BG - 16.8

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्।।16.8।।

asatyam apratiṣhṭhaṁ te jagad āhur anīśhvaram aparaspara-sambhūtaṁ kim anyat kāma-haitukam

  • asatyam - without absolute truth
  • apratiṣhṭham - without any basis
  • te - they
  • jagat - the world
  • āhuḥ - say
  • anīśhvaram - without a God
  • aparaspara - without cause
  • sambhūtam - created
  • kim - what
  • anyat - other
  • kāma-haitukam - for sexual gratification only

Translation

They say, "This universe is without truth, without a moral basis, without a God, brought about by mutual union, with lust as its cause; what else?"

Commentary

By - Swami Sivananda

16.8 असत्यम् without truth? अप्रतिष्ठम् without (moral) basis? ते they? जगत् the world? आहुः say? अनीश्वरम् without a God? अपरस्परसम्भूतम् brought about by mutual union? किम् what? अन्यत else? कामहैतुकम् with lust for its cause.Commentary They hold that the universe is without any substratum or support or an undying basic reality.This is a description of the opinion of atheists like the Charvakas and other materialists. They do not believe in the existence of Brahman Who is the support of this world. They do not even accept the existence of an Isvara in this world. They say We are unreal. Therefore this world also is unreal? the scriptures which declare the truth are also unreal. What else but lust can be the cause of this universe Sexual passion is the sole cause of all living creatures. There is no such thing as the theory of Karma. The whole world is caused by the mutual union of man and woman under the impulse of lust. There is neither virtue nor vice. There is no Lord Who dispenses the fruits of actions of the individuals according to virtue and vice. Dharma and Adharma are not the basis of this world. Sexual desire is the sole basis for this universe. This world is a world of chance. They are not endowed with the faculty of introspection. They are ignorant of the field (Nature) and knower of the field (God).Mutual union Sexual union it may mean the union of atoms. The world arose from the combination of atoms according to the Vaiseshikas.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।16.8।। व्याख्या --   असत्यम् -- आसुर स्वभाववाले पुरुष कहा करते हैं कि यह जगत् असत्य है अर्थात् इसमें कोई भी बात सत्य नहीं है। जितने भी यज्ञ? दान? तप? ध्यान? स्वाध्याय? तीर्थ? व्रत आदि शुभकर्म किये जाते हैं? उनको वे सत्य नहीं मानते। उनको तो वे एक बहकावा मानते हैं।अप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् -- संसारमें आस्तिक पुरुषोंकी धर्म? ईश्वर? परलोक (टिप्पणी प0 896.1)। (पुनर्जन्म) आदिमें श्रद्धा होती है। परन्तु वे आसुर मनुष्य धर्म? ईश्वर आदिमें श्रद्धा नहीं रखते अतः वे ऐसा मानते हैं कि इस संसारमें धर्मअधर्म? पुण्यपाप आदिकी कोई प्रतिष्ठा -- मर्यादा नहीं है। इस जगत्को वे बिना मालिकका कहते हैं अर्थात् इस जगत्को रचनेवाला? इसका शासन करनेवाला? यहाँपर किये हुए पापपुण्योंका फल भुगतानेवाला कोई (ईश्वर) नहीं है (टिप्पणी प0 816.2)। अपरस्परसम्भूतं किमन्यत् कामहैतुकम् -- वे कहते हैं कि स्त्रीको पुरुषकी और पुरुषको स्त्रीकी कामना हो गयी। अतः उन दोनोंके परस्पर संयोगसे यह संसार पैदा हो गया। इसलिये काम ही इस संसारका हेतु है। इसके लिये ईश्वर? प्रारब्ध आदि किसीकी क्या जरूरत है ईश्वर आदिको इसमें कारण मानना ढकोसला है? केवल दुनियाको बहकाना है। सम्बन्ध --   जहाँ सद्भाव लुप्त हो जाते हैं? वहाँ सद्विचार काम नहीं करते अर्थात् सद्विचार प्रकट ही नहीं होते -- इसको अब आगेके श्लोकमें बताते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।16.8।। आसुरी लोगों के वर्णन में हम ऐसे नितान्त संशयी और भौतिकवादी पुरुष को पहचान सकते हैं? जो जीवन की ओर केवल अपनी सीमित बुद्धि के दृष्टिकोण से ही देखता है। इसलिए? स्वाभाविक ही है कि वह न जीवन का कोई चरम लक्ष्य देख पाता है? और न ही इस अनित्य और परस्पर असंबद्ध प्रतीत होने वाली घटनाओं से पूर्ण जगत् का कोई नित्य अधिष्ठान स्वीकार कर पाता है। इन भौतिकवादियों की बुद्धि प्रखर होती है और वे स्वतन्त्र और मौलिक विचार करने में समर्थ होते हैं। इन लोगों को अल्प मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है? जिससे कि वे अपनी सीमित बुद्धि के परे भी देख सकें। इस श्लोक में भौतिकवादी दृष्टिकोण का वर्णन किया गया है।भौतिकवादी वैज्ञानिक पद्धति से जगत् का निरीक्षण और विश्लेषण करते हैं? फिर भी वे उस सत्य को नहीं पहचान पाते? जो इस विश्व को धारण किये हुए है। वे परिवर्तनों को देखतें हैं? और इस सतत परिवर्तन को ही वे जगत् समझ लेते हैं? जिसके लिए किसी नित्य? अविकारी अधिष्ठान का होना वे नहीं मानते हैं। परन्तु? वैज्ञानिक भी अब स्वीकार करते हैं कि नित्य? अपरिवर्तनशील अधिष्ठान के बिना न जगत् में परिवर्तन हो सकता है और न ही वह ज्ञात हो सकता है। परिवर्तन तो एक सापेक्ष घटना मात्र है। एक स्थिर और गतिशून्य पर्दे के बिना चलचित्र का प्रक्षेपण नहीं किया जा सकता और नदी के स्थिर तल के बिना जल का अखण्ड प्रवाह नहीं बना रह सकता। उसी प्रकार अधिष्ठान के बिना आभास नहीं हो सकता। सम्पूर्ण जगत् का यह आश्रय ही सत्य कहलाता है परन्तु आसुरी स्वभाव के लोगों के अनुसार? जगत् निराश्रय है? सत्यरहित है।अनीश्वरम् जगत् का कोई अधिष्ठान नहीं है तब कमसेकम? क्या कोई सर्वज्ञ सर्वशासक है? जो जगत् की घटनाओं को नियन्त्रित करता है भोगवादी लोगों के अनुसार ऐसा कोई नियन्ता और निर्माता नहीं है। न सृष्टिकर्ता है और न पालनकर्ता ही है।इनके मतानुसार यह सम्पूर्ण चराचर जगत् केवल महाभूतों के परम्पर संबंध से उत्पन्न हुआ है और यह संबंध जिस किसी रूप में परिणित होता है? वह केवल संयोग की बात है? और न कि उसके पार्श्व में कोई नियम है। प्राणियों की उत्पत्ति का एकमात्र कारण है? कामवासना। आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी इस बात पर बल देते हैं कि कामवासना ही अन्य समस्त वृत्तियों की जननी है? जिसके कारण समस्त घटनाएं घट रही हैं और जीवन की समस्त उपलब्धियाँ संभव,होती हैं।आसुरी लोगों के दृष्टिकोण को दर्शाने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण ऐसे लोगों के भाग्य के प्रति सहानुभूति अनुभव करते हुए उनके कर्मों को बताते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।16.8।।असुराणां जनानां विशेषणान्तराण्यपि सन्तीत्याह -- किञ्चेति। विद्यत इत्याहुरिति पूर्वेण संबन्धः। शास्त्रैकगम्यमदृष्टं निमित्तीकृत्य प्रकृत्यधिष्ठात्रात्मकेन ब्रह्मणा रहितं जगदिष्यते चेत्कथं तदुत्पत्तिरित्याशङ्क्याह -- किञ्चेति। किमन्यदित्यादेराक्षेपस्य तात्पर्यमाह -- न किंचिदिति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।16.8।।किंच असत्यं यथा वयमनृतप्रायास्तथेदं जगदप्यसत्यमबाधितप्रमाणशून्यत्वादनृतप्रायम्। अप्रतिष्ठं न विद्यते धर्माधर्मौ प्रतिष्ठा व्यवस्थाहेतुर्यस्य तत्तथा धर्माधर्मसापेक्षोऽस्य शासितेश्वरो न विद्यते इत्यनीश्वरमाहुः। ननु धर्माधर्मतदध्याक्षाभावे जगदुत्पत्तिं कथमाहुरीति तत्राह। अपरस्परसंभूतं परापरशब्दावन्यशब्दपर्यायौ। कामप्रयुक्तयोः स्त्रीपुरुषोरन्योन्यसङ्गज्जातं काम एव हेतुर्यस्य तत्काममहेतुकं किमन्यत्कामादन्यत् किंचिददृष्टं धर्मादिकारणान्तरं जगतो न विद्यते किंतु काम एवस्त्रीपुरुषयोः सङ्गहेतुः सर्वस्य जगतः कारणमिति लौकायतिकदृष्टिरियम्। यत्तुअपरस्पराः क्रियासातत्ये इति सुट्। बीजाङ्कुरवत्परस्परकारणीभूतानां धर्माधर्मवासनानां धर्माधर्मवासनानां यत्सातत्यं तस्मात्संभूतं किमन्यल्लोकेऽस्ति। न किंचिदपि धर्माद्येपेक्षया उत्पद्यते किंतु सर्वं कामहेतुकं स्त्रीपुरुषयोर्मिथुनीभावः कामस्तदुत्थस्वभावादेव जन्तुर्जायते न त्वदृष्टादित्यन्ये तदुपेक्ष्यम्। अप्रतिष्ठमित्यनेन पौनरुक्त्यापादकस्य क्लिष्टल्पनस्यान्याय्यत्वात्।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।16.8।।जगतः सत्यं? प्रतिष्ठा? ईश्वरश्च विष्णुस्तद्वैपरीत्येनाहुः। तस्योपनिषत्सत्यस्य सत्यमिति प्राणा वै सत्यं तेषामेव सत्यम् [बृ.उ.2।1।20] इति हि श्रुतिः। द्वे वा व ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चा(चैवा) मूर्तं च मर्त्यं चामृतं च स्थितं च यच्च सच्च त्यच्च [बृ.उ.2।3।1] इति। तस्योपनिषत्सत्यस्य सत्यम् [बृ.उ.2।1।20मैत्र्यु.6।32] इति एष ह्येवैतत्सादयति यामयति चेति इति प्राचीनशालाश्रुतिः। परस्परसम्भवो ह्युक्तःअन्नाद्भवन्ति भूतानि [3।14] इत्यादिना।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।16.8।।असत्यं सत्यवर्जितं जगत्प्राणिजातम्। तथाऽप्रतिष्ठं धर्माधर्माख्या प्रतिष्ठा आश्रयस्तच्छून्यम्। अनीश्वरं अनियन्तृकं आहुः। अपरस्परसंभूतंअपरस्पराः क्रियासातत्ये इति सुट्। बीजाङ्कुरवत्परस्परकारणीभूतानां धर्माधर्मतद्वासनानां यत्सातत्यं तस्मात्संभूतं। किमन्यल्लोकेऽस्ति न किञ्चिदपि धर्माद्यपेक्षया उत्पद्यते? किंतु सर्वं कामहैतुकं स्त्रीपुंसयोर्मिथुनीभावः कामस्तदुत्थमेव। स्वभावादेव जन्तुर्जायते न त्वदृष्टादित्यर्थः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।16.8।।असत्यं जगत् एतत् सत्यशब्दनिर्दिष्टब्रह्मकार्यतया ब्रह्मात्मकम् इति न आहुः। अप्रतिष्ठं तथा ब्रह्मणि प्रतिष्ठितम् इति न वदन्ति। ब्रह्मणा अनन्तेन धृता हि पृथिवी? सर्वान् लोकान् बिभर्ति। यथोक्तम्तेनेयं नागवर्येण शिरसा विधृता मही। बिभर्ति मालां लोकानां सदेवासुरमानुषाम्।। (वि0 पु0 2।5।27) इति।अनीश्वरं सत्यसंकल्पेन परब्रह्मणा सर्वेश्वरेण मया एतत् नियमितम् इति च न वदन्ति। अहं सर्वस्यं प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। (गीता 10।8) इति हि उक्तम्।वदन्ति च एवम् अपरस्परसम्भूतं किम् अन्यत् योषित्पुरुषयोः परस्परसम्बन्धेन जातम् इदं मनुष्यपश्वादिकम् उपलभ्यते। अनेवंभूतं किम् अन्यद् उपलभ्यते किञ्चिद् अपि न उपलभ्यते इत्यर्थः। अतः सर्वम् इदं जगत् कामहेतुकम् इति।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।16.8।। ननु वेदोक्तयोर्धर्माधर्मयोः प्रवृत्तिं निवृत्तिं च कथं न विदुः? कुतो वा धर्माधर्मयोरनङगीकारे जगतः सुखदुःखादिव्यवस्था स्यात्? कथं वा शौचाचारादिविषया ईश्वराज्ञामतिवर्तेरन्? ईश्वरानङ्गीकारे च कुतो जगदुत्पत्तिः स्यादतआह -- असत्यमिति। नास्ति सत्यं वेदपुराणादिप्रमाणं यस्मिंस्तादृशं जगदाहुः। वेदादीनां प्रामाण्यं न मन्यन्त इत्यर्थः। तदुक्तम् -- त्रयो वेदस्य कर्तालो भण्डधूर्तनिशाचराः इत्यादि। अत एव नास्ति धर्माधर्मरूपा प्रतिष्ठा व्यवस्थाहेतुर्यस्य तत्। स्वाभाविकं जगद्वैचित्र्यमाहुरित्यर्थः। अत एव नास्तीश्वरः कर्ता व्यवस्थापकश्च यस्य तादृशं जगदाहुः। तर्हि कुतोऽस्य जगत उत्पत्तिं वदन्तीत्यत आह -- अपरस्परसंभूतमिति। अपरश्च परश्चेत्यपरस्परं अपरस्परतोऽन्योन्यतः स्त्रीपुरुषमिथुनात्संभूतं जगत् किमन्यत्कारणमस्य? नास्त्यन्यत्किंचित्? किंतु कामहैतुकम्। स्त्रीपुरुषयोः काम एव प्रवाहरूपेण हेतुरस्येत्याहुरित्यर्थः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।16.8।।एवं न सत्यस्याभाषणमात्रम् अपितु तद्विपरीतभाषणमस्तीत्यनन्तरमुच्यत इत्याह -- किञ्चेति। असत्यशब्दोऽत्र न मिथ्यात्वपरः? तस्य लोकोपलब्धिस्ववचनविरोधादिभिरेव प्रतिक्षिप्तत्वेन अतिस्थूलत्वात्? परमार्थं स्थिरं चैश्वर्यमभिमत्य निरूढाभिनिवेशानामासुराणां प्रपञ्चमिथ्यात्वकूटयुक्तिभिः प्रतार्यत्वासम्भवाच्च।यथा वयमनृतप्रायाः? तथा सर्वं जगदिति प्राहुः (शं.) इति व्याख्याऽपि मन्दा? जगच्छब्दस्य चेतनमात्रविषयत्वाभावात् निषेधानां चात्र पूर्वोक्ताकारव्यतिरेकपरत्वात्?अप्रतिष्ठमनीश्वरम् इतिवच्छास्त्रसिद्धप्रतिषेधपरत्वात्? असुराणां च शास्त्रप्रद्वेषशीलत्वात्। अतोऽत्र शास्त्रसिद्धस्य प्रतिषेधपरोऽयं शब्दः। तच्च सत्यं ब्रह्मैवेति सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म [तै.उ.2।1] इत्यादिषु प्रसिद्धम्। छान्दोग्ये च चेतनाचेतननियन्तृत्वेन ब्रह्मनामतयाऽसौ निरुक्तः -- तस्य ह वा एतस्य ब्रह्मणो नाम सत्यमिति। तानि ह वा एतानि त्रीण्यक्षराणि? सत्? ति? यम्? इति। तद्यत्सत्तदमृतम्। अथ यत्ति तन्मर्त्यमथ यद्यं तेनोभे यच्छति यदनेनोभे यच्छति तस्माद्यमहरहर्वा एवंवित्स्वर्गं लोकमेति [छां.उ.7।3।45] इति। अतोऽत्र कपिलगुरुकुमारिलजिनसुगतचार्वाकादिमतानुवर्तिन इवाब्रह्मात्मकं जगदाहुरिति विवक्षामाह -- सत्यशब्देति। अप्रतिष्ठशब्देनापि सर्वलोकविरोधादिभिः प्रत्यक्षसिद्धप्रतिष्ठानिषेधासम्भवाच्छास्त्रेषु प्रतिष्ठात्वेन उपदिष्टसर्वप्रतिषेधविवक्षामाह -- तथेति। तदेवोदाहरणविशेषेण विवृणोति -- ब्रह्मणाऽनन्तेनेति। एतेन प्रतिष्ठाशब्दस्य धर्माधर्ममात्रपरत्वेन व्याख्या निरस्ता।सर्वाल्ँलोकान् बिभर्तीति स्वरूपतः कार्यतश्चेति भावः।आदिकूर्मशेषदिङ्नागप्रभृतिभिर्मही विधृतेति शास्त्रेणोक्ते हि हैतुकैरेवं जल्प्यतेधर्ता धरित्र्या यदि कश्चिदन्यस्तस्यापरस्तस्य परस्ततोऽन्यः। एवं हि तेषामनवस्थितिः स्यात्ततो हि भर्त्र्या भुव एव शक्तिः इति। वायुवेगवशाच्च भूभ्रमणवादं केचिदिच्छन्ति। गुरुत्वान्नित्यपतनं च जैनाः। अनीश्वरशब्दोऽप्यत्र न प्रतिमाराजादिलौकिकेश्वरप्रतिषेधार्थः? तैस्तत्प्रतिषेधाभावात्। यथानुवदन्ति -- लोकव्यवहारसिद्ध इति चार्वाकाः इति। नच ब्रह्मनिषेधमात्रार्थःअसत्यम् इत्यादिना पुनरुक्तेः। अतोऽत्र व्युत्पत्त्यनुसारेणालौकिकनियन्तृनिषेधे तात्पर्यमित्याह -- सत्यसङ्कल्पेनेत्यादिना। अयस्कान्तादिवदचित्स्वभावजीवाजीवात्मकं सर्वं जगदेतन्निरीश्वरमिति जैनादिदृष्ट्या धर्मादिमात्रवशाद्वा?परमेश्वरसंज्ञो ज्ञः किमन्यो मय्यवस्थितः,इतिवदाभिमानिकेश्वरशासनाद्वा? देशकालावच्छिन्नेश्वरसमुदायप्रवाहवशाद्वा जगत्प्रवृत्तिरिति हि तत्तन्मतमिति भावः।नियमितमिति -- ये तु मद्व्यतिरिक्तान्प्रजापतिपशुपतिप्रभृतीनपि परमेश्वरत्वेन कल्पयन्ति? त आसुरा एवेति भावः।अन्येऽपि केचिदीश्वराः प्रवर्तका दृश्यन्ते? श्रूयन्ते च तत्कथं भगवतः सर्वनियमनम् इत्यत्राह -- अहं सर्वस्येति। अन्येषामपि नियन्तृ़णां नियमनरूपप्रवृत्तिर्भगवदधीनैव। तथाच सूत्रितं -- कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात् [ब्र.सू.2।4।1] इत्युपक्रम्यपरात्तु तच्छ्रुतेः [ब्र.सू.2।3।41] इति। एवं त्रिभिर्जगत उत्पत्तिस्थितिप्रवृत्तीनां परब्रह्माधीनत्वं नेच्छन्तीत्युक्तं भवति? तत्र जगदुत्पत्तेः प्रतिज्ञातं ब्रह्मनैरपेक्ष्यमन्यतः सिद्धतयैवमुपपादयन्तीत्याह -- वदन्ति चैवमिति।अपरस्पर -- इत्यादिकं न पूर्वेणैकवाक्यम्?किमन्यत् इत्यादेरनन्वयात्क्लिष्टकल्पनादनुपपत्तेश्च। एतदेवैषामासुरत्वे पर्याप्तं? किमन्यदुच्यते इति कल्पना अध्याहारादिग्रस्ता।वदन्ति चैवमिति तु नाध्याहारादिविवक्षयोक्तम्?एतां दृष्टिम्

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।16.8।।असत्यमिति। न किञ्चित् दृष्टादन्यत् कार्यं विद्यते यत्रेति अकिञ्चित्कम्।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।16.8।।न केवलं जगतो मिथ्यात्वादिवदतामसुरत्वंअसत्यमप्रतिष्ठं ते इत्यनेनोच्यते किन्तु जगज्जन्मादिकारणं विष्णुं ये न मन्यन्ते तेषां सर्वेषामपीति भावेनाह -- जगत इति। तद्वैपरीत्येनेति। न विद्यते सत्यमस्येत्यादि। जगतः सत्यं विष्णुरित्यत्र श्रुतिमाह -- तस्येति। तस्य विष्णोः सत्यस्य सत्यमिति। उपनिषद्रहस्यं नाम कथम् प्राणा मूर्तामूर्तं जगदिति यावत्। सत्यमित्युच्यते। तेषां प्राणानामेष विष्णुः सत्यमित्यर्थः। एवं चेज्जगतो मुख्यं सत्यत्वं न भवेत्? अन्यथा निर्धारणायोगादित्यतो मूर्तामूर्तात्मकस्य जगतः सत्यत्वं तावदन्यथा श्रुत्यैव व्याचष्टे -- द्वे वा वेति। रूपे प्रतिमे। तत्र मूर्तं स्थितमिति सदिति चोच्यते। अमूर्तं तु यदिति त्यदिति चोच्यत इत्यर्थः। तथा च सच्च त्यच्च सत्त्यमित्युक्तं भवति। इदानीं जगतः सत्यत्वं विष्णोः श्रुत्या व्याचष्टे -- तस्येति। सादयति विशरणादिकं प्रापयतीति सत्? यामयति नियच्छतीति यं? सच्च तद्यं च सत्त्यमित्यर्थः। प्रतिष्ठेश्वरश्चेति प्रसिद्धमेव।अपरस्परसम्भूतं इत्यस्यापरं परस्मात् सम्भूतमिति व्याख्यानमसत् प्रतिषेधप्रकरणात्। अतः परस्परसम्भूतं न भवतीत्याहुरित्येव व्याख्येयम्। स्यादेवम्? यदि परस्परसम्भवो भगवतोऽभिमतः स्यात् इत्यत आह -- परस्परेति। यद्वाऽनेन परव्याख्यानासाधुत्वमुपपादयति। भगवता परस्परसम्भवस्योक्तत्वात् तद्वचनं कथमासुरं इति। ईश्वराक्षेपे तात्पर्यमिति चेत्? न पुनरुक्तिप्रसङ्गात्।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।16.8।।ननु धर्माधर्मयोः प्रवृत्तिनिवृत्तिविषययोः प्रतिपादकं वेदाख्यं प्रमाणमस्ति निर्दोषं भगवदाज्ञारूपं सर्वलोकप्रसिद्धं तदुपजीवीनि च स्मृतिपुराणेतिहासादीनि सन्ति तत्कथं प्रवृत्तिनिवृत्तितत्प्रमाणाद्यज्ञानं? ज्ञाने वाज्ञोल्लङ्घिनां शासितरि भगवति सति कथं तदननुष्ठानेन शौचाचारादिरहितत्वं दुष्टानां शासितुर्भगवतोऽपि लोकवेदप्रसिद्धत्वादत आह -- असत्यमिति। सत्यमबाधिततात्पर्यविषयं तत्त्वावेदकं वेदाख्यं प्रमाणं तदुपजीवि पुराणादि च नास्ति तत्र तदसत्यम्। वेदस्वरूपस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वेऽपि तत्प्रामाण्यानभ्युपगमाद्विशिष्टाभावः। अतएव नास्ति धर्माधर्मरूपा प्रतिष्ठा व्यवस्थाहेतुर्यस्य तदप्रतिष्ठम्। तथा नास्ति शुभाशुभयोः कर्मणोः फलदातेश्वरो नियन्ता यस्य तदनीश्वरं ते आसुरा जगदाहुः। बलवत्पापप्रतिबन्धाद्वेदस्य प्रामाण्यं ते न मन्यन्ते। ततश्च तद्बोधितयोर्धर्माधर्मयोरीश्वरस्य चानङ्गीकाराद्यथेष्टाचरणेन ते पुरुषार्थभ्रष्टा इत्यर्थः। शास्त्रैकसमधिगम्यधर्माधर्मसहायेन प्रकृत्यधिष्ठात्रा परमेश्वरेण रहितं जगदिष्यते चेत्कारणाभावात्कथं तदुत्पत्तिरित्याशङ्क्याह -- अपरस्परेति। अपरस्परसंभूतं कामप्रयुक्तयोः स्त्रीपुंसयोरन्योन्यसंयोगात्संभूतं जगत्कामहैतुकं कामहेतुकमेव कामहैतुकं कामातिरिक्तकारणशून्यम्। ननु धर्माद्यप्यस्ति कारणं नेत्याह -- किमन्यदिति। अन्यददृष्टं कारणं किमस्ति नास्त्येवेत्यर्थः। अदृष्टाङ्गीकारेऽपि क्वचिद्गत्वा स्वभावे पर्यवसानात्स्वाभाविकमेव जगद्वैचित्र्यमस्तु दृष्टे संभवत्यदृष्टकल्पनानवकाशात्। अतः कामएव प्राणिनां कारणं नान्यददृष्टेश्वरादीत्याहुरिति लोकायतिकदृष्टिरियम्।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।16.8।।किञ्च। असत्यं वेदपुराणाद्यप्रमाणम्? अप्रतिष्ठं अव्यवस्थितम्? अनीश्वरं न विद्यते ईश्वरः कर्ता यस्य तादृशं जगत् ते असुरा आहुः वदन्ति। ननु कर्त्रभावेन कथमुत्पत्तिं वदन्ति इत्याह -- अपरस्परेति। अपरश्च परश्चेत्यपरस्परं स्त्रीपुरुषसंयोगस्ततो जातं कामहैतुकं स्त्रीपुरुषयोः काम एव हेतुर्यस्य तादृशम्। अन्यत् एतदतिरिक्तं किं कारणम् न किमपीत्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।16.8।। --,असत्यं यथा वयम् अनृतप्रायाः तथा इदं जगत् सर्वम् असत्यम्? अप्रतिष्ठं च न अस्य धर्माधर्मौ प्रतिष्ठा अतः अप्रतिष्ठं च? इति ते आसुराः जनाः जगत् आहुः? अनीश्वरम् न च धर्माधर्मसव्यपेक्षकः अस्य शासिता ईश्वरः विद्यते इति अतः अनीश्वरं जगत् आहुः। किं च? अपरस्परसंभूतं कामप्रयुक्तयोः स्त्रीपुरुषयोः अन्योन्यसंयोगात् जगत् सर्वं संभूतम्। किमन्यत् कामहैतुकं कामहेतुकमेव कामहैतुकम्। किमन्यत् जगतः कारणम् न किञ्चित् अदृष्टं धर्माधर्मादि कारणान्तरं विद्यते जगतः काम एव प्राणिनां कारणम् इति लोकायतिकदृष्टिः इयम्।।

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।16.8।।किञ्चासत्यमिति।त्वमेक एवास्य सतः प्रसूतिःसत्यस्य सत्यं इति भागवतवाक्यात्,[10।2।2826] सदेव सोम्येदमग्र आसीत् [छां.उ.6।2।1] तत्सत्यमित्याचक्षते [तैत्ति.2।6] इत्यादिश्रुतेश्च। सत्यं परमकाष्ठापन्नसत्यवस्तुकृतिसाध्यत्वात्तदात्मकं जगदेतत्तदसुरा असत्यमाहुः मायास्वाज्ञानकल्पितत्वादियुक्तिभिः। तथासति तन्मध्यपातिवेदतदुदितसाधनानि व्यर्थानि स्युः? अनुपादेयानि च। न हि खपुष्पशशशृङ्गादिभिर्व्यवहार उपपद्यतेऽसत्त्वादित्यर्थः। तथाऽप्रतिष्ठं ब्रह्मणि न प्रतिष्ठा यस्य तथेति वदन्ति। अनीश्वरं च सत्यसङ्कल्पेन पुरुषोत्तमस्वरूपेण विभुना नियमितं न वदन्ति। मया तूक्तं -- अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवृर्त्तते [10।8] इति।अहमेवात्मनाऽऽत्मानं सृजे हन्म्यनुपालये इति च। ते तु वदन्ति चैवम् -- अपरस्परसम्भूतं अपरस्परसम्भूतयोरन्योन्यसङ्गतयोः प्रकृतिरूपयोषित्पुरुषयोः परस्परसम्बन्धेन जातमिदं मनुष्यपश्वाद्युपलभ्यतेऽनेवम्भूतं किमन्यत् किञ्चिदपि नोपलभ्यत इति। अतः सर्वमिदं जगत्कामहैतुकमिति वदन्ति सहजासुराः।