दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।16.4।।
dambho darpo ’bhimānaśh cha krodhaḥ pāruṣhyam eva cha ajñānaṁ chābhijātasya pārtha sampadam āsurīm
Hypocrisy, arrogance, and self-conceit, anger, harshness, and ignorance—these belong to one who is born for a demoniacal state, O Partha.
16.4 दम्भः hypocrisy? दर्पः arrogance? अभिमानः selfconceit? च and? क्रोधः wrath? पारुष्यम् harshness? एव even? च and? अज्ञानम् ignorance? च and? अभिजातस्य to the one born for? पार्थ O Partha? सम्पदम् state?,आसुरीम् demoniacal.Commentary Dambha Hypocrisy. To pretend to be what one is not? to pretend to be religious and pious. It consists of bragging of ones own greatness. Religious hypocrisy is the worst form of hypocrisy. Hypocrisy is a mixture of deceit and falsehood. Those who boast about their own merits will get demerit only.Darpa Arrogance. Pride of learning? wealth? high connection? etc. An arrogant man cannot endure to see his fellowmen happy. He is more and more enraged at the fortune of his fellowmen in the matter of learning? happiness and prosperity.Parushyam (in speech) To speak of the blind as having lotuslike eyes? of the ugly as beautiful? of a man of low birth as one of high birth and so on? usually with an ulterior? selfish or evil motive.Ajnanam Ignorance? misconception of ones duties. An ignorant man is blind as to what should be done and what should not be done. There is absence of discrimination. Just as a child will put anything it gets in its hands into its mouth? whether it is clean or dirty? so also is the condition of the ignorant man who is not able to discriminate between the Real and the unreal? the good and the evil? virtue and vice. He is on the path of destruction. He does not know the road that leads to Moskha or liberation. He is drowned in the ocean of this worldly existence.These are the six demonical alities. These evil alities constitute the satanic or demonical wealth. They are obstacles on the path of liberation.By addressing Arjuna as Partha? Lord Krishna implies that Arjuna has no demonical alities in him as he is born in a noble family and is the son of Pritha.People of Asuric nature have no faith. They dispute every doctrine. They deny the existence of God. They deny the cycle of the worldprocess? the Vedas and the laws of ethics. Sensual indulgence is their goal. They rob people and take away their neighbours wives. They kill people ruthlessly. They do not believe in reincarnation and in the other world. They have no idea of right conduct? purity and selfrestraint.Asuras are those persons who have waged war and who still wage war with the gods in heaven. Those who are endowed with Asuric tendencies or evil alities are Asuras or demons. They exist in abundance in this iron age. Kamsa was an Asura. Hiranyakasipu was an Asura.Even a man of university alitifactions and titles is a veritable Asura if he is endowed with evil tendencies or Asubha Vasanas.Esoterically? the war between the Asuras and the gods is the internal fight that is ever going on between the pure and the impure tendencies in man? between Sattva and RajasTamas.
।।16.4।। व्याख्या -- दम्भः -- मान? बड़ाई? पूजा? ख्याति आदि प्राप्त करनेके लिये? अपनी वैसी स्थिति न होनेपर भी वैसी स्थिति दिखानेका नाम दम्भ है। यह दम्भ दो प्रकारसे होता है --,(1) सद्गुणसदाचारोंको लेकर -- अपनेको धर्मात्मा? साधक? विद्वान्? गुणवान् आदि प्रकट करना अर्थात् अपनेमें वैसा आचरण न होनेपर भी अपनेमें श्रेष्ठ गुणोंको लेकर वैसा आचरण दिखाना? थोड़ा होनेपर भी ज्यादा दिखाना? भोगी होनेपर भी अपनेको योगी दिखाना आदि दिखावटी भावों और क्रियाओंका होना -- यह सद्गुणसदाचारोंको लेकर दम्भ है।(2) दुर्गुणदुराचारोंको लेकर -- जिसका आचरण? खानपान स्वाभाविक अशुद्ध नहीं है? ऐसा व्यक्ति भी जिनके आचरण? खानपान अशुद्ध हैं -- ऐसे दुर्गुणीदुराचारी लोगोंमें जाकर उनको राजी करके अपनी इज्जत जमानेके लिये? मानआदर आदि प्राप्त करनेके लिये? अपने मनमें बुरा लगनेपर भी वैसा आचरण? खानपान कर बैठता है -- यह दुर्गुणदुराचारोंको लेकर दम्भ है।तात्पर्य यह है कि जब मनुष्य प्राण? शरीर? धन? सम्पत्ति? आदर? महिमा आदिको प्रधानता देने लगता है? तब उसमें दम्भ आ जाता है।दर्पः -- घमण्डका नाम दर्प है। धनवैभव? जमीनजायदाद? मकानपरिवार आदि ममतावाली चीजोंको लेकर अपनेमें जो बड़प्पनका अनुभव होता है? वह दर्प है। जैसे -- मेरे पास इतना धन है मेरा इतना बड़ा परिवार है मेरा इतना राज्य है मेरे पास इतनी जमानजायदाद है मेरे पीछे इतने आदमी हैं मेरी आवाजके पीछे इतने आदमी बोलते हैं मेरे पक्षमें बहुत आदमी हैं धनसम्पत्तिवैभवमें मेरी बराबरी कौन कर सकता है मेरे पास ऐसेऐसे पद हैं? अधिकार हैं संसारमें मेरा कितना यश? प्रतिष्ठा हो रही है मेरे बहुत अनुयायी हैं मेरा सम्प्रदाय कितना ऊँचा है मेरे गुरुजी कितने प्रभावशाली हैं आदिआदि।अभिमानः -- अहंतावाली चीजोंको लेकर अर्थात् स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरको लेकर अपनेमें जो बड़प्पनका अनुभव होता है? उसका नाम अभिमान है (टिप्पणी प0 802.1)। जैसे -- मैं जातिपाँतिमें कुलीन हूँ मैं वर्णआश्रममें ऊँचा हूँ हमारी जातिमें हमारी प्रधानता है गाँवभरमें हमारी बात चलती है अर्थात् हम जो कह देंगे? उसको सभी मानेंगे हम जिसको सहारा देंगे? उस आदमीसे विरुद्ध चलनेमें सभी लोग भयभीत होंगे और हम जिसके विरोधी होंगे? उसका साथ देनेमें भी सभी लोग भयभीत होंगे राजदरबारमें भी हमारा आदर है? इसलिये हम जो कह देंगे? उसे कोई टालेगा नहीं हम न्यायअन्याय जो कुछ भी करेंगे? उसको कोई टाल नहीं सकता? उसका कोई विरोध नहीं कर सकता मैं बड़ा विद्वान् हूँ? मैं अणिमा? महिमा? गरिमा आदि सिद्धियोंको जानता हूँ? इसलिये सारे संसारको उथलपुथल कर सकता हूँ? आदिआदि।क्रोधः -- दूसरोंका अनिष्ट करनेके लिये अन्तःकरणमें जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है? उसका नाम,क्रोध है।मनुष्यके स्वभावके विपरीत कोई काम करता है तो उसका अनिष्ट करनेके लिये अन्तःकरणमें उत्तेजना होकर जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है? वह क्रोध है। क्रोध और क्षोभमें अन्तर है। बच्चा उद्दण्डता करता है? कहना नहीं मानता? तो मातापिता उत्तेजनामें आकर उसको ताड़ना करते हैं -- यह उनका क्षोभ (हृदयकी हलचल) है? क्रोध नहीं। कारण कि उनमें बच्चेका अनिष्ट करनेकी भावना होती ही नहीं? प्रत्युत बच्चेके हितकी भावना होती है। परंतु यदि उत्तेजनामें आकर दूसरेका अनिष्ट? अहित करके उसे दुःख देनेमें सुखका अनुभव होता है? तो यह क्रोध है। आसुरी प्रकृतिवालोंमें यही क्रोध होता है।क्रोधके वशीभूत होकर मनुष्य न करनेयोग्य काम भी कर बैठता है? जिसके फलस्वरूप स्वयं उसको पश्चात्ताप करना पड़ता है। क्रोधी व्यक्ति उत्तेजनामें आकर दूसरोंका अपकार तो करता है? पर क्रोधसे स्वयं उसका अपकार कम नहीं होता क्योंकि अपना अनिष्ट किये बिना क्रोधी व्यक्ति दूसरेका अनिष्ट कर ही नहीं सकता। इसमें भी एक मर्मकी बात है कि क्रोधी व्यक्ति जिसका अनिष्ट करता है? उसका किन्हीं दुष्कर्मोंका जो फल भोगरूपसे आनेवाला है? वही होता है अर्थात् उसका कोई नया अनिष्ट नहीं हो सकता परंतु क्रोधी व्यक्तिका दूसरेका अनिष्ट करनेकी भावनासे और अनिष्ट करनेसे नया पापसंग्रह हो जायगा तथा उसका स्वभाव भी बिगड़ जायगा। यह स्वभाव उसे नरकोंमें ले जानेका हेतु बन जायगा और वह जिस योनिमें जायगा? वहीं उसे दुःख देगा।क्रोध स्वयंको ही जलाता है (टिप्पणी प0 802.2)। क्रोधी व्यक्तिकी संसारमें अच्छी ख्याति नहीं होती? प्रत्युत निन्दा ही होती है। खास अपने घरके आदमी भी क्रोधीसे डरते हैं। इसी अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें भगवान्ने क्रोधको नरकोंका दरवाजा बताया है। जब मनष्यके स्वार्थ और अभिमानमें बाधा पड़ती है? तब क्रोध पैदा होता है। फिर क्रोधसे सम्मोह? सम्मोहसे स्मृतिविभ्रम? स्मृतिविभ्रमसे बुद्धिनाश और बुद्धिनाशसे मनुष्यका पतन हो जाता है (गीता 2। 62 -- 63)।पारुष्यम् -- कठोरताका नाम पारुष्य है। यह कई प्रकारका होता है जैसे -- शरीरसे अकड़कर चलना? टेढ़े चलना -- यह शारीरिक पारुष्य है। नेत्रोंसे टेढ़ामेढ़ा देखना -- यह नेत्रोंका पारुष्य है। वाणीसे कठोर बोलना? जिससे दूसरे भयभीत हो जायँ -- यह वाणीका पारुष्य है। दूसरोंपर आफत? संकट? दुःख आनेपर भी उनकी सहायता न करके राजी होना आदि जो कठोर भाव होते हैं? यह हृदयका पारुष्य है।जो शरीर और प्राणोंके साथ एक हो गये हैं? ऐसे मनुष्योंको यदि दूसरोंकी क्रिया? वाणी बुरी लगती है? तो उसके बदलेमें वे उनको कठोर वचन सुनाते हैं? दुःख देते हैं और स्वयं राजी होकर कहते हैं कि आपने देखा कि नहीं मैंने उसके साथ ऐसा कड़ा व्यवहार किया कि उसके दाँत खट्टे कर दिये अब वह मेरे साथ बोल सकता है क्या यह सब व्यवहारका पारुष्य है।स्वार्थबुद्धिकी अधिकता रहनेके कारण मनुष्य अपना मतलब सिद्ध करनेके लिये? अपनी क्रियाओंसे दूसरोंको कष्ट होगा? उनपर कोई आफत आयेगी -- इन बातोंपर विचार ही नहीं कर सकता। हृदयमें कठोर भाव होनेसे वह केवल अपना मतलब देखता है और उसके मन? वाणी? शरीर? बर्ताव आदि सब जगह कठोरता रहती है। स्वार्थभावकी बहुत ज्यादा वृत्ति बढ़ती है? तो वह हिंसा आदि भी कर बैठता है? जिससे उसके स्वभावमें स्वाभाविक ही क्रूरता आ जाती है। क्रूरता आनेपर हृदयमें सौम्यता बिलकुल नहीं रहती। सौम्यता न रहनेसे उसके बर्तावमें? लेनदेनमें स्वाभाविक ही कठोरता रहती है। इसलिये वह केवल दूसरोंसे रुपये ऐँठने? दूसरोंको दुःख देने आदिमें लगा रहता है। इनके परिणाममें मुझे सुख होगा या दुःख -- इसका वह विचार ही नहीं कर सकता।अज्ञानम् -- यहाँ अज्ञान नाम अविवेकका है। अविवेकी पुरुषोंको सत्असत्? सारअसार? कर्तव्यअकर्तव्य आदिका बोध नहीं होता। कारण कि उनकी दृष्टि नाशवान् पदार्थोंके भोग और संग्रहपर ही लगी रहती है। इसलिये (परिणामपर दृष्टि न रहनेसे) वे यह सोच ही नहीं सकते कि ये नाशवान् पदार्थ कबतक हमारे साथ रहेंगे और हम कबतक इनके साथ रहेंगे। पशुओंकी तरह केवल प्राणपोषणमें ही लगे रहनेके कारण वे क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है -- इन बातोंको नहीं जान सकते और न जानना ही चाहते हैं।वे तात्कालिक संयोगजन्य सुखको ही सुख मानते हैं और शरीर तथा इन्द्रियोंके प्रतिकूल संयोगको ही दुःख मानते हैं। इसलिये वे उद्योग तो सुखके लिये ही करते हैं? पर परिणाममें उनको पहलेसे भी अधिक दुःख मिलता है (टिप्पणी प0 803.1)। फिर भी उनको चेत नहीं होता कि इसका हमारे लिये नतीजा क्या होगा वे तो मानबड़ाई? सुखआराम? धनसम्पत्ति आदिके प्रलोभनमें आकर न करनेलायक काम भी करने लग जाते हैं? जिनका नतीजा उनके लिये तथा दुनियाके लिये भी बड़ा अहितकारक होता है।अभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् -- हे पार्थ ये सब आसुरी सम्पत्ति (टिप्पणी प0 803.2) को प्राप्त हुए मनुष्योंके लक्षण हैं। मरणधर्मी शरीरके साथ एकता मानकर मैं कभी मरूँ नहीं सदा जीता रहूँ और सुख भोगता रहूँ -- ऐसी इच्छावाले मनुष्यके अन्तःकरणमें ये लक्षण होते हैं।अठारहवें अध्यायके चालीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि कोई भी साधारण प्राणी प्रकृतिके गुणोंके सम्बन्धसे सर्वथा रहित नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक जीव परमात्माका अंश होते हुए भी प्रकृतिके साथ सम्बन्ध लेकर ही पैदा होता है। प्रकृतिके साथ सम्बन्धका तात्पर्य है -- प्रकृतिके कार्य शरीरमें मैंमेरे का सम्बन्ध (तादात्म्य) और पदार्थोंमें ममता? आसक्ति तथा कामनाका होना। शरीरमें मैंमेरेका सम्बन्ध ही आसुरीसम्पत्तिका मूलभूत लक्षण है। जिसका प्रकृतिके साथ मुख्यतासे सम्बन्ध है? उसीके लिये यहाँ कहा गया है कि वह आसुरीसम्पत्तिको प्राप्त हुआ है।प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जीवका अपना माना हुआ है। अतः वह जब चाहे इस सम्बन्धका त्याग कर सकता है। कारण कि जीव (आत्मा) चेतन तथा निर्विकार है और प्रकृति जड तथा प्रतिक्षण परिवर्तनशील है? इसलिये चेतनका जडसे सम्बन्ध वास्तवमें है नहीं? केवल मान रखा है। इस सम्बन्धको छोड़ते ही आसुरीसम्पत्ति सर्वथा मिट जाती है। इस प्रकार मनुष्यमें आसुरीसम्पत्तिको मिटानेकी पूरी योग्यता है। तात्पर्य है कि आसुरी सम्पत्तिको प्राप्त होते हुए भी वह प्रकृतिसे अपना सर्वथा सम्बन्धविच्छेद करके आसुरीसम्पत्तिको मिटा सकता है।प्राणोंमें मनुष्यका ज्योंज्यों मोह होता जाता है? त्योंहीत्यों आसुरीसम्पत्ति अधिक बढ़ती जाती है। आसुरीसम्पत्तिके अत्यधिक बढ़नेपर मनुष्य अपने प्राणोंको रखनेके लिये और सुख भोगनेके लिये दूसरोंका नुकसान भी कर देता है। इतना ही नहीं? दूसरोंकी हत्या कर देनेमें भी वह नहीं हिचकता।मनुष्य जब अस्थायीको स्थायी मान लेता है? तब आसुरीसम्पत्तिके दुर्गुणदुराचारोंके समूहकेसमूह उसमें आ जाते हैं। तात्पर्य है कि असत्का सङ्ग होनेसे असत् आचरण? असत् भाव और दुर्गुण बिना बुलाये तथा बिना उद्योग किये अपनेआप आते हैं? जो मनुष्यको परमात्मासे विमुख करके अधोगतिमें ले जानेवाले हैं। सम्बन्ध -- अब भगवान् दैवी और आसुरी -- दोनों प्रकारकी सम्पत्तियोंका फल बताते हैं।
।।16.4।। केवल एक श्लोक की परिसीमा में ही जगत् के कुरूप व्यक्तित्व के पुरुषों की कुरूपता का इतना बोधगम्य वर्णन इसके पूर्व कभी नहीं किया गया था। आसुरी प्रवृत्तियों के प्रकार अनेक हैं? परन्तु यहाँ केवल कुछ मुख्य दुर्गुणों का उल्लेख किया गया है? जिनके द्वारा हम उन समस्त आसुरी शक्तियों को समझ सकते हैं? जो कभी भी मनुष्य के हृदय में व्यक्त होकर अपना विनाशकारी प्रभाव दिखा सकती हैं। इन सबको जानने का लाभ यह होगा कि हम अपने हृदय से अवांछित प्रवृत्तियों को दूर कर सकते हैं? और इस प्रकार हमें अपने विकास के लिए एक महत् शक्ति उपलब्ध हो सकती है।दम्भ श्री शंकाराचार्य के अनुसार दम्भ का अर्थ है वास्तव में अधार्मिक होते हुए भी स्वयं को धार्मिक व्यक्ति के रूप में प्रकट करना। दूसरे शब्दों में? स्वयं को वस्तुस्थिति से अन्यथा प्रकट करना दम्भ है। यह अत्यन्त निम्नस्तर का रूप है? जिसे पापी? दुराचारी लोग धारण करते हैं। उनकी यह सतही साधुता और शुद्धता? धार्मिकता और निष्कपटता वस्तुत अपने घातक उद्देश्यों और दुष्ट संकल्पों को आवृत करने के आकर्षक आवरण हैं।दर्प धन? जन? यौवन? ज्ञान? सामाजिक प्रतिष्ठा इत्यादि का अत्याधिक गर्व (दर्प) मनुष्य को एक असह्य प्रकार की उच्चता प्रदान करता है। तत्पश्चात् वह मनुष्य जगत् की घटनाओं की ओर आत्मवंचक विपरीत ज्ञान के माध्यम से देखता है और अपने ही काल्पनिक आत्मसम्मान के जगत् में रहता है। फलत? इस दर्प के कारण? वह आन्तरिक शान्ति से वंचित रह जाता है। ऐसा मनुष्य अपने ही समाज के लोगों के प्रेम से निष्कासित हो जाता है। दर्प युक्त पुरुष जगत् में एकाकी रह जाता है। केवल काल्पनिक आत्मसम्मान और अपनी महानता के स्वप्न ही उसके मित्र होते हैं। उसके वैभव को केवल वही स्वयं देख पाता है और अन्य कोई नहीं। ऐसा पुरुष स्वाभाविक ही अभिमानी बन जाता है।क्रोध दम्भ? दर्प और अभिमान से युक्त पुरुष जब यह पाता है कि लोगों की उसके विषय में जो धारणायें हैं? वे उसकी अपनी धारणाओं से सर्वथा भिन्न हैं? तब उसका मन विद्रोह कर उठता है? जो प्रत्येक वस्तु की ओर क्रोध के रूप में प्रकट होता है। क्रोधावेश से अभिभूत ऐसे पुरुष के कर्मों और वाणी में लोगों को व्यग्र कर देने वाली कठोरता (पारुष्य) और धृष्टता का होना अनिवार्य है।उपर्युक्त दम्भ? दर्प आदि का एकमात्र कारण है आत्म अज्ञान। वह न स्वयं को जानता है और न अपने आसपास की जगत् की संरचना को जानता है। परिणाम यह होता है कि वह यह नहीं समझ पाता कि उसको जगत् के साथ किस प्रकार का सुखद सम्बन्ध रखना चाहिए। सारांशत? वह नितान्त अहंकार केन्द्रित हो जाता है और वह चाहता है कि बाह्य जगत् उसकी अपेक्षाओं और इच्छाओं के अनुकूल और अनुरूप रहे। इतना ही नहीं? अपितु वह अपने कार्यक्षेत्र के कार्यकर्ताओं के लिए एक मूर्खतापूर्ण आचारसंहिता प्रस्तुत करता है और अपेक्षा करता है कि वे ठीक उसी के अनुसार व्यवहार करें। स्वयं के तथा जगत् के विषय में यह जो अज्ञान है? यही वह गुप्त कारण है जिसके वशीभूत पुरुष समाज के विरुद्ध विद्रोह कर विक्षिप्त के समान व्यवहार करता है।यह है आसुरी सम्पदा अर्थात् असुरों के गुण। इस श्लोक में चित्रित आसुरी सम्पदा की पृष्ठभूमि में? पूर्व वर्णित दैवी सम्पदा अधिक आकर्षक ढंग से उजागर होती है।अब? इन दोनों प्रकार की सम्पदाओं के कार्य अर्थात् फल बताते हैं।
।।16.4।।आदेयत्वेन दैवीं संपदमुक्त्वा हेयत्वेनासुरीं संपदमाह -- अथेति। उत्सेको मदो महदवधीरणाहेतुः? आत्मन्युत्कृष्टत्वाध्यारोपोऽतिमानः? क्रोधस्तु कोपापरपर्यायः स्वपरापकारप्रवृत्तिहेतुर्नेत्रादिविकारलिङ्गोऽन्तःकरणवृत्तिविशेषः। परुषो निष्ठुरः प्रत्यक्षरूक्षवाक् तस्य भावः पारुष्यं। तदुदाहरति -- यथेति। तामभिजातस्य दम्भादीन्यज्ञानान्तानि भवन्तीत्यनुषज्यते।
।।16.4।।उपादेयां दैवीं संपदमुक्त्वा हेयामासुरीं तामाह। तम्भः धर्मत्वजित्वं धार्मिकतया आत्मनः ख्यापनम्। दर्पः विद्यास्वाभिजनादिनिमित्तो महदवज्ञाहेतुरुत्सेको मदः। आत्मन्युत्कृष्टत्वारोपोऽभिमानः। क्रोधः परापकारप्रवृत्तिहेतुर्नेत्रादिविकारलिङ्गोऽन्तःकरणस्य वृत्तिविशेषः। परुषो निष्ठुरः काणं चक्षुष्मानित्यादिप्रत्यक्षरुक्षवाक् परुषस्य भावः संपदमभिलक्ष्य जातस्य तम्भादीन्यज्ञानान्तानि भवन्तीत्यनुषज्जते। पार्थेति संबोधयन्नासुर्यां संपद्यन्तर्गतौ स्त्रीस्वभावौ शोकमोहौ मोक्षार्थिना त्वयावश्यं परित्याज्याविति ध्वनयति।
।।16.4।।अथेदानीं रजस्तमोमयी आसुरीसंपदुच्यते -- दम्भ इति। दम्भो धर्मध्वजित्वम्। दर्पः धनाभिजननिमित्त उत्सेकः। अभिमान आत्मनि पूज्यताबुद्धिः। क्रोधः प्रसिद्धः। पारुष्यं निष्ठुरभाषणम्। अज्ञानं अविवेकजनितो मिथ्याप्रत्ययः। एते आसुरीं संपदमभिलक्ष्य जातस्य भवन्ति हे पार्थ।
।।16.4।।दम्भः धार्मिकत्वख्यापनाय धर्मानुष्ठानम्। दर्पः कृत्याकृत्याविवेककरो विषयानुभवनिमित्तो हर्षः।,अतिमानः च स्वविद्याभिजनाननुगुणोऽभिमानः। क्रोधः परपीडाफलचित्तविकारः। पारुष्यं साधूनाम् उद्वेगकरः स्वभावः। अज्ञानं परावरतत्त्वकृत्याकृत्याविवेकः। एते स्वभावाः आसुरीं संपदम् अभिजातस्य भवन्ति। असुरा भगवदाज्ञातिवृत्तिशीलाः।
।।16.4।। आसुरीं संपदमाह -- दम्भ इति। दम्भो धर्मध्वजित्वम्? दर्पो धनविद्यादिनिमित्तश्चित्तस्योत्सेकः? अभिमानो व्याख्यातः? क्रोधः प्रसिद्धः? पारुष्यं निष्ठुरत्वम्? अज्ञानमविवेकः? आसुरीमित्युपलक्षणम्। असुराणां राक्षसानां च या संपत् तामासुरीमभिलक्ष्य जातस्यैतानि दम्भादीनि भवन्तीत्यर्थः।
।।16.4।।दम्भो दर्पः इत्यादौ भवन्तीत्यनुषज्यते।धार्मिकत्वख्यापनायेति? न तु भगवदाज्ञानुवृत्तिबुद्ध्येत्यर्थः।कृत्याकृत्याविवेककर इति शास्त्रातिलङ्घनहेतुरिति भावः। अतिमानशब्दोक्तगर्वापरपर्यायात्तत्कारणाभिमानाद्दर्पस्य विशेषमाहविषयानुभवनिमित्त इति। एतेनाचार्यभगवत्सन्दर्शनादिनिमित्तहर्षव्यवच्छेदः। अस्थान इति पूर्वोक्तमत्रस्वविद्याभिजनाननुगुण इत्यनेन विवृतम्। विद्याभिजनग्रहणं वीर्यादेरप्युपलक्षणम्।वयसः कर्मणोऽर्थस्य श्रुतस्याभिजनस्य च। वेषावाग्वृत्ति(ग्बुद्धि)सारूप्यमाचरन्विचरेदिह [मनुः4।18] इत्यस्योल्लङ्घनमिहाभिप्रेतम्। बाह्यकुदृष्टिषु चोरादिषु च वाक्पारुष्यं दण्डपारुष्यं च नातीव दोष इत्यभिप्रायेणाह -- साधूनामुद्वेगकरः स्वभाव इति। अतएव साधुबहिष्काराच्छास्त्रबहिष्कारोऽपि स्यादेवेत्यर्थः। प्राप्तकालनिद्रादिरूपमनुपयुक्तविषयं चाज्ञानमासुराणामन्येषामपि तुल्यमदोषश्च। तद्व्यवच्छिनत्ति -- परावरेति। ईदृशाज्ञानमूलमागमान्तरेषु परावरतत्त्वव्यत्ययकल्पनं? वेदविरुद्धाचारपरिग्रहश्च। पूर्वोक्तकतिपयगुणव्यतिरेकप्रदर्शनमिहोपलक्षणार्थम्। चकारेण वाऽनुक्तसमस्तसमुच्चयः। आसुरीं सम्पदमभिव्यक्तुमाह -- भगवदाज्ञातिवृत्तिशीला इति। यान् प्रत्युच्यतेपश्यत्येनं जायमानं ब्रह्मा रुद्रोऽथवा पुनः (लोकपितामहः) रजसा तमसा चैव मानसं समभिप्लुतम् [म.भा.12।348।77?78] इतिविपरीतस्तथाऽऽसुरः [वि.ध.109।74] इति च। प्रजापतिवाक्ये च देहात्माभिमानादिमूलत्रिवर्गमात्र निष्ठामधिकृत्योच्यते असुराणां ह्येषोपनिषत् [छा.उ.8।8।5] इति। अत्र सम्पच्छब्दो भगवदाज्ञातिलङ्घनरुचीनामभिप्रायेणोपलम्भाभिप्रायेण वा सम्पद्यत इत्येतावन्मात्रविवक्षया वा ज्ञातव्यः।
।।16.1 -- 16.5।।एतद्बुद्ध्वा इत्युक्तम्। बोधश्च नाम श्रुतिमयज्ञानान्तरम् (S श्रुत -- ) इदमित्थम् इत्येवंभूतयुक्तिचिन्ताभावनामयज्ञानोदेयेन (S??N चिन्तामयज्ञानोदयेन) विचारविमर्शपरमर्शादिरूपेण विजातीयन्यक्कारविरहिततद्भावनामयस्वभ्यस्ताकारविज्ञानलाभे सति भवति। यद्वक्ष्यते (S तद्वक्ष्यते N तद्वक्ष्यति) -- विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसी तथा कुरु (XVIII? 63) इति। तत्र श्रुतिमये ज्ञाने गुरुशास्त्रे एव प्राधान्येन प्रभवतः युक्तिचिन्ताभावनामये तु विमर्शक्षमता असाधारणा शिष्यगुणसंपत् ( -- रणशिष्य -- ) प्रधानभूता। अतः अर्जुनस्यास्त्येवासौ इत्यभिप्रायेण वक्ष्यमाणं विमृश्यैतत् इति वाक्यं सविषयं कर्तुं परिकरबन्धयोजनाभिप्रायेण आह भगवान् गुरुः अभयम् इत्यादि।आसुरभागसन्नविष्टा तामसी किल अविद्या। सा प्रवृद्धया दिव्यांशग्राहित्या विद्यया बाध्यते ( प्रवृद्धाया -- विद्याया बध्यते) इति वस्तुस्वभाव एषः। त्वं च विद्यात्मानं दिव्यमंशं सात्त्विकमभिप्रपन्नः तस्मादान्तरीं मोहलक्षणामविद्यां विहाय बाह्याविद्यात्मशत्रुहननलक्षणं (S बाह्यविद्या) शास्त्रीयव्यापारम् अनुतिष्ठ इत्यध्यायारम्भः।तथाहि -- अभयमित्यादि पाण्डवेत्यन्तम्। दिव्यांशस्य इमानि चिह्नानि तानि स्फुटमेवाभिलक्ष्यन्ते (S? स्फुटमेवोपलक्ष्यन्ते)। दमः (S omits दमः) इन्द्रियजयः। चापलं पूर्वापरमविमृश्य यत् करणम्? तदभावः अचापलम्। तेजः आत्मनि उत्साहग्रहणेन मितत्वापाकरणम्। दैवी संपदेषा। सा च तव विमोक्षाय? कामनापरिहारात्। अतस्त्वं शोकं मा प्रापः -- यथा भ्रात्रादीन् हत्वा सुखं कथमश्नुवीय इति। शिष्टं स्पष्टम्।
।।16.4।।आदेयत्वे दैवीं संपदमुक्त्वेदानीं हेयत्वेनासुरीं संपदमेकेन श्लोकेन संक्षिप्याह -- दम्भ इति। दम्भो धार्मिकतयात्मनः ख्यापनं तदेव धर्मध्वजित्वम्। दर्पो धनस्वजनादिनिमित्तो महदवधीरणाहेतुर्गर्वविशेषः। अतिमान आत्मन्यत्यन्तपूज्यत्वातिशयाध्यारोपःदेवाश्च वा असुराश्चोभये प्राजापत्याः तं स्पृधिरे ततोऽसुरा अतिमानेनैव कस्मिन्नु वयं जुहुवामेति स्वेष्वेवास्येषु जुह्वतश्चेरुस्तेऽतिमानेनैव पराबभूवुस्तस्मान्नातिमन्येत पराभवस्य ह्येतन्मुखं यदतिमानः इति शतपथश्रुत्युक्तः। क्रोधः स्वपरापकारप्रवृत्तिहेतुरभिज्वलनात्मकोऽन्तःकरणवृत्तिविशेषः। पारुष्यं प्रत्यक्षरूक्षवदनशीलत्वम्। चकारोऽनुक्तानां भावभूतानां चापलादिदोषाणां समुच्चयार्थः। अज्ञानं कर्तव्याकर्तव्यादिविषयविवेकाभावः। चशब्दोऽनुक्तानामभावभूतानामधृत्यादिदोषाणां समुच्चयार्थः। आसुरीमसुररमणहेतुभूतां रजस्तमोमयीं संपदमशुभवासनासन्ततिं शरीरारम्भकाले पापकर्मभिरभिव्यक्तामभिलक्ष्य जातस्य कुपुरुषस्य दम्भाद्या अज्ञानान्ता दोषा एव भवन्ति न त्वभयाद्या गुणा इत्यर्थः। हे पार्थेति संबोधयन्विशुद्धमातृकत्वेन तदयोग्यत्वं सूचयति।
।।16.4।।एवं सलक्षणां दैवीं सम्पदमुक्त्वा आसुरीमाह -- दम्भ इति। दम्भो धर्मध्वजित्वं अन्तस्तदभावेन बहिर्धर्मप्रकटनम्? दर्पो विद्यामदेन स्वात्मविस्मरणेन सर्वोपमर्दतयाऽऽधिक्येन स्थितिः? क्रोधः स्वबलाधिक्यभावनया निष्ठुरवाक्यतानिष्टचिन्तनं च? पारुष्यं कार्कश्यं परदुःखानभिज्ञता। एवकारेण (न) क्वचिदपि कदाचिदप्यपारुष्यमिति ज्ञापितम्। च पुनः अज्ञानं सर्वस्वरूपानभिज्ञता। आसुरीं सम्पदमभिजातस्य मदिच्छया जातस्यैतानि लक्षणानि भवन्तीत्यर्थः।
।।16.4।। --,दम्भः धर्मध्वजित्वम्। दर्पः विद्याधनस्वजनादिनिमित्तः उत्सेकः। अतिमानः पूर्वोक्तः। क्रोधश्च। पारुष्यमेव च परुषवचनम् -- यथा काणम् चक्षुष्मान् विरूपम् रूपवान् हीनाभिजनम् उत्तमाभिजनः इत्यादि। अज्ञानं च अविवेकज्ञानं कर्तव्याकर्तव्यादिविषयमिथ्याप्रत्ययः। अभिजातस्य पार्थ। किम् अभिजातस्येति? आह -- संपदम् आसुरीम् असुराणां संपत् आसुरी ताम् अभिजातस्य इत्यर्थः।।अनयोः संपदोः कार्यम् उच्यते --,
।।16.4।।आसुरीं सम्पदमाह -- दम्भ इति। दर्पः कामरूपः? अभिमानो लोभः। चकारैः पूर्वप्रतियोगिनो गृह्यन्ते स्पष्टमन्यत्। एते षट् दोषाः स्वभावतः पूर्वगुणवैरिण इति सर्वथा आसुरजीवस्य भवन्ति। भगवद्वचसि मायावादिनोऽसुराः भगवद्वचोऽननुवर्त्तिस्वभावा एव? अतोऽसुरा मापृस्ष्टाःत्रयः प्राजापत्याः ৷৷. देवा मनुष्या असुराश्च [बृ.उ.5।2।1] इति बृहदारण्यके। पञ्चरात्रेऽपि -- उत्पन्नास्त्रिविधा जीवा देवदानवमानवाः। तत्र देवा मुक्तियोग्या मानुषेषूत्तमा अपि।।अधमा मानुषा ये तु मृतियोग्याः पुनः पुनः। अधर्मा निरयायैव दानवास्तु तमोलयाः इत्युक्तम्। ये सम्भूतिमुपासते मायेत्यसुराः इति श्रुतिष्वपि।