अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।16.2।।
ahinsā satyam akrodhas tyāgaḥ śhāntir apaiśhunam dayā bhūteṣhv aloluptvaṁ mārdavaṁ hrīr achāpalam
Harmlessness, truth, absence of anger, renunciation, peacefulness, absence of crookedness, compassion for beings, non-covetousness, gentleness, modesty, and absence of fickleness.
16.2 अहिंसा harmlessness? सत्यम् truth? अक्रोधः absence of anger? त्यागः renunciation? शान्तिः peacefulness? अपैशुनम् absence of crookedness? दया compassion? भूतेषु in beings? अलोलुप्त्वम् noncovetousness? मार्दवम् gentleness? ह्रीः modesty? अचापलम् absence of fickleness.Commentary Ahimsa Noninjury in thought? word and deed. By refraining from injuring living creatures the outgoing forces of Rajas are curbed. Ahimsa is divided into physical? verbal and mental.Satyam Truth Speaking of things as they are? without uttering unpleasant words or lies. This includes selfrestraint? absence of jealousy? forgiveness? patience? endurance and kindness.Akrodhah Absence of anger when insulted? ruked or beaten? i.e.? even under the gravest provocation.Tyagah Renunciation -- literally? giving up giving up of Vasanas? egoism and the fruits of action. Charity is also Tyaga. This has already been mentioned in the previous verse.Santih Serenity of the mind.Apaisunam Absence of narrowmindedness.Daya Compassion to those who are in distress. A man of compassion has a tender heart. He lives only for the benefit of the world. Compassion indicates realisation of unity or oneness with other creatures.Aloluptvam Noncovetousness. The senses are not affected or excited when they come in contact with their respective objects the senses are withdrawn from the objects of the senses? just as the limbs of the tortoise are withdrawn by it into its own shell.Hrih It is shame felt in the performance of actions contrary to the rules of the Vedas or of society.Achapalam Not to speak or move the hands and legs in vain avoidance of useless action.Straightforwardness? noninjury? absence of anger? etc.? are special alities of the Brahmanas. They are the Sattvic virtues which belong to them.Moreover --
।।16.2।। व्याख्या--'अहिंसा'--शरीर, मन, वाणी, भाव आदिके द्वारा किसीका भी किसी प्रकारसे अनिष्ट न करनेको तथा अनिष्ट न चाहनेको 'अहिंसा' कहते हैं। वास्तवमें सर्वथा अहिंसा तब होती है, जब मनष्य संसारकी तरफसे विमुख होकर परमात्माकी तरफ ही चलता है। उसके द्वारा 'अहिंसा' का पालन स्वतः होता है। परन्तु जो रागपूर्वक, भोगबुद्धिसे भोगोंका सेवन करता है वह कभी सर्वथा अहिंसक नहीं हो सकता। वह अपना पतन तो करता ही है, जिन पदार्थों आदिको वह भोगता है, उनका भी नाश करता है।जो संसारके सीमित पदार्थोंको व्यक्तिगत (अपने) न होनेपर भी व्यक्तिगत मानकर सुखबुद्धिसे भोगता है, वह हिंसा ही करता है। कारण कि समष्टि संसारसे सेवाके लिये मिले हुए पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति, आदिमेंसे किसीको भी अपने भोगके लिये व्यक्तिगत मानना हिंसा ही है। यदि मनुष्य समष्टि संसारसे मिली हुई वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति आदिको संसारकी ही मानकर निर्ममतापूर्वक संसारकी सेवामें लगा दे, तो वह हिंसासे बच सकता है और वही अहिंसक हो सकता है। जो सुख और भोगबुद्धिसे भोगोंका सेवन करता है, उसको देखकर, जिनको वे भोगपदार्थ नहीं मिलते -- ऐसे अभावग्रस्तोंको दुःखसंताप होता है। यह उनकी हिंसा ही है क्योंकि भोगी व्यक्तिमें अपना स्वार्थ और सुखबुद्धि रहती है तथा दूसरोंके दुःखकी लापरवाही रहती है। परन्तु जो संतमहापुरुष केवल दूसरोंका हित करनेके लिये ही जीवननिर्वाह करते हैं, उनको देखकर किसीको दुःख हो भी जायगा, तो भी उनको हिंसा नहीं लगेगी क्योंकि वे भोगबुद्धिसे जीवननिर्वाह करते ही नहीं -- 'शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्' (गीता 4। 21)।केवल परमात्माकी ओर चलनेवालेके द्वारा हिंसा नहीं होती क्योंकि वह भोगबुद्धिसे पदार्थ आदिका सेवन नहीं करता। परमत्माकी ओर चलनेवाला साधक शरीर, मन, वाणीके द्वारा कभी किसीको दुःख नहीं पहुँचाता। यदि उसकी बाह्य क्रियाओँसे किसीको दुःख होता है, तो यह दुःख उसके खुदके स्वभावसे ही होता है। साधककी तो भीतरसे कभी किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख देनेकी भावना नहीं होनी चाहिये। उसका भाव निरन्तर सबका हित करनेका होना चाहिये -- 'सर्वभूतहिते रताः'।साधककी साधानमें कोई बाधा डाल दे, तो उसे उसपर क्रोध नहीं आता और न उसके मनमें उसके अहितकी भावना (हिंसा) ही पैदा होती है। हाँ, परमात्माकी ओर चलनेमें बाधा पड़नेसे उसको दुःख हो सकता है, पर वह दुःख भी सांसारिक दुःखकी तरह नहीं होता। साधकको बाधा लगती है, तो वह भगवान्को पुकारता है कि हे नाथ! मेरी कहाँ भूल हुई, जिससे बाधा लग रही है ऐसा विचार करके उसे रोना आ सकता है; पर बाधा डालनेवालेके प्रति क्रोध, द्वेष नहीं हो सकता। बाधा लगनेपर साधकमें तत्परता और सावधानी आती है। यदि उसमें बाधा डालनेवालेके प्रति द्वेष होता है, तो जितने अंशमें द्वेषवृत्ति रहती है, उतने अंशमें तत्परताकी कमी है, अपने साधनका आग्रह है।साधककमें एक तत्परता होती है और एक आग्रह होता है। तत्परता होनेसे साधनमें रुचि रहती है और आग्रह होनेसे साधनमें राग होता है। रुचि होनेसे अपने साधनमें कहाँ-कहाँ कमी है, उसका ज्ञान होता है और उसे दूर करनेकी शक्ति आती है, तथा उसे दूर करनेकी चेष्टा भी होती है। परन्तु राग होनेसे साधनमें विघ्न डालनेवालेके साथ द्वेष होनेकी सम्भावना रहती है। वास्तवमें देखा जाय तो साधनमें हमारी रुचि कम होनेसे ही दूसरा हमारे साधनमें बाधा डालता है। अगर साधनमें हमारी रुचि कम न हो तो दूसरा हमारे साधनमें बाधा नहीं डालेगा, प्रत्युत यह सोचकर उपेक्षा कर देगा कि यह जिद्दी है, मानेगा नहीं अतः जैसा चाहे, वैसा करने दो।जैसे पुष्पसे सुगन्ध स्वतः फैलती है, ऐसे ही साधकसे स्वतः पारमार्थिक परमाणु फैलते हैं और वायुमण्डल शुद्ध होता है। इससे उसके द्वारा स्वतःस्वाभाविक प्राणिमात्रका बड़ा भारी उपकार एवं हित होता रहता है। परन्तु जो अपने दुर्गुणदुराचारोंके द्वारा वायुमण्डलको अशुद्ध करता रहता है, वह प्राणिमात्रकी हिंसा करनेका अपराधी होता है।'सत्यम्'-- अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके केवल दूसरोंके हितकी दृष्टिसे जैसा सुना, देखा, पढ़ा,समझा और निश्चय किया है, उससे न अधिक और न कम -- वैसाकावैसा प्रिय शब्दोंमें कह देना,सत्य है।सत्यस्वरूप परमात्माको पाने और जाननेका एकमात्र उद्देश्य हो जानेपर साधकके द्वारा मन, वाणी और क्रियासे असत्यव्यवहार नहीं हो सकता। उसके द्वारा सत्यव्यवहार, सबके हितका व्यवहार ही होता है। जो सत्यको जानना चाहता है, वह सत्यके ही सम्मुख रहता है। इसलिये उसके मनवाणीशरीरसे जो क्रियाएँ होती हैं, वे सभी उत्साहपूर्वक सत्यकी ओर चलनेके लिये ही होती हैं।'अक्रोधः'-- दूसरोंका अनिष्ट करनेके लिये अन्तःकरणमें जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है, वह क्रोध है। पर जबतक अन्तःकरणमें दूसरोंका अनिष्ट करनेकी भावना पैदा नहीं होती, तबतक वह क्षोभ है, क्रोध नहीं।परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे साधन करनेवाला मनुष्य अपना अपकार करनेवालेका भी अनिष्ट नहीं करना चाहता। वह इस बातको समझता है कि अनिष्ट करनेवाला व्यक्ति वास्तवमें हमारा अनिष्ट कभी कर ही नहीं सकता। यह जो हमे दुःख देनेके लिये आया है, यह हमने पहले कोई गलती की है, उसीका फल है। अतः यह हमें शुद्ध कर रहा है, निर्मल कर रहा है। जैसे, डॉक्टर किसी रुग्ण अङ्ग को काटता है, तो उसपर रोगी क्रोध नहीं करता, प्रत्युत उसे अच्छा मानता है, ठीक मानता है। उसके रुग्ण अङ्गको काटना तो उसे ठीक करनेके लिये ही है। ऐसे ही साधकको कोई अहितकी भावनासे किसी तरहसे दुःख देता है, तो उसमें यह भाव पैदा होता है कि वह मेरेको शुद्ध, निर्मल बनानेमें निमित्त बन रहा है अतः उसपर क्रोध कैसे वह तो मेरा उपकार कर रहा है और भविष्यके लिये सावधान कर रहा है कि जो गलती पहले की है, आगे वैसी गलती न करूँ।जो लोग साधकका हित करनेवाले हैं, उसकी सेवा करनेवाले हैं, वे तो साधकको सुख पहुँचाकर उसके पुण्योंका नाश करते हैं। पर साधकको उनपर (उसके पुण्योंका नाश करनेके कारण) क्रोध नहीं आता। उनपर साधकको यह विचार आता है कि वे जो मेरी सेवा करते हैं, मेरे अनुकूल आचरण करते हैं, यह तो उनकी सज्जनता है, उनका श्रेष्ठ भाव है। परन्तु पुण्योंका नाश तो तब होता है, जब मैं उनकी सेवासे सुख भोगता हूँ। इस प्रकार साधककी दृष्टि सेवा करनेवालोंकी अच्छाई, शुद्ध नीयतपर ही जाती है। अतः साधकको न तो दुःख देनेवालोंपर क्रोध होता है और न सुख देनेवालोंपर। 'त्यागः'-- संसारसे विमुख हो जाना ही असली त्याग है। साधकको जीवनमें बाहरका और भीतरका -- दोनोंका ही त्याग होना चाहिये। जैसे, बाहरसे पाप, अन्याय, अत्याचार, दुराचार आदिका और बाहरी सुखआराम आदिका त्याग भी करना चाहिये, और भीतरसे सांसारिक नाशवान् वस्तुओंकी कामनाका त्याग भी करना चाहिये। इससे भी बाहरके त्यागकी अपेक्षा भीतरकी कामनाका त्याग श्रेष्ठ है। कामनाका सर्वथा त्याग होनेपर तत्काल शान्तिकी प्राप्ति होती है -- 'त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्' (गीता 12। 12)।साधकके लिये उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुओंकी कामना ही वास्तवमें सबसे ज्यादा बाधक होती है। अतः,कामनाका सर्वथा त्याग करना चाहिये। त्याग कब होता है जब साधकका उद्देश्य एकमात्र परमात्मप्राप्तिका ही हो जाता है, तब उसकी कामनाएँ दूर होती चली जाती हैं। कारण कि सांसारिक भोग और संग्रह साधकका लक्ष्य नहीं होता। अतः वह सांसारिक भोग और संग्रहकी कामनाका त्याग करते हुए अपने साधनमें आगे बढ़ता रहता है।'शान्तिः' -- अन्तःकरणमें रागद्वेषजनित हलचलका न होना शान्ति है क्योंकि संसारके साथ रागद्वेष करनेसे ही अन्तःकरणमें अशान्ति आती है और उनके न होनेसे अन्तःकरण स्वाभाविक ही शान्त, प्रसन्न रहता है।अनुकूलतासे पुराने पुण्योंका नाश होता है और उसमें अपना स्वभाव सुधरनेकी अपेक्षा बिगड़नेकी सम्भावना अधिक रहती है। परन्तु प्रतिकूलता आनेपर पापोंका नाश होता है और स्वभावमें भी सुधार होता है। इस बातको समझनेपर प्रतिकूलतामें भी स्वतः शान्ति बनी रहती है।किसी परिस्थिति आदिको लेकर साधकमें कभी रागद्वेषका भाव हो भी जाता है तो उसके मनमें अशान्ति पैदा हो जाती है और अशान्ति होते ही वह तुरंत सावधान हो जाता है कि रागद्वेषपूर्वक कर्म करना मेरा उद्देश्य नहीं है। इस विचारसे फिर शान्ति आ जाती है और समय पाकर स्थिर हो जाती है।'अपैशुनम्'-- किसीके दोषको दूसरेके आगे प्रकट करके दूसरोंमें उसके प्रति दुर्भाव पैदा करना पिशुनता है और इसका सर्वथा अभाव ही अपैशुन है। परमात्मप्राप्तिका ही उद्देश्य होनेसे साधक कभी किसीकी चुगली नहीं करता। ज्यों-ज्यों उसका साधन आगे बढ़ता चला जाता है, त्यों-ही-त्यों उसकी दोषदृष्टि और द्वेषवृत्ति मिटकर दूसरोंके प्रति उसका स्वतः ही अच्छा भाव होता चला जाता है। उसके मनमें यह विचार भी नहीं आता कि मैं साधन करनेवाला हूँ और ये दूसरे (साधन न करनेवाले) साधारण मनुष्य हैं, प्रत्युत तत्परतासे साधन होनेपर उसे जैसी अपनी स्थिति (जडतासे सम्बन्ध न होना) दिखायी देती है, वैसी ही दूसरोंकी स्थिति भी दिखायी देती है कि वास्तवमें उनका भी जडतासे सम्बन्ध नहीं है, केवल सम्बन्ध माना हुआ है। इस तरह जब उसकी दृष्टिमें किसीका भी जडतासे सम्बन्ध है ही नहीं, तो वह किसीका दोष किसीके प्रति क्यों प्रकट करेगाभक्तिमार्गवाला सर्वत्र अपने प्रभुको देखता है, ज्ञानमार्गवाला केवल अपने स्वरूपको ही देखता है और कर्मयोगमार्गवाला अपने सेव्यको देखता है। इसलिये साधक किसीकी बुराई, निन्दा, चुगली आदि कर ही कैसे सकता है'दया भूतेषु'-- दूसरोंको दुःखी देखकर उनका दुःख दूर करनेकी भावनाको दया कहते हैं। भगवान्की, संतमहात्माओंकी, साधकोंकी और साधारण मनुष्योंकी दया अलगअलग होती है -- (1) 'भगवान्की दया'-- भगवान्की दया सभीको शुद्ध करनेके लिये होती है। भक्तलोग इस दयाके दो भेद मानते हैं -- कृपा और दया। मात्र मनुष्योंको पापोंसे शुद्ध करनेके लिये उनके मनके विरुद्ध (प्रतिकूल) परिस्थितिको भेजना कृपा है और अनुकूल परिस्थितिको भेजना दया है। (2) 'संतमहात्माओंकी दया'--संतमहात्मालोग दूसरोंके दुःखसे दुःखी और दूसरोंके सुखसे सुखी होते हैं -- 'पर दुख दुख सुख सुख देखे पर' (मानस 7। 38। 1)। पर वास्तवमें उनके भीतर न दूसरोंके दुःखसे दुःख होता है और न अपने दुःखसे ही दुःख होता है। अपनेपर प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर वे उसमें भगवान्की कृपाको देखते हैं, पर दूसरोंपर दुःख आनेपर उन्हें सुखी करनेके लिये वे उनके दुःखको स्वयं अपनेपर ले लेते हैं। जैसे, इन्द्रने क्रोधपूर्वक बिना अपराधके दधीचि ऋषिका सिर काट दिया था, पर जब इन्द्रने अपनी रक्षाके लिये उनकी ह़ड्डियाँ माँगी, तब दधीचिने सहर्ष प्राण छोड़कर उन्हें अपनी हड्डियाँ दे दीं। इस प्रकार संतमहापुरुष दूसरेके दुःखको सह नहीं सकते, प्रत्युत उन्हें सुख पहुँचानेके लिये अपनी सुखसामग्री और प्राणतक दे देते हैं, चाहे दूसरा उनका अहित करनेवाला ही क्यों न हो (टिप्पणी प0 796) इसलिये संतमहात्माओंकी दया विशेष शुद्ध, निर्मल होती है। (3) 'साधकोंकी दया'--साधक अपने मनमें दूसरोंका दुःख दूर करनेकी भावना रखता है और उसके अनुसार उनका दुःख दूर करनेकी चेष्टा भी करता है। दूसरोंको दुःखी देखकर उसका हृदय द्रवित हो जाता है क्योंकि वह अपनी ही तरह दूसरोंके दुःखको भी समझता है। इसलिये उसका यह भाव रहता है कि सब सुखी कैसे हों सबका भला कैसे हो सबका उद्धार कैसे हो सबका हित कैसे हो अपनी ओरसे वह ऐसी ही चेष्टा करता है परन्तु मैं सबका हित करता हूँ, सबके हितकी चेष्टा करता हूँ -- इन बातोंको लेकर उसके मनमें अभिमान नहीं होता। कारण कि दूसरोंका दुःख दूर करनेका सहज स्वभाव बन जानेसे उसे अपने इस आचरणमें कोई विशेषता नहीं दीखती। इसलिये उसको अभिमान नहीं होता।जो प्राणी भगवान्की ओर नहीं चलते, दुर्गुणदुराचारोंमें रत रहते हैं, दूसरोंका अपराध करते हैं और अपना पतन करते हैं -- ऐसे मनुष्योंपर साधकको क्रोध न आकर दया आती है। इसलिये वह हरदम ऐसी चेष्टा करता रहता है कि ये लोग दुर्गुणदुराचारोंसे ऊपर कैसे उठें इनका भला कैसे हो कभीकभी वह उनके दोषोंको दूर करनेमें अपनेको निर्बल मानकर भगवान्से प्रार्थना करता है कि हे नाथ ये लोग इन दोषोंसे छूट जायँ और आपके भक्त बन जायँ।,(4) 'साधारण मनुष्योंकी दया'--साधारण मनुष्यकी दयामें थोड़ी मलिनता रहती है। वह किसी जीवके हितकी चेष्टा करता है, तो यह सोचता है कि मैं कितना दयालु हूँ मैंने इस जीवको सुख पहुँचाया, तो मैं कितना अच्छा हूँ हरके आदमी मेरेजैसा दयालु नहीं है, कोई-कोई ही होता है, इत्यादि। इस प्रकार लोग मुझे अच्छा समझेंगे, मेरा आदर करेंगे आदि बातोंको लेकर, अपनेमें महत्त्वबुद्धि रखकर जो दया की जाती है, उसमें दयाका अंश तो अच्छा है, पर साथमें उपर्युक्त मलिनताएँ रहनेसे उस दयामें अशुद्धि आ जाती है।इनसे भी साधारण दर्जेके मनुष्य दया तो करते हैं, पर उनकी दया ममतावाले व्यक्तियोंपर ही होती है। जैसे, ये हमारे परिवारके हैं, हमारे मत और सिद्धान्तको माननेवाले हैं, तो उनका दुःख दूर करनेकी इच्छासे उन्हें सुखआराम देनेका प्रयत्न करते हैं। यह दया ममता और पक्षपातयुक्त होनेसे अधिक अशुद्ध है।इनसे भी घटिया दर्जेके वे मनुष्य हैं, जो केवल अपने सुख और स्वार्थकी पूर्तिके लिये ही दूसरोंके प्रति दयाका बर्ताव करते हैं।'अलोलुप्त्वम्'--इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध होनेसे अथवा दूसरोंको भोग भोगते हुए देखनेसे मनका (भोग भोगनेके लिये) ललचा उठनेका नाम लोलुपता है और उसके सर्वथा अभावका नाम अलोलुप्त्व है। अलोलुपताके उपाय -- (1) साधकके लिये विशेष सावधानीकी बात है कि वह अपनी इन्द्रियोंसे भोगोंका सम्बन्ध न रखे और मनमें कभी भी ऐसा भाव, ऐसा अभिमान न आने दे कि मेरा इन्द्रियोंपर अधिकार है अर्थात् इन्द्रियाँ मेरे वशमें हैं अतः मेरा क्या बिगड़ सकता है (2) मैं हृदयसे परमात्माकी प्राप्ति चाहता हूँ, अगर कभी हृदयमें विषयलोलुपता हो गयी, तो मेरा पतन हो जायगा और मैं परमात्मासे विमुख हो जाऊँगा -- इस प्रकार साधक खूब सावधान रहे और कहीं अचानक विचलित होनेका अवसर आ जाय, तो हे नाथ बचाओ हे नाथ बचाओ ऐसे सच्चे हृदयसे भगवान्को पुकारे। (3) स्त्रीपुरुषोंकी तथा जन्तुओँकी कामविषयक चेष्ट न देखे। यदि दीख जाय, तो ऐसा विचार करे कि,यह तो बिलकुल चौरासी लाख योनियोंका रास्ता है। यह चीज तो मनुष्य, पुशपक्षी, कीटपतङ्ग, राक्षसअसुर, भूतप्रेत आदि मात्र जीवोंमें भी है। पर मैं तो चौरासी लाख योनियों अर्थात् जन्ममरणसे ऊँचा उठना चाहता हूँ। मैं जन्ममरणके मार्गका पथिक नहीं हूँ। मेरेको तो जन्म-मरणादि दुःखोंका अत्यन्त अभाव करके परमात्माकी प्राप्ति करना है। इस भावको बड़ी सावधानीके साथ जाग्रत् रखे और जहाँतक बने, ऐसी कामचेष्टा न देखे। 'मार्दवम्'--बिना कारण दुःख देनेवालों और वैर रखनेवालोंके प्रति भी अन्तःकरणमें कठोरताका भाव न होना तथा स्वाभाविक कोमलताका रहना मार्दव है (टिप्पणी प0 797)।साधकके हृदयमें सबके प्रति कोमलताका भाव रहता है। उसके प्रति कोई कठोरता एवं अहितका बर्ताव भी करता है, तो भी उसकी कोमलतामें अन्तर नहीं आता। यदि साधक कभी किसी बातको लेकर किसीको कठोर जवाब भी दे दे, तो वह कठोर जवाब भी उसके हितकी दृष्टिसे ही देता है। पर पीछे उसके मनमें यह विचार आता है कि मैंने उसके प्रति कठोरताका व्यवहार क्यों किया मैं प्रेमसे या अन्य किसी उपायसे भी समझा सकता था -- इस प्रकारके भाव आनेसे कठोरता मिटती रहती है और कोमलता बढ़ती रहती है।यद्यपि साधकोंके भावोंमें और वाणीमें कोमलता रहती है, तथापि उनकी भिन्न-भिन्न प्रकृति होनेसे सबकी वाणीमें एक समान कोमलता नहीं होती। परन्तु हृदयमें साधकोंका सबके प्रति कोमल भाव रहता है। ऐसे ही कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग आदिका साधन करनेवालोंके स्वभावमें विभिन्नता होनेसे उनके बर्ताव सबके प्रति भिन्न-भिन्न होते हैं अतः उनके आचरणोंमें एकजैसी कोमलता नहीं दीखती, पर भीतरमें बड़ी भारी कोमलता रहती है।'ह्रीः'--शास्त्र और लोकमर्यादाके विरुद्ध काम करनेमें जो एक संकोच होता है, उसका नाम 'ह्रीः' (लज्जा) है। साधकको साधनविरुद्ध क्रिया करनेमें लज्जा आती है। वह लज्जा केवल लोगोंके देखनेसे ही नहीं आती, प्रत्युत उसके मनमें अपनेआप ही यह विचार आता है कि रामराम, मैं ऐसी क्रिया कैसे कर सकता हूँ क्योंकि मैं तो परमात्माकी तरफ चलनेवाला (साधक) हूँ। लोग भी मुझे परमात्माकी तरफ चलनेवाला समझते हैं। अतः ऐसी साधनविरुद्ध क्रियाओँको मैं एकान्तमें अथवा लोगोंके सामने कैसे कर सकता हूँ -- इस लज्जाके कारण साधक बुरे कर्मोंसे बच जाता है एवं उसके आचरण ठीक होते चले जाते हैं। जब साधक अपनी अहंता बदल देता है कि मैं सेवक हूँ, मैं जिज्ञासु हूँ, मैं भक्त हूँ, तब उसे अपनी अहंताके विरुद्ध क्रिया करनेमें स्वाभाविक ही लज्जा आती है। इसलिये पारमार्थिक उद्देश्य रखनेवाले प्रत्येक साधकको अपनी अहंता मैं साधक हूँ, मैं सेवक हूँ, मैं जिज्ञासु हूँ, मैं भगवद्भक्त हूँ -- इस प्रकारसे यथारुचि बदल लेनी चाहिये, जिससे वह साधनविरोधी कर्मोंसे बचकर अपने उद्देश्यको जल्दी प्राप्त कर सकता है। 'अचापलम्'--कोई भी कार्य करनेमें चपलताका अर्थात् उतावलापनका न होना अचापल है। चपलता (चञ्चलता) होनेसे काम जल्दी होता है, ऐसी बात नहीं है। सात्त्विक मनुष्य सब काम धैर्यपूर्वक करता है अतः उसका काम सुचारुरूपसे और ठीक समयपर हो जाता है। जब कार्य ठीक हो जाता है, तब उसके अन्तःकरणमें हलचल, चिन्ता नहीं होती। चपलता न होनेसे कार्यमें दीर्घसूत्रताका दोष भी नहीं आता, प्रत्युत कार्यमें तत्परता आती है, जिससे सब काम सुचारुरूपसे होते हैं। अपने कर्तव्यकर्मोंको करनेके अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा न होनेसे उसका चित्त विक्षिप्त और चञ्चल नहीं होता (गीता 18। 26)।
।।16.2।। अहिंसा प्राणियों को पीड़ा न पहुँचाना अहिंसा है। स्वार्थ या द्वेषवशात् किसी को पीड़ित करना हिंसा है। अहिंसा का पालन शरीर? वाणी और मन इन तीनों स्तर पर होना चाहिए। कभीकभी बाह्यदृष्टि से कोई व्यक्ति शरीर को पीड़ा पहुँचाते हुए दिखाई देता है? जैसे एक शल्य चिकित्सक रोगी की चिकित्सा करते हुऐ? उसे पीड़ा देता है किन्तु वह हिंसा नहीं मानी जाती। वैसे भी शारीरिक स्तर पर सम्पूर्ण अहिंसा संभव नहीं हो सकती है? किन्तु मन में कदापि हिंसा का भाव नहीं होना चाहिए। चिकित्सक के मन में इस हिंसा का भाव न होने से उसके द्वारा की गई शल्य चिकित्सा को हिंसा नहीं कहा जाता।सत्यम् सत्य का कुछ भाव आर्जव शब्द की व्याख्या में प्रकट किया जा चुका है। प्रमाणों से सिद्ध अर्थ को उसी रूप में प्रकट करना सत्य कहलाता है।अक्रोध यहाँ इस शब्द का क्रोध का सर्वथा अभाव अर्थ अभिप्रेत नहीं है। साधना की स्थिति में कभीकभी किसी घटना अथवा किसी के दुर्व्यवहार से मन में क्रोध आ जाता है? परन्तु तत्काल ही उसे पहचान कर उसका उपशमन करने की क्षमता को यहाँ अक्रोध कहा गया है। साधक को यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह भी अपने क्रोध को क्रियारूप में व्यक्त न होने दे। इसी प्रकार की अन्य वृत्तियों का उपशमन करने की सार्मथ्य साधक को सम्पादित करनी चाहिए।त्याग यहाँ अहंकार और स्वार्थ का त्याग करने के लिए कहा गया है। पूर्व श्लोक के समान यहाँ उल्लिखित गुणों में भी परस्पर संबंध है। त्याग के अभाव में अक्रोध भी सिद्ध नहीं हो सकता? क्योंकि जब कोई हमारे अहंकार या स्वार्थ को चोट या हानि पहुंचाता है? तभी हमें क्रोध आता है।शान्ति उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न व्यक्ति के मन में विक्षेपों का कोई कारण नहीं रह जाता? इसलिए उसके मन की शान्ति बनी रहती है। बाह्य जगत् की अथवा उसके व्यक्तिगत जीवन की परिस्थितियां कितनी ही दुखदायक और आक्रामक क्यों न हों? उस व्यक्ति का मनसन्तुलन कभी विचलित नहीं होता है।अपैशुनम् किसी व्यक्ति के दोषों को अन्य लोगों के समक्ष प्रकट करने को पैशुन कहते हैं। पैशुन का अभाव ही अपैशुन है। वाणी की मधुरता या कर्कशता वक्ता के व्यक्तित्व पर निर्भर करती है। एक अयुक्त (अर्थात् अशुद्ध अन्तकरण वाले) पुरुष को अन्य लोगों की द्वेषयुक्त निन्दा करने में एक प्रकार का आसुरी आनन्द प्राप्त होता है। प्राय यह कोमल और मांसल जिह्वा ही किसी विनाशकारी अस्त्र से भी अधिक विध्वंसकारी सिद्ध होती है। आत्मविकास के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने की आकांक्षा रखने वाले उद्यमी साधक को ऐसा आन्तरिक सामञ्जस्य स्थापित करना चाहिए कि उसकी वाणी आत्मा की सुरभि का अनुकरण करे। स्वर की कोमलता? वचनों की स्पष्टता? निश्चय्ा की सत्यता? प्रच्छन्न अर्थ से रहित विचारों को श्रोता के मन में स्पष्ट करने की क्षमता? निष्कपटता? भक्ति और प्रेम इन सब से परिपूर्ण संभाषण वक्ता के व्यक्तित्व के आत्मचरित्र का एक विशिष्ट और श्रेष्ठ गुण ही बन जाता है। इस प्रकार के मधुर संभाषण के गुण का स्वयं में विकास करने से अपने व्यक्तित्व के अन्य आयामों का भी स्वत विकास हो जाता है? जो अन्तकरण को अनुशासित करने के लिए आवश्यक होता है।भूतमात्र के प्रति दया दुख और कष्ट से पीड़ित प्राणियों के प्रति कृपा का भाव दया कहलाता है। इसके अतिरिक्त? एक साधक को समाज में रहते हुए यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि समाज के सभी लोग उन्हीं आदर्शों या जीवन मूल्यों का अनुकरण करें? जिनके प्रति स्वयं उसकी श्रद्धा है। लोगों की दृष्टियों में भेद होता है और इसलिए उसे अपने आसपास के लोगों में अपूर्णता और दोष दिखाई दे सकते हैं। परन्तु? उनको इन समस्त दोषों के अन्तरंग में स्थित आत्मा के असीम सौन्दर्य को देखते रहना चाहिए। आत्मदर्शन की यह क्षमता ही सभी साधुओं और सन्तों के मन में स्थित प्राणिमात्र के प्रति दया का रहस्य है। सब के प्रति मन में प्रेम होने पर ही उनके प्रति असीम सहानुभूति और स्नेह का भाव हृदय में उठ सकता है। आत्मा की इस सुन्दरता को यदि अत्यन्त दुखी और दुश्चरित्र व्यक्ति में भी हम नहीं देख सके? तो उनके प्रति हमारे हृदय में स्नेह और दया उत्पन्न नहीं हो सकती।अलोलुपता प्रलोभित और आकर्षित करने वाले विषयों की उपस्थिति में भी मन में विकार उत्पन्न नहीं होना अलोलुपता है।मार्दव (मृदुता) और लज्जा यहाँ लज्जा का अर्थ है? निषिद्ध और निन्द्य प्रकार के कर्म करने में लज्जा का अनुभव करना। इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि निन्द्य कर्मों का त्याग करना तथा शुभ कर्मों में गर्व का न होना अर्थात् नम्रता? विनयशीलता का होना लज्जा शब्द का अभिप्रेत अर्थ है। वस्तुत जो व्यक्ति उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न होता है? उसमें स्वभाव की मृदुता और विनयशीलता स्वाभाविक रूप में आ जाती है? क्योंकि ये दोनों गुण मनुष्य की श्रेष्ठ संस्कृति के द्योतक हैं।अचापलम् मनुष्य के मन की चंचलता और स्वभाव की अस्थिरता उसकी शारीरिक चेष्टाओं में प्रकट होती है। सतत चंचलता? अकस्मात् कर्म का प्रारम्भ करना? अश्लील प्रकार की शारीरिक चेष्टाएं? व्यसनानन्द के अतिरेक से अंग प्रक्षेपण इत्यादि लक्षण केवल एक असंस्कृत व्यक्ति में देखे जाते हैं? जिसने न कभी स्वभाव की स्थिरता को और न कभी व्यक्तित्व को आदर्शपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया हो। ये लक्षण एक शिशु में देखे जाते हैं? और उस दशा में वे उसके सौन्दर्यवर्धक ही माने जाते हैं। परन्तु जैसेजैसे व्यक्ति का विकास होता जाता है? उसका आत्मसंयम ही उसका सौन्दर्य समझा जाता है? जो उसकी शारीरिक चेष्टाओं के द्वारा स्पष्ट होता है।श्री शंकराचार्य जी इसका अर्थ बताते हैं? प्रयोजन के अभाव में हाथ? पैर? वाणी आदि इन्द्रियों का व्यापार न होना अचापलम् कहलाता है। यह इस शब्द का व्यापक अर्थ है और इसका आशय यह भी है कि लक्ष्य प्राप्ति के लिए उपयोगी कार्य में तत्परता और समस्त शारीरिक शक्तियों की मितव्ययिता होना चाहिए। अनावश्यक चेष्टाएं करना दुर्बल व्यक्तित्व का लक्षण है। ऐसे व्यक्ति कल्पनाओं में ही खोये रहते हैं और मानसिक तथा बौद्धिक स्तर पर अत्यन्त दुर्बल होते हैं। अत अचापलम् नामक गुण के सम्पादन से हम अपने व्यक्तित्व की अनेक प्रकार की सामान्य दुर्बलताओं का उपचार कर सकते हैं।और
।।16.2।।दैवीं संपदमभिजातस्य विशेषणान्तराणि दर्शयति -- किञ्चेति। त्यागशब्देन दानं कस्मान्नोच्यते तत्राह -- पूर्वमिति। लज्जाऽकार्यनिवृत्तिहेतुगर्हानिमित्ता मनोवृत्तिः।
।।16.2।।किंचाऽहिंसा वृत्तिच्छेदादिना प्राणिनां पीडायाः वर्जनं अहिंसनम्। अप्रियानृतादिहितवर्जितं यथाभूतार्थभाषणं सत्यम्। परैः कृतेनाक्रोशेन ताडनेन वा प्राप्तस्य क्रोधस्योपशमनमक्रोधः। त्यागः संन्यासः। पूर्वं दानस्योक्तत्वात्। एतेनोपात्तवित्तादेः पात्रेऽर्पणं त्याग गति प्रत्युक्तम्।।दानत्यागशब्दयोरुक्तार्थे एव प्रसिद्धेः। शान्तिरन्तःकरणस्योपशमः परस्मै पररन्ध्र प्रकटीकरणं पैशुनं तदभावोऽपैशुनम्। दुःखितेषु कृपा दया। विषयसंनिधानेपीन्द्रयाणामविक्रियत्वमलोलुप्त्वम्। मार्दवमक्रोर्यम्। ह्नीरकार्येषु लोकलज्जा। आसीत प्रयोजने वाक्पाणिपादानामव्यापारयितृत्वमचापलम्।
।।16.2।।पैशुनं परोपद्रवनिमित्तदोषाणां राजादेः कथनम्।परोपद्रवहेतूनां दोषाणां पेशुनं वचः। राजादेस्तु मदाद्भीतेरदृष्टिर्दर्प उच्यते इत्यभिधानात्। लौल्यं रागःरागो लौल्यं तथा रक्तिः इत्यभिधानात्। अचापलं स्थैर्यम्।चपलश्चञ्चलोऽस्थिरः इत्यभिधानात्।
।।16.2।।किञ्च अहिंसा प्राणिपीडावर्जनम्। सत्यमप्रियानृतवर्जनं यथाभूतार्थभाषणम्। अक्रोधः परैराक्रुष्टस्याभिहतस्य वा प्राप्तस्य क्रोधस्योपशमनम्। त्यागः सर्वकर्मसंन्यासः पूर्वं दानस्योक्तत्वात्। शान्तिरन्तःकरणस्योपरमः। अपैशुनं परदोषप्रकाशनं पैशुनं तद्वर्जनम्। दया दुःखितेषु भूतेषु कृपा। अलोलुप्त्वमिन्द्रियाणां विषयसंनिधावप्यविक्रिया। मार्दवं मृदुता। ह्रीर्लज्जा। अचापलं असति प्रयोजने वाक्पाणिपादादीनामव्यापारयितृत्वम्।
।।16.2।।अहिंसा परपीडावर्जनम्।सत्यं यथादृष्टार्थगोचरभूतहितवाक्यम्।अक्रोधः परपीडाफलचित्तविकाररहितत्वम्।त्यागः आत्महितप्रत्यनीकपरिग्रहविमोचनम्।शान्तिः इन्द्रियाणां विषयप्रावण्यनिरोधसंशीलनम्।अपैशुनं परानर्थकवाक्यनिवेदनाकरणम्।दया भूतेषु सर्वेषु दुःखासहिष्णुत्वम्।अलोलुप्त्वम्? अलोलुपत्वम्? अलोलुत्वम् इति वा पाठः। विषयेषु निःस्पृहत्वम् इत्यर्थः।मार्दवम् अकाठिन्यम् साधुजनसंश्लेषार्हता इत्यर्थः।ह्रीः अकार्यकरणे व्रीडा।अचापलं स्पृहणीयविषयसन्निधौ अचपलत्वम्।
।।16.2।। किंच -- अहिंसेति। अहिंसा परपीडावर्जनम्? सत्यं यथार्थभाषणम्? अक्रोधस्ताडितस्यापि चित्ते क्षोभानुत्पत्तिः? त्याग औदार्यम्? शान्तिश्चित्तोपरतिः? पैशुनं परोक्षे परदोषप्रकाशनम्? तद्वर्जनमपैशुनम्? भूतेषु दीनेषु दया? अलोलुप्त्वं लोभाभावः? अवर्णलोप आर्षः। मार्दवं मृदुत्वमक्रूरता? ह्रीः अकार्यप्रवृत्तौ लोकलज्जा? अचापलं व्यर्थक्रियाराहित्यम्।
।।16.2।।कौटिल्यप्रसङ्गस्थले हि तन्निवृत्तिर्वक्तव्येत्यभिप्रायः।परपीडावर्जनमिति स्वपीडोपलक्षणम्। स्वपीडाऽपि मूर्खाणां परपीडाभिप्रायेति वा भावः। यथादृष्टार्थवचनेनैव सत्यवादी भवति तथापिसत्यं भूतहितं प्रोक्तम् इति नियमात् भूतहितोक्तिः।परपीडाफलेति प्राग्वद्भाव्यम्। स्वभावार्थशास्त्रप्राप्तानां निद्राशनमहायज्ञदण्डकुण्डिकादीनां त्यागायोगाद्विशेषे नियच्छति -- आत्महितप्रत्यनीकेति। दमशब्देन मनोनियमनस्योक्तत्वात्। शान्तो दान्तः [बृ.उ.4।4।23] इत्यादिष्विव शान्तिरिह बाह्येन्द्रियगतेत्यभिप्रायेणाह -- इन्द्रियाणामिति। अक्रोधाहिंसादिष्विव प्रतियोगिलक्षणद्वारेण अपैशुनं लक्षयतिपरानर्थेति।दया इत्येतावता भूतविषयत्वे सिद्धेऽपि पुनरुपादानं बहुवचनं च शत्रुमित्रादिसर्वविषयाभिप्रायेण। यथोक्तं गौतमेन -- दया सर्वेषु भूतेषु क्षान्तिरनसूया शौचमनायासो मङ्गलमकार्पण्यमस्पृहा [गौ.ध.7।10] इति। अन्यत्र चसर्वभूतदया पुष्पम् [प.पु.4।73।58] इत्यादि। तदाह -- सर्वभूतेष्विति।तापत्रयेणाभिहतं यदेतदखिलं जगत्। तदाशोच्येषु भूतेषु करुणां न करोति कः (द्वेषं प्राप्तः करोति कः) [वि.पु.1।17।70] इति हि करुणाख्यचित्तपरिकर्म प्रह्लादः प्राह। दुःखासहिष्णुत्वं तन्निराकरणेच्छेत्यर्थः। लुपिधातौ यङ्लुगन्ते क्विपि कृते लोलुबिति पकारान्तं पदम् अचि कृते तु सोलुप इति? तद्व्यञ्जयति -- अलोलुप्त्वम् अलोलुपत्वमिति।लृञ् छेदने [धा.पा.9।11] इति धातौ लोट् इति यङ्लुगन्तम्। तत्रत्वे च [अष्टा.3।3।64] इति च्छान्दसं ह्रस्वमभिप्रेत्याह -- अलोलुत्वमिति वा पाठ इति। अयोग्यस्पृहारूपं लौल्यमिह निषिध्यत इत्यभिप्रायेणाह -- विषयेष्विति। मुख्यस्य मार्दवस्यात्रानन्वयात् पूर्वभाषित्वमुखसौम्यत्वादिव्यङ्ग्यमौपचारिकं दर्शयितुमाह -- अकाठिन्यमिति। कठिनं हि द्रव्यमन्येषां अनुप्रवेशानर्हम् तद्वदिह स्तब्धप्रकृतिरिति तद्व्यतिरेकविवक्षया फलतो मार्दवं व्यनक्ति -- साधुजनेति। अवमतत्वादीनां योगोपकारकत्वात्तन्मूला व्रीडा सत्त्वनिष्ठानामयुक्ता अत उपयुक्तं ह्रीविशेषमाह -- अकार्यकरणे व्रीडेति। प्रख्याताभिजनविद्यावृत्ता हि महान्तः परेष्वप्यकार्यकारिष्वपत्रपन्ते स्वयं तु किमुतेति भावः। अलोलुपत्वाचापलत्वयोरपौनरुक्त्यायाह -- स्पृहणीयविषयसन्निधाविति। एतेन क्रीडापरिहासमृगयाक्षादिष्व प्रसङ्गोऽपि दर्शितः।
।।16.1 -- 16.5।।एतद्बुद्ध्वा इत्युक्तम्। बोधश्च नाम श्रुतिमयज्ञानान्तरम् (S श्रुत -- ) इदमित्थम् इत्येवंभूतयुक्तिचिन्ताभावनामयज्ञानोदेयेन (S??N चिन्तामयज्ञानोदयेन) विचारविमर्शपरमर्शादिरूपेण विजातीयन्यक्कारविरहिततद्भावनामयस्वभ्यस्ताकारविज्ञानलाभे सति भवति। यद्वक्ष्यते (S तद्वक्ष्यते N तद्वक्ष्यति) -- विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसी तथा कुरु (XVIII? 63) इति। तत्र श्रुतिमये ज्ञाने गुरुशास्त्रे एव प्राधान्येन प्रभवतः युक्तिचिन्ताभावनामये तु विमर्शक्षमता असाधारणा शिष्यगुणसंपत् ( -- रणशिष्य -- ) प्रधानभूता। अतः अर्जुनस्यास्त्येवासौ इत्यभिप्रायेण वक्ष्यमाणं विमृश्यैतत् इति वाक्यं सविषयं कर्तुं परिकरबन्धयोजनाभिप्रायेण आह भगवान् गुरुः अभयम् इत्यादि।आसुरभागसन्नविष्टा तामसी किल अविद्या। सा प्रवृद्धया दिव्यांशग्राहित्या विद्यया बाध्यते ( प्रवृद्धाया -- विद्याया बध्यते) इति वस्तुस्वभाव एषः। त्वं च विद्यात्मानं दिव्यमंशं सात्त्विकमभिप्रपन्नः तस्मादान्तरीं मोहलक्षणामविद्यां विहाय बाह्याविद्यात्मशत्रुहननलक्षणं (S बाह्यविद्या) शास्त्रीयव्यापारम् अनुतिष्ठ इत्यध्यायारम्भः।तथाहि -- अभयमित्यादि पाण्डवेत्यन्तम्। दिव्यांशस्य इमानि चिह्नानि तानि स्फुटमेवाभिलक्ष्यन्ते (S? स्फुटमेवोपलक्ष्यन्ते)। दमः (S omits दमः) इन्द्रियजयः। चापलं पूर्वापरमविमृश्य यत् करणम्? तदभावः अचापलम्। तेजः आत्मनि उत्साहग्रहणेन मितत्वापाकरणम्। दैवी संपदेषा। सा च तव विमोक्षाय? कामनापरिहारात्। अतस्त्वं शोकं मा प्रापः -- यथा भ्रात्रादीन् हत्वा सुखं कथमश्नुवीय इति। शिष्टं स्पष्टम्।
।।16.2।।पैशुनाभावोऽपैशुनं च परस्यापराधावचनमिति तदसत्? शिष्यादिदोषानुवादस्य शिक्षार्थस्यापि तत्त्वप्राप्तेरित्याशयेनाह -- पैशुनमिति। राजादेस्तच्छ्रावणम्। परोपद्रवनिमित्तेति दोषेषूपचारः। अनेन परोपद्रवायेति सूचयति। वचः कथनम्। मदात्कारणात्। भीतेरदृष्टिरनुत्पत्तिरिति यावत्। भीतेर्भीतिकारणस्य तथात्वेनादृष्टिरिति वा। बालादीनां भीतेरदर्शनं व्यावर्तयितुंमदात् इत्युक्तम्। अनेन धात्वर्थोऽप्यनुगतः। एतेनासुरलक्षणं दर्पोऽपि व्याख्यातः। अलोलुप्त्वाचापलत्वयोर्भेदं क्रमेण सप्रमाणकं दर्शयति -- लौल्यमिति। लोलुप्त्वपर्यायोऽयमिति अतएवमुक्तम्।
।।16.2।।अहिंसेति। प्राणिवृत्तिच्छेदो हिंसा तदहेतुत्वमहिंसा। सत्यमनर्थाननुबन्धि यथाभूतार्थवचनम्। परैराक्रोशे ताडने वा कृते सति प्राप्तो यः क्रोधस्तस्य तत्कालमुपशमनमक्रोधः। दानस्य प्रागुक्तेस्त्यागः संन्यासः। दमस्य प्रागुक्तेः शान्तिरन्तःकरणस्योपशमः। परस्मै परोक्षे परदोषप्रकाशनं पैशुनं तदभावोऽपैशुनम्। दया भूतेषु दुःखितेष्वनुकम्पा। अलोलुप्त्वं इन्द्रियाणां विषयसंनिधानेप्यविक्रियत्वम्। मार्दवमक्रूरत्वं वृथापूर्वपक्षादिष्वपि शिष्यादिष्वप्रियभाषणादिव्यतिरेकेण बोधयितृत्वम्। ह्रीरकार्यप्रवृत्त्यारम्भे तत्प्रतिबन्धिका लोकलज्जा। अचापलं,प्रयोजनंविनापि वाक्पाण्यादिव्यापारयितृत्वं चापलं तदभावः। आर्जवादयोऽचापलान्ता ब्राह्मणस्यासाधारणा धर्माः।
।।16.2।।अहिंसा परपीडाराहित्यं? सत्यं स्वार्थपरार्थलोभादिराहित्येन यथार्थभाषणम्? अक्रोधो निष्कारणताडनादिभिरपि क्षोभाभावः? त्यागः अनासक्तिः? शान्तिः चित्तस्थैर्यम्? अपैशुनं सर्वत्र भगवदात्मबुद्ध्या परापवादराहित्यम्? भूतेषु दया जीवेषु भगवद्वियुक्तत्वेन दया तत्स्मरणोपदेशादिरूपा? अलोलुप्त्वं भोगेच्छया मनोधावनत्वाभावः? मार्दवं मृदुत्वं परदुःखाभिज्ञत्वम्? ह्रीः लज्जा प्रभुविप्रयोगजीवने सेवाद्यकरणेन लौकिकप्रवृत्तौ च? अचापलं लौकिकक्रियासक्त्या भगवत्क्रियादिषु शैघ्र्याभावः।
।।16.2।। --,अहिंसा अहिंसनं प्राणिनां पीडावर्जनम्। सत्यम् अप्रियानृतवर्जितं यथाभूतार्थवचनम्। अक्रोधः परैः आक्रुष्टस्य अभिहतस्य वा प्राप्तस्य क्रोधस्य उपशमनम्। त्यागः संन्यासः? पूर्वं दानस्य उक्तत्वात्। शान्तिः अन्तःकरणस्य उपशमः। अपैशुनं अपिशुनता परस्मै पररन्ध्रप्रकटीकरणं पैशुनम्? तदभावः अपैशुनम्। दया कृपा भूतेषु दुःखितेषु। अलोलुप्त्वम् इन्द्रियाणां विषयसंनिधौ अविक्रिया। मार्दवं मृदुता अक्रौर्यम्। ह्रीः लज्जा। अचापलम् असति प्रयोजने वाक्पाणिपादादीनाम् अव्यापारयितृत्वम्।।किं च --,
।।16.1 -- 16.3।।पूर्वाध्यायेयो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् [15।19] इत्युक्तं? तत्रबुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः इत्युक्तत्वादसम्मूढस्य दैवत्वं? तदितरस्य चासुरत्वमिति विभजन् पूर्वं दैवीं सम्पदमाह त्रिभिः श्रीभगवान् -- अभयमिति। एते षड्विंशतिगुणाः दैवीं सम्पदमभिजातस्य भवन्ति? देवसम्बन्धिनी दैवी। देवा भगवद्वचनानुवर्त्तिर्धमशीलास्तेषां सम्पत्साधनरूपा सामग्री सृष्टिर्वा? सा च भगवन्निगमधर्मानुवर्त्तिकैव? तामभिजातस्य दैवजीवस्य भवन्तीत्यर्थः।