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As Krishna says, patience is a virtue
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्।।18.8।।
duḥkham ity eva yat karma kāya-kleśha-bhayāt tyajet sa kṛitvā rājasaṁ tyāgaṁ naiva tyāga-phalaṁ labhet
He who abandons action out of fear of bodily trouble (because it is painful), does not obtain the merit of renunciation by performing such Rajasic renunciation.
18.8 दुःखम् (it is) painful? इति thus? एव even? यत् which? कर्म action? कायक्लेशभयात् from fear of bodily trouble? त्यजेत् abandons? सः he? कृत्वा performing? राजसम् Rajasic? त्यागम् abandonment? न not? एव even? त्यागफलम् the fruit of abandonment? लभेत् obtains.Commentary Phalam Fruit or reward Moksha or emancipation which is the reward of renunciation of all actions accompanied with wisdom.Determination and persistence are reired for the performance of religious duties and actions. One may begin action but may relinish it before it is completed on account of some difficulties or physical suffering. What then is Sattvic renunciation The Lord says --
।।18.8।। व्याख्या -- दुःखमित्येव यत्कर्म -- यज्ञ? दान आदि शास्त्रीय नियत कर्मोंको करनेमें केवल दुःख ही भोगना पड़ता है? और उनमें है ही क्या क्योंकि उन कर्मोंको करनेके लिये अनेक नियमोंमें बँधना पड़ता है और खर्चा भी करना पड़ता है -- इस प्रकार राजस पुरुषको उन कर्मोंमें केवल दुःखहीदुःख दीखता है। दुःख दीखनेका कारण यह है कि उनका परलोकपर? शास्त्रोंपर? शास्त्रविहित कर्मोंपर और उन कर्मोंके परिणामपर श्रद्धाविश्वास नहीं होता।,कायक्लेशभयात्त्यजेत् -- राजस मनुष्यको शास्त्रमर्यादा और लोकमर्यादाके अनुसार चलनेसे शरीरमें क्लेश अर्थात् परिश्रमका अनुभव होता है (टिप्पणी प0 876)। राजस मनुष्यको अपने वर्ण? आश्रम आदिके धर्मका पालन करनेमें और मातापिता? गुरु? मालिक आदिकी आज्ञाका पालन करनेमें पराधीनता और दुःखका अनुभव होता है तथा उनकी आज्ञा भङ्ग करके जैसी मरजी आये? वैसा करनेमें स्वाधीनता और सुखका अनुभव होता है। राजस मनुष्योंके विचार यह होते हैं कि गृहस्थमें आराम नहीं मिलता? स्त्रीपुत्र आदि हमारे अनुकूल नहीं हैं अथवा सब कुटुम्बी मर गये हैं? घरमें काम करनेके लिये कोई रहा नहीं? खुदको तकलीफ उठानी पड़ती है? इसलिये साधु बन जायँ तो आरामसे रहेंगे? रोटी? कपड़ा आदि सब चीजें मुफ्तमें मिल जायँगी? परिश्रम नहीं करना पड़ेगा कोई ऐसी सरकारी नौकरी मिल जाय? जिससे काम कम करना पड़े और रुपये आरामसे मिलते रहें? हम काम न करें तो भी उस नौकरीसे हमें कोई छुड़ा न सके? हम नौकरी छोड़ देंगे तो हमें पेंशन मिलती रहेगी? इत्यादि। ऐसे विचारोंके कारण उन्हें घरका कामधन्धा करना अच्छा नहीं लगता और वे उसका त्याग कर देते हैं।यहाँ शङ्का होती है कि ज्ञानप्राप्तिके साधनोंमें दुःख और दोषको बारबार देखनेकी बात कही है (गीता 13। 8) और यहाँ कर्मोंमें दुःख देखकर उनका त्याग करनेको राजस त्याग कहा है अर्थात् कर्मोंके त्यागका निषेध किया है -- इन दोनों बातोंमें परस्पर विरोध प्रतीत होता है। इसका समाधान है कि वास्तवमें इन दोनोंमें विरोध नहीं है? प्रत्युत इन दोनोंका विषय अलगअलग है। वहाँ (गीता 13। 8 में) भोगोंमें दुःख और दोषको देखनेकी बात है और यहाँ नियत कर्तव्यकर्मोंमें दुःखको देखनेकी बात है। इसलिये वहाँ भोगोंका त्याग करनेका विषय है और यहाँ कर्तव्यकर्मोंका त्याग करनेका विषय है। भोगोंका तो त्याग करना चाहिये? पर कर्तव्यकर्मोंका त्याग कभी नहीं करना चाहिये। कारण कि जिन भोगोंमें सुखबुद्धि और गुणबुद्धि हो रही है? उन भोगोंमें बारबार दुःख और दोषको देखनेसे भोगोंसे वैराग्य होगा? जिससे परमात्मतत्त्वकी प्राप्त होगी परन्तु नियत कर्तव्यकर्मोंमें दुःख देखकर उन कर्मोंका त्याग करनेसे सदा पराधीनता और दुःख भोगना पड़ेगा -- यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः (गीता 3। 9)। तात्पर्य यह हुआ कि भोगोंमें दुःख और दोष देखनेसे भोगासक्ति छूटेगी? जिससे कल्याण होगा और कर्तव्यमें दुःख देखनेसे कर्तव्य छूटेगा? जिससे पतन होगा।कर्तव्यकर्मोंका त्याग करनेमें तो राजस और तामस -- ये दो भेद होते हैं? पर परिणाम(आलस्य? प्रमाद? अतिनिद्रा आदि) में दोनों एक हो जाते हैं अर्थात् परिणाममें दोनों ही तामस हो जाते हैं? जिसका फल अधोगति होता है -- अधो गच्छन्ति तामसाः (गीता 14। 18)।एक शङ्का यह भी हो सकती है कि सत्सङ्ग? भगवत्कथा? भक्तचरित्र सुननेसे किसीको वैराग्य हो जाय तो वह प्रभुको पानेके लिये आवश्यक कर्तव्यकर्मोंको भी छोड़ देता है और केवल भगवान्के भजनमें लग जाता है। इसलिये उसका वह कर्तव्यकर्मोंका त्याग राजस कहा जाना चाहिये ऐसी बात नहीं है। सांसारिक कर्मोंको छोड़कर जो भजनमें लग जाता है? उसका त्याग राजस या तामस नहीं हो सकता। कारण कि भगवान्को प्राप्त करना मनुष्यजन्मका ध्येय है अतः उस ध्येयकी सिद्धिके लिये कर्तव्यकर्मोंका त्याग करना वास्तवमें कर्तव्यका त्याग करना नहीं है? प्रत्युत असली कर्तव्यको करना है। उस असली कर्तव्यको करते हुए आलस्य? प्रमाद आदि दोष नहीं आ सकते क्योंकि उसकी रुचि भगवान्में रहती है। परन्तु राजस और तामस त्याग करनेवालोंमें आलस्य? प्रमाद आदि दोष आयेंगे ही क्योंकि उसकी रुचि भोगोंमें रहती है।स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् -- त्यागका फल शान्ति है। राजस मनुष्य त्याग करके भी त्यागके फल(शान्ति) को नहीं पाता। कारण कि उसने जो त्याग किया है? वह अपने सुखआरामके लिये ही किया है। ऐसा त्याग तो पशुपक्षी आदि भी करते हैं। अपने सुखआरामके लिये शुभकर्मोंका त्याग करनेसे राजस मनुष्यको शान्ति तो नहीं मिलती? पर शुभकर्मोंके त्यागका फल दण्डरूपसे जरूर भोगना पड़ता है।
।।18.8।। यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य कर्म को दुखदायक समझकर कायाक्लेश के भय से त्याग दे? तो उसका त्याग राजस कहा जायेगा। इसका अभिप्राय यह है कि यदि कर्तव्य कर्म दुखदायक और थकाने वाले न हों? तो रजोगुणी पुरुष उन्हें करने में तत्पर रहेगा? परन्तु कर्मशील पुरुष होकर जो अपनी व्यक्तिगत सुखसुविधाओं का त्याग नहीं कर सकता? उसे श्रेष्ठ और साहसी पुरुष कदापि नहीं कहा जा सकता। ऐसे कर्मों का कोई विशेष पुरस्कार नहीं मिलता। भगवान् तो कहते हैं? वह अपने त्याग का कोई फल प्राप्त नहीं करता है।वस्तुत अपने कर्तव्यों का पालन ही महानतम त्याग है? और विशेषत तब वह और भी अधिक श्रेष्ठ बन जाता है? जब मनुष्य को अपनी शारीरिक सुख सुविधाओं का भी त्याग करना पड़ता है। स्वयं अर्जुन भी युद्ध करने में संकोच करके अपने कर्तव्य से विमुख हो रहा था। इस प्रकार? उसका त्याग राजस श्रेणी का ही कहा जा सकता था।वास्तविक त्याग हमें सदैव आत्माभिव्यक्ति के विशालतर क्षेत्र में पहुँचाता है? जहाँ हम श्रेष्ठतर दिव्य आनन्द का अनुभव कर सकते हैं। त्याग के द्वारा ही एक कली खिलकर फूल बन जाती है? और वह फूल अपनी कोमल पंखुड़ियों और मनमोहक सुगन्ध का त्याग कर ही फल के सम्पन्न पद को प्राप्त होता हैं।
।।18.8।।इतश्च नित्यकर्मत्यागो नाज्ञस्य संभवतीत्याह -- किञ्चेति। ननु मोहं विनैव दुःखात्मकं कर्म कायक्लेशभयात्त्यजति। करणानि हि कार्यं जनयन्ति श्राम्यन्ति च? तथाच न तत्त्यागस्तामसो युक्तस्तत्राह --,दुःखमित्येवेति। यत्कर्म दुःखात्मकमशक्यसाध्यमित्येवालोच्य ततो निवर्तते देहस्येन्द्रियाणां च क्लेशात्मनो भयात्त्यजति स तत्त्यक्त्वा रजोनिमित्तं त्यागं कृत्वापि न तत्फलं मोक्षं लभते? किंतु कृतेनैव राजसेन त्यागेन तदनुरूपं नरकं प्रतिपद्यत इत्याह -- दुःखमित्येवेत्यादिना।
।।18.8।।एवं तामसत्यागप्रकारमुक्त्वा राजसं तमाह -- दुःखमिति। मोहाभावेऽपि दुःखमेवेति मत्वा यत्कर्म कायक्लेशभयाच्छरीरदुःखभयात्त्यजेत्। यदित्यव्ययं वा। यस्त्यजेदित्यर्थः। स राजसं रजोनिर्वत्तं त्यागं कृत्वा ज्ञानपूर्वकस्य सर्वकर्मत्यागस्य फलं मोक्षाख्यं नैव लभेत्। एवकारेणैतादृशत्यागवता मोक्षाशापि न कर्तव्येति सूचयति।
।।18.8।।एवं तामसं त्यागमुक्त्वा राजसं त्यागमाह -- दुःखमिति। यः दुःखरूपमेवेदं कर्मेति मत्वा कालक्लेशभयात् यत्त्यजेत् स पुमान् तस्मादेव हेतोः राजसं रजोगुणनिर्वृत्तं त्यागं कृत्वा त्यागफलं चित्तशुद्धिद्वारा मोक्षं नैव लभेत् लभेत।
।।18.8।।यद्यपि परम्परया मोक्षसाधनभूतं कर्म तथापि दुःखात्मकद्रव्यार्जनसाध्यत्वात् बह्वायासरूपतया कायक्लेशकरत्वात् च मनसः अवसादकरम् इति तद्भीत्या योगनिष्पत्तये ज्ञानाभ्यास एव यतनीय इति यो महायज्ञाद्याश्रमकर्म परित्यजेत् स राजसं रजोमूलं त्यागं कृत्वा तद् अयथा अवस्थितशास्त्रार्थरूपम् इति ज्ञानोत्पत्तिरूपं त्यागफलं न लभेत्।अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।। (गीता 18।31) इति हि वक्ष्यते। न हि कर्म दृष्टद्वारेण मनःप्रसादहेतुः। अपि तु भगवत्प्रसादद्वारेण।
।।18.8।।राजसं त्यागमाह -- दुःखमिति। अकर्त्रात्मबोधं विना केवलं दुःखमित्येवं ज्ञात्वा शरीरायासभयान्नित्यं कर्म त्यजेदिति यत्तादृशस्त्यागो राजसः? दुःखस्य राजसत्वात्। अतस्तं राजसं त्यागं कृत्वा राजसः पुरुषस्त्यागस्य फलं ज्ञाननिष्ठालक्षणं नैव लभत इत्यर्थः।
।।18.8।।तदेवमन्तरङ्गतया स्वरूपशब्दव्यपदेश्यस्वरूपनिरूपकधर्मप्राणप्रदधर्मवैपरीत्याभावेऽपि निरूपितस्वरूपविशेषकधर्मवैपरीत्येन राजसीं बुद्धिं वक्ष्यमाणामनुस्मरन् राजसत्यागं विवृणोति -- यद्यपीत्यादिना।दुःखमित्येव इत्यवधारणात्कायक्लेशभयात् इति चोक्तेरधर्मत्वमोहोऽत्र नास्तीति फलितम्।अर्थानामार्जने दुःखम् [म.भा.3।2।44] इत्याद्यनुसारेणाऽऽह -- दुःखात्मकेति।मनसोऽवसादकरमिति -- अनवसादो हि विवेकादिसाधनसप्तके गणित इति भावः। अन्तरङ्गबहिरङ्गविरोधे बहिरङ्गत्यागो युक्त इत्यभिप्रायेणाऽऽह -- ज्ञानाभ्यास एवेति।यथोक्तान्यपि कर्माणि परिहास्य द्विजोत्तम। आत्मज्ञाने शमे च स्याद्वेदाभ्यासे च यत्नवान् इत्यनुवादवाक्यान्यस्य मूलम्।स कृत्वा राजसं त्यागम् इत्यनुवादविवक्षितमाह -- अयथावस्थितेति। वक्ष्यमाणसात्त्विकत्यागफलमिह त्यागफलशब्देन विवक्षितम्? मुमुक्षुप्रकरणत्वात्कर्मत्यागे तत्साध्यस्वर्गादिफलस्य प्रसङ्गाभावाच्चेत्यभिप्रायेणाऽऽह -- ज्ञानोत्पत्तिरूपमिति। दुःखात्मकत्वादिप्रयुक्तमनोवसादशङ्कां परिहरति -- नहीति।फलसम्बिभत्सया हि इत्याद्युक्तक्रमेण कर्मभिः प्रसादितो भगवान्मनसो़ऽनवसादमेव करोतीत्यर्थः।
।।18.4 -- 18.11।।तदत्रैव विशेषनिर्णयाय मतान्युपन्यस्यति -- त्याज्यमिति। दोषवत् हिंसादिमत्त्वात् ( S हिंसादित्त्वात ?N हिंसादिसत्त्वात् ) पापयुक्तम्। तत् कर्म,( S??N substitutes फलं for कर्म ) त्याज्यम्? न सर्वं शुभफलम् इति केचित् त्यागे विशेषं मन्यन्ते सांख्यगृह्या इव। अन्ये तु मीमांसककञ्चुकानुप्रविष्टाः ( K मीमांसाकंचुक -- ) -- क्रत्वर्थोऽहि शास्त्रादवगम्यते ( S. IV? i? 2 ) इति। तथातस्माद्या वैदिकी हिंसा -- ( SV. I? i? 2? verse 23 )इत्यादिनयेन इतिकर्तव्यतांशभागिनी हिंसा ( S??N omit हिंसा ) हिंसैव न भवति। न हिंस्यात् इति सामान्यशास्त्रस्य तत्र बाधनात् श्येनाद्येव तु ( श्येन द्येव न तु ) हिंसा।फलांशे भावनायाश्च प्रत्ययोऽनुविधायकः ( SV? I? i? 2? verse 222 ) इति। अ [ तोऽ ] न्यान् हिंसादियोगिनोऽपि न त्यजेत्। शास्त्रैकशरणकार्याकार्यविभागाः पण्डिता इति मन्यन्ते।।3।।निश्चयमित्यादि अभिधीयते इत्यन्तम्। तत्र त्वयं निश्चयः -- प्राग्लक्षितगुणस्वरूपवैचित्र्यात् त्यागस्यैव सत्त्वरजस्तमोमय्या चित्तवृत्त्या क्रियमाणस्य तद्विशिष्टस्वभावावभासित [ त्वात् ] वस्तुस्थित्या त्यागो नाम परब्रह्मविदां ( ? N परमब्रह्म -- ) सिद्ध्यसिद्ध्यादिषु समतया रागद्वेषपरिहारेण फलप्रेप्साविरहेण ( फलप्रेक्षा) कर्मणां निर्वर्त्तनम्। अत एव आह -- राजसं तामसं च त्यागं कृत्वा न कश्चित् ( न किंचित् ) [ त्याग ] फलसंबन्धः? इति। सात्त्विकस्य तु त्यागात् ( त्यागस्य )। शास्त्रार्थपालनात्मकं फलम्। त्यक्तगुणग्रामग्रहस्य पुनर्मुनेः सत्यतः त्यागवाचो युक्तिरुपपत्तिमती।
।।18.8।।दुःखमिति। पूर्वोक्तमोहाभावेऽप्यनुपजातान्तःकरणशुद्धितया कर्माधिकृतोऽपि दुःखमेवेदमिति मत्वा कायक्लेशभयान्नित्यं कर्म त्यजेदिति यत् स त्यागो राजसः। दुःखं हि रजोऽतः स मोहरहितोऽपि राजसः पुरुषस्तादृशं राजसं त्यागं कृत्वा नैव त्यागफलं सात्त्विकत्यागस्य फलं ज्ञाननिष्ठालक्षणं नैव लभेन्न लभेत।
।।18.8।।राजसमाह -- दुःखमित्येवेति। त्यागो भगवदासक्त्या भगवदर्थक इत्यज्ञात्वा दुःखमित्येव लौकिकराजससुखप्रतिबन्धकं ज्ञात्वा कायक्लेशभयात् आयाससाध्यभयेन यत्कर्म यस्त्यजेत्? स राजसं त्यागं कृत्वा त्यागफलं मत्प्रसादादिरूपं न लभेदेव? न प्राप्नोत्येवेत्यर्थः।
।।18.8।। --,दुःखम् इति एव यत् कर्म कायक्लेशभयात् शरीरदुःखभयात् त्यजेत्? सः कृत्वा राजसं रजोनिर्वर्त्यं त्यागं नैव त्यागफलं ज्ञानपूर्वकस्य सर्वकर्मत्यागस्य फलं मोक्षाख्यं न लभेत् नैव लभेत।।कः पुनः सात्त्विकः त्यागः इति? आह --,
।।18.8।।प्रसङ्गादेव राजसमप्याह -- दुःखमिति। नियतस्यैव यस्य परम्परया मोक्षसाधनभूतस्यापि दुःखात्मकद्रव्यार्जनसाध्ययज्ञात्मकतया बह्वायासरूपतया च त्यागो राजसः रजोहेतुकत्वाद्राजसं त्यागं कृत्वा तत्फलं ज्ञाननिष्ठालक्षणं न लभेत सत्त्वसञ्जातत्वाज्ज्ञानस्येत्यर्थः।