तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षि।।17.25।।
tad ity anabhisandhāya phalaṁ yajña-tapaḥ-kriyāḥ dāna-kriyāśh cha vividhāḥ kriyante mokṣha-kāṅkṣhibhiḥ
Uttering "Tat," without aiming for the fruits, are the acts of sacrifice, austerity, and the various acts of gifts performed by those seeking liberation.
17.25 तत् That? इति thus? अनभिसन्धाय without aiming at? फलम् fruit? यज्ञतपःक्रियाः acts of sacrifice and austerity? दानक्रियाः acts of gits? च and? विविधाः various? क्रियन्ते are performed? मोक्षकाङ्क्षिभिः by the seekers of liberation.Commentary With Tat With the utterance of the word Tat (That).Phalam Fruit of sacrifice? austerity and charity.Danakriyah Acts of charity such as gifts of land? gold? rice? clothes? etc.The immortal Soul which transcends the whole world? the three Gunas? the three bodies? the three,states of waking? dreaming and deep sleep? which illumines everything? which is the basis of all? and the source of everything is connoted by the word Tat. The sages and the aspirants meditate on Tat. They utter the word Tat and say? May all our actions and the fruits of them be in the name of Tat (That or Brahman).Thus they offer all actions and their fruits to Brahman and practise renunciation. They are freed from egoism and the bondage of Karma. They attain Selfrealisation through purity of heart caused by selfless? motiveless and desireless actions.The actions that is ennobled and sanctified by uttering Om at the beginning and which is offered to That is transformed into the nature of Brahman. All actions in their entirety? O Arjuna? culminate in wisdom (IV.33). He who does the actions with the spirit of sacrifice becomes Brahman eventually.Tat is symbolic of the presentation of all the fruits of all such activities to Brahman. If you utter Tat? it is tantamount to saying? They are nt mine. What has been begun with Om is given away to Brahman with the utterance of Tat.The use of Sat is described in the following verse.
।।17.25।। व्याख्या -- तदित्यनभिसंधाय ৷৷. मोक्षकाङ्क्षिभिः -- केवल उस परमात्माकी प्रसन्नताके उद्देश्यसे? किञ्चिन्मात्र भी फलकी इच्छा न रखकर शास्त्रीय यज्ञ? तप? दान आदि शुभकर्म किये जायँ।,कारण कि विहितनिषिद्ध? शुभअशुभ आदि क्रियामात्रका आरम्भ होता है और समाप्ति होती है। ऐसे ही उस क्रियाका जो फल होता है? उसका भी संयोग होता है और वियोग होता है अर्थात् कर्मफलके भोगका भी आरम्भ होता है और समाप्ति होती है। परन्तु परमात्मा तो उस क्रिया और फलभोगके आरम्भ होनेसे पहले भी हैं तथा क्रिया और फलभोगकी समाप्तिके बाद भी हैं एवं क्रिया और फलभोगके समय भी वैसेकेवैसे हैं। परमात्माकी सत्ता नित्यनिरन्तर है। नित्यनिरन्तर रहनेवाली इस सत्ताकी तरफ ध्यान दिलानेमें ही तत् इति पदोंका तात्पर्य है और उत्पत्तिविनाशशील फलकी तरफ ध्यान न देनेमें ही अनभिसंधाय फलम् पदोंका तात्पर्य है अर्थात् नित्यनिरन्तर रहनेवाले तत्त्वकी स्मृति रहनी चाहिये और नाशवान् फलकी अभिसंधि (इच्छा) बिलकुल नहीं रहनी चाहिये।नित्यनिरन्तर वियुक्त होनेवाले? प्रतिक्षण अभावमें जानेवाले इस संसारमें जो कुछ देखने? सुनने और जाननेमें आता है? उसीको हम प्रत्यक्ष? सत्य मान लेते हैं और उसीकी प्राप्तिमें हम अपनी बुद्धिमानी और बलको सफल मानते हैं। इस परिवर्तनशील संसारको प्रत्यक्ष माननेके कारण ही सदासर्वदा सर्वत्र परिपूर्ण रहता हुआ भी वह परमात्मा हमें प्रत्यक्ष नहीं दीखता। इसलिये एक परमात्मप्राप्तिका ही उद्देश्य रखकर उस संसारका अर्थात् अहंताममता (मैंमेरेपन) का त्याग करके? उन्हींकी दी हुई शक्तिसे? यज्ञ आदिको उन्हींका मानकर निष्कामभावपूर्वक उन्हींके लिये यज्ञ आदि शुभकर्म करने चाहिये। इसीमें ही मनुष्यकी वास्तविक बुद्धिमानी और बल(पुरुषार्थ) की सफलता है। तात्पर्य यह है कि जो संसार प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है? उसका तो निराकरण करना है और जिसको अप्रत्यक्ष मानते हैं? उस तत् नामसे कहे जानेवाले परमात्माका अनुभव करना है? जो नित्यनिरन्तर प्राप्त है।भगवान्के भक्त (भगवान्का उद्देश्य रखकर) तत् पदके बोधक राम? कृष्ण? गोविन्द? नारायण? वासुदेव? शिव आदि नामोंका उच्चारण करके सब क्रियाएँ आरम्भ करते हैं।अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्य यज्ञ? दान? तप? तीर्थ? व्रत? जप? स्वाध्याय? ध्यान? समाधि आदि जो भी क्रियाएँ करते हैं? वे सब भगवान्के लिये भगवान्की प्रसन्नताके लिये? भगवान्की आज्ञापालनके लिये ही करते हैं? अपने लिये नहीं। कारण कि जिनसे क्रियाएँ की जाती हैं? वे शरीर? इन्द्रियाँ? अन्तःकरण आदि सभी परमात्माके ही हैं? हमारे नहीं हैं। जब शरीर आदि हमारे नहीं हैं? तो घर? जमीनजायदाद? रुपयेपैसे? कुटुम्ब आदि भी हमारे नहीं हैं। ये सभी प्रभुके हैं और इनमें जो सामर्थ्य? समझ आदि है? वह भी सब प्रभुकी है और हम खुद भी प्रभुके ही हैं। हम प्रभुके हैं और प्रभु हमारे हैं -- इस भावसे वे सब क्रियाएँ प्रभुकी प्रसन्नताके लिये ही करते हैं। सम्बन्ध -- चौबीसवें श्लोकमें की और पचीसवें श्लोकमें तत् शब्दकी व्याख्या करके अब भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें पाँच प्रकारसे सत् शब्दकी व्याख्या करते हैं।
।।17.25।। जो पुरुष स्वयं को अपनी आसक्तियों? स्वार्थी इच्छाओं? अहंकार और उससे उत्पन्न होने वाले विक्षेपों के बन्धनों से मुक्त रहना चाहता है? उसे मुमुक्षु कहते हैं। ऐसे मुमुक्षुओं को यह श्लोक एक उपाय बताता है? जिसके द्वारा समस्त साधक स्वयं को अपनी वासनाओं के बन्धन से मुक्त कर सकते हैं।मुमुक्षुओं को चाहिए कि वे फलासक्ति को त्यागकर और तत् शब्द के द्वारा परमात्मा का स्मरण करके अपने कर्तव्यों का पालन करें। तत् शब्द जगत्कारण ब्रह्म का वाचक है? जहाँ से सम्पूर्ण सृष्टि व्यक्त होती है। इस प्रकार? यह शब्द भूतमात्र के आत्मैकत्व का भी सूचक है। अपने कुटुम्ब के कल्याण के स्मरण रहने पर व्यक्तिगत लाभ विस्मरण हो जाता है समाज के लिए कार्य करने में परिवार के लाभ का विस्मरण हो जाता है और राष्ट्र कल्याण की भावना का उदय होने पर अपने समाजमात्र के लाभ की कामना नहीं रह जाती तथा विश्व और मानवता के लिए कर्म करने में राष्ट्रीयता की सीमायें टूट जाती हैं। इसी प्रकार? आत्मैकत्व के भाव में चित्त को समाहित करके यज्ञदानादि कर्मों के आचरण से? अहंकार के अभाव में? अन्तकरण की पूर्वार्जित वासनाएं नष्ट हो जाती हैं और नई वासनाएं उत्पन्न नहीं होती। यही मुक्ति है।अब? सत् शब्द का विनियोग बताते हैं
।।17.25।।शब्दस्य विनियोगमुक्त्वा तच्छब्दस्य विनियोगमाह -- तदित्यादिना।
।।17.25।।ओमिति नाम्नो विनियोगमुक्त्वा तदित्यस्य विनियोगमाह -- तदिति। फलमनभिसंधाय मोक्षकाङ्क्षिभिः मुमुक्षुभिः यज्ञतपः क्रिया दानक्रियाश्च विविधाः क्षेत्रहिरण्यप्रदानादिलक्षणाः तदिति ब्रह्माभिधानमुच्चार्य क्रियन्ते निर्वर्त्यन्ते।
।।17.25।।तत्फलं मे स्यादित्यनभिसन्धाय।
।।17.25।।मिति नाम्नः काम्याकाम्यकर्मसाधारण्येन यज्ञादौ विनियोगमुक्त्वा तदिति नाम्नो निष्कामेषु मुमुक्षुकर्मसु विनियोगं दर्शयति -- तदिति। मोक्षकाङ्क्षिभिः फलमनभिसंधाय विविधाः यज्ञतपःक्रियाः दानक्रियाश्च क्रियन्ते इति योजना। ननु फलं चेन्नाभिसंधीयते तर्हि किमभिसंधाय क्रियन्त इत्याकाङ्क्षायामाह -- तदिति। क्रियन्ते इति। सर्वाः क्रियास्तदिति ब्रह्मेति क्रियन्ते। यथा ब्रह्मवादिभिःब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना इत्युक्तदिशा सर्वाः ससाधनफलाः क्रियाः ब्रह्मैवेदं सर्वमितिबुद्ध्या क्रियन्ते तथा मुमुक्षुभिरपीत्यर्थः। यदेव हि मुक्तानां स्वाभाविकं शीलं तदेव मुमुक्षूणां शास्त्रेण विधीयत इति प्रसिद्धेः। फलमनभिसंधायेति सान्निध्यात्तदितीत्यत्रापि सामर्थ्यादभिसंधायेति लभ्यते। तेन फलमनभिसंधाय तदित्यभिसंधाय क्रियाः प्रवर्तन्त इत्यन्वयोऽपि सुलभ एव। तदिति ब्रह्माभिधानमुच्चार्येति भाष्येऽपि उदाहृत्येति पूर्वश्लोकोक्तक्रियानुवृत्त्या योजनमस्मदुक्ताभिप्रायेणैव व्याख्येयम् उच्चारणस्यापि ब्रह्मानुसंधानार्थत्वादिति दिक्।
।।17.25।।फलम् अनभिसंधाय वेदाध्ययनयज्ञतपोदानक्रियाः मोक्षकाङ्क्षिभिः त्रैवर्णिकैः याः क्रियन्ते? ताः ब्रह्मप्राप्तिसाधनतया ब्रह्मवाचिना तत् इतिशब्दनिर्देश्याः।सवः कः किं यत्तत्पदमनुत्तमम् (वि0 सह0 ना0 91) इति तच्छब्दो हि ब्रह्मवाची प्रसिद्धः।एवं वेदाध्ययनयज्ञादीनां मोक्षसाधनभूतानां तच्छब्दनिर्देश्यतया तत् इति शब्दान्वय उक्तः। त्रैवर्णिकानाम् अपि तथाविधवेदाध्ययनाद्यनुष्ठानाद् एव तच्छब्दान्वय उपपन्नः।अथ एषांसत् शब्दान्वयप्रकारं वक्तुं लोके सच्छब्दस्य व्युत्पत्तिप्रकारम् आह --
।।17.25।।द्वितीयं नाम प्रस्तौति -- तदिति। तदित्युदाहृत्येति पूर्वस्यानुषङ्गः। तदित्युदाहृत्य शुद्धचित्तैर्मोक्षकाङक्षिभिपुरुषैः फलाभिसंधिमकृत्वा यज्ञाद्याः क्रियाः क्रियन्ते अतश्चित्तशोधनद्वारेण फलसंकल्पत्याजनेन मुमुक्षुत्वसंपादकत्वात्तच्छब्दनिर्देशः प्रशस्त इत्यर्थः।
।।17.25।।एवं स्वर्गापवर्गसाधनसमस्तवैदिकसाधारणं प्रणवान्वयरूपं लक्षणमुक्तम् अथ तत्सच्छदौ मोक्षसाधनानां त्रिवर्गसाधनानां च विशेषलक्षणतयोच्येते। वक्ष्यति चैतदष्टादशारम्भे [रा.भा.श्लो.1]वैदिकस्य च कर्मणः सामान्यलक्षणं प्रणवान्वयः तत्र मोक्षाभ्युदयसाधनयोर्भेदः तत्सच्छब्दनिर्देश्यत्वेन इति।एतेषामिति त्रयाणां परामर्शः। उक्तानां यज्ञादीनामुपलक्षणतया वेदेष्वपि तच्छब्दप्रवृत्तिज्ञापनाय वेदाध्ययनोपादानम्।मोक्षकाङ्क्षिभिः इत्यनेनसूचितमाब्रह्मप्राप्तिसाधनतयेति। तदिति -- फलमनभिसन्धायेत्यन्वयः। तच्छब्दाभिधेयब्रह्मप्राप्तिसाधनतया तच्छब्दोपचार्यतया बुद्ध्वा फलान्तरमनभिसन्धायेत्यर्थः। इति करणसामर्थ्यात्उदाहृत्य इति पदं वा पूर्वश्लोकादनुषञ्जनीयमित्यभिप्रायेणाऽऽहतदितिशब्दनिर्देश्या इति। तच्छब्दस्य ब्रह्मनामत्वे सिद्धे हि तेन तत्प्राप्तिसाधनतयेति लक्षणा? तदेव कुतः इत्यत्र तदिति श्रुतेरुपबृंहणेन विशदीकृतत्वमभिप्रेत्याऽऽहसव इति। भगवन्नामसहस्रेयानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः [म.भा.13।149।13वि.स.ना.15] इति प्रक्रमात्नाम्नां सहस्रम् [म.भा.13।149।121वि.स.ना.157] इति निगमनाच्च यत्तदादिशब्दानां सर्वनामतया व्यापिनामपि विशेषतः साक्षात्परब्रह्मनामत्वं सिद्धमिति भावः। श्लोकेऽनुक्तस्यापि वेदाध्ययनस्य प्रयोजकेन सङ्गृहीतत्वमाहएवमिति। तथापि त्रयाणामन्वयो न सिध्यति? ब्राह्मणशब्दनिर्दिष्टानां त्रैवर्णिकानां मोक्षसाधनत्वनिबन्धनतच्छब्दनिर्देश्यत्वाभावादित्यत्राऽऽहत्रैवर्णिकानामपीति।मोक्षकाङ्क्षिभिः क्रियन्ते इत्यनेन परम्परया तदन्वयः सूचित इति भावः।
।।17.23 -- 17.27।।इदानीं ये गुणत्रितयसंकटोत्तीर्णधियः ते क्रियां कथमाचरन्ति इति तादृक़्प्रकार उच्यते -- ओमित्यादि अभिधीयते इत्यन्तम्। ओं तत् सत् इत्येभिस्त्रिभिः शब्दैर्ब्रह्मणो निर्देशः? संमुखीकरणम्। तत्र ओम् इत्यनेन शास्त्रार्थोऽयमादेहसंबन्धमूरीकार्य इति सूच्यते।तत् इति सर्वनामपदेन सामान्यमात्राभिधायिना विशेषपरामर्शमात्रासमर्थेन फलानभिसंधानं ब्रह्मण्युच्यते अभिसंधानस्य विशेषपरिग्रहमन्तरेण अभावात् सकलविशेषानुग्राहित्वेऽपि सकलफलसंधाने सर्वकर्तृतायामपि विशिष्टफलायोगात्।सत् इत्यमुया श्रुत्या प्रशंसा अभिधीयते। क्रियमाणमपि इदं यज्ञादिकं दुष्टम् इति बुद्ध्या क्रियमाणं तामसतामेति। विशिष्टफलाभिसंधानेन च क्रियमाणं न च सत्? बन्धाधायकमेवेति। तस्मात् कर्तव्यमिदम् इति मन्वानाः [ फलविशेषमनभिसंदधानाः ] यज्ञादि कुर्वाणा अपि न बध्यन्ते। अनेनैवाभिप्रायेण आदिपर्वण्युक्तम् -- तपो न कल्कोऽध्ययनं न कल्कः स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्कः।प्रसह्य वित्ताहरणं न कल्क स्तान्येव भावोपहतानि कल्कः।।( M? Adi? Ch? 1? verse 210 ) इति।कल्कः? बन्धकः। स्वाभाविक इति -- ब्राह्मणेन निष्कारणं षडङ्गं ( omits षडङ्गम् ) वेदादि अध्येतव्यम् इति। प्रसह्य? शास्त्रलोकप्रसिद्धोचितया चेष्टया। भावेन? सत्त्वादिगुणत्रययोगिना चित्तेन उपहतान्येतान्येव,( ?N?K उपहतान्येव ) बन्धकानि? नान्यथा इति तात्पर्यम्। अतो यज्ञादि यावच्छरीरभावितया कार्यमेव। तदर्थे [ च ] हितं ( N?K विहितम् ) कर्म अर्जनादि।यदि वा ओम् इत्यनेन समुपशान्तसमस्तप्रपञ्चम् तत् इत्यनेनोद्भिद्यमानविश्वतरङ्गपरामर्शमात्रात्मकेच्छास्वातन्त्र्य -- स्वभावम् सत् इत्यनेन इच्छास्वातन्त्र्यभरविजृम्भमाणभेदकम्? पूर्णत्वेऽपि तावच्चित्रस्वभावतया भवनमिति प्रतिपाद्यते। तथाचोक्तम्,सद्भावे साधुभावे च इति। तेन परमं प्रशान्तं ( S परमप्रशान्तरूपं ) रूपं पुरस्कृत्य दित्सायियक्षातितप्सात्मकेच्छातरङ्गसंगतं च मध्येकृत्य दानयज्ञतपःक्रियाकारककलापपरिपूर्णं यच्चरमं वपुः इदमुल्लसितम्? एतत् खलु समं त्रितयमनर्गलस्य स्वाभाविकं रूपम् इति कस्य किं कथं कुतः क्व ( N omits क्व ) केन फलं स्यादिति।
।।17.25।।तदित्यनभिसन्धाय इति वाक्यं ब्रह्मणीव यज्ञादावपि तच्छब्दस्य प्रवृत्तिं प्रतिपादयतीति ज्ञापयितुं योजयति -- तदिति। वेदोक्तं स्वर्गादिकम्।
।।17.25।।द्वितीयं तच्छब्दं व्याचष्टे -- तदिति। तत्त्वमसीत्यादिश्रुतिप्रसिद्धं तदिति ब्रह्मणो नामोदाहृत्य फलमनभिसंधायान्तःकरणशुद्ध्यर्थं यज्ञतपःक्रिया दानक्रियाश्च विविधा मोक्षकाङ्क्षिभिः क्रियन्ते तस्मादतिप्रशस्तमेतत्।
।।17.25।।भक्तानामुक्त्वा ज्ञानिनां द्वितीयनामसम्बन्धिफलमाह -- तदिति।तत् इति उदाहृत्य तद्ब्रह्मत्वाज्ञापरिपालनेन प्रीयादित्युदाहृत्य फलं स्वर्गादिसुखरूपम्? अनभिसन्धाय फलाभिलाषं मनस्यकृत्वा मोक्षकाङ्क्षिभिर्निर्दोषैर्यज्ञतपःक्रियाः यज्ञः अग्निहोत्रादिः? तपः कृच्छ्रादि? तदादयः क्रियाः क्रियन्ते। तच्छब्दोदाहणात्ताश्च सम्पन्ना भूत्वा मोक्षसम्पादिका भवन्तीत्यर्थः।
।।17.25।। --,तम् इति अनभिसंधाय? तत् इति ब्रह्माभिधानम् उच्चार्य अनभिसंधाय च यज्ञादिकर्मणः फलं यज्ञतपःक्रियाः यज्ञक्रियाश्च तपःक्रियाश्च यज्ञतपःक्रियाः दानक्रियाश्च विविधाः क्षेत्रहिरण्यप्रदानादिलक्षणाः क्रियन्ते निर्वर्त्यन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः मोक्षार्थिभिः मुमुक्षुभिः।।ओंतच्छब्दयोः विनियोगः उक्तः। अथ इदानीं सच्छब्दस्य विनियोगः कथ्यते --,
।।17.25।।तदिति। तत्पदवाच्यं हि ब्रह्म? तत्सवितुरितिसर्वः कः किं यत्तत्पदमनुत्तमं [13।149।93] इति भारतसहस्रनामोक्तेः ब्रह्मैव फलमिति लौकिकं यत्तत्फलमनभिसन्धायात्र ब्रह्मवाचिना तदितिशब्देन निर्देश्या यज्ञादिक्रियाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिरेव। अन्यैस्त्वन्यथेति निर्णयः।