न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।18.11।।
na hi deha-bhṛitā śhakyaṁ tyaktuṁ karmāṇy aśheṣhataḥ yas tu karma-phala-tyāgī sa tyāgīty abhidhīyate
Indeed, it is not possible for an embodied being to completely abandon actions; however, he who relinquishes the rewards of actions is truly called a man of renunciation.
18.11 न not? हि verily? देहभृता by an embodied being? शक्यम् possible? त्यक्तुम् to abandon? कर्माणि actions? अशेषतः entirely? यः who? तु but? कर्मफलत्यागी relinisher of the fruits of actions? सः he? त्यागी relinisher? इति thus? अभिधीयते is called.Commentary He who has assumed a human body and yet grumbles at having to perform actions is verily a fool. Can fire that is endowed with heat as its natural property ever think of getting rid of it So long as you are living in this body you cannot entirely relinish action. Lord Krishna says to Arjuna Nor can anyone? even for an instant remain actionless for helplessly is everyone driven to action by the alities born of Nature (Cf.III.5). Nature (and your own nature? too) will urge you to do actions. You will have to abandon the idea of agency and the fruits of actions. Then you are ite safe. No action will bind you.The ignorant man who identifies himself with the body and who thinks that he is himself the doer of all actions should not abandon actions. It is impossible for him to relinish actions. He will have to perform all the prescribed duties while relinishing their fruits.Dehabhrita A wearer of the body An embodied being? i.e.? he who identifies himself with the body. A man who has discrimination between the Real and the unreal? the Eternal and the transient? cannot be called a bodywearer? because he does not think that he is the doer of actions -- vide chapter II.21 (He who knows Him Who is indestructible? eternal? unborn? undiminishing -- how can that man slay? O Arjuna? or cause to be slain).When the ignorant man who is alified for action does the prescribed duties? relinishing the desire for the fruits of his actions? he is called a Tyagi? although he is active. This title Tyagi is given to him for the sake of courtesy.The relinishment of all actions is possible only for him who has attained Selfrealisation and who is? therefore? not a wearer of the body? i.e.? does not hink that the body is the Self. (Cf.III.5)
।।18.11।। व्याख्या -- न हि देहभृता (टिप्पणी प0 879.1) शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः -- देहधारी अर्थात् देहके साथ तादात्म्य रखनेवाले मनुष्योंके द्वारा कर्मोंका सर्वथा त्याग होना सम्भव नहीं है क्योंकि शरीर प्रकृतिका कार्य है और प्रकृति स्वतः क्रियाशील है। अतः शरीरके साथ तादात्म्य (एकता) रखनेवाला क्रियासे रहित कैसे हो सकता है हाँ? यह हो सकता है कि मनुष्य यज्ञ? दान? तप? तीर्थ आदि कर्मोंको छोड़ दे परन्तु वह खानापीना? चलनाफिरना? आनाजाना? उठनाबैठना? सोनाजागना आदि आवश्यक शारीरिक क्रियाओंको कैसे छोड़ सकता हैदूसरी बात? भीतरसे कर्मोंका सम्बन्ध छोड़ना ही वास्तवमें छोड़ना है। बाहरसे सम्बन्ध नहीं छोड़ा जा सकता। यदि बाहरसे सम्बन्ध छोड़ भी दिया जाय तो वह कबतक छूटा रहेगा जैसे कोई समाधि लगा ले तो उस समय बाहरकी क्रियाओंका सम्बन्ध छूट जाता है। परन्तु समाधि भी एक क्रिया है? एक कर्म है क्योंकि इसमें प्रकृतिजन्य कारणशरीरका सम्बन्ध रहता है। इसलिये समाधिसे भी व्युत्थान होता है।कोई भी देहधारी मनुष्य कर्मोंका स्वरूपसे सम्बन्धविच्छेद नहीं कर सकता (गीता 3। 5)। कर्मोंका आरम्भ किये बिना? निष्कर्मता (योगनिष्ठा) प्राप्त नहीं होती और कर्मोंका त्याग करनेमात्रसे सिद्धि (सांख्यनिष्ठा) भी प्राप्त नहीं होती (गीता 3। 4)।मार्मिक बातपुरुष (चेतन) सदा निर्विकार और एकरस रहनेवाला है परन्तु प्रकृति विकारी और सदा परिवर्तनशील है। जिसमें अच्छी रीतिसे क्रियाशीलता हो? उसको प्रकृति कहते हैं -- प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः।उस प्रकृतिके कार्य शरीरके साथ जबतक पुरुष अपना सम्बन्ध (तादात्म्य) मानता रहेगा? तबतक वह कर्मोंका सर्वथा त्याग कर ही नहीं सकता। कारण कि शरीरमें अहंताममता होनेके कारण मनुष्य शरीरसे होनेवाली प्रत्येक क्रियाको अपनी क्रिया मानता है? इसलिये वह कभी किसी अवस्थामें भी क्रियारहित नहीं हो सकता।दूसरी बात? केवल पुरुषने ही प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ा है। प्रकृतिने पुरुषके साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ा है। जहाँ विवेक रहता है? वहाँ पुरुषने विवेककी उपेक्षा करके प्रकृतिसे सम्बन्धकी सद्भावना कर ली अर्थात् सम्बन्धको सत्य मान लिया। सम्बन्धको सत्य माननेसे ही बन्धन हुआ है। वह सम्बन्ध दो तरहका होता है -- अपनेको शरीर मानना और शरीरको अपना मानना। अपनेको शरीर माननेसे अहंता और शरीरको अपना माननेसे ममता होती है। इस अहंताममतारूप सम्बन्धका घनिष्ठ होना ही देहधारीका स्वरूप है। ऐसा देहधारी मनुष्य कर्मोंको सर्वथा नहीं छोड़ सकता।यस्तु (टिप्पणी प0 879.2) कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते -- जो किसी भी कर्म और फलके साथ अपना सम्बन्ध नहीं रखता? वही त्यागी है। जबतक मनुष्य कुशलअकुशलके साथ? अच्छेमन्देके साथ अपना सम्बन्ध रखता है? तबतक वह त्यागी नहीं है।यह पुरुष जिस प्राकृत क्रिया और पदार्थको अपना मानता है? उसमें उसकी प्रियता हो जाती है। उसी,प्रियताका नाम है -- आसक्ति। यह आसक्ति ही वर्तमानके कर्मोंको लेकर कर्मासक्ति और भविष्यमें मिलनेवाले फलकी इच्छाको लेकर फलासक्ति कहलाती है। जब मनुष्य फलत्यागका उद्देश्य बना लेता है? तब उसके सब कर्म संसारके हितके लिये होने लगते हैं? अपने लिये नहीं। कारण कि उसको यह बात अच्छी तरहसे समझमें आ जाती है कि कर्म करनेकी सबकीसब सामग्री संसारसे मिली है और संसारकी ही है? अपनी नहीं। इन कर्मोंका भी आदि और अन्त होता है तथा उनका फल भी उत्पन्न और नष्ट होनेवाला होता है परन्तु स्वयं सदा निर्विकार रहता है न उत्पन्न होता है? न नष्ट होता है और न कभी विकृत ही होता है। ऐसा विवेक होनेपर फलेच्छाका त्याग सुगमतासे हो जाता है। फलका त्याग करनेमें उस विवेककी मनुष्यमें कभी अभिमान भी नहीं आता क्योंकि कर्म और उसका फल -- दोनों ही अपनेसे प्रतिक्षण वियुक्त हो रहे हैं अतः उनके साथ हमारा सम्बन्ध वास्तवमें है ही कहाँ इसीलिये भगवान् कहते हैं कि जो कर्मफलका त्यागी है? वही त्यागी कहा जाता है।निर्विकारका विकारी कर्मफलके साथ सम्बन्ध कभी था नहीं? है नहीं? हो सकता नहीं और होनेकी सम्भावना भी नहीं है। केवल अविवेकके कारण सम्बन्ध माना हुआ था। उस अविवेकके मिटनेसे मनुष्यकी अभिधा अर्थात् उसका नाम त्यागी हो जाता है -- स त्यागीत्यभिधीयते। माने हुए सम्बन्धके विषयमें दृष्टान्तरूपसे एक बात कही जाती है। एक व्यक्ति घरपरिवारको छोड़कर सच्चे हृदयसे साधुसंन्यासी हो जाता है तो उसके बाद घरवालोंकी कितनी ही उन्नति अथवा अवनति हो जाय अथवा सबकेसब मर जायँ? उनका नामोनिशान भी न रहे? तो भी उसपर कोई असर नहीं पड़ता। इसमें विचार करें कि उस व्यक्तिका परिवारके साथ जो सम्बन्ध था? वह दोनों तरफसे माना हुआ था अर्थात् वह परिवारको अपना मानता था और परिवार उसको अपना मानता था। परन्तु पुरुष और प्रकृतिका सम्बन्ध केवल पुरुषकी तरफसे माना हुआ है? प्रकृतिकी तरफसे माना हुआ नहीं जब दोनों तरफसे माना हुआ (व्यक्ति और परिवारका) सम्बन्ध भी एक तरफसे छोड़नेपर छूट जाता है? तब केवल एक तरफसे माना हुआ (पुरुष और प्रकृतिका) सम्बन्ध छोड़नेपर छूट जाय? इसमें कहना ही क्या है सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें कहा गया कि कर्मफलका त्याग करनेवाला ही वास्तवमें त्यागी है। अगर मनुष्य कर्मफलका त्याग न करे तो क्या होता है -- इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।18.11।। कोई भी देहधारी जीवित प्राणी चाहे वह एक कोषीय जीव ही क्यों न हो समस्त कर्मों का त्याग नहीं कर सकता। कर्म तो जीवन का प्रतीक या लक्षण है। कर्म ही जीवनरूपी पुष्प की सुगन्ध है जहाँ कर्म नहीं है? वहाँ जीवन समाप्त समझा जाता है। कुछ कर्म किये बिना रहना भी अपने आप में एक कर्म ही है। शारीरिक और मानसिक क्रियाएं मरण पर्यन्त होती ही रहती हैं।अत हम देहधारियों को कर्म करने चाहिए या नहीं? ऐसा विकल्प ही संभव नहीं होता। परन्तु हमको कौन से कर्म और किस प्रकार उन्हें करना चाहिए? इस विषय में अवश्य ही विकल्प संभव है। गीता के उपदेशानुसार हमको अपने कर्तव्य कर्म ईश्वरार्पण की भावना से करने चाहिए।अज्ञानी जन देहादि अनात्म उपाधियों को ही अपना स्वरूप समझकर उसमें आसक्त होते हैं तथा उनके कर्मों का कर्ता भी स्वयं को ही मानते हैं। अत ऐसे लोग सात्त्विक त्याग नहीं कर पाते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण का ऐसे लोगों को यह उपदेश है कि उनको कमसेकम कर्मफलों की आसक्ति त्याग कर कर्मों का आचरण परिश्रम? उत्साह एवं कुशलता के साथ करना चाहिए। कर्मफलत्यागी पुरुष ही वास्तव में त्यागी है? न कि कर्मों को त्यागने वाला व्यक्ति।इस त्याग का क्या प्रयोजन है सुनो
।।18.11।।आत्मज्ञानवतः सर्वकर्मत्यागसंभावनामुक्त्वा तद्धीनस्य तदसंभवे हेतुवचनत्वेनानन्तरश्लोकमवतारयति -- यः पुनरिति। न बाधितमात्मनि कर्तृत्वविज्ञानमस्येत्यज्ञस्तथा तस्य भावस्तत्ता तयेति यावत्? एतमर्थं दर्शयितुमज्ञस्य सर्वकर्मसंन्यासासंभवे हेतुमाहेति योजना। यस्मादित्यस्य तस्मादित्युत्तरेण संबन्धः। विवेकिनोऽपि देहधारितया देहभृत्त्वाविशेषे कर्माधिकारः स्यादित्याशङ्क्याह -- नहीति। कर्तृत्वाधिकारस्तत्पूर्वकं कर्मानुष्ठानं तस्मादिति यावत्। ज्ञानवतो देहधारणेऽपि तदभिमानित्वाभावोऽतःशब्दार्थः। अज्ञस्य सर्वकर्मत्यागायोगमुक्तं हेतूकृत्य फलितमाह -- तस्मादिति। कर्मानुष्ठायिनस्त्यागित्वोक्तिरयुक्तेत्याशङ्क्याह -- कर्म्यपीति। कर्मिणापि फलत्यागेन त्यागित्ववचनं फलत्यागस्तुत्यर्थमित्यर्थः। कस्य तर्हि सर्वकर्मत्यागः संभवतीत्याशङ्क्य विवेकवैराग्यादिमतो देहाभिमानहीनस्येत्युक्तं निगमयति -- तस्मादिति।
।।18.11।।तदेवं सात्त्विकत्यागवतः शुद्धिचित्तस्य सर्वकर्मत्यागे मुख्यसंन्यासेऽधिकारं प्रदर्श्याधिकृतस्य देहाभिमानित्वेन देहभृतोऽज्ञस्याबाधितात्मकर्तृत्वविज्ञानतयाहंकर्तेति निश्चितबुद्धेरशेषकर्मपरित्यागस्याशक्यत्वात्? कर्मफलत्यागेन विहितकर्मानुष्ठान देहभृतोऽज्ञस्याबाधितात्मकर्तृत्वविज्ञानतयाहंकर्तेति निश्चितबुद्धेरशेषकर्मपरित्यागस्याशक्यत्वात्? कर्मफलत्यागेन विहितकर्मानुष्ठान एवाधिकारो न त्याग इत्येमर्थं दर्शयितुमाह -- नहीति। हि यस्माद्देहभृता देहं स्वात्मत्वेन विभर्ति धारयतीति देहभृत् देहाभिमानवान् देनाज्ञेनाशेषतः निःशेषेण सर्वाणि कर्माणि त्यक्तुं संन्यसितुं न शक्यते। तस्माद्यस्तवज्ञो देहभृदधिकृतो विहितानि कर्माणि कुर्वन् तत्फलत्यागी कर्मफलाभिसंधिमात्रसंन्यासी स त्यागीत्यभिधीयते। कर्म्यपि सन् त्यागीति स्तुत्यभिप्रायेणोक्तम्। तथाच परमार्थदर्शिना देहाभिमानशून्येनाशेषकर्मसंन्यासः शक्यते कर्तुमिति भावः।
।।18.11।।अन्यस्त्यागार्थो न युक्त इत्याह -- न हीति।
।।18.11।।अमुख्यमेव सात्त्विकं त्यागमनूद्य तत्प्रयोजनमाह द्वाभ्याम् -- नहीति। देहभृता देहाभिमानिना हि यस्मादशेषतः कर्माणि त्यक्तुं न शक्यं अशक्यम्। प्राणयात्रालोपप्रसङ्गात्। तस्मादधिकृतः सन् यः कर्मफलत्यागशीलः। तुशब्द एवार्थे। स एव त्यागीत्युच्यते। यस्त्वशेषतः कर्माणि त्यक्तुं शक्नोति परमार्थदर्शी स मुख्यस्त्यागीत्यर्थः।
।।18.11।।न हि देहभृता ध्रियमाणशरीरेण कर्माणि अशेषतः त्यक्तुं शक्यम् देहधारणार्थानाम् अशनपानादीनां तदनुबन्धिनां च कर्मणाम् अवर्जनीयत्वात् तदर्थं च महायज्ञाद्यनुष्ठानम् अवर्जनीयम्। यः तु तेषु महायज्ञादिकर्मसु फलत्यागी स एवत्यागेनैके अमृतत्वमानशुः (महाना0 8।14) इत्यादिशास्त्रेषु त्यागी इति अभिधीयते।फलत्यागी इति प्रदर्शनार्थः? फलकर्तृत्वकर्मसङ्गानां त्यागी इतित्रिविधः संप्रकीर्तितः इति प्रक्रमात्।ननु कर्माणि अग्निहोत्रदर्शपूर्णमासज्योतिष्टोमादीनि महायज्ञादीनि च स्वर्गादिफलसम्बन्धितया शास्त्रैः विधीयन्ते। नित्यनैमित्तिकानाम् अपिप्राजापत्यं गृहस्थानाम् (वि0 पु0 1।6।37) इत्यादिफलसम्बन्धितया एव हि चोदना। अतः तत्फलसाधनस्वभावतया अवगतानां कर्मणाम् अनुष्ठाने बीजावापादीनाम् इव अनभिसंहितफलस्य अपि इष्टानिष्टरूपफलसम्बन्धः अवर्जनीयः अतो मोक्षविरोधिफलत्वेन मुमुक्षुणा न कर्म अनुष्ठेयम् इति? अत उत्तरम् आह --
।।18.11।।नन्वेवंभूतात्कर्मफलत्यागाद्वरं सर्वकर्मत्यागस्तथा सति कर्मविक्षेपाभावेन ज्ञाननिष्ठा सुखं संपद्यते तत्राह -- नेति। देहभृता देहात्माभिमानवता निःशेषेण सर्वाणि कर्माणि त्यक्तुं नहि शक्यम्। तदुक्तम् -- न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत इत्यादिना। तस्माद्यस्तु कर्माणि कुर्वन्नेव कर्मफलत्यागी स एव मुख्यत्यागीत्यभिधीयते।
।।18.11।।नियतस्य [18।7] इत्यादिप्रतिपादितयुक्तिविवरणपूर्वकं फलत्यागेनोपलक्षणेन प्रागुक्तस्त्रिविधोऽपि सात्त्विकत्यागोनहि इति श्लोकेन निगम्यत इत्याह -- तदाहेति। अत्रदेहभृता इति न प्राणिमात्रनिर्देशः? अनुपयोगात्। अतः कर्मस्वरूपत्यागाशक्यताहेतुरवयवार्थो विवक्षित इत्यभिप्रायेणाऽऽहध्रियमाणशरीरेणेति।शक्यम् इति त्यजनपरत्वान्नपुंसकत्वैकत्वे? सामान्यरूपविवक्षणाद्वा। देहभृत्त्वहेतुकमशक्यत्वं विवृणोतिदेहधारणार्थानामिति। तदनुबन्धिनोऽर्थार्जनादयो भवन्तु लौकिकानि किं शास्त्रीयैः इत्यत्राऽऽहतदर्थं चेति। श्रुतिस्वारस्यहेतुकां स्वरूपत्यागशङ्कां परिहर्तुंयस्तु इत्यादिकमुच्यत इत्यभिप्रायेणाऽऽहयस्त्विति।अभिधीयते इत्यस्य कैरित्याकाङ्क्षाशमनायत्यागेनैके इत्यादिश्रुत्युपपादनम्। प्रक्रान्तनिगमनपरत्वेन प्रदर्शनार्थतां द्रढयति -- त्रिविध इति।
।।18.4 -- 18.11।।तदत्रैव विशेषनिर्णयाय मतान्युपन्यस्यति -- त्याज्यमिति। दोषवत् हिंसादिमत्त्वात् ( S हिंसादित्त्वात ?N हिंसादिसत्त्वात् ) पापयुक्तम्। तत् कर्म,( S??N substitutes फलं for कर्म ) त्याज्यम्? न सर्वं शुभफलम् इति केचित् त्यागे विशेषं मन्यन्ते सांख्यगृह्या इव। अन्ये तु मीमांसककञ्चुकानुप्रविष्टाः ( K मीमांसाकंचुक -- ) -- क्रत्वर्थोऽहि शास्त्रादवगम्यते ( S. IV? i? 2 ) इति। तथातस्माद्या वैदिकी हिंसा -- ( SV. I? i? 2? verse 23 )इत्यादिनयेन इतिकर्तव्यतांशभागिनी हिंसा ( S??N omit हिंसा ) हिंसैव न भवति। न हिंस्यात् इति,सामान्यशास्त्रस्य तत्र बाधनात् श्येनाद्येव तु ( श्येन द्येव न तु ) हिंसा।फलांशे भावनायाश्च प्रत्ययोऽनुविधायकः ( SV? I? i? 2? verse 222 ) इति। अ [ तोऽ ] न्यान् हिंसादियोगिनोऽपि न त्यजेत्। शास्त्रैकशरणकार्याकार्यविभागाः पण्डिता इति मन्यन्ते।।3।।निश्चयमित्यादि अभिधीयते इत्यन्तम्। तत्र त्वयं निश्चयः -- प्राग्लक्षितगुणस्वरूपवैचित्र्यात् त्यागस्यैव सत्त्वरजस्तमोमय्या चित्तवृत्त्या क्रियमाणस्य तद्विशिष्टस्वभावावभासित [ त्वात् ] वस्तुस्थित्या त्यागो नाम परब्रह्मविदां ( ? N परमब्रह्म -- ) सिद्ध्यसिद्ध्यादिषु समतया रागद्वेषपरिहारेण फलप्रेप्साविरहेण ( फलप्रेक्षा) कर्मणां निर्वर्त्तनम्। अत एव आह -- राजसं तामसं च त्यागं कृत्वा न कश्चित् ( न किंचित् ) [ त्याग ] फलसंबन्धः? इति। सात्त्विकस्य तु त्यागात् ( त्यागस्य )। शास्त्रार्थपालनात्मकं फलम्। त्यक्तगुणग्रामग्रहस्य पुनर्मुनेः सत्यतः त्यागवाचो युक्तिरुपपत्तिमती।
।।18.11।।ननुइति मे पार्थ [18।6] इति भगवता स्वसिद्धान्तो निष्ठाङ्कितः? अतोन हि देहभृता इति किमुच्यते इत्यत आह -- अन्य इति। सर्वकर्मपरित्यागलक्षणस्त्यागार्थस्त्यागशब्दार्थः। पूर्वपक्षबीजनिरासार्थमिति शेषः।
।।18.11।।तदेवमात्मज्ञानवतः सर्वकर्मत्यागः संभाव्यते कर्मप्रवृत्तिहेत्वो रागद्वेषयोरभावादित्युक्तं संप्रत्यज्ञस्य कर्मत्यागासंभवे हेतुरुच्यते -- नहीति। मनुष्योऽहं ब्राह्मणोऽहं गृहस्थोऽहमित्याद्यभिमानेनाबाधितेन देहं कर्माधिकारहेतुवर्णाश्रमादिरूपं कर्तृभोक्तृत्वाद्याश्रयं स्थूलसूक्ष्मशरीरेन्द्रियसङ्घातं बिभर्ति अनाद्यविद्यावासनावशाद्व्यवहारयोग्यत्वेन कल्पितमसत्यमपि सत्यतया स्वभिन्नमपि स्वाभिन्नतया पश्यन् धारयति पोषयति चेति देहभृदबाधितकर्माधिकारहेतुर्देहाभिमानस्तेन विवेकज्ञानशून्येन देहभृता कर्मप्रवृत्तिहेतुरागद्वेषपौष्कल्येन सततं कर्मसु प्रवर्तमानेन कर्माण्यशेषतो निःशेषेण त्यक्तुं हि यस्मान्न शक्यं न शक्यानि। सत्यां कारणसामग्र्यां कार्यत्यागस्याशक्यत्वात्। तस्मात् यस्त्वज्ञोऽधिकारी सत्त्वशुद्ध्यर्थं कर्माणि कुर्वन्नपि भगवदनुकम्पया तत्कालफलत्यागी। तुशब्दस्तस्य दुर्लभत्वद्योतनार्थः। स त्यागीत्यभिधीयते। गौण्या वृत्त्या स्तुत्यर्थमत्याग्यपि सन्। अशेषकर्मसंन्यासस्तु परमार्थदर्शित्वेनैव देहभृता शक्यते कर्तुमिति स एव मुख्यया वृत्त्या त्यागीत्यभिप्रायः।
।।18.11।।ननु कर्मफलत्यागे तत्करणं किंप्रयोजनम् इत्यत आह -- न हीति। देहभृता देहाध्यासवता अशेषतः कर्माणि त्यक्तुं न शक्यम्। हीति युक्तश्चायमर्थः। देहाध्यासे फलापेक्षणात् लोकापेक्षणाच्च कथं त्यागः कर्त्तव्यः इति। यतो यस्तु यश्च पुनः कर्मफलत्यागी कृतकर्मणां फलानभिलाषी सत्यागी इति अभिधीयते।
।।18.11।। -- न हि यस्मात् देहभृता? देहं बिभर्तीति देहभृत्? देहात्माभिमानवान् देहभृत् उच्यते? न विवेकी स हि वेदाविनाशिनम् (गीता 2।21) इत्यादिना कर्तृत्वाधिकारात् निवर्तितः। अतः तेन देहभृता अज्ञेन न शक्यं त्यक्तुं संन्यसितुं कर्माणि अशेषतः निःशेषेण। तस्मात् यस्तु अज्ञः अधिकृतः नित्यानि कर्माणि कुर्वन् कर्मफलत्यागी कर्मफलाभिसंधिमात्रसंन्यासी सः त्यागी इति अभिधीयते कर्मी अपि सन् इति स्तुत्यभिप्रायेण। तस्मात् परमार्थदर्शिनैव अदेहभृता देहात्मभावरहितेन अशेषकर्मसंन्यासः शक्यते कर्तुम्।।किं पुनः तत् प्रयोजनम्? यत् सर्वकर्मसंन्यासात् स्यादिति? उच्यते --,
।।18.10 -- 18.11।।एवम्भूतस्य लक्षणमाह -- न द्वेष्टीति। सत्त्वसमाविष्टस्त्यागी बुद्धिमान् अकुशलं कर्मानिष्टफलकं? कुशले चेष्टस्वर्गादिफलके कर्मणि नानुषज्जते? त्यक्तात्मसुखातिरिक्तफलत्वात्? त्यक्तकर्तृत्वाच्च। अत्राकुशलं कर्म प्रमादिनमभिप्रेत्योक्तम् नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः। नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् [कठो.2।24ना.प.9।19महो.4।69] इति दुश्चरिताविरतस्य प्रमादिनो ज्ञानतोऽप्यात्मसुखानवाप्तिश्रवणात्। अतः कर्मणि कर्तृत्वसङ्गफलानां त्यागः शास्त्रीयः? न तु स्वरूपतस्त्याग इति। तदाह -- नहीति। नहि ध्रियमाणदेहेन कर्माण्यशेषतस्त्यक्तुं शक्यन्त इत्यर्थे शक्यमव्ययम्। देहधारणार्थानां अशनपानादीनां तदनुबन्धानां च कर्मणावर्जनीयत्वात्? तदर्थं च महायज्ञादिकर्माप्यवर्जनीयमेव। तत्र यः तेषु यज्ञादिकर्मसु फलत्यागी -- फलेत्युपलक्षणं कर्तृत्वममतयोरपि -- स एष त्यागेनैकेऽमृतत्वमानशुः [महाना.8।14कैव.2] इत्यादौ त्यागीत्यभिधीयते।