एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः।।16.9।।
etāṁ dṛiṣhṭim avaṣhṭabhya naṣhṭātmāno ’lpa-buddhayaḥ prabhavanty ugra-karmāṇaḥ kṣhayāya jagato ’hitāḥ
Holding this view, these ruined souls of small intellect and fierce deeds come forth as enemies of the world, intent on its destruction.
16.9 एताम् this? दृष्टिम् view? अवष्टभ्य holding? नष्टात्मानः ruined souls? अल्पबुद्धयः of small intellect? प्रभवन्ति come forth? उग्रकर्माणः of fierce deeds? क्षयाय for the destruction? जगतः of the world? अहिताः enemies.Commentary They rob others. They acire wealth by destroying others. They boast of their evil actions.Nashtatmanah Ruined souls They have lost all chances of attaining Selfrealisation or going to the higher world.Alpabuddhayah They have a small intellect as they identify themselves with their little bodies full of impurities? as they have no conception of the Supreme Beign? and as their intellects are concerned with the little sensual pleasures only (eating? drinking? etc.).Ugrakarmanah Of fierce deeds They always injure others. They murder for aciring wealth. They do any heinous crime to get money and women. They bring great confusion and destroy the peace and harmony of the world.Enemies of the world World here means people who live in the world.
।।16.9।। व्याख्या -- एतां दृष्टिमवष्टभ्य -- न कोई कर्तव्यअकर्तव्य है? न शौचाचारसदाचार है? न ईश्वर है? न प्रारब्ध है? न पापपुण्य है? न परलोक है? न किये हुए कर्मोंका कोई दण्डविधान है -- ऐसी नास्तिक दृष्टिका आश्रय लेकर वे चलते हैं।नष्टात्मानः -- आत्मा कोई चेतन तत्त्व है? आत्माकी कोई सत्ता है -- इस बातको वे मानते ही नहीं। वे तो,इस बातको मानते हैं कि जैसे कत्था और चूना मिलनेसे एक लाली पैदा हो जाती है? ऐसी ही भौतिक तत्त्वोंके मिलनेसे एक चेतना पैदा हो जाती है। वह चेतन कोई अलग चीज है -- यह बात नहीं है। उनकी दृष्टिमें जड ही मुख्य होता है। इसलिये वे चेतनतत्त्वसे बिलकुल ही विमुख रहते हैं। चेतनतत्त्व(आत्मा) से विमुख होनेसे उनका पतन हो चुका होता है।अल्पबुद्धयः -- उनमें जो विवेकविचार होता है? वह अत्यन्त ही अल्प? तुच्छ होता है। उनकी दृष्टि केवल दृश्य पदार्थोंपर अवलम्बित रहती है कि कमाओ? खाओ? पीओ और मौज करो। आगे भविष्यमें क्या होगा परलोकमें क्या होगा ये बातें उनकी बुद्धिमें नहीं आतीं।यहाँ अल्पबुद्धिका यह अर्थ नहीं है कि हरेक काममें उनकी बुद्धि काम नहीं करती। सत्यतत्त्व क्या है धर्म क्या है अधर्म क्या है सदाचारदुराचार क्या है और उनका परिणाम क्या होता है इस विषयमें उनकी बुद्धि काम नहीं करती। परन्तु धनादि वस्तुओंके संग्रहमें उनकी बुद्धि बड़ी तेज होती है। तात्पर्य यह है कि पारमार्थिक उन्नतिके विषयमें उनकी बुद्धि तुच्छ होती है और सांसारिक भोगोंमें फँसनेके लिये उनकी बुद्धि बड़ी तेज होती है।उग्रकर्माणः -- वे किसीसे डरते ही नहीं। यदि डरेंगे तो चोर? डाकू या राजकीय आदमीसे डरेंगे। ईश्वरसे? परलोकसे? मर्यादासे वे नहीं डरते। ईश्वर और परलोकका भय न होनेसे उनके द्वारा दूसरोंकी हत्या आदि बड़े भयानक कर्म होते हैं।अहिताः -- उनका स्वभाव खराब होनेसे वे दूसरोंका अहित (नुकसान) करनेमें ही लगे रहते हैं और दूसरोंका नुकसान करनेमें ही उनको सुख होता है।जगतः क्षयाय प्रभवन्ति -- उनके पास जो शक्ति है? ऐश्वर्य है? सामर्थ्य है? पद है? अधिकार है? वह सबकासब दूसरोंका नाश करनेमें ही लगता है। दूसरोंका नाश ही उनका उद्देश्य होता है। अपना स्वार्थ पूरा सिद्ध हो या थोड़ा सिद्ध हो अथवा बिलकुल सिद्ध न हो? पर वे दूसरोंकी उन्नतिको सह नहीं सकते। दूसरोंका नाश करनेमें ही उनको सुख होता है अर्थात् पराया हक छीनना? किसीको जानसे मार देना -- इसीमें उनको प्रसन्नता होती है। सिंह जैसे दूसरे पशुओंको मारकर खा जाता है? दूसरोंके दुःखकी परवाह नहीं करता और राजकीय स्वार्थी अफसर जैसे दस? पचास? सौ रुपयोंके लिये हजारों रुपयोंका सरकारी नुकसान कर देते हैं? ऐसे ही अपना स्वार्थ पूरा करनेके लिये दूसरोंका चाहे कितना ही नुकसान हो जाय? उसकी वे परवाह नहीं करते। वे आसुर स्वभाववाले पशुपक्षियोंको मारकर खा जाते हैं और अपने थोड़ेसे सुखके लिये दूसरोंको कितना दुःख हुआ -- इसको वे सोच ही नहीं सकते। सम्बन्ध -- जहाँ सत्कर्म? सद्भाव और सद्विचारका निरादर हो जाता है? वहाँ मनुष्य कामनाओंका आश्रय लेकर क्या करता है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।16.9।। पूर्व श्लोक में वर्णित दृष्टि का अवलम्बन करने वाले लोग किसी सत्य अधिष्ठान में श्रद्धा नहीं रखते हैं। यदि कामवासना को ही मूल कारण समझकर समाज में पाशविक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित किया जाये? तो उसका परिणाम सर्वत्र अशान्ति और कलह? विध्वंस और विनाश ही होगा।नष्टात्मान केवल वही पुरुष सन्तुलित व्यक्तित्व का हो सकता है? जिसने स्वयं को सम्यक् प्रकार से समझ लिया है। जब कभी मनुष्य को स्वयं का ही विस्मरण हो जाता है? तब वह अपने जन्म? शिक्षा? संस्कृति और सामाजिक प्रतिष्ठा के सर्वथा विपरीत एक विक्षिप्त अथवा मदोन्मत्त पुरुष के समान निन्दनीय व्यवहार करता है। पशुवत व्यवहार करता हुआ वह अपने विकास की दिव्य प्रतिष्ठा का अपमान करता है।अल्पबुद्धय जब कोई पुरुष जगत् के अधिष्ठान के रूप में श्रेष्ठ और दिव्य सत्य का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करता है? तब वह अत्यन्त आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी पुरुष बन जाता है। तत्पश्चात् उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य अधिकाधिक व्यक्तिगत लाभ अर्जित करना होता है। विषय वासनाओं की तृप्ति के द्वारा वह परम सन्तोष और आनन्द प्राप्त करने का सर्वसम्भव प्रयत्न करता है? परन्तु अन्त में निराशा और विफलता ही उसके हाथ लगती है। करुणासागर भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें अल्पबुद्धि कहकर उनके प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त करते हैं।उग्रकर्मी यदि कोई व्यक्ति वास्तव में लोकतान्त्रिक और सहिष्णु विचारों का हो तो उसके मन में यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि यदि कोई नास्तिक भोगवादी पुरुष पारमार्थिक सत्य में विश्वास नहीं भी करता है? तो अन्य लोगों को उससे भिन्न सत्य श्रद्धा और विचार रखने की स्वतन्त्रता क्यों न हो ऐसे प्रश्न का पूर्वानुमान करके भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि आसुरी स्वभाव के श्रद्धाहीन पुरुष में यही विवेक नहीं रह पाता है और वह सभी स्तरों पर निरंकुश व्यवहार करने लगता है। अपने स्वार्थ से प्रेरित होकर कभीकभी ऐसे शक्तिशाली लोग अपने युग में घोर? विपत्तियों को उत्पन्न कर देते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से? आज का जगत् उसी संकटपूर्ण स्थति से गुजर रहा है जिसके विषय में गीता ने पूर्वानुमान के साथ बहुत पहले ही घोषणा कर दी थी जो भौतिकवादी आसुरी लोग सत्य में श्रद्धा नहीं रखते हैं? वे अनजाने ही समाज के सामंजस्य में ऐसी विषमता और विकृति उत्पन्न करते हैं कि जिसके कारण सम्पूर्ण विश्व विनाशकारी युद्ध के रक्तपूर्ण दलदल में फँस जाता है।आगे कहते हैं
।।16.9।।यथोक्ता दृष्टिर्ब्रह्मदृष्टिवदिष्टैवेत्याशङ्क्याह -- एतामिति। प्रागुपदिष्टामेतां लोकायतिकदृष्टिमवलम्ब्येति यावत्। नष्टस्वभावत्वमेव स्पष्टयति -- विभ्रष्टेति। विषयबुद्धेरल्पत्वं दृष्टमात्रोद्देशेन प्रवृत्तत्वं? जगतः प्राणिजातस्येति यावत्।
।।16.9।।एतामुदाहृतां लोकायतिकदृष्टिमवष्टभ्याश्रित्य नष्टात्मानो नष्टस्वभावा भ्रष्टपरलोकसाधना अल्पबुद्धयोऽल्पविषयविषयाल्पैव बुद्धिरेयषां ते दृष्टमात्रोद्देशप्रवृत्तमतय उग्रकर्माणः क्रूरकर्माणो हिंसात्मकाः जगतोऽहिताः शत्रवो जगतः क्षयाय प्रभवन्ति उद्भवन्ति। तथाचैतादृशदोषैर्दुष्टेयं दृष्टिः श्रेयोर्थिभिः सर्वथा नाश्रयणीयेति भावः।
।।16.9।।एतान्मनुपदोक्तां लोकायतिकानामभिप्रेतां दृष्टिमवष्टभ्य तामाश्रित्य नष्टात्मानः कामादिवशेन नष्टधैर्याः। यतोऽल्पे क्षुद्रे दृष्टसुखे एव बुद्धिर्येषां तेऽल्पबुद्धयः। अहिताः हिंस्राः।
।।16.9।।एतां दृष्टिम् अवष्टभ्य अवलम्ब्य? नष्टात्मानः? अदृष्टदेहातिरिक्तात्मानः? अल्पबुद्धयः -- घटादिवद् ज्ञेयभूते देहे ज्ञातृत्वेन देहव्यतिरिक्त आत्मा न उपलभ्यते? इति विवेकाकुशलाः। उग्रकर्माणः सर्वेषां हिंसकाः? जगतः क्षयाय प्रभवन्ति।
।।16.9।।किंच -- एतामिति। एतां लोकायतिकानां दृष्टिं दर्शनमाश्रित्य नष्टात्मानो मलिनचित्ताः सन्तोऽल्पबुद्धयो दृष्टार्थमात्रमतयः अतएव उग्रं हिंस्रं कर्म येषां तेऽहिता वैरिणो भूत्वा? जगतः क्षयाय प्रभवन्ति। उद्भवन्तीत्यर्थः।
[16.9] इत्यनेव तत्सिद्धेः। अतःकामहेतुकम् इत्यस्यैवोपपादनायअपरस्परसम्भूतम् इत्याद्युक्तिरित्यभिप्रायेणाह -- योषिदिति। क्रियासान्तत्येन हेतुफलभावरहितमिति व्याख्यान्तरमतिमन्दं? प्रसिद्धतमार्थत्यागात्कामहेतुकम् इत्यनन्वयाच्चेत्यभिप्रायेणाऽऽह -- अनेवम्भूतं किमन्यदुपलभ्यत इति। यद्यपि योषित्पुरुषसंसर्गमन्तरेणैव स्वेदजानां स्थावराणां चोत्पत्तिर्दृश्यते तथापीश्वरमात्रहेतुका देवादिसृष्टिर्नोपलभ्यते दृश्यमानं त्वयोनिजं योनिजवदेव दर्शनबलादङ्गीकुर्मः तत्राप्यन्वयव्यतिरेकावस्थिततत्तत्सामग्रीमात्रात्कार्यसिद्धिसम्भवे किमीश्वरेण कर्त्रा कल्पितेनागमिकतया स्वीकृतेन वेति भावः।अकिञ्चित्कामहेतुकम् इति परोक्तपाठान्तरस्य अप्रसिद्धत्वादिभिरनादरव्यक्त्यर्थंकिमन्यत् इति पाठस्य प्रतिनिषेधपरतां व्यनक्ति -- किञ्चिदपि नोपलभ्यत इति।अत इति -- अन्वयव्यतिरेकबलादित्यर्थः।कामहेतुकम् इति दृष्टकारणोपलक्षणम्। कामप्रावण्यवशात्तदुक्तिः। यथा पाषण्डागमा अपि तत्तत्पुरुषप्रवर्तिता इति तत्तदागमैस्तदातनप्रत्यक्षमूलतयोपदेशपरम्परया च व्यवस्थाप्यन्ते? यथा वा चिरन्तननगरवृत्तान्तादयः एवं कल्पेकल्पे प्रवृत्तमीश्वरशिल्पिनो जगन्नगरवृत्तान्तं सम्भावितमपि तीव्रौषधकल्पशास्त्रप्रद्वेषादपलपन्तीत्युक्तं भवति। ,।।16.9।।एतां दृष्टिमिति -- विपरीतां दृष्टिमित्यर्थः।अवष्टभ्य इत्याक्रमणादिप्रतीतिव्युदासायाह -- अवलम्ब्येति। नित्यस्यात्मनो विनाशाभावात्णश अदर्शने [धा.पा.4।88] इति धात्वर्थोऽत्र विवक्षित इत्याह -- अदृष्टेति। स्वयञ्ज्योतिषः प्रत्यगात्मस्वरूपस्य देहाध्यासाधिष्ठानतया नित्यमुपलम्भाद्देहातिरिक्तत्वेन विशेषितम्। नष्टात्मत्वहेतुरिहाल्पबुद्धित्वमुच्यत इति। पुनरुक्तिपरिहाराभिप्रायेणाहघटादिवदिति। यद्वा पशुमृगादिवत्कर्मवशात्स्वारसिको विविक्तात्मानुपलम्भः।अल्पबुद्धय इति तु तत्परिहाराशक्तिरुच्यत इति भावः। एवं परावरात्मविषयविपरीतदृष्टिरुक्ता अथप्रभवन्त्युग्रकर्माणः इत्यादिना तत्फलमुच्यते।उग्रकर्माणः इत्यत्रोग्रव्रतादिप्रतीतिव्युदासायाह -- सर्वेषां हिंसका इति। अशुभाः स्वसंसर्गिणामपि दोषावहा इत्यर्थः।जगतः क्षयाय प्रभवन्तीति -- अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् [3।10]परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ [6।11] इत्यादिप्रतिपादितां भगवन्मूलां लोकभावनधर्ममर्यादामतिलङ्घयन्ति तदनुवर्तिनश्चान्येऽपि मन्दाः तदाचारोपदेशादिविस्रम्भादिक्रमेण सर्वस्य जगतस्त्रिवर्गापवर्गरूपवृद्धिविरहिणस्त्रिविधतापाहतिरूपाय क्षयाय भवन्तीत्यर्थः।
।।16.9 -- 16.12।।एतामित्यादि अर्थसंचयानित्यन्तम्। चिन्ता तेषां प्रलयान्ता अवरितं (ता) संसृतिप्रलयाव्युपरमात्। एतावदितिकामोपभोग एव परं (परमं) कृत्यम् [एषाम्] तन्नाशाच्च परं क्रोधः। अत एवाह कामक्रोधपरायणाः इति।
।।16.9।।इयं दृष्टिः शास्त्रीयदृष्टिवदिष्टैवेत्याशङ्क्याह -- एतामिति। एतां प्रागुक्तां लोकायतिकदृष्टिमवष्टभ्यालम्ब्य नष्टात्मनो भ्रष्टपरलोकसाधनाः अल्पबुद्धयो दृष्टमात्रोद्देशप्रवृत्तमतयः उग्रकर्माणो हिंस्रा अहिताः शत्रवो जगतः प्राणिजातस्य क्षयाय व्याघ्रसर्पादिरूपेण प्रभवन्त्युत्पद्यन्ते। तस्मादियं दृष्टिरत्यन्ताधोगतिहेतुतया सर्वात्मना श्रेयोर्थिभिर्हेयैवेत्यर्थः।
।।16.9।।किञ्चएतामिति। एतां कामहैतुकरूपां लौकिकीं दृष्टिं दर्शनं अवष्टभ्य आश्रित्य नष्टात्मानः अदृष्टात्मस्वरूपाः? अल्पबुद्धयः प्रत्यक्षमतयः? उग्रकर्माणः उग्रं हिंसाप्रधानं कर्म येषां ते? अहिताः शत्रुरूपाः? जगतः सर्वलोकस्य क्षयाय नरकादिपातनार्थं प्रभवन्ति उत्पद्यन्त इत्यर्थः।
।।16.9।। --,एतां दृष्टिम् अवष्टभ्य आश्रित्य नष्टात्मानः नष्टस्वभावाः विभ्रष्टपरलोकसाधनाः अल्पबुद्धयः विषयविषया अल्पैव बुद्धिः येषां ते अल्पबुद्धयः प्रभवन्ति उद्भवन्ति उग्रकर्माणः क्रूरकर्माणः हिंसात्मकाः। क्षयाय जगतः प्रभवन्ति इति संबन्धः।।जगतः अहिताः? शत्रवः इत्यर्थः।।ते च --,
।।16.9।।एतां दृष्टिमिति। सर्वत्र मृषात्वदृष्टिं चावष्टभ्य स्वस्य ब्रह्मणोऽविद्यासम्बन्धतो जीवत्वादिमताङ्गीकारान्नष्टात्मानस्ते। वस्तुतोऽल्पबुद्धयः सर्वस्य जगतः क्षयाय प्रभवन्त्युद्भवन्ति। विष्णुपुराणे तूक्तं -- तदेतदक्षयं नित्यं जगन्मुनिवारिखलम्। आविर्भावतिरोभावजन्मनाशविकल्पवत् इत्यादि। तथाभूतस्यात्र क्षयायोद्भवन्ति।वर्त्तमानसामीप्ये वर्त्तमानवद्वा [अष्टा.3।3।131़] इति सूत्राद्भविष्यति वा वर्त्तमानप्रयोगः।