एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्िचतं मतमुत्तमम्।।18.6।।
etāny api tu karmāṇi saṅgaṁ tyaktvā phalāni cha kartavyānīti me pārtha niśhchitaṁ matam uttamam
But even these actions should be performed, leaving aside attachment and the desire for rewards, O Arjuna; this is my certain and most assured conviction.
18.6 एतानि these? अपि even? तु but? कर्माणि actions? सङ्गम् attachment? त्यक्त्वा leaving? फलानि fruits? च and? कर्तव्यानि should be performed? इति thus? मे My? पार्थ O Arjuna? निश्चितम् certain? मतम् belief? उत्तमम् best.Commentary This is a summary of the doctrine of Karma Yoga enunciated before on several occasions. The fault of defect of Karma is certainly not in the action itself? but in the expectation of reward and attachment.Etani api Even these Sacrifice? charity and austerity also? in the same way as other unselfish actions. Even these refers to acts of sacrifice? charity and austerity. Actions that are performed in an unselfish spirit without attachment and idea of agency? do not stand in the way of your obtaining emancipation. When actions are done without expectation of rewards? Rajas and Tamas are destroyed and the mind is filled with Sattva or purity. Actions done with the spirit of selflessness and with discrimination are instrumental in destroying the bonds of Karma (the law of cause and effect).The Lord said Hear from Me the conclusion or the final truth about renunciation (verse 4 above). Then He said with all the force of His authority that acts of sacrifice? charity and austerity should not be given up as they are purifiers of the wise. Even these actions should be performed? etc.? is only the conclusion of what the Lord has stated in verse 4.The word Api (even) implies that the acts of sacrifice? charity and austerity should be done by an aspirant although they bind one who has attachment to the actions and a desire for their reward.Just as the seeds of trees can be rendered barren by being scorched? so the aspirant burns the fruitbearing tendency of Karma through the abandonment of the desire for the reward.
।।18.6।। व्याख्या -- एतान्यपि तु कर्माणि ৷৷. निश्चितं मतमुत्तमम् -- यहाँ एतानि पदसे पूर्वश्लोकमें कहे यज्ञ? दान और तपरूप कर्मोंकी तथा अपि पदसे शास्त्रविहित पठनपाठन? खेतीव्यापार आदि जीविकासम्बन्धी कर्म शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार खानापीना? उठनाबैठना? सोनाजागना आदि शारीरिक कर्म और परिस्थितिके अनुसार सामने आये अवश्य कर्तव्यकर्म -- इन सभी कर्मोंको लेना चाहिये। इन समस्त कर्मोंको आसक्ति और फलेच्छाका त्याग करके जरूर करना चाहिये। अपनी कामना? ममता और आसक्तिका त्याग करके कर्मोंको केवल प्राणिमात्रके हितके लिये करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारके लिये और योग अपने लिये हो जाता है। परन्तु कर्मोंको अपने लिये करनेसे कर्म बन्धनकारक हो जाते हैं -- अपने व्यक्तित्वको नष्ट नहीं होने देते।गीतामें कहीं सङ्ग(आसक्ति) के त्यागकी बात आती है और कहीं कर्मोंके फलके त्यागकी बात आती है। इस श्लोकमें सङ्ग और फल -- दोनोंके त्यागकी बात आयी है। इसका तात्पर्य यह है कि गीतामें जहाँ सङ्गके त्यागकी बात कही है? वहाँ उसके साथ फलके त्यागकी बात भी समझ लेनी चाहिये और जहाँ फलके त्यागकी बात कही है? वहाँ उसके साथ सङ्गके त्यागकी बात भी समझ लेनी चाहिये। यहाँ अर्जुनने त्यागके तत्त्वकी बात पूछी है अतः भगवान्ने त्यागका यह तत्त्व बताया है कि सङ्ग (आसक्ति) और फल -- दोनोंका ही त्याग करना चाहिये? जिससे साधकको यह जानकारी स्पष्ट हो जाय कि आसक्ति न तो कर्ममें रहनी चाहिये और न फलमें ही रहनी चाहिये। आसक्ति न रहनेसे मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ? शरीर आदि कर्म करनेके औजारों(करणों)में तथा प्राप्त वस्तुओँमें ममता नहीं रहती (गीता 5। 11)।सङ्ग (आसक्ति या सम्बन्ध) सूक्ष्म होता है और फलेच्छा स्थूल होती है। सङ्ग या आसक्तिकी सूक्ष्मता वहाँतक है? जहाँ चेतनस्वरूपने नाशवान्के साथ सम्बन्ध जोड़ा है। वहीँसे आसक्ति पैदा होती है? जिससे जन्ममरण आदि सब अनर्थ होते -- कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21)। आसक्तिका त्याग करनेसे नाशवान्के साथ जोड़े हुए सम्बन्धका विच्छेद हो जाता है और स्वतःस्वाभाविक रहनेवाली असङ्गताका अनुभव हो जाता है।इस विषयमें एक और बात समझनेकी है कि कई दार्शनिक इस नाशवान् संसारको असत् मानते हैं क्योंकि यह पहले भी नहीं था और पीछे भी नहीं रहेगा? इसलिये वर्तमानमें भी यह नहीं है जैसे -- स्वप्न। कई दार्शनिकोंका यह मत है कि संसार परिवर्तनशील है? हरदम बदलता रहता है? कभी एक रूप नहीं रहता जैसे -- अपना शरीर। कई यह मानते हैं कि परिवर्तनशील होनेपर भी संसारका कभी अभाव नहीं होता? प्रत्युत तत्त्वसे सदा रहता है जैसे -- जल (जल ही बर्फ? बादल? भाप और परमाणुरूपसे हो जाता है? पर स्वरूपसे वह मिटता नहीं)। इस तरह अनेक मतभेद हैं किन्तु नाशवान् जडका अपने अविनाशी चेतनस्वरूपके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है? इसमें किसी भी दार्शनिकका मतभेद नहीं है। सङ्गं त्यक्त्वा पदोंसे भगवान्ने उसी सम्बन्धका त्याग कहा है।प्रकृति सत् है या असत् है अथवा सत्असत्से विलक्षण है अनादिसान्त है या अनादिअनन्त है इस झगड़ेमें पड़कर साधकको अपना अमूल्य समय खर्च नहीं करना चाहिये? प्रत्युत इस प्रकृतिसे तथा प्रकृतिके कार्य शरीरसंसारसे अपना सम्बन्धविच्छेद करना चाहिये? जो कि स्वतः हो ही रहा है। स्वतः होनेवाले सम्बन्धविच्छेदका केवल अनुभव करना है कि शरीर तो प्रतिक्षण बदलता ही रहता है और स्वयं निर्विकाररूपसे सदा ज्योंकात्यों रहता है।अब प्रश्न यह होता है कि फल क्या है प्रारब्धकर्मके अनुसार अभी हमें जो परिस्थिति? वस्तु? देश? काल आदि प्राप्त हैं? वह सब कर्मोंका प्राप्त फल है और भविष्यमें जो परिस्थिति? वस्तु आदि प्राप्त होनेवाली है? वह सब कर्मोंका अप्राप्त फल है। प्राप्त तथा अप्राप्त फलमें आसक्ति रहनेके कारण ही प्राप्तमें ममता और अप्राप्तकी कामना होती है। इसलिये भगवान्ने त्यक्त्वा फलानि च (टिप्पणी प0 873) कहकर फलोंका त्याग करनेकी बात कही है।कर्मफलका त्याग क्यों करना चाहिये क्योंकि कर्मफल हमारे साथ रहनेवाला है ही नहीं। कारण यह है कि जिन कर्मोंसे फल बनता है? उन कर्मोंका आरम्भ और अन्त होता है अतः उनका फल भी प्राप्त और नष्ट होनेवाला ही है। इसलिये कर्मफलका त्याग करना है। फलके त्यागमें वस्तुतः फलकी आसक्तिका? कामनाका ही त्याग करना है। वास्तवमें आसक्ति हमारे स्वरूपमें है नहीं? केवल मानी हुई है।दूसरी बात? जो अपना स्वरूप होता है? उसका त्याग नहीं होता जैसे -- प्रज्वलित अग्नि उष्णता और प्रकाशका त्याग नहीं कर सकती। जो चीज अपनी नहीं होती? उसका भी त्याग नहीं होता जैसे -- संसारमें अनेक वस्तुएँ पड़ी हैं परन्तु उनका हम त्याग करें -- ऐसा कहना भी नहीं बनता क्योंकि वे वस्तुएँ हमारी हैं ही नहीं। इसलिये त्याग उसीका होता है? जो वास्तवमें अपना नहीं है? पर जिसको अपना मान लिया है। ऐसे ही प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीर आदि हमारे नहीं हैं? फिर भी उनको हम अपना मानते हैं? तो इस अपनेपनकी मान्यताका ही त्याग करना है। मनुष्यके सामने कर्तव्यरूपसे जो कर्म आ जाय? उसको फल और आसक्तिका त्याग करके सावधानीके साथ तत्परतापूर्वक करना चाहिये -- कर्तव्यानि। कर्मयोगमें विधिनिषेधको लेकर अमुक काम करना है और अमुक काम नहीं करना है -- ऐसा विचार तो करना ही है परन्तु अमुक काम ब़ड़ा है और अमुक काम छोटा है -- ऐसा विचार नहीं करना है। कारण कि जहाँ कर्म और उसके फलसे अपना कोई सम्बन्ध ही नहीं है? वहाँ यह कर्म बड़ा है? यह कर्म छोटा है इस कर्मका फल बड़ा है? इस कर्मका फल छोटा है -- ऐसा विचार हो ही नहीं सकता। कर्मका बड़ा या छोटा होना फलकी इच्छाके कारण ही दीखता है? जब कि कर्मयोगमें फलेच्छाका त्याग होता है। ,कर्म करना रागपूर्तिके लिये भी होता है और रागनिवृत्तिके लिये भी। कर्मयोगी रागनिवृत्तिके लिये अर्थात् करनेका राग मिटानेके लिये ही सम्पूर्ण कर्तव्यकर्म करता है -- आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते (गीता 6। 3)? न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते (गीता 3। 4)। अपने लिये कर्म करनेसे करनेका राग बढ़ता है। इसलिये कर्मयोगी कोई भी कर्म अपने लिये नहीं करता? प्रत्युत केवल दूसरोंके हितके लिये ही करता है। उसके स्थूलशरीरमें होनेवाली क्रिया? सूक्ष्मशरीरमें होनेवाला परहितचिन्तन तथा कारणशरीरमें होनेवाली स्थिरता -- तीनों ही दूसरोंके हितके लिये होती हैं? अपने लिये नहीं। इसलिये उसका करनेका राग सुगमतासे मिट जाता है। परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें संसारका राग ही बाधक है। अतः राग मिटनेपर कर्मयोगीको परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति अपनेआप हो जाती है (गीता 4। 38)।कर्तव्य शब्दका अर्थ होता है -- जिसको हम कर सकते हैं तथा जिसको जरूर करना चाहिये और जिसको करनेसे उद्देश्यकी सिद्धि जरूर होती है। उद्देश्य वही कहलाता है? जो नित्यसिद्ध और अनुत्पन्न है अर्थात् जो अनादि है और जिसका कभी विनाश नहीं होता। उस उद्देश्यकी सिद्धि मनुष्यजन्ममें ही होती है और उसकी सिद्धिके लिये ही मनुष्यशरीर मिला है? न कि कर्मजन्य परिस्थितिरूप सुखदुःख भोगनेके लिये। कर्मजन्य परिस्थिति वह होती है? जो उत्पन्न और नष्ट होती हो। वह परिस्थिति तो मनुष्यके अलावा पशुपक्षी? कीटपतङ्ग? वृक्षलता? नारकीयस्वर्गीय आदि योनियोंके प्राणियोंको भी मिलती है? जहाँ कर्तव्यका कोई प्रश्न ही नहीं है और जहाँ उद्देश्यकी पूर्तिका अधिकार भी नहीं है।भगवान्के द्वारा अपने मतको निश्चितम् कहनेका तात्पर्य है कि इस मतमें सन्देहकी कोई गुंजाइश नहीं है? यह मत अटल है अर्थात् यह किञ्चिन्मात्र भी इधरउधर नहीं हो सकता और उत्तमम् कहनेका तात्पर्य है कि,इस मतमें शास्त्रीय दृष्टिसे कोई कमी नहीं है? प्रत्युत यह पूर्णताको प्राप्त करानेवाला है। सम्बन्ध -- इसी अध्यायके चौथे श्लोकमें भगवान्ने तीन प्रकारके त्यागकी बात कही थी। अब आगेके तीन श्लोकोंमें उसी त्रिविध त्यागका वर्णन करते हैं।
।।18.6।। इन यज्ञ? दान और तपरूप कर्मों का भी पालन करना चाहिए। सम्पूर्ण गीता में संग अर्थात् आसक्ति शब्द का प्रयोग अनेक स्थलों पर हुआ है? जिसका अपना एक विशेष अर्थ है। यह शब्द? कर्तृत्वाभिमानी जीव का अपने कर्मफल के साथ संबंध बताने वाला है। उदाहरणार्थ? नव विवाहित दम्पत्ति को पुत्र की इच्छा होती है। यह सामान्य इच्छा है। परन्तु? यदि वे कहें? हमें पुत्र ही चाहिए? पुत्री नहीं? तो उनका यह आग्रह संग या आसक्ति है। ऐसा आग्रह रखना अविवेक का ही लक्षण है।आसक्ति से अभिभूत पुरुष अपने इष्टफल को प्राप्त करने में अविवेकपूर्ण या आत्मघातक चिन्ताओं से ग्रस्त हो जाता है। फल प्राप्ति के पूर्व ही उसके विषय में चिन्ता और व्याकुलता होने से मनुष्य की कार्यकुशलता समाप्तप्राय हो जाती है। इसलिए भगवान् का उपदेश है कि यज्ञादिक कर्म भी फलासक्ति के बिना करने चाहिए। यह भगवान् श्रीकृष्ण का अपना मत है। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि उनका यह सर्वथा मौलिक मत है। वेदों में भी निष्काम कर्म के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है।कर्मयोग के जीवन को अपनाने से अन्तकरण की शुद्धि के द्वारा मनुष्य अपने नित्य शुद्धबुद्ध मुक्त स्वरूप का साक्षात्कार कर सकता है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को स्नेहपूर्वक पार्थ कहकर सम्बोधित करते हैं? जो निकट का संबंध बताने वाला नाम है। भगवान् चाहते हैं कि अर्जुन इसी जीवन पद्धति का,अवलम्बन करे।यज्ञादि कर्मों की कर्तव्यता को दर्शाने के पश्चात्? भगवान् आगे कहते हैं
।।18.6।।प्रतिज्ञातमर्थमुपसंहरति -- एतान्यपीति। उपसंहारश्लोकाक्षराणि व्याकरोति -- एतानीत्यादिना। अक्षरार्थमुक्त्वा तात्पर्यार्थमाह -- निश्चयमिति। प्रकृतार्थोपसंहारे गमकमाह -- एतान्यपीति। अपिशब्दस्य विवक्षितमर्थं दर्शयति -- सासङ्गस्येति। व्यावर्त्यं कीर्तयति -- नत्विति। एतान्यपीत्यादिवाक्यं न नित्यकर्मविषयमिति मतमुपन्यस्यति -- अन्य इति। न चेदिदं नित्यकर्मविषयं किंविषयं तर्हीत्याशङ्क्य वाक्यमवतार्य व्याकरोति -- एतानीत्यादिना। नित्यानामफलत्वमुपेत्य यच्चोद्यं तदयुक्तमिति दूषयति -- तदसदिति। यत्तु काम्यान्यपि कर्तव्यानीति तन्निरस्यति -- नित्यान्यपीति। किञ्च काम्यानां भगवता निन्दितत्वान्न तेषु मुमुक्षोरनुष्ठानमित्याह -- दूरेणेति। किञ्च मुमुक्षोरपेक्षितमोक्षापेक्षया विरुद्धफलत्वात्काम्यकर्मणां न तेषु तस्यानुष्ठानमित्याह -- यज्ञार्थादिति। काम्यानां बन्धहेतुत्वं निश्चितमित्यत्रैव पूर्वोत्तरवाक्यानुकूल्यं दर्शयति -- त्रैगुण्येति। किञ्च पूर्वश्लोके यज्ञादिनित्यकर्मणां प्रकृतत्वादेतच्छब्देन संनिहितवाचिना परामर्शात्काम्यकर्मणां चकाम्यानां कर्मणाम् इति व्यवहितानां संनिहितपरामर्शकैतच्छब्दाविषयत्वान्न काम्यकर्माण्येतान्यपीति व्यपदेशमर्हतीत्याह -- दूरेति।
।।18.6।। प्रतिज्ञातमर्थपसंहरति। एतानि यज्ञदानतपांसि ससङ्गस्य फलार्थिनो बन्धहेतवोऽपि कर्माणि मुमुक्षुभिः सङ्गं कर्तृत्वाभिनिवेशं फलानि च त्यक्त्वा परित्यज्य चित्तशुद्ध्यर्थ कर्तव्यानीत्येतन्निश्चितं मम परमेश्वरस्य वासुदेवस्य मतम्। यतो ममेदं निश्चितमत उत्तमं सर्वोत्कृष्टम्। उत्तमत्वान्मम निश्चितमितिव वा। त्वया तु मत्संबन्धिना मदीयं निश्चितं मतमेवोपादेयमिति सूचनाय संबोधनं पार्थेति। यत्तु अपिशब्द एवशब्दार्थ इति भाष्यविरुद्धं अन्ये वर्णयन्ति तन्नादर्तव्यम्। सति संभवे स्वार्थत्यागस्यान्याय्यत्वात्।
।।18.6।।एवमत्यागपक्षमुक्त्वा औत्सुक्यात्प्रथमं स्वाभिमतं त्यागात्यागसमुच्चयपक्षं दर्शयति -- एतानीति। तुशब्दः पूर्वोपन्यस्तात्पक्षाद्वैलक्षण्यं दर्शयति। अपिशब्द एवशब्दार्थः। एतान्येव कर्माणि यज्ञदानतपांसि संङ्गं त्यक्त्वा अहमेतेषां कर्ता मयावश्यमेतानि कर्तव्यानीत्यभिमानं वयोवर्णाद्यध्यासनिमित्तं त्यक्त्वा एतैः कृतैरहं स्वर्गं वा चित्तशुद्धिं वा ज्ञानं वा प्राप्स्यामीति फलानि च त्यक्त्वा? चकारादेषामकरणे मम प्रत्यवायो भविष्यतीत्येतमप्यभिसन्धिं त्यक्त्वा ब्रह्मनिष्ठेनेवासङ्गस्वभावेन पुरुषेण कर्तव्यानीति एवं प्रकारं मे मम मतम् उत्तमं पूर्वमताच्छ्रेष्ठम्। तत्र हि कर्तृत्वाभिमानरूपेण सङ्गेन प्रत्यवायोत्पादभयाच्च कर्मानुष्ठानं विहितम्। अत्र तु तदभावादसङ्गत्वाद्यंशेन कर्मणां त्यागः स्वरूपेणात्याग इति भेदः।
।।18.6।।यस्मात् मनीषिणां यज्ञदानतपःप्रभृतीनि पावनानि? तस्माद् उपासनवद् एतानि अपि यज्ञादीनि कर्माणि मदाराधनरूपाणि सङ्गं कर्मणि ममतां फलानि च त्यक्त्वा अहरह आप्रयाणाद् उपासननिर्वृत्तये मुमुक्षुणा कर्तव्यानि इति मम निश्चितम् उत्तमं मतम्।
।।18.6।।येन प्रकारेण कृतान्येतानि पावनानि भवन्ति तं प्रकारं दर्शयन्नाह -- एतानीति। यानि यज्ञादिकर्माणि मया पावनानीत्युक्तं एतान्येव कर्तव्यानि। कथम्। सङ्गं कर्तृत्वाभिनिवेशं त्यक्त्वा केवलमीश्वराराधनतया कर्तव्यानीति फलानि च त्यक्त्वा कर्तव्यानीति च निश्चितं मे मम मतम्। अत एवोत्तमम्।
।।18.6।।एवं पावनत्वोक्त्यात्याज्यं दोषवत् [18।3] इति पक्षः प्रतिक्षिप्तः।निश्चयं श्रृणु [18।4] इत्यादिनोक्त एवार्थःएतान्यपि इति श्लोकेन निर्दोषत्वाध्यवसायार्थं निगमनात्मना दृढीक्रियत इत्यपुनरुक्तिः। हेतुसाध्यभावेन पूर्वोत्तरग्रन्थौ सङ्गमयतियस्मादिति। मनीषिशब्दसूचितोपासनसमानयोगक्षेमताद्योतनाय अपिशब्द इत्याह -- उपासनवदेतान्यपीति। परमात्मप्रीतिद्वारा कर्मणां पावनत्वादिसिद्ध्यर्थमाहमदाराधनरूपाणीति। सङ्गशब्दस्य फलत्यागोक्त्या पुनरुक्तिं परिहरतिकर्मणि ममतामिति।निश्चितमिति -- नात्र पुनस्त्वया संशयितव्यमिति भावः।उत्तममिति -- असर्वज्ञानामन्येषामेतद्विरुद्धं स्वरूपत्यागादिमतं सर्वमधमत्वादनादरणीयमिति भावः।
।।18.4 -- 18.11।।तदत्रैव विशेषनिर्णयाय मतान्युपन्यस्यति -- त्याज्यमिति। दोषवत् हिंसादिमत्त्वात् ( S हिंसादित्त्वात ?N हिंसादिसत्त्वात् ) पापयुक्तम्। तत् कर्म,( S??N substitutes फलं for कर्म ) त्याज्यम्? न सर्वं शुभफलम् इति केचित् त्यागे विशेषं मन्यन्ते सांख्यगृह्या इव। अन्ये तु मीमांसककञ्चुकानुप्रविष्टाः ( K मीमांसाकंचुक -- ) -- क्रत्वर्थोऽहि शास्त्रादवगम्यते ( S. IV? i? 2 ) इति। तथातस्माद्या वैदिकी हिंसा -- ( SV. I? i? 2? verse 23 )इत्यादिनयेन इतिकर्तव्यतांशभागिनी हिंसा ( S??N omit हिंसा ) हिंसैव न भवति। न हिंस्यात् इति सामान्यशास्त्रस्य तत्र बाधनात् श्येनाद्येव तु ( श्येन द्येव न तु ) हिंसा।फलांशे भावनायाश्च प्रत्ययोऽनुविधायकः ( SV? I? i? 2? verse 222 ) इति। अ [ तोऽ ] न्यान् हिंसादियोगिनोऽपि न त्यजेत्। शास्त्रैकशरणकार्याकार्यविभागाः पण्डिता इति मन्यन्ते।।3।।निश्चयमित्यादि अभिधीयते इत्यन्तम्। तत्र त्वयं निश्चयः -- प्राग्लक्षितगुणस्वरूपवैचित्र्यात् त्यागस्यैव सत्त्वरजस्तमोमय्या चित्तवृत्त्या क्रियमाणस्य तद्विशिष्टस्वभावावभासित [ त्वात् ] वस्तुस्थित्या त्यागो नाम परब्रह्मविदां ( ? N परमब्रह्म -- ) सिद्ध्यसिद्ध्यादिषु समतया रागद्वेषपरिहारेण फलप्रेप्साविरहेण ( फलप्रेक्षा) कर्मणां निर्वर्त्तनम्। अत एव आह -- राजसं तामसं च त्यागं कृत्वा न कश्चित् ( न किंचित् ) [ त्याग ] फलसंबन्धः? इति। सात्त्विकस्य तु त्यागात् ( त्यागस्य )। शास्त्रार्थपालनात्मकं फलम्। त्यक्तगुणग्रामग्रहस्य पुनर्मुनेः सत्यतः त्यागवाचो युक्तिरुपपत्तिमती।
।।18.6।।यदि यज्ञदानतपसामन्तःकरणशोधने सामर्थ्यमस्ति तर्हि फलाभिसन्धिना कृतान्यपि तानि तच्छोधकानि भवष्यन्ति कृतं फलाभिसन्धित्यागेनेत्यत आह -- एतान्यपीति। तुशब्दः शङ्कानिराकरणार्थः। यद्यपि काम्यान्यपि शुद्धिमादधति धर्मस्वाभाव्यात्तथापि सा तत्फलभोगोपयोगिन्येव न ज्ञानोपयोगिनी। तदुक्तं वार्तिककृद्भिःकाम्येऽपि शुद्धिरस्त्येव भोगसिद्ध्यर्थमेव सा। विड्वराहादिदेहेन न ह्यैन्द्रं भुज्यते फलं इति। ज्ञानोपयोगिनीं तु शुद्धिमादधति यानि यानि यज्ञादीनि कर्माणि एतानि फलाभिसन्धिपूर्वकत्वेन बन्धनहेतुभूतान्यपि मुमुक्षुभिः सङ्गमहमेवं करोमीति कर्तृत्वाभिनिवेशं फलानि चाभिसन्धीयमानानि त्यक्त्वाऽन्तःकरणशुद्धये कर्तव्यानीति मे मम निश्चितम्। अतएव हे पार्थ? कर्माधिकृतैः कर्माणि त्याज्यानि न त्याज्यानि वेति द्वयोर्मतयोर्न त्याज्यानीति मम निश्चितं मतमुत्तमं श्रेष्ठम्। यदुक्तं निश्चयं शृणु मे तत्रेति सोऽयं निश्चय उपसंहृतःभगवत्पूज्यपादानामभिप्रायोऽयमीरितः। अनिष्णाततया भाष्ये दुरापो मन्दबुद्धिभिः।
।।18.6।।यथा कृतानि पावनानि भवन्ति तथाऽऽह -- एतानीति। तु पुनः पावनार्थकान्यपि एतानि यज्ञादीनि कर्माणि -- सङ्गं तदभिनिवेशं? च पुनः फलानि स्वर्गसुखादीनि (त्यक्त्वा) मदाज्ञात्वेन कर्त्तव्यानि इति मे निश्चितं पूर्वोक्तमतेषु उत्तमं मतम्।
।।18.6।। --,एतान्यपि तु कर्माणि यज्ञदानतपांसि पावनानि उक्तानि सङ्गम् आसक्तिं तेषु त्यक्त्वा फलानि च तेषां परित्यज्य कर्तव्यानि इति अनुष्ठेयानि इति मे मम निश्चितं मतम् उत्तमम्।।निश्चयं शृणु मे तत्र (गीता 18।4) इति प्रतिज्ञाय? पावनत्वं च हेतुम् उक्त्वा? एतान्यपि कर्माणि कर्तव्यानि इत्येतत् निश्चितं मतमुत्तमम् इति प्रतिज्ञातार्थोपसंहार एव? न अपूर्वार्थं वचनम्? एतान्यपि इति प्रकृतसंनिकृष्टार्थत्वोपपत्तेः। सासङ्गस्य फलार्थिनः बन्धहेतवः एतान्यपि कर्माणि मुमुक्षोः कर्तव्यानि इति अपिशब्दस्य अर्थः। न तु अन्यानि कर्माणि अपेक्ष्य एतान्यपि इति उच्यते।।अन्ये तु वर्णयन्ति -- नित्यानां कर्मणां फलाभावात् सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च इति न उपपद्यते। अतः एतान्यपि इति यानि काम्यानि कर्माणि नित्येभ्यः अन्यानि? एतानि अपि कर्तव्यानि? किमुत यज्ञदानतपांसि नित्यानि इति। तत् असत्? नित्यानामपि कर्मणाम् इह फलवत्त्वस्य उपपादितत्वात् यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि (गीता 18।5) इत्यादिना वचनेन। नित्यान्यपि कर्माणि बन्धहेतुत्वाशङ्कया जिहासोः मुमुक्षोः कुतः काम्येषु प्रसङ्गः दूरेण ह्यवरं कर्म (गीता 2।49) इति च निन्दितत्वात्? यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र (गीता 3।9) इति च काम्यकर्मणां बन्धहेतुत्वस्य निश्चितत्वात्? त्रैगुण्यविषया वेदाः (गीता 2।45) त्रैविद्या मां सोमपाः (गीता 9।19) क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति (गीता 9।21) इति च? दूरव्यवहितत्वाच्च? न काम्येषु एतान्यपि इति व्यपदेशः।।तस्मात् अज्ञस्य अधिकृतस्य मुमुक्षोः --,
।।18.6।।एवं ब्रह्मवादिनां कर्तव्यत्वे प्राप्तेऽपि तु परन्तु सङ्गं स्वकर्तृत्वाभिनिवेशं गुणमयरोचनार्थानि फलानि चोक्तविधया त्यक्त्वा कर्तव्यानीति विचक्षणाभिमतं निश्चितं मे मतम्। उत्तमं चैतत्सर्वमतेष्वित्याह उत्तममिति।