चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्िचताः।।16.11।।
chintām aparimeyāṁ cha pralayāntām upāśhritāḥ kāmopabhoga-paramā etāvad iti niśhchitāḥ
Giving themselves over to immeasurable cares that end only with death, regarding the gratification of lust as their highest aim, and feeling sure that that is all.
16.11 चिन्ताम् cares? अपरिमेयाम् immeasurable? च and? प्रलयान्तम् ending only with death? उपाश्रिताः refuged in? कामोपभोगपरमाः regarding gratification of lust as their highest aim? एतावत् that is all? इति thus? निश्चिताः feeling sure.Commentary They are beset with immense cares? worries and anxieties and their minds are engrossed in aciring and preserving the countless sensual objects. They have got the strong conviction that the sensual enjoyment is the highest end of a man. They are steeped in enjoying the objects of the senses. They firmly believe that that is everything. They believe that sensual enjoyment is the supreme source of happiness and there is no such thing as eternal bliss of the soul or transcendental bliss of the Self. They have no belief in the happiness in another world (or plane) or in the perennial bliss which is independent of sensual objects? which is beyond the reach of the senses. They have a dull and gross intellect? and so they cannot grasp the subtle higher truth. Sensual enjoyment is the greatest object of attainment for them.
।।16.11।। व्याख्या -- चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः -- आसुरीसम्पदावाले मनुष्योंमें ऐसी चिन्ताएँ रहती हैं? जिनका कोई मापतौल नहीं है। जबतक प्रलय अर्थात् मौत नहीं आती? तबतक उनकी चिन्ताएँ मिटती नहीं। ऐसी प्रलयतक रहनेवाली चिन्ताओंका फल भी प्रलयहीप्रलय अर्थात् बारबार मरना ही होता है।चिन्ताके दो विषय होते हैं -- एक पारमार्थिक और दूसरा सांसारिक। मेरा कल्याण? मेरा उद्धार कैसे हो परब्रह्म परमात्माका निश्चय कैसे हो (चिन्ता परब्रह्मविनिश्चयाय) इस प्रकार जिनको पारमार्थिक चिन्ता होती है? वे श्रेष्ठ हैं। परन्तु आसुरीसम्पदावालोंको ऐसी चिन्ता नहीं होती। वे तो इससे विपरीत सांसारिक चिन्ताओंके आश्रित रहते हैं कि हम कैसे जीयेंगे अपना जीवननिर्वाह कैसे करेंगे हमारे बिना बड़ेबूढ़े किसके आश्रित जीयेंगे हमारा मान? आदर? प्रतिष्ठा? इज्जत? प्रसिद्धि? नाम आदि कैसे बने रहेंगे मरनेके बाद हमारे बालबच्चोंकी क्या दशा होगी मर जायँगे तो धनसम्पत्ति? जमीनजायदादका क्या होगा धनके बिना हमारा काम कैसे चलेगा धनके बिना मकानकी मरम्मत कैसे होगी आदिआदि।मनुष्य व्यर्थमें ही चिन्ता करता है। निर्वाह तो होता रहेगा। निर्वाहकी चीजें तो बाकी रहेंगी और उनके रहते हुए ही मरेंगे। अपने पास एक लंगोटी रखनेवाले विरक्तसेविरक्तकी भी फटी लंगोटी और फूटी तूम्बी बाकी बचती है और मरता है पहले। ऐसे ही सभी व्यक्ति वस्तु आदिके रहते हुए ही मरते हैं। यह नियम नहीं है कि,धन पासमें होनेसे आदमी मरता न हो। धन पासमें रहतेरहते ही मनुष्य मर जाता है और धन पड़ा रहता है? काममें नहीं आता।एक बहुत बड़ा धनी आदमी था। उसने तिजोरीकी तरह लोहेका एक मजबूत मकान बना रखा था? जिसमें बहुत रत्न रखे हुए थे। उस मकानका दरवाजा ऐसा बना हुआ था? जो बंद होनेपर चाबीके बिना खुलता नहीं था। एक बार वह धनी आदमी बाहर चाबी छोड़कर उस मकानके भीतर चला गया और उसने भूलसे दरवाजा बंद कर लिया। अब चाबीके बिना दरवाना न खुलनेसे अन्न? जल? हवाके अभावमें मरते हुए उसने लिखा कि इतनी धनसम्पत्ति आज मेरे पास रहते हुए भी मैं मर रहा हूँ क्योंकि मुझे भीतर अन्नजल नहीं मिल रहा है? हवा नहीं मिल रही है ऐसे ही खाद्य पदार्थोंके रहनेसे नहीं मरेगा? यह भी नियम नहीं है। भोगोंके पासमें होते हुए भी ऐसे ही मरेगा। जैसे पेट आदिमें रोग लग जानेपर वैद्यडाक्टर उसको (अन्न पासमें रहते हुए भी) अन्न खाने नहीं देते? ऐसे ही मरना हो? तो पदार्थोंके रहते हुए भी मनुष्य मर जाता है।जो अपने पास एक कौड़ीका भी संग्रह नहीं करते? ऐसे विरक्त संतोंको भी प्रारब्धके अनुसार आवश्यकतासे अधिक चीजें मिल जाती हैं। अतः जीवननिर्वाह चीजोंके अधीन नहीं है (टिप्पणी प0 818)। परन्तु इस तत्त्वको आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य नहीं समझ सकते। वे तो यही समझते हैं कि हम चिन्ता करते हैं? कामना करते हैं? विचार करते हैं? उद्योग करते हैं? तभी चीजें मिलती हैं। यदि ऐसा न करें? तो भूखों मरना पड़े कामोपभोगपरमाः -- जो मनुष्य धनादि पदार्थोंका उपभोग करनेके परायण हैं? उनकी तो हरदम यही इच्छा रहती है कि सुखसामग्रीका खूब संग्रह कर लें और भोग भोग लें। उनको तो भोगोंके लिये धन चाहिये संसारमें बड़ा बननेके लिये धन चाहिये? सुखआराम? स्वादशौकीनी आदिके लिये धन चाहिये। तात्पर्य है कि उनके लिये भोगोंसे बढ़कर कुछ नहीं है।एतावदिति निश्चिताः -- उनका यह निश्चय होता है कि सुख भोगना और संग्रह करना -- इसके सिवाय और कुछ नहीं है (टिप्पणी प0 819.1)। इस संसारमें जो कुछ है? यही है। अतः उनकी दृष्टिमें परलोक एक ढकोसला है। उनकी मान्यता रहती है कि मरनेके बाद कहीं आनाजाना नहीं होता। बस? यहाँ शरीरके रहते हुए जितना सुख भोग लें? वही ठीक है क्योंकि मरनेपर तो शरीर यहीं बिखर जायगा (टिप्पणी प0 819.2)। शरीर स्थिर रहनेवाला है नहीं? आदिआदि भोगोंके निश्चयके सामने वे पापपुण्य? पुनर्जन्म आदिको भी नहीं मानते।
।।16.11।। चिन्ता और व्याकुलता से ग्रस्त ये हतोत्साहित लोग अपने निरर्थक उद्यमों के जीवन को दुख के गलियारे से खींचते हुए मृत्यु के आंगन में ले आते हैं। सामान्य जीवन में? ये चिन्ताएं शान्ति और आनन्द के दुर्ग पर टूट पड़ती हैं और विशेष रूप से तब? जब शक्तिशाली कामनाओं ने मनुष्य को जीतकर अपने वश में कर लिया होता है। अपनी इष्ट वस्तुओं को प्राप्त करने (योग) के लिए परिश्रम और संघर्ष तथा प्राप्त की गयी वस्तुओं के रक्षण (क्षेम) की व्याकुलता? यही मनुष्य जीवन की चिन्ताएं होती हैं। जीवन पर्यन्त की कालावधि केवल इन्हीं चिन्ताओं में अपव्यय करना और अन्त में? यही पाना कि हम उसमें कितने दयनीय रूप से विफल हुए हैं? वास्तव में एक बड़ी त्रासदी है।कामोपभोगपरमा सत्कार्य के क्षेत्र में हो या दुष्कृत्य के क्षेत्र में? मनुष्य को निरन्तर कार्यरत रहने के लिए किसी दर्शन (जीवन विषयक दृष्टिकोण) की आवश्यकता होती है? जिसके बिना उसके प्रयत्न असंबद्ध? हीनस्तर के और निरर्थक होते हैं।आसुरी स्वभाव के लोगों का जीवनदर्शन निरपवादरूप से सर्वत्र एक समान ही होता है। इस श्लोक में चार्वाक मत (नास्तिक दर्शन) को इंगित किया गया है। इस मत के अनुसार काम ही मनुष्य जीवन का परम पुरषार्थ है? अन्य धर्म या मोक्ष कुछ नहीं।इतना ही है सामान्यत? ये भौतिकतावादी मूर्ख नहीं होते? परन्तु वे अत्यन्त स्थूल बुद्धि और सतही दृष्टि से विचार करते हैं। वे यह अनुभव करते हैं कि केवल विषय भोग का जीवन दुखपूर्ण होता है? और इसमें क्षुद्र लाभ के लिये मनुष्य को अत्यधिक मूल्य चुकाना पड़ता है। फिर भी? वे अपनी अनियंत्रित कामवासना को ही तृप्त करने में रत और व्यस्त रहते हैं। उनसे यदि इस विषय में प्रश्न पूछा जाये? तो उनका उत्तर होगा कि यह संघर्ष ही जीवन है। वह सुख और शान्तिमय जीवन को जानते ही नहीं है। वे प्राय निराशावादी होते हैं और नैतिक दृष्टि से जीवन विषयक गंभीर विचार करने से कतराते हैं। फलत उनमें आत्महत्या और नर हत्या की प्रवृत्तियाँ भी देखी जा सकती हैं। उनकी धारणा यह होती है कि चिन्ता और दुख से ही जीवन की रचना हुई है। जीवन के सतही असामञ्जस्य और विषमताओं के पीछे जो सामञ्जस्य और लय है? उसे वह पहचान नहीं पाते। भविष्य में कोई आशा की किरण न देखकर उनका हृदय कटुता से भर जाता है और फिर उनका जीवन मात्र प्रतिशोधपूर्ण हो जाता है। निष्फल परिश्रम में वे अपनी शक्तियों का अपव्यय करते हैं और अन्त में थके? हारे और निराश होकर दयनीय मृत्यु को प्राप्त होते हैं।उपर्युक्त जीवन दर्शन की अभिव्यक्ति को अगले श्लोक में बताते हुये भगवान् कहते हैं
।।16.11।।तानेव विधान्तरेण विशिनष्टि -- किञ्चेति। चिन्तामात्मीययोगक्षेमोपायालोचनात्मिकामपरिमेयविषयत्वात्परिमातुमशक्यामाश्रिता इति संबन्धः। एष कामोपभोगः परमयनं सुखस्येत्येतावत्पारत्रिकं नु नास्ति सुखमिति निश्चयवन्त इत्याह -- एतावदितीति।
।।16.11।।आसुरानेव विधान्तरेण पुनर्विशिनष्टि। चिन्तां योगक्षेमोपायालोचनात्मिकामपरिमेयविषयत्वात् यस्याश्चिन्ताया इयत्ता न परिमातुं शक्यते सा परिमातुमशक्या तां प्रलयान्तां मरणपर्यन्तामुपाश्रिताः। सदाचिन्तापरा इत्यर्थः। काम्यन्त इति कामाः शब्दादयस्तदुपभोगः परमपुरुषार्थो येषामयमेव परमः पुरुषार्थो यः कामोपभोगः पारत्रिकं तु सुखं नास्तयेवेत्येवं निश्चितात्मानः एतत्कायातिरिक्तस्य भोक्तुरभावात्। तथाच बार्हस्पत्ये सूत्रेचैतन्यविशिष्टः कामः पुरुषः? काम एवैकः पुरुषार्थः इति च।
।।16.11।।चिन्तां योगक्षेमविषयाम्। प्रलयान्तां मरणावधिम्। एतावत् देह एवात्मा कामभोग एव पुरुषार्थ इतोऽन्यन्नास्ति इति निश्चिताः निश्चयवन्तः। तथा च बार्हस्पत्यं सूत्रंचैतन्यविशिष्टः कामः पुरुषः। काम एवैकः पुरुषार्थः इति च।
।।16.11।।अद्य श्वो वा मुमूर्षवः चिन्ताम् अपरिमेयां च अपरिच्छेद्यां प्रलयान्तां प्राकृतप्रलयावधिकालसाध्यविषयाम् उपाश्रिताः। तथा कामोपभोगपरमाः कामोपभोग एव परमपुरुषार्थः? इति मन्वानाः। एतावद् इति निश्चिताः? इतः अधिकः पुरुषार्थो न विद्यते इति संजातनिश्चयाः।
।।16.11।। किंच -- चिन्तामिति। प्रलयो मरणमेवान्तो यस्यास्ताम्। अपरिमेयां परिमातुमशक्यां चिन्तामाश्रिताः। नित्यचिन्तापरायणा इत्यर्थः। कामोपभोग एव परमो येषां ते? एतावदिति कामोपभोग एव परमः पुरुषार्थो नान्यदस्तीति कृतनिश्चयाः? अर्थसंचयानीहन्त इत्युत्तरेणान्वयः। तथाच बार्हस्पत्यं सूत्रम् -- काम एवैकः पुरुषार्थः इति?चैतन्यविशिष्टः कामः पुरुषः इति च।
।।16.11।।एवं प्रवर्तकानामुपर्युपरिमनोविकारादय उच्यन्ते -- चिन्तामपरिमेयामित्यादिभिः। अशक्यविषयवृथाप्रयासव्यञ्जनायाऽऽहअद्य श्वो वेति।अपरिमेयाम् इत्यसङ्ख्येयविषयत्वेनानन्तशाखत्वं विवक्षितमित्याह -- अपरिच्छेद्यामिति।प्रलयान्ताम् इत्यत्र शरीरपातावधिकत्वोक्तिर्मन्दा अनन्तकालसाध्यमल्पकालेन सिसाधयिषन्तीति तु व्यामोहातिशयख्यापनेन सप्रयोजनमिदम् प्रलयशब्दश्च प्रसिद्धतमविषय उचितः चिन्तयितृ़णां पुरुषाणामाप्रलयस्थायित्वाभावाच्चिन्तायाः स्वरूपेण प्रलयान्तत्वं चायुक्तमित्यभिप्रायेणाऽऽहप्राकृतप्रलयावधिकालसाध्यविषयामिति। असङ्ख्येयेषु चिन्ताविषयेष्वेकैकोऽपि दुस्साध्य इति भावः। प्रयोजनतयाऽभिमतेषु कामोपभोग एव परमो येषां तेऽत्र कामोपभोगपरमाः तदाहकामोपभोग एवेति। स्वर्गापवर्गप्रतिषेधार्थ एतावच्छब्द इत्याह -- इतोऽधिक इति।सञ्जातनिश्चया इति। अत्र निश्चितशब्देभुक्ता ब्राह्मणाः इतिवत्कर्तरि क्त इति भावः।
।।16.9 -- 16.12।।एतामित्यादि अर्थसंचयानित्यन्तम्। चिन्ता तेषां प्रलयान्ता अवरितं (ता) संसृतिप्रलयाव्युपरमात्। एतावदितिकामोपभोग एव परं (परमं) कृत्यम् [एषाम्] तन्नाशाच्च परं क्रोधः। अत एवाह कामक्रोधपरायणाः इति।
।।16.11।।तानेव पुनर्विशिनष्टि -- चिन्तामिति। चिन्तामात्मीययोगक्षेमोपायालोचनात्मिकामपरिमेयामपरिमेयविषयत्वात्परिमातुमशक्यां प्रलयो मरणमेवान्तो यस्यास्तां प्रलयान्ताम्। यावज्जीवमनुवर्तमानामिति यावत्। न केवलमशुचिव्रताः प्रवर्तन्ते किंत्वेतादृशीं चिन्तां चोपाश्रिता इति समुच्चयार्थश्चकारः। सदानन्तचिन्तापरा अपि न कदाचित्पारलौकिकचिन्तायुताः किंतु कामोपभोगपरमाः काम्यन्त इति कामा दृष्टाः शब्दादयो विषयास्तदुपभोग एव परमः पुरुषार्थो न धर्मादिर्येषां ते,तथा। पारलौकिकमुत्तमं सुखं कुतो न कामयन्ते तत्राह -- एतावदिति। एतावद्दृष्टमेव सुखं नान्यदेतच्छरीरवियोगे भोग्यं सुखमस्त्येतत्कायातिरिक्तस्य भोक्तुरभावादिति निश्चिता एवं निश्चयवन्तः। तथाच बार्हस्पत्यं सूत्रंचैतन्यविशिष्टः कामः पुरुषः? काम एवैकः पुरुषार्थः इति च।
।।16.11।।किञ्च -- चिन्तामिति। अपरिमेयां परिमातुमशक्यां प्रलयान्तां मरणान्तां चिन्तामुपाश्रिताः? अहर्निशं चिन्तापरा इत्यर्थः। कामोपभोग एव परमः फलरूपो येषां? एतावत्पुरुषार्थकामोपभोग एवेति निश्चिताः कृतनिश्चयाः।
।।16.11।। --,चिन्ताम् अपरिमेयां च? न परिमातुं शक्यते यस्याः चिन्तायाः इयत्ता सा अपरिमेया? ताम् अपरिमेयाम्? प्रलयान्तां मरणान्ताम् उपाश्रिताः? सदा चिन्तापराः इत्यर्थः। कामोपभोगपरमाः? काम्यन्ते इति कामाः विषयाः शब्दादयः तदुपभोगपरमाः अयमेव परमः पुरुषार्थः यः कामोपभोगः इत्येवं निश्चितात्मानः? एतावत् इति निश्चिताः।।
।।16.11।।चिन्तामिति। एतावदिति। कामोपभोग एव फलमिति निश्चिताः।