नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः।।18.7।।
niyatasya tu sannyāsaḥ karmaṇo nopapadyate mohāt tasya parityāgas tāmasaḥ parikīrtitaḥ
Verily, the renunciation of obligatory action is not proper; the abandonment of the same out of delusion is declared to be Tamasic.
18.7 नियतस्य obligatory? तु verily? संन्यासः renunciation? कर्मणः of action? न not? उपपद्यते is proper? मोहात् from delusion? तस्य of the same? परित्यागः abandonment? तामसः Tamasic? परिकीर्तितः is declared.Commentary Renunciation of obligatory action is not proper because it is purifying in the case of an ignorant man. Should a man renounce actions that he should perform as a duty? such renunciation can only be of the ality of darkness. Prescribed duties must not be abandoned and if anyone does so? he is certainly deluded by ignorance. Tamas is ignorance.Niyata Prescribed according to ones religion. To hold that a duty is obligatory and then to relinish it is indeed selfcontradictory.
।।18.7।। व्याख्या -- [तीन तरहके त्यागका वर्णन भगवान् इसलिये करते हैं कि अर्जुन कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना चाहते थे -- श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके (गीता 2। 5) अतः त्रिविध त्याग बताकर अर्जुनको चेत कराना था? और आगेके लिये मनुष्यमात्रको यह बताना था कि नियत कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना भगवान्को मान्य (अभीष्ट) नहीं है। भगवान् तो सात्त्विक त्यागको ही वास्तवमें त्याग मानते हैं। सात्त्विक त्यागसे संसारके सम्बन्धका सर्वथा विच्छेद हो जाता है।दूसरी बात? सत्रहवें अध्यायमें भी भगवान् गुणोंके अनुसार श्रद्धा? आहार आदिके तीनतीन भेद कहकर आये हैं? इसलिये यहाँ भी अर्जुनद्वारा त्यागका तत्त्व पूछनेपर भगवान्ने त्यागके तीन भेद कहे हैं।]नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने त्यागके विषयमें अपना जो निश्चित उत्तम मत बताया है? उससे यह तामस त्याग बिलकुल ही विपरीत है और सर्वथा निकृष्ट है? यह बतानेके लिये यहाँ तु पद आया है।नियत कर्मोंका त्याग करना कभी भी उचित नहीं है क्योंकि वे तो अवश्यकर्तव्य हैं। बलिवैश्वदेव आदि यज्ञ करना? कोई अतिथि आ जाय तो गृहस्थधर्मके अनुसार उसको अन्न? जल आदि देना? विशेष पर्वमें या श्राद्धतर्पणके दिन ब्राह्मणोंको भोजन कराना और दक्षिणा देना? अपने वर्णआश्रमके अनुसार प्रातः और सांयकालमें सन्ध्या करना आदि कर्मोंको न मानना और न करना ही नियत कर्मोंका त्याग है।मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः -- ऐसे नियत कर्मोंको मूढ़तासे अर्थात् बिना विवेकविचारके छोड़ देना तामस त्याग कहा जाता है। सत्सङ्ग? सभा? समिति आदिमें जाना आवश्यक था? पर आलस्यमें पड़े रहे? आराम करने लग गये अथवा सो गये घरमें मातापिता बीमार हैं? उनके लिये वैद्यको बुलाने या औषधि लानेके लिये जा रहे थे? रास्तेमें कहींपर लोग ताशचौपड़ आदि खेल रहे थे? उनको देखकर खुद भी खेलमें लग गये और वैद्यको बुलाना या ओषधि लाना भूल गये कोर्टमें मुकदमा चल रहा है? उसमें हाजिर होनेके समय हँसीदिल्लगी? खेलतमाशा आदिमें लग गये और समय बीत गया शरीरके लिये शौचस्नान आदि जो आवश्यक कर्तव्य हैं? उनको आलस्य और प्रमादके कारण छोड़ दिया -- यह सब तामस त्यागके उदाहरण हैं।विहित कर्म और नियत कर्ममें क्या अन्तर है शास्त्रोंने जिन कर्मोंको करनेकी आज्ञा दी है? वे सभी विहित कर्म कहलाते हैं। उन सम्पूर्ण विहित कर्मोंका पालन एक व्यक्ति कर ही नहीं सकता क्योंकि शास्त्रोंमें सम्पूर्ण वारों तथा तिथियोंके व्रतका विधान आता है। यदि एक ही मनुष्य सब वारोंमें या सब तिथियोंमें व्रत करेगा तो फिर वह भोजन कब करेगा इससे यह सिद्ध हुआ कि मनुष्यके लिये सभी विहित कर्म लागू नहीं होते। परन्तु उन विहित कर्मोंमें भी वर्ण? आश्रम और परिस्थितिके अनुसार जिसके लिये जो कर्तव्य आवश्यक होता है? उसके लिये वह नियत कर्म कहलाता है। जैसे ब्राह्मण? क्षत्रिय? वैश्य और शूद्र -- चारों वार्णोंमें जिसजिस वर्णके लिये जीविका और शरीरनिर्वाहसम्बन्धी जितने भी नियम हैं? उसउस वर्णके लिये वे सभी नियत कर्म हैं।नियत कर्मोंका मोहपूर्वक त्याग करनेसे वह त्याग तामस हो जाता है तथा सुख और आरामके लिये त्याग,करनेसे वह त्याग राजस हो जाता है। सुखेच्छा? फलेच्छा तथा आसक्तिका त्याग करके नियत कर्मोंको करनेसे वह त्याग सात्त्विक हो जाता है। तात्पर्य यह है कि मोहमें उलझ जाना तामस पुरुषका स्वभाव है? सुखआराममें उलझ जाना राजस पुरुषका स्वभाव है और इन दोनोंसे रहित होकर सावधानीपूर्वक निष्कामभावसे कर्तव्यकर्म करना सात्त्विक पुरुषका स्वभाव है। इस सात्त्विक स्वभाव अथवा सात्त्विक त्यागसे ही कर्म और कर्मफलसे सम्बन्धविच्छेद होता है। राजस और तामस त्यागसे नहीं क्योंकि राजस और तामस त्याग वास्तवमें त्याग है ही नहीं।लोग सामान्य रीतिसे स्वरूपसे कर्मोंको छोड़ देनेको ही त्याग मानते हैं क्योंकि उन्हें प्रत्यक्षमें वही त्याग दीखता है। कौन व्यक्ति कौनसा काम किस भावसे कर रहा है? इसका उन्हें पता नहीं लगता। परन्तु भगवान् भीतरकी कामनाममताआसक्तिके त्यागको ही त्याग मानते हैं क्योंकि ये ही जन्ममरणके कारण हैं (गीता 13। 21)।यदि बाहरके त्यागको ही असली त्याग माना जाय तो सभी मरनेवालोंका कल्याण हो जाना चाहिये क्योंकि उनकी तो सम्पूर्ण वस्तुएँ छूट जाती हैं और तो क्या? अपना कहलानेवाला शरीर भी छूट जाता है और उनको वे वस्तुएँ प्रायः यादतक नहीं रहतीं अतः भीतरका त्याग ही असली त्याग है। भीतरका त्याग होनेसे बाहरसे वस्तुएँ अपने पास रहें या न रहें? मनुष्य उनसे बँधता नहीं।
।।18.7।। नियत अर्थात् कर्तव्य कर्मों का त्याग अत्यन्त निम्नस्तर का तामस त्याग माना गया है। नित्य और नैमित्तक कर्मों के सम्मिलित रूप को ही नियत कर्म कहते हैं। जब तक मनुष्य अपने समाज के एक सदस्य के रूप में जीवन यापन करता है? तब तक उसे वह समाज? सुरक्षा तथा उन्नति का लाभ भी प्रदान करता है। अत हिन्दू नीति के अनुसार? मनुष्य को अपने कर्तव्यों को त्यागने का कोई अधिकार नहीं है।यदि कोई व्यक्ति अज्ञानवश अपने नैतिक कर्तव्यों का त्याग करता है तब भी वह क्षम्य नहीं है। जैसे? संविधान के और भौतिक जगत् के प्राकृतिक नियमों के पालन के संबंध में नियम का अज्ञान क्षम्य नहीं माना जाता? वैसे ही आध्यात्मिक क्षेत्र में भी यही नियम लागू होता है। अज्ञान और अविवेक के कारण यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य पालन के द्वारा समाज सेवा नहीं करता है? तो उसका यह त्याग मूढ़ अर्थात् तामसिक त्याग है।
।।18.7।।नित्यकर्मणामवश्यकर्तव्यत्वमुक्तमुपजीव्यापेक्षितं पूरयन्ननन्तरश्लोकमवतारयति -- तस्मादिति। ननु कश्चिन्नियतमपि कर्म त्यजन्नुपलभ्यते तत्राह -- मोहादिति। अज्ञानं पावनत्वापरिज्ञानम्। अज्ञस्य नित्यकर्मत्यागो मोहादित्येतदुपपादयति -- नियतं चेति। नित्यकर्मत्यागस्य मोहकृतत्वे कुतस्तामसत्वमित्याशङ्क्याह -- मोहश्चेति।
।।18.7।।स्वाध्यवसायमुक्त्वा त्यागस्य त्रैविध्यं दर्शयितुमारभते। नियतस्य नित्यस्य तु कर्मणः मुमुक्षोरज्ञास्याधिकृतस्य संन्यासः परित्यागो नोपपद्यते नोपपन्नो भवति नियतमवश्यकर्तव्यं त्यज्यते चेति विप्रतिषिद्धत्वात्। मोहात्पावनत्वापरिज्ञानात्तस्य नियतस्यावश्यकर्तव्यतया वेदविहितस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः। मोहश्च तमस्तन्निमित्तकत्वादित्यर्थः।
।।18.7।।प्राक् प्रतिज्ञातं त्यागत्रैविध्यमाह -- नियतस्येति। तुशब्दः पूर्वोक्तपक्षद्वयवैलक्षण्यार्थः। यस्मादधिकृतस्य मुमुक्षोर्नियतस्यावश्यानुष्ठेयस्य कर्मणः संन्यासः स्वरूपेण त्यागो नोपपद्यते न युज्यते। अज्ञस्य शुद्ध्यपेक्षत्वात्। एवं सति यो मोहादज्ञानात्तस्य नियतस्य कर्मणः परित्यागः स तामसः परिकीर्तितः। आवश्यकं च त्यज्यते चेति विप्रतिषेधात्।
।।18.7।।नियतस्य नित्यनैमित्तिकस्य महायज्ञादेः कर्मणः संन्यासः त्यागो न उपपद्यते।शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।। (गीता 3।8) इति शरीरयात्राया एव असिद्धेः। शरीरयात्रा हि यज्ञशिष्टाशनेन निर्वर्त्यमाना सम्यग् ज्ञानाय प्रभवति। अन्यथाभुञ्जते ते त्वघं पापाः (गीता 3।13) इति अयज्ञशिष्टाघरूपाशनाप्यायनं मनसो विपरीतज्ञानाय भवति।अन्नमयं हि सोम्य मनः (छा0 उ0 6।5।4) इति अन्नेन हि मन आप्यायते।आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः (छ0 उ0 7।26।2) इति ब्रह्मसाक्षात्काररूपं ज्ञानम् आहारशुद्ध्यायत्तमिति श्रूयते। तस्मात् महायज्ञादिनित्यनैमित्तिकं कर्म आप्रयाणात् ब्रह्मज्ञानाय एव उपादेयम् इति तस्य त्यागो न उपपद्यते।एवं ज्ञानोत्पादिनः कर्मणो बन्धकत्वमोहात् परित्यागः तामसः परिकीर्तितः। तमोमूलः त्यागः तामसः? तमःकार्याज्ञानमूलत्वेन त्यागस्थ तमोमूलत्वम्। तमो हि अज्ञानस्य मूलम्प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च।। (गीता 14।17) इति अत्र उक्तम्। अज्ञानं तु ज्ञानविरोधिविपरीतज्ञानम्। तथा च वक्ष्यते -- अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता। सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।। (गीता 18।32) इति। अतो नित्यनैमित्तिकादेः कर्मणः त्यागो विपरीतज्ञानमूल एव इत्यर्थः।
।।18.7।। प्रतिज्ञातं त्यागस्य त्रैविध्यमिदानीं दर्शयति -- नियतस्येति त्रिभिः। काम्यस्य कर्मणो बन्धकत्वात्संन्यासो युक्तः। नियतस्य तु नित्यस्य पुनः कर्मणः संन्यासस्त्यागो नोपपद्यते? सत्त्वशुद्धिद्वारा मोक्षहेतुत्वात्। अतस्तस्य परित्यागः उपादेयेऽपि त्याज्यमित्येवं लक्षणान्मोहादेव भवेत्। स च मोहस्य तामसत्वात्तामसः परिकीर्तितः।
।।18.7।।अथनियतस्य इत्यादिना मतान्तराणामधमत्वं स्वमतस्योत्तमत्वं च प्रपञ्च्यते। वर्णाश्रमप्रयुक्ततया दुस्त्यजत्वं नियतशब्देनाभिप्रेतमित्याह -- नित्यनैमित्तिकस्येति। तुशब्दसहितः सन्न्यासशब्दोऽत्रत्याज्यं दोषवत् [18।3] इत्यत्र स्वरूपत्यागानुवादी? स एव हिमोहात्तस्य परित्यागः इत्युत्तरार्धेन निन्द्यत इत्यभिप्रायेणसन्न्यासस्त्याग इत्युक्तः। पावनत्वेनावश्यकर्तव्यत्वे शिष्टे पुनस्त्यागो नोपपद्यत इति शासनं प्राक्प्रपञ्चितदृष्टादृष्टानुपपत्तिस्मारणपरमित्यभिप्रायेणानुपपत्तिं विवृणोति -- शरीरयात्रापीति। केवलाशनादिनाऽपि लौकिकदेहयात्रा सिद्ध्येदित्यत्राऽऽह -- शरीरयात्रा हीति।पञ्चभूतात्मकैर्भोगैः पञ्चभूतात्मकं वपुः। आप्यायते इति स्मरणात्कथमाहारेण मनस आप्यायनमित्यत्राऽऽहअन्नमयं हीति। सात्त्विकाहङ्कारकार्यस्यान्नविकारत्वासम्भवादाप्यायनोक्तिः। स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः [छां.उ.7।26।2] इत्येतत् भिद्यते हृदयग्रन्थिः [मुं.उ.2।2।8] इत्यादिकया समानार्थया श्रुत्या दर्शनशब्देन विशेष्येत इत्यभिप्रायेणब्रह्मसाक्षात्काररूपमित्युक्तम्। विशदतमत्वात्साक्षात्कारोक्तिरिह भाव्या। सकृदनुष्ठितस्य विद्योपकारित्वशङ्कां परिहरन्निगमयति -- तस्मादिति।नोपपद्यते इत्यस्य कारणाभावे कथं कार्यं स्यात् इति भावः। उक्तप्रकारेणापरित्याज्यत्वनियमवत्त्वं तस्येत्यनूद्यत इत्यभिप्रायेणाऽऽह -- एवं ज्ञानोत्पादिन इति।त्याज्यं दोषवत् [18।3] इत्यनूदितस्य मतस्यैतद्दूषणमित्यभिप्रायेणाऽऽह -- बन्धकत्वमोहादिति।तत्र भवः [अष्टा.4।3।53] इत्यण्प्रत्ययेन तामसशब्दं निर्वक्ति -- तमोमूल इति। सम्बन्धमात्रेऽपि तद्धितार्थे फलितविशेषोऽयम्। तामसबुद्धिमूलत्वेन सद्वारकं तमोमूलत्वं विवृणोतितमःकार्येति। नन्वत्र समभिव्याहृतमोहमूलत्वेनैव तमोमूलत्वे दर्शयितव्ये तमःकार्याज्ञानमूलत्वोक्तिः किमर्था तदर्थैव नह्युक्तस्यैव पुनश्शब्दान्तरव्यञ्जने प्रयोजनम्? अधिकबोधनं तु युक्तं? अविरुद्धं चेति। ननुप्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च [14।17] इति श्लोके मोहशब्देन विपरीतज्ञानस्य पृथगुक्तत्वादज्ञानशब्देन ज्ञानाभाव उच्यत इति व्याख्यातम् इह पुनःअज्ञानं तु ज्ञानविरोधि विपरीतज्ञानम् इति कथमुच्यते इत्थं -- ज्ञानाभावस्यापि वृत्तिहेतुत्वं विपरीतज्ञानद्वारेति प्रदर्शनार्थं श्लोकस्थमोहशब्दस्य प्रयोजनान्तरविवक्षया वा श्लोकस्थस्याज्ञानशब्दस्य मोहविषयत्वज्ञापनार्थं वेति। तामसबुद्धेः कर्मत्यागहेतुतां वक्ष्यमाणेन व्यनक्ति -- तथा चेति। तत्त्वविदो न परित्यजन्तीत्यभिप्रायेण तामसनिर्देशफलितं निगमयति -- अत इतिनित्यनैमित्तिकादेः इत्यादिशब्देन फलाभिसन्धिरहितकाम्यानामपि वक्ष्यमाणानां ग्रहणम्।विपरीतज्ञानेत्यनेनायथाज्ञानमूलाद्राजसत्यागाद्विशेषप्रदर्शनम्।अयथावत् [18।31] इति हि राजसबुद्धिर्वक्ष्यते।
।।18.4 -- 18.11।।तदत्रैव विशेषनिर्णयाय मतान्युपन्यस्यति -- त्याज्यमिति। दोषवत् हिंसादिमत्त्वात् ( S हिंसादित्त्वात ?N हिंसादिसत्त्वात् ) पापयुक्तम्। तत् कर्म,( S??N substitutes फलं for कर्म ) त्याज्यम्? न सर्वं शुभफलम् इति केचित् त्यागे विशेषं मन्यन्ते सांख्यगृह्या इव। अन्ये तु मीमांसककञ्चुकानुप्रविष्टाः ( K मीमांसाकंचुक -- ) -- क्रत्वर्थोऽहि शास्त्रादवगम्यते ( S. IV? i? 2 ) इति। तथातस्माद्या वैदिकी हिंसा -- ( SV. I? i? 2? verse 23 )इत्यादिनयेन इतिकर्तव्यतांशभागिनी हिंसा ( S??N omit हिंसा ) हिंसैव न भवति। न हिंस्यात् इति सामान्यशास्त्रस्य तत्र बाधनात् श्येनाद्येव तु ( श्येन द्येव न तु ) हिंसा।फलांशे भावनायाश्च प्रत्ययोऽनुविधायकः ( SV? I? i? 2? verse 222 ) इति। अ [ तोऽ ] न्यान् हिंसादियोगिनोऽपि न त्यजेत्। शास्त्रैकशरणकार्याकार्यविभागाः पण्डिता इति मन्यन्ते।।3।।निश्चयमित्यादि अभिधीयते इत्यन्तम्। तत्र त्वयं निश्चयः -- प्राग्लक्षितगुणस्वरूपवैचित्र्यात् त्यागस्यैव सत्त्वरजस्तमोमय्या चित्तवृत्त्या क्रियमाणस्य तद्विशिष्टस्वभावावभासित [ त्वात् ] वस्तुस्थित्या त्यागो नाम परब्रह्मविदां ( ? N परमब्रह्म -- ) सिद्ध्यसिद्ध्यादिषु समतया रागद्वेषपरिहारेण फलप्रेप्साविरहेण ( फलप्रेक्षा) कर्मणां निर्वर्त्तनम्। अत एव आह -- राजसं तामसं च त्यागं कृत्वा न कश्चित् ( न किंचित् ) [ त्याग ] फलसंबन्धः? इति। सात्त्विकस्य तु त्यागात् ( त्यागस्य )। शास्त्रार्थपालनात्मकं फलम्। त्यक्तगुणग्रामग्रहस्य पुनर्मुनेः सत्यतः त्यागवाचो युक्तिरुपपत्तिमती।
।।18.7।।तदेवंयज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे इति स्वपक्षः स्थापितः। इदानींत्याज्यं दोषवदित्येके,कर्म प्राहुर्मनीषिणः इति परपक्षस्य पूर्वोक्तत्यागत्रैविध्यव्याख्यानेन निराकरणमारभते -- नियतस्य त्विति। काम्यस्य कर्मणोऽन्तःकरणशुद्धिहेतुत्वाभावेन बन्धहेतुत्वेन च दोषत्वाद्बन्धनिवृत्तिहेतुबोधार्थिना क्रियमाणस्त्याग उपपद्यत एव। नियतस्य तु नित्यस्य कर्मणः शुद्धिहेतुत्वेनादोषस्य संन्यासस्त्यागो मुमुक्षुणान्तःकरणशुद्ध्यर्थिना नोपपद्यते शास्त्रयुक्तिभ्यां तस्यान्तःकरणशुद्ध्यर्थमवश्यानुष्ठेयत्वात्। तथाचोक्तं प्राक्आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्मकारणमुच्यते इति। ननु दोषवत्त्वं काम्यस्येव नित्यस्यापि दर्शपूर्णमासज्योतिष्टोमादेर्व्रीहिपश्वादिहिंसामिश्रितत्वेन सांख्यैरभिहितम्। नचव्रीहीनवहन्तिअग्नीषोमीयं पशुमालभेत इत्यादिविशेषविधिगोचरत्वात् क्रत्वङ्गहिंसायाःन हिंस्यात्सर्वाभूतानि इति सामान्यनिषेधस्य तदितरपरत्वमिति सांप्रतम्। भिन्नविषयत्वेन विधिनिषेधयोरबाधेनैव समावेशसंभवात्। निषेधेन हि पुरुषस्यानर्थहेतुर्हिंसेत्यभिहितं न त्वक्रत्वर्था सेति विधिना क्रत्वर्था सेत्यभिहितं न त्वनर्थहेतुर्नेति। तथाच क्रतूपकारकत्वपुरुषानर्थहेतुत्वयोरेकत्र संभवात् क्रत्वर्थापि हिंसा निषिद्धैवेति हिंसायुक्तं दर्शपूर्णमासज्योतिष्टोमादि सर्वं दुष्टमेव। विहितस्यापि निषिद्धत्वं निषिद्धस्यापि च विहितत्वं श्येनादिवदुपपन्नमेव। तथाहिश्येनेनाभिचरन्यजेत इत्याद्यभिचारविधिना विहितोऽपि श्येनादिःन हिंस्यात्सर्वाभूतानि इति निषेधविषयत्वादनर्थहेतुरेव? तद्दोषसहिष्णोरेव च रागद्वेषादिवशीकृतस्य तत्राधिकारः? एवं ज्योतिष्टोमादावपि। तथाचोक्तं महाभारतेजपस्तु सर्वधर्मेभ्यः परमो धर्म उच्यते। अहिंसया हि भूतानां जपयज्ञः प्रवर्तते इति। मनुनापिजप्येनैव तु संसिध्येद्ब्राह्मणो नात्र संशयः। कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते इति वदता मैत्रीमहिंसां प्रशसंता हिंसाया दुष्टत्वमेव प्रतिपादितम्। अन्तःकरणशुद्धिश्चेदृशेन गायत्रीजपादिना सुतरामुपपत्स्यत इति हिंसादिदोषदुष्टं ज्योतिष्टोमादि नित्यं कर्म दोषासहिष्णुना श्येनादिकमिव कर्माधिकारिणापि त्याज्यमिति प्राप्ते ब्रूमः। न क्रत्वर्था हिंसाऽनर्थहेतुः विधिस्पृष्टे निषेधानवकाशात्। तथाहि विधिना बलवदिच्छाविषयसाधनताबोधरूपां प्रवर्तनां कुर्वताऽनर्थसाधने तदनुपपत्तेः स्वविषयस्य प्रवर्तनागोचरस्यानर्थसाधनत्वाभावोऽप्यर्थादाक्षिप्यते तेन विधिविषयस्य नानर्थहेतुत्वं युज्यते। नहि क्रत्वर्थत्वं साक्षाद्विध्यर्थो येन विरोधो न स्यात् किंतु प्रवर्तनेनैव। प्रवर्तनाकर्मभूता तु पुरुषप्रवृत्तिः पुरुषार्थमेव विषयीकुर्वती क्वचित्क्रतुमपि पुरुषार्थसाधनत्वेन पुरुषार्थभावमापन्नं विषयीकरोतीत्यन्यत्। पुरुषप्रवृत्तिश्च बलवदिच्छोपधानदशायां जायमाना न भाव्यस्यार्थहेतुतामाक्षिपति न वाऽनर्थहेतुतां प्रतिक्षिपति? किंतु यथाप्राप्तमेवावलम्बते। बलवदिच्छाविषये स्वत एव प्रवृत्तेः स्वर्गादौ विध्यनपेक्षणात्। अतएव विहितश्येनफलस्यापि शत्रुवधरूपस्याभिचारस्यानर्थहेतुत्वमुपपद्यत एव? फलस्य विधिजन्यप्रवृत्तिविषयत्वाभावात्। विधिजन्यप्रवृत्तिविषयं तु धात्वर्थं करणं प्रवर्तनावलम्बते सा चानर्थहेतुं न विषयीकरोतीति विशेषविधिबाधितं सामान्यनिषेधवाक्यं रागद्वेषादिमूलाक्रत्वर्थलौकिकहिंसाविषयं? तेन श्येनाग्नीषोमीययोर्वैषम्यादुपपन्नमदुष्टत्वं? ज्योतिष्टोमादेर्विधिस्पृष्टस्यापि निषेधविषयत्वे षोडशिरग्रहणस्याप्यनर्थहेतुत्वापत्तिः? नातिरात्रे षोडशिनं गृह्णातीति निषेधात्। तस्मान्न किंचिदेतदिति भाट्टदर्शनम्। प्राभाकरं तु दर्शनं फलसाधने रागत एव प्रवृत्तिसिद्धेर्न नियोगस्य प्रवर्तकत्वं? तेन श्येनस्य रागजन्यप्रवृत्तिविषयत्वेन विधेरौदासीन्यान्न तस्यानर्थहेतुत्वं विधिना प्रतिक्षिप्यते। अग्नीषोमीयहिंसायां तु क्रत्वङ्गभूतायां फलसाधनत्वाभावे रागाभावाद्विधिरेव प्रवर्तकः। स च स्वविषयस्यानर्थहेतुतां प्रतिक्षिपतीति प्रधानभूता हिंसानर्थं जनयति न क्रत्वर्थेति न हिंसामिश्रत्वेन ज्योतिष्टोमादेर्दुष्टत्वमिति सममेव। एतावन्मात्रे तु विशेषःचोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः इत्यत्रार्थपदव्यावर्त्यत्वेनाधर्मत्वं श्येनादेः प्राभाकरमते। भाट्टमते तु श्येनफलस्यैवाभिचारस्यानर्थहेतुत्वादधर्मत्वं? श्येनस्य तु विहितस्य समीहितसाधनस्य धर्मत्वमेवार्थपदव्यावर्त्यत्वं तु कलञ्जभक्षणादेर्निषिद्धस्यैवेति। फलतोऽनर्थहेतुत्वेन तु शिष्टानां श्येनादौ न धर्मत्वेन व्यवहारः। तदुक्तंफलतोऽपि च यत्कर्म नानर्थेनानुबध्यते। केवलप्रीतिहेतुत्वात्तद्धर्म इति कथ्यते इति। तार्किकाणां तु दर्शनं कृतिसाध्यत्वमर्थहेतुत्वमनर्थाहेतुत्वं चेति त्रयं विध्यर्थः। तत्र क्रत्वर्थहिंसायां साक्षान्निषेधाभावात्प्रायश्चित्तानुपदेशाच्च कृतिसाध्यत्वार्थहेतुत्ववदनर्थाहेतुत्वमपि विधिना बोध्यत इति न तस्यानर्थहेतुत्वम्। श्येनादेस्त्वभिचारस्य साक्षादेव निषेधात्प्रायश्चित्तोपदेशाच्चानर्थहेतुत्वावगमात्तावन्मात्रं तत्र विधिना न बोध्यत इत्युपपन्नं श्येनाग्नीषोमयोर्वैलक्षण्यम्। औपनिषदैस्तु भाट्टमेव दर्शनं व्यवहारे प्रायेणावलम्बितम्। तथाच भगवद्बादरायणप्रणीतं सूत्रंअशुद्धमिति चेन्न शब्दात् इति ज्योतिष्टोमादिकर्माग्नीषोमीयहिंसादिमिश्रितत्वेन दुष्टमितिचेत् न।अग्नीषोमीयं पशुमालभेत इत्यादिविधिशब्दादित्यक्षरार्थः। जपप्रशंसापरं तु वाक्यं न,क्रत्वर्थहिंसाया अधर्मत्वबोधकं तस्य तत्रातात्पर्यात्। तथाच सांख्यानां विहिते निषिद्धत्वज्ञानमनर्थाहेतावनर्थहेतुज्ञानं धर्मे चाधर्मत्वज्ञानमनुष्ठेये चाननुष्ठेयत्वज्ञानं विपर्यासरूपो मोहः। तस्मान्मोहान्नित्यस्य कर्मणो यः परित्यागः स तामसः परिकीर्तितः। मोहो हि तमः।
।।18.7।।एवं निश्चितार्थमुक्त्वा पूर्वोक्तत्रैविध्यमाह -- नियतस्येति त्रयेण। नियतस्य तु? नियतस्य भक्त्यङ्गत्वेनोक्तस्य पुनः कर्मणः सन्न्यासस्त्यागो नोपपद्यते न उप समीपे भगवतः पद्यते? प्राप्तो भवतीत्यर्थः। अतस्तादृशकर्मणस्त्याग एव मोक्षार्थक इति मोहात् भ्रमेण यस्तस्य परित्यागः स तामसः अज्ञानात्मकः परिकीर्तितः।
।।18.7।। --,नियतस्य तु नित्यस्य संन्यासः परित्यागः कर्मणः न उपपद्यते? अज्ञस्य पावनत्वस्य इष्टत्वात्। मोहात् अज्ञानात् तस्य नियतस्य परित्यागः -- नियतं च अवश्यं कर्तव्यम्? त्यज्यते च? इति विप्रतिषिद्धम् अतः मोहनिमित्तः परित्यागः तामसः परिकीर्तितः मोहश्च तमः इति।।
।।18.7।।कवीनां मतं दूषयति -- नियतस्येति। कामोपनिबन्धेनापि वेदेन नियन्त्रितस्य नियमविहितस्य तु कर्मणः स्वरूपतस्त्यागः सन्न्यासः कार्य इत्युक्तः कविभिः स नोपपद्यते? ब्रह्मवादिनां वैदिकानां क्वचिदप्यंशे वेदोक्तस्यापरित्यागात्। यदि मोहादज्ञानात्तामसात्तस्य वैदिकस्य कर्मणस्त्यागः श्रौतेन क्रियमाणः स्यात्तदा मोहहेतुकत्वात् स त्यागस्तामसः परिकीर्तितः? तमःकार्यभूतेन मोहेन जायमानत्वात्प्रमादमोहौ तमसो भवतः [14।17] इत्यादिवाक्यात् प्रत्यवायावहश्चेति पर्युपसर्गार्थः।