत्वको सिद्ध किया। ऐसा वर्णन करनेका तात्पर्य और प्रयोजन क्या है -- इसको भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।15.19।। जिस पुरुष ने अपने शरीर? मन और बुद्धि तथा उनके द्वारा अनुभव किये जाने वाले विषयों? भावनाओं एवं विचारों के साथ मिथ्या तादात्म्य को सर्वथा त्याग दिया है? वही असंमूढ अर्थात् संमोहरहित पुरुष है।इस प्रकार मुझे जानता है यहाँ जानने का अर्थ बौद्धिक स्तर का ज्ञान नहीं? वरन् आत्मा का साक्षात् अपरोक्ष अनुभव है। स्वयं को परमात्मस्वरूप से जानना ही वास्तविक बोध है।अनात्मा के तादात्म्य को त्यागकर? जिसने मुझ परमात्मा के साथ पूर्ण तादात्म्य स्थापित कर लिया है? वही परम भक्त है? जो मुझे पूर्ण हृदय से भजता है। प्रिय से तादात्म्य ही सर्वत्र प्रेम का मापदण्ड माना जाता है। अधिक प्रेम होने पर अधिक तादात्म्य होता है। इसलिये? अंकगणित की दृष्टि से भी पूर्ण तादात्म्य का अर्थ होगा पूर्ण प्रेम अर्थात् पराभक्ति।यह पुरुषोत्तम ही चैतन्य स्वरूप से तीनों काल में समस्त घटनाओं एवं प्राणियों की अन्तर्वृत्तियों को प्रकाशित करता है। इसलिये वह सर्वज्ञ कहलाता है। जो भक्त इस पुरुषोत्तम के साथ पूर्ण तादात्म्य कर लेता है? वह भी सर्ववित् कहलाता है।इस अध्याय की विषयवस्तु भगवत्तत्त्वज्ञान है। अब? भगवान् श्रीकृष्ण इस ज्ञान की प्रशंसा करते हैं? जो ज्ञान हमें शरीरजनित दुखों? मनजनित विक्षेपों और बुद्धिजनित अशान्तियों के बन्धनों से सदा के लिये मुक्त कर देता है
।।15.19।।आत्मनोऽप्रपञ्चत्वं ज्ञानफलोक्त्या स्तौति -- अथेति। यथोक्तविशेषणं सर्वात्मत्वादिविशेषणोपेतमिति यावत्। क्षराक्षरातीतत्वं यथोक्तप्रकारः। संमोहवर्जितः संमोहेन देहादिष्वात्मात्मीयत्वबुद्ध्या रहित इत्यर्थः। भगवन्तं जानतः सर्ववित्त्वं तस्यैव सर्वात्मना मेयत्वादित्याह -- स सर्वविदिति। सर्वात्मनि मय्येवासक्तचित्तत्वेनेत्यर्थः।
।।15.19।।अधुना यथानिरुक्तमात्मानं ज्ञातुः फलमाह -- य इति। मामीश्वरं सर्वत्मत्वसर्वव्यवहारास्पदत्वादिविशेषणोपतं यथोक्तेन क्षराक्षरातीतत्वेन प्रकारेण योऽसंमूढः संमोहेन देहगेहादिष्वात्मात्मीयप्रत्ययेन वर्जितः सन् पुरुषोत्तमं जानाति अयमहमस्मीति साक्षात्पश्यति स सर्ववित् सर्वात्मब्रह्मज्ञानात्सर्वज्ञः सर्वभावेन सर्वत्रात्मवित्तया मां सर्वभूतस्थं पुरुषोत्तमं भजति। त्वमप्युत्तमवंशोद्भवत्वोदेतादृशज्ञानयोग्योऽसीति सूचयन्संबोधयति भारतेति।
।।15.19।।एतद्विज्ञानफलमपि भक्तिरेवेत्याह -- यो मामिति। असंमूढः मम पुरुषोत्तमत्वे संशयविपर्यासादिहीनः स एव सर्ववित्। यतो मां पुरुषोत्तमं जानाति तत्फलं च मां सर्वभावेन सर्वात्मना सर्वैः प्रकारैर्भजति।
।।15.19।।यः एवम् उक्तेन प्रकारेण पुरुषोत्तमं माम् असंमूढो जानाति? क्षराक्षरपुरुषाभ्याम् अव्ययस्वभावतया व्यापनभरणैश्वर्यादियोगेन च विसजातीयं जानाति? स सर्ववित् मत्प्राप्त्युपायतया यद् वेदितव्यं तत् सर्वं वेद। भजति मां सर्वभावेन ये च मत्प्राप्त्युपायतया मद्भजनप्रकारा निर्दिष्टाः तैः च सर्वैः भजनप्रकारैः मां भजते।सर्वैः मद्विषयैः वेदनैः मम या प्रीतिः या च मम सर्वैः मद्विषयैः भजनैः उभयविधा सा प्रीतिः अनेन वेदनेन मम जायते।इति एतत् पुरुषोत्तमत्ववेदनं पूजयति।
।।15.19।।एवंभूतेश्वरस्याज्ञातुः फलमाह -- यो मामिति। एवमुक्तप्रकारेणासंमूढो निश्चितमतिः सन् यो मां पुरुषोत्तमं जानाति स सर्वभावेन सर्वप्रकारेण मामेव भजति ततः सर्ववित् सर्वज्ञो भवति।
।।15.19।।एवं पुरुषोत्तमशब्दनिर्वचनं तथाऽनुचिन्तनार्थमिति व्यञ्जयन् पुरुषोत्तमत्ववेदनं स्तौति -- यो मामेवम् इति श्लोकेन। पुरुषोत्तमत्वेन जानातीति विवक्षायामसम्मूढपदनैरर्थक्यम्। अतएवपुरुषोत्तमं৷৷.माम् इत्यर्थस्थितिं निर्दिश्य तत्र यथावज्ज्ञानंअसम्मूढो जानाति इत्युच्यते। तदाह -- य एवमुक्तेनेति। एकीकृत्य मोहरहितत्वमसम्मूढत्वम्। तच्च पूर्वोक्तस्वप्रकारान्यत्वानुसन्धानादित्याह -- क्षराक्षरेति। एवमसम्मूढशब्देन पराभिमतजीवेश्वरैक्यवेदनस्य भ्रान्तिरूपत्वं प्रकृतिपुरुषेश्वरभेदस्य पारमार्थिकत्वं च व्यञ्जितम्।स सर्ववित् इत्यत्र पुरुषोत्तमशब्दार्थवेदनेनाष्टादशविद्यास्थानादिवेदनासिद्धेरत्र चानपेक्षितकेशकीटादिसङ्ख्यावेदनेन स्तुत्यसम्भवात् तस्यभजति मां सर्वभावेन इत्यत्र मन्दप्रयोजनत्वाच्च भजनानुष्ठानोपयोगिविषयतया नियच्छति -- मत्प्राप्त्युपायतयेति। भजनक्रियावशीकृतः सर्वभावशब्दो भजनावान्तरभेदतया प्राक्प्रपञ्चितकीर्तनयतनादिप्रकारपरः।वासुदेवः सर्वम् [7।19] इत्याद्यर्थविवक्षातोऽप्ययमेवार्थः स्तुत्युपयोगातिशयादिहोपादेय इत्यभिप्रायेणाहये चेति। भावशब्दोऽत्र क्रियावाची पदार्थमात्रवाची वा सन्प्रकाराख्यविशेषे विश्रान्तः।नन्वत्र तत्त्वहितवेदनं हितानुष्ठानं च शास्त्रफलं विवक्षितम्। तत्र न तावत्पुरुषोत्तमत्ववेदनमेव परव्यूहविभवगुणचेष्टितादिसर्ववेदनं सर्वविधभजनकरणं च स्वरूपान्यथात्वात्। न चारोप्य स्तुतिः? अनूर्जितत्वान्निष्फलत्वाच्च। न चात्र हेतुफलभावविवक्षाएतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात्
।।15.19।।यो मामिति। एवं जानानः सर्वमयं मामेव ब्रह्मतत्त्वमुपासीनः सर्वं मन्मयत्वेन विदन् सर्वेम भावेन मूर्तिक्रियाज्ञानात्मकेन मामेव भजते यत् पश्यति तत् भगवन्मूर्तितयेत्यादि। तथा च मयैव शिवशक्त्यविनाभावस्तोत्रे -- तव च काचन (N का किल) न स्तुतिरम्बिके सकलशब्दमयी किल ते तनुः।निखिलमूर्तिषु मे भवदन्वयो मनसिजासु बहिष्प्ररासु (?N बहि प्रसरासु) च।।इति विचिन्त्य शिवे शमिताशिवे जगति जातमयत्नवशादिदम्।स्तुतिजपार्चनचिन्तनवर्जिता न खलु काचन कालकलापि (?N कालकलास्ति) मे।।इति।
।।15.19।।एवं नामनिर्वचनज्ञाने फलमाह -- यो मामेवमिति। यो मामीश्वरमेवं यथोक्तनामनिर्वचनेनासंमूढो मनुष्य एवायं कश्चित्कृष्ण इति संमोहवर्जितो जानात्ययमीश्वर एवेति पुरुषोत्तमं प्राग्व्याख्यातं स मां भजति सेवते सर्ववित् मां सर्वात्मानं वेत्तीति स एव सर्वज्ञः सर्वभावेन प्रेमलक्षणेन भक्तियोगेन हे भारत? अतो यदुक्तंमां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते। स गुणान्त्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते इति तदुपपन्नम्। यच्चोक्तंब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम् इति तदप्युपपन्नतरम्।चिदानन्दाकारं जलदरुचिसारं श्रुतिगिरां व्रजस्त्रीणां हारं भवजलधिपारं कृतधियाम्। विहन्तुं भूभारं विदधदवतारं मुहुरहो महो वारंवारं भजत कुशलारम्भकृतिनः।
।।15.19।।अतोऽहं पुरुषोत्तमः? अतो मज्ज्ञानवान् सर्वज्ञः सोऽन्यभजनरहितो मां भजतीत्याह -- यो मामिति। यो दुर्लभो मामसम्मूढो मोहादिदोषरहितो व्यवसितमतिरेवं पूर्वोक्तप्रकारेण पुरुषोत्तमं जानाति? स सर्ववित् सर्वज्ञ इत्यर्थः? सर्वविद्भवतीति वा। सर्वज्ञत्वलक्षणमाह मां सर्वभावेन भजति। भारतेति विश्वासाय।
।।15.19।। --,यः माम् ईश्वरं यथोक्तविशेषणम् एवं यथोक्तेन प्रकारेण असंमूढः संमोहवर्जितः सन् जानाति अयम् अहम् अस्मि इति पुरुषोत्तमं सः सर्ववित् सर्वात्मना सर्वं वेत्तीति सर्वज्ञः सर्वभूतस्थं भजति मां सर्वभावेन सर्वात्मतया हे भारत।।अस्मिन् अध्याये भगवत्तत्त्वज्ञानं मोक्षफलम् उक्त्वा? अथ इदानीं तत् स्तौति --,
।।15.19।।यतोऽहमेतादृशस्वरूपः सर्वोत्तमः पुरुषोत्तम इति अतः सज्ज्ञानवान् सर्वज्ञोऽन्यभजनरहितो मां भजतीत्याहुः -- यो मामिति। असम्मूढः सम्मोहस्यासुरत्वात्तद्रहितो यो मामजमनादिं पुरुषोत्तमं जानाति स सर्ववित् एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानात्सर्वात्मभावेन मां भजति सेवत इति मार्गान्तराद्वैलक्षण्यं दर्शितम्।ज्ञानी चेद्भजते कृष्ण तस्मान्नास्त्यधिकः परः इति निबन्धेऽप्युक्तम्।