इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयाऽनघ।एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत।।15.20।।
iti guhyatamaṁ śhāstram idam uktaṁ mayānagha etad buddhvā buddhimān syāt kṛita-kṛityaśh cha bhārata
Thus, I have imparted to you this most secret science, O sinless one; by knowing this, one becomes wise, and all their duties are accomplished, O Arjuna.
15.20 इति thus? गुह्यतमम् most secret? शास्त्रम् science (teaching)? इदम् this? उक्तम् has been taught? मया by Me? अनघ O sinless one? एतत् बुद्ध्वा knowing this? बुद्धिमान् wise? स्यात् will become? कृतकृत्यः (who has) accomplished all the duties? च and? भारत O Bharata.Commentary Guhyatamam Most profound secret.Buddhiman means here a knower of the Self or Atmart.The knowledge of the Self which gives emancipation from the round of birth and death? and freedom from the bonds of Karma is eulogised in this verse. If this most profound teaching is rightly understood? known or realised? it makes a man wise and gives him illumination. After this there is nothing left for him to know or strive for. He has reached the goal of life or the aim of human existence. He has arrived at the end of his journey. His endeavour for Selfrealisation is over. He has attained perfection. He has complete knowledge of the Supreme Being. He gets Brahma Jnana. He moves in the consciousness of the Divine. He beholds the Self everywhere. He lives in Brahman. He regards all activities as His divine play.When one realises Brahman? he has discharged all the duties of life. He is liberated from the bonds of Karma. He becomes a Jivanmukta or illumined sage who has transcended the bodyconsciousness? the three alities of Nature? the three states of consciousness (wakeful state? dream and deep sleep)? the pairs of opposites and the cycle of birth and death. He knows fully well that rirth has been destroyed? that what has to be done has been accomplished? that lifes highest goal has been reached and that he has nothing more to do or to learn. He has understood the profound mystery of life -- the riddle of this universe. He is a Sarvavit or allknower.The whole of the Gita is called science? yet the fifteenth discourse alone is here declared as the science for the sake of eulogising it. The fifteenth discourse contains the intessence of the Gita? the Upanishads and the Vedas. This is the butter churned from the milk of the Vedas. It has been said that? He who knows the peepul tree knows the Veda (XV.1). The Lord has also said? It is I Who am to be known by all the Vedas (XV.15). Only when a man knows this science as taught above does he become wise -- but not otherwise. Whatever duty a Brahmana of the highest birth has to do? all that has been doen when one attains the knowledge of the Self. All actions in their entirety culminate in knowledge (IV.33). This is the fulfilment of the birth? particularly of a Brahmana because the twicorn accomplishes all his duties only by attaining to this? but not otherwise? says Manu Smriti.As you have heard from Me this truth about the Supreme Being? you are a happy man and you have done all your duties you have attained Selfrealistion.By using the words Anagha and Bharata? Lord Krishna hints that even when an ordinary man who knows this fifteenth discourse can attain knowledge of the Self and become a Kritakritya? then what to say of Arjuna who was sinless and who was born in a noble family with divine attributes The Lord? by using the word Anagha? also indicates that the Guru who is a knower of Brahman should instruct the most profound secret (the science of the Self) only to alified persons who are free from impurities of the heart or tossing of the mind? who are calm and endowed with the four means of salvation. The man of impure mind will not be able to grasp the truth. The sinful man with his perverted intellect will distort the truth and thus pave the way for the destruction of himself and his followers.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the fifteenth discourse entitledThe Yoga of the Supreme Spirit. ,,
।।15.20।। व्याख्या -- अनघ -- अर्जुनको निष्पाप इसलिये कहा गया है कि वे दोषदृष्टि(असूया) से रहित थे। दोषदृष्टि करना पाप है। इससे अन्तःकरण अशुद्ध होता है। जो दोषदृष्टिसे रहित होता है? वही भक्तिका पात्र होता है।गोपनीय बात दोषदृष्टिसे रहित मनुष्यके सामने ही कही जाती है (टिप्पणी प0 786)। यदि दोषदृष्टिवाले मनुष्यके सामने गोपनीय बात कह दी जाय? तो उस मनुष्यपर उस बातका उलटा असर पड़ता है अर्थात् वह उस गोपनीय बातका उलटा अर्थ लगाकर वक्तामें भी दोष देखने लगता है कि यह आत्मश्लाघी है दूसरोंको मोहित करनेके लिये कहता है इत्यादि। इससे दोषदृष्टिवाले मनुष्यकी बहुत हानि होती है।दोषदृष्टि होनेमें खास कारण है -- अभिमान। मनुष्यमें जिस बातका अभिमान हो? उस बातकी उसमें कमी होती है। उस कमीको वह दूसरोंमें देखने लगता है। अपनेमें अच्छाईका अभिमान होनेसे दूसरोंमें बुराई दीखती है और दूसरोंमें बुराई देखनेसे ही अपनमें अच्छाईका अभिमान आता है।यदि दोषदृष्टिवाले मनुष्यके सामने भगवान् अपनेको सर्वोपरि पुरुषोत्तम कहें? तो उसको विश्वास नहीं होगा? उलटे वह यह सोचेगा कि भगवान् आत्मश्लाघी (अपने मुँह अपने बड़ाई करनेवाले) हैं --,निज अग्यान राम पर धरहीं। (मानस 7। 73। 5)भगवान्के प्रति दोषदृष्टि होनेसे उसकी बहुत हानि होती है। इसलिये भगवान् और संतजन दोषदृष्टिवाले अश्रद्धालु मनुष्यके सामने गोपनीय बातें प्रकट नहीं करते (गीता 18। 67)। वास्तवमें देखा जाय तो दोषदृष्टिवाले मनुष्यके सामने गोपनीय (रहस्ययुक्त) बातें मुखसे निकलती ही नहीं अर्जुनके लिये अनघ सम्बोधन देनेमें यह भाव भी हो सकता है कि इस अध्यायमें भगवान्ने जो परमगोपनीय प्रभाव बताया है? वह अर्जुनजैसे दोषदृष्टिसे रहित सरल पुरुषके सम्मुख ही प्रकट किया जा सकता है।इति गुह्यतमं शास्त्रमिदम् -- चौदहवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें अव्यभिचारिणी भक्तिकी बात कहनेके बाद भगवान्ने पन्द्रहवें अध्यायके पहले श्लोकसे उन्नीसवें श्लोकतक जिस (क्षर? अक्षर और पुरुषोत्तमके) विषयका वर्णन किया है? उस विषयकी पूर्णता और लक्ष्यका निर्देश यहाँ इति इदम् पदोंसे किया गया है।इस अध्यायमें पहले भगवान्ने क्षर (संसार) और अक्षर(जीवात्मा) का वर्णन करके अपना अप्रतिम प्रभाव (बारहवेंसे पंद्रहवें श्लोकतक) प्रकट किया। फिर भगवान्ने यह गोपनीय बात प्रकट की कि जिसका यह सब प्रभाव है? वह (क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम) पुरुषोत्तम मैं ही हूँ।नाटकमें स्वाँग धारण किये हुए मनुष्यकी तरह भगवान् इस पृथ्वीपर मनुष्यका स्वाँग धारण करके अवतरित होते हैं और ऐसा बर्ताव करते हैं कि अज्ञानी मनुष्य उनको नहीं जान पाते (गीता 7। 24)। स्वाँगमें अपना वास्तविक परिचय नहीं दिया जाता? गुप्त रखा जाता है। परन्तु भगवान्ने इस अध्यायमें (अठारहवें श्लोकमें) अपना वास्तविक परिचय देकर अत्यन्त गोपनीय बात प्रकट कर दी कि मैं ही पुरुषोत्तम हूँ। इसलिये इस अध्यायको गुह्यतम कहा गया है।शास्त्र में प्रायः संसार? जीवात्मा और परमात्माका वर्णन आता है। इन तीनोंका ही वर्णन पंद्रहवें अध्यायमें हुआ है? इसलिये इस अध्यायको शास्त्र भी कहा गया है।सर्वशास्त्रमयी गीतामें केवल इसी अध्यायको शास्त्र की उपाधि मिली है। इसमें पुरुषोत्तम का वर्णन मुख्य होनेके कारण इस अध्यायको गुह्यतम शास्त्र कहा गया है। इस गुह्यतम शास्त्रमें भगवान्ने अपनी प्राप्तिके छः उपायोंका वर्णन किया है --,(1) संसारको तत्त्वसे जानना (श्लोक 1)।(2) संसारसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद करके एक भगवान्के शरण होना (श्लोक 4)।(3) अपनेमें स्थित परमात्मतत्त्वको जानना (श्लोक 11)।(4) वेदाध्ययनके द्वारा तत्त्वको जानना (श्लोक 15)।(5) भगवान्को पुरुषोत्तम जानकर सब प्रकारसे उनका भजन करना (श्लोक 19)।(6) सम्पूर्ण अध्यायके तत्त्वको जानना (श्लोक 20)।जिस अध्यायमें भगवत्प्राप्तिके ऐसे सुगम उपाय बताये गये हों? उसको शास्त्र कहना उचित ही है।मया उक्तम् -- इन पदोंसे भगवान् यह कहते हैं कि सम्पूर्ण भौतिक जगत्का प्रकाशक और अधिष्ठान? समस्त प्राणियोंके हृदयमें स्थित? वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य एवं क्षर और अक्षर दोनोंसे उत्तम साक्षात् मुझ पुरुषोत्तमके द्वारा ही यह गुह्यतम शास्त्र अत्यन्त कृपापूर्वक कहा गया है। अपने विषयमें जैसा मैं कह सकता हूँ? वैसा कोई नहीं कह सकता। कारण कि दूसरा पहले (मेरी ही कृपाशक्तिसे) मेरेको जानेगा (टिप्पणी प0 787)? फिर वह मेरे विषयमें कुछ कहेगा? जबकि मेरेमें अनजानपना है ही नहीं।वास्तवमें स्वयं भगवान्के अतिरिक्त दूसरा कोई भी उनको पूर्णरूपसे नहीं जान सकता (गीता 10। 2? 15)। छठे अध्यायके उन्तालीसवें श्लोकमें अर्जुनने भगवान्से कहा था कि आपके सिवाय दूसरा कोई भी मेरे संशयका छेदन नहीं कर सकता। यहाँ भगवान् मानो यह कह रहे हैं कि मेरे द्वारा कहे हुए विषयमें किसी प्रकारका संशय रहनेकी सम्भावना ही नहीं है।एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत -- पूरे अध्यायमें भगवान्ने जो संसारकी वास्तविकता? जीवात्माके स्वरूप और अपने अप्रतिम प्रभाव एवं गोपनीयताका वर्णन किया है? उसका (विशेषरूपसे उन्नीसवें श्लोकका) निर्देश यहाँ एतत् पदसे किया गया है। इस गुह्यतम शास्त्रको जो मनुष्य तत्त्वसे जान लेता है? वह ज्ञानवान् अर्थात् ज्ञातज्ञातव्य हो जाता है। उसके लिये कुछ भी जानना शेष नहीं रहता क्योंकि उसने जाननेयोग्य पुरुषोत्तमको जान लिया।परमात्मतत्त्वको जाननेसे मनुष्यकी मूढ़ता नष्ट हो जाती है। परमात्मतत्त्वको जाने बिना लौकिक सम्पूर्ण विद्याएँ? भाषाएँ? कलाएँ आदि क्यों न जान ली जायँ? उनसे मूढ़ता नहीं मिटती क्योंकि लौकिक सब विद्याएँ आरम्भ और समाप्त होनेवाली तथा अपूर्ण हैं। जितनी लौकिक विद्याएँ हैं? सब परमात्मासे ही प्रकट होनेवाली हैं अतः वे परमात्माको कैसे प्रकाशित कर सकती हैं इन सब लौकिक विद्याओंसे अनजान होते हुए भी जिसने परमात्माको जान लिया है? वही वास्तवमें ज्ञानवान् है।उन्नीसवें श्लोकमें सब प्रकारसे भजन करनेवाले जिस मोहरहित भक्तको सर्ववित् कहा गया है? उसीको यहाँ बुद्धिमान् नामसे कहा गया है।यहाँ च पदमें पूर्वश्लोकमें आयी बातके फल(प्राप्तप्राप्तव्यता) का अनुकर्षण है। पूर्वश्लोकमें सर्वभावसे भगवान्का भजन करने अर्थात् अव्यभिचारिणी भक्तिकी बात विशेषरूपसे आयी है। भक्तिके समान कोई लाभ नहीं है -- लाभु कि किछु हरि भगति समाना (मानस 7। 112। 4)। अतः जिसने भक्तिको प्राप्त कर लिया? वह प्राप्तप्राप्तव्य हो जाता है अर्थात् उसके लिये कुछ भी पाना शेष नहीं रहता।भगवत्तत्त्वकी यह विलक्षणता है कि कर्मयोग? ज्ञानयोग और भक्तियोग -- तीनोंमेंसे किसी एककी सिद्धिसे कृतकृत्यता? ज्ञातज्ञातव्यता और प्राप्तप्राप्तव्यता -- तीनोंकी प्राप्ति हो जाती है। इसलिये जो भगवत्तत्त्वको जान लेता है? उसके लिये फिर कुछ जानना? पाना और करना शेष नहीं रहता उसका मनुष्यजीवन सफल हो जाता है।इस प्रकार ? तत्? सत् -- इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें पुरुषोत्तमयोग नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।15।। ,
।।15.20।। प्रस्तुत अध्याय के इस अन्तिम श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्होंने अर्जुन को गुह्यतम ज्ञान का उपदेश दिया है। इस ज्ञान को गुह्य या रहस्य इस दृष्टि से नहीं कहा गया है कि इसका उपदेश किसी को नहीं देना चाहिये अभिप्राय यह है कि परमात्मा इन्द्रिय अगोचर होने के कारण कोई भी व्यक्ति प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों के द्वारा उसे अपनी बुद्धि से नहीं जान सकता है। अत वह उसके लिये रहस्य ही बना रहेगा। केवल एक शास्त्रज्ञ और आत्मानुभवी आचार्य के उपदेश से ही परमात्मज्ञान हो सकता है।हे निष्पाप वह कर्म? भावना या विचार? पाप कहलाता है? जिसको करने पर कालान्तर में हमारे मन में विक्षेप? पश्चाताप तथा आत्मग्लानि उत्पन्न होती है। इन के होने पर अन्तकरण में आत्मविचार करने के लिये आवश्यक सूक्ष्मता और सजगता नहीं रहती। अत इस सन्दर्भ में अर्जुन को निष्पाप कहकर संबोधित करना यह दर्शाता है कि वह आत्मज्ञान के योग्य है।अपने पुरुषोत्तम स्वरूप को जानने वाला पुरुष बुद्धिमान् बन जाता है। इसका अर्थ यह है कि इस ज्ञान के पश्चात् वह जीवन में वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को समझने में और कर्म से संबंधित निर्णय लेने में त्रुटि नहीं करता है। फलस्वरूप वह न स्वयं के लिये भ्रम और दुख उत्पन्न करता है और न ही समाज के अन्य व्यक्तियों के लिये।परमात्मा के ज्ञान का फल है कृतकृत्यता। मन में पूर्ण सन्तोष का वह भाव? जो जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेने पर उदय होता है? कृतकृत्यता कहलाता है। तत्पश्चात् उस व्यक्ति के लिये न कोई प्राप्तव्य शेष रहता है और न कोई कर्तव्य। यह श्लोक उत्तम अधिकारियों को आत्मज्ञान के इस श्रेष्ठ फल का आश्वासन देता है।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्याय।।
।।15.20।।अध्यायार्थमनूद्योपसंहारश्लोकमवतारयति -- अस्मिन्निति। सर्वस्यां गीतायां शास्त्रशब्दे वक्तव्ये कथमस्मिन्नध्याये तत्प्रयोगः स्यादित्याशङ्क्याह -- यद्यपीति। संनिहितमध्यायं स्तोतुमपि कुतस्तत्र शास्त्रशब्दस्तदर्थाभावात्तत्राह -- सर्वो हीति। गीताशास्त्रार्थस्य सर्वस्यात्र संक्षिप्तत्वादेव केवलं शास्त्रशब्दो न भवति किंतु वेदार्थस्यापि सर्वस्यात्रसमाप्तेर्युक्तं शास्त्रपदमित्याह -- नेति। तत्र गमकमाह -- यस्तमिति। भगवत्तत्त्वज्ञाने कृतकृत्यतेत्येतदुपपादयति -- विशिष्टेति। नान्यथेत्युक्तं प्रपञ्चयति -- नचेति। सत्यपि तत्त्वज्ञाने कर्मणां कर्तव्यत्वान्न कर्तव्यसमाप्तिरित्याशङ्क्याह -- सर्वमिति। तत्त्वज्ञाने कृतार्थतेति तत्र मनोरपि संमतिमाह -- एतद्धीति। भारतेति संबोधनतात्पर्यमाह -- यत इति। तदनेनात्मनो देहाद्यतिरिक्तत्वं चिद्रूपत्वं सर्वात्मत्वं कार्यकारणविनिर्मुक्तत्वेनाप्रपञ्चत्वं तस्याखण्डैकरसब्रह्मात्मत्वज्ञानादशेषपुरुषार्थपरिसमाप्तिरित्युक्तम्।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृतौ पञ्चदशोऽध्यायः।।15।।
।।15.20।।एवमस्मिन्नध्याये भगवत्तत्त्वज्ञानं मोक्षफलकमुत्तमुपसंहरन् तत्स्तौति -- इतीति। इत्येद्गुह्यतमं गोप्यं कर्मतत्त्वं गुह्यतरमुपासनातत्त्वं इदं तु परमात्मतत्त्वं गोप्यतममत्यन्तरहस्यं शास्त्रं समस्तस्य गीताख्यशास्त्रस्य सर्वस्य वेदस्य चार्थोऽस्मिन्नधाये संक्षेपेणोक्तःयस्तं वेद स वेदवित्।वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः इति च। अतोऽस्याध्यायस्य सकलशास्त्ररुपत्वादिदं शास्त्रमुक्तं मया कथितम्। हेऽनघाव्यसन निष्पाप? अनघस्य त्वादृशस्यैवास्मिन् शास्त्रेऽधिकारत्वादिति भावः। एतच्छास्त्रं यथादर्शितार्थं बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यान्नान्यथा। कृतकृत्यश्च कृतं येन स विशिष्टन्मना ब्राह्मणेन यत्कर्तव्यं तत्सर्वं भगवत्तत्वे विदिते कृतं भवेदित्यर्थः। नचान्यथा कस्यचिदपि कर्तव्यता परिसमाप्यत इत्याशयः। तथाचोक्तंसर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते। मनुरप्याहएतद्वि जन्मसामग्र्यं ब्राह्मणस्य विशेषतः। प्राप्यैतत्कृतत्यो हि द्विजो भवति नान्यथा इति। यत एतत्परमार्थतत्त्वं मत्तः श्रुतवानस्यतः कृतार्थस्त्वं उत्तमवंशोद्भवत्वं सार्थकं कृतवानसीति ध्वनयन्संबोधयति भारतेति।
।।15.20।।अस्मिन्नध्याये भगवत्तत्त्वज्ञानस्य मोक्षफलत्वमुक्त्वाऽथेदानीं तत्स्तौति -- इतीति। इति एतद्गुह्यतमम् अत्यन्तरहस्यं शास्त्रम्। यद्यपि इयमष्टादशाध्यायी कृत्स्ना शास्त्रं तथाप्यस्मिन्नध्याये कृत्स्नस्य शास्त्रार्थस्य प्रदर्शनादयमपि शास्त्रम्। अत्र हि कार्यकारणविभागः संसारवृक्षस्यानित्यत्वं भगवतो विभूतयःयस्तं वेद स वेदवित्?वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः इत्यादिना सर्वः शास्त्रार्थो दर्शितोऽस्ति। इदं मया उक्तं हे अनघ निर्व्यसन? एतत् रहस्यं बुद्ध्वा बुद्धिमान् ज्ञानी स्यादात्मविद्भवेत्। तावता कृतकृत्यः। सर्वं हि कृत्यं परमात्मावगतिपर्यन्तं तत्रैव कृत्स्नपुरुषार्थसमाप्तेः। चात्प्राप्तप्रापणीयश्च स्यात् भवति नातःपरं कर्तव्यमवशिष्यते इत्यर्थः।
।।15.20।।इत्थं मम पुरुषोत्तमत्वप्रतिपादनं सर्वेषां गुह्यानां गुह्यतमम् इदं शास्त्रं त्वम् अनघतया योग्यतम इति कृत्वा मया तव उक्तम्। एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यः च मां प्रेप्सुना उपादेया या बुद्धिः सा सर्वा उपात्ता स्यात्। यत् च तेन कर्तव्यम्? तत् च सर्वं कृतं स्याद् इत्यर्थः।अनेन श्लोकेन अनन्तरोक्तं पुरुषोत्तमविषयं ज्ञानं शास्त्रजन्यम् एव एतत् सर्वं करोति न तु साक्षात्काररूपम् इति उच्यते।
।।15.20।। अध्यायार्थमुपसंहरति -- इतीति। इत्यनेन प्रकारेण गुह्यतमं अतिरहस्यं संपूर्णं शास्त्रमेव मयोक्तम् न पुनर्विंशतिश्लोकमध्यायमात्रम्। हे अनघ व्यसनशून्यः? अत एतन्मदुक्तं शास्त्रं बुद्ध्वा बुद्धिमान् सम्यग्ज्ञानी कृतकृत्यश्च स्याद्योऽपि कोऽपि। हे भारत? त्वं कृतकृत्योसीति किं वक्तव्यमिति भावः।
[15.20] इत्यनन्तरेण पौनरुक्त्यात् अतो निरर्थकमिदमित्यत्राह -- सर्वैर्मद्विषयैरिति।।।15.20।।यदि पुरुषोत्तमत्ववेदनमात्रेण भगवतः सर्वविधा प्रीतिर्जायते? तर्हि भजनाद्यनुष्ठानविधिवैयर्थ्यम् तत्राह -- इत्येतदिति। सर्वासां प्रतीतीनामेतदेव हि मूलकारणम्। फलसाम्याद्वा सर्वस्य विदितत्वकृतकृत्यत्ववचनमिति भावः। इत्येतदित्यादिकमुत्तरश्लोकावतारिका वा। रहस्यतया गोपनीयमत्वं पारमार्थिकत्वं फलप्रकर्षं च व्यञ्जयन्निगमयति -- इति गुह्यतममिति श्लोकेन। एतदेव गीताशास्त्रनिगमनमिति वदतां प्रतिक्षेपायाह -- पुरुषोत्तमत्वप्रतिपादनमिति। पञ्चदशेऽध्याय इत्यर्थः।अनघ इति सम्बुद्धिरधिकारिसूचनार्थेत्याह -- अनघतया योग्यतम इति कृत्वेति। एवं भारतसम्बुद्धिरपि जन्मतोऽधिकारित्वसूचनार्थम्।इदमिति -- अस्यवक्ता श्रोता च दुर्लभः इत्यभिप्रायः।इदं शास्त्रान्तरेभ्य उत्कृष्टतममिति वा। उक्तं चाभियुक्तैःयस्मिन् प्रसादसुमुखे कवयोऽपि ते ते शास्त्राण्यशासुरिह तन्महिमाश्रयाणि। कृष्णेन तेन यदिह स्वयमेव गीतं शास्त्रस्य तस्य सदृशं किमिहास्ति शास्त्रम् इति।मया वक्तव्यतत्त्ववेदिना? त्वदधिकारवेदिना? तव सख्या चेत्यर्थः। प्रागुक्तशास्त्रानुवादताभ्रमव्युदासायाहतवोक्तमिति।सा विद्या या विमुक्तयेविद्याऽन्या शिल्पनैपुणम् [वि.पु.1।19।41]तज्ज्ञानमज्ञानमतोऽन्यदुक्तम् [वि.पु.6।5।87]एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा [13।12] इत्यादिभिरन्यासां बुद्धीनां अबुद्धिप्रायतोक्तेरिह बुद्धिशब्दविवक्षितमाह -- मां प्रेप्सुनोपादेयेति। कृत्यशब्दोऽप्यत्र मुमुक्ष्वपेक्षितविषयः। तस्यैवतत्कर्म यन्न बन्धाय [वि.पु.1।19] इत्यादिषु ग्रहणात्? अन्येषां चआयासायापरं कर्म [वि.पु.1।19] इति निन्दनादित्यभिप्रायेणाहयच्च तेन कर्तव्यमिति। प्रस्तुतोऽर्थस्तज्ज्ञानं वाऽत्र प्रशंसनीयम्? किमत्र शास्त्रग्रहणेन तथाऽत्र पूर्वश्लोकपौनरुक्त्यमित्यत्राहअनेन श्लोकेनेति।अयमभिप्रायः -- सार्थकशास्त्रज्ञानशक्त्याएतद्बुद्ध्वा इत्यनूद्यते अतोऽर्थज्ञान एव तात्पर्यं तत्र शास्त्रशब्दग्रहणं शास्त्रमात्रजन्यस्यापि ज्ञानस्य फलाविनाभावापेक्षयेति।स सर्ववित् [15।19] इत्यादेःबुद्धिमान्स्यात् इत्यादेश्च अर्थैक्यमभिसन्धाय पुनरुक्तिपरिहारश्चात्र कृतः। भारत एतद्बुद्ध्वा त्वमपि कृतकृत्य इति च भावः।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु श्रीमद्गीताभाष्यटीकायां तात्पर्यचन्द्रिकायां पञ्चदशोऽध्यायः।।15।।
।।15.20।।इतीति। गुह्यतमं? सर्वाद्वयप्रतिपादकत्वात्। एतदेव बुद्ध्वा बुद्धिमत्त्वं? न तु व्यवहारबुद्ध्या। एतेन च ज्ञातेनैव कृतकृत्यता? न तु कृतेनापि शत्रुविजयार्थाहरणस्त्र्युपभोगादिना ( omits शत्रु)। चकारः अद्भुतद्योतकः। कृतेन (N एतेन) हि कृतकृत्यता दृष्टा? एतेन तु ज्ञातेनैवेति (?N ज्ञानेनैवेति) चित्रम्। इतिशब्देन शास्त्रस्य समाप्तिः सूचिता? वक्तव्यस्य परिपूर्णतया समाप्तत्वात्। तथा हि -- षोडशाध्यायेन शिष्यस्य अर्जुनस्य केवलं योग्यता प्रतिपाद्यते। न तु उपदिश्यते किञ्चित्। दैवी ह्येवंविधा संपत्? आसुरी चाविद्यामयी? एतादृशी (S? तादृशी) संपत् त्वं च विद्यामयीं दैवीं संपदमभिप्राप्तः इत्येतावति हि तात्पर्यम्। यद्वक्ष्यति मा शुचः संपदं दैवीम् इति। अत एव पूर्वं विद्याविद्यासंघट्टनिरूपणावसरे ( संबद्धनिरूपण N संघध्व (र्ष) -- ) देवासुरसंग्रामच्छलेन विद्याविद्ययोः संघर्षः इति सूचितम्। एवं च शिष्यस्वरूपे प्राधान्येन निरूप्यमाणे प्रसंगतः अन्यदप्युक्तम्? इत्यध्यायद्वयं भविष्यति। उपदेशस्त्वित एव परिसमाप्तः। सर्वभावेन हि परमेश्वरभजनम् आवेशरूपं प्राप्यम् ( प्राप्तम्)। तदर्थं चान्यत् सर्वमित्युक्तं प्राक्। सर्वमाहेश्वरस्वरूपावेश एव,हि परमं शिवम् इति।
।।15.20।।इदानीमध्यायार्थं स्तुवन्नुपसंहरति -- इतीति। इति अनेन प्रकारेण गुह्यतमं रहस्यतमं संपूर्णं शास्त्रमेव संक्षेपेणेदमस्मिन्नध्याये मयोक्तं हे अनघ अव्यसन? एतद्बुद्ध्वान्योऽपि यः कश्चिद्बुद्धिमानात्मज्ञानवान्स्यात् कृतं सर्वं कृत्यं येन न पुनः कृत्यान्तरं यस्यास्ति स कृतकृत्यश्च स्यात्। विशिष्टजन्मप्रसूतेन ब्राह्मणेन यत्कर्तव्यं तत्सर्वं भगवत्तत्त्वे विदिते कृतं भवेत् न त्वन्यथा कर्तव्यं परिसमाप्यते कस्यचिदित्यभिप्रायः। हे भारत? त्वं तु महाकुलप्रसूतः स्वयं च व्यसनरहित इति कुलगुणेन स्वगुणेन चैतद्बुद्ध्वा कृतकृत्यो भविष्यसीति किमु वक्तव्यमित्यभिप्रायः।वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्।पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने।।1।।सदा सदानन्दपदे निमग्नं मनो मनोभावमपाकरोति। गतागतायासमपास्य सद्यः परापरातीतमुपैति तत्त्वम्।।2।।शैवाः सौराश्च गाणेशा वैष्णवाः शक्तिपूजकाः। भवन्ति यन्मयाः सर्वे सोहमस्मि परः शिवः।।3।।प्रमाणतोऽपि निर्णीतं कृष्णमाहात्म्यमद्भुतम्। न शक्नुवन्ति ये सोढुं ते मूढा निरयं गताः।।4।।,
।।15.20।।उपसंहरति -- इतीति। इति अमुना प्रकारेण गुह्यतममतिगुप्तरहस्यं शास्त्रं शासनधर्मरूप हे अनघ निष्पाप कुतर्काद्यनुपहतमते इदं प्रत्यक्षं मया कृपालुनेत्यर्थः। उक्तं कथितमित्यर्थः। प्रयोजनमाह -- एतदिति। बुद्धिमान् कुशल एतद्बुद्धा कृतं कृत्यमेतत्सेवारूपं येन तादृशो भवेदित्यर्थः। यद्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्य इत्यर्थः। अनेन सर्वेषां दैवजीवानां स्वरूपज्ञानार्थं प्रकटितमिति भावः। भारतेतिसम्बोधनेन साहजिकबुद्धिमतो येन कृतकृत्यता स्यात्तत्र वंशोद्भवे त्वयि किं वक्तव्यं इति भावो व्यञ्जितः।कृष्णः पञ्चदशेऽध्याये लोकानां हितकाम्यया। पुरुषोत्तमयोगं हि पार्थाय कृपयाऽऽदिशत्।
।।15.20।। -- इति एतत् गुह्यतमं गोप्यतमम्? अत्यन्तरहस्यं इत्येतत्। किं तत् शास्त्रम्। यद्यपि गीताख्यं समस्तम् शास्त्रम् उच्यते? तथापि अयमेव अध्यायः इह शास्त्रम् इति उच्यते स्तुत्यर्थं प्रकरणात्। सर्वो हि गीताशास्त्रार्थः अस्मिन् अध्याये समासेन उक्तः। न केवलं गीताशास्त्रार्थ एव? किंतु सर्वश्च वेदार्थः इह परिसमाप्तः। यस्तं वेद स वेदवित् (गीता 15।1) वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः (गीता 15।15) इति च उक्तम्। इदम् उक्तं कथितं मया हे अनघ अपाप। एतत् शास्त्रं यथादर्शितार्थं बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् भवेत् न अन्यथा कृतकृत्यश्च भारत कृतं कृत्यं कर्तव्यं येन सः कृतकृत्यः विशिष्टजन्मप्रसूतेन ब्राह्मणेन यत् कर्तव्यं तत् सर्वं भगवत्तत्त्वे विदिते कृतं भवेत् इत्यर्थः न च अन्यथा कर्तव्यं परिसमाप्यते कस्यचित् इत्यभिप्रायः। सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते (गीता 4।33) इति च उक्तम्। एतद्धि जन्मसामग्र्यं ब्राह्मणस्य विशेषतः। प्राप्यैतत्कृतकृत्यो हि द्विजो भवति नान्यथा (मनुस्मृति 12।93) इति च मानवं वचनम्। यतः एतत् परमार्थतत्त्वं मत्तः श्रुतवान् असि? अतः कृतार्थः त्वं भारत इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येपञ्चदशोऽध्यायः।।
।।15.20।।अध्यायार्थमुपसंहरति -- इतीति। इत्थं पुरुषोत्तमयोगकं शास्त्रं सर्ववेदान्तसारत्वाद्गुह्यतमं मया सर्ववेदान्तवेद्यचरणेन वेदान्तकृता पुरुषोत्तमेन त्वमनषतया योग्य इति तवोक्तं? अतएव तद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्,शास्त्रतात्पर्यज्ञानवान् कृतकृत्यश्च स्यात् योऽपि कोऽपि। हे भारत त्वं कृतकृत्योऽसीति किमु वक्तव्यम् इति भावः।प्रपञ्चतः क्षराच्चाहमक्षरादपि चोत्तमः। भजनीय इति श्रीमान् स्वयं पञ्चदशेऽब्रवीत्।।1।।