BG - 18.9

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः।।18.9।।

kāryam ity eva yat karma niyataṁ kriyate ‘rjuna saṅgaṁ tyaktvā phalaṁ chaiva sa tyāgaḥ sāttviko mataḥ

  • kāryam - as a duty
  • iti - as
  • eva - indeed
  • yat - which
  • karma niyatam - obligatory actions
  • kriyate - are performed
  • arjuna - Arjun
  • saṅgam - attachment
  • tyaktvā - relinquishing
  • phalam - reward
  • cha - and
  • eva - certainly
  • saḥ - such
  • tyāgaḥ - renunciation of desires for enjoying the fruits of actions
  • sāttvikaḥ - in the mode of goodness
  • mataḥ - considered

Translation

Whatever obligatory action is done, O Arjuna, merely because it ought to be done, abandoning attachment and also the desire for reward, that renunciation is regarded as sattvic (pure).

Commentary

By - Swami Sivananda

18.9 कार्यम् ought to be done? इति thus? एव even? यत् which? कर्म action? नियतम् obligatory? क्रियते is performed? अर्जुन O Arjuna? सङ्गम् attachment? त्यक्त्वा abandoning? फलम् fruit? च and? एव even? सः that? त्यागः abandonment? सात्त्विकः Sattvic (pure)? मतः is regarded.Commentary A man of pure nature performs actions that have fallen to his lot in accordance with his capacity and his inherent nature. He is not filled with the pride that he is the performer of such actions nor does he hope for any gain therefrom.An ignorant man may think that the obligatory duties may produce their fruits for the performer by causing selfpurification and preventing the sin of omission or nonperformance. This sort of thinking and expectation of rewards also must be abandoned. Abandonment of the rewards of actions is praised in this verse.When a man does obligatory duties without agency and with unselfishness and egolessness his,mind is purified? his Antahkarana is prepared for the reception of the divine light or the dawn of Selfknowledge. He gradually becomes fit for devotion to knowledge (JnanaNishtha).The aspirant or seeker after liberation should be prepared to undergo physical sufferings. All acts of selfdiscipline and selfsacrifice entail physical suffering.This? again? is the central teaching of the Gita -- do your duty without attachment and selfish desires.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।18.9।। व्याख्या --   कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन -- यहाँ कार्यम् पदके साथ इति और एव ये दो अव्यय लगानेसे यह अर्थ निकलता है कि केवल कर्तव्यमात्र करना है। इसको करनेमें कोई फलासक्ति नहीं? कोई स्वार्थ नहीं और कोई क्रियाजन्य सुखभोग भी नहीं। इस प्रकार कर्तव्यमात्र करनेसे कर्ताका उस कर्मसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। ऐसा होनेसे वह कर्म बन्धनकारक नहीं होता अर्थात् संसारके साथ सम्बन्ध नहीं जुड़ता। कर्म तथा उसके फलमें आसक्त होनेसे ही बन्धन होता है -- फले सक्तो निबध्यते (गीता 5। 12)।शास्त्रविहित कर्मोंमें भी देश? काल? वर्ण? आश्रम? परिस्थितिके अनुसार जिसजिस कर्ममें जिसजिसकी नियुक्ति की जाती है? वे सब नियत कर्म कहलाते हैं जैसे -- साधुको ऐसा करना चाहिये? गृहस्थको ऐसा करना चाहिये? ब्राह्मणको अमुक काम करना चाहिये? क्षत्रियको अमुक काम करना चाहिये इत्यादि। उन कर्मोंको प्रमाद? आलस्य? उपेक्षा? उदासीनता आदि दोषोंसे रहित होकर तत्परता और उत्साहपूर्वक करना चाहिये। इसीलिये भगवान् कर्मयोगके प्रसङ्गमें जगहजगह समाचर शब्द दिया है (गीता 3। 9? 19)।सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव -- सङ्गके त्यागका तात्पर्य है कि कर्म? कर्म करनेके औजार (साधन) आदिमें आसक्ति? प्रियता? ममता आदि न हो और फलके त्यागका तात्पर्य है कि कर्मके परिणामके साथ सम्बन्ध न हो अर्थात् फलकी इच्छा न हो। इन दोनोंका तात्पर्य है कि कर्म और फलमें आसक्ति तथा इच्छाका त्याग हो।स त्यागः सात्त्विको मतः (टिप्पणी प0 877) -- कर्म और फलमें आसक्ति तथा कामनाका त्याग करके कर्तव्यमात्र समझकर कर्म करनेसे वह त्याग सात्त्विक हो जाता है। राजस त्यागमें कायक्लेशके भयसे और,तामस त्यागमें मोहपूर्वक कर्मोंका स्वरुपसे त्याग किया जाता है परन्तु सात्त्विक त्यागमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग नहीं किया जाता? प्रत्युत कर्मोंको सावधानी एवं तत्परतासे? विधिपूर्वक? निष्कामभावसे किया जाता है। सात्त्विक त्यागसे कर्म और कर्मफलरूप शरीरसंसारसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। राजस और तामस त्यागमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेसे केवल बाहरसे कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद दीखता है परन्तु वास्तवमें (भीतरसे) सम्बन्धविच्छेद नहीं होता। इसका कारण यह है कि शरीरके कष्टके भयसे कर्मोंका त्याग करनेसे कर्म तो छूट जाते हैं? पर अपने सुख और आरामके साथ सम्बन्ध जुड़ा ही रहता है। ऐसे ही मोहपूर्वक कर्मोंका त्याग करनेसे कर्म तो छूट जाते हैं? पर मोहके साथ सम्बन्ध जुड़ा रहता है। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेपर बन्धन होता है और कर्मोंको तत्परतासे विधिपूर्वक करनेपर मुक्ति (सम्बन्धविच्छेद) होती है। सम्बन्ध --   छठे श्लोकमें एतानि और अपि तु पदोंसे कहे गये यज्ञ? दान? तप आदि शास्त्रविहित कर्मोंके करनेमें और शास्त्रनिषिद्ध तथा काम्य कर्मोंका त्याग करनेमें क्या भाव होना चाहिये यह आगेके श्लोकमें बताते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।18.9।। सात्त्विक पुरुष इस भावना से कर्म करते हैं कि नियत कर्मों का पालन करना कर्तव्य है और उनका त्याग करना अत्यन्त अपमान जनक एवं लज्जास्पद कार्य है। कर्तव्य के त्याग को वे अपनी मृत्यु ही मानते हैं। ऐसे अनुप्राणित पुरुषों का त्याग सात्त्विक कहलाता है।कर्मों में कुछ अपरिहार्य प्रतिबन्ध होते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण का उपदेश केवल इतना ही है कि हमको इन प्रतिबन्धों के बिना अपने कर्म करते रहना चाहिए। अभिप्राय यह है कि कर्म फल से आसक्ति होने पर ही वह कर्म हमें बन्धन में बद्ध कर सकता है? अन्यथा नहीं। अत? वास्तविक त्याग फलासक्ति का होना चाहिए? कर्मों का नहीं। इसीलिए? आसक्ति रहित कर्तव्यों के पालन को यहाँ सात्विक त्याग कहा गया है। भगवान् के उपदेशानुसार? अपने मन में स्थित स्वार्थ? कामना? आसक्ति आदि का त्याग ही यथार्थ त्याग है जिसके द्वारा हमें अपने परमानन्द स्वरूप की प्राप्ति होती है। यह त्याग कुछ ऐसा ही है? जैसे हम अन्न को ग्रहण कर क्षुधा का त्याग करते हैं अहंकार और स्वार्थ का त्याग करके कर्तव्यों के पालन से मनुष्य अपनी वासनाओं का क्षय करता है और आन्तरिक शुद्धि को प्राप्त करता है। इस प्रकार? त्याग तो मनुष्य को और अधिक शक्तिशाली और कार्यकुशल बना देता है।किस प्रकार यह सात्त्विक पुरुष आत्मानुभव को प्राप्त करता है सुनो

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।18.9।।कर्मत्यागस्तामसो राजसश्चेति द्विविधो दर्शितः? संप्रति सात्त्विकं त्यागं प्रश्नपूर्वकं वर्णयति -- कः पुनरिति। कर्तव्यमित्येवेत्येवकारेण नित्यस्य भाव्यान्तरं निषिध्यते। नित्यानां विध्युद्देशे फलाश्रवणात्तेषां फलं त्यक्त्वेत्ययुक्तमित्याशङ्क्याह -- नित्यानामिति। फलं त्यक्त्वेत्यस्य विधान्तरेण तात्पर्यमाह -- अथवेति। नहि विधिना कृतं कर्मानर्थकं विध्यानर्थक्यात्तेन श्रौतफलाभावेऽपि नित्यं कर्म विधितोऽनुतिष्ठन्नात्मानमजानन्ननुपहतमनस्त्वोक्त्या तस्मिन्कर्मण्यात्मसंस्कारं फलं कल्पयति तदकरणे प्रत्यवायस्मृत्या तत्करणं कर्तुरात्मनस्तन्निवृत्तिं करोतीति वा नित्ये कर्मण्युक्तां कल्पनामनुनिष्पादितफलकल्पनां च फलं त्यक्त्वेत्यस्य भगवान्निवारयतीत्यर्थः। नित्यकर्मसु फलत्यागोक्तेः संभवे फलितमाह -- अत इति। कर्मतत्फलत्यागस्य त्यागसंन्यासशब्दाभ्यां प्रकृतस्य त्यागो हीति त्रैविध्यं प्रतिज्ञाय प्रतिज्ञानुरोधेन द्वे विधे व्युत्पाद्य तृतीयां विधां तद्विरोधेन व्युत्पादयतो भगवतोऽकौशलमापतितमिति शङ्कते -- नन्विति। प्रक्रमप्रतिकूलमुपसंहारवचनमनुचितमित्यत्र दृष्टान्तमाह -- यथेति। पूर्वोत्तरविरोधेन प्राप्तमकौशलं प्रत्यादिशति -- नैष दोष इति। कर्मत्यागफलत्यागयोस्त्यागत्वेन सादृश्यात्कर्मत्यागनिन्दया तत्फलत्यागस्तुत्यर्थमिदं वचनमित्युपगमान्न विरोधोऽस्तीत्युक्तमेव व्यक्तीकुर्वन्नादौ त्यागसामान्यं विशदयति -- अस्तीति। सति सामान्ये निर्देशस्य स्तुत्यर्थत्वं समर्थयते -- तत्रेति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।18.9।।एवं राजसत्यागप्रकारमुक्त्वा सात्त्विकं तमाह -- कार्यमिति। सङ्गं कर्तत्वाभिनिवेशं फलं च त्यक्त्वा वाहय कार्यं कर्तव्यमित्येव नियतं नित्यं यत्कर्म क्रियते स त्यागः सात्त्विको मतः। ननु नित्यानां विध्युद्देशे फलावश्रवणात्तेषां फलं त्यक्त्वेति कथमुक्तमिति चेत् नित्यानां कर्मणां फलवत्त्वे भगवद्वचनं प्रमाणमिति गृहाण। अन्यथा भगवद्वजनमनर्थकं स्यात्। यद्वा विधिना कृतस्य कर्मण आनर्थक्ये विध्यानर्तक्यप्रसङ्गात्। श्रौतफलाभावेऽपि कर्माधिकृतोज्ञो नित्यं कर्मकृतमात्मसंस्कारं प्रत्यवायपरिहारं च फलं कर्तुः करोतीति कल्पयति तामपि कल्पनां निवारयति भगवान् फलं त्यक्त्वेति। अयमेव त्यागश्चित्तशुद्धिहेतुरिति सूचनार्थमर्जुनेति संबोधनम्। ननु कर्मपरित्यागस्त्रिविधो मत इति त्यागस्य त्रैविध्यं प्रस्तुत्य सङ्गफलत्यागस्य तृतीयत्वेन कथनमयुक्तम्। यथा त्रयो ब्राह्मणा आगतास्तत्र सषडङ्गवेदविदौ द्वौ क्षत्रियस्तृतीय इति तद्वदिति चेन्नैष दोषः। कर्मसंन्यासस्य सङ्गफलत्यागस्य च त्यागसामान्येन राजसतामसत्वेन राजसतामसत्वेन कर्मत्यागनिन्दया सङ्गफलत्यागस्य तृतीयत्वेन प्रदर्शनस्य सात्त्विकत्वेन स्तुत्यर्थत्वादित्येवमाचार्यैः प्रतिज्ञातं त्यागत्रविध्यं त्रिभिः श्लोकैः प्रदर्शितम्। केचित्तु विशिष्टाभावरुपपत्यागो विशेषणाभावाद्विशेष्याभावादुभयाभावाच्च त्रिविधः संप्रकीर्तितः। तथाहि फलाभिसंधिपूर्वककर्मत्यागः सत्यपि कर्मणि फलाभिसंधित्यागादेकः। सत्यपि फलाभिसंधौ कर्मत्यागाद्वितीयः।,फलाभिसंधेः कर्मणश्च त्यागात्तृतीयः। तत्र प्रथमः सात्त्विक आदेयत्वेनात्रैव विधित्सितः। द्वितीयस्तु नैष्कर्म्यसिद्धिं परमामित्यत्र वक्ष्यति इति वर्णयन्ति। अस्मिन्पक्षे एकस्मिन्द्वयोरन्तर्भावं कृत्वा तृतीयः प्रदेशान्तरे प्रक्षिप्त इति प्रतिज्ञाया अनिर्वाहो भगवतो महदकौशलतापादको द्रष्टव्यः।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।18.9।।एवं द्वाभ्यां श्लोकाभ्यां तामसराजसौ मुख्यावेव त्यागावुक्तौ। तामसराजसयोरमुख्यत्यागयोरसंभवस्य भगवतैव मोहात्तस्य परित्याग इति कायक्लेशभयाः त्यजेदिति च सूचनात्। नह्येवं संभवति। मूढश्च करोति चेति विप्रतिषेधात्। यदि करोति नैव मूढः? यदि मूढस्तर्हि नैव करोति। एवं यदि कायक्लेशाद्बिभेति नैव करोति? यदि करोति नैव कायक्लेशाद्बिभेति तस्मात्करोति च कायक्लेशाद्बिभेति चेति विप्रतिषिद्धम्। अतस्तामसराजसयोरमुख्यत्यागयोरसंभवात्तौ नैवोक्तौ। सात्त्विकस्त्वमुख्यत्यागः संभवति। यथा स्फटिके जपाकुसुमाश्रिते लौहित्यं विवेकिनां प्रतीतित एवास्ति न वस्तुत एवमात्मनि ईश्वराधीने विवेकिनां कर्तृत्वं प्रतीतित एवास्ति न वस्तुत इति वक्तुं शक्यम्। एवंच कर्तृत्वाभिनिवेशशून्यः पुमान् प्रतीतितः करोत्येव न वस्तुत इति संभवत्यमुख्योऽपि सात्त्विकस्त्याग इति तमेव मुख्यत्यागेऽधिकारहेतुं प्रथममाह -- कार्यमिति। कार्यं कर्तव्यमित्येव यत्कर्म नियतं नित्यं क्रियते हे अर्जुन? सङ्गं फलं च त्यक्त्वैवेत्यवधारणं प्रागुक्तस्यात्यागपक्षस्य व्यावृत्त्यर्थम्। स एवंभूतस्त्यागः सात्त्विको मतः वेदे दृष्टः। तथा च श्रुतिःईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् इति। ईशा ईशेन परमेश्वरेण सर्वकार्यकरणकर्त्रात्मप्रवर्तकेन इदं जगत्स्थावरजंगमं जगत्यां ब्रह्माण्डे स्थितं वास्यमाच्छादितं व्याप्तम्। येन हेतुना सर्वं तदधीनं तेन कारणेन त्यक्तेन त्यागेन कर्तृत्वभोक्तृत्वाभिमानवर्जनेन भुञ्जीथाः विषयान्भुङ्क्ष। मा गृधः गर्धं मा कार्षीः। कस्यस्विद्धनं न कस्यापि तत्र स्वामित्वमस्तीति वृथैव तत्र गर्ध इत्यर्थः। एवं कर्माण्यपि यज्ञादीनि कर्तृत्वाभिमानं त्यक्त्वा कुर्वतस्तव कर्मलेपो न भविष्यति। एतद्व्यतिरेकेण तव उपायान्तरं च नास्तीत्यग्रिममन्त्रेण प्रदर्श्यतेकुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे इति। इदमेव मुख्यं स्वमतं भगवता प्रदर्शितम्। एतान्यपि तु कर्माणीति श्लोके। ननु नित्यानां फलमेव नास्ति किं त्यक्तव्यमिति चेत्। इतएव भगवद्वचनात्तेषामपि फलमस्तीति जानीहि। निष्फलस्य वेदेनानुष्ठापनासंभवात्। तथाचापस्तम्बःतद्यथाम्रे फलार्थं निमित्ते छायागन्धावनूत्पद्येते एवं धर्मं चर्यमाणमर्था अनूत्पद्यन्ते इति आनुषङ्गिकं फलं नित्यानां दर्शयति। अकरणे प्रत्यवायस्मृत्यापि तेषां प्रत्यवायपरिहारः फलमिति प्रदर्श्यते।धर्मेण पापमपनुदति इत्यादिना च नित्येष्वपि कर्मसु फलं दृश्यते तदेव वक्तव्यमिति न कोऽपि दोषः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।18.9।।नित्यनैमित्तिकमहायज्ञादिवर्णाश्रमविहितं कर्म मदाराधनरूपतया कार्यं स्वयंप्रयोजनम् इति मत्वा सङ्गं कर्मणि ममतां फलं च त्यक्त्वा यत् क्रियते स त्यागः सात्त्विको मतः स सत्त्वमूलः। यथावस्थितशास्त्रार्थज्ञानमूल इत्यर्थः।सत्त्वं हि यथावस्थितवस्तुज्ञानम् उत्पादयति इति उक्तम् -- सत्त्वात् सञ्जायते ज्ञानम् (गीता 14।17) इति। वक्ष्यते च -- प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये। बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।। (गीता 18।30) इति।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।18.9।।सात्त्विकं त्यागमाह -- कार्यमिति। कार्यमित्येवं बुद्ध्वा नियतमवश्यकर्तव्यतया विहितं कर्म सङ्गं फलं च त्यक्त्वा क्रियत इति यत् तादृशस्त्यागः सात्त्विको मतः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।18.9।।अथत्यागो हि [18।4] इत्यादिना स्मारितमेवोद्धृत्य सत्त्वकार्ययथावस्थितज्ञानमूलतया तस्यैव शास्त्रीयत्वं द्रढयति -- कार्यमित्येव इति श्लोकेन।नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते [18।7] इति प्रक्रमादिहापि नियतशब्दः कर्मविशेषणमिति तदर्थमाहनित्येति। आहत्य कार्यत्वं हि प्रयोजनस्यैव। तदर्थतयैव हि साधनस्य कार्यता तस्मादफलस्य कथं कर्तव्यत्वं इत्यत्राऽऽह -- मदाराधनरूपतया कार्यमिति। तदभिप्रेतमाहस्वयम्प्रयोजनमिति। कर्तृत्वत्यागोऽप्यत्रानुसन्धेयः। अत एव ह्यनन्तरश्लोकेत्यागी इति शब्दः सङ्गफलकर्तृत्वत्यागीति व्याख्यायते।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।18.4 -- 18.11।।तदत्रैव विशेषनिर्णयाय मतान्युपन्यस्यति -- त्याज्यमिति। दोषवत् हिंसादिमत्त्वात् ( S हिंसादित्त्वात ?N हिंसादिसत्त्वात् ) पापयुक्तम्। तत् कर्म,( S??N substitutes फलं for कर्म ) त्याज्यम्? न सर्वं शुभफलम् इति केचित् त्यागे विशेषं मन्यन्ते सांख्यगृह्या इव। अन्ये तु मीमांसककञ्चुकानुप्रविष्टाः ( K मीमांसाकंचुक -- ) -- क्रत्वर्थोऽहि शास्त्रादवगम्यते ( S. IV? i? 2 ) इति। तथातस्माद्या वैदिकी हिंसा -- ( SV. I? i? 2? verse 23 )इत्यादिनयेन इतिकर्तव्यतांशभागिनी हिंसा ( S??N omit हिंसा ) हिंसैव न भवति। न हिंस्यात् इति सामान्यशास्त्रस्य तत्र बाधनात् श्येनाद्येव तु ( श्येन द्येव न तु ) हिंसा।फलांशे भावनायाश्च प्रत्ययोऽनुविधायकः ( SV? I? i? 2? verse 222 ) इति। अ [ तोऽ ] न्यान् हिंसादियोगिनोऽपि न त्यजेत्। शास्त्रैकशरणकार्याकार्यविभागाः पण्डिता इति मन्यन्ते।।3।।निश्चयमित्यादि अभिधीयते इत्यन्तम्। तत्र त्वयं निश्चयः -- प्राग्लक्षितगुणस्वरूपवैचित्र्यात् त्यागस्यैव सत्त्वरजस्तमोमय्या चित्तवृत्त्या क्रियमाणस्य तद्विशिष्टस्वभावावभासित [ त्वात् ] वस्तुस्थित्या त्यागो नाम परब्रह्मविदां ( ? N परमब्रह्म -- ) सिद्ध्यसिद्ध्यादिषु समतया रागद्वेषपरिहारेण फलप्रेप्साविरहेण ( फलप्रेक्षा) कर्मणां निर्वर्त्तनम्। अत एव आह -- राजसं तामसं च त्यागं कृत्वा न कश्चित् ( न किंचित् ) [ त्याग ],फलसंबन्धः? इति। सात्त्विकस्य तु त्यागात् ( त्यागस्य )। शास्त्रार्थपालनात्मकं फलम्। त्यक्तगुणग्रामग्रहस्य पुनर्मुनेः सत्यतः त्यागवाचो युक्तिरुपपत्तिमती।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।18.9।।कर्मत्यागस्तामसो राजसश्च हेयो दर्शितः? कीदृशः पुनरुपादेयः सात्त्विकस्त्याग इत्युच्यते -- विध्युद्देशे फलाश्रवणेऽपि कार्यं कर्तव्यमेवेति बुद्ध्वा नियतं नित्यं कर्मसङ्गं कर्तृत्वाभिनिवेशं फलं च त्यक्त्वैव यत्क्रियतेऽन्तःकरणशुद्धिपर्यन्तं स त्यागः सात्त्विकः सत्त्वनिर्वृत्तो मत आदेयत्वेन संमतः शिष्टानाम्। ननु नित्यानां फलमेव नास्ति कथं फलं त्यक्त्वेत्युक्तम्। उच्यते। अस्मादेव भगवद्वचनान्नित्यानां फलमस्तीति गम्यते निष्फलस्यानुष्ठानासंभवात्। तथाचापस्तम्बःतद्यथाम्रे फलार्थे निमिते छायागन्ध इत्यनूत्पद्यत एवं धर्मं चर्यमाणमर्था अनूत्पद्यन्ते इत्यानुषङ्गिकं फलं नित्यानां दर्शयति। अकरणे प्रत्यवायस्मृतिश्च। नित्यानां प्रत्यवायपरिहारं फलं दर्शयतिधर्मेण पापमपनुदति तस्माद्धर्मं परमं वदन्ति येन केचन जयेतापि वा दर्वीहोमेनानुपहतमना एव भवति तदाहुर्देवयाजी श्रेयानात्मयाजीत्यात्मयाजीतिह ब्रूयात्सह वा आत्मयाजी यो वेदेदं मेऽनेनाङ्ग ्ँ स ्ँ स्क्रियत इदमनेनाङ्गमुपधीयते इत्यादयः श्रुतयश्च ज्ञानप्रतिबन्धकपापक्षयलक्षणं ज्ञानयोग्यतारूपपुण्योत्पत्तिलक्षणं चात्मसंस्कारं नित्यानां कर्मणां फलं दर्शयन्ति? तदभिसधिं त्यक्त्वा तान्यनुष्ठेयानीत्यर्थः। यदुक्तंत्यागसंन्यासशब्दौ घटपटशब्दाविव न भिन्नजातीयार्थौ किंतु फलाभिसन्धिपूर्वककर्मत्याग एव तयोरर्थ इति। तन्न विस्मर्तव्यम्। तत्र सत्यपि फलाभिसन्धौ मोहाद्वा कायक्लेशभयाद्वा यः कर्मत्यागः स विशेष्याभावकृतो विशिष्टाभावस्तामसत्वेन राजसत्वेन च निन्दितः। यस्तु सत्यपि कर्मणि फलाभिसन्धित्यागः स विशेषणाभावकृतो विशिष्टाभावः सात्त्विकत्वेन स्तूयत इति विशेष्याभावकृते विशेषणाभावकृते च विशिष्टाभावत्वस्य समानत्वान्न पूर्वापरविरोधः। उभयाभावकृतस्तु निर्गुणत्वान्न विरोधमध्ये गणनीय इति चावोचाम। एतेनत्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः इति प्रतिज्ञाय कर्मत्यागलक्षणे द्वे विधे दर्शयित्वा प्रतिज्ञाननुरूपां कर्मानुष्ठानलक्षणां तृतीयां विधामदर्शयतो भगवतः प्रकटमकौशलमापतितं नहि भवति? त्रयो ब्राह्मणा भोजयितव्या द्वौ कठकौण्डिन्यौ तृतीयः क्षत्रिय इति तद्वदिति परास्तम्। तिसृणामपि विधानां विशिष्टाभावरूपेण त्यागसामान्येनैकजातीयतया प्राग्व्याख्यातत्वात्। तस्माद्भगवदकौशलोद्भावनमेव महदकौशलमिति द्रष्टव्यम्।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।18.9।।सात्त्विकमाह -- कार्यमित्येवेति। नियतं भक्त्यङ्गत्वेन कार्यमित्येव मदाज्ञात्वेनावश्यकर्त्तव्यमेव? एवं ज्ञात्वा सङ्गं त्यक्त्वा तत्कर्तृत्वाभिमानं फलं तज्जं स्वर्गादिसुखं च त्यक्त्वा यत्कर्म क्रियते स त्याग एव सात्त्विकः? मदाज्ञारूपकरणेन स्वार्थफलाभावात् सात्त्विकः। अतएव मतः मत्सम्मत इत्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।18.9।। --,कार्यं कर्तव्यम् इत्येव यत् कर्म नियतं नित्यं क्रियते निर्वर्त्यते हे अर्जुन? सङ्गं त्यक्त्वा फलं च एव। एतत् नित्यानां कर्मणां फलवत्त्वे भगवद्वचनं प्रमाणम् अवोचाम। अथवा? यद्यपि फलं न श्रूयते नित्यस्य कर्मणः? तथापि नित्यं कर्म कृतम् आत्मसंस्कारं प्रत्यवायपरिहारं वा फलं करोति आत्मनः इति कल्पयत्येव अज्ञः। तत्र तामपि कल्पनां निवारयति फलं त्यक्त्वा इत्यनेन। अतः साधु उक्तम् सङ्गं त्यक्त्वा फलं च इति। सः त्यागः नित्यकर्मसु सङ्गफलपरित्यागः सात्त्विकः सत्त्वनिर्वृत्तः मतः अभिप्रेतः।।ननु कर्मपरित्यागः त्रिविधः संन्यासः इति च प्रकृतः। तत्र तामसो राजसश्च उक्तः त्यागः। कथम् इह सङ्गफलत्यागः तृतीयत्वेन उच्यते यथा त्रयो ब्राह्मणाः आगताः? तत्र षडङ्गविदौ द्वौ? क्षत्रियः तृतीयः इति तद्वत्। नैष दोषः त्यागसामान्येन स्तुत्यर्थत्वात्। अस्ति हि कर्मसंन्यासस्य फलाभिसंधित्यागस्य च त्यागत्वसामान्यम्। तत्र राजसतामसत्वेन कर्मत्यागनिन्दया कर्मफलाभिसंधित्यागः सात्त्विकत्वेन स्तूयते स त्यागः सात्त्विको मतः (गीता 18।9) इति।।यस्तु अधिकृतः सङ्गं त्यक्त्वा फलाभिसंधिं च नित्यं कर्म करोति? तस्य फलरागादिना अकलुषीक्रियमाणम् अन्तःकरणं नित्यैश्च कर्मभिः संस्क्रियमाणं विशुध्यति। तत् विशुद्धं प्रसन्नम् आत्मालोचनक्षमं भवति। तस्यैव नित्यकर्मानुष्ठानेन विशुद्धान्तःकरणस्य आत्मज्ञानाभिमुखस्य क्रमेण यथा तन्निष्ठा स्यात्? तत् वक्तव्यमिति आह --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।18.9।।विचक्षणाभिमतं त्यागं सात्त्विकतयाऽऽह -- कार्यमिति। नित्यनैमित्तिकमहायज्ञादिवर्णाश्रमविहितं कर्म भगवदाज्ञया तदाराधनरूपत्वात् कर्तव्यमिति यत्क्रियते हेऽर्जुन शुद्धस्वरूप तदप्युक्तप्रकारेणेत्याह -- सङ्गं कर्मणि ममतां फलं च त्यक्त्वेति। स सात्त्विकः सत्त्वहेतुकत्वात्। एवमपि पुष्टिपुरुषोत्तमश्रयण(ग्रहण)मेव सर्वं सन्न्यस्य निर्गुणस्त्यागस्तदाज्ञापरिपालनरूप इत्याचार्याभिमतः।