अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।17.28।।
aśhraddhayā hutaṁ dattaṁ tapas taptaṁ kṛitaṁ cha yat asad ity uchyate pārtha na cha tat pretya no iha
Whatever is sacrificed, given, or performed, and whatever austerity is practiced without faith, it is called 'Asat', O Arjuna; it is of no value here or hereafter (after death).
17.28 अश्रद्धया without faith? हुतम् is sacrificed? दत्तम् given? तपः austerity? तप्तम् is practised? कृतम् performed? च and? यत् whatever? असत् Asat? इति thus? उच्यते is called? पार्थ O Partha? न not? च and? तत् that? प्रेत्य hereafter (after death)? न not? इह here.Commentary Asat That which changes form and has no permanent existence. It does not mean nonexistence as such.Acts of sacrifice? austerity and gift that are performed without faith? under pressure? or to prevent some sort of trouble or to gratify a craving? are Asat in their nature. They yield no permanent benefit or fruit to anybody.Any sacrifice? austerity or gift done without dedicating it to the Lord will be of no avail to the doer in this earthly life here or in the life beyond hereafter. It would be as useless as showers of rain falling on rocky ground or pouring oblations of ghee (clarified butter) on cold ashes. If you have no faith you will become egoistic and obstinate. Your heart will become hard. If you perform even hundreds of sacrifices without faith? without the spirit of selfsurrender to the Lord? even if you distribute the wealth of the whole world in charity without faith in and devotion to the Lord? all these would be worthless and useless. The sages will not appreciate such sacrifices or gifts. Energy? money and time are simply wasted.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the seventeenth discourse entitledThe Yoga of the Division of the Threefold Faith. ,
।।17.28।। व्याख्या -- अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् -- अश्रद्धापूर्वक यज्ञ? दान और तप किया जाय और कृतं च यत् (टिप्पणी प0 864) अर्थात् जिसकी शास्त्रमें आज्ञा आती है? ऐसा जो कुछ कर्म अश्रद्धापूर्वक किया जाय -- वह सब असत् कहा जाता है।अश्रद्धया पदमें श्रद्धाके अभावका वाचक नञ् समास है? जिसका तात्पर्य है कि आसुर लोग परलोक? पुनर्जन्म? धर्म? ईश्वर आदिमें श्रद्धा नहीं रखते।बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब उर नारी।। (मानस 7। 98। 1) -- इस प्रकारके विरुद्ध भाव रखकर वे यज्ञ? दान आदि क्रियाएँ करते हैं।जब वे शास्त्रमें श्रद्धा ही नहीं रखते? तो फिर वे यज्ञ आदि शास्त्रीय कर्म क्यों करते हैं वे उन शास्त्रीय कर्मोंको इसलिये करते हैं कि लोगोंमें उन क्रियाओंका ज्यादा प्रचलन है? उनको करनेवालोंका लोग आदर करते हैं तथा उनको करना अच्छा समझते हैं। इसलिये समाजमें अच्छा बननेके लिये और जो लोग यज्ञ आदि शास्त्रीय कर्म करते हैं? उनकी श्रेणीमें गिने जानेके लिये वे श्रद्धा न होनेपर भी शास्त्रीय कर्म कर देते हैं।असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह -- अश्रद्धापूर्वक यज्ञ आदि जो कुछ शास्त्रीय कर्म किया जाय? वह सब असत् कहा जाता है। उसका न इस लोकमें फल होता है और न परलोकमें -- जन्मजन्मान्तरमें ही फल होता है। तात्पर्य यह कि सकामभावसे श्रद्धा एवं विधिपूर्वक शास्त्रीय कर्मोंको करनेपर यहाँ धनवैभव? स्त्रीपुत्र आदिकी प्राप्ति और मरनेके बाद स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति हो सकती है और उन्हीं कर्मोंको निष्कामभावसे श्रद्धा एवं विधिपूर्वक करनेपर अन्तःकरणकी शुद्धि होकर परमात्मप्राप्ति हो जाती है परन्तु अश्रद्धापूर्वक कर्म करनेवालोंको इनमेंसे कोई भी फल प्राप्त नहीं होता।यदि यहाँ यह कहा जाय कि अश्रद्धापूर्वक जो कुछ भी किया जाता है? उसका इस लोकमें और परलोकमें कुछ भी फल नहीं होता? तो जितने पापकर्म किये जाते हैं? वे सभी अश्रद्धासे ही किये जाते हैं? तब तो उनका भी कोई फल नहीं होना चाहिये और मनुष्य भोग भोगने तथा संग्रह करनेकी इच्छाको लेकर अन्याय? अत्याचार? झूठ? कपट? धोखेबाजी आदि जितने भी पापकर्म करता है? उन कर्मोंका फल दण्ड भी नहीं चाहता पर वास्तवमें ऐसी बात है नहीं। कारण कि कर्मोंका यह नियम है कि रागी पुरुष रागपूर्वक जो कुछ भी कर्म करता है? उसका फल कर्ताके न चाहनेपर भी कर्ताको मिलता ही है। इसलिये आसुरीसम्पदावालोंको बन्धन और आसुरी योनियों तथा नरकोंकी प्राप्ति होती है।छोटेसेछोटा और साधारणसेसाधारण कर्म भी यदि उस परमात्माके उद्देश्यसे ही निष्कामभावपूर्वक किया जाय? तो वह कर्म सत् हो जाता है अर्थात् परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला हो जाता है परन्तु ब़ड़ेसेबड़ा यज्ञादि कर्म भी यदि श्रद्धापूर्वक और शास्त्रीय विधिविधानसे सकामभावपूर्वक किया जाय? तो वह कर्म भी फल देकर नष्ट हो जाता है परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला नहीं होता तथा वे यज्ञादि कर्म यदि अश्रद्धापूर्वक किये जायँ? तो वे सब असत् हो जाते हैं अर्थात् सत् फल देनेवाले नहीं होते। तात्पर्य यह है कि परमात्माकी प्राप्तिमें क्रियाकी प्रधानता नहीं है? प्रत्युत श्रद्धाभावकी ही प्रधानता है।पूर्वोक्त सद्भाव? साधुभाव? प्रशस्त कर्म? सत्स्थिति और तदर्थीय कर्म -- ये पाँचों परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले होनेसे अर्थात् सत् -- परमात्माके साथ सम्बन्ध जोड़नेवाले होनेसे सत् कहे जाते हैं।अश्रद्धासे किये गये कर्म असत् क्यों होते हैं वेदोंने? भगवान्ने और शास्त्रोंने कृपा करके मनुष्योंके कल्याणके लिये ही ये शुभकर्म बताये हैं? पर जो मनुष्य इन तीनोंपर अश्रद्धा करके शुभकर्म करते हैं? उनके ये सब कर्म असत् हो जाते हैं। इन तीनोंपर की हुई अश्रद्धाके कारण उनको नरक आदि दण्ड मिलने चाहिये परन्तु उनके कर्म शुभ (अच्छे) हैं? इसलिये उन कर्मोंका कोई फल नहीं होता -- यही उनके लिये दण्ड है।मनुष्यको उचित है कि वह यज्ञ? दान? तप? तीर्थ? व्रत आदि शास्त्रविहित कर्मोंको श्रद्धापूर्वक और निष्कामभावसे करे। भगवान्ने विशेष कृपा करके मानवशरीर दिया है और इसमें शुभकर्म करनेसे अपनेको और सब लोगोंको लाभ होता है। इसलिये जिससे अभी और परिणाममें सबका हित हो -- ऐसे श्रेष्ठ कर्तव्यकर्म श्रद्धापूर्वक और भगवान्की प्रसन्नताके लिये करते रहना चाहिये।इस प्रकार ? तत्? सत् -- इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें श्रद्धात्रयविभागयोग नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।17।। ,
।।17.28।। इस श्लोक में? निषेध की भाषा में निश्चयात्मक रूप से भगवान् कहते हैं कि श्रद्धारहित कोई भी कर्म न इस लोक में और न मरण के पश्चात् ही लाभदायक होता है। कर्मों का फल कर्ता की श्रद्धा? उत्साह और निश्चय पर ही निर्भर करता है। मनुष्य की श्रद्धा ही उसके कर्मों को आभा प्रदान करती है। अत कर्म का फल बहुत अधिक मात्रा में कर्ता की श्रद्धा पर निर्भर करता है।यहाँ निश्चयात्मक रूप से कहा गया है कि श्रद्धारहित यज्ञ? दान? तप और अन्य कर्म असत् होते हैं। असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसलिए ऐसे असत् कर्मों से कोई वास्तविक श्रेष्ठ फल प्राप्त नहीं किया जा सकता। भगवान् के इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि सब कर्मों में श्रद्धा की प्रमुखता है और उसके बिना कर्म निष्फल होते हैं।श्रद्धा का यह नियम न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में ही सत्य है? अपितु लौकिक फलों की प्राप्ति में भी उतना ही सत्य प्रमाणित होता है। कर्ता को स्वयं अपने में? कर्म में तथा प्राप्य लक्ष्य में श्रद्धा आवश्यक होती है? केवल तभी वह अपनी सम्पूर्ण क्षमता के साथ प्रयत्न कर सकता है? अन्यथा नहीं।अत भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि अश्रद्धा से किये गये यज्ञ? दान और तप असत् होते हैं।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्धायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का श्रद्धात्रयविभागयोग नामक सत्रहवां अध्याय समाप्त होता है।
।।17.28।।अश्रद्धान्वितस्यापि कर्मणो नामत्रयोच्चारणादवैगुण्ये श्रद्धाप्राधान्यं न स्यादित्याशङ्क्याह -- तत्र चेति। सप्तमीभ्यां प्रकृतं यज्ञादि गृह्यते सर्वं यज्ञादि सगुणमिति शेषः। तस्यासत्त्वं साधयति -- मत्प्राप्तीति। ऐहिकामुष्मिकं वा फलमश्रद्धितेनापि कर्मणा संपत्स्यते कुतोऽस्यासत्त्वमित्याशङ्क्याह -- नचेति। तस्योभयविधफलाहेतुत्वे हेतुमाह -- साधुभिरिति। निन्दन्ति हि साधवः श्रद्धारहितं कर्मातो नैतदुभयफलौपयिकमित्यर्थः। तदनेन शास्त्रानभिज्ञानमपि श्रद्धावतां श्रद्धया सात्त्विकत्वादित्रैविध्यभाजां राजसतामसाहारादित्यागेन सात्त्विकाहारादिसेवया सत्त्वैकशरणानां प्राप्तमपि यज्ञादिवैगुण्यं ब्रह्मनामनिर्देशेन,परिहरतां परिशुद्धबुद्धीनां श्रवणादिसामग्रीसंजाततत्त्वसाक्षात्कारवतां मोक्षोपपत्तिरिति स्थितम्।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृतौ सप्तदशोऽध्यायः।।17।।
।।17.28।।तत्र सर्वत्रास्तिक्यलक्षणायाः श्रद्धायाः प्रधानतया सर्वं तथैव संपाद्यते यस्मात्तस्मांदश्रद्धया हुतं हव्यवहनं कृतं दत्तं च ब्राह्णेब्यो यत्तपस्तप्तं यच्चान्यत्कर्म स्तुतिनमस्कारादिकृतं तत्सर्वमसदित्युच्यते सत्प्राप्तिमार्गादास्तिदास्तिक्यलक्षणाद्वाह्यत्वात्। असत्त्वमेव प्रतिपादयति। नच तद्वह्वायासमपि प्रेत्य मृत्वा नापीह यशोरुपफलाय साधुभिर्निन्दितत्वात्। हुतमित्युक्त्या विहिते कर्मणि श्रद्धावनधिकारी प्रतिषिद्धे तु श्रद्धारहितोऽपीति बोधितम्। एतेन निषेधलङ्गिनो नास्तिकस्य प्रत्यवायाभावप्रसङ्गो निरस्तः। ननुयदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवति इति श्रुत्या श्रद्धया कुतं वीर्यवत्तरं चेत् श्रद्धारहितमपि वीर्यवदित्यर्थाद्वोधितमिति कथं भगवता प्रोक्तमसदित्युच्यत इति। नैष दोषः। यतः श्रुतिस्तश्रद्धापदं भक्तिरुपश्रद्धापरं स्मृतिस्थं तु विश्वसात्मकश्रद्धापरम्। एवंच नास्तिक्यबुद्य्धा कृतं सर्वं निरर्थकमेवातो नास्तिक्यं श्रेयोर्थिभिः सर्वथैव हेयमिति भावः। पृथा पुत्रस्य तव तु कदापि तन्नेचितमिति सूचयन्संबोधयति पार्थेति।तदनेन सप्तदशाध्यायेन श्रद्धादित्रैविध्यं निरुपयता शास्त्रानभिज्ञानामपि सात्त्विकश्रद्धावतां राजसतामसाहारदिपरिवर्जनेन सात्त्विकाहारादिसेवया सत्त्वैकशरणानां प्राप्तमपि यज्ञादिवैगुण्यं ब्रह्मनामनिर्देशेन परिहरतां परिशुद्धबुद्धीनां श्रवणादिना ब्रह्मात्मसाक्षात्कारो भवतीति प्रदर्शितम्।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचितायां श्रीकीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां सप्तदशोऽध्यायः।।17।।
।।17.28।।तथाच ऋग्वेदखिलेषु -- यज्ञाद्या निष्फलं कर्म तत्स्यात्सद्वै तदर्थकं कर्म वदन्ति देवाः। तच्छब्दानां सन्निधेर्ब्रह्मप्रीतेस्तद्रूपत्वाज्जनितं ब्रह्म तस्य इति।
।।17.28।।सर्वत्र श्रद्धैव साद्गुण्यहेतुरिति व्यतिरेकमुखेनाह -- अश्रद्धयेति। हुतं होमः। दत्तं दानम्। तपस्तप्तमनुष्ठितम् कृतमश्रद्धया विहितं भगवन्नामस्मरणमपि यच्चान्यत्तत्सर्वमसत् अभावभूतमित्युच्यते। पार्थ? अतएव तत् प्रेत्य मृत्वा परलोके नोपयुज्यते। इहास्मिन् लोके वा नो नैवोपयुज्यते। तस्मात् श्रद्धैव सात्त्विकी मातेव सुखकामैः शरणीकरणीयेति भावः।
।।17.28।।अश्रद्धया कृतं शास्त्रीयम् अपि होमादिकम् असद् इति उच्यते। कुतः न च तत् प्रेत्य नो इह? न मोक्षाय न सांसारिकाय च फलाय इति।
।।17.28।।इदानीं सर्वकर्मसु श्रद्धयैव प्रवृत्त्यर्थमश्रद्धाकृतं सर्वं निन्दति -- अश्रद्धयेति। अश्रद्धया हुतं हवनं? दत्तं दानं? तप्तं निर्वर्तितं तपः। यच्चान्यदपि कृतं कर्म तत्सर्वमसदित्युच्यते। यतस्तत्प्रेत्य लोकान्तरे न फलति विगुणत्वात्। नो इह न चास्मिंल्लोके फलति? अयशस्करत्वात्।
।।17.28।।शास्त्रविधिमुत्सृज्य [16।27] इत्यादिना अध्यायारम्भे प्रश्नोत्तरमुखेन श्रद्धायुक्तस्याप्यशास्त्रीयस्यासुरत्वेनासत्त्वं प्रतिपाद्य शास्त्रीयस्य ततो व्यावृत्तिर्दर्शिता इदानीं व्यतिरेकेण प्रकृतानां सदिति निर्देशार्हत्वदृढीकरणाय शास्त्रीयस्यापि श्रद्धारहितस्यासत्त्वमुच्यते। विशिष्टव्यतिरेकस्य विशेषणाभावे विशेष्याभावे च समानत्वादित्यभिप्रायेणाऽऽहअश्रद्धया कृतं शास्त्रीयमपीति। कृतशब्दस्य हुतदत्तयोरन्वयः।तप्तम् इत्यनेन तपसः कृतत्वसिद्धेर्हुतदत्तशब्दावत्र भावार्थौ। एवं कृतशब्दस्य विशेषणतयाऽन्वयेऽपेक्षिते सामान्यविषयपरोपकारादिविषयत्वक्लृप्तिरयुक्तेति च भावः। यद्यप्यशास्त्रीयवन्निरयपतनैकहेतुत्वं नास्ति? तथापि तत्तद्वाक्योदितफलाभावादसत्त्वमुपपद्यत इत्यभिप्रायेण हेत्वाकाङ्क्षां दर्शयतिकुत इति।येयं प्रेते [कठो.1।1।20] इति श्रुत्यविरोधेन प्रेत्यशब्दस्य मुक्तदशाविषयत्वोपपत्तौमोक्षकाङ्क्षिभिः [17।25] इत्याद्युक्तफलव्यतिरेकस्यन च तत्प्रेत्य इत्यादिना विवक्षितत्वमाहन मोक्षायेति। परिशेषसिद्धमिहशब्दस्यार्थमाहन सांसारिकाय फलायेति।,श्रद्धायुक्तमप्यवैदिकं? वैदिकमपि श्रद्धाहीनं दृष्टादृष्टप्रयोजनविरहादननुष्ठेयम् उभयविधप्रयोजनयोगाद्वैदिकमेव श्रद्धापूतमेवानुष्ठेयमित्यध्यायसार इति भावः।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु भगवद्रामानुजविरचितश्रीमद्गीताभाष्यटीकायां तात्पर्यचन्द्रिकायां सप्तदशोऽध्यायः।।17।।
।।17.28।।इदानीमश्रद्धावतः तामसं कर्म सर्वथा ( S सर्वथैव ) निष्फलं कारककलापसंयोजनसमुपजनितप्रयासमात्रफलमेव ( Nसंयोजनमुपजनित -- ) ? इति सर्वथैव ( S सर्वथा ) अश्रद्धावता न भाव्यमित्युच्यते -- अश्रद्धयेति। असदिति -- अप्रशस्तम्। तस्मात् प्रशस्ते कर्मणि यतमानानां सुखेनैव भवति शिवम् इति।।।शिवम्।।अत्र संग्रहश्लोकः -- स एव कारकावेशः क्रिया सैवाविशेषिणी।तथापि विज्ञानवतां मोक्षार्थे पर्यवस्यति।।।।इति श्रीमहामाहेश्वराचार्यवर्यराजानकाभिनवगुप्तपादविरचिते श्रीमद्भगवद्गीतार्थसंग्रहे सप्तदशोऽध्यायः।।
।।17.28।।अश्रद्धया इत्यनेन ब्रह्मभक्तिरपीति अत्र श्रुतिसम्मतिमाह -- तथा चेति। ओं यज्ञाद्याः वेदाद्योतत्वात्। निष्फलं फलोद्देशरहितत्वात्तदर्थं ब्रह्मविषयम्। एवं तच्छब्दानां ब्रह्मशब्दानाम्। यज्ञादिषु सन्निधेरवगततद्रूपत्वात् तत्प्रतिमात्वात् तस्योक्तप्रकारेण यज्ञादीनामनुष्ठातुः।
।।17.28।।यद्यालस्यादिना शास्त्रीयं विधिमुत्सृज्य श्रद्दधानस्यैव वृद्धव्यवहारमात्रेण यज्ञतपोदानादि कुर्वतां प्रमादाद्वैगुण्ये प्राप्ते तत्सदिति ब्रह्मनिर्देशेन तत्परिहारस्तर्ह्यश्रद्दधानतया शास्त्रीयं विधिमुत्सृज्य कामकारेण यत्किंचिद्यज्ञादि कुर्वतामसुराणामपि तेनैव वैगुण्यपरिहारः स्यादिति कृतं श्रद्धया सात्त्विकत्वहेतुभूतयेत्यत आह -- अश्रद्धयेति। अश्रद्धया यद्धुतं हवनं कृतमग्नौ दत्तं यद्ब्राह्मणेभ्यो यत्तपस्तप्तं यच्चान्यत्कर्म कृतं स्तुतिनमस्कारादि तत्सर्वमश्रद्धया कृतमसदसाध्वित्युच्यते। अत ओंतत्सदिति निर्देशेन न तस्य साधुभावः शक्यते कर्तुं सर्वथा तदयोग्यत्वाच्छिलाया इवाङ्कुरस्तत्कस्मादसदित्युच्यते शृणु हे पार्थ? चो हेतौ। यस्मात्तदश्रद्धाकृतं न प्रेत्य परलोके फलति विगुणत्वेनापूर्वाजनकत्वान्नो इह नापीह लोके यशः साधुभिर्निन्दितत्वात्। अत ऐहिकामुष्मिकफलविकलत्वादश्रद्धाकृतस्य सात्त्विक्या श्रद्धयैव सात्त्विकं यज्ञादि कुर्यादन्तःकरणशुद्धये। तादृशस्यैव श्रद्धापूर्वकस्य सात्त्विकस्य यज्ञादेर्दैवाद्वैगुण्यशङ्कायां ब्रह्मणो नामनिर्देशेन साद्गुण्यं संपादनीयमिति परमार्थः। श्रद्धापूर्वकसात्त्विकमपि यज्ञादि विगुणं ब्रह्मणो नामनिर्देशेन सात्त्विकं च संपादितं भवतीति भाष्यम्। तदेवमस्मिन्नध्याये आलस्यादिनाऽनादृतशास्त्राणां श्रद्धापूर्वकं वृद्धव्यवहारमात्रेण प्रवर्तमानानां शास्त्रानादरेणासुरसाधर्म्येण श्रद्धापूर्वकानुष्ठानेन च देवसाधर्म्येण किमसुरा अमी देवावेत्यर्जुनसंशयविषयाणां राजसतामसश्रद्धापूर्वकं राजसतामसयज्ञादिकारिणोऽसुराः। शास्त्रीयज्ञानसाधनानधिकारिणः सात्त्विकश्रद्धापूर्वकं सात्त्विकयज्ञादिकारिणस्तु देहाः शास्त्रीयज्ञानसाधनाधिकारिण इति श्रद्धात्रैविध्यप्रदर्शनमुखेनाहारादित्रैविध्यप्रदर्शनेन च भगवता निर्णयः कृत इति सिद्धम्।
।।17.28।।अथैतदतिरिक्तं श्रद्धाविहीनमेतदपि असदित्युच्यत इत्याह -- अश्रद्धयेति। अश्रद्धया श्रद्धां विना हुतं हवनादिकं? दत्तं दानादि? तप्तं तपः? च पुनः यत्किञ्चित् कृतं कर्म यागतीर्थस्नानादिकं? हे पार्थ मद्भक्त तत्सर्वं असदित्युच्यते? तच्च प्रेत्य परलोके न फलति मत्सम्बन्धाभावात्। इह लोके न फलं? सदनादृतत्वात्। अतो मत्सम्बन्ध्येव लौकिकालौकिकं फलतीति तदेव कर्त्तव्यमिति निरूपितम्।निष्फलं त्रिगुणं कर्म सश्रद्धमपि यत्कृतम्। सफलं निर्गुणं चातः कर्त्तव्यमिति रूपितम्।
।।17.28।। --,अश्रद्धया हुतं हवनं कृतम्? अश्रद्धया दत्तं ब्राह्मणेभ्यः? अश्रद्धया तपः तप्तम् अनुष्ठितम्? तथा अश्रद्धयैव कृतं यत् स्तुतिनमस्कारादि? तत् सर्वम् असत् इति उच्यते? मत्प्राप्तिसाधनमार्गबाह्यत्वात् पार्थ। न च तत् बहुलायासमपि प्रेत्य फलाय नो अपि इहार्थम्? साधुभिः निन्दितत्वात् इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येसप्तदशोऽध्यायः।।
।।17.28।।किञ्च यज्ञादिकं हुतादिकं च यत्कृतं अश्रद्धया शास्त्रीयश्रद्धाराहित्येन तदसद्व्यर्थमित्यर्थः। कुतः न च तत्प्रेत्य नो इहेति उभयलोकसुखासाधकत्वादित्यर्थः।