BG - 17.10

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।।17.10।।

yāta-yāmaṁ gata-rasaṁ pūti paryuṣhitaṁ cha yat uchchhiṣhṭam api chāmedhyaṁ bhojanaṁ tāmasa-priyam

  • yāta-yāmam - stale foods
  • gata-rasam - tasteless
  • pūti - putrid
  • paryuṣhitam - polluted
  • cha - and
  • yat - which
  • uchchhiṣhṭam - left over
  • api - also
  • cha - and
  • amedhyam - impure
  • bhojanam - foods
  • tāmasa - to persons in the mode of ignorance
  • priyam - dear

Translation

That which is stale, tasteless, putrid, rotten, rejected, and impure is the food liked by the Tamasic.

Commentary

By - Swami Sivananda

17.10 यातयामम् state? गतरसम् tasteless? पूति putrid? पर्युषितम् rotten? च and? यत् which? उच्छिष्टम् refuse? अपि also? च and? अमेध्यम् impure? भोजनम् food? तामसप्रियम् liked by the Tamasic.Commentary Cannabis indica (Ganja)? Bhang? opium? cocaine? Charas? Chandoo? all stale and putrid articles? are Tamasic.Yatayamam Stale? literally means cooked three hours ago. Yatayamam and Gatarasam mean the same thing.Paryushitam Rotten The cooked food which has been kept overnight.Uchchishtam What is left on the plate after a meal.The man whose taste is of a Tamasic nature will eat food in the afternoon that has been cooked on the previous day. He also likes that which is halfcooked or burnt to a cinder. He and all the members of his family sit together and eat from the same dish or plate? food that has been mixed into a mess by his children.The food eaten by Tamasic people is stale? dry? without juice? unripe or overcooked. They do not relish it? till it begins to rot and ferment. They take prohibited foods and drinks. They take liors? fermented toddy? etc. They are horrible people with devilish tendencies.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।17.10।। व्याख्या --   यातयामम् -- पकनेके लिये जिनको पूरा समय प्राप्त नहीं हुआ है? ऐसे अधपके या उचित समयसे ज्यादा पके हुए अथवा जिनका समय बीत गया है? ऐसे बिना ऋतुके पैदा किये हुए एवं ऋतु चली जानेपर फ्रिज आदिकी सहायतासे रखे हुए साग? फल आदि भोजनके पदार्थ।गतरसम् -- धूप आदिसे जिनका स्वाभाविक रस सूख गया है अथवा मशीन आदिसे जिनका सार खींच लिया गया है? ऐसे दूध? फल आदि।पूति -- सड़नसे पैदा की गयी मदिरा (टिप्पणी प0 842) और स्वाभाविक दुर्गन्धवाले प्याज? लहसुन आदि।पर्युषितम् -- जल और नमक मिलाकर बनाये हुए साग? रोटी आदि पदार्थ रात बीतनेपर बासी कहलाते हैं। परन्तु केवल शुद्ध दूध? घी? चीनी आदिसे बने हुए अथवा अग्निपर पकाये हुए पेड़ा? जलेबी? लड्डू आदि जो पदार्थ हैं? उनमें जबतक विकृति नहीं आती? तबतक वे बासी नहीं माने जाते। ज्यादा समय रहनेपर उनमें विकृति (दुर्गन्ध आदि) पैदा होनेसे वे भी बासी कहे जायँगे।उच्छिष्टम् -- भुक्तावशेष अर्थात् भोजनके बाद पात्रमें बचा हुआ अथवा जूठा हाथ लगा हुआ और जिसको गाय? बिल्ली? कुत्ता? कौआ आदि पशुपक्षी देख ले? सूँघ ले या खा ले -- वह सब जूठन माना जाता है।अमेध्यम् -- रजवीर्यसे पैदा हुए मांस? मछली? अंडा आदि महान् अपवित्र पदार्थ? जो मुर्दा हैं और जिनको छूनेमात्रसे स्नान करना पड़ता है (टिप्पणी प0 843.1)।अपि च -- इन अव्ययोंके प्रयोगसे उन सब पदार्थोंको ले लेना चाहिये? जो शास्त्रनिषिद्ध हैं। जिस वर्ण? आश्रमके लिये जिनजिन पदार्थोंका निषेध है? उस वर्णआश्रमके लिये उनउन पदार्थोंको निषिद्ध माना गया है जैसे मसूर? गाजर? शलगम आदि।भोजनं तामसप्रियम् -- ऐसा भोजन तामस मनुष्यको प्रिय लगता है। इससे उसकी निष्ठाकी पहचान हो जाती है।उपर्युक्त भोजनोंमेंसे सात्त्विक भोजन भी अगर रागपूर्वक खाया जाय? तो वह राजस हो जाता है और लोलुपतावश अधिक खाया जाय? (जिससे अजीर्ण आदि हो जाय) तो वह तामस हो जाता है। ऐसे ही भिक्षुकको विधिसे प्राप्त भिक्षा आदिमें रूखा? सूखा? तीखा और बासी भोजन प्राप्त हो जाय? जो कि राजसतामस है? पर वह उसको भगवान्के भोग लगाकर भगवन्नाम लेते हुए स्वल्पमात्रामें (टिप्पणी प0 843.2) खाये? तो वह भोजन भी भाव और त्यागकी दृष्टिसे सात्त्विक हो जाता है।प्रकरणसम्बन्धी विशेष बात चार श्लोकोंके इस प्रकरणमें तीन तरहके -- सात्त्विक? राजस और तामस आहारका वर्णन दीखता है परन्तु वास्तवमें यहाँ आहारका प्रसङ्ग नहीं है? प्रत्युत आहारी की रुचिका प्रसङ्ग है। इसलिये यहाँ आहारी की रुचिका ही वर्णन हुआ है -- इसमें निम्नलिखित युक्तियाँ दी जी सकती हैं --(1) सोलहवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें आये यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः पदोंको लेकर अर्जुनने प्रश्न किया कि मनमाने ढंगसे श्रद्धापूर्वक काम करनेवालेकी निष्ठाकी पहचान कैसे हो तो भगवान्ने इस,अध्यायके दूसरे श्लोकमें श्रद्धाके तीन भेद बताकर तीसरे श्लोकमें सर्वस्य पदसे मनुष्यमात्रकी अन्तःकरणके अनुरूप श्रद्धा बतायी? और चौथे श्लोकमें पूज्यके अनुसार पूजककी निष्ठाकी पहचान बतायी। सातवें श्लोकमें उसी सर्वस्य पदका प्रयोग करके भगवान् यह बताते हैं कि मनुष्यमात्रको अपनीअपनी रुचके अनुसार तीन तरहका भोजन प्रिय होता है -- आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः। उस प्रियतासे ही मनुष्यकी निष्ठा(स्थिति) की पहचान हो जायगी।प्रियः शब्द केवल सातवें श्लोकमें ही नहीं आया है? प्रत्युत आठवें श्लोकमें सात्त्विकप्रियाः नवें श्लोकमें,राजसस्येष्टाः और दसवें श्लोकमें तामसप्रियम् में भी प्रियः और इष्ट शब्द आये हैं? जो रुचिके वाचक हैं। यदि यहाँ आहारका ही वर्णन होता तो भगवान् प्रिय और इष्ट शब्दोंका प्रयोग न करके ये सात्त्विक आहार हैं? ये राजस आहार हैं? ये तामस आहार हैं -- ऐसे पदोंका प्रयोग करते।(2) दूसरी प्रबल युक्ति यह है कि सात्त्विक आहारमें पहले आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः पदोंसे भोजनका फल बताकर बादमें भोजनके पदार्थोंका वर्णन किया। कारण कि सात्त्विक मनुष्य भोजन करने आदि किसी भी कार्यमें विचारपूर्वक प्रवृत्त होता है? तो उसकी दृष्टि सबसे पहले उसके परिणामपर जाती है।रागी होनेसे राजस मनुष्यकी दृष्टि सबसे पहले भोजनपर ही जाती है? इसलिये राजस आहारके वर्णनमें पहले भोजनके पदार्थोंका वर्णन करके बादमें दुःखशोकामयप्रदाः पदसे उसका फल बताया है। तात्पर्य यह कि राजस मनुष्य अगर आरम्भमें ही भोजनके परिणामपर विचार करेगा? तो फिर उसे राजस भोजन करनेमें हिचकिचाहट होगी क्योंकि परिणाममें मुझे दुःख? शोक और रोग हो जायँ -- ऐसा कोई मनुष्य नहीं चाहता। परन्तु राग होनेके कारण राजस पुरुष परिणामपर विचार करता ही नहीं।सात्त्विक भोजनका फल पहले और राजस भोजनका फल पीछे बताया गया परन्तु तामस भोजनका फल बताया ही नहीं गया। कारण कि मूढ़ता होनेके कारण तामस मनुष्य भोजन और उसके परिणामपर विचार करता ही नहीं। भोजन न्याययुक्त है या नहीं? उसमें हमारा अधिकार है या नहीं? शास्त्रोंकी आज्ञा है या नहीं और परिणाममें हमारे मनबुद्धिके बलको बढ़ानेमें हेतु है या नहीं -- इन बातोंका कुछ भी विचार न करके तामस मनुष्य पशुकी तरह खानेमें प्रवृत्त होते हैं। तात्पर्य है कि सात्त्विक भोजन करनेवाला तो दैवीसम्पत्तिवाला होता है और राजस तथा तामस भोजन करनेवाला आसुरीसम्पत्तिवाला होता है।(3) यदि भगवान्को यहाँ आहारका ही वर्णन करना होता? तो वे आहारकी विधिका और उसके लिये कर्मोंकी शुद्धिअशुद्धिका वर्णन करते जैसे -- शुद्ध कमाईके पैसोंसे अनाज आदि पवित्र खाद्य पदार्थ खरीदे जायँ रसोईमें चौका देकर और स्वच्छ वस्त्र पहनकर पवित्रतापूर्वक भोजन बनाया जाय भोजनको भगवान्के अर्पण किया जाय और भगवान्का चिन्तन तथा उनके नामका जप करते हुए प्रसादबुद्धिसे भोजन ग्रहण किया जाय -- ऐसा भोजन सात्त्विक होता है।स्वार्थ और अभिमानकी मुख्यताको लेकर सत्यअसत्यका कोई विचार न करते हुए पैसे कमाये जायँ स्वाद? शरीरकी पुष्टि? भोग भोगनेकी सामर्थ्य बढ़ाने आदिका उद्देश्य रखकर भोजनके पदार्थ खरीदे जायँ जिह्वाको स्वादिष्ट लगें और दीखनेमें भी सुन्दर दीखें -- इस दृष्टिसे? रीतिसे उनको बनाया जाय और आसक्तिपूर्वक खाया जाय -- ऐसा भोजन राजस होता है।झूठकपट? चोरी? डकैती? धोखेबाजी आदि किसी तरहसे पैसे कमाये जायँ अशुद्धिशुद्धिका कुछ भी विचार न करके मांस? अंडे आदि पदार्थ खरीदे जायँ विधिविधानका कोई खयाल न करके भोजन बनाया जाय,और बिना हाथपैर धोये एवं चप्पलजूती पहनकर ही अशुद्ध वायुमण्डलमें उसे खाया जाय -- ऐसा भोजन तामस होता है।परन्तु भगवान्ने यहाँ केवल सात्त्विक? राजस और तामस पुरुषोंको प्रिय लगनेवाले खाद्य पदार्थोंका वर्णन किया है? जिससे उनकी रुचिकी पहचान हो जाय।(4) इसके सिवाय गीतामें जहाँजहाँ आहारकी बात आयी है? वहाँवहाँ आहारीका ही वर्णन हुआ है जैसे -- नियताहाराः (4। 30) पदमें नियमित आहार करनेवालेका? नात्यश्नतस्तु और युक्ताहारविहारस्य (6। 16 -- 17) पदोंमें अधिक खानेवाले और नियत खानेवालोंका यदश्नासि (9। 27) पदमें भोजनके पदार्थको भगवान्के अर्पण करनेवालेका? और लघ्वाशी (18। 52) पदमें अल्प भोजन करनेवालोंका वर्णन हुआ है।इसी प्रकार इस अध्यायमें सातवें श्लोकमें यज्ञस्तपस्तथा दानम् पदोंमें आया तथा (वैसे ही) पद यह कह रहा है कि जो मनुष्य यज्ञ? तप? दान आदि कार्य करते हैं? वे भी अपनीअपनी (सात्त्विक? राजस अथवा तामस) रुचिके अनुसार ही कार्य करते हैं। आगे ग्यारहवेंसे बाईसवें श्लोकतकका जो प्रकरण है? उसमें भी यज्ञ? तप और दान करनेवालोंके स्वभावका ही वर्णन हुआ है।भोजनके लिये आवश्यक विचारउपनिषदोंमें आता है कि जैसा अन्न होता है? वैसा ही मन बनता है -- अन्नमयं ही सोम्य मनः। (छान्दोग्य0 6। 5। 4) अर्थात् अन्नका असर मनपर प़ड़ता है। अन्नके सूक्ष्म सारभागसे मन (अन्तःकरण) बनता है? दूसरे नम्बरके भागसे वीर्य? तीसरे नम्बरके भागसे रक्त आदि और चौथे नम्बरके स्थूल भागसे मल बनता है? जो कि बाहर निकल जाता है। अतः मनको शुद्ध बनानेके लिये भोजन शुद्ध? पवित्र होना चाहिये। भोजनकी शुद्धिसे मन(अन्तःकरण)की शुद्धि होती है -- आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः (छान्दोग्य0 2। 26। 2)। जहाँ भोजन करते हैं? वहाँका स्थान? वायुमण्डल? दृश्य तथा जिसपर बैठकर भोजन करते हैं? वह आसन भी शुद्ध? पवित्र होना चाहिये। कारण कि भोजन करते समय प्राण जब अन्न ग्रहण करते हैं? तब वे शरीरके सभी रोमकूपोंसे आसपासके परमाणुओंको भी खींचते -- ग्रहण करते हैं। अतः वहाँका स्थान? वायुमण्डल आदि जैसे होंगे? प्राण वैसे ही परमाणु खींचेंगे और उन्हींके अनुसार मन बनेगा। भोजन बनानेवालेके भाव? विचार भी शुद्ध सात्त्विक हों।भोजनके पहले दोनों हाथ? दोनों पैर और मुख -- ये पाँचों शुद्ध? पवित्र जलसे धो ले। फिर पूर्व या उत्तरकी ओर मुख करके शुद्ध आसनपर बैठकर भोजनकी सब चीजोंको पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।(गीता 9। 26) -- यह श्लोक पढ़कर भगवान्के अर्पण कर दे। अर्पणके बाद दायें हाथमें जल लेकर ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।। (गीता 4। 24) -- यह श्लोक पढ़कर आचमन करे और भोजनका पहला ग्रास भगवान्का नाम लेकर ही मुखमें डाले। प्रत्येक ग्रासको चबाते समय हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। -- इस मन्त्रको मनसे दो बार पढ़ते हुए या अपने इष्टका नाम लेते हुए ग्रासको चबाये और निगले। इस मन्त्रमें कुल सोलह नाम हैं और दो बार मन्त्र पढ़नेसे बत्तीस नाम हो जाते हैं। हमारे मुखमें भी बत्तीस ही दाँत हैं। अतः (मन्त्रके प्रत्येक नामके साथ) बत्तीस बार चबानेसे वह भोजन सुपाच्य और आरोग्यदायक होता है एवं थोड़े अन्नसे ही तृप्ति हो जाती है तथा उसका रस भी अच्छा बनता है और इसके साथ ही भोजन भी भजन बन जाता है।भोजन करते समय ग्रासग्रासमें भगन्नामजप करते रहनेसे अन्नदोष भी दूर हो जाता है (टिप्पणी प0 845.1)।जो लोग ईर्ष्या? भय और क्रोधसे युक्त हैं तथा लोभी हैं? और रोग तथा दीनतासे पीड़ित और द्वेषयुक्त हैं? वे जिस भोजनको करते हैं? वह अच्छी तरह पचता नहीं अर्थात् उससे अजीर्ण हो जाता है (टिप्पणी प0 845.2)। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह भोजन करते समय मनको शान्त तथा प्रसन्न रखे। मनमें काम? क्रोध? लोभ? मोह आदि दोषोंकी वृत्तियोंको न आने दे। यदि कभी आ जायँ तो उस समय भोजन न करे क्योंकि वृत्तियोंका असर भोजनपर पड़ता है और उसीके अनुसार अन्तःकरण बनता है। ऐसा भी सुननेमें आया है कि फौजी लोग जब गायको दुहते हैं? तब दुहनेसे पहले बछ़ड़ा छोड़ते हैं और उस बछड़ेके पीछे कुत्ता छोड़ते हैं। अपने बछ़ड़ेके पीछे कुत्तेको देखकर जब गाय गुस्सेमें आ जाती है? तब बछड़ेको लाकर बाँध देते हैं और फिर गायको दुहते हैं। वह दूध फौजियोंको पिलाते हैं? जिससे वे लोग खूँखार बनते हैं।ऐसे ही दूधका भी असर प्राणियोंपर पड़ता है। एक बार किसीने परीक्षाके लिये कुछ घोड़ोंको भैंसका दूध और कुछ घोड़ोंको गायका दूध पिलाकर उन्हें तैयार किया। एक दिन सभी घोड़े कहीं जा रहे थे। रास्तेमें नदीका जल था। भैंसका दूध पीनेवाले घोड़े उस जलमें बैठ गये और गायका दूध पीनेवाले घोड़े उस जलको पार कर गये। इसी प्रकार बैल और भैंसेका परस्पर युद्ध कराया जाय? तो भैंसा बैलको मार देगा परन्तु यदि दोनोंको गाड़ीमें जोता जाय? तो भैंसा धूपमें जीभ निकाल देगा? जबकि बैल धूपमें भी चलता रहेगा। कारण कि भैंसके दूधमें सात्त्विक बल नहीं होता? जबकि गायके दूधमें सात्त्विक बल होता है।जैसे प्राणियोंकी वृत्तियोंका पदार्थोंपर असर पड़ता है? ऐसे ही प्राणियोंकी दृष्टिका भी असर पड़ता है। बुरे व्यक्तिकी अथवा भूखे कुत्तेकी दृष्टि भोजनपर पड़ जाती है? तो वह भोजन अपवित्र हो जाता है। अब वह भोजन पवित्र कैसे हो भोजनपर उसकी दृष्टि पड़ जाय? तो उसे देखकर मनमें प्रसन्न हो जाना चाहिये कि भगवान् पधारे हैं अतः उसको सबसे पहले थोड़ा अन्न देकर भोजन करा दे। उसको देनेके बाद बचे हुए शुद्ध अन्नको स्वयं ग्रहण करे? तो दृष्टिदोष मिट जानेसे वह अन्न पवित्र हो जाता है।दूसरी बात? लोग बछ़ड़ेको पेटभर दूध न पिलाकर सारा दूध स्वयं दुह लेते हैं। वह दूध पवित्र नहीं होता क्योंकि उसमें बछड़ेका हक आ जाता है। बछड़ेको पेटभर दूध पिला दे और इसके बाद जो दूध निकले? वह चाहे पावभर ही क्यों न हो? बहुत पवित्र होता है।भोजन करनेवाले और करानेवालेके भावका भी भोजनपर असर पड़ता है जैसे -- (1) भोजन करनेवालेकी अपेक्षा भोजन करानेवालेकी जितनी अधिक प्रसन्नता होगी? वह भोजन उतने ही उत्तम दर्जेका माना जायगा। (2) भोजन करानेवाला तो बड़ी प्रसन्नतासे भोजन कराता है परन्तु भोजन करनेवाला मुफ्तमें भोजन मिल गया अपने इतने पैसे बच गये इससे मेरेमें बल आ जायगा आदि स्वार्थका भाव रख लेता है? तो वह भोजन मध्यम दर्जेका हो जाता है? और (3) भोजन करानेवालेका यह भाव है कि यह घरपर आ गया? तो खर्चा करना पड़ेगा? भोजन बनाना पड़ेगा? भोजन कराना ही पड़ेगा आदि और भोजन करनेवालेमें भी स्वार्थभाव है? तो वह भोजन निकृष्ट दर्जेका हो जायगा।इस विषयमें गीताने सिद्धान्तरूपसे कह दिया है -- सर्वभूतहिते रताः (5। 25? 12। 4)। तात्पर्य यह है कि जिसका सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका भाव जितना अधिक होगा? उसके पदार्थ? क्रियाएँ आदि उतनी ही पवित्र हो जायँगी।भोजनके अन्तमें आचमनके बाद ये श्लोक पढ़ने चाहिये -- अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।। कर्म ब्रह्मोद्भं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्। तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।(गीता 3। 14 -- 15)फिर भोजनके पाचनके लिये अहं वैश्वानरो भूत्वा0 (गीता 15। 14) श्लोक पढ़ते हुए मध्यमा अङ्गुलीसे नाभिको धीरेधीरे घुमाना चाहिये। सम्बन्ध --   पहले यजनपूजन और भोजनके द्वारा जो श्रद्धा बतायी? उससे शास्त्रविधिका अज्ञतापूर्वक त्याग करनेवालोंकी स्वाभाविक निष्ठा -- रुचिकी तो पहचान हो जाती है परन्तु जो मनुष्य व्यापार? खेती आदि जीविकाके कार्य करते हैं अथवा शास्त्रविहित यज्ञादि शुभकर्म करते हैं? उनकी स्वाभाविक रुचिकी पहचान कैसे हो -- यह बतानेके लिये यज्ञ? तप और दानके तीनतीन भेदोंका प्रकरण आरम्भ करते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।17.10।। यातयाम कालगणना की प्राचीन पद्धति के अनुसार एक दिन को आठ यामों में विभाजित किया जाता है। प्रति याम तीन घंटे का होता है। इसलिए तीन घंटे पूर्व पकाया गया अन्न यातयाम कहलाता है? जो भोजन के योग्य नहीं समझा जाता। वैसे इस शब्द का अर्थ बासी अन्न हो सकता है? परन्तु इसी श्लोक में पर्युषित अर्थात् बासी अन्न का स्वतन्त्र उल्लेख किया गया है अत यहाँ इसका दूसरा अर्थ अर्धपक्व अन्न समझना चाहिए।गतरस अधिक समय बीत जाने पर अन्न का रस समाप्त हो जाता है? परन्तु तामसी लोगों को यही अन्न रुचिकर लगता है। दक्षिण भारत में चावल को पकाकर रातभर जल में भिगोकर रखते हैं और दूसरे दिन उसे खाते हैं। यद्यपि अनेक लोगों को वह अन्न रुचिकर लगता है? परन्तु वह बासी और रसहीन होने से तामस भोजन ही कहलायेगा। सम्भवत उत्तर भारत में? बासी रोटी खायी,जाती हो।पूति तमोगुणी लोगों को दुर्गन्धयुक्त आहार स्वादिष्ट लगता है? जबकि अन्य लोगों को वह दुर्गन्ध असह्य होती है।पर्युषित (बासी) रात भर का रखा हुआ अन्न बासी कहलाता है। इसमें हम मादक द्रव्यों को भी समाविष्ट कर सकते हैं। तामसी लोगों को मद्यपानादि प्रिय होता है। अत्यन्त अज्ञानी और निम्न संस्कृति के घृणित व्यक्तियों को अशुद्ध? अपवित्र तथा उच्छिष्ट (जूठा? त्यागा हुआ) भोजन प्रिय होता है। अब? त्रिविध यज्ञों का वर्णन करते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।17.10।।तामसप्रियमाहारमुदाहरति -- यातयाममिति। ननु निर्वीर्यं यातयाममुच्यते न पुनः सामिपक्वमिति नेत्याह -- निर्वीर्यस्येति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।17.10।।तामसप्रीतिविषयं भोजनमुदाहरति। यातयामं मन्पक्कं निर्वीर्यस्य गतरसपदेनोक्तत्वात्। यातो यामः प्रहरो यस्य पक्कस्योदनादेः तद्यातयाममिति तु पाकानन्तरं किंचित्कालातिक्रान्त्या निर्वीर्यतां प्राप्तन्नं यातयाममुच्यते नतु याममात्रातिक्रान्त्या। एतएवायातयामत्वं वेदानामपि विशेषणं संगच्छत इत्याभिप्रेत्याचार्यैर्न व्याख्यातम्। गतरसं रसविमुक्तं निर्वीर्यमोदनादि। पूतिर्दुर्गन्धि लशुनपलाण्डावदि? पर्युषितं स्नेहानक्तं पक्कंसत् रात्र्यभिप्रेत्याचार्यैर्न च?अन्न पर्युषितं भोज्यं स्नेहाक्तं चिरसंस्थितम् इति याज्ञवल्क्यस्मृत्या स्नेहाक्तस्य चिरसंस्थितस्याप्यन्नस्य भक्ष्यवत्वप्रतिपादनात्। उच्छिष्टं स्वपरभुक्तावशिष्टमपि चेति वैद्यकशास्त्रोक्तमपथ्यं समुच्चीयते। अमेध्यमपवित्रज्ञार्ह कलञ्चकलिङ्गादि ईदृशं भोजनं तामसस्य प्रियमिष्टम्। एवंविधभोजनप्रीतिमन्तस्तामसा ज्ञेयाः श्रेयोर्थिभिश्च तामसं भोजनं हेयमित्यर्थः। तामसभोजनकृतदोषास्तु प्रसिद्धत्वादसंख्यत्वाच्च नोक्ताः।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।17.10।।यातयामं प्रहरात्प्राक्कृतं शीतलतां गतमित्यर्थः। यातयामं अर्धपक्वं निर्वीर्यस्य गतरसेनैवोक्तत्वादिति भाष्यम्। गतरसं रसविमुक्तम्? पूति दुर्गन्धि? पर्युषितं पक्वं सद्रात्र्यन्तरितम्? उच्छिष्टं भुक्तावशिष्टम्? अमेध्यं यज्ञानर्हम्? भोजनं अन्नं तामसप्रियम्।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।17.10।।यातयामं चिरकालावस्थितम्? गतरसं त्यक्तस्वाभाविकरसम्? पूतिदुर्गन्धोपेतम्? पर्युषितं कालातिपत्त्या रसान्तरापन्नम्? उच्छिष्टं गुर्वादिभ्यः अन्येषां भुक्तशिष्टम्? अमेध्यम् अयज्ञार्हम्? अयज्ञशिष्टम् इत्यर्थः एवविधं तमोमयं भोजनं तामसप्रियं भवति। भुज्यते इत्याहार एव भोजनम्? पुनश्च तमसो वर्धनम्। अतो हितैषिभिः सत्त्ववृद्धये सात्त्विकाहार एव सेव्यः।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।17.10।।तथा -- यातयाममिति। यातो यामः प्रहरो यस्य पक्वस्योदनादेस्तद्यातयामम्? शैत्यावस्थां प्राप्तमित्यर्थः। गतरसं निष्पीडितसारम्? पूति दुर्गन्धं? पर्युषितं दिनान्तरपक्वम्? उच्छिष्टमन्यभुक्तावशिष्टम्? अमेध्यमभक्ष्यं कलञ्जादि? एवंभूतं भोजनं भोज्यं तामसस्य प्रियम्।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।17.10।।सात्त्विकराजसाहारयोर्गुणकार्यकथनेऽपि तामसे गुणमात्रकथनमदूरविप्रकर्षेण राजससमानकार्यत्वात् सर्वेष्वाहारेषु यामातिक्रमणमात्रेण दोषाभावात्तेषु तेषु द्रव्येषु यावता कालेन दुष्टता? तावद्विवक्षामाह -- यातयामं चिरकालावस्थितमिति। यामः श्रेष्ठोंऽशः यथाघृतात्परं मण्डमिवातिसूक्ष्मम् इति केचित्। तेन निर्वीर्यत्वमुक्तं भवति। तदपिचिरकालावस्थितमित्यनेन अर्थसिद्धम्। अम्मयेषु पृथिवीमयेषु च आहारेषु तत्तत्पाकभेदेनापि कदाचिदपि सर्वरसत्यागाभावात्तत्तद्रव्यस्वभावतयाऽनुशिष्टरसत्यागेन रसान्तरापत्तिरिह गतरसशब्देन,विवक्षितेत्याहत्यक्तस्वाभाविकरसमिति। एतेन गतरसशब्देन निर्वीर्यस्योक्ततयायातयामं मन्दपक्वम् इति व्याख्या निरस्ता।यद्यपि पूतिशब्दोऽसात्त्विकतया भगवच्छास्त्रादिसिद्धे करञ्जादिद्रव्येऽपि प्रयुज्यते तथापि अत्र द्रव्यविशेषोपादानप्रकरणाभावाद्गुणादिमुखेन सर्वाहारोपलक्षणप्रकरणाच्चात्र पूतिशब्देन हेयतया लोकशास्त्रप्रसिद्धगुणविवक्षामाह -- दुर्गन्धोपेतमिति। कालातिपत्तिमात्रस्य यातयामशब्देन ग्रहणात् रसत्यागस्यगतरसम् इत्युक्तत्वात् येषु कालातिपत्तौ दोषः? क्षीरादिष्विवातञ्चनादिभिश्च रसान्तरापत्तिः? तत्र कालातिक्रमणमात्रेण रसान्तरापन्नत्वमिह विवक्षितमित्याह -- कालातिपत्त्यारसान्तरापन्नमिति। हेयविकृत्यन्तरादीनामुपलक्षणमिदम्। अत एव पक्वानामविकलानामपि जलादीनां रात्र्यन्तरितानां त्यागः। एतेन यातयामशब्दोऽत्र रसान्तरापत्तिरहितकालातिक्रममात्रदुष्टविषय इति दर्शितम्।उच्छिष्टविशेषस्य शास्त्रानुमतेराचार्योच्छिष्टस्य च पापविशेषप्रायश्चित्ततया पवित्रत्वेनापि ग्रहणात्तद्व्यतिरिक्तविषयोऽत्र उच्छिष्टशब्द इत्याह -- गुर्वादिभ्योऽन्येषामिति।गुर्वादीत्यादिशब्देन पितुः ज्येष्ठस्य भ्रातुः भार्याविषये भर्तुश्च ग्रहणम्। यत्तु अदितिः पुत्रकामा साध्येभ्यो देवेभ्यो ब्रह्मौदनमपचत्। तस्या उच्छेषणमददुः। तत्प्राश्नात्। सा रेतोऽधत्त इत्यादौ उच्छेषणप्राशनमाम्नायते तद्ब्रह्मौदनादिविधिपरत्वादन्यपरम्। भुक्तावशिष्टपाकपात्रस्थौदनविषयत्वेऽप्यविरुद्धम्। अप्राप्तत्वाद्विधिपरत्वस्वीकारेऽपि अदितिसाध्यदेवसंव्यवहारमात्रविषयम्। न तावता अद्यतनानामनुष्ठानप्राप्तिः प्राप्तावपि तथाविधकर्मनियतम्। नचात्र विधिस्तत्कल्पनावकाशश्चेत्यप्राप्तिरेव। यत्तु भगवता नारदेन जातिस्मरेण प्राचीनशूद्रजन्मानुष्ठानमनुसृत्योक्तम्उच्छिष्टलेपाननुमोदितो द्विजैः सकृत्स्म भुञ्जे तदपास्तकिल्बिषः [भाग.1।5।25] इत्यादि तदपि तस्मिन् जन्मनि नारदस्तेषां शिष्यः शूद्रश्चेति तादृशेष्वेव तत्प्राप्नोति नान्यादृशेषु। तथा सति हि वाक्यान्तरमपि न विरुध्यते। न च वचनविरोधे लिङ्गदर्शनमात्रेणानुष्ठानक्लृप्तिः। प्रतिषेधति ह्याचार्यपुत्रादेरप्युच्छिष्टम् -- उच्छिष्टाशनवर्जमाचार्यवदाचार्यपुत्रे वृत्तिः [आ.ध.1।2।7।30] इत्यादिना। किमुतान्येषाम् भागवतस्य तु आचार्यव्यतिरिक्तसमस्तोच्छिष्टभक्षणेऽपि तीव्राणि प्रायश्चित्तान्यनुशिष्यन्ते। यथा सनत्कुमारीयसंहितायामुदाहृतमित्यागमप्रामाण्ये भगवद्यामुनाचार्यैरुपात्तं -- निर्माल्यं भक्षयित्वैवमुच्छिष्टमगुरोरपि। मासं पयोव्रतो भूत्वा जपन्नष्टाक्षरं सदा। ब्रह्मकूर्चं ततः पीत्वा इत्यादि।भाष्ये चात्र गुरुशब्द आचार्यविषयः? पितृविषयो वेत्ययुक्तम्? गुरुशब्दार्थोपाध्यायाद्युच्छिष्टग्रहणशास्त्राभावात्। नच यत्किञ्चिदुपदेशमात्रेऽप्याचार्यत्वम्?उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद्द्विजः। सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्यं प्रचक्षते [मनुः 2।140] इत्यादिभिस्तल्लक्षणात्? अन्यत्र प्रयोगस्योपचारादपि सम्भवात्। यश्चोपनेता प्रणवादिमात्रमुपदिश्य विरतः? यश्च केवलं रहस्यशब्दनिर्दिष्टा मोक्षसाधनभूता विद्यास्तत्तच्छ्रुतिमुखेन शिक्षयति तयोरप्याचार्यत्वादिकं वचनबलादङ्गीक्रियते। उक्तं च गुर्वादिलक्षणं भगवता याज्ञवल्क्येन -- स गुरुर्यः क्रियाः कृत्वा वेदमस्मै प्रयच्छति। उपनीय तु तद्वेदमाचार्यः स उदाहृतः। एकदेशमुपाध्यायः [1।3435] इति। यत्तुएकाक्षरप्रदातारमाचार्यं योऽवमन्यते (यो गुरुं नाभिमन्यते) [अत्रिस्मृ.10] इत्यादि? तदवमतिनिवारणाद्यर्थमाचार्यदृष्टिमात्रेणोच्यते न तावता आचार्यत्वप्रयुक्तसर्वोपनिपातः। यद्यप्याचार्यशब्दो निरुक्त्याद्यनुसारादस्त्रशस्त्रादिशिक्षकेषु द्रोणकृपादिषु प्रयोगप्रौढ्या च यथाप्रयोगं सर्वत्र मुख्य इति कैश्चिदङ्गीक्रियेत? तथाप्युच्छिष्टभक्षणानुमतिनिदानमाचार्यत्वं प्रणवादित्रिकपूर्वकपरविद्योपदेष्टर्येव तथैव शास्त्रैर्नियमाच्छिष्टाचाराच्च।प्रत्यक्षश्रुत्यादिविरुद्धस्तु भ्रान्तानामभिप्रायान्तरेण शास्त्रोल्लङ्घिनामप्याचारो न शिष्टाचारः। यदपि कैश्चित्पठ्यतेनारायणैकनिष्ठस्य या या वृत्तिस्तदर्चनम्। यो यो जल्पः स स जपस्तद्ध्यानं यन्निरीक्षणम्। तत्पादाम्ब्वतुलं तीर्थं तदुच्छिष्टं सुपावनम्। तदुक्तिमात्रं मन्त्राग्र्यं तत्पृष्टमखिलं शुचि इति। इदमपि नारायणैकनिष्ठप्रशंसापरम् न तु स्वयं विधायकम्। अन्यतः प्राप्तेरेव ह्यत्र प्रशंसा। तत्र प्रथमश्लोकः स्वभावप्राप्तमर्थप्राप्तं चानुवदति यच्च शास्त्रप्राप्तम् न तु पुनः शास्त्रान्तरनिषिद्धपरामर्शि।,प्रमाणप्राप्तविषयत्वादेव हिअतुलं सुपावनमग्र्यमखिलम् इति विशेषणेषु संरम्भः।ब्राह्मणाः पादतो मेध्याः इत्यादिभिर्विप्रपादोदकस्य सामान्यतः पावनत्वप्राप्तौ भागवतत्वावस्थायां अतुलं तीर्थमिति विशेष्यते। एवमनेकान्तिनोऽप्युपनेतृप्रभृतेरुच्छिष्टे पावनत्वेन प्राप्ते तस्य नारायणैकनिष्ठत्वदशायां सुपावनत्वं विधीयते। तथा महापुरुषकृतस्तुत्यादेर्मङ्गलतमत्वे सिद्धेतदुक्तिमात्रं मन्त्राग्र्यम् इति भगवदनन्यप्रणीतस्य गाथागीतादेरपि मन्त्राग्र्यवत्फलादिहेतुत्वं प्रतिपाद्यते।एवं शुद्धानां शोधकापेक्षायां निर्णेजनादिवन्महात्मनां स्पर्शोऽपि माहात्म्यविशेषवशादिच्छाशोधकतया प्राप्तःतत्स्पृष्टमखिलं शुचि इत्यनेन सर्वस्यापि द्रव्यस्य पृथक्चोदितशोधकभेदस्य भेदस्य भागवतस्पर्श एकः शोधको भवितुमर्हतीत्युच्यते। अन्यथा भागवतेन यदृच्छादिस्पृष्टचण्डाललशुनगृञ्जनाद्यशुद्धग्रहणेनालेपकपादवत्स्पृश्यास्पृश्यभक्ष्याभक्ष्याद्यद्वैतप्रसङ्गः। एतेन परमाप्तस्य भक्ताङ्ग्रिरेणोर्भाषागाथापि निर्व्यूढा। एवं हि सा संस्कृतेन विपरिणंस्यते -- दिव्यैरवेद्यविभवेति यदि ब्रुवन्ति माध्वीमनोज्ञतुलसीक यदीति चाहुः। ऊनक्रिया अपि परानपि कारयन्तो भुक्ताधिकं ददति चेन्ननु तत्पवित्रम् इति। इदमपि सङ्कीर्तनप्रशंसापरमिति प्रकरणात्स्ववाक्यस्वारस्याच्च सुव्यक्तम्। भुक्तशेषशब्दश्च पाकपात्रस्थविषयत्वेऽपि न विरुद्धः यथाअन्नशेषः किं क्रियताम् इत्यत्र अवशिष्टम्। भुक्तशिष्टं तु पाकपात्रस्थमपि त्याज्यमेव। तत्परिहारार्थोऽयं प्रतिप्रसवः। अन्यथापि प्रमाणान्तराविरोधायाचार्याद्युच्छिष्टविषयमेव स्यात्। तथाहिऊनो हीनः परिस्रस्तो नष्टः इति विकलभागवतान् दुष्कर्मतारतम्याच्चतुर्धा रहस्याम्नायविदः समामनन्ति। तत्रोनत्वाद्यवस्थायामाचार्योच्छिष्टस्यापवित्रत्वं प्रसक्तम् तत्र यद्यनन्यत्वस्थैर्यव्यञ्जनसङ्कीर्तनं स्यात्? तदा तदुच्छिष्टमपवित्रं न भवतीति अनन्यत्वभङ्गे ह्याचार्यस्यापि सर्वथा वर्जनं तत्रैवाम्नातमित्यलमतिप्रसङ्गेन।मेधाविरोधिन्यप्यमेध्यशब्दप्रयोगात्तस्य च दृष्टप्रत्यवायमात्रपर्यवसानात्ततोऽपि दोषातिशयसूचनाय मेधोऽत्र यज्ञः? तदर्हं मेध्यं? तद्विपरीतममेध्यमित्याह -- अयज्ञार्हमिति। ननु यज्ञार्हस्यापि द्रव्यस्याभक्षणीयत्वं मन्वादिभिरुच्यते यथा -- वृथा कृसरसंयावं पायसापूपमेव च। अनुपाकृतमांसानि देवान्नानि हवींषि च [मनुः5।7] इति। तत्राऽऽह -- अयज्ञशिष्टमित्यर्थ इति। एतेन सात्त्वतादिशास्त्रेषुनानिवेद्य हरेः किञ्चित्समश्नीयात्तु पावनम् इत्यादिकमप्यत्रानुसंहितम्। आह्रियन्त इत्याहारास्तत्तद्द्रव्याणि प्रतीयन्ते? न च भोजनक्रियामात्रे यातयामत्वाद्युक्तिरन्वेति नापि मुख्ये सम्भवति लक्षणा न्याय्या। अतःकृत्यल्युटो बहुलम् [अष्टा.3।3।113] इति कर्मणि ल्युडन्ततामाह -- भुज्यत इति।पुनश्च तमसो वर्धनमिति -- पूर्ववत्। आहारत्रैविध्योक्तेरभिप्रेतमाह -- अत इति। पथ्यापथ्यविभागोक्तौ पथ्यग्रहणवदिति भावः। एवमेव यज्ञादित्रैविध्योक्तावप्यन्ततोऽभिप्रायो ग्राह्यः।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।17.7 -- 17.10।।आहारोऽपि सत्त्वादिभेदात् त्रिधा श्रद्धावत् ( S omits श्रद्धावत् ) तथा यज्ञतपोदानानि। तदुच्यते -- आहार इत्यादि तामसप्रियम् इत्यन्तम्। याता यामाः यस्य।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।17.10।।यातयाममिति। यातयाममर्धपक्वम्। निर्वीर्यस्य गतरसपदेनोक्तत्वादिति भाष्यम्। गतरसं विरसतां प्राप्तं शुष्कं यातयामं पक्वं सत्प्रहरादिव्यवहितमोदनादि शैत्यं प्राप्तम्? गतरसमुद्धृतसारम्? मथितदुग्धादीत्यन्ये। पूति दुर्गन्धं? पर्युषितं पक्वं सद्रात्र्यन्तरितं? चेतसस्तत्कालोन्मादकरं धत्तूरादिसमुच्चयीयते यदतिप्रसिद्धं दुष्टत्वेन। उच्छिष्टं भुक्तावशिष्टम्? अमेध्यमयज्ञार्हमशुचि मांसादि। अपिचेति वैद्यकशास्त्रोक्तमपथ्यं समुच्चीयते। एतादृशं यद्भोजनं भोज्यं तत्तामसस्य प्रियं सात्त्विकैरतिदूरादुपेक्षणीयमित्यर्थः। एतादृशभोजनस्य दुःखशोकामयप्रदत्वमतिप्रसिद्धमिति कण्ठतो नोक्तम्। अत्र च क्रमेण रस्यादिवर्गः सात्त्विकः? कट्वादिवर्गो राजसः? यातयामादिवर्गस्तामस इत्युक्तमाहारवर्गत्रयं? तत्र सात्त्विकवर्गविरोधित्वमितरवर्गद्वये द्रष्टव्यम्। तथा ह्यतिकटुत्वादिकं रस्यत्वविरोधि? तादृशस्यानास्वाद्यत्वाद्रूक्षत्वं स्निग्धत्वविरोधि? तींक्ष्णत्वविदाहित्वे धातुपोषणविरोधित्वात्स्थिरत्वविरोधिनी? अत्युष्णत्वादिकं हृद्यत्वविरोधि? आमयप्रदत्वमायुःसत्त्वबलारोग्यविरोधि? दुःखशोकप्रदत्वं सुखप्रीतिविरोधि? एवं सात्त्विकवर्गविरोधित्वं राजसवर्गे स्पष्टम्। तथा तामसवर्गेऽपि गतरसत्वयातयामत्वपर्युषितत्वानि यथासंभवं रस्यत्वस्निग्धत्वस्थिरत्वविरोधीनि? पूतित्वोच्छिष्टत्वामेध्यत्वानि हृद्यत्वविरोधीनि? आयुःसत्त्वादिविरोधित्वं तु स्पष्टमेव राजसवर्गे दृष्टविरोधमात्रं? तामसवर्गे तु दृष्टादृष्टविरोध इत्यतिशयः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।17.10।।अथ तामसमाह -- यातयाममिति। यातो व्यतीतो यामः प्रहरो यस्य तादृशं पक्वान्नकृषिरादिकं? शैत्यादिना भक्षणायोग्यमित्यर्थः। गतरसं शुष्कं? पूति दुर्गन्धं? पर्युपितं व्यतीतरात्रम्? उच्छिष्टं अन्यभुक्तावशिष्टम्? अमेध्यं कलिङ्गमूलकबिम्बादिकम्। एतादृशं भोजनं तामसानां प्रियम्। एतस्य फलकीर्तनं स्वरूपत एव दुष्टत्वात्। एवंभोजनप्रियो तामसो ज्ञेय इत्यर्थः। निर्गुणाहारकैर्मदुच्छिष्टभोक्तृभिः पूर्वोक्तत्रिविधमभोजनं तद्भोजिनश्च त्याज्या इत्यर्थश्चैतन्निरूपणेन ज्ञापितः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।17.10।। --,यातयामं मन्दपक्वम्? निर्वीर्यस्य गतरसशब्देन उक्तत्वात्। गतरसं रसवियुक्तम्? पूति दुर्गन्धि? पर्युषितं च पक्वं सत् रात्र्यन्तरितं च यत्? उच्छिष्टमपि च भुक्तशिष्टम् उच्छिष्टम्? अमेध्यम् अयज्ञार्हम्? भोजनम् ईदृशं तामसप्रियम्।।अथ इदानीं यज्ञः त्रिविधः उच्यते --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।17.10।।यातयाममिति। चिरकालावस्थितं तामसप्रियम्।