नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।2.16।।
nāsato vidyate bhāvo nābhāvo vidyate sataḥ ubhayorapi dṛiṣhṭo ’nta stvanayos tattva-darśhibhiḥ
The unreal has no being; there is no non-being of the real; the truth about both has been seen by the knowers of the truth (or the seers of the essence).
2.16 न not? असतः of the unreal? विद्यते is? भावः being? न not? अभावः nonbeing? विद्यते is? सतः of the real? उभयोः of the two? अपि also? दृष्टः (has been) seen? अन्तः the final truth? तु indeed? अनयोः of these? तत्त्वदर्शिभिः by the knowers of the Truth.Commentary -- The changeless? homogeneous Atman or the Self always exists. It is the only solid Reality. This phenomenal world of names and forms is ever changing. Hence it is unreal. The sage or the Jivanmukta is fully aware that the Self always exists and that this world is like a mirage. Through his Jnanachakshus or the eye of intuition? he directly cognises the Self. This world vanishes for him like the snake in the rope? after it has been seen that only the rope exists. He rejects the names and forms and takes the underlying Essence in all the names and forms? viz.? AstiBhatiPriya or Satchidananda or ExistenceKnowledgeBliss Absolute. Hence he is a Tattvadarshi or a knower of the Truth or the Essence.What is changing must be unreal. What is constant or permanent must be real.
2.16।। व्याख्या -- 'नासतो विद्यते भावः'-- शरीर उत्पत्तिके पहले भी नहीं था मरनेके बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी इसका क्षणप्रतिक्षण अभाव हो रहा है। तात्पर्य है कि यह शरीर भूत भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालोंमें कभी भावरूपसे नहीं रहता। अतः यह असत् है। इसी तरहसे इस संसारका भी भाव नहीं है यह भी असत् है। यह शरीर तो संसारका एक छोटासानमूना है इसलिये शरीरके परिवर्तनसे संसारमात्रके परिवर्तनका अनुभव होता है कि इस संसारका पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव होगा तथा वर्तमानमें भी अभाव हो रहा है। संसारमात्र कालरूपी अग्निमें लकड़ीकी तरह निरन्तर जल रहा है। लकड़ीके जलनेपर तो कोयला और राख बची रहती है पर संसारको कालरूपी अग्नि ऐसी विलक्षण रीतिसे जलाती है कि कोयला अथवा राख कुछ भी बाकी नहीं रहता। वह संसारका अभावहीअभाव कर देती है। इसलिये कहा गया है कि असत्की सत्ता नहीं है। 'नाभावो विद्यते सतः'-- जो सत् वस्तु है उसका अभाव नहीं होता अर्थात् जब देह उत्पन्न नहीं हुआ था तब भी देही था देह नष्ट होनेपर भी देही रहेगा और वर्तमानमें देहके परिवर्तनशील होनेपर भी देही उसमें ज्योंकात्यों ही रहता है। इसी रीतिसे जब संसार उत्पन्न नहीं हुआ था उस समय भी परमात्मतत्त्व था संसारका अभाव होनेपर भी परमात्मतत्त्व रहेगा और वर्तमानमें संसारके परिवर्तनशील होनेपर भी परमात्मतत्त्व उसमें ज्योंकात्यों ही है। मार्मिक बात संसारको हम एक ही बार देख सकते हैं दूसरी बार नहीं। कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है अतः एक क्षण पहले वस्तु जैसी थी दूसरे क्षणमें वह वैसी नहीं रहती जैसे सिनेमा देखते समय परदेपर दृश्य स्थिर दीखता है पर वास्तवमें उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। मशीनपर फिल्म तेजीसे घूमनेके कारण वह परिवर्तन इतनी तेजीसे होता है कि उसे हमारी आँखें नहीं पकड़ पातीं (टिप्पणी प0 56.1) । इससे भी अधिक मार्मिक बात यह है कि वास्तवमें संसार एक बार भी नहीं दीखता। कारण कि शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि जिन करणोंसे हम संसारको देखते हैं अनुभव करते हैं वे करण भी संसारके ही हैं। अतः वास्तवमें संसारसे ही संसार दीखता है। जो शरीरसंसारसे सर्वथा सम्बन्धरहित है उस स्वरूपसे संसार कभी दीखता ही नहीं तात्पर्य यह है कि स्वरूपमें संसारकी प्रतीति नहीं है। संसारके सम्बन्धसे ही संसारकी प्रतीति होती है। इससे सिद्ध हुआ कि स्वरूपका संसारसे कोई सम्बन्ध है ही नहीं। दूसरी बात संसार (शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि) की सहायताके बिना चेतनस्वरूप कुछ कर ही नहीं सकता। इससे सिद्ध हुआ कि मात्र क्रिया संसारमें ही है स्वरूपमें नहीं। स्वरूपका क्रियासे कोई सम्बन्ध है ही नहीं। संसारका स्वरूप है क्रिया और पदार्थ। जब स्वरूपका न तो क्रियासे और न पदार्थसे ही कोई सम्बन्ध है तब यह सिद्ध हो गया कि शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धिसहित सम्पूर्ण संसारका अभाव है। केवल परमात्मतत्त्वका ही भाव (सत्ता) है जो निर्लिप्तरूपसे सबका प्रकाशक और आधार है। 'उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः'-- इन दोनोंके अर्थात् सत्असत् देहीदेहके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंने इनका तत्त्व देखा है इनका निचोड़ निकाला है कि केवल एक सत्तत्त्व ही विद्यमान है। असत् वस्तुका तत्त्व भी सत् है और सत् वस्तुका तत्त्व भी सत् है अर्थात् दोनोंका तत्त्व एक सत् ही है दोनोंका तत्त्व भावरूपसे एक ही है। अतः सत् और असत् इन दोनोंके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंके द्वारा जाननेमें आनेवाला एक सत्तत्त्व ही है। असत्की जो सत्ता प्रतीत होती है वह सत्ता भी वास्तवमें सत्की ही है। सत्की सत्तासे ही असत् सत्तावान् प्रतीत होता है। इसी सत्को 'परा प्रकृति' (गीता 7। 5) 'क्षेत्रज्ञ' (गीता 13। 12) 'पुरुष' (गीता 13। 19) और 'अक्ष' (गीता 15। 16) कहा गया है तथा असत्को 'अपरा प्रकृति क्षेत्र प्रकृति' और 'क्षर' कहा गया है। अर्जुन भी शरीरोंको लेकर शोक कर रहे हैं कि युद्ध करनेसे ये सब मर जायँगे। इसपर भगवान् कहते हैं कि क्या युद्ध न करनेसे ये नहीं मरेंगे असत् तो मरेगा ही और निरन्तर मर ही रहा है। परन्तु इसमें जो सत्रूपसे है उसका कभी अभाव नहीं होगा। इसलिये शोक करना तुम्हारी बेसमझी ही है। ग्यारहवें श्लोकमें आया है कि जो मर गये हैं और जो जी रहे हैं उन दोनोंके लिये पण्डितजन शोक नहीं करते। बारहवेंतेरहवें श्लोकोंमें देहीकी नित्यताका वर्णन है उसमें 'धीर' शब्द आया है। चौदहवेंपंद्रहवें श्लोकोंमें संसारकी अनित्यताका वर्णन आया है तो उसमें भी 'धीर' शब्द आया है। ऐसे ही यहाँ (सोलहवें श्लोकमें) सत्असत्का विवेचन आया है तो इसमें 'तत्त्वदर्शी' (टिप्पणी प0 56.2) शब्द आया है। इन श्लोकोंमें 'पण्डित धीर' और 'तत्त्वदर्शी' पद देनेका तात्पर्य है कि जो विवेकी होते हैं समझदार होते हैं उनको शोक नहीं होता। अगर शोक होता है तो वे विवेकी नहीं हैं समझदार नहीं हैं। सम्बन्ध-- सत् और असत् क्या है इसको आगेके दो श्लोकोंमें बताते हैं।
।।2.16।। वेदान्त शास्त्र में सत् असत् का विवेक अत्यन्त वैज्ञानिक पद्धति से किया गया है। हमारे दर्शनशास्त्र में इन दोनों की ही परिभाषायें दी हुई हैं। असत् वस्तु वह है जिसकी भूतकाल में सत्ता नहीं थी और भविष्य में भी वह नहीं होगी परन्तु वर्तमान में उसका अस्तित्व प्रतीतसा होता है। माण्डूक्य कारिका की भाषा में जिसका अस्तित्व प्रारम्भ और अन्त में नहीं है वह वर्तमान में भी असत् ही है हमें दिखाई देने वाली वस्तुयें मिथ्या होने पर भी उन्हें सत् माना जाता है।स्वाभाविक ही सत्य वस्तु वह है जो भूतवर्तमान भविष्य इन तीनों कालों में भी नित्य अविकारी रूप में रहती है। सामान्य व्यवहार में यदि कोई व्यक्ति किसी स्तम्भ को भूत समझ लेता है तो स्तम्भ की दृष्टि से भूत को असत् कहा जायेगा क्योंकि भूत अनित्य है और स्तम्भ का ज्ञान होने पर वहाँ रहता नहीं। इसी प्रकार स्वप्न से जागने पर स्वप्न के बच्चों के लिये हमें कोई चिन्ता नहीं होती क्योंकि जागने पर स्वप्न के मिथ्यात्व का हमें बोध होता है। प्रतीत होने पर भी स्वप्न मिथ्या है। अत तीनों काल में अबाधित वस्तु ही सत्य कहलाती है।शरीर मन और बुद्धि इन जड़ उपाधियों के साथ हमारा जीवन परिच्छिन्न है क्योंकि इनके द्वारा प्राप्त बाह्य विषय भावना और विचारों के अनुभव क्षणिक होते हैं। इन तीनों में ही नित्य परिवर्तन हो रहा है। एक अवस्था का नाश दूसरी अवस्था की उत्पत्ति है। परिभाषा के अनुसार ये सब असत् हैं।क्या इनके पीछे कोई सत्य वस्तु है इसमें कोई संदेह नहीं कि वस्तुओं में होने वाले परिवर्तनों के लिये किसी एक अविकारी अधिष्ठान आश्रय की आवश्यकता है। शरीर मन और बुद्धि के स्तर पर होने वाले असंख्य अनुभवों को एक सूत्र में धारण कर एक पूर्ण जीवन का अनुभव कराने के लिये निश्चय ही एक नित्य अपरिर्तनशील सत् वस्तु का अधिष्ठान आवश्यक है।मणियों को धारण करने वाले एक सूत्र के समान हममें कुछ है जो परिवर्तनों के मध्य रहते हुये विविध अनुभवों को एक साथ बांधकर रखता है। सूक्ष्म विचार करने पर यह ज्ञान होगा कि वह कुछ अपनी स्वयं की चैतन्य स्वरूप आत्मा है। असंख्य अनुभव जो प्रकाशित हुये उनमें से कोई अनुभव आत्मा नहीं है। जीवन जो कि अनुभवों की एक धारा है योग है इस चैतन्य के कारण ही सम्भव है। बाल्यावस्था युवावस्था और वृद्धावस्था में होने वाले अनुभवों को यह चैतन्य ही प्रकाशित करता है। अनुभव आते हैं और जाते हैं। जिस चैतन्य के कारण मैंने सबको जाना जिसके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है वह चैतन्य आत्मा जन्म और नाश से रहित नित्य सत्य वस्तु है।तत्त्वदर्शी पुरुष इन दोनों सत् और असत् आत्मा और अनात्मा के तत्त्व को पहचानते हैं। इन दोनों के रहस्यमय संयोग से यह विचित्र जगत् उत्पन्न होता है।फिर वह नित्य सद्वस्तु क्या है सुनो
।।2.16।।अधिकारिविशेषणे तितिक्षुत्वे हेत्वन्तरपरत्वेनोत्तरश्लोकमवतारयति इतश्चेति। इतःशब्दार्थमेव स्फुटयति यस्मादिति। यतः शीतादेः शोकादिहेतोरनात्मनो नास्ति वस्तुत्वं वस्तुनश्चात्मनो निर्विकारत्वेनैकरूपत्वमतो मुमुक्षोर्विशेषणं तितिक्षुत्वं युक्तमित्याह नेत्यादिना। कार्यस्यासत्त्वेऽपि कारणस्य सत्त्वे नात्यन्तासत्त्वासिद्धिरित्याशङ्क्य विशिनष्टि सकारणस्येति। नासत इत्युपादाय पुनर्नकारानुकर्षणमन्वयार्थम्। असतः शून्यस्यास्तित्वप्रसङ्गाभावादप्रसक्तप्रतिषेधप्रसक्तिरित्याशङ्क्याह नहीति। विमतमतात्त्विकमप्रामाणिकत्वाद्रज्जुसर्पवत् नहि धर्मिग्राहकस्य प्रत्यक्षादेस्तत्त्वावेदकं प्रामाण्यं कल्प्यते विषयस्य दुर्निरूपत्वादतोऽनिर्वाच्यं द्वैतमित्यर्थः। कथं पुनरध्यक्षादिविषयस्य शीतोष्णादिद्वैतस्य दुर्निरूपत्वेनानिर्वाच्यत्वं तत्राह विकारो हीति। ततश्च विमतं मिथ्या आगमापायित्वात्संप्रतिपन्नवदिति फलितमाह विकारश्चेति। वाचारम्भणश्रुतेर्द्वैतमिथ्यात्वेऽनुग्राहकत्वं दर्शयितुं चकारः। किञ्च कार्यं कारणाद्भिन्नमभिन्नं वेति विकल्प्याद्यं दूषयति यथेति। निरूप्यमाणमन्तर्बहिश्चेति शेषः। विमतं कारणान्न तत्त्वतो भिद्यते कार्यत्वाद्धटवदित्यर्थः। इतोऽपि कारणाद्भेदेन नास्ति कार्यम्आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा इति न्यायादित्याह जन्मेति। यदि कार्यं कारणादभिन्नं तदा तस्य भेदेनासत्त्वे पूर्वस्मादविषयः। तादात्म्येनावस्थानं तु न युक्तं तस्यापि कारणव्यतिरेकेणाभावात्। कार्यकारणविभागविधुरे वस्तुनि कार्यकारणपरम्पराया विभ्रमत्वादित्यभिप्रेत्याह मृदादीति। कार्यकारणविभागविहीनं वस्त्वेव नास्तीति मन्वानश्चोदयति तदसत्त्व इति। अनुवृत्तव्यावृत्तबुद्धिद्वयदर्शनादनुवृत्ते च व्यावृत्तानां कल्पितत्वादकल्पितं सर्वभेदकल्पनाधिष्ठानमकार्यकारणं वस्तु सिध्यतीति परिहरति न सर्वत्रेति। संप्रति सतो वस्तुत्वे प्रमाणमनुमानमुपन्यस्यति यद्विषयेति। यद्व्यावृत्तेष्वनुवृत्तं तत्सत् यथा सर्पधारादिष्वनुगतोरज्ज्वादेरिदमंशः। विमतं सत्यमव्यभिचारित्वात्संप्रतिपन्नवदित्यर्थः। व्यावृत्तस्य कल्पितत्वे प्रमाणमाह यद्विषयेत्यादिना। यद्व्यावृत्तं तन्मिथ्या यथा सर्पधारादि विमतं मिथ्या व्यभिचारित्वात्संप्रतिपन्नवदित्यर्थः इत्यनुमानद्वयमनुसृत्य सतोऽकल्पितत्वमसतश्च कल्पितत्वं स्थितमिति शेषः। ननु नेदमनुमानद्वयमुपपद्यते समस्तद्वैतवैतथ्यवादिनो विभागाभावादनुमानादिव्यवहारानुपपत्तेस्तत्राह सदसदिति। उक्ते विभागे बुद्धिद्वयाधीने स्थिते सत्यनुमानादिव्यवहारो निर्वहति प्रातिभासिकविभागेन वियोगात्परमार्थस्यैव तद्धेतुत्वे केवलव्यतिरेकाभावादित्यर्थः। कुतः सदसद्विभागस्य बुद्धिद्वयाधीनत्वं बुद्धिविभागस्यापि तत्राभावात्तत्राह सर्वत्रेति। व्यवहारभूमिः सप्तम्यर्थः। बुद्धिविभागस्यापि कल्पितस्यैव बोध्यविभागप्रतिभासहेतुतेति भावः। बुद्धिद्वयमनुरुध्य सदसद्विभागो सतः सामान्यरूपतया विशेषाकाङ्क्षायां सामान्यविशेषे द्वे वस्तुनी वस्तुभूते स्यातामिति चेत्तत्राह समानाधिकरण इति। पदयोः सामानाधिकरण्यं बुद्ध्योरुपचर्यते सोऽयमिति सामानाधिकरण्यवद्धटः सन्नित्यादि सामानाधिकरण्यमेकवस्तुनिष्ठं वस्तुभेदे घटपटयोरिव तदयोगादित्यर्थः। नीलमुत्पलमितिवद्धर्मधर्मिविषयतया सामानाधिकरण्यस्य सुवचत्वान्न वस्त्वैक्यविषयत्वमिति चेन्नेत्याह न नीलेति। नहि सामान्यविशेषयोर्भेदेऽभेदे च तद्भावो भेदाभेदौ च विरुद्धावतो जातिव्यक्त्योः सामानाधिकरण्यं नीलोत्पलयोरिव न गौणं किंतु व्यावृत्तमनुवृत्ते कल्पितमित्येकनिष्ठमित्यर्थः। सामान्यविशेषयोरुक्तन्यायं गुणगुण्यादावतिदिशति एवमिति। तुल्यौ हि तत्रापि विकल्पदोषाविति भावः। सामानाधिकरण्यानुपपत्त्या द्वे वस्तुनी सामान्यविशेषाविति पक्षं प्रतिक्षिप्य विशेषाएव वस्तूनीति पक्षं प्रतिक्षिपति तयोरिति। बुद्धिव्यभिचाराद्बोध्यव्यभिचारोऽपि कथं व्यावृत्तानां विशेषाणामवस्तुत्वमित्याशङ्क्याह तथाचेति। विकारो हि स इत्यादाविति शेषः। न चैकं वस्तु सामान्यविशेषात्मकमेकस्य द्वैरूप्यविरोधादित्यभिप्रेत्य सामान्यमेकमेव वस्तु तद्बुद्धेरव्यभिचाराद् बोधस्यापि सतस्तथात्वादित्याह नत्विति। व्यभिचरतीति पूर्वेण संबन्धः। विशेषाणां व्यभिचारित्वे सतश्चाव्यभिचारित्वे फलितमुपसंहरति तस्मादिति। असत्त्वं कल्पितत्वम्। तच्छब्दार्थमेव स्फोरयति व्यभिचारादिति। सद्बुद्धिविषयस्य सतोऽकल्पितत्वे तच्छब्दोपात्तमेव हेतुमाह अव्यभिचारादिति। सद्बुद्धिव्यभिचारद्वारा बोध्यस्यापि व्यभिचारात्तदव्यभिचारित्वहेतोरसिद्धिरिति शङ्कते घटे विनष्ट इति। सद्बुद्धेर्घटमात्रबुद्धिवद्धटविषयत्वाभावान्न घटनाशे व्यभिचारोऽस्तीति परिहरति न पटादाविति। सद्बुद्धेरघटविषयत्वे निरालम्बनत्वायोगाद् विषयान्तरं वक्तव्यमित्याशङ्क्याह विशेषणेति। सतोऽकल्पितत्वहेतोरव्यभिचारित्वस्यासिद्धिमुद्धृत्य विशेषाणां कल्पितत्वहेतोर्व्यभिचारित्वस्यासिद्धिं शङ्कते सदिति। यथा सद्बुद्धिर्घटे नष्टे पटादौ दृष्टत्वादव्यभिचारिणी अव्यभिचारः सतो दर्शितस्तथा घटबुद्धिरपि घटे नष्टे घटान्तरे दृष्टेत्यव्यभिचाराद्धटे व्यभिचारासिद्धौ विशेषान्तरेष्वपि कल्पितत्वहेतोर्व्यभिचारो न सिध्यतीत्यर्थः। घटबुद्धेर्घटान्तरे दृष्टत्वेऽपि पटादावदृष्टत्वेन व्यभिचारात् पटादिविशेषेष्वपि व्यभिचारित्वसिद्धिरित्युत्तरमाह पटादाविति। विशेषाणामेवं व्यभिचारित्वे सतोऽपि तदुपपत्तेरव्यभिचारित्वहेतुसिद्धितादवस्थ्यमिति शङ्कते सद्बुद्धिरिति। घटादिनाशदेशे तदुपरक्ताकारेण सत्त्वाभानेऽपि नासत्त्वं घटाद्यभावाधिष्ठानतया भानादित्याह न विशेष्येति। यथा सर्वगता जातिरित्यत्र खण्डमुण्डादिव्यक्त्यभावदेशे गोत्वं व्यञ्जकाभावान्न व्यज्यते न गोत्वाभावात् तथा सत्त्वमपि घटादिनाशे व्यञ्जकाभावान्न भाति न स्वरूपाभावादित्युक्तमेव प्रपञ्चयति सदित्यादिना। सप्रतियोगिकविशेषणत्वव्यभिचारेऽपि स्वरूपाव्यभिचाराद्युक्तं सतः सत्त्वमिति भावः। द्वयोः सतोरेव विशेषणविशेष्यत्वदर्शनाद्धटसतोरपि विशेषणविशेष्यत्वे द्वयोः सत्त्वध्रौव्याद्धटादिविकल्पितत्वानुमानं सामानाधिकरण्यधीबाधितमिति चोदयति एकेति। अनुभवमनुसृत्य बाधितविषयत्वमुक्तानुमानस्य निरस्यति नेत्यादिना। घटादेः सति कल्पितत्वानुमानस्य दोषराहित्ये फलितमुपसंहरति तस्मादिति। प्रथमपादव्याख्यानपरिसमाप्तावितिशब्दः। ननु नेदं व्याख्यानं भाष्यकाराभिप्रेतं सर्वद्वैतशून्यत्वविवक्षायां शास्त्रतद्भाष्यविरोधात्केनापि पुनर्दुर्विदग्धेन स्वमनीषिकयोत्प्रेक्षितमेतदिति चेत् मैवम् किमिदं द्वैतप्रपञ्चस्य शून्यत्वं किं तुच्छत्वं किं सद्विलक्षणत्वं नाद्योऽनभ्युपगमात् द्वितीयानभ्युपगमे तु तवैव शास्त्रविरोधो भाष्यविरोधश्च सर्वं हि शास्त्रं तद्भाष्यं च द्वैतस्य सत्यत्वानधिकरणत्वसाधनेनाद्वैतसत्यत्वे पर्यवसितमिति त्रैविद्यवृद्धैस्तत्र तत्र प्रतिष्ठापितं तथा च प्रक्षेपाशङ्कासंप्रदायपरिचयाभावादिति द्रष्टव्यम्। अनात्मजातस्य कल्पितत्वेनावस्तुत्वप्रतिपादनपरतया प्रथमपादं व्याख्याय द्वितीयपादमात्मनः सर्वकल्पनाधिष्ठानस्याकल्पितत्वेन वस्तुत्वप्रसाधनपरतया व्याकरोति तथेति। नन्वात्मनः सदात्मनो विशेषेषु विनाशिषु तदुपरक्तस्य विनाशः स्यादित्याशङ्क्य विशिष्टनाशेऽपि स्वरूपानाशस्योक्तत्वान्मैवमित्याह सर्वत्रेति। ननु कदाचिदसदेव पुनः सत्त्वमापद्यते प्रागसतो घटस्य जन्मना सत्त्वाभ्युपगमात् स च कदाचिदसत्त्वं प्रतिपद्यते स्थितिकाले सतो घटस्य पुनर्नाशेनासत्त्वाङ्गीकारादेवं सदसतोरव्यवस्थितत्वाविशेषादुभयोरपि हेयत्वमुपादेयत्वं वा तुल्यं स्यादिति तत्राह एवमिति। तुशब्दो दृष्टशब्देन संबध्यमानो दृष्टिमवधारयति। नहि प्रागसतो घटस्य सत्त्वमसत्त्वे स्थिते सत्त्वप्राप्तिविरोधादसत्त्वनिवृत्तिश्च सत्त्वप्राप्त्या चेत्प्राप्तमितरेतराश्रयत्वमन्तरेणैव सत्त्वापत्तिमसत्त्वनिवृत्तावसत्त्वमनवकाशि भवेत्। एतेन सतोऽसत्त्वापत्तिरपि प्रतिनीतेति भावः। कथं तर्हि सतोऽसत्त्वमसतश्च सत्त्वं प्रतिभातीत्याशङ्क्य तत्त्वदर्शनाभावादित्याह तत्त्वेति। तस्य भावस्तत्त्वं नच तच्छब्देन परामर्शयोग्यं किंचिदस्ति। प्रकृतं प्रतिनियतमित्याशङ्क्य व्याचष्टे तदित्यादिना। ननु सदसतोरन्यथात्वं केचित्प्रतिपद्यन्ते केचित्तु तयोरुक्तनिर्णयमनुसृत्य तथात्वमेवाभिगच्छन्ति तत्र केषां मतमेषितव्यमिति तत्राह त्वमपीति।
।।2.16।।शीतोष्णादेः प्रतीयमानत्वेऽपि बाध्यत्वेन मिथ्यात्वात् तद्विपर्ययेणात्मनः सत्यत्वाच्च शोकमोहावकृत्वा शीतोष्णादिसहनं युक्तमित्याह नेति। असतो विचारेण बाध्यत्वात्पूर्वमप्यविद्यमानस्य शीतादेः सकारणस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणैर्निरुप्यमाणस्यापि भावः परमार्थसत्ता न विद्यते। एतेनासतः शून्यस्य नरविषाणतुल्यस्यास्तित्वप्रसङ्गभावादप्रसक्तप्रतिषेध इति प्रयुक्तम्। विमतं शीतादि अतात्त्विकमप्रामाणिकत्वात् शुक्तिरुप्यवत्। धर्मिग्राहकस्य प्रत्यक्षादेस्तात्त्विकप्रामाण्याबोधकत्वदर्शनात् तद्विषयस्य शीतादेरनिर्वाच्यस्यासतो भ्रान्तैर्लोकैः प्रत्यक्षादिभिरुपलभ्यमानत्वात् सत्त्वेन गृहीतस्य भावस्तात्त्विकत्वं नास्तीत्यर्थः। ननु क्वचित्प्रत्यक्षादेस्तात्त्विकप्रामाण्यावेदकत्वदर्शनात्तद्विषयस्य शीतादिद्वैतस्य दुर्निरुपर्त्वेनानिर्वचनीयत्वं न शक्यते वक्तुम्। वेदैकदेशस्य क्रियार्थत्वे ब्रह्मबोधकवेदस्यापि क्रियार्थत्वं यथा। यथावा श्रोत्रादीन्द्रियै रुपानुपलब्ध्या चक्षुषापि तन्नोपलभ्यत इतिचेन्न। शीतादिद्वैतस्य विकारस्यागमापायित्वेनासत्त्वनिर्धारणात्। तथाचायं प्रयोगः विमतमसत् आगमापायित्वाद्रज्जूरगवदिति। तथाचवाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् इत्यादिश्रुत्यापि विकारस्य मिथ्यात्वं बोधितम्। किंच कार्यं कारणान्न भिद्यते कुण्डलादिसंस्थानस्य चक्षुरादिनिरुप्यमाणस्य कनकादिव्यतिरेकेणानुपलब्धेः। ततश्चायं प्रयोगः विमतं न कारणाद्वस्तुतो भिन्नं कार्यत्वात् कुण्डलादिवदिति।आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा इति न्यायात् कार्यस्य जन्मप्रध्वंसाभ्यां प्रागूर्ध्वं चानुपलब्धेः कारणादव्यतिरेकाच्च। सर्वः शीतादिविकारोऽसत् कारणव्यतिरेकेणानुपलब्धेः कुण्डलादिवदिति सर्वस्यापि कारणस्य स्वस्वकारणाध्वतिरेकेणानुपलभ्यमानस्य कार्यकारणपरम्पराभ्रमाधिष्ठाने कल्पितत्वं सिध्यति। ननु कार्यकारणविभागविहीनस्य वस्तुनोऽभावात्कार्यकारणपरम्पराया असत्त्वे सर्वाभावप्रसङ्ग इतिचेन्न। सर्वत्रानुवृत्तव्यावृत्तसदनद्वुद्धिद्वयोपलब्ध्यानुवृत्ते च व्यावृत्तानां कल्पित्वात् अकल्पितस्य सर्वभेदविकल्पाधिष्ठानस्याकार्यकारणस्य वस्तुनः सिद्धेः। तथाच यद्यद्य्वावृत्तेष्वनुवृत्तं तत्तत्परमार्थसत् यथा रजतादिधारास्वनुगतः शुक्त्यादेरिदमंशः विमतं सत् अव्यभिचारित्वादिदमंशवत् यद्य्वावृत्तं तन्मिथ्या यथा रजतादिधारा विमतं मिथ्या व्याभिचारित्वात् रजतादिधारावत् इत्यनुमानद्वयेन सतोऽकल्पितत्वमसतः कल्पितत्वं च सिद्धम्। ननु नेदमनुमानद्वयमुपपद्यते सर्वमिथ्यात्ववादिनो विभागाभावादनुमानादिव्यवहारानुपपत्तेरिति चेन्न सदसद्विभागस्य बुद्य्धायत्तत्वात् बुद्धिद्वयाधीने विभागे स्थिते सत्यनुमानादिव्यवहारोपपत्तेः। नन्वद्वैतवादिनस्तव बुद्धिद्वयाभावात्तदधीनः सदसद्विभागः कथं सेत्स्यतीति श्वेत् सर्वत्र व्यवहारदशायां कल्पितस्य सदसद्विभागस्य हेतुभूतबुद्धिद्वयस्य सर्वैरुपलभ्यमानत्वात्। नन्वेवमपि सतः सामान्यरुपतया विशेषाकाङ्क्षायां सामान्यविशेषरुपे द्वे वस्तुनी स्यातामितिचेन्न। सोऽयमित्यादि सामानाधिकरण्यवद्धटः सन्नित्यादिसामानाधिकरण्यस्यैकवस्तुनिष्ठत्वाद्वस्तुभेदे घटपटयोरिव तदयोगात्। ननूक्तसामानाधिकरण्यस्यैकवस्तुनिष्ठत्वं न वाच्यं नीलमुत्पलमितिवद्धर्मधर्मिविषयतया तस्य सुवचत्वादितिचेन्न। नीलोत्पलमिति सामानाधिकरण्यस्य धर्मधर्मिविषयस्य गौणत्वात्। तदपेक्षयानुवृत्ते व्यावृत्तं कल्पितमिति ऐक्यनिष्ठस्यैव मुख्यस्यौचित्यात्। तथाच सन् घटः सन् पटः सन्हस्ती सन्नश्चः सन् गोरित्येवं बुद्धिद्वयमुपलभ्यते ततोश्च बुद्य्धोर्घटादिबुद्धिर्व्यभिचरति घटादेर्विकारस्य व्यभिचारित्वं पूर्वं दर्शितं नतु सद्बुद्धिर्व्यभिचरति घटे नष्टेऽपि पटादौ तद्दर्शनात्। एतेन घटे नष्टे घटबुद्धौ व्यभिचरन्त्यां सद्बुद्धिरपि व्यभिचरतीति प्रत्युक्तम्। तस्माद्धटादिबुद्धिविषयोऽसत् व्यभिचारात् रज्जूरगवत् सद्बुद्धिविषयस्तु नासत् अव्यभिचारादिदमंशवत्। ननु यथा घटे विनष्टे सद्बुद्धिः पटादौ दृश्टते तथा घटबुद्धिरपि घटान्तर इतिचेन्न। घटबुद्धेः पटादावदर्शनात्। ननु नष्टे घटे सद्बुद्धिरपि तत्र न दृश्यत इति चेन्न। यतो घटादिनाशे व्यक्तिनाशे जातेरिव विशेष्यस्य विशेषणीभूतसत्ताभिव्यञ्जकस्याभावात् सद्बुद्धेरप्यदर्शनं नतु तस्या विषयस्य सत्ताया अभावाददर्शनम्। ननु द्वयोः सतोरेव नीलोत्पलयोर्विशेषविशेष्यत्वदर्शनात् सद्धटयोरपि विशेषणविशेष्यत्वाभ्युपगमे द्वयोः सत्त्वावश्यंभावाद्धटादिकल्पितत्वानुमानं सामानाधिकरण्यबुद्धिबाधितं घटादेः कल्पित्वाभ्युपगमे तस्याभावेन समानाधिकरणत्वस्यायुक्तत्वादिति चेन्न। यतः सामानाधिकरण्यबुद्धिः पदार्थद्वयभानमपेक्षते न द्वयोः सत्त्वम्। मरीच्यादावन्यतरस्याभावेऽपि सदिदमुदकमिति सामानाधिकरण्यदर्शनात्। तस्माद्देहादेः शीतोष्णादेर्द्वन्द्वस्य च सकारणस्य सत्त्वेन कल्पितस्य वस्तुतोऽसतो भावः परमार्थसत्ता न विद्यते। जन्मध्वंसाभ्यां प्रागूर्ध्वं च वस्त्वन्तरे देशान्तरे चानुपलब्धेः। तथा परमार्थसतः अविनाशिनोऽबाध्यस्यात्मनोऽतत्त्वविद्भिरज्ञातत्वादविद्यमानकल्पस्याभावोऽविद्यमानत्वं परमार्थतोऽसत्ता न संभवति सर्वत्राव्यभिचारात् त्रिविधपरिच्छेदशून्यत्वात्। इत्थं भाष्यकृद्भिः सदसतोः साध्यत्वं परिच्छिन्नापरिच्छिन्नत्वयोर्हेतुत्वं च बोधितम्। कैश्चित्तु परिच्छिन्नस्यासतः शीतादेः प्रपञ्चस्य भावः सत्ता पारमार्थिकत्वं स्वान्यूनसत्ताकतादृशपरिच्छेदशून्यत्वं न विद्यते सतः सर्वत्रानुस्यूतसन्मात्रस्याभावः परिच्छिन्नत्वं न विद्यते इति व्याख्यातम्। परिच्छिन्नत्वं च त्रिविधं तत्रात्यन्ताभावप्रतियोगित्वलक्षणं देशतः परिच्छिन्नत्वं ध्वंसप्रतियोगित्वलक्षणं कालतः परिच्छिन्नत्वं अन्योन्याभावप्रतियोगित्वलक्षणं वस्तुतः परिच्छिन्नत्वम्। नन्वात्मनोऽप्याकाशवत्क्वाप्यसमवेतत्वात्समवायसंबन्धेनात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं तस्मिन्नतिव्याप्तं आकाशादेश्च यावन्मूर्तसंयोगित्वनियमात्संयोगसंबन्धेन तस्मिन्नव्याप्तं च अमूर्तनिष्ठेतिविशेषणदाने त्वात्मन्यतिव्याप्तिस्तदवस्था सर्वसंबन्धित्वाभावविवक्षायां सर्वसंबन्धशून्ये परमात्मन्यतिव्याप्तिः। सर्वसंबन्धिन्यज्ञानेऽव्याप्तिश्च। ध्वंसप्रतियोगित्वमप्याकाशादावव्याप्तं तेषां परैर्नित्यत्वाभ्युपगमात् अन्योन्याभावप्रतियोगित्वं चात्मनि व्यभितारि तस्य जडनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगित्वादन्यथास्य जडत्वापत्तेरितिचेन्न। अत्यन्तभावेऽन्योन्याभावे च प्रतियोगिसमसत्ताकत्वविशेषणेनात्मन्यतिव्याप्तिवारणात् अज्ञानाकाशादौ स्वस्वसमानसत्ताकान्योन्याभावात्यन्ताभावप्रतियोगित्वसत्त्नेनाव्यप्त्यभवात्। अविद्याकाशादेर्व्यावहारिकस्य पारमार्थिकाभावपक्षे स्वान्यूनसत्ताकेतिविशेषणं देयम्। अतएव प्रातिभासिकरजतादेर्व्यावहारिकाभावप्रतियोगित्वेऽपि न साधनवैकल्यम्। ध्वंसप्रतियोगित्वं च नाकाशादावव्याप्तम्तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश संभूतः इति श्रुतिसिद्धत्वेन तस्यानुमतत्वात्।आकाशवत्सर्वगतश्च नित्यः इत्यत्रात्मनिदर्शनत्वं तु स्वसमानकालीनसर्वगतत्वेनाभूतसंपल्वस्थायित्वेन चेति द्रष्टव्यम् इति तत्रोदाहृतव्याख्यासत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म इति श्रुतौ ब्रह्मणोऽपरिच्छिन्नत्वबोधकस्यानन्तपदस्य पृथङ्निर्देशात् ब्रह्म सत्यमपरिच्छिन्नत्वात् जगदसत्यं परिच्छिन्नत्वादित्यनुमानद्वये हेतुत्वेनोभयोर्निर्देशादप्रसिद्धार्थकल्पनात्मकेन हेतुसाध्ययोरैक्यापत्तिरुपेण च दोषेण ग्रस्ता यदि भाष्यानुरोधेन योजयितुं शक्या तर्हि निर्दुष्टेति दिक्। ननु सर्वेषामेव कुतो न निर्णय इत्याशङ्क्य सर्वेषां तत्त्वदर्शित्वाभावात्तत्त्वदर्शिनां त्वस्त्येन निर्णय इत्याह उभयोरिति। उभयोरात्मानात्मनोः सदसतोरपि दृष्टोन्तः सत्सदैवासदसदेवेति निर्णयस्तत्त्व दर्शिभिर्ब्रह्मविद्भिः। तस्मात्त्वमपि तेषां दृष्टिमवलम्ब्य शोकमोहौ हित्वा शीतादींस्तितिक्षस्वेत्याशयः।
।।2.16।।नित्य आत्मेत्युक्तम् किमात्मैव नित्य आहोस्विदन्यदपि अन्यदपि तत्किमिति आह नास इति नासतः कारणस्य सतो ब्रह्मणश्चाभावा न विद्यते प्रकृतिः पुरुपश्चैव नित्यां कालश्च सत्तम इति वचनाच्छीविष्णुपुराणं। पृथग्विद्यत इत्यादरार्थः। असतः कारणत्वं च सदसद्रूपया चासों गुणमय्याऽगुणो विभुः इति भागवते असतः सदजायत इति च अव्यक्तेश्च। सम्प्रदायश्चैतत्सिद्धमित्याह उभयोरपीति। अन्तो निर्णयः।
।।2.16।।ननु सुप्तिसमाध्यादौ त्यक्तोपाधेरात्मनः समदुःखसुखत्वेऽपि सोपाधिकदशायां तप्तायःपिण्डस्य दग्धृत्वमिव तस्य दुःखित्वं दुर्वारम्। उपाधिश्च मूलप्रकृतेर्व्यापिकाया मात्रारूप इति तत्सत्त्वे तु न निर्मूलोच्छेदमर्हत्यतः सोऽमृतत्वाय कल्पत इत्यनुपपन्नमित्याशङ्क्याह नासत इति। प्रमात्रादेरागमापायित्वेन कादाचित्कत्वात् रज्जूरगादिवत् असतः भावः सत्ता कालत्रयेऽपि नास्ति। अयमर्थः प्रमात्रादिर्मूलाज्ञानेन चिदात्मनि कल्पितः। मूलाज्ञानस्य चात्मज्ञानेन निवृत्तौ कारणाभावान्न पुनः प्रमात्राद्युद्भवोऽस्तीति निष्प्रत्यूहममृतत्वं ज्ञानात्सिध्यतीति। नन्वप्रतीतिमात्रात्प्रमात्रादेर्मिथ्यात्वोपगमे आत्मनोऽपि सुप्त्यादावप्रतीयमानत्वाविशेषान्मिथ्यात्वमस्तु। उभयोर्वा सत्यत्वमस्तु इत्याशङ्क्याह नाभावो विद्यते सत इति। सद्वस्तुनः अभावोऽसत्त्वं कदाचिदपि न विद्यते। सुषुप्त्यादावपि अनुभूतयोः सुखाज्ञानयोः सुखमहमस्वाप्सं न किञ्चिदवेदिषमिति उत्थाने परामर्शदर्शनात्। तदनुभवमन्तरेण तयोः परमार्शासंभवात्। अतः सतोऽसत्त्वं नास्ति। श्रुतिरपि सुप्तिकैवल्ययोः प्रमात्राद्यभावं दृशो नित्यत्वं चाह।यद्वै तन्न पश्यति पश्यन्वै तन्न पश्यति न हि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्नतु तद्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यत्पश्येत् इति। यदि प्रमात्रादिः सत्यस्तर्हि सतोऽर्थस्य सुषुप्त्यादावदर्शनं सान्निध्याभावाद्वा द्रष्टुर्दृग्लोपाद्वा वक्तव्यम्। नाद्यः। आत्मनि दृष्टनष्टस्वभावस्यान्यत्र सद्भावकल्पनायोगात्। नान्त्यः। उदाहृतया श्रुत्यैव तन्निषेधात्। तस्मादुभयोरपि सत्यत्वेन मिथ्यात्वेन वा साम्यं दुर्वचम्। ननु सत आकाशादेः क्वचिदपि देशे काले चाभावो यद्यपि नास्ति तथापि सत एव परमाणोर्देशान्तरेऽभावोऽस्ति प्रागसतोऽपि घटादेर्भावश्च दृष्टः तत्कथमुच्यतेनासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत इत्याशङ्क्य विद्वदनुभवेन निरस्यति उभयोरपीति। अन्तो याथात्म्यम्। यथा स्वप्ने नभःकुम्भरज्जूरगादयो नित्यत्वानित्यत्वसत्यत्वासत्यत्वादिधर्मोपेततया निश्चिता अपि प्रबोधेन बाध्यन्ते तद्वज्जाग्रद्दृष्टा अपि ते तत्त्वज्ञानेन बाध्यन्ते। ननु जाग्रद्वासनावशात् स्वप्नगतनभ आदौ नित्यत्वादिनिश्चयो भ्रम इति चेत् अनादिकालप्रवृत्तप्राग्भवीयसंस्कारवशात् जाग्रन्नभ आदावपि स भ्रम एवेति तुल्यम्। ननु स्वरूपसदेव रजतादिकं शुक्त्यादावध्यस्यते नत्वसत् शशशृङ्गादिकम्। गगनादिकं तु त्वद्रीत्या स्वरूपेण असदपि कथमात्मन्यध्यस्यत इति चेन्न। अध्यासे हि पूर्वानुभवमात्रमपेक्षते नत्वनुभूतस्य स्वरूपेण सत्त्वमपि। दर्पणप्रतिबिम्बिते गगनेऽपि नैल्याध्यासदर्शनात्। न च गगने नैल्यं स्वरूपेण सत्यमस्ति अथचान्यत्राध्यस्यते। तस्मात् भ्रमपरम्परायाः संभवात्। स्वप्नद्रष्टृभिरिवास्माभिरदृष्टमपि सदसतोर्याथात्म्यं प्रबुद्धैर्द्रष्टुं शक्यमेव। तथा च श्रुतयःनेह नानास्ति किंचनअस्तीत्येवोपलब्धव्यःअतोऽन्यदार्तम् इत्याद्याः अनात्मनोऽसत्त्वं आत्मनश्च सत्त्वं प्रतिपादयन्ति। एवं सतो ज्ञानेनासतो बाधात्कैवल्यं सिध्यतीति भावः।
।।2.16।। असतो देहस्य सद् भावो न विद्यते सतः च आत्मनो न असद् भावः। उभयोः देहा त्मनोः उपलभ्यमानयोः यथोपलब्धि तत्त्वदर्शिभिः अन्तो दृष्टः। निर्णयान्तत्वात् निरूपणस्य निर्णय इह अन्तशब्देन उच्यते। देहस्य अचिद्वस्तुनोः असत्त्वम् एव स्वरूपम् आत्मनः चेतनस्य सत्त्वम् एव स्वरूपम् इति निर्णयो दृष्टः इत्यर्थः।विनाशस्वभावो हि असत्त्वम् अविनाशस्वभावश्च सत्त्वम्। यथा उक्तं भगवता पराशरेणतस्मान्न विज्ञानमृतेऽस्ति किञ्चित् क्वचित्कदाचिद्द्विज वस्तुजातम्। (वि0 पु0 2।12।43)सद्भाव एवं भवतो मयोक्तो ज्ञानं यथा सत्यमसत्यमन्यत् (वि0 पु0 2।12।45)अनाशी परमार्थश्च प्राज्ञैरभ्युपगम्यते। तत्तु नाशि न संदेहो नाशिद्रव्योपपादितम्।। (वि0 पु0 2।14।24)यत्तु कालान्तरेणापि नान्यां संज्ञामुपैति वै। परिणामादिसंभूतां तद्वस्तु नृप तच्च किम्।। (वि0 पु0 2।13।100) इतिअत्रापिअन्तवन्त इमे देहाः (गीता 2।18)अविनाशि तु तद्विद्धि (गीता 2।17) इति उच्यते। तदेव सत्त्वासत्त्वव्यपदेशहेतुः इति गम्यते। अत्र तु सत्कार्यवादस्य असङ्गत्वात् न तत्परोऽयं श्लोकः। देहात्मस्वभावाज्ञानमोहितस्य तन्मोहशान्तये हि उभयोः नाशित्वानाशित्वरूपस्वभावविवेक एव वक्तव्यः।स एवगतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति (गीता 2।11) इति प्रस्तुतः। स एवअविनाशि तु तद्विद्धि (गीता 2।17)अन्तवन्त इमे देहाः (गीता 2।18) इत्यनन्तरम् उपपाद्यते अतो यथोक्त एव अर्थः।आत्मनः तु अविनाशित्वं कथम् उपपद्यते इति अत्र आह
।।2.16।।ननु तथापि शीतोष्णादिकमतिदुःसहं कथं सोढव्यम् अत्यन्तं तत्सहने च कदाचिद्देहनाशस्यापि संभवादित्याशङ्क्य तत्त्वविचारतः सर्वं सोढुं शक्यमित्याशयेनाह नेति। असतः अनात्मधर्मत्वादविद्यमानस्य शीतोष्णादेरात्मनि भावः सत्ता न विद्यते। तथा सतः सत्स्वभावस्यात्मनोऽभावो विनाशो न विद्यते एवमुभयोः सदसतोरन्तो निर्णयो दृष्टः। कैः तत्त्वदर्शिभिर्वस्तुयाथात्म्यविद्भिः। एवंभूतविवेकेन सहस्वेत्यर्थः।
।।2.16।।नासतः इति श्लोकं व्यवहितप्रकृतस्थापनोपक्रमतयाऽवतारयति यत्त्विति।स्वाभाविकं परिणामि स्वभावस्यावश्यम्भावि न तु हेतुनिरपेक्षं शोकानिमित्तं शोकनिमित्तविरोधि शोकाभावनिमित्तमित्यर्थः। इतःपूर्वं स्वभावकथनमात्रत्वात्उपपादयितुमित्युक्तम्। अस्यापि श्लोकस्योपपादनार्थं प्रतिज्ञामात्ररूपत्वात्आरभत इत्युक्तम्। सदसद्भावाभावादिशब्दानां प्रकरणोचितमर्थविशेषं विवृण्वन् व्याख्याति असत इति। असतः सतश्चेति व्याख्येयम्। तस्य प्रकरणादिविशेषितार्थप्रतिपादनं देहस्यात्मन इति।अनयोरिति निर्देशफलितमुक्तं उपलभ्यमानयोरिति। तत्त्वदर्शनस्यतुशब्दद्योतितामुपलम्भानतिवृत्तिमभिप्रेत्याह यथोपलब्धितत्त्वदर्शिभिरिति। एतेन तद्ब्रह्म तद्भावस्तत्त्वमितिशङ्करोक्तमपहसितम्। सच्छब्दनिर्दिष्टस्य नित्यस्य विनाशायोगादन्तशब्दस्य निर्णयार्थत्त्वम्। तत्र शब्दवृत्तिप्रकारम् इह देहात्मविवेकप्रकरणेतत्त्वदर्शिभिरित्यादिसन्निधौ च तस्यैवौचित्यं चाह निर्णयान्तत्वादिति। ननु देहस्य सद्भावो न विद्यत इत्ययुक्तं प्रत्यक्षादिविरोधात् आत्मनोऽसद्भावो न विद्यत इति चायुक्तम् असदेवेदमग्र आसीत् छां.उ.6।2।1 इत्यादिसकलनिषेधदशायां तस्याप्यसच्छब्दवाच्यत्वात्। अवस्थाविशेषापेक्षयाऽपि सत्त्वमसत्त्वं च देहात्मनोर्द्वयोरपि समानम्। अतो भाष्यान्तरवत् सत्कार्यवादादिविषयतया अयं श्लोको व्याख्येय इत्यत्राह देहस्येति।अचिद्वस्तुनः चेतनस्य इति पदाभ्यां सत्त्वासत्त्वयोः स्वभावत्वे हेतुः चिदचिद्विषयतया सदसच्छब्दयोः प्रयोगश्च सूचितः।नन्वेवमपि देहात्मनो सदसत्त्वचोद्यं न परिहृतमित्यत्राह विनाशेति। हिशब्देन प्रयोगप्रसिद्धिर्द्योतिता तामेव दर्शयति यथोक्तमिति। दशश्लोक्यां वस्त्ववस्त्वस्तिनास्तिसत्यासत्यशब्दानां शारीरकभाष्ये पुराणोपक्रमोपसंहारादिना तत्प्रकरणोपक्रमोपसंहारादिना मध्येमही घटत्वं घटतः कपालिका वि.पु.2।15।42 इत्यादिना च सविकारत्वेनैवावस्तुत्वोपपादनात् श्रुतिस्मृत्यन्तरप्रत्यक्षाद्यनुरोधाच्च निर्विकारसविकारतया नित्यानित्यचेतनाचेतनविषयत्वं स्थापितम्। व्यवहारार्हत्वानर्हत्वादिविषयौ सदसच्छब्दौ तयोः परमार्थापरमार्थविषयसत्यासत्यशब्दाभ्यां कथमैकार्थ्यमिति शङ्कायां नाशानाशयोरेव परमार्थापरमार्थादिशब्दप्रयोगहेतुत्वे महर्षिवचनमुपादत्ते अनाशीति। विनाशोपलक्षितपरिणामवृद्ध्यादिभिः पूर्वावस्थाप्रहाणेन संज्ञान्तरयोगादेव अवस्तुशब्दवाच्यत्वं तदभावाच्च वस्तुशब्दवाच्यत्वमित्यस्मिन्नर्थे स्पष्टोक्तिं दर्शयति यत्त्विति। अत्रोत्तरश्लोकद्वयैकार्थ्याच्चायमेवार्थ इत्याह अत्रापीति। एतेन क्वचिच्चेतनविषयासच्छब्दोऽपि देवादिनामरूपप्रहाणाद्यवस्थाविशेषापेक्षयेत्युक्तं भवति। स्वरूप तस्तु निर्विकारत्वात् सच्छब्दवाच्यत्वमेव श्लोकयोः व्युत्क्रमेणोपपादनंनासतः इति क्रमापेक्षया। ततः किमित्यत्राह तदेवेति। प्रतिज्ञातस्यार्थस्य हेतुर्ह्यनन्तरं वाच्यः। तद्धेतुत्वं चात्र स्वरसतोऽवगम्यमानं परित्यज्यार्थान्तरपरत्वं व्याख्यातुं न युक्तमिति भावः।कुदृष्टिकल्पितव्याख्यां दूषयति अत्रेति। न ह्यत्र वैशेषिकादिनिरासः एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानप्रतिज्ञोपपादनं साङ्ख्यसिद्धान्तोपन्यासादिर्वा प्रक्रियते। न च सत्कार्यवादेन देहात्मविवेकोपपादनं शोकशान्तिर्वा सिद्ध्येत्। सर्वस्य नित्यत्वाच्चेतनानामपि नित्यत्ववर्णनमसिद्धस्यात्यन्तासिद्धेन साधनमिति भावः। उक्तार्थपरत्वे महाप्रकरणसङ्गतिमाह देहेति। यदज्ञानान्मोहः तस्यैव हि ज्ञापनं तन्निवृत्तये स्यादिति भावः। अत्रतन्मोहशान्तये इति द्वितीयाध्यायार्थसङ्ग्रहश्लोकः सूचितः। सत्कार्यवादे पूर्वोत्तरविरोधमभिप्रयन् स्वोक्तस्यावान्तरप्रकरणसङ्गतिमप्याह स एवेति वाक्यद्वयेन।अनन्तरमिति। नहि मात्रयाऽप्यन्यव्यवधानमस्तीति भावः।प्रस्तुत उपपाद्यत इतिशब्दाभ्यामपौनरुक्त्यं दर्शितम्। उपसंहरति अत इति।यथोक्तं एवेत्यवधारणेनान्येषामपि व्याख्यातृ़णामसत्प्रतिभासा निवर्त्यन्ते। यत्तूक्तं यज्ञस्वामिना असच्छब्देनाशुभं रजस्तमस्तकार्यं दुःखादिकं गृह्यते। सच्छब्देन तु सत्त्वतत्कार्यसुखादिकम्। भावाभावशब्दाभ्यां चाभ्युदयानभ्युदयपर्यायौ भूत्यभूती। उभयोरपि दृष्टोऽन्त इति च राशिद्वयस्य नश्वरत्वमुच्यते। ततश्च पूर्वोक्तद्वन्द्वतितिक्षाहेतुभूतदुःखात्मकत्वनश्वरत्वयोरेव प्रपञ्चनं कृतं भवति इति। तदयुक्तम् रजस्तमःप्रभृतीनामसदादिशब्दैरुपादाने प्रकरणाद्ययोगात् एतदभिप्रायेण चस एव प्रस्तुत इत्युक्तम्। ननुमात्रास्पर्शास्तु इति श्लोके मात्राशब्देन सत्त्वादिगुणा उच्यन्ते। तथा च कपिलासुरीयके गुणाः गुणमात्राः गुणलक्षणं गुणा अवयवं सत्वं रजस्तम इति गुणा इत्युच्यन्ते। सत्त्वादिगुणानां गुणाश्च तेषां मात्रा अपदिश्यन्ते। तत्र तत्त्वदर्शनताभयनाशस्वभावताप्रसन्नेन्द्रियतासुखस्वप्नबोधनतेति सत्त्वमात्रा इत्यादौ उपकरणेषु च मात्राशब्दः प्रयुज्यते।लघुमात्रः परिव्रजेत् इत्यादिषु मात्राशब्देन शब्दादिविषयग्रहणे तु शीतोष्णशब्दपौनरुक्त्यं च स्यात् इति। तदप्यसत् मात्राशब्दस्य सत्त्वादिषु मुख्यप्रयोगाभावादन्यत्रापि प्रसिद्ध्यभावादत्राप्रसिद्धार्थस्वीकारहेत्वभावाच्च। शीतोष्णशब्दपौनरुक्त्यं तु सामान्यविशेषपरत्वात् प्रदर्शनार्थत्वाच्च परिहृतम्। अस्तु तर्हि प्रस्तुतयोः सुखदुःखयोरेव सदसच्छब्दाभ्यां ग्रहणम्। मैवं तयोरेव अभ्युदयानभ्युदयरूपत्वविवक्षायां तद्धेतुतया व्यतिरेकनिर्देशायोगात्। सुखदुःखयोर्दुःखसुखकारणत्वनिर्देशश्च लोकवेदविरुद्धः। सुखादिनैश्वर्यनिवृत्त्यादिकथनं च प्रस्तुतानुपयुक्तम्। एवं योजनान्तरेष्वपि दूषणमूह्यम्। अतो महाप्रकरणपूर्वापरादिसङ्गतेर्यथोक्त एवार्थः।
।।2.16।।ननु यत एवागमापायिनः सर्वे दशाविशेषास्तत एव शोच्यन्ते मैवम्। तथाहि कोऽयमागमो नाम उत्पत्तिरिति चेत् (S नामेति चेत्)। सापि का असत आत्मलाभः सा इति त्वसत्। असत्स्वभावता हि निःस्वभावता निरात्मता ( N omit निरात्मता) निरात्मा निःस्वभावः कथं सस्वभावीकर्तुं शक्यः अनीलं हि न नीलीकर्तुं शक्यम् स्वभावान्तरापत्तेर्दुष्टत्वात्। तथा च शास्त्रम् न हि स्वभावो भावानां व्यावर्तेतौष्ण्यवद्रवेः इति।अथ सत एवात्मलाभ उत्पत्तिः तदा (S तदलब्ध जात्वप्यभावा ) लब्धात्मनोऽस्य जात्वप्यनभावान्नित्यतैव इति आगमे का शोच्यता एवमपायोऽति सतः असतो वा असत्तावदसदेव। सत्स्वभावस्यापि कथमसत्तास्वभावः द्वितीये क्षणेऽसौ असत्स्वभाव इति चेत् आद्येऽपि तथा स्यादिति न कश्चिद्भावः स्यात्। स्वभावस्यात्यागात्। अथ मुद्गरपातादिना (S K मुद्गरादिना) अस्य नाशः क्रियते। स यदि व्यतिरिक्तः भावस्य किं वृत्तम् न दृश्यते इति चेत्। मा नाम दर्शि भावः न त्वन्यथाभूतः पटावृत इव। अव्यतिरिक्तस्तु नासौ इत्युक्तम्।
।।2.16।।न त्वेवाहं 2।12 इत्यत्र भगवान् कृष्णोऽपि यं प्रति पक्षे निक्षिप्तः स आक्षेप्तुं प्रसक्तिं दर्शयति नित्य इति। उक्तमनादित्वेन हेतुनाऽनुमितम्। ततः किमित्यत आह कि मिति। अनादिश्चेत्यपि ग्राह्यम्। आद्ये दृष्टान्ताभावेन व्याप्तिग्रहासम्भवः। द्वितीयस्त्वप्रामाणिकत्वादशक्योपन्यास इति पूर्वपक्ष्यभिप्रायः। विदिताभिप्रायः सिद्धान्ती किमृजावन्वये सम्भवति वक्रेण व्यतिरेकेणेति मन्यमानो द्वितीयपक्षमुपादत्ते अन्यदपी ति। उक्ताभिप्रायेण पृच्छति तदि ति। इति शङ्कायामिति शेषः। दुर्गमार्थत्वात्पूर्वार्धं व्याचष्टे असत इति। कारणस्य प्रकृतेः। अभावः प्रागभावः प्रध्वंसश्च। कुत एतदित्यतो भाष्यकारस्तावत्प्रमाणमाह प्रकृतिरि ति। पुरुषः परमात्मा ब्रह्मशब्दोक्तः। अनादित्वेऽप्येवमागमो ज्ञेयः। ननु असतः सतश्चाभावो न विद्यत इत्येकेनैव वाक्येन द्वयोरभावप्रतिषेधे कर्तुं शक्ये किमेवं पृथक्प्रतिषेधेनेत्यत आह पृथगि ति। विद्यत इति वाक्यद्वयग्रहणम् असतो भावो न विद्यते सतश्चाभावो न विद्यते इति द्वयोः पृथगभावप्रतिषेध आदरार्थ इति योज्यम्। आदरश्चानुमानव्याप्तिसद्भावे। अतएवानेकदृष्टान्तप्रदर्शनम्। ननु सतो ब्रह्मण इत्यस्तु असतः कारणस्येति तु कथमिति अत आह असत इति। असच्छब्दार्थस्य कारणत्वं च भागवते प्रसिद्धमित्यर्थः। असतोऽसच्छब्दस्य कारणत्वं कारणार्थत्वमिति वा। सदसद्रूपया कार्यकारणरूपया। असत इति श्रुतेरनेकार्थत्वादत्रोदाहरणम्। कारणस्याव्यक्तेश्च असच्छब्दार्थत्वम्। गत्यर्थस्य सदेः कर्मणि क्विबन्तस्य हि सदिति रूपम्।असदव्यक्तरूपत्वात्कारणं चापि शब्दितम् इति वचनात्। अत्रार्थे भगवता प्रमाणमुच्यते उभयोरपी ति। तदसत्। अन्यदर्शनस्यान्यान्प्रत्यप्रत्यायकत्वात् इत्याशङ्क्य दर्शनमूलकः सम्प्रदायः उपदेशपरम्परारूपो लक्षणयाऽत्र प्रमाणत्वेनोच्यत इत्याह सम्प्रदायतश्चे ति। चशब्दो भाष्यकारोदितप्रमाणसमुच्चये। आगमो ग्रन्थनिबद्धं वाक्यं सम्प्रदायस्तु उपदेशपरम्परामात्रमिति भेदः। एतत्प्रकृतिपुरुषयोरनादिनित्यत्वम्। केचिदपिशब्दस्य भिन्नक्रमत्वमङ्गीकृत्य तेन सूचितं प्रमाणं प्रागुदाहृतमिति वर्णयन्ति। नन्वन्तो विनाशादिः परिच्छेदो वाऽत्र तत्त्वदर्शिभिर्दृष्ट इत्युच्यते तत्कथं न विरोध इत्यत आह अन्त इति। निर्णयोऽनादिनित्यत्वावधारणम्। अपव्याख्यानं त्वन्यत्र निराकृतम्।
।।2.16।।ननु भवतु पुरुषैकत्वं तथापि तस्य सत्यस्य जडद्रष्टृत्वरूपः सत्य एव संसारः। तथाच शीतोष्णादिसुखदुःखकारणे सति तद्भोगस्यावश्यकत्वात्सत्यस्य च ज्ञानाद्विनाशानुपपत्तेः कथं तितिक्षा कथं वा सोऽमृतत्वाय कल्पत इति चेत्। न। कृत्स्नस्यापि द्वैतप्रपञ्चस्यात्मनि कल्पितत्वेन तज्ज्ञानाद्विनाशोपपत्तेः। शुक्तौ कल्पितस्य रजतस्य शुक्तिज्ञानेन विनाशवत्। कथं पुनरात्मानात्मनोः प्रतीत्यविशेषे आत्मवदनात्मापि सत्यो न भवेत् अनात्मवदात्मापि मिथ्या न भवेत् उभयोस्तुल्ययोगक्षेमत्वादित्याशङ्क्य विशेषमाह भगवान्। यत्कालतो देशतो वस्तुतो वा परिच्छिन्नं तदसत् यथा घटादि जन्मविनाशशीलं प्राक्कालेन परकालेन च परिच्छिद्यते ध्वंसप्रागभावप्रतियोगित्वात् कादाचित्कं कालपरिच्छिन्नमित्युच्यते। एंव देशपरिच्छिन्नमपि तदेव मूर्तत्वेन सर्वदेशावृत्तित्वात्। कालपरिच्छिन्नस्य देशपरिच्छेदनियमेऽपि देशपरिच्छिन्नत्वेनाभ्युपगतस्य परमाण्वादेस्तार्किकैः कालपरिच्छेदानभ्युपगमाद्देशपरिच्छेदोऽपि पृथगुक्तः। सच किंचिद्देशवृत्तिरत्यन्ताभावः। एंव सजातीयभेदो विजातीयभेदः स्वगतभेदश्चेति त्रिविधो भेदो वस्तुपरिच्छेदः। तथा वृक्षस्य वृक्षान्तराच्छिलादेः पत्रपुष्पादेश्च भेदः। अथवा जीवेश्वरभेदो जीवजगद्भेदो जीवपरस्परभेद ईश्वरजगद्भेदो जगत्परस्परभेद इति पञ्चविधो वस्तुपरिच्छेदः। कालदेशापरिच्छिन्नस्याप्याकाशादेस्तार्किकैर्वस्तुपरिच्छेदाभ्युपगमात्पृथङ्निर्देशः। एवं सांख्यमतेऽपि योजनीयम्। एतादृशस्यासतः शीतोष्णादेः कृत्स्नस्यापि प्रपञ्चस्य भावः सत्ता पारमार्थिकत्वं स्वान्यूनसत्ताकतादृशपरिच्छेदशून्यत्वं न विद्यते न संभवति घटत्वाघटत्वयोरिव परिच्छिन्नत्वापरिच्छिन्नत्वयोरेकत्र विरोधात्। नहि दृश्यं किंचित्क्वचित्काले देशे वस्तुनि वा न निषिध्यते सर्वत्राननुगमात् नवा सद्वस्तु क्वचिद्देशे काले वस्तुनि वा निषिध्यते सर्वत्रानुगमात् तथाच सर्वत्रानुगते सद्वस्तुन्यननुगतं व्यभिचारि वस्तु कल्पितं रज्जुखण्ड इवानुगते व्यभिचारि सर्पधारादिकमिति भावः। ननु व्यभिचारिणः कल्पितत्वे सद्वस्त्वपि कल्पितं स्यात्तस्यापि तुच्छव्यावृत्तत्वेन व्यभिचारित्वादित्यत आह नाभावो विद्यते सत इति। सदधिकरणकभेदप्रतियोगित्वं हि वस्तुपरिच्छिन्नत्वं तच्च न तुच्छव्यावृत्तत्वेन। तुच्छे शशविषाणादौ सत्त्वायोगात्सदसद्भ्यामभावो निरूप्यते इति न्यायात्। एकस्यैव स्वप्रकाशस्य नित्यस्य विभोः सतः सर्वानुस्यूतत्वेन सद्व्यक्तिभेदानभ्युपगमात् घटः सन्नित्यादिप्रतीतेः सार्वंलौकिकत्वेन सतो घटाद्यधिकरणकभेदप्रतियोगित्वायोगात् अभावः परिच्छिन्नत्वं देशतः कालतो वस्तुतो वा सतः सर्वानुस्यूतसन्मात्रस्य न विद्यते न संभवति पूर्ववद्विरोधादित्यर्थः। ननु सन्नाम किमपि वस्तु नास्त्येव यस्य देशकालवस्तुपरिच्छेदः प्रतिषिध्यते। किं तर्हि सत्त्वं नाम परं सामान्यं यदाश्रयत्वेन द्रव्यगुणकर्मसु सद्व्यवहारः। तदेकाश्रयसंबन्धेन सामान्यविशेषसमवायेषु। तथाचासतः प्रागभावप्रतियोगिनो घटादेः सत्त्वं कारणव्यापारात् सतोऽपि तस्याभावः कारणनाशाद्भवत्येवेति कथमुक्तंनासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः इति एवं प्राप्ते परिहरति उभयोरपीत्यर्धेन। उभयोरपि सदसतोः सतश्चासतश्चान्तो मर्यादा नियतरूपत्वं यत्सत्तत्सदेव यदसत्तदसदेवेति दृष्टो निश्चितः श्रुतिस्मृतियुक्तिभिर्विचारपूर्वकम्। कैः तत्त्वदर्शिभिर्वस्तुयाथात्म्यदर्शनशीलैर्ब्रह्मविद्भिः नतु कुतार्किकैः। अतः कुतार्किकाणां न विपर्ययानुपपत्तिः। तुशब्दोऽवधारणे। एकान्तरूपो नियम एव दृष्टो नत्वनेकान्तरूपोऽन्यथाभाव इति तत्त्वदर्शिभिरेव दृष्टो नातत्त्वदर्शिभिरिति वा। तथाच श्रुतिःसदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् इत्युपक्रम्यऐतदात्म्यमिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो इत्युपसंहरन्ती सदेकं सजातीयविजातीयस्वगतभेदशून्यं सत्यं दर्शयतिवाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् इत्यादिश्रुतिस्तु विकारमात्रस्य व्यभिचारिणो वाचारम्भणत्वेनानृतत्वं दर्शयतिअन्नेन सोम्य शुङ्गेनापोमूलमन्विच्छाद्भिः सोम्य शुङ्गेन तेजोमूलमन्विच्छ तेजसा सोम्य शुङ्गेन सन्मूलमन्विच्छ सन्मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः इति श्रुतिः सर्वेषामपि विकाराणां सति कल्पितत्वं दर्शयति। सत्त्वं च न सामान्यं तत्र मानाभावात्। पदार्थमात्रसाधारण्यात्सत्सदिति प्रतीत्या द्रव्यगुणकर्ममात्रवृत्तिसत्त्वस्य स्वानुपपादकस्याकल्पनात् वैपरीत्यस्यापि सुवचत्वात् एकरूपप्रतीतेकरूपविषयनिर्वाह्यत्वेन संबन्धभेदस्य स्वरूपस्य च कल्पयितुमनुचितत्वात् विषयस्याननुगमेऽपि प्रतीत्यनुगमे जातिमात्रोच्छेदप्रसङ्गात्। तस्मादेकमेव सद्वस्तु स्वतः स्फुरणरूपं ज्ञाताज्ञातावस्थाभासकं स्वतादात्म्याध्यासेन सर्वत्र सद्व्यवहारोपपादकं सन्घट इति प्रतीत्या तावत्सद्ध्यक्तिमात्राभिन्नत्वं घटे विषयीकृतम् नतु सत्तासमवायित्वम्। अभेदप्रतीतेर्भेदघटितसंबन्धानिर्वाह्यत्वात्। एवं द्रव्यं सद्गुणः सन्नित्यादिप्रतीत्या सर्वाभिन्नत्वं सतः सिद्धम्। द्रव्यगुणभेदासिद्ध्या च न तेषु धर्मिषु सत्त्वं नाम धर्मः कल्प्यते किंतु सति धर्मिणि द्रव्याद्यभिन्नत्वं लाघवात् तच्च वास्तवं न संभवतीत्याध्यासिकमित्यन्यत्। तदुक्तं वार्तिककारैःसत्तातोऽपि न भेदः स्याद्द्रव्यत्वादेः कुतोऽन्यतः। एकाकारा हि संवित्तिः सद्द्रव्यं सद्गुणस्तथा।। इत्यादि। सत्तापि नासतो भेदिका तस्याप्रसिद्धेः। द्रव्यत्वादिकं तु सद्धर्मत्वान्न सतो भेदकमित्यर्थः। अतएव घटाद्भिन्नः पट इत्यादिप्रतीतिरपि न भेदसाधिका घटपटतद्भेदानां सद्भेदेनैक्यात्। एवं यत्रैव न भेदग्रहस्तत्रैव लब्धपदा सती सदभेदप्रतीतिर्विजयते तार्किकैः कालपदार्थस्य सर्वात्मकस्याभ्युपगमात्तेनैव सर्वव्यवहारोपपत्तौ तदतिरिक्तपदार्थकल्पने मानाभावात्तस्यैव सर्वानुस्यूतस्य सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च सर्वतादात्म्येन प्रतीत्युपपत्तेः स्फुरणस्यापि सर्वानुस्यूतत्वेनैकत्वान्नित्यत्वं विस्तरेणाग्रिमश्लोके वक्ष्यते। तथाच यथा कस्मिंश्चिद्देशे काले वा घटस्य पटादेर्न देशान्तरे कालान्तरे वा घटत्वं एवं कस्मिंश्चिद्देशे काले वा घटस्यान्यत्राघटत्वं शक्रेणापि न शक्यते संपादयितुं पदार्थस्वभावभङ्गायोगात् एवं कस्मिंश्चिद्देशे काले वा सतो देशान्तरे कालान्तरे वा सत्त्वं कस्मिंश्चिद्देशे काले वा सतोऽन्यत्रासत्त्वं न शक्यते संपादयितुं युक्तिसामान्यात् अत उभयोर्नियतरूपत्वमेव द्रष्टव्यमित्यद्वैतसिद्धौ विस्तरः। अतः सदेव वस्तु मायाकल्पिताऽसन्निवृत्त्याऽमृतत्वाय कल्पते सन्मात्रदृष्ट्या च तितिक्षाप्युपपद्यत इति भावः।
।।2.16।।ननु दुःखादिसहनादेतद्देहनाश एव स्यात् देहनाशेन मोक्षस्तु नापेक्षित एव ततः किं दुःखसहनेनेत्याशङ्क्याह नासत इति। असतो लौकिकस्य भावोऽलौकिको न विद्यते सतः अलौकिकस्य भगवत्सत्तात्मकस्य नाभावो नाशो न विद्यते इत्यर्थः। अत्र निदर्शनं गोपिका एकास्त्वन्तर्गृहगताः द्वितीयास्तु भगवद्रासलीलागताः तदाहुः उभयोरपीति। तु शब्दः त्वद्दर्शननिवारणार्थः। अनयोरुभयोरपि तत्त्वदर्शिभिः भगवद्दर्शनयोग्यैर्भगवदीयैः अन्तो दृष्टः तत्फलं दृष्टमित्यर्थः। त्वमपि तथा चेदिच्छसि तदा सुखदुःखादि सहस्व नैतावता भगवद्योग्यदेहादिनाशो भविष्यतीति भावः।
।।2.16।। न असतः अविद्यमानस्य शीतोष्णादेः सकारणस्य न विद्यते नास्ति भावो भवनम् अस्तिता।।न हि शीतोष्णादि सकारणं प्रमाणैर्निरूप्यमाणं वस्तु सम्भवति। विकारो हि सः विकारश्च व्यभिचरति। यथा घटादिसंस्थानं चक्षुषा निरूप्यमाणं मृद्वयतिरेकेणानुपलब्धेरसत् तथा सर्वो विकारः कारणव्यतिरेकेणानुपलब्धेरसन्। जन्मप्रध्वंसाभ्यां प्रागूर्ध्वं च अनुपलब्धेः कार्यस्य घटादेः मृदादिकारणस्य च तत्कारणव्यतिरेकेणानुपलब्धेरसत्त्वम्।।तदसत्त्वे सर्वाभावप्रसङ्ग इति चेत् न सर्वत्र बुद्धिद्वयोपलब्धेः सद्बुद्धिरसद्बुद्धिरिति। यद्विषया बुद्धिर्न व्यभिचरति तत् सत् यद्विषया व्यभिचरति तदसत् इति सदसद्विभागे बुद्धितन्त्रे स्थिते सर्वत्र द्वे बुद्धी सर्वैरुपलभ्येते समानाधिकरणे न नीलोत्पलवत् सन् घटः सन् पटः सन् हस्ती इति। एवं सर्वत्र। तयोर्बुद्धयोः घटादिबुद्धिः व्यभिचरति। तथा च दर्शितम्। न तु सद्बुद्धिः। तस्मात् घटादिबुद्धिविषयः असन् व्यभिचारात् न तु सद्बुद्धिविषयः अव्यभिचारात्।।घटे विनष्टे घटबुद्धौ व्यभिचरन्त्यां सद्बुद्धिरपि व्यभिचरतीति चेत् न पटादावपि सद्बुद्धिदर्शनात्। विशेषणविषयैव सा सद्बुद्धिः।।सद्बुद्धिवत् घटबुद्धिरपि घटान्तरे दृश्यत इति चेत् न पटादौ अदर्शनात्।।सद्बुद्धिरपि नष्टे घटे न दृश्यत इति चेत् न विशेष्याभावात्। सद्बुद्धिः विशेषणविषया सती विशेष्याभावे विशेषणानुपपत्तौ किंविषया स्यात् न तु पुनः सद्बुद्धेः विषयाभावात्।।एकाधिकरणत्वं घटादिविशेष्याभावे न युक्तमिति चेत् न इदमुदकम् इति मरीच्यादौ अन्यतराभावेऽपि सामानाधिकरण्यदर्शनात्।।तस्माद्देहादेः द्वन्द्वस्य च सकारणस्य असतो न विद्यते भाव इति। तथा सत श्च आत्मनः अभावः अविद्यमानता न विद्यते सर्वत्र अव्यभिचारात् इति अवोचाम।।एवम् आत्मानात्मनोः सदसतोः उभयोरपि दृष्टः उपलब्धः अन्तो निर्णयः सत् सदेव असत् असदेवेति तु अनयोः यथोक्तयोः तत्त्वदर्शिभिः। तदिति सर्वनाम् सर्वं च ब्रह्म तस्य नाम तदिति तद्भावः तत्त्वम् ब्रह्मणो याथात्म्यम्। तत् द्रष्टुं शीलं येषां ते तत्त्वदर्शिनः तैः तत्त्वदर्शिभिः। त्वमपि तत्त्वदर्शिनां दृष्टिमाश्रित्य शोकं मोहं च हित्वा शीतोष्णादीनि नियतानियतरूपाणि द्वन्द्वानि विकारोऽयमसन्नेव मरीचिजलवन्मिथ्यावभासते इति मनसि निश्चित्य तितिक्षस्व इत्यभिप्रायः।।किं पुनस्तत् यत् सदेव सर्वदा इति उच्यते
।।2.16।।अस्तित्वरूपविकारं निराकुर्वन् अशोच्यतामाह नासत इति। उत्पत्यनन्तरभावित्वादस्तित्वविकारादिरिति भावः। यथा असद्वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत तै.उ.2।7 इति श्रुतौ कथमसतः सज्जायेत छा.उ.6।2।2 इति तर्कविरोधादसद्वादो निराकृतस्तथाऽत्रापि भगवताऽसद्वादो निराक्रियते। असतः कालत्रयेऽप्यविद्यमानस्य खपुष्पादेर्भावः सत्ता न विद्यते। अथ च सतो विद्यमानस्य कालत्रयेऽपि सतोऽप्यात्मनः अभावो न। आत्मा नाऽभून्नास्ति न भविष्यतीत्यप्रतीतेः। असतो हि न सत्तेत्यतो देहादीनां सत्ताऽपि न वक्तुं शक्या विनाशित्वात्। असत्ताऽपि न वक्तुं शक्या उत्पत्तिमत्त्वात्। यतोऽसतो भावः उत्पत्तिर्नोपपद्यते इत्यतः सदसत्त्वं देहादिप्रपञ्चस्यास्य वाच्यं सदसद्भिन्नत्वे च सदसत्वानपायात्। अत एवोक्तम् छाया प्रत्याह्वयाभासा असन्तोऽप्यर्थकारिणः। एवं देहादयो भावा यच्छन्त्यामृत्युतो भयम् इति विनाशिस्वरूपत्वेऽपि अर्थकारित्वात्सत्वम्यथासतोदानयनाद्यभावात् इति भागवतवाक्यात्। सदसत्स्वरूपमप्रकृतिकार्यत्वादपि तथात्वमिति वयमवोचाम। इदमेवानित्यत्वं प्रागभावप्रतियोगित्वेन ध्वंसप्रतियोगित्वात्। नित्यत्वं चास्य प्रकृतिकारणभूतसच्चिदानन्दात्मकब्रह्मानन्यत्वदृशेत्यवधेयम्। यथोक्तं श्रीविष्णुपुराणे तदेतदक्षयं नित्यं जगन्मुनिवराखिलम् इत्यादिअक्षरात्मकमेतद्धि इति च। न च वेदस्तुतावसत्त्वमेवास्योपपादितमिति वाच्यम् ततो भेदेन सत्त्वनिराकरणात्। मीमांसकादिमतस्य निराकरणीयत्वेन कटाक्षितत्वमिति तत्रैवोक्तंव्यवहृतये विकल्प ईषित इत्यादि। यद्वा नासत इति। अत्रायं विचारः। सद्विविधं शुद्धमशुद्धं च शुद्धमात्मगतं अशुद्धमनात्मगतमिति। तथा च असत आत्मापेक्षया शुद्धसत्त्वरहितस्य जनस्य देहादेर्भावः शुद्धं सत्वमस्तित्वं न विद्यते किन्तु विकृतमस्थिरं च तथा सतः शुद्धास्तित्ववत आत्मनः अक्षरात्मैकाभिप्रायेणैकवचनम् तस्याभावोऽसत्वं शुद्धास्तित्वाभावो विकृतमस्तित्वं न विद्यते इति उभयोरनयोर्निर्णयस्तत्त्वदर्शिभिर्दृष्टः। एतेन वृद्धिविपरिणामावपि निराकृतौ।