BG - 17.3

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।17.3।।

sattvānurūpā sarvasya śhraddhā bhavati bhārata śhraddhā-mayo ‘yaṁ puruṣho yo yach-chhraddhaḥ sa eva saḥ

  • sattva-anurūpā - conforming to the nature of one’s mind
  • sarvasya - all
  • śhraddhā - faith
  • bhavati - is
  • bhārata - Arjun, the scion of Bharat
  • śhraddhāmayaḥ - possessing faith
  • ayam - that
  • puruṣhaḥ - human being
  • yaḥ - who
  • yat-śhraddhaḥ - whatever the nature of their faith
  • saḥ - their
  • eva - verily
  • saḥ - they

Translation

The faith of each is in accordance with their nature, O Arjuna. People consist of their faith; as a person's faith is, so are they.

Commentary

By - Swami Sivananda

17.3 सत्त्वानुरूपा in accordance with his nature? सर्वस्य of each? श्रद्धा faith? भवति is? भारत O Arjuna? श्रद्धामयः consists of (his) faith? अयम् this? पुरुषः man? यः who? यच्छ्रद्धः in which his faith is? सः he? एव verily? सः that (is).Commentary The faith of every person conforms to his inherent nature or natural temperament. Man is imbued with faith. The term Svabhava is the last verse and the word Sattva in the present one are synonymous.A mans character may be judged by his faith. A mans faith shows what his character is. A man is what his faith has made him. A mans conduct in life is moulded or shaped by his faith. His faith will indicate his Nishtha (state of being? conviction). The faith of each man is according to his natural disposition or the specific tendencies or Samskaras or the selfreprodutive latent impressions of the good and bad actions which were performed in the past births. The faith of each man takes its colour and ality from the stuff of his being? his temperament? tendencies or Samskaras.Sattva Nature Natural disposition the mind with its specific tendencies.Each Every living being.Purusha Man The individual soul which is caught up in the wheel of transmigration the soul alified by mind.Sraddhamayah Full of faith Just as the Annamaya Kosa is full of food? just as the Anandamaya Kosa is full of bliss? so also the Antahkarana (mind? intellect? etc.) is full of faith.The man consists of his faith that which his faith is? he is verily that. This theory is only a repetition of the theory propounded in chapter VII? verses 20 and 23? and in chapter IX? verse 25.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।17.3।। व्याख्या --   सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत -- पीछेके श्लोकमें जिसे स्वभावजा कहा गया है? उसीको यहाँ सत्त्वानुरूपा कहा है। सत्त्व नाम अन्तःकरणका है। अन्तःकरणके अनुरूप श्रद्धा होती है अर्थात् अन्तःकरण जैसा होता है? उसमें सात्त्विक? राजस या तामस जैसे संस्कार होते हैं? वैसी ही श्रद्धा होती है।दूसरे श्लोकमें जिनको देहिनाम् पदसे कहा था? उन्हींको यहाँ सर्वस्य पदसे कह रहे हैं। सर्वस्य पदका तात्पर्य है कि जो शास्त्रविधिको न जानते हों और देवता आदिका पूजन करते हों -- उनकी ही नहीं? प्रत्युत जो शास्त्रविधिको जानते हों या न जानते हों? मानते हों या न मानते हों? अनुष्ठान करते हों या न करते हों? किसी जातिके? किसी वर्णके? किसी आश्रमके? किसी सम्प्रदायके? किसी देशके? कोई व्यक्ति कैसे ही क्यों न,हों -- उन सभीकी स्वाभाविक श्रद्धा तीन प्रकारकी होती है।श्रद्धामयोऽयं पुरुषः -- यह मनुष्य श्रद्धाप्रधान है। अतः जैसी उसकी श्रद्धा होगी? वैसा ही उसका रूप होगा। उससे जो प्रवृत्ति होगी? वह श्रद्धाको लेकर? श्रद्धाके अनुसार ही होगी।यो यच्छ्रद्धः स एव सः -- जो मनुष्य जैसी श्रद्धावाला है? वैसी ही उसकी निष्ठा होगी और उसके अनुसार ही उसकी गति होगी। उसका प्रत्येक भाव और क्रिया अन्तःकरणकी श्रद्धाके अनुसार ही होगी। जबतक वह संसारसे सम्बन्ध रखेगा? तबतक अन्तःकरणके अनुरूप ही उसका स्वरूप होगा।मार्मिक बातमनुष्यकी सांसारिक प्रवृत्ति संसारके पदार्थोंको सच्चा मानने? देखने? सुनने और भोगनेसे होती है तथा पारमार्थिक प्रवृत्ति परमात्मामें श्रद्धा करनेसे होती है। जिसे हम अपने अनुभवसे नहीं जानते? पर पूर्वके स्वाभाविक संस्कारोंसे? शास्त्रोंसे? संतमहात्माओंसे सुनकर पूज्यभावसहित विश्वास कर लेते हैं? उसका नाम है -- श्रद्धा। श्रद्धाको लेकर ही आध्यात्मिक मार्गमें प्रवेश होता है? फिर चाहे वह मार्ग कर्मयोगका हो? चाहे ज्ञानयोगका हो और चाहे भक्तियोगका हो? साध्य और साधन -- दोनोंपर श्रद्धा हुए बिना आध्यात्मिक मार्गमें प्रगति नहीं होती।मनुष्यजीवनमें श्रद्धाकी बड़ी मुख्यता है। मनुष्य जैसी श्रद्धावाला है? वैसा ही उसका स्वरूप? उसकी निष्ठा है -- यो यच्छ्रद्धः स एव सः (गीता 17। 3)। वह आज वैसा न दीखे तो भी क्या पर समय पाकर वह वैसा बन ही जायगा।आजकल साधकके लिये अपनी स्वाभाविक श्रद्धाको पहचानना बड़ा मुश्किल हो गया है। कारण कि अनेक मतमतान्तर हो गये हैं। कोई ज्ञानकी प्रधानता कहता है? कोई भक्तिकी प्रधानता कहता है? कोई योगकी प्रधानता कहता है? आदिआदि। ऐसे तरहतरहके सिद्धान्त पढ़ने और सुननेसे मनुष्यपर उनका असर पड़ता है? जिससे वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है कि मैं क्या करूँ मेरा वास्तविक ध्येय? लक्ष्य क्या है मेरेको किधर चलना चाहिये ऐसी दशामें उसे गहरी रीतिसे अपने भीतरके भावोंपर विचार करना चाहिये कि सङ्गसे बनी हुई रुचि? शास्त्रसे बनी हुई रुचि? किसीके सिखानेसे बनी हुई रुचि? गुरुके बतानेसे बनी हुई रुचि -- ऐसी जो अनेक रुचियाँ हैं? उन सबके मूलमें स्वतः उद्बुद्ध होनेवाली अपनी स्वाभाविक रुचि क्या हैमूलमें सबकी स्वाभाविक रुचि यह होती है कि मैं सम्पूर्ण दुःखोंसे छूट जाऊँ और मुझे सदाके लिये महान् सुख मिल जाय। ऐसी रुचि हरेक प्राणीके भीतर रहती है। मनुष्योंमें तो यह रुचि कुछ जाग्रत् रहती है। उनमें पिछले जन्मोंके जैसे संस्कार हैं और इस जन्ममें वे जैसे मातापितासे पैदा हुए? जैसे वायुमण्डलमें रहे? जैसी उनको शिक्षा मिली? जैसे उनके सामने दृश्य आये और वे जो ईश्वरकी बातें? परलोक तथा पुनर्जन्मकी बातें? मुक्ति और बन्धनकी बातें? सत्सङ्ग और कुसङ्गकी बातें सुनते रहते हैं? उन सबका उनपर अदृश्यरूपसे असर पड़ता है। उस असरसे उनकी एक धारणा बनती है। उनकी सात्त्विकी? राजसी या तामसी -- जैसी प्रकृति होती है? उसीके अनुसार वे उस धारणाको पकड़ते हैं और उस धारणाके अनुसार ही उनकी रुचि -- श्रद्धा बनती है। इसमें सात्त्विकी श्रद्धा परमात्माकी तरफ लगानेवाली होती है और राजसीतामसी श्रद्धा संसारकी तरफ।गीतामें जहाँकहीं सात्त्विकताका वर्णन हुआ है? वह परमात्माकी तरफ ही लगानेवाली है। अतः सात्त्विकी श्रद्धा पारमार्थिक हुई और राजसीतामसी श्रद्धा सांसारिक हुई अर्थात् सात्त्विकी श्रद्धा दैवीसम्पत्ति हुई और,राजसीतामसी श्रद्धा आसुरी सम्पत्ति हुई। दैवीसम्पत्तिको प्रकट करने और आसुरीसम्पत्तिका त्याग करनेके उद्देश्यसे सत्रहवाँ अध्याय चला है। कारण कि कल्याण चाहनेवाले मनुष्यके लिये सात्त्विकी श्रद्धा (दैवीसम्पत्ति) ग्राह्य है और राजसीतामसी श्रद्धा (आसुरीसम्पत्ति) त्याज्य है।जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है? उसकी श्रद्धा सात्त्विकी होती है? जो मनुष्य इस जन्ममें तथा मरनेके बाद भी सुखसम्पत्ति(स्वर्गादि) को चाहता है? उसकी श्रद्धा राजसी होती है और जो मनुष्य पशुओंकी तरह (मूढ़तापूर्वक) केवल खानेपीने? भोग भोगने तथा प्रमाद? आलस्य? निद्रा? खेलकूद? तमाशे आदिमें लगा रहता है? उसकी श्रद्धा तामसी होती है। सात्त्विकी श्रद्धाके लिये सबसे पहली बात है कि परमात्मा है। शास्त्रोंसे? संतमहात्माओंसे? गुरुजनोंसे सुनकर पूज्यभावके सहित ऐसा विश्वास हो जाय कि परमात्मा है और उसको प्राप्त करना है -- इसका नाम श्रद्धा है। ठीक श्रद्धा जहाँ होती है? वहाँ प्रेम स्वतः हो जाता है। कारण कि जिस परमात्मामें श्रद्धा होती है? उसी परमात्माका अंश यह जीवात्मा है। अतः श्रद्धा होते ही यह परमात्माकी तरफ खिंचता है। अभी यह परमात्मासे विमुख होकर जो संसारमें लगा हुआ है? वह भी संसारमें श्रद्धाविश्वास होनेसे ही है। पर यह वास्तविक श्रद्धा नहीं है? प्रत्युत श्रद्धाका दुरुपयोग है। जैसे? संसारमें यह रुपयोंपर विशेष श्रद्धा करता है कि इनसे सब कुछ मिल जाता है। यह श्रद्धा कैसे हुई कारण कि बचपनमें खाने और खेलनेके पदार्थ पैसोंसे मिलते थे। ऐसा देखतेदेखते पैसोंको ही मुख्य मान लिया और उसीमें श्रद्धा कर ली? जिससे यह बहुत ही पतनकी तरफ चला गया। यह सांसारिक श्रद्धा हुई। इससे ऊँची धार्मिक श्रद्धा होती है कि मैं अमुक वर्ण? आश्रम आदिका हूँ। परन्तु सबसे ऊँची श्रद्धा पारमर्थिक (परमात्माको लेकर) है। यही वास्तविक श्रद्धा है और इसीसे कल्याण होता है। शास्त्रोंमें? सन्तमहात्माओंमें? तत्त्वज्ञजीवन्मुक्तोंमें जो श्रद्धा होती है? वह भी पारमार्थिक श्रद्धा ही है (टिप्पणी प0 836)।जिनको शास्त्रोंका ज्ञान नहीं है और सन्तमहात्माओंका सङ्ग भी नहीं है? ऐसे मनुष्योंकी भी पूर्वसंस्कारके कारण पारमार्थिक श्रद्धा हो सकती है। इसकी पहचान क्या है पहचान यह है कि ऐसे मनुष्योंके भीतर स्वाभाविक यह भाव होता है कि ऐसी कोई महान् चीज (परमात्मा) है? जो दीखती तो नहीं? पर है अवश्य। ऐसे मनुष्योंको स्वाभाविक ही पारमार्थिक बातें बहुत प्रिय लगती हैं और वे स्वाभाविक ही यज्ञ? दान? तप? तीर्थ? व्रत? सत्सङ्ग? स्वाध्याय आदि शुभ कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं। यदि वे ऐसे कर्म न भी करें? तो भी सात्त्विक आहारमें स्वाभाविक रुचि होनेसे उनकी श्रद्धाकी पहचान हो जाती है।मनुष्य? पशुपक्षी? लतावृक्ष आदि जितने भी स्थावरजङ्गम प्राणी हैं? वे किसीनकिसीको (किसीनकिसी अंशमें) अपनेसे बड़ा अवश्य मानते हैं और बड़ा मानकर उसका सहारा लेते हैं। मनुष्यपर जब आफत आती है? तब वह किसीको अपनेसे बड़ा मानकर उसका सहारा लेता है। पशुपक्षी भी अपनी रक्षा चाहते हैं और भयभीत होनेपर किसीका सहारा लेते हैं। लता भी किसीका सहारा लेकर ही ऊँची चढ़ती है। इस प्रकार जिसने किसीको बड़ा मानकर उसका सहारा लिया? उसने वास्तवमें ईश्वरवाद के सिद्धान्तको स्वीकार कर ही लिया? चाहे वह ईश्वरको माने या न माने। इसलिये आयु? विद्या? गुण? बुद्धि? योग्यता? सामर्थ्य? पद? अधिकार? ऐश्वर्य आदिमेंसे एकएकसे बड़ा देखे? तो बड़प्पन देखतेदेखते अन्तमें बड़प्पनकी जहाँ समाप्ति हो? वहीँ ईश्वर है क्योंकि बड़ेसेबड़ा ईश्वर है। उससे बड़ा कोई है ही नहीं --,पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्। (योगदर्शन 1। 26)वह परमात्मा सबके पूर्वजोंका भी गुरु है क्योंकि उसका कालसे अवच्छेद नहीं है अर्थात् वह कालकी सीमासे बाहर है। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य अपनी दृष्टिसे किसीनकिसीको बड़ा मानता है। ब़ड़प्पनकी यह मान्यता अपनेअपने अन्तःकरणके भावोंके अनुसार अलगअलग होती है। इस कारण उनकी श्रद्धा भी अलगअलग,होती है।श्रद्धा अन्तःकरणके अनुरूप ही होती है। धारणा? मान्यता? भावना आदि सभी अन्तःकरणमें रहते हैं। इसलिये अन्तःकरणमें सात्त्विक? राजस या तामस जिस गुणकी प्रधानता रहती है? उसी गुणके अनुसार धारणा? मान्यता आदि बनती है और उस धारणा? मान्यता आदिके अनुसार ही तीन प्रकारकी (सात्त्विकी? राजसी या तामसी) श्रद्धा बनती है।सात्त्विक? राजस और तामस -- तीनों गुण सभी प्राणियोंमें रहते हैं (गीता 18। 40)। उन प्राणियोंमें किसीमें सत्त्वगुणकी प्रधानता होती है? किसीमें रजोगुणकी प्रधानता होती है और किसीमें तमोगुणकी प्रधानता होती है। अतः यह नियम नहीं है कि सत्त्वगुणकी प्रधानतावाले मनुष्यमें रजोगुण और तमोगुण न आयें? रजोगुणकी प्रधानतावाले मनुषयमें सत्त्वगुण और तमोगुण न आयें? तथा तमोगुणकी प्रधानतावाले मनुष्यमें सत्त्वगुण और रजोगुण न आयें (गीता 14। 10)। कारण कि प्रकृति परिवर्तनशील है -- प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः। इसलिये प्रकृतिजन्य गुणोंमें भी परिवर्तन होता रहता है। अतः एकमात्र परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यवाले साधकको चाहिये कि वह उन आनेजानेवाले गुणोंसे अपना सम्बन्ध मानकर उनसे विचलित न हो।जीवमात्र परमात्माका अंश है। इसलिये किसी मनुष्यमें रजोगुणतमोगुणकी प्रधानता देखकर उसे नीचा नहीं मान लेना चाहिये क्योंकि कौनसा मनुष्य किस समय समुन्नत हो जाय -- इसका कुछ पता नहीं है। कारण कि परमात्माका अंश -- स्वरूप (आत्मा) तो सबका शुद्ध ही है? केवल सङ्ग? शास्त्र? विचार? वायुमण्डल आदिको लेकर अन्तःकरणमें किसी एक गुणकी प्रधानता हो जाती है अर्थात् जैसा सङ्ग? शास्त्र आदि मिलता है? वैसा ही मनुष्यका अन्तःकरण बन जाता है और उस अन्तःकरणके अनुसार ही उसकी सात्त्विकी? राजसी या तामसी श्रद्धा बन जाती है। इसलिये मनुष्यको सदासर्वदा सात्त्विक सङ्ग? शास्त्र? विचार? वायुमण्डल आदिका ही सेवन करते रहना चाहिये। ऐसा करनेसे उसका अन्तःकरण तथा उसके अनुसार उसकी श्रद्धा भी सात्त्विकी बन जायगी? जो उसका उद्धार करनेवाली होगी। इसके विपरीत मनुष्यको राजसतामस सङ्ग? शास्त्र आदिका सेवन कभी भी नहीं करना चाहिये क्योंकि इससे उसकी श्रद्धा भी राजसीतामसी बन जायेगी? जो उसका पतन करनेवाली होगी। सम्बन्ध --   अपने इष्टके यजनपूजनद्वारा मनुष्योंकी निष्ठाकी पहचान किस प्रकार होती है? अब उसको बताते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।17.3।। सत्त्वानुरूप श्रद्धा हम जगत् में देखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तित्व की पोषक श्रद्धा भिन्नभिन्न प्रकार की होती है। जितनी अधिक भिन्नता इस श्रद्धा में देखी जाती है? उसके कारण को जानने की हमारी जिज्ञासा भी उतनी ही बढ़ती जाती है। भगवान् यहाँ कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव अर्थात् संस्कारों के अनुरूप होती है। निश्चितरूप से यह कह पाना कठिन है कि श्रद्धा हमारे स्वभाव को निर्धारित करती है अथवा हमारा स्वभाव श्रद्धा का निर्धारणकर्ता है। इन दोनों में अन्योन्याश्रय है।तथापि? गीता में स्वभाव को ही श्रद्धा का निर्धारक घोषित किया गया है। यद्यपि? जीवन में अनेक अवसरों पर दुखदायक अनुभवों अथवा अन्य प्रबल कारणों से मनुष्य की एक प्रकार की श्रद्धा खंडित होकर नवीन श्रद्धा जन्म लेती है और उस स्थिति में उसका स्वभाव उस श्रद्धा का अनुकरण भी करता है। परन्तु? सामान्य दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा का गुण और वर्ण उसके स्वभाव के अनुरूप ही होता है। श्रद्धा का मूल या सारतत्त्व मनुष्य की उस गूढ़ शक्ति में निहित होता है? जिसके द्वारा वह अपने चयन किये हुए लक्ष्य की प्राप्ति का निश्चय दृढ़ बनाये रखता है।मनुष्य की सार्मथ्य ही लक्ष्य प्राप्ति में उसके विश्वास को निश्चित करती है। तत्पश्चात् यह विश्वास उसकी सार्मथ्य को द्विगुणित कर उस मनुष्य की योजनाओं को कार्यान्वित करने में सहायक होता है। इस प्रकार क्षमता और श्रद्धा परस्पर पूरक और सहायक होते हैं मनुष्य के स्वभाव पर गुणों के प्रभाव का वर्णन पहले किया जा चुका है। पूर्वकाल में अर्जित किसी गुणविशेष के आधिक्य का प्रभाव मनुष्य में उसकी बाल्यावस्था से ही दिखाई देता है। यहाँ प्रयुक्त सत्त्वानुरूपा शब्द के द्वारा इसी तथ्य को इंगित किया गया है।मनुष्य श्रद्धामय है प्रत्येक भक्त श्रद्धापूर्वक जिस देवता की उपासना या आराधना करता है वह अपनी उस श्रद्धा के फलस्वरूप अपने उपास्य को प्राप्त होता है।इसमें कोई सन्देह नहीं कि मनुष्य अपनी श्रद्धा के अनुरूप ही होता है। मनुष्य के कर्म और उपलब्धियों में श्रद्धा के महत्व को सभी विचारकों ने स्वीकार किया है। गीता की ही भाषा में इस तथ्य को पूर्व के अध्याय में विस्तार से बताया गया है।

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।17.3।।प्राचीनकर्मोद्बोधिता त्रिविधा वासना स्वभावशब्दिता त्रिविधायाः श्रद्धाया निमित्तमित्युक्तमिदानीमुपादानं तस्य दर्शयति -- सैवमिति। विशिष्टचित्तोपादाना श्रद्धा तन्त्रैविध्ये त्रिविधेति पूर्वार्धस्यार्थः। कथं निष्ठायाः सात्त्विकादिप्रश्नद्वारा श्रद्धायास्त्रैविध्यनिरूपणमुपयुक्तमिति मन्वानः शङ्कते -- यद्येवमिति। श्रद्धेयं विषयमभिध्यायंस्तया तत्रैव वर्तत इति मन्वानः परिहरति -- उच्यत इति। श्रद्धामयत्वं प्रश्नपूर्वकं कथयति -- कथमिति। श्रद्धा खल्वधिकृते पुरुषे प्राचुर्येण प्रकृतेति तस्य श्रद्धामयत्वसिद्धिरित्यर्थः।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।17.3।।प्राचीनकर्मोद्वोधिता त्रिविधा वासना स्वभावशब्दिता त्रिविधायाः श्रद्धायाः निमित्तमित्युक्तम्। इदानीं तस्या उपादानानुरुपत्वेन त्रैविध्यं ज्ञापयन् तन्मयस्य पुरुषस्य त्रैविध्यं ज्ञापयति -- सत्त्वानुरुपेति। सर्वस्य प्राणिजातस्य सत्त्वानुरुपा सात्त्विकादिसंस्कारोपेतान्तःकरणानुरुपा त्रिविधसंस्कारोपेतचित्तोपादाना श्रद्धा त्रिविधा भवतीत्यर्थः। श्रद्धामयः श्रद्धाप्रायोऽयं पुरुषो जीवः कथं यो यच्छ्रद्धः जीवस्य या श्रद्धा स यच्छ्रद्धः स एव स श्रद्धानुरुप एव स जीवः। श्रद्धायास्त्रैविध्यात्तन्मयो जीवोऽपि त्रिविध इत्यर्थः। यथा त्वं भरतवंशोद्भवत्वाद्भारतस्तथेति संबोधनाशयः।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।17.3।।सत्त्वानुरूपा चित्तानुरूपा। यो यच्छ्रद्धः स एव सः? सात्त्विकश्रद्धः सात्विक इत्यादि।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।17.3।।ननुश्रद्धावित्तो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्येत् इति श्रद्धाया आत्मदर्शने साधनेष्वन्तरङ्गत्वमुच्यते कथं तस्या राजसत्वं तामसत्वं चोच्यत इत्यत आह -- सत्त्वेति। प्राक्कर्मसंस्कारोपतं यादृशं बुद्धिसत्त्वं सात्त्विकं राजसं तामसं वा तदनुरूपैव सात्त्विक्यादिरूपा देवतादिपूजा सुफलावश्यंभावनिश्चयात्मिका श्रद्धापि भवति। तथायं पुरुषोऽपि श्रद्धामयः श्रद्धाप्रधानो यो यच्छ्रद्धो यो यया श्रद्धयोपेतः स एव स इति सात्त्विक्या श्रद्धयोपेतः सात्त्विक एव राजस्या राजसस्तामस्या तामस इति। एवं सति यदि तातकूपभक्तः पूर्वपुण्यवशात्तातं देववन्मन्यते तर्हि तं सात्त्विकं पुण्डरीकमिव देवा अनुगृह्णन्ति नित्यकर्मत्यागनिमित्तमपि दोषमस्यापनुदन्ति। यदि त्वेनं मन्त्रादिना सिद्धं पूर्ववासनावशाद्यक्षादिरूपं मन्यते तदा तं राजसं राजसा यक्षा एवानुगृह्णन्ति। नास्य कामकारवतो नित्यकर्मत्यागजं दोषमपनेतुमर्हन्ति। नहि देवतापराधी यक्षैस्त्रातुं शक्यते। यदि त्वयं प्रेतः पिता मत्कुटुम्बं माबाधिष्टेति सर्वं धर्मं त्यक्त्वा एनमस्य प्रियं कूपं पूजयामीति मन्यते तदां तं पितरि प्रेतत्वबुद्धियोगाद्विपर्यस्तं तामसं प्रेता एवानुगृह्णन्ति क्षुद्रभोगैर्देवाश्च नरके पातयन्ति।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।17.3।।सत्त्वम् अन्तःकरणम्? सर्वस्य पुरुषस्य अन्तःकरणानुरूपा श्रद्धा भवति अन्तःकरणं यादृशगुणयुक्तम्? तद्विषया श्रद्धा जायते इत्यर्थः। सत्त्वशब्दः पूर्वोक्तानां देहेन्द्रियादीनां प्रदर्शनार्थः।श्रद्धामयः अयं पुरुषः? श्रद्धामयः श्रद्धापरिणामः यो यच्छ्रद्धः? यः पुरुषो यादृश्या श्रद्धया युक्तः? स एव सः स तादृशश्रद्धापरिणामः। पुण्यकर्मविषये श्रद्धायुक्तः चेत् पुण्यकर्मफलसंयुक्तः भवति इति श्रद्धाप्रधानः फलसंयोग इति उक्तं भवति इति।तद् एव विवृणोति --

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।17.3।।ननु च श्रद्धा सात्त्विक्येव सत्त्वकार्यत्वेन त्वयैव भगवता उद्धवं प्रति निर्दिष्टत्वात्। यथोक्तम -- शमो दमस्तितिक्षेज्या तपः सत्यं दया स्मृतिः। तुष्टिस्त्यागोऽस्पृहा श्रद्धा ह्रीर्दयादिः स्वनिर्वृतिः।।इत्येताः सत्त्वस्य वृत्तयः इति। अतः कथं तस्यास्त्रैविध्यमुच्यते। सत्यम्। तथापि रजस्तमोयुक्तपुरुषाश्रयत्वेन रजस्तमोमिश्रत्वेन सत्त्वस्य त्रैविध्याच्छ्रद्धाया अपि त्रैविध्यं घटत इत्याह -- सत्त्वानुरूपेति। सत्त्वानुरूपा सत्त्वतारतम्यानुसारिणी सर्वस्य विवेकिनोऽविवेकिनो वा लोकस्य श्रद्धा भवति। तस्मादयं पुरुषो लौकिकः श्रद्धामयः श्रद्धाविकारः। त्रिविधा श्रद्धया विक्रियत इत्यर्थः। तदेवाह -- यो यच्छ्रद्धः यादृशी श्रद्धा यस्य स एव सः तादृश्या श्रद्धया युक्त एव सः। यः पूर्वं सत्त्वोत्कर्षेण सात्त्विकश्रद्धया युक्तः पुरुषः स पुनस्तादृशसत्त्वसंस्कारेण सात्त्विकश्रद्धया युक्त एव भवति। यस्तु रजस उत्कर्षेण राजसश्रद्धायुक्तः स पुनस्तादृश एव भवति। यस्तु तमस उत्कर्षेण तामसश्रद्धया युक्तः स पुनस्तादृश एव भवति इति लोकाचारमात्रेण प्रवर्तमानेष्वेवं सात्त्विकराजसतामसश्रद्धाव्यस्था। शास्त्रजनितविवेकज्ञानयुक्तानां तु स्वभावविजयेन सात्त्विक्येकैव श्रद्धेति प्रकरणार्थः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।17.3।।सत्त्वानुरूपा इत्यत्र न सत्त्वगुण उच्यते सर्वस्य पुरुषस्य श्रद्धायास्तदधीनत्वे राजसतामसश्रद्धाविभागायोगात्। सहकारित्वेन सत्त्वं सर्वत्रापेक्षितमिति चेत्? न रजस्तमसोरपि तथात्वात्। त्रैगुण्यं हि परस्पराङ्गभावेन स्थित्वैव हि वातपित्तकफादिवत्सर्वं कार्यमारभते। अतोऽत्र सर्वश्रद्धासाधारणकारणत्वेन निर्दिष्टं सत्त्वं गुणत्रयोपष्टब्धमन्तःकरणमेवेत्याहसत्त्वमन्तःकरणमिति। आनुरूप्यं विवृणोतिअन्तःकरणं यादृशगुणयुक्तमिति। यद्विषयरुचिजनकवासनोत्तम्भकसत्त्वादियुक्तमित्यर्थः। पूर्वंदेहिनां सा स्वभावजा [17।2] इत्युक्तम्? इह त्वन्तःकरणहेतुकत्वमुच्यते? तदेतन्न वैकल्पिकं? सिद्धे तदयोगात् नापि पुरुषभेदेन विकल्पः? सर्वस्येत्युक्तेः नापि समुच्चयः? नैरपेक्ष्यप्रतीतेरित्यत्राऽऽह -- सत्त्वशब्द इति। सामग्रीमध्यपातिषु तत्रतत्रान्यतमनिर्देशो नानुपपन्न इति भावः।श्रद्धामयः इत्यत्र मयटः स्वार्थिकत्वे निष्प्रयोजनत्वात्प्राचुर्याद्यर्थत्वेऽपि प्रकृतानुपयोगाच्छ्रद्धाफलान्वयविवक्षया विकारार्थत्वमाहश्रद्धापरिणाम इति। एवं सामान्येन श्रद्धाजन्यफलसम्बन्धित्वमुक्तम् तत्रयो यच्छ्रद्धः इत्यादिना श्रद्धाविशेषवतः फलविशेषयोग उच्यत इत्याह -- यः पुरुष इति। श्रद्धान्तरवैधर्म्यद्योतनाय यत्तच्छब्दयोःयादृश्या इत्यादिना प्रकारपरामर्शित्वोक्तिः।आयुर्घृतम् [यजुः2।3।2।2] इत्यादिवत्कार्यकारणभावातिशयविवक्षयास एव सः इति निरूढोऽयमारोप इत्याहस तादृशश्रद्धापरिणाम इति। एतेनस एव सः इत्यत्र विधेयभेदाभावात्पुनरुक्तिशङ्काऽपि परिहृता। पुरुषस्य नित्यत्वाद्धर्मभूतज्ञानविकासादेश्चेन्द्रियद्वारा व्यवस्थितत्वात्? देहादेश्चाचित्परिणामविशेषत्वात्किमपेक्षस्य श्रद्धापरिणामत्वोक्तिरित्यत्राऽऽह -- पुण्यकर्मेति। फलभेदबुभुत्सया ह्यत्र प्रश्नोदय इति च भावः।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।17.3।।सत्त्वेति। सत्त्वानुरूपा इत्यत्र सत्त्वशब्दः स्वभावपर्यायः। अयं पुरुषः आत्मा श्रद्धया अन्यव्यापारोपरि वर्तिन्या अवश्यं संबद्धः स च तन्मय एव बोद्धव्यः।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।17.3।।सात्त्विकत्वादिभेदेन श्रद्धा त्रिविधेत्युक्ता? पुनःसत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति इति वचनं कथं न व्याहतं इत्यत आह -- सत्त्वेति। चित्तं चैतन्यम्? जीव इति यावत्। ननु श्रद्धास्वरूपमेव निरूपितम्? न तु तदाश्रित्य जीवस्वरूपं? अतो न सङ्गतमुत्तरमित्यतो येन तदुच्यते तत्पठित्वा व्याचष्टे -- य इति। इत्यादि ज्ञातव्यमिति शेषः। राजसश्रद्धो राजसः? तामसश्रद्धस्तामस इत्यर्थः।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।17.3।।प्राग्भवीयान्तःकरणगतवासनारूपनिमित्तकारणवैचित्र्येण श्रद्धावैचित्र्यमुक्त्वा तदुपादानकारणान्तःकरणवैचित्र्येणापि तत्त्रैविध्यमाह -- सत्त्वानुरूपेति। सत्त्वं प्रकाशशीलत्वात्सत्त्वप्रधानत्रिगुणपञ्चीकृतपञ्चमहाभूतारब्धमन्तःकरणं तच्च क्वचिदुद्रिक्तसत्त्वमेव यथा देवानां क्वचिद्रजसाभिभूतसत्त्वं? यथा यक्षादीनां क्वचित्तमसाभिभूतसत्त्वं यथा प्रेतभूतादीनाम्। मनुष्याणां तु प्रायेण व्यामिश्रमेव तच्च शास्त्रीयविवेकज्ञानेनोद्भूतसत्त्वं रजस्तमसी अभिभूय क्रियते। शास्त्रीयविवेकविज्ञानशून्यस्य तु सर्वस्य प्राणिजातस्य सत्त्वानुरूपा श्रद्धा सत्त्ववैचित्र्याद्विचित्रा भवति सत्त्वप्रधानेऽन्तःकरणे सात्त्विकी? रजःप्रधाने,तस्मिन् राजसी? तमःप्रधाने तु तस्मिंस्तामसीति। हे भारत महाकुलप्रसूत ज्ञाननिरतेति वा शुद्धसात्त्विकत्वं द्योतयति। यत्त्वया पृष्टं तेषां निष्ठा केति तत्रोत्तरं शृणु। अयं शास्त्रीयज्ञानशून्यः कर्माधिकृतः पुरुषः त्रिगुणान्तःकरणसंपिण्डितः श्रद्धामयः प्राचुर्येणास्मिन् श्रद्धा प्रस्तुतेति तत्प्रस्तुतवचने मयट् अन्नमयो यज्ञ इतिवत्। अतो यो यच्छ्रद्धो या सात्त्विकी राजसी तामसी वा श्रद्धा यस्य स एव श्रद्धानुरूप एव सः सात्त्विको राजसस्तामसो वा श्रद्धयैव निष्ठा व्याख्यातेत्यभिप्रायः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।17.3।।एवं श्रोतारं श्रवणे सावधानतयाऽभिमुखीकृत्याऽऽह श्रद्धास्वरूपम् -- सत्त्वानुरूपेति। हे भारत सत्त्वानुरूपा मूलसत्त्वस्य अनुरूपा सदृशा अन्यधर्मास्फूर्तिपूर्वकसर्वसामर्थ्यस्फुरणासक्त्युत्पत्तिप्रसरणादररूपा श्रद्धा सर्वस्य सात्त्विकादित्रयस्य भवति। भारतेतिसम्बोधनं तथात्वज्ञानाधिकारित्वबोधनाय। तर्हि त्रिविधत्वं कथं इत्यत आह -- श्रद्धामय इति। अयं पुरुषो मदंशोऽपि नरात्मकः श्रद्धामयः श्रद्धाप्रचुरः? स तु यः सात्त्विकादिभेदेन यच्छ्रद्धः यस्य श्रद्धायुक्तो भवति सः स एव तद्रूप एव भवतीत्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।17.3।। --,सत्त्वानुरूपा विशिष्टसंस्कारोपेतान्तःकरणानुरूपा सर्वस्य प्राणिजातस्य श्रद्धा भवति भारत। यदि एवं ततः किं स्यादिति? उच्यते -- श्रद्धामयः अयं श्रद्धाप्रायः पुरुषः संसारी जीवः। कथम् यः यच्छ्रद्धः या श्रद्धा यस्य जीवस्य सः यच्छ्रद्धः स एव तच्छ्रद्धानुरूप एव सः जीवः।।ततश्च कार्येण लिङ्गेन देवादिपूजया सत्त्वादिनिष्ठा अनुमेया इत्याह --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।17.3।।तथाहिसत्त्वानुरूपेति। अन्तःकरणधर्मत्वात्सत्त्वानुरूपा अन्तःकरणानुरूपा श्रद्धा भवति पूर्वसंस्कारानुगतमन्तःकरणं यादृशं तादृशी श्रद्धा येषां शास्त्रज्ञानरहितमन्तःकरणं तेषां श्रद्धाऽपि तथा येषां न तथा तेषां श्रद्धाऽपि न तथा परन्तु एतेन शास्त्रविधित्यागात्यागतो वर्त्तते न जीवेषु दैवासुरभावः प्रतीयत इत्यवोचाम श्रद्धा कामकारवृत्तिश्चास्तिक्यमतिरेवेति। सम्प्रदायविदः तेन गुणमयत्वमुपपद्यते यो यादृशश्रद्धः स एव सः? यतोऽयं पुरुषः श्रद्धामयः।