BG - 16.18

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।16.18।।

ahankāraṁ balaṁ darpaṁ kāmaṁ krodhaṁ cha sanśhritāḥ mām ātma-para-deheṣhu pradviṣhanto ’bhyasūyakāḥ

  • ahankāram - egotism
  • balam - strength
  • darpam - arrogance
  • kāmam - desire
  • krodham - anger
  • cha - and
  • sanśhritāḥ - covered by
  • mām - me
  • ātma-para-deheṣhu - within one’s own and bodies of others
  • pradviṣhantaḥ - abuse
  • abhyasūyakāḥ - the demoniac

Translation

Given over to egoism, power, haughtiness, lust, and anger, these malicious people hate Me in their own bodies and in the bodies of others.

Commentary

By - Swami Sivananda

16.18 अहङ्कारम् egoism? बलम् power? दर्पम् haughtiness? कामम् lust? क्रोधम् anger? च and? संश्रिताः possessed of? माम् Me? आत्मपरदेहेषु in their own bodies and in those of others? प्रद्विषन्तः hating? अभ्यसूयकाः (these) malicious people.Commentary They are selfsufficient and puffed up with mental and material power. They pose too much. They resent it much if they are belittled. The body is dearer to them than everything else. They live solely for it. If anybody tries to thwart their plans or schemes they become bitterly hostile towards him. They take vengeance on him and try to kill him mercilessly. They are extremely meanminded. Just as darness seems to be denser after night sets in? so also as their,folly increases? their arrogance grows? their egoism develops? their pride swells? and their delusion augments day by day. They use brutal force to gain their selfish ends. They abuse and illtreat all those people who are truthful and charitable? and who are devoted to Me.Ahamkaram Egoism The selfarrogating principle? the effect or modification of ignorance. This is the source of all the defects and perversities in human nature and of all evil actions. Lust? anger? greed? pride and hypocrisy are all attendants of egoism. It is very difficult to overcome this dire enemy? but through Vichara (right eniry) it can be annihilated.These Asuras who are very egoistic on account of their deep ignorance esteem themselves very highly for the alities they possess and for those which they falsely superimpose upon themselves. They think that they are very great persons on account of the good alities which they have superimposed upon themselves and their egoism is increased thery. They try to humiliate others by using their financial supremacy. They will bribe people to give false evidence and do anything to attain their selfish ends.Balam Power accompanied by lust and attachment. The Asuras use their strength of body to humiliate and destroy others. If a man is not established in Yama (the fivefold canon of ethical perfection? consisting of noninjury? truthfulness? nonstealing? celibacy and noncovetousness)? if he has no purity of heart? if his mind is surcharged or saturated with evil tendencies? and if he gets power of any sort? he will misuse or abuse it and try to humiliate or abuse others. Powers or Siddhis are bound to come if one practises concentration of mind. If he is endowed with Yama? he will never misuse them and so he will never have a downfall. That is the reason why Patanjali Maharshi says Powers are obstacles on the path of Yoga. Shun them ruthlessly. March onwards to the goal. Climb the ladder of Yoga till you attain the highest state of superconsciousness or Godconsciousness. Do not look back. Have no memories of the past.Yama is the very foundation of Yoga. Get yourself established in Yama before you take to concentration and meditation. Many aspirants get a downfall because they do not practise Yama to begin with. They jump at once to the practice of concentration and meditation. This is sad mistake.Darpa Haughtiness. A man whose heart is filled with haughtiness becomes very insolent and unjust and assumes an overbearing and domineering attitude towards others he never respects the elders? Gurus and others. This is a peculiar vice that has its seat in the mind. When this evil ality manifests itself? one swerves from the path of virtue.Krodha Anger manifests itself when one gets something unplesant and when he comes across something disagreeable.These Asuras hate Me? the Lord Who dwells in their own bodies as the silent witness of their thoughts and actions. They think that I am also a human being and hate Me. They do not understand My allpervading and imperishable nature. They do not care at all to know and follow. My ?nds or the injunctions given in the Vedas and the Smritis. If anyone violates My ?nds given in the scriptures? it is surely tantamount to an act of hatred towards Me. These people are very malicious. They have evil intentions or impure motives. They are jealous of those persons who are virtuous and who tread the path of righteousness. Their hearts burn when they notice good alities in others. This is Matsarya? a form of jealousy. If a man superimposes evil alities on a virtuous man who is endowed with good alities? this is Asuya. If his heart burns when he sees a wealthy or prosperous man? this is Irshya.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।16.18।। व्याख्या --   अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः -- वे आसुर मनुष्य जो कुछ काम करेंगे? उसको अहङ्कार? हठ? घमण्ड? काम और क्रोधसे करेंगे। जैसे भक्त भगवान्के आश्रित रहता है? ऐसे ही वे आसुर लोग अहंकार? हठ? काम? आदिके आश्रित रहते हैं। उनके मनमें यह बात अच्छी तरहसे जँची हुई रहती है कि अहङ्कार? हठ? घमण्ड? कामना और क्रोधके बिना काम नहीं चलेगा संसारमें ऐसा होनेसे ही काम चलता है? नहीं तो मनुष्योंको दुःख ही पाना पड़ता है जो इनका (अहङ्कार? हठ आदिका) आश्रय नहीं लेते? वे बुरी तरहसे कुचले जाते हैं सीधेसादे व्यक्तिको संसारमें कौन मानेगा इसलिये अहंकारादिके रहनेसे ही अपना मान होगा? सत्कार होगा और लोगोंमें नाम होगा? जिससे लोगोंपर हमारा दबाव? आधिपत्य रहेगा।मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तः -- भगवान् कहते हैं कि मैं जो उनके शरीरमें और दूसरोंके शरीरमें रहता हूँ? उस मेरे साथ वे आसुर मनुष्य वैर रखते हैं। भगवान्के साथ वैर रखना क्या है -- श्रुतिस्मृति ममैवाज्ञे य उल्लङ्घ्य प्रवर्तते। आज्ञाभङ्गी मम द्वेषी नरके पतति ध्रुवम्।।श्रुति और स्मृति -- ये दोनों मेरी आज्ञाएँ हैं। इनका उल्लङ्घन करके जो मनमाने ढंगसे बर्ताव करता है? वह मेरी आज्ञाभङ्ग करके मेरे साथ द्वेष रखनेवाला मनुष्य निश्चित ही नरकोंमें गिरता है। वे अपने अन्तःकरणमें विराजमान परमात्माके साथ भी विरोध करते हैं अर्थात् हृदयमें जो अच्छी स्फुरणाएँ होती हैं? सिद्धान्तकी अच्छी बातें आती हैं? उनकी वे उपेक्षातिरस्कार करते हैं? उनको मानते नहीं। वे दूसरे लोगोंकी अवज्ञा करते हैं? उनका तिरस्कार करते हैं? अपमान करते हैं? उनको दुःख देते हैं? उनसे अच्छी तरहसे द्वेष रखते हैं। यह सब उन प्राणियोंके रूपमें भगवान्के साथ द्वेष करना है।अभ्यसूयकाः -- वे मेरे और दूसरोंके गुणोंमें दोषदृष्टि रखते हैं। मेरे विषयमें वे कहते हैं कि भगवान् बड़े पक्षपाती हैं वे भक्तोंकी तो रक्षा करते हैं और दूसरोंका विनाश करते हैं? यह बात बढ़िया नहीं है। आजतक जितने संतमहात्मा हुए हैं और अभी भी जो संतमहात्मा तथा अच्छी स्थितिवाले साधक हैं? उनके विषयमें वे आसुर लोग कहते हैं कि उनमें भी रागद्वेष? कामक्रोध? स्वार्थ? दिखावटीपन आदि दोष पाये जाते हैं किसी भी संतमहात्माका चरित्र ऐसा नहीं है? जिसमें ये दोष न आये हों अतः यह सब पाखण्ड है हमने भी इन सब बातोंको करके देखा है हमने भी संयम किया है? भजन किया है? व्रत किये हैं? तीर्थ किये हैं? पर वास्तवमें इनमें कोई दम नहीं है हमें तो कुछ नहीं मिला? मुफ्तमें ही दुःख पाया उनके करनेमें वह समय हमारा व्यर्थमें ही बरबाद हुआ है वे लोग भी किसीके बहकावेमें आकर अपना समय बरबाद कर रहे हैं अभी ये ऐसे प्रवाहमें बहे हुए हैं और उलटे रास्तेपर जा रहे हैं अभी इनको होश नहीं है? पर जब कभी चेतेंगे? तब उनको भी पता लगेगा आदिआदि।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।16.18।। एक बार अहंकार के वशीभूत हो जाने पर मनुष्य का पशु से भी निम्नतम स्तर तक निरन्तर पतन होता जाता है। कामना से उन्मत्त वह पुरुष सुसंस्कृत मानव की प्रतिष्ठा से पदच्युत हो जाता है और तत्पश्चात् एक प्रभावहीन पशु के समान संदिग्ध रूप में समाज में विचरण करता है ऐसा व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से मनुष्य होते हुए भी मानसिक दृष्टि से पशु ही होता है। इस श्लोक में इन्हीं आसुरी लोगों का वर्णन किया गया है।यहाँ उल्लिखित अहंकारादि अवगुणों में से एक अवगुण भी भ्रष्टता के तल तक गिराने के लिए पर्याप्त है? परन्तु भगवान् कहते हैं कि आसुरी पुरुष इन सभी अवगुणों से युक्त होता है। इतना ही नहीं? अपितु वह इन्हें ही श्रेष्ठ गुण मानकर इनका अवलम्बन भी करता है। इनकी अभिव्यक्ति में ही वह सन्तोष का अनुभव करता है।प्राय नवयुवकों को यह उपदेश दिया जाता है कि उन्हें अपनी निम्नस्तर की हीन प्रवृत्तियों के प्रलोभनों का शिकार नहीं बनना चाहिए। कोई स्वच्छन्द प्रवृत्ति का युवक प्रश्न पूछ सकता है कि इसमें क्या हानि है गीताचार्य कहते हैं कि सभी सांस्कृतिक मूल्यों का अपमान करते हुए अहंकार स्वार्थ और कामुकता का जीवन जीने का परिणाम सम्पूर्ण नाश है।उपर्युक्त आसुरी गुणों से युक्त लोग जीवन की पवित्रता की उपेक्षा करेंगे और बिना किसी पश्चाताप् के उसे अपवित्र करने में भी संकोच नहीं करेंगे। ये परनिन्दा में प्रवृत्त होंगे और सबके शरीर में स्थित मुझ परमात्मा का द्वेष करेंगे। केवल शुद्धांन्तकरण में ही परमात्मा अपने शुद्ध स्वरूप से व्यक्त होता है? न कि विषय वासनाओं से आच्छादित अशुद्ध अन्तकरण में। सदाचार का पालन चित्त को शुद्ध करता है? परन्तु अनैतिकता और दुराचार? जीवन के सुमधुर संगीत को अपने विकृत स्वरों के द्वारा निरर्थक ध्वनि के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। दुराचारी पुरुष स्वयं अशान्त होकर अपने आसपास भी अशान्ति का वातावरण निर्मित करता है।अगले श्लोक में इन असुरों के पतन को बताते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।16.18।।आसुरीं संपदमभिजातैरधर्मजातमेव संचीयते प्रवृत्तेरपि वैदिके नैव पुण्यमित्युक्तम्। ब्रह्मज्ञानात्पुनरासुरा दूरादेवोद्विजन्त इत्याह -- अहंकारमिति। अहंकारमेव स्फोरयति -- विद्यमानैरिति। अध्यारोपितवैशिष्ट्यविषयत्वादहंकारस्याविद्यामूलत्वेनाविद्यात्वमाह -- अविद्याख्य इति। विवेकिभिस्तस्यातियत्नादेव हेयत्वं सूचयति -- कष्टतम इति। तदेव स्पष्टयति -- सर्वेति। तं संश्रिता इति संबन्धः। कार्यकरणसामर्थ्यमुक्तविशेषणं बलम्। अहंकार एव महवदधीरणापर्यन्तत्वेन परिणतो दर्पस्तं व्याकरोति -- दर्पो नामेत्यादिना। अन्यांश्च दोषान्मात्सर्यादीन्। न केवलमुक्तमेव तेषां विशेषणं किंतु कष्टतममस्ति विशेषणान्तरमित्याह -- किञ्चेति। यद्यपीश्वरं प्रति द्वेषस्तेषां संभाव्यते तथापि कथं स्वदेहे परदेहेषु च तं प्रति द्वेषो नहि तत्र भोक्तारमन्तरेणेश्वरस्यावस्थानमित्याशङ्क्याह -- तद्बुद्धीति। तेषामीश्वरं प्रति द्वेषमेव प्रकटयति, -- मच्छासनेति। ईश्वरस्य शासनं श्रुतिस्मृतिरूपं तदतिवर्तित्वं तदुक्तार्थज्ञानानुष्ठानपराङ्मुखत्वम्।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।16.18।।न केवलं दभमेनाविधिपूर्वकं यजन्त इत्येतावदेवापि त्वहंकारं विद्यामानैरविद्य मानौश्च गुणैरात्मन्यध्यारोपितैरात्मनो विशिष्टत्वाभिमानमविद्याख्यं कष्टतमं सर्वदोषाणां सर्वानर्थप्रवत्तीनां च मूलं तथा बलं पराभिभवमिमित्तं शरीरादिसामर्थ्यं कामरागान्वितं दर्प धर्मातिक्रमतेमन्तःकरणाश्रयं दोषाविशेषं कामं स्त्र्यादिविषयं क्रोधमनिष्टविषयं चतादेतानन्यांश्च मात्सर्यादीन्महतो दोषान् संश्रिताः। किंच न केवलमहंकारादीनेव संश्रिताः कुंतु तदाश्रयेण मामीश्वरमात्मपरदेहेषु स्वदेहेषु परदेहेषु च तद्धुद्धिकर्मसाक्षिणं मां प्रद्विषन्तः श्रुतिस्मृतिरुपमच्छासनातिवर्तत्वं तदुक्तार्थानुष्ठानपराङ्युखत्वं मद्वेषस्तं कुर्वन्तः दम्भेनाविधिपूर्वकं यजनं स्वदेहपीडनमहंकारदिकं मदवज्ञानं च श्रुतिस्मृतिप्रतिषिद्धं समाश्रिता मदाज्ञातिवर्तन इत्यर्थः। ननु सत्कर्मस्थानामनुवृत्तिं किमिति न कुर्वन्तीतिचेत्तत्राह। तेषां गुणेष्वभ्यसूयकाः दोषाविष्करणशीलाः।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।16.18।।मामात्मपरदेहेष्विति। न कस्यचिद्विष्णुः कारयिता। यदि स्यान्ममपीदानीं कारयत्वित्यादि ईश्वरो यदि सर्वस्य कारकः कारयीत माम्। अद्येति वादिनं ब्रूयात्सदाऽधो यास्यसि इति सामवेदे यास्कश्रुतिः।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।16.18।।अहंकारोऽहमेव सर्वश्रेष्ठ इति बुद्धिः। बलं शारीरं धनाभिजननिमित्तं च। दर्पं परावज्ञाम्। कामं क्रोधं च संश्रिताः। मां सर्वदेहेषु प्रविष्टम्। आत्मदेहे स्वदेहशोषणेनकर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः। मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् इति वक्ष्यमाणदिशा परदेहे च हिंसादिना प्रद्विषन्तः। अभ्यसूयकाः सर्वत्र गुणेषु वेदोक्तेषु शमादिषु अशक्तत्वादिलक्षणं दोषमारोपयन्तः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।16.18।।अनन्यापेक्षः अहम् एव सर्वं करोमि इति एवंरूपम् अहङ्कारम् आश्रिताः? तथा सर्वस्य करणे मद्बलम् एव पर्याप्तम् इति च बलम्? अतोमत्सदृशो न कश्चिद् अस्ति इति च दर्पम्?एवंभूतस्य मम काममात्रेण सर्वं संपत्स्यते इति कामम्?मम ये अनिष्टकारिणः तान् सर्वान् हनिष्यामि इति च क्रोधम्? एवम् एतान् संश्रिताः स्वदेहेषु परदेहेषु च अवस्थितं सर्वस्य कारयितारं पुरुषोत्तमं माम् अभ्यसूयकाः प्रद्विषन्तः कुयुक्तिभिः मत्स्थितौ दोषम् आविष्कुर्वन्तो माम् असहमानाः? अहङ्कारादिकान् संश्रिताः? यागादिकं सर्वं क्रियाजातं कुर्वते इत्यर्थः।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।16.18।।अविधिपूर्वकत्वमेव प्रपञ्चयति -- अहंकारमिति। अहंकारादिसंश्रिताः सन्त आत्मपरदेहेषु स्वदेहेषु परदेहेषु च चिदंशेन स्थितं मां प्रद्विषन्तो यजन्ते। दम्भयज्ञेषु श्रद्धाया अभावादात्मनो वृथैव पीडा भवति। तथा पश्वादीनामपि अविधिना हिंसायां चैतन्यद्रोहमात्रमेवावशिष्यत इति प्रद्विषन्त इत्युक्तम्। अभ्यसूयकाः सन्मार्गवर्तिनां गुणेषु दोषारोपकाः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।16.18।।पुनरुक्त्यादिपरिहारायानन्तरश्लोकस्य सात्त्विकयजनेतिकर्तव्यतारूपगुणवैपरीत्यपरत्वमाह -- ते चेदृग्भूता यजन्त इति। भगवानेव सर्वं कारयतीत्यस्य प्रतिक्षेपोऽहङ्कारः? यत्परिहाराय स्मर्यतेयद्यहङ्कारमाश्रित्य यज्ञदानतपःक्रियाः। कुर्वंस्तत्फलमाप्नोति पुनरावर्तनं तु तत् इति। बलवत्त्वमात्रस्यादोषत्वेऽपिभगवतो बलेन इत्यादेर्विपरीतं स्वबलपर्याप्त्यनुसन्धानम्? तदुभयमूलो दर्पः सर्वावज्ञानहेतुः पूज्यपूजाप्रतिस्पर्धी भगवत्प्रसादादेवेष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारावित्यस्य विपरीतौ कामक्रोधाविति क्रमेण दाम्भिकयज्ञेतिकर्तव्यताक्रमं विवृणोतिअनन्यापेक्ष इत्यादिभिः। संश्रिताः सम्यनाश्रिताः? निरपेक्षहेतुत्वेनाभिमन्यमाना इत्यर्थः। अत्रपरदेहेष्विति यज्ञानुकूलप्रतिकूलऋत्विक्तस्करादिविवक्षया सप्तम्या स्थितिः सिद्धा सा च प्रवर्तनाद्यर्थमिति श्रुत्यादिभिः प्राक्प्रपञ्चितम् तत्प्रतिपत्तिविरुद्धं स्मारयतिसर्वस्य कारयितारमिति। हितप्रवर्तनमेवासूयाहेतुरिति भावः।पुरुषोत्तममिति -- यद्वैलक्षण्यविज्ञानमात्रात् कृतकृत्यो भवतीत्युक्तं? स हि महोपकारी द्वेषासूयास्पदमेषामिति भावः। सर्वप्रवर्तनादिगुणकथनं? गुणेषु दोषाविष्करणरूपासूयालक्षणव्यक्त्यर्थं च। पुरुषोत्तमप्रकरणे हि स्मृत्यादिप्रवर्तनायसर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः [15।15] इत्युक्तम् तदेवात्रमामात्मपरदेहेषु इत्यनेन स्मार्यत इति च भावः।प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः इत्यनयोः प्रातिलोम्येन हेतुकार्यतयाऽन्वय क्रमं यजन्त इत्यनुकर्षणेन वाक्यसमाप्तिं चाऽऽहकुयुक्तिभिरिति। ईश्वरपरतन्त्रत्वे कथं कर्मवश्यता फलानां कर्ममूलत्वे च किमीश्वरेणेत्यादयः कुयुक्तयः। अनसूयालक्षणव्याजेनासूयामपि बृहस्पतिरलक्षयत् -- न गुणान्गुणिनो हन्ति स्तौति मन्दगुणा(चान्यान्गुणा) नपि। नान्यदोषेषु रमते (न हसेच्चान्यदोषांश्च) साऽनसूया प्रकीर्तिता [अ.स्मृ.37] इति। असहिष्णुत्वरूपेण लक्षणेन द्वेषं विवृणोतिमामसहमाना इति। असहमानत्वं च तदाज्ञातिलङ्घनपर्यन्तमनुसन्धेयम्। एतच्च स्ववंश्यानामप्यशुचिनरकपतने निदानम् यथोच्यतेमज्जन्ति पितरस्तस्य नरके शाश्वतीः समाः। द्विष्याद्यो विबुधश्रेष्ठं देवं नारायणं हरिम् [म.भा.12।346।6] इति। एवंये द्विषन्ति महात्मानं न स्मरन्ति च केशवम् (जनार्दनम)। न तेषां पुण्यतीर्थेषु गतिः संसर्गिणामपि [म.भा.12।336।36कुं.को.] इत्यादि चात्रानुसन्धेयम्।नामयज्ञैः [16।17] इत्यस्योपलक्षणमाहयागादिकं सर्वमिति।,

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।16.17 -- 16.20।।आत्मसंभाविता इत्यादि गतिमित्यन्तम्। यज्ञैर्यजन्ते नाम? निष्फलमित्यर्थः। क्रोधेन हि सर्वं नश्यतीत्यर्थः। यद्वा नामयज्ञैः? संज्ञामात्रेणैव (S? omit एव) ये यज्ञाः तैः (S? omit तैः)। अथवा -- नामार्थं प्रसिद्ध्यर्थं ये यज्ञाः ( omits ये यज्ञाः) -- येन (S omits येन) यज्ञयाजी अयम् इति व्यपदेशो जायते -- ते दम्भपूर्वका एव? न तु फलन्ति। क्रोधादिरूषितत्वादेव लोकान् द्विषन्तो मामेव द्विषन्ति। अहं वासुदेवो हि सर्वावासः। आत्मनि च द्वेषवन्तः आत्मनो ( आत्मने) ह्यहितं निरयपातहेतुम् आचरन्ति (S उपाचरन्ति)। तांश्चाहम् आसुरीष्वेव योनिषु क्षिपामि।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।16.18।।भगवद्द्वेषस्यात्मपरदेहाधिकरणत्वं कथं इत्यत आह मामिति। कुतो न कारयिता यदि स्यात्तर्हीदानीमकुर्वाणं मामपि कारयतु? कुर्वाणं च निवारयतु? इत्यर्थः। सदाधो नित्यनरकम्।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।16.18।।यक्ष्ये दास्यामीत्यादिसंकल्पेन दम्भाहंकारादिप्रधानेन प्रवृत्तानामासुराणां बहिरङ्गसाधनमपि यागदानादिकं कर्म न सिध्यत्यन्तरङ्गसाधनं तु ज्ञानवैराग्यभगवद्भजनादि तेषां दूरापास्तमेवेत्याह -- अहंकारमिति। अहमभिमानरूपो योऽहंकारः स सर्वसाधारणः एतैरारोपितैर्गुणैरात्मनो महत्त्वाभिमानमहंकारं,तथा बलं परपरिभवनिमित्तं शरीरगतसामर्थ्यविशेषं दर्पं परावधीरणारूपं गुरुनृपाद्यतिक्रमकारणं वित्तदोषविशेषं काममिष्टविषयाभिलाषं क्रोधमनिष्टविषयद्वेषं? चकारात्परगुणासहिष्णुत्वरूपं मात्सर्यंमेवमन्यांश्च महतो दोषान् संश्रिताः एतादृशा अपि पतितास्तव भक्त्या पूताः सन्तो नरके न पतिष्यन्तीति चेन्नेत्याह। मामीश्वरं भगवन्तमात्मपरदेहेष्वात्मनां तेषामासुराणां परेषां च तत्पुत्रभार्यादीनां देहेषु प्रेमास्पदेषु तत्तद्बुद्धिकर्मसाक्षितया सन्तमतिप्रेमास्पदमपि दुर्दैवपरिपाकात्प्रद्विषन्तः ईश्वरस्य मम शासनं श्रुतिस्मृतिरूपं तदुक्तार्थानुष्ठानपराङ्मुखतया तदतिवर्तनं मे प्रद्वेषस्तं कुर्वन्तो नृपाद्या ज्ञान(लङ्घन)वरणमेव हि तत्प्रद्वेष इति प्रसिद्धं लोके। ननु गुर्वादयः कथं तान्नानुशासन्ति तत्राह -- अभ्यसूयकाः गुर्वादीनां वैदिकमार्गस्थानां कारुण्यादिगुणेषु प्रतारणादिदोषारोपकाः। अतस्ते सर्वसाधनशून्या नरक एव पतन्तीत्यर्थः। मामात्मपरदेहेष्वित्यस्यापरा व्याख्या। स्वदेहेषु परदेहेषु च चिदंशेन स्थितं मां प्रद्विषन्तो यजन्ते। दम्भयज्ञेषु श्रद्धाया अभावाद्दीक्षादिनात्मनो वृथैव पीडा भवति। तथा पश्वादीनामप्यविधिना हिंसया चैतन्यद्रौहमात्रमवशिष्यत इत्यपरा व्याख्या। आत्मदेहे। जीवानाविष्टे भगवल्लीलाविग्रहे वासुदेवादिसमाख्ये मनुष्यत्वादिभ्रमान्मां प्रद्विषन्तस्तथा परदेहेषु भक्तदेहेषु प्रह्रादादिसमाख्येषु सर्वदाविर्भूतं मां प्रद्विषन्त इति योजना। उक्तंहि नवमेअवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः। राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः इतिअव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः इति चान्यत्र। तथाच भजनीयद्वेषान्न भक्त्या पूतता तेषां संभवतीत्यर्थः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।16.18।।अविधिपूर्वकं यजनं पूर्वं विवेचयति -- अहङ्कारमिति। अहङ्कारं सत्त्वाभिमानं? बलं स्वसामर्थ्यं? दर्पं गर्वं? कामं मनोभिलाषं? क्रोधं व्यर्थं हृदयक्लेशं? -- चकारेण हर्षोद्वेगादयः सङ्गृहीताः -- तान् संश्रिताः सन्तः? आत्मपरदेहेषुमयि ते तेषु चाप्यहम् [9।29] इत्युक्तरीत्या स्थितं मां प्रद्विषन्तः प्रकर्षेण द्वेषं कुर्वन्तो मद्भजनादिनिन्दां कुर्वन्तः? अभ्यसूयकाः दोषरहितेषु दोषारोपकाः सन्तो यजन्त इति पूर्वेणैव सम्बन्धः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।16.18।। --,अहंकारं अहंकरणम् अहंकारः? विद्यमानैः अविद्यमानैश्च गुणैः आत्मनि अध्यारोपितैः विशिष्टमात्मानमहम् इति मन्यते? सः अहंकारः अविद्याख्यः कष्टतमः? सर्वदोषाणां मूलं सर्वानर्थप्रवृत्तीनां च? तम्। तथा बलं पराभिभवनिमित्तं कामरागान्वितम्। दर्पं दर्पो नाम यस्य उद्भवे धर्मम् अतिक्रामति सः अयम् अन्तःकरणाश्रयः दोषविशेषः। कामं स्त्र्यादिविषयम्। क्रोधम् अनिष्टविषयम्। एतान् अन्यांश्च महतो दोषान् संश्रिताः। किं च ते माम् ईश्वरम् आत्मपरदेहेषु स्वदेहे परदेहेषु च तद्बुद्धिकर्मसाक्षिभूतं मां प्रद्विषन्तः? मच्छासनातिवर्तित्वं प्रद्वेषः? तं कुर्वन्तः अभ्यसूयकाः सन्मार्गस्थानां गुणेषु असहमानाः।।

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।16.18।।अहङ्कारमिति। मां पुरुषोत्तमं सर्वेश्वरमिह लीलाकर्त्तारं सर्वत्र वर्त्तमानं चेतनात्मानं च द्विपन्तो भवन्ति इदमेव तेषु महदासुरलक्षणं पारुष्यम्।