प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।।16.7।।
pravṛittiṁ cha nivṛittiṁ cha janā na vidur āsurāḥ na śhauchaṁ nāpi chāchāro na satyaṁ teṣhu vidyate
The demoniacal do not know what to do and what to refrain from; they have neither purity, nor right conduct, nor truth.
16.7 प्रवृत्तिम् action? च and? निवृत्तिम् inaction? च and? जनाः men? न not? विदुः know? आसुराः the demoniac? न not? शौचम् purity? न not? अपि also? च and? आचारः (right) conduct? न not? सत्यम् truth? तेषु in them? विद्यते is.Commentary The demoniacal do not understand the nature of action and inaction (right abstinence). The idea of a Self apart from the body? doing nothing (actionless) but imply watching the play of the Gunas is something incomprehensible to them. They have no consideration for the interest of others. They work for the sake of their bodies or sensual enjoyment. They are greedy? selfish and cruel. Therefore? they have neither good conduct nor good behaviour. They are untruthful? unjust and impure. They do not know what actions they should do in order to attain the goal of life or end of human existence? nor from what actions they should refrain to ward off,evil.Those who are endowed with demoniacal alities are sunk in the mire of ignorance. They are totally ignorant of what is prescribed or what is prohibited action. They have not the least idea of what purity or cleanliness is. Their actions are crooked. They know neither right Pravritti nor right Nivritti. They have no idea of virtue or vice or of scriptural injunctions or prohibitions. They will never speak loving words. They are hypocrites and liars.
।।16.7।। व्याख्या -- प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः -- आजकलके उच्छृङ्खल वातावरण? खानपान? शिक्षा आदिके प्रभावसे प्रायः मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्तिको अर्थात् किसमें प्रवृत्त होना चाहिये और किससे निवृत्त होना चाहिये -- इसको नहीं जानते और जानना चाहते भी नहीं। कोई इसको बताना चाहे? तो उसकी मानते नहीं? प्रत्युत उसकी हँसी उड़ाते हैं? उसे मूर्ख समझते हैं और अभिमानके कारण अपनेको बड़ा बुद्धिमान् समझते हैं। कुछ लोग (प्रवृत्ति और निवृत्तिको) जानते भी हैं? पर उनपर आसुरीसम्पदाका विशेष प्रभाव होनेसे उनकी विहित कार्योंमें प्रवृत्ति और निषिद्ध कार्योंसे निवृत्ति नहीं होती। इस कारण सबसे पहले आसुरीसम्पत्ति आती है -- प्रवृत्ति और निवृत्तिको न जाननेसे।प्रवृत्ति और निवृत्तिको कैसे जाना जाय इसे गुरुके द्वारा? ग्रन्थके द्वारा? विचारके द्वारा जाना जा सकता है इसके अलावा उस मनुष्यपर कोई आफत आ जाय? वह मुसीबतमें फँस जाय? कोई विचित्र घटना घट जाय? तो विवेकशक्ति जाग्रत् हो जाती है। किसी महापुरुषके दर्शन हो जानेसे पूर्वसंस्कारवश मनुष्यकी वृत्ति बदल जाती है अथवा जिन स्थानोंपर बड़ेबड़े प्रभावशाली सन्त हुए हैं? उन स्थलोंमें? तीर्थोंमें जानेसे भी विवेकशक्ति जाग्रत् हो जाती है।विवेकशक्ति प्राणिमात्रमें रहती है। परन्तु पशुपक्षी आदि योनियोंमें इसको विकसित करनेका अवसर? स्थान और योग्यता नहीं है एवं मनुष्यमें उसको विकसित करनेका अवसर? स्थान और योग्यता भी है। पशुपक्षी आदिमें वह विवेकशक्ति केवल अपने शरीरनिर्वाहतक ही सीमित रहती है? पर मनुष्य उस विवेकशक्तिसे अपना और अपने परिवारका तथा अन्य प्राणियोंका भी पालनपोषण कर सकता है? और दुर्गुणदुराचारोंका त्याग करके सद्गुणसदाचारोंको भी ला सकता है। मनुष्य इसमें सर्वथा स्वतन्त्र है क्योंकि वह साधनयोनि है। परन्तु पक्षुपक्षी इसमें स्वतन्त्र नहीं हैं क्योंकि वह भोगयोनि है।जब मनुष्योंकी खानेपीने आदिमें ही विशेष वृत्ति रहती है? तब उनमें कर्तव्यअकर्तव्यका होश नहीं रहता। ऐसे मनुष्योंमें पशुओंकी तरह दैवीसम्पत्ति छिपी हुई रहती है? सामने नहीं आती। ऐसे मनुष्योंके लिये भी भगवान्ने जनाः पद दिया है अर्थात् वे भी मनुष्य कहलानेके लायक हैं क्योंकि उनमें दैवीसम्पत्ति प्रकट हो सकती है।विशेष बातजनाः (16। 7) से लेकर नराधमान् (16। 19) पदतक बीचमें आये हुए श्लोकोंमें कहीं भी भगवान्ने मनुष्यवाचक शब्द नहीं दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि मनुष्यमें आसुरीसम्पत्तिका त्याग करनेकी तथा दैवीसम्पत्तिको धारण करनेकी योग्यता है? तथापि जो मनुष्य होकर भी दैवीसम्पत्तिको धारण न करके आसुरीसम्पत्तिको बनाये रखते हैं? वे मनुष्य कहलानेलायक नहीं हैं। वे पशुओंसे और नारकीय प्राणियोंसे भी गयेबीते हैं क्योंकि पशु और नारकीय प्राणी तो पापोंका फल भोगकर पवित्रताकी तरफ जा रहे हैं और ये आसुर स्वभाववाले मनुष्य जिस पुण्यसे मनुष्यशरीर मिला है? उसको नष्ट करके और यहाँ नयेनये पाप बटोरकर पशुपक्षी आदि योनियों तथा नरकोंकी तरफ जा रहे हैं। अतः उनकी दुर्गतिका वर्णन इसी अध्यायके सोलहवें और उन्नीसवें श्लोकोंमें किया गया है।भगवान्ने आसुर मनुष्योंके जितने लक्षण बताये हैं? उनमें उनको पशु आदिका विशेषण न देकर अशुभान्?,नराधमान् विशेषण दिये हैं। कारण यह कि पशु आदि इतने पापी नहीं हैं और उनके दर्शनसे पाप भी नहीं लगता? पर आसुर मनुष्योंमें विशेष पाप होते हैं और उनके दर्शनसे पाप लगता है? अपवित्रता आती है। इसी अध्यायके बाईसवें श्लोकमें नरः पद देकर यह बताते हैं कि जो कामक्रोधलोभरूप नरकके द्वारोंसे छूटकर,अपने कल्याणका आचरण करता है? वही मनुष्य कहलानेलायक है। पाँचवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें भी नरः पदसे इसी बातको पुष्ट किया गया है।न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते -- प्रवृत्ति और निवृत्तिको न जाननेसे उन आसुर स्वभाववालोंमें शुद्धिअशुद्धिका खयाल नहीं रहता। उनको सांसारिक बर्तावका? व्यवहारका भी खयाल नहीं होता अर्थात् मातापिता आदि बड़ेबूढ़ोंके साथ तथा अन्य मनुष्योंके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये और कैसे नहीं करना चाहिये -- इस बातको वे जानते ही नहीं। उनमें सत्य नहीं होता अर्थात् वे असत्य बोलते हैं और आचरण भी असत्य ही करते हैं। इन सबका तात्पर्य यह है कि वे पुरुष असुर हैं। खानापीना? आरामसे रहना तथा मैं जीता रहूँ? संसारका सुख भोगता रहूँ और संग्रह करता रहूँ आदि उद्देश्य होनेसे उनकी शौचाचार और सदाचारकी तरफ दृष्टि ही नहीं जाती।भगवान्ने दूसरे अध्यायके चौवालीसवें श्लोकमें बताया है कि वैदिक प्रक्रियाके अनुसार सांसारिक भोग और संग्रहमें लगे हुए पुरुषोंमें भी परमात्माकी प्राप्तिका एक निश्चय नहीं होता। भाव यह है कि आसुरीसम्पदाका अंश रहनेके कारण जब ऐसे शास्त्रविधिसे यज्ञादि कर्मोंमें लगे हुए पुरुष भी परमात्माका एक निश्चय नहीं कर पाते? तब जिन पुरुषोंमें आसुरीसम्पदा विशेष बढ़ी हुई है अर्थात् जो अन्यायपूर्वक भोग और संग्रहमें लगे हुए हैं? उनकी बुद्धिमें परमात्माका एक निश्चय होना कितना कठिन है (टिप्पणी प0 815) सम्बन्ध -- जहाँ सत्कर्मोंमें प्रवृत्ति नहीं होती? वहाँ सद्भावोंका भी निरादर होता है अर्थात् सद्भाव दबते चले जाते हैं -- अब इसको बताते हैं।
।।16.7।। यहाँ प्रवृत्ति और निवृत्ति के शब्द क्रमश कर्तव्य कर्म और अकर्तव्य अर्थात् निषिद्ध कर्म हैं।धार्मिक अनुष्ठानकर्ता कर्तव्य पालन और निस्वार्थ समाज सेवा के द्वारा न केवल तात्कालिक लाभ को प्राप्त करता है अपितु अन्तकरण की शुद्धि भी प्राप्त करता है? क्योंकि वह कभी अपने सर्वोच्च लक्ष्य को विस्मृत नहीं होने देता। निषिद्ध कर्मों से विरति ही निवृत्ति कहलाती है। अकर्तव्य का त्याग ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर होता है। असुर लोगों को कर्तव्य और अकर्तव्य का सर्वथा अज्ञान होता है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि आसुरी गुणों की सूची अज्ञान से प्रारम्भ होती है। यदि कोई व्यक्ति अज्ञानवशात् किसी प्रकार का अपराध करता है? तो समाज के सहृदय पुरुषों के मन में उसके प्रति क्षमा का भाव सहज उदित होता है? भले ही न्यायालय में उसे क्षमा के योग्य कारण न माना जाये।बाह्य शुद्धि? बहुत कुछ मात्रा में मनुष्य के आन्तरिक व्यक्तित्व की परिचायक होती है। श्रेष्ठ शिक्षा और संस्कारी पुरुष में ही यह शुद्धि हमें देखने को मिलती है।अज्ञानी पुरुष में अन्तर्बाह्य शुद्धि का अभाव होता है। ऐसे अनुशासनविहीन पुरुष का व्यवहार (आचार) भी विनयपूर्ण नहीं हो सकता? क्योंकि बाह्य आचरण मनुष्य के स्वभाव की ही अभिव्यक्ति है। इसलिए भगवान् कहते हैं कि आसुरी लोगों में सदाचार का अभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।अविवेक? अशौच तथा अनाचार से युक्त पुरुष अपने वचनों की सत्यता का पालन कभी नहीं कर सकता। यदि हम इन उल्लिखित गुणों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करें? तो हमें स्पष्ट बोध होगा कि भगवान् के हृदय में इन दुराचारियों के प्रति कितनी करुणा है। सम्पूर्ण गीता में? इनके प्रति रञ्चमात्र भी प्रतिशोध या द्वेष का भाव प्रकट नहीं किया गया है। हम यह नहीं कह सकते कि आसुरी पुरुष जानबूझ कर असत्य का अनुकरण करता है। वास्तविकता यह है कि वह अपने स्वभाव से विवश निष्कपट व्यवहार करने में स्वयं को सर्वथा असमर्थ पाता है।
।।16.7।।नन्वध्यायशेषेणासुरसंपद्दर्शनमयुक्तं तस्यास्त्याज्यत्वेन पङ्कप्रक्षालनन्यायावतारादित्याशङ्क्याह -- प्रत्यक्षीकरणेनेति। वर्जनीयामासुरीं संपदं विवृणोति -- प्रवृत्तिं चेति। तां विहितां प्रवृत्तिं न जानन्तीत्यर्थः। तां च निषिद्धां क्रियां न जानन्तीति संबन्धः। न शौचमित्यादेस्तात्पर्यमाह -- अनाचारा इति। शौचसत्ययोराचारान्तर्भावेऽपि ब्राह्मणपरिव्राजकन्यायेन पृथगुपादानम्।
।।16.7।।ज्ञानं बिना परिवर्जनासंभवादासुरीं संपदं प्राणिविशेषणविषयत्वेन प्रदर्शयति -- प्रवृत्तिं चेति। आसुरा जनाः प्रवृत्तिं प्रवत्तिविषयं पुरुषार्थसाधनं चकारात्तद्वाधकं शास्त्रं च। निवृत्तिं निवृत्तिविषयमनर्थसाधनं तद्वोधकं शास्त्रं च न विदुः। न केवलमेतावदेव किंतु न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु आसुरेषु विद्यते। अशौचाः अनाचारा मायाविनोऽनृतवादिनो यत आसुरा अत इत्यर्थः। शौचसत्ययोः मन्वाद्युक्ताचारान्तरर्भावेऽपि ब्राह्मणपरिव्राजकन्यायेन पृथगुपादानम्।
।।16.7।।प्रवृत्तिं विधिवाक्यं निवृत्तिं निषेधवाक्यं न विदुः। धर्माधर्मयोरिष्टानिष्टहेतुत्वज्ञानरहिता इत्यर्थः।
।।16.7।।प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च अभ्युदयसाधनं मोक्षसाधनं च वैदिकं धर्मम् आसुरा न विदुः न जानन्ति।न च शौचं वैदिककर्मयोग्यत्वं शास्त्रसिद्धम् तद् बाह्यम् आभ्यन्तरं च असुरेषु न विद्यते। न अपि च आचारः? तद् बाह्याभ्यन्तरशौचं येन सन्ध्यावन्दनादिना आचारेण जायते? स अपि आचारः तेषु न विद्यते। तथा उक्तम् -- सन्ध्याहीनोऽशुचिनित्यमनर्हः सर्वकर्मसु। (दक्षस्मृति 2।23) इति।तथा सत्यं च तेषु न विद्यते सत्यं यथार्थज्ञानं भूतहितरूपभाषणं तेषु न विद्यते।किं च --
।।16.7।।आसुरीं विस्तरतो निरूपयति -- प्रवृत्तिं चेत्यादिद्वादशभिः। धर्मे प्रवृत्तिं? अधर्मान्निवृत्तिं च आसुरस्वभावा जना न जानन्ति। अतः शौचमाचारः सत्यं च तेषु नास्त्येव।
।।16.7।।अत्र प्रवृत्तिनिवृत्तिशब्दौ न लौकिकविषयौ आसुराणामेव लौकिकेष्टानिष्टप्राप्तिपरिहारार्थमपथप्रवृत्तेः सत्पथनिवृत्तेश्च सिद्धत्वात् न च विहितनिषिद्धमात्रविषयौ? रागप्राप्तशास्त्रप्राप्तविषयौ वा?न शौचं नापि चाचारः इत्यादेः पुनरुक्तिप्रसङ्गात् अतोऽत्र मुमुक्ष्वपेक्षितप्रवर्तकनिवर्तकधर्मविवेकाभावे तात्पर्यमित्याह -- अभ्युदयसाधनमित्यादिना। तावेतौ धर्मौ स्मर्येतेप्रवृत्तिलक्षणं धर्मं प्रजापतिरथाब्रवीत् [म.भा.12।217।4]निवृत्तिलक्षणं धर्ममृषिर्नारायणोऽब्रवीत् [म.भा.12।217।2] इति।न विदुः इत्यत्रन सत्यं तेषु विद्यते इतिवदसद्भावमात्रं न विवक्षितम्? अपितु शतकृत्वः प्रतिपादितेऽपि तमःप्राचुर्यादपरिज्ञानमित्यभिप्रायेणाऽऽह -- न जानन्तीति।कृत्ययोग्यता इति प्रागुक्तमत्रवदिककर्मयोग्यत्वमित्यनेन विवृतम्। बाह्यशौचमशुचिसंशीलनादिभिरवश्यकर्तव्याकरणाच्च न विद्यते आन्तरं त्वात्मगुणाभावात्।न शौचं नापि चाचारः इति क्रमात्कार्यकारणयोर्निषेध इत्यभिप्रायेणाऽऽह -- तदिति। ननु सन्ध्यावन्दनादेर्वर्णाश्रमधर्मस्यप्राजापत्यं गृहस्थानां न्यासिनां ब्रह्मसंज्ञितम्। योगिनाममृतं स्थानं स्वात्मसन्तोषकारिणाम् [वि.पु.1।6।36] इत्यादिभिः फलान्तरं श्रूयते तत्कथं तस्य शौचहेतुत्वोक्तिः इत्यत्राऽऽह -- यथोक्तमिति। व्यतिरेकोक्त्या हेतुहेतुमद्भावोऽत्र दृढीकृतः। इदं नित्यकर्मान्तरहानादपि ग्राह्यम्।यथाज्ञानमित्यादि -- विप्रलम्भरसिकत्वादयथाज्ञानं भाषणाभावः? हिंसास्वभावत्वाद्धितरूपभाषणाभावः।
।।16.7।।आसुरीमाह -- प्रवृत्तिमिति। प्रवृत्तिः -- कुत इदमुत्पन्नमिति। निवृत्तिः क्व प्रलीयते इति।
।।16.7।।वर्जनीयामासुरीं संपदं प्राणिविशेषणतया तानहमित्यतः प्राक्तनैर्द्वादशभिः श्लोकैर्विवृणोति -- प्रवृत्तिमिति। प्रवृत्तिं प्रवृत्तिविषयं धर्मं चकारात्तत्प्रतिपादकं विधिवाक्यं च एवं निवृत्तिविषयमधर्मं चकारात्तत्प्रतिपादकं निषेधवाक्यं च आसुरस्वभावा जना न जानन्ति। अतस्तेषु न द्विविधं शौचं नाप्याचारो मन्वादिभिरुक्तः। न सत्यं च प्रियहितयथार्थभाषणं विद्यते। सत्यशौचयोराचारान्तर्भावेऽपि ब्राह्मणपरिव्राजकन्यायेन पृथगुपादानम्। अशौचा अनाचारा अनृतवादिनो ह्यसुरा मायाविनः प्रसिद्धाः।
।।16.7।।एवं प्रतिज्ञाय विस्तरेणाऽऽह द्वादशभिः -- प्रवृत्तिमित्यादिभिः। आसुरा जीवा आसुरसर्ग एवोत्पन्नाः प्रवृत्तिं मदिच्छया मत्सेवानुकूलधर्मपदार्थादिषु प्रवृर्त्तिं तथैव तदननुकूलेषु च निवृत्तिं न विदुः? न जानन्तीत्यर्थः। अज्ञाने निदर्शनमाह -- न शौचमिति। बाह्याभ्यन्तरभेदेन शौचं मत्सेवानुकूलदेहशुद्धिस्तेषु न? नापि च आचारः आचरणं न च? न सत्यं असत्यं तेषु विद्यते सत्यं नास्तीत्यर्थः।
।।16.7।। --,प्रवृत्तिं च प्रवर्तनं यस्मिन् पुरुषार्थसाधने कर्तव्ये प्रवृत्तिः ताम्? निवृत्तिं च एतद्विपरीतां यस्मात् अनर्थहेतोः निवर्तितव्यं सा निवृत्तिः तां च? जनाः आसुराः न विदुः न जानन्ति। न केवलं प्रवृत्तिनिवृत्ती एव ते न विदुः? न शौचं नापि च आचारः न सत्यं तेषु विद्यते अशौचाः अनाचाराः मायाविनः अनृतवादिनो हि आसुराः।।किं च --,
।।16.7।।सर्वात्मना वर्जनार्थमासुरीं विस्तरशो निरूपयति -- प्रवृत्तिमित्यादिद्वादशभिः। प्रवृत्तिमार्गं वेदोक्तं निवृत्तिमार्गं च न विदुरासुराःरुचिस्तेषां न कुत्रचित् इति श्रीमुखोक्तिरियम्। कुतः इत्यत आहन शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते इति मानसकायिकवाचिकदोषसद्भावेन सर्वत्र कर्मादौ तत्प्रतिपादकशास्त्रे च सत्यत्वानङ्गीकारादित्यर्थः।